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पूज्य प्रवर्तिनी सञ्जन श्रीजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ VYYYYYYYYYYYY
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(आचार्यश्री जिनउदयसागरजी महाराज की आज्ञानुवर्ती प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज की स्वर्ण-जयन्ती के उपलक्ष्य पर अभिनन्दन-गन्थ)
निर्देशनः गणि मणिप्रभसागर जी प्रधान सम्पादिकाः साध्वीश्रीशशिप्रभा श्री जी
प्रकाशन: श्री जैन श्वेताम्बरखरतरगच्छ संघ जयपुर (राजस्थान)
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लूनिया परिवार की ओर से सप्रेम भेंट
अर्थ सौजन्य : स्व० श्री केसरीचन्दजी लूनिया परिवार के सौजन्य से ।
सम्पादक मण्डल : ० प्रबन्ध सम्पादक :
श्रीचन्द सुराना “सरस" सुरेन्द्र बोथरा सह सम्पादक : मदनलाल शर्मा सदस्य: १. साध्वी प्रियदर्शनाश्री २. साध्वी सम्यग्दर्शनाश्री ३. श्री भंवरलाल नाहटा ४. म० विनयसागर ५. डा० नरेन्द्र भानावत ६. श्री राजेन्द्रकुमार श्रीमाल ७. डा० महेन्द्रसागर प्रचन्डिया ८. श्री ज्योतिकुमार कोठारी ६. श्रीमती रत्ना लूनिया
- प्राप्ति स्थान :
श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जोहरी बाजार जयपुर-३०२००३ दूरभाष : ४३८८४
विजयकुमार पुखराज लूनिया मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, • जोहरी बाजार जयपुर–३०२००३ दूरभाष : ४४६७१
0 मुद्रण :
श्रीचन्द सुराना के निर्देशन में दिवाकर-प्रकाशन, ए-७, अवागढ़ हाउस, एम० जी० रोड अंजना सिनेमा के सामने, आगरा-२८२००२ के लिए कामधेनु प्रिंटर्स एण्ड पब्लिसर्स आगरा।
वि० सं० २०४६ वैशाख पूर्णिमा ईस्वी सन् १९८६ : २० मई
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सेमर्पणसुमन
जिनका जीवन कमल पत्र सम निर्लेप शुभ्र चन्द्रिका सा शुभ्र-शीतल संयम-समता-शुचिता का सम्पुट है, सेवा स्वाध्याय-सरलता ही जिनका पर्याय है, भक्ति-विनम्रता-मृदुता जिनकी पहचान है,
ज्ञानयोगिनी, आगमज्योति, श्रमणीरत्न गुरुवर्या पूज्य प्रतिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज
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दीक्षा पर्याय के अर्धशतक के शुभारम्भ पर सविनय-सभक्ति समर्पित
विनेय
-साध्वी शशिप्रभाश्री .-साध्वी प्रियदर्शनाश्री
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प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म० सा० अभिनन्दन.
समारोह समिति, जयपुर
स्वागत समिति
१. श्री मोहनचन्द ढढ्ढा (स्वागताध्यक्ष) २. श्री विमलचन्द सुराना
२२. श्री हस्तीमल मेहता ३. श्री पुखराजचन्द लूनिया
२३. श्री शिखरचन्द पंगलिया ४. श्री डी० आर० मेहता
२४. श्री कपूरचन्द कुलिश ५. श्रीमती जतनकंवर गोलेच्छा
२५. श्री हरिश्चन्द्र बडेर ६. श्री उत्तमचन्द बडेर
२६. श्री हीराभाई चौधरी ७. श्री कपिलभाई शाह
२७. डा० नरेन्द्रकुमार भानावत ८. श्री नरेन्द्रकुमार लूणावत
२८. श्री मेहरचन्द धांधिया ६. श्री उमरावमल चोरडिया
२६. डा० हुकुमचन्द भारिल्ल १०. श्री सरदारमल चोपड़ा
३०. श्री अभयमल शाह ११. श्री उत्तमचन्द सेठिया
३१. श्री विजयकुमार गोलेच्छा १२. श्री राजकुमार बरडिया
३२. डा० ताराचन्द बख्शी १३. श्री राजकुमार काला
३३. श्री निर्मलकुमार सुराना १४. श्री रतनलाल छाबड़ा
३४. श्री तिलकराज जैन १५. श्री दौलतसिंह जैन
३५. श्री सुभाष कास्टिया १६. श्री रणजीतसिंह कुम्भट
३६. श्रीमती मीना सुराना १७. श्री हीराचन्द बैद
३७. श्रीमती सरोजनी कोचर १८. श्री दुलीचन्द टॉक
३८. श्री माणकचन्द लूनिया १६. श्री बुधसिंह बाफना
३६. श्री कन्हैयालाल जैन २०. श्री तिलोकचन्द सिंघी
४०. श्री नरेन्द्रकुमार गोलेच्छा २१. श्री लालचन्द बैराठी
४१. श्रीमती कमला बरडिया
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| आशीर्वचन
नाणेणं दंसणेणं च, चरित्तेण तहेव य। खंतीय मुत्तीए,
वड्ढमाणो भवाहि य ।। तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शान्ति-क्षमा और मुक्ति-निर्लोभता के पथ पर सतत आगे बढ़ो।
-उत्तराध्ययन सूत्र २२/२६ संसार सागर घोर तर कन्ने ! लहु लहु। हे पुण्य शालिनीकन्ये ! तुम संसार सागर को अतिशीघ्र पार करो।
-उत्त० २२/३१ भदते ! भदंते ! अभग्गेहिं नाण-दंसणचरित्तेहि अजियाइं जिणाहि इंदियाई
जियं च पालेहि समणधम्मं ॥ तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो। तुम निरतिचार ज्ञान-दर्शन और चारित्र से नहीं जीती हुई इन्द्रियों को जीतो, विजयी बनकर श्रमण धर्म का पालन करो।
-कल्पसूत्र ११२
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प्रकाशक के बोल
