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________________ ३९२ [समकहा न य अत्थि नविय होही पाएणं तिहुयणम्मि सो जीवो। जो जोवणमणुपत्तो वियाररहिओ सया होइ ॥४५०।। ___ बिइयदियहमि य नागवल्लीलयालिगियं पूयपायवमवलोइऊण तयासन्नं च सहयरिचड़यम्मकारयं रायहंसं विहुणियकरपल्लवं बाहोल्ललोयणा नीससिऊण दोहदीहं निग्गा तवोवणाओ। तओ मए चितियं न सोहणो से आगारो । ता पेच्छामि ताव कहिं एसा वच्चइ ति। जाव य गेण्हिऊण छज्जियं गया कुसुमोच्चयभूमि, तरलतारय च पयत्ता पुलोइउं। तओ मए चितियं-कि पुण एसा पुलोएइ त्ति । जाव पुलोएमाणी य गया असोयवीहियं । कयलिवणंतरिया य ठिश से अहं मग्गओ। परुणा य सा । भणियं च तीए-भयवईओ वणदेवयाओ, एसो खु सो पएसो, जहिं अज्जउत्तेण तावसि त्ति कलिऊण सविणयं पणमिय म्हि, भणिया य–भयवइ, वड्ढउ ते तवोकम्मं, अहं खु पुरिसो सेयवि गावस्थव्वओ तामलित्तीओ सोहलदीवं पयट्टो । अंतराले विवन्नं जाणवत्तं, अओ एगाई संवत्तो। ता कहेउ भयवई, को पुण इमो पएसो; कि ताव जलनिहितडं, किं वा कोइ दीवो; कहिं वा तुम्हाण न चास्ति नापि च भविष्यति प्रायेण त्रिभुवने स जीवः । यो यौवनमनुप्राप्तो विकाररहितः सदा भवति ॥४५०॥ द्वितीयदिवसे च नागवल्लोलताऽऽलिङ्गितं पूगपादपमवलोक्य तदासन्नं च सहचरोचाटुकर्मकारकं राजहंसं विधुतकरपल्लवं वाष्पार्द्रलोचना निःश्वस्य दीर्घदीर्घ तपोवनात् । ततो मया चिन्तितम्-न शोभनस्तस्या आकारः । ततः पश्यामि तावत् कुत्रैषा व्रजतीति । यावच्च गहीत्वा पुष्पकरण्डिकां गता कुसुमोच्चयभूमिम्, तरलतारकं च प्रवृत्ता द्रष्टुम् । ततो मया चिन्तितम्-- कि पुनरेषा पश्यतीति ? यावत् पश्यन्ती च गताऽशोकवीथिकाम् । कदलीवनान्तरिता च स्थिता तस्या अहं मार्गतः । प्ररुदिता च सा । भणितं च तया-भगवत्यो वनदेवता:! एष खलु स प्रदेशः, यत्र आर्यपुत्रेण तापसीति कलयित्वा सविनयं प्रणताऽस्मि, भगिता -भगवति ! वर्धतां ते तपःकर्म अहं खलु पुरुषः श्वेतविकावास्तव्यः तामलिप्तीतः सिंहलद्वीपं प्रवृत्तः । अन्तराले विपन्न यानपात्रम्, अत एकाकी संवृत्तः । ततः कथयतु भगवतो, कः पुनस्यं प्रदेशः, किं तावज्जलनिधितटम, किं वा कोऽपि तीनों लोकों में प्राय: न तो कोई जीव हुआ है, न होगा जो यौवनावस्था को प्राप्तकर सदा विकाररहित हुआ हो ॥४५०॥ दूसरे दिन पान की बेल से आलिंगत सुपारी के वृक्षों को और उसके समीप प्रिया की चाटुकारी करते हुए राजहंस को देखकर, हाथ रूपी पल्लव को हिलाकर, आँसुओं से आर्द्रलोचन वाली होकर लम्बी-लम्बी साँसें लेती हुई तपोवन से निकल गयी । तब मैंने सोचा-उसकी आकृति ठीक नहीं है । अतः देखेंगी यह कहाँ जाती है । तब वह फूल की डलिया लेकर फूलों के संग्रह के स्थान पर गयी और चंचल नेत्रों से देखने लगी। तब मैंने सोचा यह क्या देख रही है ? फिर मैंने देखा कि वह अशोक वोथी में गयी। केले के वृक्षों के बीच मैं उसके मार्ग में छिप गयी। वह रोयी। उस कहा-'भगवती वनदेवियो ! यह वह प्रदेश है जहाँ आर्यपुत्र ने मुझे तापसी मानकर प्रमाम किया था और कहा था-भगवती ! तुम्हारा तप कर्भ बढ़े, मैं श्वेतविका का निवासी पुरुष हूँ, तामलिप्ती से सिंहल देश की ओर जा रहा था। इसी बीच जहाज टूट गया, अत: अकेला हो गया । अतः भगवती कहें, यह कौन-सा प्रदेश है ? क्या यह समुद्रतट है अथवा कोई द्वीप है, अथवा तुम्हारा आश्रम कहाँ है ? मैंने घबड़हाट १. न इव-क, २. चूप रायत्र.-ख, असोयपाय-क. ३. चाडुया मारयं-1, ४. नीलिप- । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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