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दुखविण पव्वज्जं ति । तओ बाहोल्ललोयणेणं जंपियं ताएण । पुस्त, एवमेयं, कि तु परमत्थं पि जंयमाणो नेहकायरं पोडेसि मे हिययं ति । मए भणियं - ताय, अलं मे अपरमत्यपेच्छिणा नेहेण । एसो चेव एत्थ पहाणं संसारकारणं, जेण -
दीवो व्व सव्वलोगो खणे खणे जायए विणस्सइ य । संसरइ य नेहवसा निरवायाणो उ उल्हाइ ॥४२७॥
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ताएण भणियं - एवमेयं, कि खिज्जिहिइ सा तवस्सिणी ईसासेणधूय त्ति । मए भणियं - ताय, I थेवमेयं कारणं । अन्नं च - निवेयावेउ ताओ तीए वि य एयं वृत्तंतं । कयाइ सा वि एयं सोऊण पडिवोहं पावइति ॥ तओ ताएण 'जुत्तमेयं' ति भणिऊण पेसिओ संखबद्धणाभिहाणो पुरोहिओ, भणिओ यता । जहासुयं निवेएहि रायदुहियाए, भणाहि य तं 'एवं ठिए कि अम्हेहि कायव्वं' ति ? गओ संखवद्वणो । आगओ थेववेलाए, भणियं च णेण - महाराय संसिद्धा' मणोरहा कुमारस्स; सुणेउ महाराओ । गओ अहं इओ रायधूयासमीवं, पवेसिओ सबहुमाणं पडिहारेण; 'महारायपुरोहिओ' त्ति लोचनेन जल्पितं तातेन । पुत्र ! एवमेतत्, किन्तु परमार्थमपि जल्पन् स्नेहकातरं पीडयसि मे हृदयमिति । मया भणितम् - अलं मे अपरमार्थप्रेक्षिणा स्नेहेन । एष एवात्र प्रधानं संसारकारणम् । येन
दीप इव सर्वलोकः क्षण-क्षणे जायते विनश्यति च । संसरति च स्नेहवशाद् निरुपादानस्तु विध्याति ॥ ४२७ ॥
तातेन भणितम् - एवमेतद्, किन्तु खेत्स्यति ( खेदं गमिष्यति ) सा तपस्विनो ईशानसेनदुतितेति । मया भगितत्-तात ! स्तोकमेतत्कारणम् । अन्यच्च -- निवेश्यतु तातस्तस्यापि चैतं वृत्तान्तम् । कदाचित् ताऽपि एतं श्रुत्वा प्रतिबोधं प्राप्नोतीति । ततस्तातेन 'युक्तमेतद्' इति भणित्वा प्रेषितः, शङ्कवर्धनाभिधानो पुरोहितः, भणितश्च तातेन । यथाश्र ुतं निवेदय राजदुहितुः, भण च ताम्, 'एवं स्थिते किमस्माभिः कर्तव्यमिति ? गतः शङ्खवर्धनः । आगतः स्तोकवेलायाम्, भणितं च तेनमहाराज ! संसिद्धा मनोरथा कुमारस्य, वणोतु महाराजः । गतोऽहमितो राजदुहितृसमीपम्, समस्त दुःखों को नाश करने कहा - "पुत्र ! ठीक है, किन्तु मैंने कहा - "यथार्थ को न
जिससे
सारा संसार दीपक के
समान क्षण-क्षण पर उत्पन्न होता है और विनाश को प्राप्त होता है । स्नेह के वश इस संसार में भ्रमण करता है और उपादान के अभाव में बुझ जाता है ||४२७॥
वाली दीक्षा की अनुमति दीजिए ।" तब आंसुओं से गीले नेत्र वाले पिता ने यथार्थ बात कहते हुए भी स्नेह से दुःखी मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचा रहे हो ।" जानने वाले स्नेह से बस करो। यही यहाँ पर संसार का प्रधान कारण है ।
पिताजी ने कहा - "ठीक है, किन्तु वह बेचारी ईशानसेन की पुत्री खिन्न होगी।" मैंने कहा
"पिता जी ! यह तो बहुत छोटा-सा कारण है । दूसरी बात यह है कि पिता जी, बाप उसे भी यह वृत्तान्त निवेदन करें। कदाचित् वह भी इसे सुनकर प्रतिबोध को प्राप्त हो ।" अनन्तर पिताजी मे "यह ठीक है" ऐसा कहकर शंखवर्धन नामक पुरोहित को भेजा। पिताजी ने कहा- "जैसा कि सुना है वह सब राजपुत्री से निवेदन करो और उससे कहो - ऐसी स्थिति में हम लोगों को क्या करना चाहिए ?" शंखवर्धन चला गया। थोड़ी देर में आया और उसने कहा- "महाराज ! कुमार का मनोरथ सफल हो गया, महाराज सुनें - मैं यहाँ से राजपुत्री
१, संपन्ना ।
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