भारतीय धर्म परम्परा में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है, एक ऐसी उदात्त परम्परा है, जिसमें साधना-उपासना के क्षेत्र में, स्त्री-पुरुष का समान महत्व हैं, समान ही अधिकार है । और समान गरिमा प्राप्त है । यहाँ सिर्फ मधुर प्रिय और उदार शब्दों के पुष्प अर्पित कर नारी की पूजा ही नहीं की गई है, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में आत्मविश्वास के सर्वोच्च स्वरूप में उसकी समान स्थिति को स्वीकार कर उसका समान महत्व प्रतिष्ठित किया गया है।
आज तक के जैन इतिहास को उठाकर देखने से यह बात दिन के उजाले की तरह उद्भासित है कि इस पवित्र परम्परा में आदिकाल से जगन्माता भगवती मरुदेवा, ब्राह्मीसुन्दरी, तीर्थंकर भगवती मल्ली, महासती सीता, अञ्जना साध्वी तीर्थ प्रमुखा चन्दनबाला आदि की एक ऐसी अखण्ड उज्ज्वल परम्परा रही है, जो गंगा की तरह पवित्र है ही, इस धर्मंधरा को सदा अभिसिंचित और संबंधित भी करती रही है । इसी पुण्य परम्परा के पावन सम्पोष से भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता सदा पुष्पित- फलित होती रही है ।
नारी न केवल नारी है, किन्तु वह "न-अरि" के रूप में विश्वमंत्री व विश्व - वात्सल्य की प्रतीक है । संस्कृति की संरक्षिका है ।
जैन परम्परा की इसी पुण्य कड़ी में आज श्वेताम्बर खरतरगच्छ परम्परा में आर्या प्रवर्तनी श्रीसज्जन श्रीजी महाराज एक ऐसा ही उदात्त व्यक्तित्व है, जो भारतीय नारी और साध्वी परम्परा का गौरव कही जा सकती है। आपश्री के चतुर्मुखी व्यक्तित्व का दिग्दर्शन प्रस्तुत ग्रन्थ में अंकित है, अतः यहाँ पुनरुक्ति न करके हम इतना ही कहना चाहते हैं कि प्रवर्तिनी सज्जन श्रीजी का जीवन साधना की एक अखण्ड ज्योति है, जिसका प्रकाश अतीत को भी आलोकित करता है, वर्तमान दीपित है ही, और आने वाला कल भी उद्दीपित रहेगा ।
ऐसी पुण्यशालिनी संयम साधिका का दर्शन वन्दन एक महान पुण्य का प्रसंग है, इसका अभिनन्दन सत्य- शील-साधुता का अभिनन्दन है । आपश्री की दीक्षा के ४७ वर्ष सम्पन्न हो गये हैं, यह पाँचवा दशक पूर्ण होते ही अर्धशतक पूर्ण हो जायेगा । इसी शुभ अवसर को लक्ष्य में लेकर हमारे जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ श्री संघ ने आपश्री का अभिनन्दन करने का शुभ निश्चय किया है जो अवसर आज प्राप्त हो रहा है। हमें अत्यधिक आनन्दानुभूति हो रही है । सन्तों का अभिनन्दन किसी भौतिक उपहार से नहीं किया जाता, वे तो ज्ञान, संयम एवं तपस्या के जीवन्त रूप होते हैं, अतः उनका अभिनन्दन भी उसी के अनुरूप होना चाहिए । हमारी इस परिकल्पना को साकाररूप प्रदान किया है गुरुवर्याश्रीजी की प्रधानशिष्या विदुषी साध्वी श्री शशिप्रभा श्री, प्रियदर्शनाश्रीजी आदि साध्वी मंडल ने । उनकी उदात्त कल्पना
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एवं सृजन धार्मिता का ही यह सुपरिणाम है कि एक श्रमणी के गौरव रूप में इतना श्रेष्ठ अभिनन्दन ग्रन्थ तयार हो सका ।
इस महान कार्य में गणीप्रवर श्रीमणिप्रभसागरजी महाराज का मार्गदर्शन, सम्प्रेरणा तो उसी प्रकार रही है, जिस प्रकार ज्योति को प्रज्ज्वलित होने में तेल और बाती का संयोग-सुयोग ।
हमें अत्यधिक प्रसन्नता और गौरव है कि इस महान ग्रन्थ के प्रकाशन में पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी के संसारपक्षीय परिवार ने महत्वपूर्ण आधारभूत भूमिका निबाही है। पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी का जन्म जयपुर के लूनिया परिवार में हुआ। आज आपके परिवार में सभी प्रकार की समृद्धि, सम्पन्नता और सुसंस्कारिता देखी जाती है । आपके परिवार के प्रमुख सदस्य, श्रीविजयकुमार जी, श्री पुखराजजी, माणकचन्द जी सुरेशकुमारजी, श्रीमती रत्नाजी, सायरजी, पन्ना सकलेचा आदि समस्त परिवार ने इस अभिनन्दन ग्रन्थ को सम्पन्न कराने में न केवल आर्थिक किंतु सम्पूर्ण भावनात्मक सहयोग भी प्रदान किया है ।
श्रीपुखराज जी लूनिया अत्यन्त उत्साही, मृदुभाषी, मिलनसार एवं धार्मिकवृत्ति के धनी है । क्रियात्मकता आपका विशिष्टगुण है । इसी विशिष्ट गुण के कारण आपने रत्न व्यवसाय में देश और विदेश में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । सन् १९६० में ये तेरापंथ युवक परिषद जयपुर के मंत्री पद पर आसीन हुए थे तथा सन् १६६७ में आयोजित सभी जैन सम्प्रदायों की अखिल भारतीय कान्फ्रेंस के सह संयोजन का दायित्व आपने कुशलता से निभाया । युवावस्था ही में आपने आचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा से “अणुव्रत" आचारनिष्ठा को अपना लिया था । धर्म प्रचार का कार्य आप अनवरत चलाते आ रहे हैं । न्यूयार्क शहर में स्थापित " जैन सेन्टर " के आप जन्मदाता सदस्य एवं उपसभापति रह चुके हैं। यह श्री पुखराज जी की ही प्रेरणा एवं अनवरत परिश्रम का फल है कि प्रवर्तिनी श्रीसज्जन श्री जी का "अभिनन्दन ग्रन्थ" प्रकाशित हो रहा है । साधुजनों का साधुत्व, उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रचारित प्रकाशित करना भी निसंदेह साधुवाद की ही पात्रता रखता है ।
