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________________ पंचमो भवो ] चितिऊण जंपियं 'जं तुम भणसि' ति। तओ तेण विइण्णा विज्जा, साहिओ साहणोवाओ। तओ गएसु विजाहरेसु समुप्पन्ना मे चिता। सिद्धिखेत्तमेयं,' एयाई य अहं । ता कहं पुण विणा उत्तरसाहएण एवं पसाहेमि त्ति । सुमरियं च वसुभ इणो । एत्थंतरम्मि भवियन्क्यानिओएण सूययंतो विय महाविज्जासिद्धि तावसवेसधारी समागओ वसुभई। बाहोल्ललोयणं च सगग्गयक्खरं 'अहो देवपरिणामो' त्ति जंपमाणेण आलिगिओ अहमणेण । फिमेयं ति सवियक्केण पणमिओ सो मए देवीए य। 'वयस्स चिरं जीवसु, तुमं पि अविहवा होहि ति जंपियमणेण । वसुभइ ति पच्चभिन्नाओ मए सद्देणं । संपत्तो अहमणाचिक्ख गीयं परिओसं । आवंदबाहजलारियलोयणं दिन्नं से मए पल्लवासणं। संपाडिय देवीए चलणसोयं । काराविओ पाणवित्ति, पुच्छिओ वुत्तंतं । वयस्स, कहं पुण तुम निस्थिण्णो समुइं; किं वा पावियं तए; कुओ वा संपयं ति । वर भइणा भणियं । सुण---- विवन्ने जाणवत्ते संपत्ते तहाविहे फलए तओ फलह दुइओ भवियव्वयानिओएण पंचहि सरिकवचनं 'माननीया महापुरुषाः' इति चिन्तयित्वा जल्पितं यत्त्वं भणसि' इति । ततस्तेन वितीर्णा विद्या, कथितः साधनोपायः। ततो गतेषु विद्याधरेषु समुत्पन्ना मे चिन्ता-सिद्धिक्षेत्रमेतद्, एकाको चाहम्, ततः कथं पुनविना उत्तरसाधकेनैतां प्रसाधयामोति । स्मृतं च वसुभूतेः । अत्रान्तरे भवितव्यतानियोगेन सूचयन्निव महाविद्यासिद्धि तापसवेषधारी समागतो वसुभूतिः । वाष्पार्द्रलोचनं च सगद्गदाक्षरं 'अहो दैवपरिणामः' इति जल्पताऽऽलिङ्गितोऽहमनेन-किमेतदिति सवितर्केण पणतः स मया देव्या च । 'वयस्य ! चिरं जीव, त्वमपि अविधवा भव' इति जल्पितमनेन । वसुभूतिरिति प्रत्यभिज्ञातो मया शब्देन । सम्प्राप्तोऽनाख्यानोयं परितोषम् । आनन्दवाष्पजलभृतलोचनं दत्तं तस्मै मया पल्लवासनम् । सम्पादितं देव्या चरणशौचम् । कारितः प्राणवृत्तिम् । पृष्टो वृत्तान्तम् । वयस्य ! कथं पुनस्त्वं निस्तीर्णः समुद्रम्, किं वा प्राप्तं त्वया, कुतो वा साम्प्रतमिति । वसुभूतिना भणितम्-शृणु विपन्ने यानपात्रे सम्प्राप्ते तथाविधे फलके ततः फल कद्वितीयो भवितव्यतानियोगेन पञ्चभि कहा-'जैसा आप कहें।' तब चक्रकेतु ने विद्या दी, साधन करने का उपाय बताया। विद्याधरों के चले जाने पर मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई-यह सिद्धि का क्षेत्र है और मैं अकेला हूँ। अत: दूसरे साधक के बिना कैसे इसको सिद्ध करू ! (मैंने) वसुभूति का स्मरण किया। इस बीच होनहार से मानो महाविद्या के नियोग को ही सूचित करता हआ तापस वेषधारी वसुभति आया। आँसुओं से गीले नेत्रों वाला होकर गदगद अक्षरों में 'ओह ! भाग्य का परिणाम'-ऐसा कहते हुए उसने मेरा आलिंगन किया। यह क्या हुआ-ऐसा विचार करते हुए मैंने और देवी ने उसे प्रणाम किया। मित्र ! चिरकाल तक जिओ. तम भी सौभाग्यवती होओ''वसुभूति है'-ऐसा मैंने शब्द (आवाज) से पहिचान लिया । मैं अनिर्वचनीय सन्तोष को प्राप्त हुआ। आनन्द के मांसू बौखों में भरकर मैंने उसे पत्तों का आसन दिया। देवी ने उसके चरण धोये । भोजन कराया । बसान्त पछा। मित्र ! तम समुद्र से कैसे पार हए ? तमने क्या पाया? (अर्थात तम कहाँ ठिकाने लगे?) बाजकल कहाँ हो ?' वसुभूति ने कहा- 'सुनो जहाज के नष्ट होने पर होनहार से लकड़ी का टुकड़ा प्राप्त कर उसके साथ पांच दिनों में समुद्र पार १ सिब"-। २. फलग-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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