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________________ ༤ས་ चिट्ठ य जत्थ सियवरदुगुल्लपच्छाइयाणणा बहुया । सरयब्भचंद मंडलसंछाइयकोमुइनिसि व्व ॥१५६॥ काराविओ सलीलं ' अविरुभंताइ कोउयाइं च । ता जाइओ मुहच्छविफेडावणियं य सहियाहि ॥ १५७ ॥ तओ ईसि विहसिऊण 'ममं चेव एवं सकज्जं' ति भणिय दिन्नमायारिमयं । फेडिया मुहच्छवी । दिट्ठाय तेण असोयपल्लव यावयंसा ईसिविय संतवयणकमला सज्झसहरिसनिन्भरा मणोहरस्स वि मणहारिणं किंपि तहादिहं दिव्वं विलासविन्भममणुहवंति कुसुमावलिति । पाणिगहणं च तओ पारद्वं गोयमंगलुग्घायं । बंधवयियाणंद अन्नोन्नबद्धरायाणं 1192=11 हत्था पढमं चिय कालवित्थरं विसहिउं अचाएंता । ती वरस य घडिया निम्मलनहयंदकिरणेहिं ॥ १५६ ॥ तिष्ठति च यत्र सिलवरदुकूल प्रच्छादितानना वधुका | शरदभ्रसंछादितचन्द्रमण्डल कौमुदीनिशेव ॥ १५६ ॥ कारितः सलीलमवरुध्यमानानि कौतुकानि च । ततो याचितो मुखच्छविस्फेटनिकां च सखीभिः ॥ १५७ ॥ तत ईषद् विहस्य 'ममैवतत्स्वकार्यम्' इति भणित्वा दत्तमाचस्मिकम् । स्फेटिता मुखच्छविः । दृष्टा च तेनाशोकपल्लवकृतावतंसा ईषद्विकसद्वदनकमला साध्वसहर्षनिर्भरा मनोहरस्यापि मनोहारिणं किमपि तथाविधं दिव्यं विलासविभ्रममनुभवन्ती कुसुमावलीति । पाणिग्रहणं च ततः प्रारब्धं गीतमङ्गलसमूहम् । बान्धवहृदयानन्दमन्योन्यबद्धरागयोः ॥ १५८ ॥ [ समराइज्यकहा हस्तौ प्रथममेव कालविस्तरं विसोढुमशक्नुवन्तौ । तस्या वरस्य च घटितो निर्मलनखचन्द्रकिरणैः ।। १५६ ।। शरद् ऋतु के मेघों से आच्छादित चन्द्रमण्डल वाली पूर्णिमा की रात के समान अत्यधिक सफेद रेशमी वस्त्र से मुख को ढके हुए वधू बैठी थी । तब सखियों ने कन्या के मुख की छवि को प्रकट करने का उपहार माँगा और वर के साथ प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकार की रोकथाम सहित कौतुक किये ।।१५६-१५७।। Jain Education International तब कुछ मुस्कराकर 'यह तो मेरा अपना ही कार्य है' ऐसा कहकर उपहार दे दिया। मुख की छवि को प्रकट किया गया । उसने, अशोक के पहलवों से जिसके कर्णाभूषण बनाये गये थे, जिसका मुखकमल कुछ-कुछ खिला हुआ था, घबड़ाहट और हर्ष से जो भरी हुई थी तथा जो मनोहर से भी मनोहर कुछ उस प्रकार के दिव्य विलासों के विभ्रम का अनुभव कर रही थी, ऐसी कुसुमावली को देखा । अनन्तर मंगल गीतों के साथ पाणिग्रहण प्रारम्भ हुआ जो पारस्परिक प्रेमयुक्त बान्धवों के हृदय को आनन्दित करने वाला था । आरम्भ से समय के विस्तार को न सहने वाले कन्या और वर के निर्मल नाखून रूपी चन्द्रमा की किरणों से युक्त हाथ पहले ही परस्पर मिल चुके थे । १५८-१५६ ।। १. सरीरं ख । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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