श्री पुखराजजी के छोटे भाई माणकचन्दजी लूणिया भी अत्यन्त क्रियाशील, अनुभवी व्यापारी एवं धार्मिकवृत्ति के हैं । रत्नव्यवसाय में आपने भी अपने कीर्तिमान स्थापित किये हैं । अल्पभाषी किन्तु चिंतनशील माणकचन्दजी एवं उनकी सुशीला पत्नी सायरजी लूनिया ने भी ग्रन्थ सम्पादन में अपना पूरा-पूरा योगदान दिया । निस्संदेह आप धन्यवाद के पात्र हैं । एक अत्यन्त प्राचीन ( अनुमानत: २५०० वर्ष ) जैन मन्दिर के जीर्णोद्वार में भी संघ के साथ आप पूर्ण प्रयत्नशील है । दोनों ही भाइयों ने अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन में अपना पूरा-पूरा सहयोग दिया है ।
श्रीपुखराज चन्दजी लूनिया एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रत्ना लूनिया ने तो रात-दिन का अथक श्रम करके अतीव सुरुचिपूर्वक इस कार्य को सम्पन्न कराया है । अतः हम आपके तथा समस्त लूनिया परिवार जयपुर के विशेष आभारी है ।
साथ ही विद्वसंपादक मंडल एवं सभी सहयोगी सज्जनों के प्रति भी हम कृतज्ञ हैं । हमें अत्यन्त गौरव व प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है, कि पूज्य प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी महाराज का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करवाने का सहज श्रेय हमारे खरतरगच्छ श्री संघ को प्राप्त हो रहा है। हम श्री संघ की ओर से पूज्य प्रवर्तिनी जी म. का पुनः पुनः वन्दन अभिनन्दन करते हैं ।
जतनकंवर गोलेच्छा
(अध्यक्ष)
उत्तमचन्द बडेर
(मन्त्री)
श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ श्री संघ, जयपुर ।
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आदिवचन
जैन धर्म में रत्नत्रय का सर्वाधिक महत्व है। रत्नत्रय के क्रम में एक ओर सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र है, तो दूसरी ओर देव-गुरु-धर्म है। जिसप्रकार दर्शन (सम्यक्त्व) ज्ञान एवं चारित्र को संतुलित और मोक्ष-अभिमुख रखता है, उसी प्रकार गुरु भी देव और धर्म के बीच का सन्तुलन है । गुरु ही देव का स्वरूप समझाता है, धर्म का मार्ग बताता है, इस कारण 'गुरु' की अपरम्पार महिमा है । भारतीय मनीषियों ने 'गरुरेव परब्रह्म" कहकर गुरु को अत्यन्त श्रद्धा और आदर्श का केन्द्र बना दिया है।
गुरु वह अद्भुत कलाकार है, जो मृपिण्ड समान शिष्य को महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर सकता है । पत्थर को भगवान और कण को सुमेरू बना सकता है, इसलि। शिष्य के लिए गुरु-पूजा, गुरु-भक्ति न केवल एक आवश्यक, अनिवार्य कर्तव्य है, किन्तु यह एक आत्मसन्तोष और मानसिक प्रफुल्लता का विषय भी बन जाता है । गुरु-पूजा करके ही शिष्य अपनी साधना, उपासना, ज्ञानार्जना को कृतकृत्य व सार्थक/सफल समझता है । भारतीय संस्कृति में इसे ही “गुरु-दक्षिणा" की गरिमा से मंडित किया गया है।
श्रद्धया पूज्य प्रवर्तिनीधी सज्जनश्रीजी महाराज हम सब के लिए "गुरु" के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजित श्रद्धा का वह जीवन्त रूप है, जिसके प्रति हमारे अन्तःकरण के महासागर में श्रद्धा-विनय-भक्तिबहुमान-कृतज्ञता की भाव मियां उछल रही हैं । भावोर्मियों का यह ज्वार कभी-कभी इतना प्रखर हो जाता है कि हम जीवन को उनके चरणों में समर्पित करके भी स्वयं को ऋणमुक्त नहीं समझ सकतीं, उनका उपकार शब्दातीत है, कालातीत है । आगम की भाषा में दुष्प्रतिकार-दुप्पडियारे है ।
श्रद्ध या गुरुणीश्री का जीवन साधुता का जीवन्तस्वरूप है । इस विषय में अधिक चर्चा यहाँ नहीं करूंगी, चूंकि इस विषय में सैकड़ों विचारकों ने जो कहा है, अनुभव किया है, यह सब प्रस्तुत ग्रन्थ में है ही, पाठक पढ़ेंगे ही । मैं तो सिर्फ अपनी उमड़ती, उछाल मारती श्रद्धा की अभिव्यक्ति मात्र करके मन को हल्का करना चाहती हूँ।
लगभग सात वर्ष पूर्व जब प्रवर्तिनीश्रीजी महाराज संयम-साधना के ४० वर्ष पूर्ण कर पाँचवे दशक में प्रवेश कर रही थीं तब से मेरी व मेरी अन्य श्रमणी बहनों की भावना जगी थी, कि हम पूज्य प्रवर्तिनीश्रीजी के दीक्षा के ५० वर्ष की सम्पन्नता (स्वर्ण जयन्ती प्रसंग) के अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का आयोजन करें। हम सब को भावना एक दिन पूज्य मणिप्रभसागरजी महाराज के समक्ष चर्चा का विषय बनी तो उन्होंने हमें न केवल उत्साहित किया, बल्कि सम्पूर्ण मार्ग-दर्शन करने तथा हर प्रकार का महयोग करने का आश्वासन भी प्रदान किया। उनके उत्साहसंवर्धन से प्रेरित होकर धीरे-धीरे हमने अभिनन्दन-ग्रन्थ की परिकल्पना को एक आकार दिया, एक योजना का स्वरूप प्रदान किया।
