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________________ तइमो भयो ] १९७ एत्थंतरम्मि बंभयत्तपरिचारगेण नाहियवादिणा भणियं पिंगकेण-भो कुमार! केण तुम विप्पयारिओ ? न खलु एत्थ पंचभूयवइरित्तो परलोगगामी जीवो समत्थीयइ । अवि य एयाणि चेव भूयाणि सहावओ चेव एयप्पगारपरिणामपरिणयाणि 'जीवो' त्ति भण्णंति । जया य एयाणि चइऊण समुदयं पंचत्तमुवगच्छंति, तया 'मओ पुरिसो' त्ति अहिहाणं पवत्तए । न उण एत्थ कोइ देहं चइऊण घडचिडओ विव परभवं गच्छड। ता मा तमं असंते वि परलोगे मिच्छाहिणिवेसभावियमई सहावसुंदरं विसयसुहं परिच्चयसु, वंसेहि वा देहवइरित्तं देहिणं । अओ जं तए भणियं-जहा दुल्लहं मणयत्तणं, तमसंबद्धमेव। जओ न तं सुकय-दुक्कयाणुभावेण लब्भइ, अवि य भूयपरिणईओ, अओ किमियमाउलत्तणं। तहा जं च भणियं 'अणिच्चा पियजणसमागमा', एयं पि अकारणं । जओ न ते निक्खंताणं पि अन्नहा होति । तहा जं च भणियं 'चंचलाओ रिद्धीओ', एयस्स वि न निक्खमणमेव पडिवक्खो, अवि य उवाएण परिरक्खणं ति। तहा जं च भणियं 'कुसुमसारं जोव्वणं', एत्थ वि य अत्रान्तरे ब्रह्मदत्तपरिचारकेण नास्तिकवादिना भणितं पिङ्गकेन--भोः कुमार ! केन त्वं रितः ? न खल अत्र पञ्चभूतव्यतिरिक्तः परलोकगामी जीवः समर्थ्यते, अपि चैतानि एव भूतानि स्वभावत एव एतत्प्रकारपरिणामपरिणतानि 'जीवः' इति भण्यन्ते। यदा च एतानि त्यक्त्वा समुदयं पञ्चत्वमुपगच्छन्ति तदा 'मृतः पुरुषः' इति अभिधानं प्रवर्तते । न पुनरत्र कश्चिद देहं त्यक्त्वा घटचटक इव परभवं गच्छति । ततो मा त्वमसत्यपि परलोके मिथ्याभिनिवेशभावितमतिः स्वभावसुन्दरं विषयसुखं परित्यज, दर्शय वा देहव्यतिरिक्तं देहिनम् । अतो यत् त्वया भणितम् -यथा दुर्लभं मनुजत्वम् , तद् असम्बद्धमेव । यतो न तत्. सुकृतं-दुष्कृतानुभावेन लभ्यते, अपि च भूतपरिणतितः । अतः किमिदमाकुलत्वम् । तथा यच्च भणितम् 'अनित्याः प्रियजनसमागमाः एतदपि अकारणम् । यतो न ते निष्क्रान्तानामपि अन्यथा भवन्ति । तथा यच्च भणितम् 'चञ्चला ऋद्धयः', एतस्यापि न निष्क्रमणमेव प्रतिपक्षः, अपि च उपायेन परिरक्षणमिति । तथा यच्च भणितम् 'कुसुमसारं यौवनम्', अत्रापि च रसायनं युक्तम्, न पुननिष्क्रमणमिति । तथा यच्च इसी बीच ब्रह्मदत्त के सेवक नास्तिकवादी पिंगक ने कहा-“हे कुमार ! किसने तुम्हें ठग लिया है ? पांच भूतों के अतिरिक्त किसी परलोकगामी जीव का समर्थन नहीं होता है । ये ही (पंच) भूत स्वभावतः इसी प्रकार परिणत होकर 'जीव' नाम से कहे जाते हैं। जब इनको छोड़कर समुदय पंचत्व को प्राप्त हो जाता है तो 'जीव मर गया'-ऐसा कहा जाता है। कोई भी जीव यहां देह छोड़कर घटचटक (एक हिंसा प्रधान सम्प्रदाय) के समान परलोक नहीं जाता है । अतः परलोक न होने के कारण मिथ्या अभिप्राय से युक्त बुद्धि वाले होकर स्वभाव से सुन्दर विषयसुख को मत छोड़ो अथवा शरीर के अतिरिक्त जीव को दिखायो। जो तुमने कहा कि 'मनुष्यजन्म दुर्लभ है' वह असम्बद्ध ही है। क्योंकि मनुष्यजन्म पुण्य-पाप के फलस्वरूप अनुभव में नहीं आता अपितु पांच भूतों की परिणति रूप से ही अनुभव में पाता है । अत: इसके विषय में आकुलित होने से क्या लाभ ? तथा जो कहा है कि 'प्रियजनों के समागम अनित्य हैं', इसमें कुछ भी कारण नहीं है, क्योंकि बाहर निकलने वालों (घर छोड़ने वालों) के लिए भी वे (प्रियजन) अन्यथा नहीं होते हैं। जो कहा कि 'ऋद्धियां चंचल हैं' -- इसका भी विरोधी घर से बाहर निकलना नहीं है अर्थात् घर से निष्क्रमण कर जाने से ऋद्धियाँ स्थिर नहीं हो जाती; अपितु चंचल होने से प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा ही करनी चाहिए। जो कहा कि 'यौवन फूलों के समान सारवाला है' इसका स्वाद लेना ही युक्त है, छोड़ना नहीं। और जो कहा कि 'काम परलोक का विरोधी है' यह भी ठीक नहीं १.पिंगकेसेण-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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