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________________ पढमो भवो तओ तावसेहिं भणियं-भयवं ! न एवं तवस्सिजणवच्छले नरिन्दगुणसेणे संभावियइ, अहवा विचित्तसंधिणो हि पुरिसा हवंति, किं वा न संभावियइ ? नत्थि अविसओ कसायाणं ति । भणिऊण निवेइयं तेहिं अच्चुविवगेहिं कुलवइणो। जहा--भयवं ! न तस्स अग्गिसम्मतोवसस्स इमिणा वुत्तंतेण संपयं पि पारणय संवुत्तं ति । तओ ससंभंतो तुरियमागओ अग्गिसम्मसमीवं कुलवई। संपूइओ य तेण अग्गिसम्मेण जहाणुरूवेणोवयारेणं । तओ तेण भणियं—वच्छ ! कहमियाणि पि ते न संजायं पारणयं ति ? अहो ! से असरिससमायरणं राइणो गुणसेणस्स । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भयवं ! पाइणो चेव रायाणो हवंति, को वा तस्स दोसो। मम चेवापरिचत्ताहारमेत्तसंगस्स एस दोसो, जेण तस्स वि गेहं पविसामि' ति। परिचत्तो य मए संपयं जावज्जीवाए चेव सयलपरिहवबीयभूओ एद्दहमेत्तो वि संगो। अओ विन्नवेमि भयवंतं एयम्मि अत्थे, नाहमन्नहा आणवेयव्वो त्ति । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! जइ परिचत्तो आहारो, गओ इयाणि कालो आणाए। सच्चपइन्ना खु तवस्सियो हवंति किं तु तुमए नरिंदस्स उरि कोवो न कायव्वो। जओ ततस्तापसर्भणितम्-भगवन् ! नै तपस्विजनवत्सले नरेन्द्रगुणसेने सम्भाव्यते। अथवा विचित्रसन्धयो हि पुरुषा भवन्ति, किं वा न सम्भाव्यते ? नास्ति अविषयः कषायाणामिति भणित्वा निवेदितं तैरत्युद्विग्नैः कुलपतये । यथा-भगवन् ! न तस्य अग्निशर्मतापसस्य अनेन वृत्तान्तेन साम्प्रतमपि पारणकं संवृत्तमिति । ततः सम्भ्रान्तः त्वरितमागतः अग्निशर्मसमी कुलपतिः, सम्पूजितश्च तेन अग्निशमणा यथानुरूपेण उपचारेण ततस्तेन भणितम्-वत्स ! कथमिवानीमपि तव न संजातं पारणकम्-इति ? अहो ! तस्य असदृशसमाचरणं राज्ञो गुणसेनस्य । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भगवन् ! प्रमादिन एव राजानो भवन्ति, को वा तस्य दोषः ? मम एव अपरित्यक्ताहारमात्रसङ्गस्य एष दोषः; येन तस्यापि गेहं प्रविशामि इति । परित्यक्तश्च मया साम्प्रतं यावज्जीवमेव सकलपरिभवबीजभूत एतावत्मात्रोऽपि सङ्गः । अतो विज्ञापयामि भगवन्तम्-एतस्मिन्नर्थे, नाहमन्यथा आज्ञापयितव्य इति । कुलपतिना भणितम्-वत्स ! यदि परित्यक्त आहारः, गत इदानीं काल आज्ञायाः । सत्यप्रतिज्ञा खलु तपस्विनो भवन्ति । किन्तु त्वया नरेन्द्रस्य उपरि कोपो न कर्तव्यः । यतः तापसों ने कहा, "भगवन् ! तपस्वियों के प्रति प्रेम भाव रखवाले राजा गुणसेन में इस प्रकार की सम्भावना नहीं की जा सकती । अथवा लोग नाना अभिप्राय वाले होते हैं; क्या सम्भव नहीं है ? कषायों से कोई विषय छुटा नहीं है।" ऐसा कहकर अत्यन्त उद्विग्न होकर उन्होंने कुलपति से कहा, "हे भगवन् ! उस अग्निशर्मा तापस का इस प्रकार आज भी भोजन नहीं हुआ है।" तब घबड़ाये हुए कुलपति शीघ्रतापूर्वक अग्निशर्मा के समीप आये । अग्निशर्मा ने यथानुरूप उपचारों से उनकी पूजा की। तब उन्होंने कहा-"वत्स ! इस समय तुम्हारा आहार कैसे नहीं हुआ ? उस राजा गुणसेन का विपरीत आचरण आश्चर्यकारक है ।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "भगवन् ! राजा लोग प्रमादी ही होते हैं, उसका क्या दोष है ? आहार मात्र के प्रति आसक्ति का त्याग न करनेवाला मैं ही दोषी हूँ जो कि उसी के घर में प्रवेश करता हूँ । समस्त तिरस्कारों के मूल इसके प्रति भी आसक्ति को मैंने अब जीवनपर्यन्त के लिए छोड़ दिया है। अतः भगवन् ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इस विषय में अन्यथा आज्ञा न दें।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! यदि आहार का त्याग कर दिया तो अब आज्ञा का समय चला गया! तपस्विजन सत्यप्रतिज्ञ (प्रतिज्ञा को सत्य करने वाले) होते हैं। किन्तु तुम्हें राजा के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए। १. पविट्ठमासि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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