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- अभिनन्दन ग्रंथ संकल्पना की लम्बी कहानी है, किन्तु यहाँ उसकी चर्चा न करके, सिर्फ मुख्य बिन्दु पर ही आती हूँ । इस आयोजन के लिए सर्वप्रथम सहयोगी मिले-भाई पुखराजचन्द जी लूनिया । प्रवर्तिनीधीजी के संसार पक्षीय सहोदर श्री केसरीचन्दजी लूणिया के सुपुत्र-पुखराजजी प्रतिभाशाली उत्साही युवक हैं । देश-विदेश में व्यापार कार्य का विस्तार होने से उनको समय बहुत कम मिलता है, फिर भी हमारी भावना जानकर के एकदम भाव-विभोर हो उठे, और हर प्रकार के सम्पूर्ण सहयोग के लिए संकल्पबद्ध हुए । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रत्ना लूणिया तो और भी अधिक उत्साहित और भावनाशील थीं । दोनों ही पति-पत्नी समान विचार व समान रुचिसम्पन्न होने के कारण उनका सर्वथा प्रकारेण सहयोग सहज ही प्राप्त हो गया और हम योजना को मूर्तरूप देने में संलग्न हुए । पुखराजजी की भावना को उनकी माता तथा भाइयों ने पुष्ट किया तथा ग्रंथ प्रकाशन के कार्य में सहयोग प्रदान किया, विशेषकर माणक लूणिया तथा सायर लूनिया ने ।।
मेरी सहयोगिनी साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी, साध्वी सम्यग्दर्शनाश्रीजी इस कार्य में जुट गईं, और साथ ही जैन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान, अनेक अभिनन्दन-ग्रन्थों के अनुभवी संपादक आत्मबन्ध श्री श्रीचन्द जी सूराना "सरस" का भी सहयोग प्राप्त किया। इसी के साथ श्री सुरेन्द्रकुमार ज्योतिकुमार कोठारी, मदनलालजी शर्मा, महेन्द्र जैन, श्रीविनयसागर जी व श्रीमती शान्ता भानावत, पवन सुराणा आदि अनेक विद्वान, कार्यकर्ताओं का सहकार प्राप्त होता गया और यह योजना मूर्त रूप लेने लगी।
खरतरगच्छ संघ, जयपुर के मंत्री श्री उत्तमचन्दजी बड़ेर तथा संघ के मान्य श्रेष्ठी सौजन्यमुर्ति श्रीविमलचन्दजी सुराणा आदि सभी कार्यकर्ताओं का अनुकूल सहयोग इस "मणी" ग्रन्थ की सफलता का मूलाधार हैं।
हाँ, अब प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में दो शब्द कहना चाहूँगी।
पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी का जीवन धर्म-समन्वय का एक दुर्लभ किन्तु प्रकृति प्रदत्त संयोग ही है, कि आपश्री का जन्म-जयपुर के एक सम्पन्न, प्रतिष्ठित तेरापंथी परिवार में हुआ, आपका पाणिग्रहण स्थानकवासी समाज के प्रमुख गोलेच्छा परिवार में हुआ, और फिर एक शुभ संयोग मिला, कोटा के भारत प्रसिद्ध बाफना परिवार में आपश्री का विवाहोपरान्त निकट सम्बन्ध रहा । सेठानी साहिबा गुलाब सुन्दरीजी बाफना की देखरेख में एक प्रकार से आपके धार्मिक संस्कारों को जल सिंचन व नया सम्पोषण मिला, जो श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय से आपको सम्बद्ध कर सका, इस प्रकार प्रकृति ने ही आपके जीवन में धार्मिक सद्भाव, समन्वय का ऐसा संगम बनाया है, जो आज भी “त्रिवेणी संगम" की भाँति संपूर्ण जैन समाज में आदरास्पद है, यही कारण है कि आपश्री के अभिनन्दन उपलक्ष्य में सम्पूर्ण जैन समाज के श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी समाज के श्रद्धेय आचार्यों, विद्वान, मुनियों तथा प्रमुख श्रावकों की तरफ से आशीर्वचनात्मक सन्देश व शुभकामनाएँ प्राप्त हुई हैं, इस प्रकार का समन्वय जैन एकता की दिशा में “मील का पत्थर" कहला सकता है। हमें इस विषय का गौरव है कि एक आम्नाय विशेष की प्रवर्तिनी श्रमणी के लिए सम्पूर्ण जैन संघ अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता है।
नामकरण-प्रस्तुत ग्रन्थ के नामकरण के विषय में भी बहुत गंभीर चिन्तन के पश्चात् "श्रमणो" नाम का चयन किया गया है । "श्रमणी" शील-साधना-संयम-शुचिता की प्रतीक है । पवित्रता और परम वत्सलता की प्रतिनिधि है, श्रमण संस्कृति की गंगोत्री हैं । मेरे विचार में पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अभिवचन यही एक शब्द कर सकता है । "श्रमणी" से अधिक अर्थवान और परम्परा
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का प्रतिनिधि अन्य शब्द शायद हो नहीं सकता था । मुझे विश्वास है यह शब्द ग्रन्थ की सम्पूर्ण गरिमा को स्वयं अभिव्यक्ति दे रहा है ।
ग्रन्थ के पाँच खण्ड -' - 'गुरु' जिस प्रकार रत्नत्रय का मध्यबिन्दु है, उसी प्रकार पाँच-परमेष्ठी का भी - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पद में केन्द्रीय शक्ति है । पाँच पदों का प्रतिनिधित्व गुरु में मूर्तिमन्त है, इस कारण इस ग्रंथ को पांच खंडों में विभक्त करने का निश्चय किया गया । पाँचों ही खण्ड अपने-अपने विषय की सुन्दर, सारपूर्ण तथा मौलिक सामग्री से युक्त है । यह सामग्री इतनी गहन भी नहीं है, कि आम आदमी इसे पढ़कर समझ न सकें और इतनी सामान्य भी नहीं है कि ग्रंथ की गुरुता का अहसास न हो । मेरे विचार में संपादक मंडल ने काफी सन्तुलित दृष्टि से सामग्री का चयन किया है, जिसका सामयिक महत्व तो है ही, स्थायी और सार्वदेशिक मूल्य भी है, और युग-युग तक एक मापदंड बनकर रहेगा ।
