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पढमो भवो ]
अन्तेउरियाहीरं पुण्णव रंत्तत्त'-रीयवरपोत्तं । सविसेसपसाहियसंमिलंतर मायणाइण्णं ॥५३॥ पिट्ठागय मुट्ठिपहार भीरुरामाविमुक्कसिक्कारं । मयवस विलासिणीजणनच्चाविज्जंतकंचुइयं ॥ ५४ ॥ सुच्चंत करण्फालियतालायरमुरयमहुरनिग्घोसं । दाणपरितुट्ठबहुवं दिवंद्र उग्घुटुजयसद्दं ॥५५॥ नच्चतम डहवा मणचेडीहासिज्जमाणनरनाहं । बद्धावाणयनिवहं वद्धावणयं मणाभिरामं ॥ ५६ ॥
पवत्तोय वसंतउरे नयरे महामहूसवो । एवंविहे य देवीपुत्तजम्मन्भुदयाणंदिए महापमत्ते सह राणा रायपरियणे अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमित्तं रायउलं पविसिऊण वयणमेत्तेणवि केणइ tarusवत्ती असुहकम्मोदएणं अट्टज्झाणदूसियमणो लहुं चैव निग्गओ । चितियं च णेणं- अहो ! से राइणो आ बालभावाओ चेव असरिसो ममोवरि वेराणुबंधो ति । पेच्छह से अइणिगूढायारमा
अन्तःपुरिका हियमाणपूर्णं - पात्रोत्तरीयवरपोतम् । सविशेषप्रसाधितसम्मीलद्रामाजनाकीर्णम् ॥५३॥ पृष्ठागत- मुष्टिप्रहारभीरु - रामाविमुक्त सीत्कारम् । मंदवश विलासिनीजननर्त्य मानकञ्चुकिकम् ॥५४॥
श्रूयमाणकरास्फालिततालादरमुरजमधुरनिर्घोषम् । दानपरितुष्टबहुवन्दिवृन्दउद्दृष्टजयशब्दम् ॥५५॥ नृत्य मानलघुवामन चेटीहास्यमाननरनाथम् ।
assafras वर्धापनकं मनोऽभिरामम् ॥ ५६ ॥
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प्रवृत्तश्च वसन्तपुरे नगरे महामहोत्सवः । एवंविधे च देवीपुत्रजन्माभ्युदयानन्दिते महाप्रमत्ते सह राज्ञा राजपरिजने अग्निशर्मतापसः पारणकनिमित्तं राजकुलं प्रविश्य वचनमात्रेणाऽपि केनाऽपि अकृतप्रतिपत्तिः अशुभ कर्मोदयेन आर्तध्यानदूषितमना लध्वेव निर्गतः । चिन्तितं चानेन - अहो ! तस्य _राज्ञ आबालभावात् चैव असदृशो ममोपरि वैरानुबन्ध इति । प्रेक्षध्वं तस्य अतिनिगूढाचारचरितम्,
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पूर्णपात्र ( भरे हुए कलश), उत्तरीय वस्त्र और श्रेष्ठ पोत ले आयीं । विशेष रूप से सजावट कर एकत्रित होती हुई स्त्रियों से वह स्थान व्याप्त था । पीछे से आये हुए किसी की मुट्ठी के प्रहार से भयभीत स्त्रियाँ वहाँ सी-सी शब्द कर रही थीं । मदिरा के वश स्त्रियों के द्वारा कञ्चुकी नचाये जा रहे थे। हाथों से दबाये गये ताल देते हुए मृदंग की मधुर ध्वनि वहाँ सुनाई पड़ रही थी । दान से सन्तुष्ट बहुत से वन्दियों के समूह द्वारा वहाँ जय जय शब्द की घोषणा हो रही थी । छोटी बौनी चेटियाँ (दासियाँ) राजा को हंसाती हुई नृत्य कर रही थीं । जम चुकी थी । ।। ५२-५६।।
मद्यपों की गोष्ठी
वसन्तपुर नगर में महान् महोत्सव प्रवृत्त हुआ । इस प्रकार जब रानी के पुत्र जन्म रूप अभ्युदय से आनन्दित हुआ राजा सेवकों के साथ अत्यधिक प्रमादी हो रहा था तब अग्निशर्मा तापस आहार के निमित्त राजभवन में प्रविष्ट हुआ । वचनमात्र से भी उसका किसी ने सत्कार नहीं किया । अशुभकर्म के उदय से उसका मन आर्तध्यान से दूषित हो गया और वह शीघ्र ही ( वहाँ से ) निकल गया। उसने विचार किया- 'अरे ! यह राजा बाल्या
१. पुण्णवं तुत्त, २. सुच्चवंत ।
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