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पंचमो भवो ]
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अट्टहासाणलेण नहंगणमुज्जोवयंती वामहत्थेण भयसंभंतलोयणं विलासवई गेव्हिऊण 'अरे रे विज्जाहरसंगदुब्बियड्ढ कावरिस कहि वच्चसि' ति जंपमाणी आगमणवेगाणिलनिवाडियसाहिजाला तुरियतुरियं अभिमुहमुवागच्छमाणी दिट्ठा मए दुट्ठपिसाइय ति । न खुद्धो हियएणं, उवसंता विहीसिया । थेववेला य अणभमेव गज्जियं मेहेहि, वरिसियं रुहिरधाराहि, फेक्कारियं सिवाह, धाहावियं' वेयालेहि, नच्चियं कबंधेहि, पज्जलंतनयणतारयाहि च उद्घकेसियाहि विमुक्कनिवसाि किलिकिलियं ड्राइणीहि । न खुद्धो चित्तेणं, पणट्ठा विही सिया । थेववेलाए य केणावि अमुणियं चेव पणट्ठचंददिवारे निरयघोरंधयारे पक्खित्तो महापायलभीसणे अयडे, विट्ठाओ य तत्थ भयस्व य भयंकरीओ वाढावियरालभीसह वयह कवालमालापरिगयाहि सिरोहराहि नाहिमंडल गए ह थणे हि पलंबमाणमहोपरीओ सूण सवविग्भमेहिं ऊरुएहिं तुंगतालखंध संठाणाहि जंघाहि निसियकप्पणीह नरकलेवरे विगत्तमाणीओ' जलतनयणतारयं च अइभीसणमिओ तओ पुलोएमाणीओ दुट्ठरक्खसीओ
रुधिरार्द्रनरचर्मनिवसना कपाल चषकेन रुधिरासवं पिबन्ती अट्टहासानलेन नभोऽङ्गणमुद्योतयन्ती वामहस्तेन भयसम्भ्रान्तलोचनां विलासवती गृहीत्वा 'अरे रे विद्याधरसङ्गदुविदग्ध कापुरुष ! कुत्र व्रजसि ' इति जल्पन्ती आगमन वेगा निलनिपातितशाखिजाला त्वरितत्वरितमभिमुखमुपागच्छन्ती दृष्टा मया दुष्टपिशाचिकेति । न क्षुब्धो हृदयेन उपशान्ता बिभीषिका । स्तोकवेलायां चानभ्रमेव गर्जितं मेघः, वृष्टं रुधिरधाराभिः, फेत्कारितं शिवाभिः, धाहावितं (चित्कारित) वेताल, नर्तितं कबन्धैः, प्रज्वलन्नयनतारकाभिश्च ऊर्ध्व के शिकाभिर्विमुक्त निवसनाभिः किलिकिलितं डाकिनीभिः न क्षुब्ध - चित्तेन प्रणष्टा विभीषिका । स्तोकवेलायां च केनाप्यज्ञातमेव प्रनष्टचन्द्रदिवाकरे निरयघोरान्धकारे प्रक्षिप्तो महापातालभीषणेऽवटे । दृष्टाश्च तत्र भयस्यापि भयंकर्यो दाढाविकरालभीषणैर्वदनैः कपालमालापरिगताभिः शिरोधराभिर्नाभिमण्डल गतः स्तनैः प्रलम्बमानमहोदर्यः सुनाशवविभ्रमैरूरुभिः तुङ्गतालस्कन्धसंस्थानाभिर्जङ्घिकाभिर्निशितकर्तनीभिर्न रकलेवरान् विकर्तयन्त्यो ज्वलन्तयन
आतंक दूर हुआ । थोड़ी ही देर में मुझे दुष्ट पिशाचिनी दिखाई दी । वह अत्यन्त भयंकर काले रंग की थी, बिजली के समान उसके नेत्रों से चिनगारी उठ रही थी, गले में हाथ-पैर की माला लटकी हुई थी, खून से भीगे हुए मनुष्य के चमड़े को पहिने हुई थी, कपालरूपी प्याले से वह खून का काढ़ा पी रही थी, अट्टहास रूरी अग्नि से आकाश रूपी आँगन को प्रकाशित कर रही थी, भय से घबराये हुए नेत्रों वाली विलासवती को बायें हाथ से पकड़ कर 'अरे रे विद्याधर के अनुरागी दुष्ट कायर पुरुष ! कहाँ जाते हो. ऐसा कहकर आगमन के वेग रूपी वायु से वृक्षसमूह को गिराती हुई शीघ्रातिशीघ्र सामने आ रही थी । ( मैं ) हृदय से क्षुब्ध नहीं हुआ, आतंक शान्त हुआ । थोड़ी देर में बिना बादल के ही मेघ गरजे, खून की धाराएँ बरसीं शृगालियों ने ध्वनि की, बेतालों ने चीत्कार किया, कबंध नाचने लगे, नेत्र की पुतलियों को जलाती हुई, ऊँचे केशों वाली, आभूषणों से रहित डाकिनियों ने किलकारी की। मेश चित्त क्षुब्ध नहीं हुआ, आतंक नष्ट हो गया। थोड़ी देर में किसी ने बिना जाने ही चन्द्र और सूर्य को नष्ट कर नरक के समान घोर अन्धकार वाले महान् पाताल के समान भयंकर कुएं में डाल दिया । वहाँ पर दुष्ट राक्षसियाँ दिखाई दीं। वे भय को भी भयकारी थीं । विकराल दाढ़ों के कारण उनका मुख भीषण था, कपालों की माला डाले हुए गर्दन वाली थीं, नाभि तक लटके हुए स्तनों वाली थीं, लटकता हुआ बड़ा भारी उनका पेट था । उनके ऊए श्मशान के शव का भ्रम पैदा कर रहे थे, ऊँचे ताड़ वृक्ष की शाखाओं के आकार वाली उनकी जांघें थीं, वे तीक्ष्ण कैंचियों से मनुष्य के कलेवरों
१. धावियं क । २. निवसणं-ख । ३. किलिगिलियं । ४. विकल्पमाणीओ क । ५. सूजलंत - क 1
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