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________________ [समराइच्चका - यणसंपाइयओवयारं भमंतसगडबलिसहस्ससंकुलं चच्चरसमारद्धविविहलक्खहोम च । तओ मए तत्थ पुच्छिओ एगो विज्जाहरो - भद्द, क्रिमेयं त्ति । तेण भणियं -- सामिणो दुन्नयप लस्स कुसुमुग्गमो ति । मए भणियं कहं विय । तेण भणिवं सुण । जत्थि एत्थ अनंगरई नाम विज्जाहरनयर सामी । तेण मयणवसवणा कस्सइ महापुरिसस विज्जासाहणुज्जयस्स अवहरिऊण पिययमा इहं आणीय ति । अणिच्छमाणि च तं बला गेण्हिउं पवत्तो। एत्यंतरम्मि 'कहा एस' ति अणवेक्खिऊण अहयं पवड्ढमाणको वाणलो 'अरे रे दुट्ठ विज्जाहरा, कहं नए जीवमाणम्मि मम जायं परिहवसि' त्ति 'को एत्थ चिट्ठ; अरे खग्गं खग्गं' ति भणमाणो उट्टओ अमरिसेण पयट्टो अहिमुहं । तओ 'पसीय उ देवो'त्ति जंपियं पवणगइणा । भणियं च तेण देव कहाणयमिणं; न उण केसरिकिसोरजायं पसज्भं सारमेओ अहिवइ । ता कहावसाणं पि ताव निस:मेउ देवो त्ति । तओ विलिऊण उवविट्ठो अहं पुणो । भणियं च तेण - बला गेण्हणपवतस् य 'असमओ' त्ति काऊण उवट्टिया महाकालिविज्जा । ४२४ सर्वायतनसम्पादितपूजोपचारं भ्रमच्छकटबलि सहस्रसंकुलं चत्वरसमारब्धविविधलक्षहोमं च । ततो मया तत्र पृष्टएको विद्याधरो - 'भद्र ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् - स्वामिनो दुर्नयफलस्य कुसुमोद्गम इति । मया भणितम् - कथमिव । तेन भणितम् शृणु । अस्त्यत्र अनङ्गरतिर्नाम विद्याधरनगरस्वामी । तेन मदनवशवर्तिना कस्यचिद महापुरुषस्य विद्यासाधनोद्यतस्य अपहृत्य प्रियतमेहानीतेति । अनिच्छन्तीं च तां बलाद् ग्रहीत प्रवृत्तः । अत्रान्तरे 'कथा एपा' इत्यनवेक्ष्याहं प्रवर्धमानकोपाल: 'अरे रे दुष्ट विद्याधर ! कथं पयि जीवति मम जायां परिभवसि' इति 'कोऽत्र तिष्ठति अरे खङ्गं खड्गमिति भणन्नुत्थितोऽमर्षेण प्रवृत्तोऽभिमुखम् । ततः 'प्रसीदतु देवः' इति जल्पितं पवनगतिना । भणितं च तेन-देव ! कथानकमिदम् न पुनः केसरिकिशोर जायां प्रसह्य सारमेयो:भिभवति । ततः कथावसानमपि तावद् निशामयतु देव इति । ततो व्रीडित्वा उपविष्टोऽहं पुन: । भणितं तेन - बलाद्ग्रहणप्रवृत्तस्य च 'असमयः' इति कृत्वोपस्थिता महाकालीविद्या । सञ्जातो हजारों छकड़ों में देवताओं को उत्सर्ग करने की सामग्री भरी हुई थी और चौराहों पर अनेक प्रकार के लाखों होम प्रारम्भ किये गये थे। तब मैंने वहाँ एक विद्याधर से पूछा - 'भद्र ! यह क्या है ?' उसने कहा - 'स्वामी की दुर्नीति रूपी फल का पुष्पोद्गम ।' मैंने कहा - 'कैसे ?' उसने कहा 'सुनो, यहाँ पर अनंगरति नाम का विद्याधरों के नगर का स्वामी है। वह काम के वश हो विद्या साधने में उद्यत किसी महापुरुष की प्रियता को हरकर यहाँ ले आया । उसके न चाहने पर भी वह उसको बलात् पकड़ने लगा । इसी बीच की कथा यह है - ऐसा देखकर जिसकी क्रोध रूपी अग्नि बढ़ गयी है, ऐसा मैं अरे रे दुष्ट विद्याधर ! मेरे जीवित रहतेतू कैसे मेरी पत्नी का तिरस्कार कर रहा है ? यहाँ पर कौन है ? अरे तलवार, तलवार' - ऐसा कहते हुए मैं क्रोधवश उठ खड़ा हुआ और सामने चला गया । तब महाराज प्रसन्न होइए - ऐसा पवनगति ने कहा और उसने कहा - 'महाराज ! यह कथानक है, सिंह की किशोर पत्नी को ग्रहण करने में कुत्ता समर्थ नहीं होता है । अतः महाराज कथा का अवसान भी सुनें ।' तब मैं लज्जित होकर पुनः बैठ गया । पवनगति ने कहा- 'उस विद्याधर के बलात् ग्रहण करने में प्रवृत्त होने पर यह कोई तरीका नहीं है'-ऐसा मानकर महाकाली विद्या उपस्थित १. गहिउंक । २. पसीयर पसीयउ देवो ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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