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तामो भयो ]
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वंचिज्जामि । ता जाव चेव न गेण्हइ एस एयं, ताव चेव अहं केणइ उवाएण वावाइस्सं ति । एत्थंतरम्मि पत्ता नयरं। आरामसमीवठिएणं भणिओ तुमए मंगलगो। भद्द मंगलग ! गच्छ, ससुरकुलपत्ति मे कुओ वि उवलहिय संवाएहि, जेण पविसामो नधरं ति । पयट्टो मंगलगो। चितियं च
णं-पविट्ठो खु एसो लहुं चेव एवं गेण्हिस्सइ। ता तह. गुचिट्ठामि, जहा न एस एत्थ पविसइ । गच्छंतो य मे सुहवावायणिज्जो भविस्सइ। ता एवं से निवेएमि। जहा, इत्थिसहावओ कुलविरुद्धमाचरिऊण पविसिया ते घरिणी । अओ अच्चंतमुस्विग्गं ते ससुरकुलं । सुयं च अम्हाणमागमणमेपहि, अओ अहिययरं लज्जियाणि । ता न जुत्तमेत्थ पविसि ति संपहारिय तओ नयरं पविसिऊण कयकालक्खेवो मायाचरिएण विवण्णमुहच्छाओ आगओ ते समोवं । निवेइयं जहा चितियं । तओ विसण्णो तुम। चितियं च तुमए-धिरत्थु इत्थिभावस्स, जमे वहा वि सावयकुलुप्पन्ना वि सुविन्नायजिणवयणसारा वि उभयलोयविरुद्धमायरइ । अहवा नत्थि दुक्करं मोहभावस्स । ता अलं मे इयाणि पि गिहवासेण । पवज्जामो तित्थयरभासियं साहुधम्मं । एवमवसाणो खु एस सिणेहबंधो। ता अलं
गृह्णाति एष एनम् , तावच्चैव अहं केनचिदुपायेन व्यापादयिष्य इति । अत्रान्तरे प्राप्तौ नगरम् । आरामसमीपस्थितेन भणितस्त्वया मङ्गलकः---भद्र मङ्गलक ! गच्छ, श्वसुरकुलप्रवृत्ति मम कुतोऽपि उपलभ्य सम्पादय, येन प्रविशामो नगरमिति । प्रवृत्तो मङ्गलकः । चिन्तितं च तेन--विष्टः खलु एष लध्वेव एतं ग्रहीष्यति। ततस्तथाऽनुतिष्ठामि, यथा नैषोऽत्र प्रविशति । गच्छंश्च मम सुखव्यापादनोयो भविष्यति । तत एतत् तस्य निवेदयामि । यथा, स्त्रीस्वभावतः कुलविरुद्धमाचर्य प्रविष्टा (अन्यगृहे) तव गृहिणो । अतोऽत्यन्तमुद्विग्नं तव श्वसुरकुलम् । श्रुतं च अस्माकमागमनमेतैः, अतोऽधिकतरं लज्जितानि । ततो न युक्तमत्र प्रवेष्टुमिति सम्प्रधार्य ततो नगरं प्रविश्य कृतकालक्षेपः मायाचरितेन विवर्णमुखच्छाय आगतस्तव समीपम् । निवेदितं यथा चिन्तितम् । ततो विषपणस्त्वम् । चिन्तितं च त्वया-धिगस्तु स्त्रोस्वभावम् , यदेवंविधाऽपि श्रावककुलोत्पन्नाऽपि, सुविज्ञातजिनवचनसाराऽपि उभयलोकविरुद्ध माचरति । अथवा नास्ति दुष्करं मोहभावस्य । ततोऽलं मम इदानीमपि गृहवासेन। प्रपद्यामहे तोर्थंकरभाषितं साधुधर्मम् । एवमवसानः खलु एष स्नेह
कर लेता है तब तक मैं इसे किसी उपाय से मार डालू । इसी बीच दोनों नगर आये । उद्यान के समीप स्थित तुमने मंगलक से कहा-“भद्र मंगलक ! जाओ, कहीं से श्वपुर का हालचाल जानकर मुझे बतलाओ, जिससे (हम लोग) नगर में प्रवेश करें।" मंगलक गया। उसने सोचा- प्रवेश करने पर यह शीघ्र ही ग्रहण कर लेगा अतः वैसा उपाय करता हूँ जिससे यह प्रवेश न करे । मेरे जाने पर यह आसानी से मारा जायेगा । अत: इससे यह कहता हूँ कि स्त्री स्वभाव के कारण कुल के विरुद्ध आचरण कर तुम्हारी पत्नी दूसरे के घर गयी। अतः तुम्हारे श्वसुर का परिवार अत्यन्त उद्विग्न है । इन लोगों ने हम लोगों के आने का समाचार सुना है, अतः अत्यधिक लज्जित हैं । अतः यहाँ प्रवेश करना उचित नहीं है' ऐसा निश्चय कर पश्चात् नगर में प्रवेश कर कुछ विलम्ब कर कपटी मलिनमुख बनाकर तुम्हारे पास आया। जैसा सोचा था वैसा निवेदन किया । तब तुम खिन्न हो गये । तुमने सोचा--स्त्री स्वभाव को धिक्कार कि जिसने इस प्रकार के कुल में उत्पन्न होकर और भली-भाँति जिनवचनों के सार को जानकर भी दोनों लोकों के विरुद्ध आचरण किया । अथवा मोह के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । अतः मेरा घर में रहना व्यर्थ है। मैं तीर्थंकर के द्वारा कहे हुए साधुधर्म को प्राप्त होता हूँ। स्नेह के बन्धन की समाप्ति इस प्रकार होती है। मेरा अब अपने घर जाना व्यर्थ है । यहाँ से ही जहां भगवान् बनंदेगव हैं वहां
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