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________________ २२४ [समराइज्यव्हा लड्डुओ, भुत्तो य तेणं । आयंता य साहुणो । अवणीयाइं भायणाइं। एत्थंतरम्मि आढत्तो धारिज्जिउ सिहिकुमारो । चिंतियं तेण 'किमयं' ति? पलोइया य साहुणो, जाव सत्था चिट्ठति। तओ गहियमणेण । एवं च जाव थेवा वेला अइक्कमइ, ताव पणट्टा से वाया। चितियं च णेणं-नूणं न भविस्सामि त्ति । निवडिओ धरणिवट्ठ। आउलीहूया साहवो, जालिणी य। चितियं च तेहिकिमयं अकज्जं जणणीए से ववसियं भविस्सइ ? घारिज्जतो य तओ विसेण काऊणमणसणं विहिणा। परिचितिउं पयत्तो हंत ! अपुव्वं किमेयं ति ? ॥३२७॥ धी संसारसहावो अंबा (ब) किल धम्मचरणजोएण। संसारकिलेसाओ मोयविस्सामि अचिरेण ॥३२८॥ जाव न संपन्नमिणं समीहियं अविगलं अपुण्णस्स। तह पाडिया य एसा पमायओ अयसपंकम्मि ॥३२६॥ संकिस्सइ य अणज्जो लोओ एत्थं असंकणिज्जं पि। अंबाए पुववृत्तंतभाविओ मोहदोसेण ॥३३०॥ संगत एव कुमारस्य तालपुटलड्डुकः, भुक्तश्च तेन । आचान्ताश्च साधवः। अपनीतानि भाजनानि । अत्रान्तरे आरब्धो (विषेण) ग्राहयितं शिखिकुमारो। चिन्तितं च तेन 'किमेतत्' इति ? प्रलोकिताश्च साधवः, यावत् स्वस्थास्तिष्ठन्ति । ततो गहितमनेन । एवं च यावत् स्तोका वेला अतिक्रामति, तावत् प्रनष्टा तस्य वाचा। चिन्तितं च तेन। नूनं न भविष्यामि इति । निपतितो धरणिपृष्ठे । आकुलीभूताः साधवो, जालिनी च । चिन्तितं च तैः-किमेतद् अकार्य जनन्या तस्य व्यवसितं भविष्यति? ग्राह्यमाणश्च ततो विषेण कृत्वाऽनशनं विधिना। परिचिन्तयितु प्रवृत्तो हन्त ! अपूर्व किमेतद् इति ।।३२७॥ धिक संसारस्वभावः अम्बां किल धर्मचरणयोगेन । संसारक्लेशाद् मोचयिष्यामि अचिरेण ॥३२८।। यावद् न सम्पन्नमिदं समीहितमविकलमपुण्यस्य । तथा पातिता चैषा प्रमादतः अयशःपङ्के ।।३२६॥ शङ्किष्यते चाऽनार्यो लोकोऽत्र अशङ्कनीयमपि । अम्बायाः पूर्ववृत्तान्तभावितो मोहदोषेण ॥३३०।। शिखिकुमार को थाक्रान्त कर लिया। उसने सोचा-यह क्या है ? साधुओं ने देखा, जब तक स्वस्थ न हो तब तक उसे (कपड़े से) ढक दिया। इस प्रकार जब कुछ समय व्यतीत हुआ तब उसकी वाणी रुक गयी। उसने सोचा-निश्चित रूप से (अब) नहीं रहूँगा। धरती पर पड़ गया। साधु और जालिनी व्याकुल हो गये। उन्होंने (साधुओं ने) सोचा-क्या यह अकार्य उसकी माता ने किया होगा? अनन्तर विष से ग्रसित होकर (शिखिकुमार) विधिपूर्वक अनशन कर सोचने लगा-हाय ! यह अपूर्व क्या है ? संसार के स्वभाव को धिक्कार । धर्माचरण के द्वारा संसार के क्लेश से माता को शीघ्र ही छुड़ाऊँगा। यदि इस पुण्यहीन का यह दुष्टकार्य पूरी तरह से सम्पन्न नहीं हो जाता तो यह प्रमाद से कीचड़ में गिरा दी जायेगी । अनार्य लोग इस विषय में अशंकनीय बात की भी शंका करेंगे। मोह के दोष से अपयशरूपी माता का पहिले का वृत्तान्त विचारा ॥३२७-३३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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