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________________ बोली भयो] मग्गं । एत्यंतरम्मि फुरियं मे दाहिणलोयणेणं, समुप्पन्नो हरिसविसेसो । चितियं मए- भवियव अओ वि अवरेणं महापमोएणं ति । एत्यंतरम्मि दिट्ठो मए गोयरपविट्ठो कल्लाणसेट्ठिभवणंगणे साहू। तं च मे दट्टण समुप्पन्नो संभमो । तओ अम्भत्थयाए साहुधम्मस्स विचित्तयाए कम्मपरिणईए अमोहवंसणयाए भयवओ समुप्पन्नं जाइस्सरणं । मुच्छिओ गइंदखंधे, निगडमाणो धारिओ पासवत्तिणा रामभद्दाभिहाणेण सयलहत्थारोहपहाणमयहरेणं'। 'हा किमेयं' ति विसण्णो' रामभद्दो । 'मा वायह'तिं वारिया तरियादी, उवसंता य खिप्पं । 'हा किमयं ति अविसादो वि दढं विसण्णचित्तो समागओ ताओ। 'पूगफलाइमयमइओ हविस्सइ त्ति सिंचाविओ'चंदणपाणिएणं । लद्धा भए चेयणा, उम्मिल्लियं लोयणजयं, कओ आसणपरिग्गही, विरत्तं संसारसायराओ चित्तं । भणियं च ताएण-'पुत्त, किमयं ति। मए भणियं-ताय, दारुणं संसारविलसियं । ताएण भणियं-पुत्त, को एत्थ अवसरो संसारस्स? मए भणियं-ताय, महंती खु एसा कहा, न संखेवओ कहिउं पारीयइ । ता एगमि देसे उविसउ ताओ, स्फुरितं मे दक्षिणलोचनेन, समुत्पन्नो हर्षविशेषः । चिन्ततं मया-भवितव्यमतोऽपि अपरेण महाप्रमोदेनेति। अत्रान्तरे दृष्टो मया गोचरप्रविष्टः कल्याणश्रेष्ठिभवनाङ्गणे साधुः । तं च मे दष्टवा समुत्पन्नो सम्भ्रमः । ततोऽभ्यस्ततया साधुधर्मस्य विचित्रतया कर्मपरिणत्या अमोघदर्शनतया भगवतः समुत्पन्न जातिस्मरणम् । मूर्छितो गजेन्द्रस्कन्धे, निपतन् धारितः पार्श्ववर्तिना रामभद्राभिधानेन सकलहस्त्यारोहप्रधाननायकेण । 'हा किमेतद्' इति विषण्णो रामभद्रः । 'मा दादयत' इति वारिता. स्तर्यादयः, उपशान्ताश्च क्षिप्रम् । 'हा किमेतद्' इति अविषाद्यपि दढं विषण्णचित्तः समागतस्तातः । पूगफलादिमदमदिको भविष्यतोति सिक्तश्चन्दनपानीयेन। लब्धा मया चेतना, उम्मिलितं लोचनयुगम, कृत आसनपरिग्रहः, विरक्तं संसारसागराच्चित्तम् । भणितं च तातेन–'पुत्र ! किमेतदं इति । मया भणितम्-तात ! दारुणं संसारविलसितम् । तातेन भणितम्-पुत्र! कोऽत्रावसरः संसारस्य । मया भणितम्-तात I महती खल्वेषा कथा, न संक्षेपतः कथयितुं पार्यते। आँख फडकने लगी, मुझे विशेष हर्ष हुआ। मैंने सोचा-'इससे भी अच्छी कोई दूसरी खुशी होनी चाहिए।' इसी बीच कल्याण सेठ के भवन के आँगन में गोचरी के लिए प्रविष्ट हुए साधु मुझे दिखाई दिये। उन्हें देखकर मुझे घबड़ाहट हुई । मनन्तर साधुधर्म का अभ्यास होने के कारण, कर्म की परिणति विचित्र होने से (तथा) भगवान के अमोघदर्शन से मुझे जातिस्मरण हो गया । मैं हाथी के कन्धे पर मूछित हो गया, गिरते हुए मुझे समीपबर्ती 'रामभद्र' नामक समस्त हस्ति सवारों के प्रधान नायक ने संभाल लिया। "हाय ! यह क्या"- इस प्रकार रामभद्र दुःखी हुआ। "मत बजाओ"-ऐसा कहकर (उसने) बाजों को रोक दिया, बाजे शीघ्र शान्त हो गये । 'हाय ! यह क्या ?' ऐसा कहकर अविषादी होने पर भी पिता जी अत्यधिक खिन्नचित्त हो गये । “सुपाड़ी आदि के मद का प्रभाव होगा"-ऐसा सोचकर चन्दन का पानी (मेरे ऊपर) सींचा । मुझे होश आया। मैंने नेत्र खोले, मासन ग्रहण किया (तथा) संसार-सागर से (मेरा) चित्त विरक्त हो गया। पिताजी ने कहा-"पुत्र ! क्या हना?" मैंने कहा-"पिता जी! संसार की चमकदमक भयंकर है।" पिताजी ने कहा-"पुत्र ! यहाँ पर संसार का क्या अवसर है ?" मैंने कहा-"पिता जी ! यह बहुत बड़ी कथा है, संक्षेप से नहीं कही जा १. “नरेणं-घ, २. विहाबो-क, ३. रसेणं-छ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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