क्षमा याचना एवं आभार - दर्शन
ग्रन्थ के लिये निबन्ध आदि सामग्री भी विपुल मात्रा में आई जिसमें श्रेष्ठता के आधार पर चयन करना पड़ा। जिन मान्य लेखकों ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर लेख भेजने का सौजन्य पूर्ण श्रम किया, मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ तथा जिनके लेख उत्तमकोटि के होते हुए भी ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या, समय सीमा आदि को ध्यान में रखकर, हम छाप नहीं सके, उन मान्य लेखकों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हुए उनसे क्षमा भी चाहती हूँ कि उनके श्रद्धा - सौजन्यपूर्ण श्रम का यथोचित सम्मान नहीं कर सके । अस्तु, श्रद्धार्चना, संस्मरण भेजने वाले बन्धुओं से तो विशेष रूप में क्षमा चाहती हूँ कि उनकी भक्तिपूर्ण विस्तृत शब्दावली को बहुत ही संक्षेप देना पड़ा ।
यदि प्राप्त सामग्री को उसी रूप में प्रकाशित की जाती तो संभव है यह ग्रन्थ एक हजार पृष्ठ का बन जाता । यद्यपि श्रद्धा सुमन प्रेषित करने वाले सभी श्रद्धालुजनों का नामोल्लेख यथास्थान अवश्य हुआ है, अतिविलम्ब से प्राप्त होने वाले कुछ अनेक वरिष्ठ नाम सबसे अन्त में देने पड़े, फिर भी सामग्री कम करने या भूल से कोई नाम रह जाने के कारण किसी के श्रद्धालुमन को आघात लगा हो, तो वे भी सम्पादन-मर्यादा को समझकर क्षमा करेंगे ।
इस ग्रन्थ के मुद्रण प्रकाशन के समय हमारे श्रद्ध ेय गणी श्री मणिप्रभसागरजी म. की जयपुर में उपस्थिति तथा उनका सूझबूझ पूर्ण मार्गदर्शन, कुशल संयोजन हमें प्राप्त हो सका यह भी हमारे लिए कर सिद्ध हुआ, मैं आपश्री के प्रति किन शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करूँ ।
आज इस ग्रंथ की सम्पन्नता पर आत्म-विभोर हूं, अपनी उत्कृष्ट हार्दिक इच्छा को साकार होते देखकर पूर्ण सन्तुष्ट भी पुनः सभी सहयोगी सज्जनों का व विशेषकर विद्वत्न बंधु श्रीचन्दजी सुराना व भाई पुखराज जी लूणिया का हृदय से आभार मानती हूँ, कि मुझ जैसी संपादन कला में अनुभव रहित साध्वी के सत्संकल्पों को उन्होंने अपने ज्ञान अनुभव व साधनों का बल देकर एक सुन्दर भव्य रमणीय ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान कर दिया ।
पुन: पूज्य गुरुवर्या के चरणों में वन्दना के साथ उनके आरोग्यमय दीर्घजीवन की मंगलकामना !
- साध्वी शशिप्रभाश्री
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आगम-ज्योति प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज
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एक धन्य अवसर की प्राप्ति
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स्वनामधन्या आगमवेत्ता प्रवर्तिनी महाराज सा० सज्जनश्रीजी का अभिनन्दन करते हुए आज कौन धन्य नहीं हो रहा है ? फिर मैं अकिंचन भी इस पावन गंगा में अवगाहन का लाभ प्राप्त करने में क्यों पीछे रहूँ ? यह एक ऐसा पुनीत अवसर अनायास ही हमारे हाथ आ गया है कि हमें अपने जीवन की कुछ तो सार्थकता दृष्टिगत होने लगी है। अन्यथा सांसारिक जीवन में ऐसे पुण्य अवसर प्रायः दुर्लभ ही होते हैं।
भुआसा. महाराज विदुषीवर्या सज्जनश्रीजी का जीवन प्रारम्भ से ही संयम और सात्विक भावों से ओत-प्रोत रहा है। बाल्यकाल से ही आपश्री संसार से उदासीन तथा अन्तमुखी रहीं। आपने तप- संयम, अध्ययन, एवं ज्ञान-दर्शन-चारित्र के क्षेत्र में जो उपलब्धियाँ अजित की हैं उनका वर्णन करने में हम अक्षम हैं। काव्य का क्षेत्र हो या कि दर्शन का, साधना का क्षेत्र हो या कि सामाजिक चेतना का कर्मक्षेत्र, संघ-संचालन का कार्य हो या एकांतिक तपस्या का, प्रवर्तिनीश्रीजी ने सभी दिशाओं में अपने अलौकिक अद्वितीय व्यक्तित्व और कृतित्व की अमिट छाप अकित की है । आज खरतरगच्छ धर्म संघ की प्रतिष्ठा, धर्मचेतना एवं प्रभावना की आप प्रकाश स्तम्भ बनी हुयी है। प्रवर्तिनी पद पर आसीन होकर आप अपनी गुरुवर्याश्री ज्ञानश्रीजी के बताये मार्ग को आलोकित एवं प्रसारित कर रही हैं। क्या श्रद्धालु श्रावक-श्राविका, क्या अनुगामिनी साध्वी-साधिकाएँ और क्या जन साधारण, सभी आपके विनम्र सरल व सहज व्यक्तित्व की छाया के नीचे अध्यात्म-अमृत का पानकर कृतार्थ हो रहे हैं।
मेरे दादाजी सेठ श्री गुलाबचन्दजी लूणिया जीवनपर्यन्त जैन शासन के निष्ठावान श्रावक रहे हैं। वे काव्यमर्मज्ञ, धर्ममर्मज्ञ एवं तत्त्वमर्मज्ञ श्रावकरत्न थे। उन्हीं की महान आत्मजा श्री सज्जनश्रीजी म. सा. आज उस गुलाब के सौरभ को अध्यात्मरस से परिपूर्ण मकरन्द की भाँति जन
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जन के मानस को आप्लावित कर रही हैं। पूज्य दादा-सा एक श्रावक थे, गृहस्थ थे, किन्तु आपश्री तो अनिकेत आर्यारत्न हैं, वीतराग भगवान के अनुशासन से आबद्ध, आगमज्ञा, शास्त्रमर्मज्ञा, योगसाधिका, विदुषीवर्या आदि अनेकानेक शुभ सम्बोधन आपके लिए अक्षरशः उचित प्रतीत होते हैं।
