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________________ [ समराइच्चकहा यमक - अर्थ होने पर भिन्न-भिन्न अथ वाले (अन्यथा निरर्थक ) स्वर व्यंजन समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति को यमक कहते हैं । जैसे परमसिरिवड्ढमाणं पणट्ठनाणं विसुद्धवरनाणं । गयजोयं जोईसं सयंभूवं षड्ढमाणं च ॥२॥ उपमा - अतिस्पष्ट और सुन्दर समता को उपमा कहते हैं । जैसे नामक प्रासाद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस प्रासाद में कालागुरु मेघ के समान, रत्नों की पंक्तियाँ बिजलियों के समान, मोतियों की माला पंक्तियाँ बगुले की पंक्तियों के समान तथा लटके हुए रेशमी वस्त्रों की अपहरण करने वाली थीं। १२ " जत्थ मेहदुद्दिणच्छायाणुयारिणी बहल कालागरुधूमसंतईओ, सोयामणीओ विव विहायंति रयणावलीओ, जलधाराओ, वेव दीसंति मुत्तावलीओ, बलायापंतियाओ विव विहायंति चमरपतियाओ, इंदा उहच्छाय बहारिणोओ पलंबियाओ पट्ट सुयमालाओ।' -- समराइच्चकहा, पृ० १७ विजयसेनाचार्य के लिए प्रयुक्त की गये। निम्नलिखित उपमाएँ दर्शनीय हैं"तत्थ यतम्मि चेव दियहे आगओ मंडणमिव वसुमईए, आणंदो व्व सयलजणलोयणाणं, पच्चाए सो व्व धम्मनिरयाणं, निलओ व्व परमधन्नयाए, ठाणमिव आदेयभावस्त, कुलहर पिव खंतोए, आगरो इव गुणरयमाणं विवागसव्वस्समिव कुसलकम्मस्स महामहंतनिव वंस संभूओ विजयसेणो नाम आयरित्र ।" - सम०, पृ० ४३ रूपक -- उपमान और उपमेय में अभेद का आरोप रूपक कहलाता है । जैसे— 'लायण्णजोण्हापवाहपम्हलियच उद्दिसाओ' ( सम२, पृ० ४५) यहाँ पर लावण्य को ज्योत्स्नाप्रवाह कहा गया है। 'निरयाणलजलियसिहा' (सम०, पृ० ६६ ) यहाँ प्रज्वलित अग्निशिखा को नरकाग्नि कहा गया है । 'भीमे भवसागर म्म दुखत्तं' (सम०, ग था ७८) यहां संसार को सागर कहा गया है । व्यतिरेक - उपमान की अपेक्षा उपाय के गुणों का आधिक्य वर्णन व्यतिरेक अलंकार कहलाता है । जैसे - जत्थ विलयाउ कमलाइ को इलं कुवलयाई कलहंसे । वह जंपिग राजा गुणसेन के विमानच्छन्दक धूम की परम्परा वर्षाकालीन जलधारा के समान, चँवरों की पंक्तियाँ इन्द्रायुध की छाया का Jain Education International यहि गहि य जिणंति ॥ ( समराइच्च कहा ), ३१ उक्त उदाहरण में कमल, कोयल, लकमल तथा कलहंस रूप उपमानों की अपेक्षा क्रमशः मुख, आधिक्य का वर्णन किया गया है । बाणी, नयन तथा गति रूप उपमेय के गुणों के विरोध - जहाँ वस्तुतः विरोध न हो पर भी विरुद्ध रूप से वचनों का प्रयोग किया जाता है वहाँ विरोध अलंकार होता है । जैसे- परमसिरिवद्ध माणं पणट माणं गयजोयं जोईस सयंभ वं विसुद्रवरनाणं । वद्धमाणं च ॥ (समराइच्चकहा, २) परिसंख्या - जहाँ किसी वस्तु का अपने यथार्थ स्थान से लोप कर किसी विशिष्ट स्थान पर आरोप किया जाता है, वहाँ परिसंख्या अलंकार होता । जैसे— जत्य य नराण वसणं वि जासु जसम्मि निम्मले लोहो । पावेसु सया भीरुत्तणं व धम्मम्मि धणबुद्धी ॥ For Private & Personal Use Only (समराइच्चकहा, ३२) www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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