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________________ ३४ [समराइच्चकहा चरियं, जेण तं तहा मम समक्खं मणाणुकूलं जंपिय करणेण विवरीयमायरइ ति। चिंतयंतो सो निग्गओ नयराओ। एत्थंतरम्मि य अन्नाणदोसेणं अभावियपरमत्थमग्गत्तणेण य गहिओ कसाएहि, अवगया से परलोयवासणा, पणट्ठा धम्मसद्धा, समागया सयलदुक्खतरुबीयभूया अमेती, जाया य देहपीडाकरी अतीव बुभुक्खा । आकरिसिओ बुभुक्खाए। तओ पढमपरीसहवइएण तेण अन्नाणकोहवसएणं । घोरं नियाणमेयं पडिवन्नं मूढहियएणं ॥५७॥ जइ होज्ज इमस्स फलं मए सुचिण्णस्स वयविसेसस्स । ता एयस्स वहाए पइजम्मं होज्ज मे जम्मो ॥५८॥ न कुणइ पणईण पियं जो पुरिसो विप्पियं च सत्तूणं । किं तस्स जणणिजोव्वणविउडणमेत्तेण जम्मेणं ॥५६॥ सत्त य एस राया मम सिसुभावाउ चेव पावो ति। अवराहमंतरेण वि करेमि तो विप्पियमिमस्स ॥६०॥ येन तत तथा मम समक्षं मनोऽनुकलं कथयित्वा करणेन विपरीतमाचरतीति चिन्तयन् स निर्गतो नगरात् । अत्रान्तरे च अज्ञानदोषेण अभावित परमार्थमार्गत्वेन च गृहीतः कषाय:, अपगता तस्य परलोकवासना, प्रणष्टा धर्मश्रद्धा, समागता सकलदुःखतरुबीजभूता अमैत्री, जाता च देहपीडाकरी अतीव बुभुक्षा । आकृष्टो बभक्षया। तत प्रथम परीषहपतितेन तेन अज्ञानक्रोधवशगेन । घोरं निदानमेतद् प्रतिपन्नं मूढहृदयेन ॥५७॥ यदि भवेद् अस्य फलं मया सुचीर्णस्य व्रतविशेषस्य । तस्माद् एतस्य वधाय प्रतिजन्म भवतु मम जन्म ॥५८।। न करोति प्रणयिनां प्रियम, यः पुरुषः विप्रियं च शत्रणाम्। किं तस्य जननीयौवनविकुटनमात्रेण जन्मना ॥५६॥ शत्रश्चेष राजा मम शिशभावाच्चैव पाप इति । अपराधमन्तरेणाऽपि करोमि ततः विप्रियमस्य ॥६०॥ वस्था से ही मुझसे विपरीत वैरभाव बांधे हुए है । इसका अत्यन्त गूढ़ आचरण तो देखो, मेरे सामने वह मेरे अनुकूल कथन करके कार्य में विपरीत आचरण करता है !' इस प्रकार विचार करते हुए वह नगर से निकल गया। इसी बीच अज्ञान के दोष से, यथार्थ मार्ग की भावना न करने से उसे कषायों ने जकड़ लिया। उसकी परलोक की इच्छा नष्ट हो गयी, धर्म के प्रति श्रद्धा नष्ट हो गयी, समस्त दुःखों की बीजभूत शत्रुता आ गयी तथा देह को पीड़ा पहुँचानेवाली बड़ी भूख उत्पन्न हुई । भूख ने उसे आकर्षित कर लिया। तदनन्तर प्रथम परीषह से पतित, अज्ञान और क्रोध के वशीभूत होकर उस मढ़ हृदय ने यह घोर निदान (कर्म फल का संकल्प) किया कि चिरकाल तक किये हुए इस व्रतविशेष का यदि कोई फल हो तो इसके वध के लिए ही मेरा प्रत्येक दूसरा जन्म हो । जो मनुष्य प्रेमी व्यक्तियों का प्रिय नहीं करता है और शत्रुओं का अप्रिय नहीं करता है, माता के यौवन को क्षीण करनेवाले उसके जन्म से क्या लाभ ? यह राजा मेरे जन्मकाल से ही शत्रु है और पापी है। अत: अपराध के बिना ही मैं इसका अप्रिय करूँगा।' ऐसा निदान कर उस स्थान से पीछे न हटकर अनेक बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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