अस्सी वर्ष से अधिक आयु में भी प्रवर्तिनी म.सा. के मुख-मण्डल पर जिस आभा और चैतन्य के दर्शन होते हैं वह एक सबल प्रेरणास्रोत है । दर्शन से स्वतः ही धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है, आध्यात्मिक भाव विकसित होते हैं तथा विकार स्वतः ही तिरोहित होने लगते हैं। प्रायः हम सोचते हैं। कि, यह कैसा प्रभाव है ? तो उत्तर मिलता है यह प्रभाव है सतत साधनारत ज्ञानार्थ, सत्यार्थ, मोक्षार्थ समर्पित उस शुचि भावों की दिव्यमूर्ति का। कहते भी तो हैं, जहाँ धर्ममंगल की स्थापवा होती है, अहिंसा, संयम, तप की त्रिवेणी बहती है, वहां देव भी आकर नमन करते हैं। यह भी सच है कि सच्चे साधकों का जहाँ वास होता है, वहाँ स्वर्ग स्वतः ही निर्मित हो जाता है। वहाँ न रोग रहता है न शोक, न जरा न मृत्यु, न दुःख न विषाद। वहाँ तो रहते हैं-सत, चित् और आनन्द ।और, ऐसा ही आनन्द मिलता है हमें प्रवर्तिनी श्रीजी के सामिप्य-सान्निध्य में ।
हमारे पिताश्री की महती उत्कंठा थी कि पूजनीय बाबा सा. सेठ गुलाबचन्द जी लूणिया की कृतियों को संग्रहीत कर प्रकाशित कराया जावे। पिताजी के दिवंगत हो जाने के बाद मेरे मन में महत्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना प्रस्फुटित हुई। हमने भुआ सा. महाराज के सान्निध्य में योजना रखी तथा निवेदन किया-बाबा सा. और पिताश्री की भावनाओं के अनुरूप आपने धर्म-दर्शन एवं आध्यात्म के क्षेत्र में अनेक गौरवपूर्ण कीर्तिमान स्थापित किये हैं। आपकी उज्ज्वलता के प्रकाश से हमारे जीवन में परिवर्तन घटित हुए हैं। हमें स्वतः प्रेरणा हुई है कि समस्त जैन समाज द्वारा आपका अभिनन्दन किया जावे तथा एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हो। किन्तु अपना ही अभिनन्दन जान हमारे आग्रहपूर्ण निवेदन को आपने सरलता के साथ अस्वीकार कर दिया। और कहा-मेरा अभिनन्दन करने की क्या आवश्यकता है ? मैंने कौन सा ऐसा महान कार्य किया है ? इस प्रकार कई बार कहा और बोले-दादा सा. की रचना अवश्य ही प्रकाशित होनी चाहिए। परन्तु हमारा विचार दृढ़ रहा और मैंने उनकी प्रमुख शिष्या शशिप्रभा श्रीजी म. के सन्मुख विचार रखे, उन्होंने हमें स्वीकृति दी। जिससे हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई।
हमें यह भी प्रसन्नता है कि मेरे प्रस्ताव को खरतरगच्छ संघ के धर्मप्राण श्रावक महानुभावों ने सहमति प्रदान की तथा पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। हम पू. प्रमुखा श्री शशिप्रभा श्रीजी म. सा व श्रावकवृन्द के प्रति आभारी हैं।
हमारी इच्छा है कि प्रतिनी श्रीजी का अभिनन्दन समारोह सम्पूर्ण जैन समाज के लिए एक महत्वपूर्ण एतिहासिक अवसर बने। आपकी प्रेरणा पाकर जैन समाज एकता की दिशा में चरणन्यास करे तो यह अवसर सार्थक हो उठेगा।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोगी एवं सम्पादक मण्डल के सदस्य श्री सुरेन्द्र बोथरा, श्री भंवर लालजी नाहटा, म. श्री विनयसागरजी, डॉ. नरेन्द्र भानावत श्री मदनलाल शर्मा, श्री महेन्द्र जैन का मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने विभिन्न खण्डों के निबन्धों के संग्रह, संशोधन एवं कार्य को तत्परता से पूर्ण करवाने में अथक परिश्रम किया।
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वीर शासन सेविका साध्वी शशिप्रभा श्री को धन्यवाद देना उनके परिश्रम और कार्य सम्पादन की महत्ता को घटाना ही होगा क्योंकि जितना कुछ इन्होंने परिश्रम किया है उसका आभार शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता ? आप तो इस ग्रन्थ प्रकाशन की प्रारम्भ से ही प्रेरणा स्रोत रही हैं । सम्पूर्ण सम्पादक मण्डल की केन्द्र बनकर आपने ग्रन्थ सम्पादन में अत्यन्त ही सराहनीय कार्य किया है।
भाई श्रीचन्द जी सुराणा 'सरस' ने ग्रन्थ के सम्पादन एवं मुद्रण भार को स्वीकार कर मुझे एक गुरुतर उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया । ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो मुद्रक भी हों, सम्पादक भी हों कला मर्मज्ञ भी, प्रकाण्ड विद्वान भी हों तथा साथ ही समर्पित धार्मिक श्रावक भी हों। आपके अथक परिश्रम ने ही जीवन दर्शन शुभकामना, चिंतन, शोध, प्रशस्ति, इतिहास आदि विभिन्न पुष्पों को एक सूत्र में पिरोकर एक सुन्दर सी माला बनाई है जो अब आपके हाथ में है। तेरापन्थ संघ प्रमुख आचार्य तुलसी का हम कोटिशः वन्दन करते हुए अन्तःकरण से आभारी हैं जिन्होंने हमारे अवचेतन मस्तिष्क की अमूर्त कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए निरन्तर प्रेरित किया और इस कार्य के साफल्यमंडित होने का महान् आशीर्वाद प्रदान किया । .
