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________________ पढमो भवो] २६ नवगुणसेणे, ठाविए पुरओ सलिलपुण्णे कणयकलसे, पहए जयसिरिसमुप्फालए मंगलतूरे, पठन्तेसु विविमंगलाई बन्दिवन्द्र सु' अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्तं पविट्ठो नरिंदगेहं ति । तओ तम्मि महाजणसमुदए' आउलीहूए नरिंदनिगमननिमित्तं पहाणपरियणे न केणइ समुवलक्खिओ ति । तओ कंचि वेलं गमेऊण दरियकरितुरयसंघायचमढणभीओ निग्गओ नरवइगेहाओ । एत्थन्तरम्मि य गहियसंकुच्छाएहिं मुणियजोइस सत्थपरमत्र्थोहिं भणियं जोइसिएहिदेव ! पत्थं मुहुत्तं, निग्गच्छसु ति । राइणा भणियं - अज्ज तस्स अग्गिसम्मतावसस्स पारणदिवसो, पडिवन्नं च तेण कुलवइवयणाओ मम गेहे आहारगहणं कायव्वं ति । ता आगच्छउ ताव सो महाणुभावो । तओ तं कयभोयणविहाणं पणमिऊण गमिस्सामो । तओ आसन्नवत्तिणा भणियं कुलपुत्तएण - देव ! सो खु महाणुभावो संपय' चेव पविसिऊण दरियकरितुरयसंघायचमढणभीओ निग्गओ रायगेहाओ । अज्ज वि य न नयराओ निग्गच्छइ तितक्केमि । तओ एयमायण्णिऊण ससंभंतो राया पयट्टो तस्स मग्गे, दिट्ठो य णेण नयराओ जयश्री समुत्फालके मङ्गलतूर्ये, पठत्सु विविधमङ्गलानि वन्दिवृन्देषु, अग्निशमंतापसः पारणकनिमित्तं प्रविष्टो नरेन्द्रगेहमिति । ततस्तस्मिन् महाजनसमुदये आकुलीभूते नरेन्द्रनिर्गमननिमित्तं प्रधानपरिजनेन केनचित् समुपलक्षित इति । ततः कांचिद् वेलां गमयित्वा दृप्तकरितुरगसंघातावमर्दनभीतो निर्गतो नरपति गेहात् । अत्रान्तरे च गृहीतशंकुच्छायैः ज्ञातज्योतिश्शास्त्रपरमार्थेः भणितं ज्योतिषिकै: - देव ! प्रशस्तं मुहूर्तम्, निर्गच्छेति । राज्ञा भणितम् - अद्य तस्य अग्निशर्मतापसस्य पारणकदिबस:, प्रतिपन्नं च तेन कुलपतिवचनाद् मम गेहे आहारग्रहणं कर्तव्यमिति । तत आगच्छतु तावत् स महानुभावः । ततस्तं कृतभोजनविधानं प्रणम्य गमिष्यामः । तत आसन्नवर्तिना भणितं कुलपुत्रकेण - देव ! स खलु महानुभावः साम्प्रतं चैव प्रविश्य दृप्तकरितुरगसंघातावमर्दनभीतो निर्गतो राजगेहात् । अद्यापि च न नगराद् निर्गच्छति इति तर्कयामि । तत एतद् आकर्ण्य सम्भ्रान्तो राजा प्रवृत्तस्तस्य मार्गे, दृष्टश्चानेन नगराद् निर्गच्छन् के समान चारों ओर राजा के साधन बढ़ गये। इसी बीच अग्निशर्मा तापस आहार के लिए राजा के घर में प्रविष्ट हुए। उस समय राजा गुणसेन श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ थे । उनके सामने जल से भरे हुए स्वर्णकलश स्थापित किये गये थे । विजयश्री की घोषणा करनेवाले मंगल बाजे बज रहे थे, बन्दीगण अनेक प्रकार के मंगल पाठ कर रहे थे । तब मनुष्यों की उस भीड़ में राजा के बाहर निकलने के कारण आकुल व्याकुल प्रधान सेवकों में से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा । तब कुछ समय बिताकर ( वह तापस) गर्वीले हाथी और घोड़ों के समूह से कुचले जाने के भय से राज- गृह से चलेगये। इसी बीच शंकु (खूंटी) से छाया नापकर ज्योतिषशास्त्र के परम रहस्य को जिन्होंने जान लिया है, ऐसे ज्योतिषियों ने कहा, "देव ! मुहूर्त प्रशस्त है, निकलिए ।" राजा ने कहा, "आज अग्निशर्मा तापस का आहार करने का दिन है। उन्होंने कुलपति के कथनानुसार मेरे घर भोजन करना स्वीकार कर लिया है । अतः वह महानुभाव आ जायें। उन्हें भोजन कराकर प्रणाम करके चल देंगे ।' तब समीपवर्ती कुलपुत्र ने कहा, "देव ! वह महानुभाव इसी समय प्रविष्ट होकर गर्वीले हाथी और घोड़ों समूह से कुचलने के भय से राजमहल से निकल गये। अभी भी नगर से नहीं निकले होंगे - ऐसा सोचता हूँ ।" यह सुनकर घबड़ाया हुआ राजा उनके मार्ग की ओर चल पड़ा । उसने नगर से बाहर निकलते हुए अग्निशर्मा १. बन्दिविदेसु, २. महाजनसमुद्दए, ३. कयभोयणविहाणं, ४ संपयं, ५ ति, ६ मग्गतो. ७ णं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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