________________
७०.
धन्नोऽहं जेण मए अणोरपारम्मि भव समुद्दम्मि । भवस सहस्सदुलहं लद्धं सद्धम्मरयणमिणं ॥ ८६ ॥ एयस्स पभावेण पालिज्जतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मंतरम्मि जीवा पावंति न दुक्खदो गच्चं ॥ ८७ ॥ ता एसो च्चिय सफलो मज्झमणायरणदोसपरिहीणो । सद्धम्मलाभगरुओ जम्मो पाइम्मि संसारे ॥ ८८ ॥ विलिहइ य मज्झ हिययम्मि जो कओ तस्स अग्गिसम्मस्स । परिभवकोवुप्पाओ तवइ अकज्जं कथं पच्छा ॥ ८६ ॥ एहि पुण पडिवन्नो मेति सव्वेसु चेव जीवेसु । जिणवयणाओ अहयं विसेसओ अग्गिसम्मम्मि ॥६०॥ इय सो सुहपरिणामो तेणं विणिवाइओ उ पावेगं । मरिऊणं उववन्नो देवो सोहम्मकप्पम्मि ॥ ६१॥
धन्योऽहं येन मया अनवरपारे भवसमुद्रे | भवशतसहस्रदुर्लभं लब्धं सद्धर्मरत्नमिदम् ॥८६॥ एतस्य प्रभावेण पात्यमानस्य सदा प्रत्यनेन । जन्मान्तरे जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदौर्गत्यम् ॥८७॥ तत एतद् एव सफलं मम अनावरणदोषपरिहीनम् । सद्धर्मलाभगुरुकं जन्म अनादौ संसारे ||८|| विलिखति च मम हृदये यः कृतस्तस्य अग्निशर्मणः । परिभवकोपोत्पादः तपति अकार्यं कृतं पश्चात् ||८६ ॥ इदानीं पुनः प्रतिपन्नो मैत्री सर्वेषु एव जीवेषु । जिनवचनाद् अहं विशेषतः अग्निशर्मणि ॥ ६०
इतः स शुभपरिणामः तेन विनिपातितस्तु पापेन । मृत्वा उपपन्नो देवः सौधर्मकल्पे ||१||
मैं धन्य हूँ जिसने, जिसे लाखों भवों में भी नहीं पाया जा सकता ऐसे, अतिविस्तीर्ण संसाररूपी समुद्र में दुर्लभ सच्चे धर्मरूपी रत्न को पा लिया है। इसके प्रभाव से अथवा इसके प्रयत्न से पालित हुए जीव दूसरे जन्म में दुःखपूर्ण गति को नहीं पाते हैं । अतः अनादि संसार में हृदय में आचरण दोष से रहित भारी सद्धर्म के लाभ से मेरा जन्म सफल ही हुआ है। मैंने अग्निशर्मा का अनादर करके उन्हें जो क्रोध पैदा किया है, वह मेरे हृदय में अंकित है, ( क्योंकि पूर्व में ) किया गया अकार्य बाद में सन्ताप देता है । इस समय जिनेन्द्र भगवान् के वचनानुसार समस्त जीवों में, विशेषकर अग्निशर्मा के प्रति, मंत्री भाव को प्राप्त होता हूँ । उस पापी के द्वारा मारा जाकर वह शुभपरिणामों से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ ॥ ८६-६१।।
Jain Education International
[सम
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org