जैन धर्म, महावीर वाणी और प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म. सा. का सन्देश दिग् दिगंत में फैले यही मेरी उत्कट अभिलाषा है ।
पुखराज लुनिया एवं समस्त परिवार
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प्रथम खण्ड : जीवन ज्योति
जीवन ज्योति ( जीवन चरित्र )
प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी म० के यशस्वी चातुर्मास की सूची प्रवर्तिनीश्री जी का शिष्या परिवार
परिवार - परिचय
अनुक्रमणिका
आदर्श माताश्री मेहताबबाई लूनिया धर्मष्ठ श्रावक पिताश्री गुलाबचन्दजी लूनिया श्री केसरीचन्दजी लूनिया व परिवार परिचय गोलेच्छा - परिवार परिचय श्रीमान कल्याणमलजी गोलेच्छा
चरितनायिका के जीवन में नया मोड़ देने वाला बाफना परिवार
(
१४ )
साध्वी शशिप्रभाश्रीजी साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी
विनयकुमार लूनिया
अजयकुमार गोलेच्छा
11
१-१७८
"
11
37
१
५८
६०
६३
६
१०२
१०५
१०६
१०७
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( १५ )
व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण एवं प्रेरक प्रसंग महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर १०६, साध्वीश्री हेमप्रज्ञाश्रीजी १११, साध्वी श्री मंजुलाजी ११२, श्री हीराचन्दजी वैद ११३, श्रीराम अमरचन्दजी लूणिया ११४, अरुणकुमार जैन ११६, व्यक्तित्व के विविध उज्ज्वल पक्ष – कुमारी बेला भंडारी ११७, श्रीमती गुलाबसुन्दरीजी बाफना ११६, श्री बुद्धिसिंहजी श्री पवित्रकुमार अशोककुमारजी बाफना १२०, श्री थानमलजी आंचलिया १२१, श्रीमती रत्ना लूनिया १२१ साध्वी सुयशाश्रीजी १२५ साध्वी जयश्रीजी १२६, आर्या प्रज्ञाश्रीजी १२७, पं० शान्तिचन्दजी जैन १२७, साध्वी तत्त्वदर्शनाश्रीजी १२८, साध्वी सुदर्शनाजी श्री १२६, साध्वी विनीताश्री १२६, साध्वी कनकप्रभाश्री १३१, साध्वी शुभदर्शनाश्री १३२, आर्या शीलगुणा श्री १३२, आर्या दिव्यदर्शना जी १३४, साध्वी सुलोचना श्री १३५, आर्या विद्युतप्रभाश्री १३६, श्री सौम्य गुणाश्री १३७, श्री आर. एम. कोठारी १३८, श्रीमती स्नेहलता चौरड़िया १३६, डा० विजयचन्द जैन १४०, श्रीमती लक्ष्मी भैंसाली १४०, श्रीमती शान्ता गोलेच्छा १४१, श्री सोहनराज भैंसाली १४२, डा० निजामुद्दीन १४३, श्रीमती ज्ञानदेवी बैगानी १४५, श्री कपूरचन्द श्रीमाल १४५, श्रीमती उर्मिला श्रीवास्तव १४६, विमलकुमार चौरडिया १४७, अशोक बाफना १४८, सोहनलालजी बुरड १४६, केशरीचन्दनजी पारख १४६, उत्तमचन्दजी बडेर १५०, श्री भँवरलालजी नाहटा १५१, श्रीधनरूपमल नागोरी १५१, श्री महावीर जैन श्वेताम्बर मन्दिर एवं श्री मुलतान जैन श्वेताम्बर संघ १५२, श्री मदनलाल शर्मा १५३ ॥
कृतित्व दर्शन: साहित्य-समीक्षा
प्रवर्तिनी सज्जन श्रीजी महाराज का अद्भुत अनुवाद -कौशल आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य साधना सफल अनुवाद करयित्री आर्यारत्न प्र० सज्जनश्रीजी एक श्र ेष्ठ जीवन चरित्र : पुष्प जीवन ज्योति एक बहुआयामी समग्र व्यक्तित्व प्रवर्तिनी सज्जनश्री महाराज
गणी मणिप्रभसागरजी
डा० नरेन्द्र भानावत डॉ० आदित्य प्रचण्डिया महावीर प्रसाद अग्रवाल आर्या शशिप्रभाश्री
द्वितीय खण्ड : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ, अभिनन्दन १-३८ आचार्यश्री जिनउदयसागरसूरि १, आचार्य श्री विजयइन्द्र दिन्नसूरि १, आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी म० २, आचार्य श्री तुलसीजी म० २, उपाध्याय श्री अमर मुनिजी ३, आचार्य श्री विजययशोदेवसूरिजी ३, आचार्य श्री पदमसागर सूरीश्वरजी ३, संघ प्रमुख श्रीचन्दन मुनिजी ४ गणी श्री मणिप्रभसागरजी ४, मुनिश्री नगराजजी डी. लिट्. ५, प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि कमल ५, मुनिश्री कैलाश सागरजी म. ६, मुनिश्री रूपचन्दजी ६, श्री कुशल मुनिजी म. ६, श्री जयानन्दजी मुनि ७, प्रवर्तिनी श्रीजिनश्रीजी म. ७, साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी, आचार्य श्री चन्दनाजी ८, आर्या धर्मश्री, रतिश्रीजी ८, साध्वी श्री मनोहरश्रीजी
१५५
१५६
१६६
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१७१
