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[समराइच्चकहा पसूया देवी। सहाविओ तीए मइसायरो। भणिया य तेण - सामिणि ! अकुसलो विय देवस्स एस गब्भो लक्खीयइ । ता अलं इमिणा, अन्नत्थ संवड्ढउ, मओ देवस्स निवेइयइ ति। तीए भणियंजुत्तमेयं ति । ममं चिय हियएण मंतियं अमच्चेणं ति। तओ पयट्टाविओ' माहवीयाभिहाणाए दासचेडीए दारओ । गया थेवं भूमिभागं । एत्थंतरम्मि दिट्ठा राइणा, पुच्छिया य 'किमयं' ति ? तओ ससझसाए वेवमाणीए भणियं माहवियाए 'देव ! न किंचि' त्ति। एत्थंतरम्मि रुइयं बालेण । तओ दारयं दळूण कुविएणेव भणियं राइणा--आ पावे ! किमेयं ववसियं ति? तओ थोसहावकायरयाए साहिओ सयलवुत्तंतो माहवीयाए। तओ राइणा गहिओ दारओ। चितियं च णेणं, न एस एयाण हत्थे पुणो भविस्सइ त्ति । समप्पिओ अन्नधावोणं सावियाओ य ताओ। जइ कहवि दारयस्स पमाओ भविस्सइ, ता विणट्ठा मम हत्थाओ तुब्भे। निभच्छिया देवी मइसायरो य, कारावियं च देवीमंतिचित्ताणुरोहिणा ईसि पच्छन्नभूयं तहाविहं बद्धावणयं । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो । पइट्ठावियं नामं दारयस्स आणंदो त्ति । वढिओ एसो, गाहिओ कलाकलावं। पुव्वकम्मदोसेण नरवई च तेन-स्वामिनि ! अकुशल इव देवस्य एष गर्भो लक्ष्यते । ततोऽलमनेन, अन्यत्र संवर्ध्यताम, मतो देवस्य निवेद्यते इति । तया भणितम्-युक्तमेतदिति । ममैव हृदयेन मन्त्रितममात्येनेति । ततः प्रवर्तितो माधविकाभिधानया दासीचेट्या दारकः । गता स्तोकं भूमिभागम् । अत्रान्तरे दष्टा राज्ञा, पष्टा च किमेतद् इति ? ततः ससाध्वसया वेषमानया भणितं माधविकया-'देव ! न किंचिद' इति । अत्रान्तरे च रुदितं बालकेन । ततो दारकं दृष्ट्वा कुपितेनेव भणितं राज्ञा-आः पापे ! किमेतद व्यवसितम इति ? ततः स्त्रीस्वभावकातरतया कथितः सकलवत्त
माधविकया। ततो राज्ञा गृहीतो दारकः । चिन्तितं च तेन, नैष एतासां हस्ते पुनर्जीविष्यति)भविष्यतीति समपितोऽन्यधात्रीणाम, शापिताश्च ताः। यदि कथमपि दारकस्य प्रमादो भविष्यति, ततो विनष्टा मम हस्ताद ययम्। निर्भत्सिता देवी मतिसागरश्च, कारितं च देवी मन्त्रिचित्तानुरोधिना ईषत्प्रच्छन्नभूतं तथाविधं वर्धापनकम् । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य आनन्द इति। धित एषः, ग्राहितः कलाकलापम् । पूर्वकर्मदोषेण नरपति प्रति विषमचित्तः । दत्तं
प्रसव किया। उसने मतिसागर मन्त्री को बुलवाया । मतिसागर ने कहा, "स्वामिनि ! महाराज के लिए यह गर्भ अशुभ प्रतीत होता है अतः इससे बस अर्थात इससे क्या लाभ है ? इसको दूसरी जगह बढ़ाएँ तथा महाराज से निवेदन कर दें कि मर गया।" रानी ने कहा, “यह ठीक है। मेरे हृदय से ही मन्त्री ने विचार किया।" तब माधविका नामक दासी को बच्चा देकर भेजा। वह कुछ दूर गयी। इसी बीच राजा ने उसे देख लिया. पूछा, “यह क्या है ?" तब घबड़ाहट से कांपती हुई माधविका ने कहा, "कुछ नहीं महाराज !" इसी बीच बालक रो पड़ा। सब बच्चे को देखकर राजा ने क्रुद्ध होकर कहा, ''अरी पापिन ! यह क्या करने जा रही है ?" तब स्त्रीस्वभावजन्य भीरुता से माधविका ने समस्त वृत्तान्त कह दिया। तब राजा ने बालक ले लिया । उसने सोचा-यह इनके हाथों जीवित नहीं रहेगा, अतः अन्य धायों को दे दिया और उन लोगों को डांटा-"यदि किसी प्रकार बच्चे के विषय में प्रमाद हुआ तो अपने हाथ से तुम लोगों को मार डालूगा।" राजा ने महारानी तथा मतिसागर मन्त्री की निन्दा की। फिर महारानी और मन्त्री के विचार के अनुसार साधारण-सा बधाई-समारोह करवाया । प्रच्छन्न महोत्सव कराया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया । बालक का नाम 'आनन्द' रखा गया । वह बढ़ा, कलाओं के समूह को प्राप्त हुआ । पूर्वकर्म के दोष से वह राजा के प्रति विषम चित्त हो गया। उसे युवराज बनाया
१.परिट्ठाविओ, २. कुविएण।
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