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________________ 188 बोलो भयो] घेत्तण तेण पढमं मउए हिययम्मि साणुरायम्मि । गहिया तओ करम्मि य पवियम्भिय सेयसलिलम्मि ॥१६॥ घेत्तण य तेण करे मणहरकच्छंतराउ आणीया। पवरमहचाउरतं' तियसवहू रविमाणं व ॥१६१॥ कणयमउज्जलवरपउमरायपज्जत्त दंडियारइयं । रइयदुगुल्लवियाणयपरिलंबियमोत्तिओऊलं ॥१६२॥ ओऊललग्गमरगयमऊहहरियायमाणसिंयचमरं। सियचमरवंडचामीयरप्पहापिंजरदायं ॥१६३॥ अदायगयविरायंतरम्मवरपक्खसुंदरीवयणं । वरपक्खसुंदरीवयणजणियबहुपक्खपरिओसं॥१६४॥ परिओसपयडरोमंचवंदिसंघायकलियपेरंतं । पेरंतविरइयामलविचित्तमणितारयानिवहं ॥१६॥ गृहीत्वा तेन प्रथमं मृदुनि हृदये सानुरागे । गृहीता ततः करे च प्रविजृम्भितस्वेदसलिले ॥१६०।। गृहीत्वा तेन करे मनोहरकक्षान्तरादानीता। प्रवरमहच्चातुरन्तं त्रिदशवधूः सुरविमानमिव ॥१६१॥ कनकमयोज्ज्वल वरपद्मरागपर्याप्तदण्डिकारचितम् । रचितदुकूलवितानकपरिलम्बितमौक्तिकावचूडम् ॥१६२॥ अवचूडलग्नमरकतमयूखहरितायमानसितचामरम् । सितचामरदण्डचामीकरप्रभापिञ्जरादर्शम् ॥१६३॥ आदर्शागतविराजद्रम्यवरपक्षसुन्दरीवदनम् । वरपक्षसुन्दरीवदनजनितवधूपक्षपरितोषम् ॥१६४॥ परितोषप्रकटरोमाञ्चवन्दिसंघातकलितपर्यन्तम् । पर्यन्तविरचितामल विचित्रमणितारकानिवहम् ॥१६५।। उसके द्वारा वह कोमल अनुराग युक्त हृदय में पहले ही ग्रहण की गयी पश्चात् जिस पर पसीने की बूंदें बढ़ रही थीं, ऐसे हाथ से ग्रहण की गयी। हाथ ग्रहण किये हुए उसे वह जैसे देवांग ना देवविमान में लायी गयी है, उसी तरह दूसरे मण्डप में ले गया, जो अत्यन्त श्रेष्ठ, विशाल एवं चौकोर था। मण्डप के खम्भे, जिन पर वह स्थित था, स्वर्ण के थे। उन पर देदीप्यमान उत्तम माणक जड़े थे। ऊपर रेशमी वस्त्र के चंदोवे में मोतियों के गुच्छे लटकाये गये थे। गुच्छों में लगे हुए मरकतमणि की फिरणों से सफेद चंवर हरा-हरा हो रहा था। स्वर्णमय दण्ड वाले सफेद चवर की प्रभा से दर्पण पीला-पीला हो रहा था। दर्पण में प्रतिबिम्बित वर पक्ष की स्त्रियों का मुख रमणीय लग रहा था। वर पक्ष की स्त्रियों के मुख को दर्पण में देखने के कारण वधू पक्ष को सन्तोष हो रहा था। सन्तोष से जो रोमाञ्चित थे, ऐसे वन्दीजनों द्वारा किया गया स्तुतिगान मण्डप में सर्वत्र व्याप्त था। मण्डप में लगी नाना प्रकार की उज्ज्वल मणियाँ मानो ताराओं का समूह थीं ॥१६०-१६५।। १. पवरमहचाउरते-च.। २. पज्जुत्त-च.। ३. अद्दायो दप्पणो (पाइ. ना.)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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