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________________ ३० [ समराइच्चकही पणामो। पयट्टो काणणंतराई पुलोइउं । पे छमाणो य विचित्त काणणभाए पत्तो सुकुमारदालुयं अच्चंतसोमदंसणं गिरिसरियापुलिणं । विट्ठा य तत्थ सुपइट्ठियंगुलितला पसत्थलेहालंकिया तक्खणुट्ठिया चेव पयपंती। निरूविधा हरिसियमणेणं, विन्नाया य लहुयसुकुमारभावओ इस्थियाए इयं न उण' परिसस्स। लगो पयमग्गओ। दिवा य नाइदूरम्मि चेव सहिणवक्कलनिवसणा तवियर णयाबदायदे। हियर निभच्छिएण विय चलणतललग्गेण राएण अविभावियसिरागुप्फसंबाहेण मयणभवणतोरणेण वि जाणुजुयलेण रसगाकलावजोग्गेण विउलेणं नियंबभाएणं बहुदिवसोववासखिन्नेण विय किसयरेणं मझेणं सज्जणचित्तगंभीराए विय मयणरसकूवियाए नाहीए तवविणिज्जिएण विय मोहंधयारेण पुणो हिययप्पवेसकामेणं रोमलयामगोण सुकयपरिणामेहि विय समुन्नएहि पओहरेहि अहिणवुग्गयरत्तासोयलयाविन्भमाहिं वाहाहि कंबुपरिमंडलाए सिरोहराए पाडलकुसुमसन्निहेणं अहरेण अच्चंतसच्छविमलाहि कवोलवालीहि हरिणवहूक्यसंविभाएहि विय लोयहि पमाणजुत्तेणं नासियावंसेणं दीहपम्हलाहिं आयड्ढियकोडंडसन्निभाहिं भमुहाहि सुसिणिद्धदंसणेणं चंदसन्निभेण' तिकेन । कृतो देवतागुरुप्रणामः । प्रवृत्तः काननान्तराणि द्रष्टुम् । पश्यंश्च विचित्रान् कानन भागान् प्राप्तः सुकुमारबालुकमत्यन्तसौम्यदर्शनं गिरिसरित्पुलिनम् । दृष्टा च तत्र सुप्रतिष्ठिताङ्गलितला प्रशस्तरेखाऽलंकृता तत्क्षणोत्थितैव पदपंक्तिः। निरूपिता हृषितम् नसा, विज्ञाता च लघुकसुकुमारभावतः स्त्रिया इयं न पुनः पुरषस्य । लग्नः पदमार्गतः । दृष्टा च नातिदूर एव श्लक्ष्ण वल्कलनिवसना, तप्तकनकावदातदेहा हृदयनिभत्सितेनेव चरणतललग्नेन रागेण, अविभावितशिरागुल्फसम्बाधेन मदनभवनतोरणेनेव जानुयुगलेन, रसनाकलापयोग्येन विपुलेन नितम्बभागेन, बहुदिवसोपवासखिन्नेनेव कृशतरेण मध्येन, सज्जनचित्तगम्भीरयेव मदनरसकूपिक या नाभ्या तपोविनिजितेनेव मोहान्धकारेण पुनह दयप्रवेशकामेन रोमलतामार्गेण सुकृतपरिणामाभ्यामिव समुन्नताभ्यां पयोधराभ्याम्, अभिनवोद्गत रक शोकलताविभ्रमाभ्यां बाहुभ्याम्, कम्बुपरिमण्डलया शिरोधरया, पाटलाकुसुमसन्निभेन अधरेण, अत्यन्तस्वच्छविमलाभ्यां कपोलपालीभ्याम्, हरिणवधूकृतसंविभागाभ्यामिव लोचनाभ्याम्, प्रमाणयुक्तेन नासिवावंशेन, दीर्घपक्ष्मलाभ्यामाकृष्टकोदण्डसन्निभाभ्यां लिए चला गया। अनेक प्रकार के वन भागों को देखते हुए पर्वतीय नदी के तट पर आया। उस तट की बालुका कोमल थी, वह देखने में अत्यन्त सौम्य थी । वहाँ प, जिसमें अंगुलियों के तल भाग भली-भाँति प्रतिष्ठित थे, जो प्रशस्त रेखाओं से अलंकृत थी, ऐसी मानो उसी समय उठे हुए परों की पंक्ति को देखा । प्रहर्षितमन होकर (मैंने) देख। । छोटे और सुकुमार पदचिह्न होने के कारण जान लिया कि यह पदपंक्ति स्त्री की है, पुरुष की नहीं । पदचिह्नों पर चल पड़ा और थोड़ी दूर पर ही तपस्विकन्या देखी। वह चमकदार सुन्दर वृक्ष की छाल के वस्त्रों को पहिने हुए थी । ताये हुए सोने के समान स्वच्छ उसकी देह थी। पैरों में लगे हुए राग (महावर) से मानो वह हृदय के प्रति द्वेषभाव रख रही थी। जिनमें नाड़ियों और गांठों की रुकावट दिखाई नहीं पड़ती थी, ऐसी कामदेव के भवन के तोरण के समान दो जांघे थीं। करधनी के समूह के योग विस्तृत नितम्बभाग (कमर के पीछे का उभरा हुआ भाग) था। मानो बहुत उपवास के कारण खिन्न हो- ऐसा अत्यधिक पतला मध्यभाग (कमर) था। सज्जन के चित्त के समान गम्भीर, कामरस की कूपी (छोटा कुआँ) के समान नाभि थी। तप के द्वारा मोहरूपी अन्धकार को जीत लिये जाने पर रोम रूपी लता के मार्ग से पुनः प्रवेश करने की इच्छा वाले पुण्य परिणामों के समान समुन्नत दो स्तन थे । नयी उत्पन्न हुई लाल अशोकलता के विभ्रम वाली दो बाहुएँ थीं। शंख के आकार वाली गर्दन थी। गुलाब के फल के समान लाल अधर था। अत्यन्त स्वच्छ और निर्मल दोनों गाल थे। हरिणांगनाओं के द्वारा किये १. वण-क, २. थ बाहियाहि-क. ३. दुइयाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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