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परत्वो भवो]
२८१ नरिंदकेसरिणो विणिवाइया, सो कहं इमं पुरिससारमेयं देवि च अकज्जायरणवावन्नसीलजोवियं वावाएमि त्ति ? अन्नं च-वीसत्थं जंपियमिमीए कीलियं च आ बालभावाओ' भुत्ता सिणेहसारं, जणिओ अप्पाणयतुल्लो पुत्तो। ता कि एइणा। अवि य-अविवेयबहुला चेव इत्थिया होइ। उज्जओ य अहं सामण्णपडिवत्तीए । एवं च गुणहरकुमारस्स वि लाघवभावेण पत्थुयविधाओ ति। अहो मे असरिसववसाओ त्ति विलिएण तक्खणं चेव समाणियं मंडलग्गं, विरत्तं च मे चित्तं देवीओ। उट्रिओ धम्मववसाओ। गओ वासहरं णुवन्नो सयणिज्जे, पवत्तो चितिउं। अहो महिलिया नाम अभमी बिसलया, अणग्गी चडलो, अभोयणा विसूइया, अणामिया वाही, अवेयणा मच्छा, अणवसया मारी, अणिपला गोती, अरज्जुओ पासो, अहे उओ मच्चु ति। अहवा किं इमीए चिंताए। ईइसो एस संसारो। अओ चेव पवज्जामो समणत्तणं ति। एवं जाव सुहपरिणामो कंचि कालं चिट्ठामि, ताव आगया देवी । कयं मए पसुत्तचेड ट्ठि)यं । णुवन्ना य मम समीवे । ठिया कंचि कालं। पवत्ता
विदारणलालसा नरेन्द्रकेसरिणो विनिपातिताः, स कथमिमं पुरुषसारमेयं देवीं चाकार्याचरणव्यापन्नशीलजीवितां व्यापादयामीति ? अन्यच्च-विश्वस्तं जल्पितमनया, क्रीडितं चाबालभावात्, भुक्ता स्नेहसारम्, जनित आत्म तुल्यः पुत्रः। ततः किमेतेन ? अपि च अविवेकबहुलैव स्त्रो भवति । उद्यतश्चाहं श्रामण्यप्रतिपत्या। एवं च गुणधरकुमारस्यापि लाघवभावेन प्रस्तुतविघात इति । अहो ! ममासदृशव्यवसाय इति व्यलीकेन तत्क्षणमेव समानीतं (कोशे निक्षिप्त) मण्डलाग्रम् । विरक्तं च मे चित्तं देव्याः। उपस्थितो धर्मव्यवसायः । गतो वासगृहम, निपन्नो (सूप्तः) शयनीये, प्रवृत्तश्चिन्ति (म् । अहो महिला नामाभूमिविषलता, अनग्निश्चुडुलि: (उल्का), अभोजना विसूचिका, अनामको व्याधिः, अवेदना मूर्छा, अनुपसर्गा मारिः; अनिगडा गुप्तिः, अरज्जुको पाशः, अहेतुको मृत्युरिति । अथवा किमनया चिन्तया? ईदृश एष संसारः । अत एव प्रपद्यामहे श्रमणत्वमिति । एवं यावत् शुभपरिणामः कञ्चित् कालं तिष्ठामि तावदागता देवी । कृतं मया प्रसुप्तचेष्टितम् । तिपन्ना च मम समीपे । स्थिता कञ्चित्कालम् । प्रवृत्ता चाटकर्मकरणे। मैंने शत्रुमण्डल रूपी हाथियों का समूह चीरने की इच्छावाले राजसिंहों को मारा है वह मैं कैसे पुरुषों में गीदड़ के समान इस कुबड़े को और अकार्य का आचरण करने के कारण मरे हुए (गिरे हुए) शील के साथ जीवित इसको मारू ? दूसरी बात यह है कि इसके साथ विश्वासयुक्त वार्तालाप किया, बाल्यभाव से क्रीड़ा की, स्नेह के सार को भोगा और अपने तुल्य पुत्र उत्पन्न किया। अत: इससे क्या ? दूसरी बात यह है कि स्त्री में अविवेक की प्रधानता होती है और मैं (श्रामण्य मुनिधर्म) की प्राप्ति के लिए उद्यत हूँ । इस प्रकार के छोटे भाव से गुणधर कुमार को भी अड़चन होती है । ओह ! मेरा कार्य अनुचित है, ऐसा सोचकर उसी समय म्यान (कोश) में तलवार रख ली और मेरा चित्त महारानी से विरक्त हो गया । धर्म का निश्चय हुआ । शयनगृह (वासगृह गया, शय्या पर सो गया (और) विचार करने लगा-'ओह ! महिला भूमि के बिना ही उत्पन्न हुई विष की लता है, बिना अग्नि की उल्का है, बिना भोजन की हैजा है, बिना नाम की रोग है, बिना वेदना की मूर्छा है, बिना उपद्रव की महामारी है, बिना बेड़ी की रोकथाम है, बिना रस्सी की जाल है, तारण रहित मौत है, अथवा इस विचार से क्या लाभ है, यह संसार ऐसा ही है । अतः मुनि अवस्था को प्राप्त करता हूँ। इस प्रकार के शुभ परिणामों से युक्त होकर कुछ समय तक बैठा रहा, तभी महारानी आ गयी। मैंने सोने की चेष्टा की। (वह) मेरे पास में लेट गयी। कुछ समय तक लेटी रही, (बाद में) चापलूसी में लग गयी। मैं भी उसी प्रकार सोये
१. बालभावओ-क, २. सवेयणा-ख, ३. पसुतवेयं-र ।
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