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________________ ४१४ [समराइज्यां उत्तो। तीए भणियं उदयस्त सरवरं गओ त्ति । तओ गविट्ठो तत्थ अम्हेहि, न उण उवलद्धो त्ति । साउण तओ चेव दिवसाओ अरम्भ अकयपाणवित्ती 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त" त्ति-परायणा चिट्ठs | एवं सोऊण देवो पमाणं त्ति । तओ मं पुलोइऊण भणियं चक्कसेणेण । भद्द, निरूवेहि ताब, कि सा भवओपियमान वत्ति । तओ विज्जाहरदुइओ गओ चंदणवणाभिरामं मलयसाणुं । दिट्ठा य सयल क्लोववेया वि वीयचंद लेहागारमणुगारेंती' कंठगयजीविया विलासवई । ऊससियं मे हियएन । समाासिया एसा कारिया विज्जाहरोवणीएणं सर्याल दिओवयारिणा दिव्वाहारेण पाणविति । साहियं चक्कसेणस्स, जहा सच्चेव मे पिययम त्ति । चक्कसेणेण भणियं - सुंदरं जायं । भद्द भण, किं ते अवरं करणिज्जं करेमि ति । मए भणियं नत्थि अओ वि अवरं करणिज्जं ति । तेण भणियं -- भद्द, देहलक्खणेहतो चेवावगच्छामि, भवियव्वं तए विज्जाहरर्नारदेण । ता गेण्हाहि एयं महापुरिसववसायमेत्तसाहणं अजिवबलं नाम महाविज्जं ति । पाएणमविग्धसाहणा एसा परिणामफलदा य । तओ मए सुमरिऊण बालभावसाहियं संवच्छरियवयणं 'माणणीया महापुरिस' त्ति सुन्दरि ! अलं ते भयेन, कथय तावत् कुत्र ते आर्यपुत्रः । तया भणितम् - उदकाय सरोवरं गत इति । ततो गवेषितस्तत्रावाभ्याम्, न पुनरुप लब्ध इति । सा पुनस्तत एवं दिवसादारभ्य अकृतप्राणवृत्तिः 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र' ! इति परायणा तिष्ठति । एतछत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो मां प्रलोक्य भणितं चत्रसेनेन - भद्र ! निरूपय तावत् किं सा भवतः प्रियतमा नवेति । ततो विद्याधरद्वितीयो गतश्चन्दनवनाभिरामं मलयसानु । दृष्टा च सकलकलोपेताऽपि द्वितीया चन्द्रलेखाकारमनुकुर्वती कण्ठगतजीविता विलासवती । उच्छ्वसितं मे हृदयेन । समाश्वासितैषा, कारिता विद्याधरोपनीतेन सकलेन्द्रियोपकारिणा दिव्याहारेण प्राणवृत्तिम् । कथितं चक्रमेनाय यथा सैव मे प्रियतमेति । चक्रसेनेन भणितम् सुन्दरं जातम् । भद्र ! भण, किं तेऽपरं करणीयं करोमीति । मया भणितम् - नास्त्यतो अपरं करणोयमिति । तेन भणितम् - भद्र ! देहलक्षणेभ्य एवावयच्छामि भवितव्यं त्वया विद्याधरनरेन्द्रेण । ततो गृहागतां महापुरुषव्यवसाय मात्र साधनामजितबलां नाम महाविद्यामिति । प्रायेणाविघ्नसाधनेषा परिणामफलदा च । ततो मया स्मृत्वा बालभावकथितं सांवत् से उठ गयी । हम दोनों ने कहा- सुन्दरी ! भय मत करो, कहो तुम्हारे आर्यपुत्र कहाँ हैं ?' उसने कहा---' पानी के लिए तालाब को गये थे ।' तब वहाँ पर हम दोनों ने ढ़ाँढ़ा किन्तु वह प्राप्त नहीं हुआ। वह स्त्री उसी दिन से भोजन न कर 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र ! ऐसा कहती हुई विद्यमान है । यह सुनकर 'महाराज प्रमाण हैं।' तब मुझे देखकर चक्रसेन ने कहा- 'भद्र! देखो ! ( क्या) वह तुम्हारी प्रियतमा है अथवा नहीं ?' तब विद्याधर के साथ चन्दनवन के समान सुन्दर मलयपर्वत पर गया और समस्त कलाओं से युक्त होते हुए भी द्वितीय चन्द्रमा की रेखा का अनुसरण करने वाली, कष्ठगत प्राणवाली विलासवती को देखा । मैंने हृदय से साँस ली । यह आश्वस्त हुई । विद्याधर के द्वारा लाये हुए समस्त इन्द्रियों के उपकारी दिव्य आहार का भोजन कराया । चक्रसेन से कहा कि ' वही मेरी प्रियतमा है ।' चक्रसेन ने कहा- 'अच्छा रहा। भद्र ! कहो, तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ?' मैंने कहा - ' इससे भी दूसरा कारने योग्य कोई कार्य नहीं है ।' उसने कहा- 'भद्र ! शरीर के लक्षणों से ही जानता हूँ कि तुम विद्याधर राजा होगे । अतः महापुरुषों के कार्यमात्र का साधन करने वाली इस अजितबाला नामक विद्या को ले लो ।' यह विद्या विघ्न न होने का साधन और परिणाम में फल देने वाली है । तब बाल्यावस्था में कहे हुए 'माननीय महापुरुष' - - इस प्रकार के ज्योतिषी के वचनों का स्मरण कर विचारकर १. वुण -- क । २. कहि गओ कहि गओ त्ति । ३. ताय ति परायणाख । ४. पलोइऊणक | ५. चन्द'''–के । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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