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[ समराइच्चकहा महोववासयं । एत्थंतरम्मि य परिचत्तनिययवावारो असुहज्झाणदूसियमणो, तवपरिक्खीणदेहो, दिट्ठो तत्थ तावसहि । भणियं च तेहि-भयवं ! अइपरिक्खीणदेहो, असंपावियकुसुमविलेवणोवयारो लक्खिज्जसि, ता कि इयाणि पि ते न संजायं पारणयं ति ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं'न संजायं' ति।
तावसेंहि भणियं—'कहं न संजायं ? किं न पविट्ठो तस्स राइणो गुणसेणस्स गेहं ?' अग्गिसम्मतावसेण भणियं-'पविट्ठो।' तावसेहिं भणियं-'ता कहं ते न संजायं' ति? तेण भणियंबालभावाओ चेव मे सो राया अणवरद्धवेरिओ, खलियारिओ अहं तेण । पुदिव मए पुण न जाणिओ, अवगओ से इयाणि वेराणुबंधो विणीओ विव लक्खिज्जइ, जाव भिच्छाविणीयस्सन से वेराणुबंधो अवेइ; जेणोवहासबुद्धीए में उवणिमंतिऊणं अणज्जविलसिएणं चेव तेहि तेहि मायापयारेहिं चेव किल मंपरिहवइ ति। अज्जं च तेण वियाणिऊण मम पारणगदिवसं सहसा चेव काराविओ पमोओ। तओ अहं पविसिऊणं रायगेहं अबहुमाणिओ चेव मुणियन रिदपरिवाराभिप्पाओ लहुं चेव निग्गओ त्ति। तेन आहारेणेति गृहीतं यावज्जीवितं महोपवासव्रतम् । अत्रान्तरे च परित्यक्तनिजव्यापारः अशुभध्यानदूषितमनाः, तपःपरिक्षीणदेहः, दृष्टस्तत्र तापसैः । भणितं च तैः-भगवन् ! अतिपरिक्षीण देहः असम्प्राप्तकुसुमविलेपनोपचारो लक्ष्यसे, ततः किमिदानीमपि तव न संजातं पारणकम्-इति ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-'न संजातम्' इति ।
तापसैर्भणितम्-'कथं न संजातम् ? किं न प्रविष्टस्तस्य राज्ञो गुणसेनस्य गेहम् ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-'प्रविष्टः।' तापसैर्भणितम्-'ततः कथं तव न संजातम्' इति ? तेन भणितम् - 'बालभावादेव मम स राजा अनपराद्धवैरिकः, खलीकारितश्चाहं तेन पूर्वम् । मम पुनर्नज्ञातः अवगतस्तस्य इदानीं वैरानुवन्धः । विनीत इव लक्ष्यते, यावद् मिथ्याविनीतस्य न तस्य वैरानुबन्धः अपैति, येनोपहासबुध्या मम उपनिमन्त्र्य अनार्यविलसितेनैव तैः तैः मायाप्रकारैरेव किल मां परिभवतीति । अद्य च तेन विज्ञाय मम पारणकदिवसं सहसा कारितः प्रमोदः । ततोऽहं प्रविश्य राजगेहम्, अबहुमानित एव ज्ञाततरेन्द्रपरिवाराभिप्रायः लघ्वेव निर्गत' इति । माहार के प्रति आसक्ति का त्याग न कर पाने के कारण मेरा यह अपमान हुआ, अतः तिरस्कार के कारण इस आहार से बस । (अब मैं) जीवनभर के लिए महोपवास व्रत लेता हूँ।' इसी बीच जिसने अपने कार्य को छोड़ दिया है, अशुभ ध्यान से जिसका मन दूषित है, तप के कारण जिसका शरीर क्षीण हो गया है तापस को तापसों ने देखा और उन्होंने कहा, "भगवन् ! आपका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, आपने फूल वगैरह के लेपन का प्रयोग भी नहीं लिया है, तो क्या इस समय भी आपका व्रतान्त भोजन नहीं हुआ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "नहीं हुआ।"
तापसों ने कहा, "कैसे नहीं हुआ ? क्या आप ने राजा गुणसेन के घर में प्रवेश नहीं किया ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "प्रविष्ट हुआ था।" तापसों ने कहा, "तब कैसे आपका भोजन नहीं हुआ ?" उसने कहा, "बाल्यावस्था से ही वह राजा बिना अपराध किये ही मेरा वैरी है। उसने पहले भी मुझे दुःखी किया था। मुझे ज्ञात नहीं था, पर इस समय उसके वैर को जान लिया । विनीत जैसा मालूम पड़ता है, किन्तु झूठी विनय को दिखाने वाले उस राजा का वैरभाव दूर नहीं हुआ है जिससे उपहास करने की बुद्धि से मेरा निमन्त्रण कर उन-उन माया के प्रकारों से अनार्य के समान आचरण कर, मेरा तिरस्कार करता रहा है। आज मेरे आहार का दिन जानकर यकायक उसने आनन्द मनाया। मैं राजमहल में प्रविष्ट हुआ तो सत्कार न पाकर राजा के परिवार का अभिप्राय जानकर शीघ्र ही निकल आया।"
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