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________________ मए चितियं-'सोहणं संजाय' हि । अवकतासा रयणी। बिइयदियहम्मि य भणिया मए सा-रायपुत्ति, परिच्चय विसायं अवलंबेहि दिई ईइसो एस संसारो। एत्थ खलु सुमिणयसंपत्तितुल्लाओ रिद्धीओ, अमिलाणकुसुममिव खणमेत्तरमणीयं जोव्वणं, विज्जुविलसियं पिर्व' दिट्ठनट्ठाई सुहाई, अणिच्चा पियजणसमागम ति। तीए भणियं-भयवइ; एवमेयं; ता करेहि मे पसायं वयप्पयाणेणं । मए भणियंरायपुत्ति, अलं तव वयगहणेणं। दुन्निवारणीओ पढमजोव्वणस्थस्स पाणिणो मयणबाणपसरो। पुच्छिओ य मए दिव्वनाणसूरो तुझ वुत्ततं सव्वं चेव भयवं कुलवई। साहिओ य तेण सेयवियाहिवसुयदसणाइआ। ता मा संतप्प, भविस्सइ तुह तेण समागमो, जीवइ खु सो दीहाउओ त्ति । तओ परिओसविम्हयसणाहं अच्चंतसोहणमणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमुवगच्छिऊण संकप्पओ असंतं पि ओयारिऊण दिन्नं मम कडयजुयलं, पणामिओ य हारलयानिमित्तं सिरोहराए हत्थो, असंपत्तीए य तस्स समागयं से चित्तं, विलिया य एसा । तओ मए भणियं-- रायपुत्ति, अल संभमेणं, उचिया ख तुमं ईइसस्स तुठ्ठिदाणस्स । ता अमं तबर वयगहणेणं ति । तओ 'जं तुमं आणवेसि' ति पडिस्सुयं सजातम्' इति । अतिक्रान्ता सा रजनो। द्वितीयदिवसे च भणिता मया सा-राजपुत्रि ! परित्यज विषादम्, अबलम्बस्व धृतिम्, ईदृश एष संसारः। अत्र खलु स्वप्नसम्पत्तितुल्या ऋद्धयः, अम्लानकुसुममिव क्षणमात्र रमणायं योवनम्, वि द्विलसितमिव दृष्टनष्टानि सुखानि, अनित्याः प्रियजनसमागमा इति । तया भणितम्-भगवति । एवमेतद्, ततः कुरु मे प्रसादं व्रतप्रदानेन । मया भणितम्-राजत्रि ! अलं तव व्रतग्रहणेन । दुनिवारणीयः प्रथमयौवनस्थस्य प्राणिनो मदनवाणप्रसरः । पृष्टश्च मया दिव्यज्ञानसूरस्तव वृत्तान्तं सर्वमेव भगवान् कुलपतिः। कथितश्च तेन श्वतविकाधिपसुतदर्शनादिकः । ततो मा सन्तप्यस्व, भविष्यति तव तेन समागमः, जीवति खलु स दोर्घायुष्क इति । ततः परितोषविस्मयसनाथमत्यन्तशोभनमनाख्येयमवस्थान्तरमुपगत्य सङ्कल्पतोऽसदपि अवताय दत्तं मह्य कटकयुगलम्, अपितश्च हारलतानिमित्तं शिरोधरायां हस्तः । असम्प्राप्त्या च तस्य समागतं तस्याश्चित्तम्, व्यलीका चैषा। ततो मया भणितम्-राजपुत्रि ! अलं सम्भ्रमेण, उचिता खलुत्वमोदृशस्य तुष्टिदानस्य । ततोऽलं तव व्रतग्रहणेनेति । ततो 'यत् त्वमाज्ञापयसि' इति प्रतिश्रुतं वह रात बीत गयी। दूसरे दिन मैंने उस राजपुत्री से कहा-'राजपुत्री ! विषाद को छोड़ो, धैर्य धारण करो, यह संसार ऐसा ही है । इस संसार में ऋद्धियाँ स्वप्न की सम्पत्ति के तुल्य होती हैं, बिना मुरझाये हुए फूल के समान यौवन क्षणभर के लिए सुन्दर है, सुख बिजली की चमक के साथ देखते ही नष्ट हो जाते हैं, प्रियजनों के समागम अनित्य हैं। उसने कहा-'भगवती ऐसा ही है, अतः व्रतप्रदान द्वारा मेरे ऊपर कृपा करो।' मैंने कहा'राजपुत्री ! तेरे व्रत ग्रहण करने से कोई लाभ नहीं है । यौवन की प्रथम अवस्था में प्राणियों के कामबाण का विस्तार रोकना बहुत कठिन है । दिव्य ज्ञान के सूर्य भगवान् कुलपति से तेरा सब वृत्तान्त मैंने पूछा है । उन्होंने श्वेतविका के राजा के पुत्रदर्शन आदि वृत्तान्त को कहा है । अतः दुःखी मत हो तेरा उसके साथ समागम होगा । वह दीर्घायु जीवित है। तब सन्तोष और विस्मय से युक्त होकर अत्यन्त सुन्दर अनिर्वचनीय अवस्था को पाकर संकल्प न होने पर भी उतारकर उसने मुझे कड़े का जोड़ा दिया और हार-लता के लिए गर्दन में हाथ डाला। उसे जब पति की प्राप्ति नहीं हुई तब उसके मन में यह बात आयी कि यह झूठी है। तब मैने कहा-'राजपुत्री! घबराओ मत, तुम इस प्रकार सन्तोष दिलाने योग्य हो । तुम्हारा व्रतग्रहण करना ठीक नहीं है। तब 'जो आप १.विलसियाई पिव-क, २. ताव- । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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