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________________ ११४ [समराहच्या विम्हिया नागरकारणिया । परिचिंतियं च तेहिं । कहं अप्पडिहयचक्कसत्थवाहपुत्ते चक्कदेवे एवं भविस्सइ ति ?। पुणो वि पुच्छिओ-सत्यवाहपुत्त ! नरिंदसासणमिणं; ता कहेहि फुडत्थं, 'कुओ तुह इम'ति । तओ मए तं चेवाणुचितिऊण तं चेव स्टुिति। तेहिं चिय 'धिरत्थ देव्यस्स' त्ति भणिऊण मंतियं । अन्न पि ते न किंचि परसंतियं गेहे चिट्ठइ?। मए भणियं- न किंचि । तओ तेहि पत्तगं वाइऊण सविसेसमवलोइयं मे गेहं, दिट्ठच जहावाइयं निरवसेसमेव रित्थं । एत्यंतरम्मि य कुविया ममोवरि आरक्खिगा' । नीओ तेहिं नरवइसमीवं । साहिओ वृत्तंतो चंडसासणस्स । भाणओ म्हि राइणा । सत्थवाहपुत्त ! विन्नाउभयलोयमग्गो तुमं, ता न तुह एयमेरिसमसाहुचरियमसंभावणिज्जं संभावमि ति। ता कहेहि ताव, को एत्थ परमत्थो त्ति ? तओ मए तं चेव चितिऊण बाहजलभरियलोयणेणं न किंपि जंपियं नरवइपुरओ त्ति । तओ राइणा समुप्पन्नासंकेणावि तायबहुमाणओ असरिसं वयणमभासिऊण कयत्थणं चाकाऊण निविसओ समाणत्तो म्हि, नीणिओ य रायपुरिसेहि नयराओ, मुक्को य नयरदेवयावणसमोवे । पडिनियत्ता रायपुरिसा। समुप्पन्ना य मे चिंता-किमे कारणिकाः। परिचिन्तितं च तैः । कथमप्रतिहतचक्रसार्थवाहपुत्रे चक्रदेवे एवं भविष्यति इति । पुनरपि पष्ट:-सार्थवाहपुत्र ! नरेन्द्रशासनमिदम्, ततः कथय स्पष्टार्थम् 'कुतः तवैतद्' इति । ततो मया तदेवानुचिन्त्य तदेव शिष्टमिति । तैरेव 'धिगस्तु देवस्य' इति भणित्वा मन्त्रितम् । अन्यदपि ते न किञ्चित्परसत्कं गेहे तिष्ठति ? । मया भणितम् - न किञ्चित् । ततस्तै; पत्रकं वाचयित्वा सविशेषमवलोकितं मे गेहम , दृष्टं च यथावाचितं निरवशेषमेव रिक्थम् । अत्रान्तरे च कुपिता ममोपरि आरक्षकाः । नीतस्तैनरपतिसमीपम् । कथितो वृत्तान्तश्चण्डशासनस्य। भणितोऽस्मि राज्ञा । सार्थवाहपुत्र ! विज्ञातोभयलोकमार्गस्त्वम्, ततो न तवैतदीदशमसाधुचरितमसम्भावनीयं सम्भावयामोति । ततः कथय तावत्कोऽत्र परमार्थ इति । ततो मया तदेव चिन्तयित्वा वाष्पजलभृतलोचनेन न किमपि कथितं नरपतिपुरत इति । ततो राज्ञा समुत्पन्नाशकेनापि तातबहुमानतोऽसदृशं वचनमभाषित्वा कदर्थनां चाऽकृत्वा निर्विषयः समाज्ञप्तोऽस्मि, नीतश्च राजपुरुषैर्नगरात, मुक्तश्च नगर. देवतावनसमीपे । प्रतिनिवृत्ता राजपुरुषाः । समुत्पन्ना च मे चिन्ता-किमेतावन्मात्रपरिभव आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने विचार किया-अप्रतिहतचक्र वणिकपुत्र चक्रदेव से यह कैसे हो सकता है ? पुनः पूछा, "वणिक्पुत्र ! यह राजा की आज्ञा है अतः सही-सही बात कहो । यह कहाँ से प्राप्त हुआ ?" तब मैंने वही सोचकर वही कहा । उन्होंने 'भाग्य को धिक्कार हो' ऐसा कहकर विचार किया। उन्होंने पूछा, "तुम्हारे घर में और भी दूसरे का धन है ?" मैंने कहा, "कुछ भी नहीं है।" तब उन्होंने पत्र को बाँचकर मेरे घर की विशेष रूप से तलाशी ली। जैसा उन्होंने बांचा था उसी प्रकार सम्पूर्ण धन को देखा । इसी बीच मेरे ऊपर नगररक्षक राज्याधिकारी कुपित हुए । वे मुझे राजा के पास ले गये। चण्डशासन से सभी वृत्तान्त कहा। राजा ने कहा, "वणिकपुत्र ! तुम इस लोक और परलोक दोनों के मार्ग के ज्ञाता हो। अत: तुम जैसे अच्छे चरित्र वाले से इस असम्भव बात की सम्भावना नहीं करता हूँ । अतः सही बात कहो।" तब मैंने वही सोचकर राजा के सामने आँखों में आंसू भरकर कुछ भी नहीं कहा। तब राजा ने आशंकित होकर भी पिता को बहुत मानने के कारण अयोग्य वचनों को न कहकर तथा अपमान भी न कर घर से निकालने की आज्ञा दे दी। राजपुरुष मूझे ले गये और नगरदेवी के वन के समीप छोड़ आये। राजपुरुष लौट आये। मैंने विचार किया-इस प्रकार अपमान के पात्र हुए भी मेरा आज जीना १. आरक्खखना-च। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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