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________________ मरिऊण वेरिओ वि हु जायइ जणगो', सुओ विहु रिवति । ता अणवदियभावे सयणे संगो ति मोहफलं ॥२४४॥ अन्नं च । सुण, अम्हाणमेव जं वत्तं अस्थि इहेव विजए लच्छिनिलयं नाम नयरं । तत्थ सागरदत्तो नाम सत्थवाहो, सिरिमई से भारिया, ताणं अहं सुओ ति । कुमारभावे वट्टमाणो गओ तन्नयरासन्नमेव लच्छिपव्वयं । दिट्ठो य तत्थ एगम्मि विभागे सिणिद्धपत्तसंचओ, धरापविद्वदीहपायगो, नालिएरिपायवो ति। तं च दटठण सम्प्पन्नं मे कोउयं । चितिय च मए--अहो ! अच्छरियं । एइहमेत्तस्सवि पायवस्स एहमेत्ताओ विभागाओ ओयरिऊण पायओ धरणि पविट्ठो त्ति । ता नूणमेत्थ कारणेण होयव्वं । एत्थंतरम्मि य अयडम्नि चेव संजाओ मे पमोओ, वियंभिओ सुरहिमारुओ, विमुक्को सहजो वि वेराणुबंधो पसुगणेहि, भुवणसिरीए विय स्मद्धासिओ लच्छिपवओ, सव्वोउयकुसुमेहि वि पुप्फियाई काणणुज्जाणाई, पमुइया विहंगसंघाया, मणहरुत्तालरम्मं च गुंजियं छप्पयावलीहि, विसुद्धपया मृत्वा वैरिकोऽपि खलु जायते जनकः, सुतोऽपि खलु रिपुरिति । ततोऽनवस्थितभावे स्वजने संग इति मोहफलम् ।।२४४॥ अन्यच्च । शृणु, अस्माकमेव यद् वृत्तम् - अस्ति इहैव विजये लक्ष्मीनिलयं नाम नगरम् । तत्र सागरदत्तो नाम सार्थवाहः, श्रीमती तस्य भार्या । तयोरहं सुत इति । कुमारभावे वर्तमानो गतो तन्नगरासन्नमेव लक्ष्मीपर्वतम् । दृष्टश्च तत्र एकस्मिन् विभागे स्निग्धपत्रसंचयः, धराप्रविष्टदीर्घपादकः, नालिकेरीपादप इति । तं च दृष्ट्वा समुत्पन्नं मम कौतुकम् । चिन्तितं च मया-अहो ! आश्चर्यम् । एतावन्मात्रस्यापि पादपस्य एतावन्मात्राद् विभागाद् अवतीर्य पादको धरणीं प्रविष्ट इति । ततो नूनमत्र कारणेन भवितव्यम् । ___ अत्रान्तरे च अकाण्ड एव संजातो मम प्रमोदः, विजम्भितः, सुरभिमारुतः, विमुक्तः सहजोऽपि वैरानुबन्ध ः पशुगणः, भुवनश्रिया अपि समध्यासितो लक्ष्मीपर्वतः, सर्वऋतुककुसुमैरपि पुष्पितानि काननोद्यानानि, प्रमुदिता विहंगसंघाताः, मनोहरोत्ताल रम्यं च गुञ्जितं षट्पदावलीभिः, विशद्ध मरकर पिता वैरी हो जाता है, पुत्र भी वैरी हो जाता है, अतः अस्थिररूप स्वजनों में आसक्ति करना मोह का ही फल है ॥२४४॥ दूसरी बात और भी है, सुनो, हमारे ही ऊपर जो घटित हुई इसी देश में लक्ष्मीनिलय नाम का नगर है। वहाँ पर सागरदत्त नाम का वणिक् (सार्थवाह) और उसकी श्रीमती नामक पत्नी थी। उन दोनों का मैं पुत्र हूँ । कुमारावस्था में मैं उसी नगर के पास लक्ष्मीपर्वत पर गया। वहाँ एक स्थान पर चिकने पत्तों के समूह वाला एक नारियल का वृक्ष देखा, जिसको बहुत बड़ी शाखा पथ्वी में घुसी थी। उसे देखकर मुझे कोलूहल उत्पन्न हुआ। मैंने सोचा--अरे आश्चर्य है ! इतने से वृक्ष के इतने विभाग से निकल कर यह शाखा पृथ्वी में प्रविष्ट हुई है । इसका निश्चित ही कारण होना चाहिए। इसी बीच असमय में ही मुझे हर्ष हुआ, सुगन्धित हवा चलने लगी, पशुओं ने सहज वैर सम्बन्ध छोड़ दिया, लक्ष्मीपर्वत लोक की शोभा से युक्त हो गया, वन और उद्यानों में सभी ऋतुओं के फूल खिल गये, पक्षियों का समूह प्रमुदित हो गया, भौंरों की पंक्तियों ने मनोहर, उच्च स्वर वाला और रमणीय गुंजन किया, विशुद्ध प्रकाश १. जणणी-ख, २. य-ख, ३. रिउ-ख, ४. लच्छितिलयं-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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