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६, साध्वी निर्मलाश्रीजी १०, साध्वी मणिप्रभाश्रीजी १०, श्री अविचल श्रीजी म. ११, साध्वी श्री ज्योतिष्प्रभाजी ११, विचक्षणज्योति साध्वी चन्द्रप्रभाश्री ११, साध्वी मुक्तिप्रभाश्री ११ साध्वी मधु स्मिताश्री १२, श्री विमलचन्दजी सुराना १३, श्री हरिश्चन्द्रजी बडेर १३, श्री उमराव मलजी चौरडिया १३, श्री जवाहरलालजी मुणोत १३, जी. आर भण्डारी १४, श्री हजारीमलजी वांठिया १४ श्री राजेन्द्र कुमारजी श्रीमाल १४ डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया १५, श्री चन्दन मल 'चाँद' १५, डॉ. महावीरसरन जैन १५, श्री दौलतसिंह जैन १५, श्री इन्द्रचन्दजी मालू १३, अमृत राजमी बागरेचा १६ सेठ आनंदजी कल्याणजी पेढी (अहमदाबाद) १६, जीवाणा खरतर गच्छ संघ १६, श्री संघ, झंझनू १६, मीसरीलालजी लोढा १७, जवाहर लालजी राक्यात १७, हस्तीमलजी मुणोत (सिकन्दराबाद) १७ कालूरामजी बाफना १८, सोहन लालजी पारसान १८, लाल चन्दजी बैराठी १८, शिखर चन्दजी पालावत १६, श्री गुमानमलजी चौरडिया १६, डॉ. उम्मेदमल मुनोत १६, सुशील कुमारजी छजलानी २०, श्रीसंघ व्यावर २०, त्रिलोक चन्दजी गोलेच्छा २० श्वे. जैन श्रीसंघ, टाटोटी २०, सरदार मलजी चौपड़ा २१, यशपालजी नाहटा २१, विनय कुमार लूनिया २२, निहालचन्दजी सोनी २२, श्री सुरेश लूनिया २२, श्रीमती रेखा लूनिया २२, चिरंजी लालजी रेड २३, श्रीमती पन्ना सुकलेचा २३, सुश्री शालिनी लूनिया २३, सुश्री सायर लूनिया २२, श्री मानक चन्दजी लूनिथा २४, श्रीमती प्रेमलता गोलेच्छा २५, श्रीमती कमला देवी लूनिया २५, श्रीमती कमल साँड २५, सुशीलकुमारजी बांठिया २६, हेमराजजी ललवानी २६, श्री प्रकाश बांठिया एवं परिवार २६ प्रेमचन्दजी धांधिया २६ जोगराज भेरूलाल भंसाली २६, श्री भंवरलाल पुखराज २७, श्रीमती निर्मला संखवाल २७, श्रीराकेश जैन २७ श्रीमोहन चंदजी गोलेछा २८, भगवान चन्दजी छाजेड २८, श्रीमती इन्दुबाला संखवाल २८, श्री हुकमी चंदजी लूनिया २६, श्री राजेन्द्र नाहटा २६, पं. कन्हैयालालजी दक २६, सुश्री सुरंजी २६, श्रीमती मेमबाई सुराणा ३०, विजय कुमारजी कक्कड़ ३०, भीखमचन्दजी कोचर ३०, श्री सिरहमलजी नवलखा ३१, श्रीमती प्रेमलता नवलखा ३१, श्री दुलीचन्दजी टोक ३१, बलवन्तराजजी भंसाली ३१, गजेन्द्रकुमारजी भंसाली ३१, श्री मानमलजी सुराणा ३१, श्री कन्हैया लालजी लोढा ३२, डॉ. सू. प्र. वर्मा ३२, श्री मोहनजी सोनी ३२, पं० चण्डीप्रसादाचार्य ३३, श्री कुमारपाल वि. शाह ३३, मोतीलालजी ललवाणी ३३॥ जवाहर लालजी लोढा ३४, सौभागमलजी विजयकुमारजी ३४, श्रीमती शकुन्तला सुराणा ३४, श्रीमती निर्मला कडावत ३४, श्रीमती अनिता भंडारी ३४, श्रीमती ताराकुमारी झाडचूर ३५, श्रीमती रत्ना ओसवाल ३५, श्रीमती भंवरदेवी गोलेच्छा ३५, उत्तमचन्द डागा ३६, राजेश महमवाल ३६, मानमल कोठारी ३६, श्री लहरसिंह बाफना ३६, एस. मोहनचन्दजी ढड्ढा ३६, साध्वी रण्भाश्रीजी ३७, श्री ज्ञानचन्दजी लूनाबत ३७, महतावचन्दजी बांठिया ३७, श्री हेम चन्दजी चौरडिया ३७, श्रीमती प्रेमदेवी झाडचूर ३७, विमला झाड़चूर ३७, कमलेश भंडारी ३८ ।
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( १७ )
श्रब्दार्चन : काव्यांजलियाँ
करते तेरा अभिनन्दन! गणी मणिप्रभसागरजी हे दिव्य ज्योति ! हे ज्ञान ज्योति शशिकर खटका
___ अभिनन्दन श्रावक श्री 'छगन'
सबका नम्र प्रणाम श्री मोहन सोनी सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे मुनिश्री ललित प्रभ सागरजी
पद्य-पुष्पम् (संस्कृत) पं० ब्रह्मदत्त शर्मा गुरुपरम्परा प्रशस्तिः (संस्कृत) श्री भवरलाल नाहटा
अभिनन्दन स्वीकारो सुदीप एवं गौरव लूनिया
शत-शत प्रणतियाँ साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
अभिनन्दन स्वीकारो साध्वी प्रियदर्शनाजी अज्जा सज्जणसिरी अहिणंदणं (प्राकृत) डॉ. उदयचन्द जैन
आर्या प्रियदर्शनाश्री कोटि-कोटि अभिनन्दन प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल'
चन्द्रप्रभाश्रीजी शत-शद वन्दन विजयकुमार जैन
नारी के प्रति मनु पुण्य-पुण्य लोका सज्जनश्रीजी श्रीमती राजकुमारी वेगानी
सूरज सरीखा व्यक्तित्त्व डॉ. संजीव प्रचंडिया सज्जन नाम है तुमने पाया सुरेखाश्री
शत-शत अभिनन्दन कु० कविता डागा तुमको मेरा प्रणाम सुधाकर श्रीवास्तव अनुपम अद्वितीय कुमारी अनुपमा लूनिया
मुक्तक साध्वी मधुस्मिता श्रीजी कोटि-कोटि वन्दना पदमा लूनिया
आस्था के मोती सुश्री प्रतिभा लूनिया गुरुवर्या सबसे आली है प्रकाशचन्द बांठिया
गजल उमा श्रीवास्तव आगमज्ञा सज्जनश्री प्यारा मुथा हे सज्जनश्रीजी महाराज पराक्रमसिंह चौधरी
भावधारा अजयकुमार गोलेछा पुष्पांजली केसरीसिंह चौरडिया
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( १८ )
तृतीय खण्ड : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ १.११८ खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय
महोपाध्याय विनयसागरजी १-३५ खरतरगच्छ का उद्भव १,'आचार्य वर्धमानसूरि ५, जिनेश्वरसूरि ७, जिनचन्द्रसूरि ७, अभयदेव सूरि ७ जिनवल्लभ सूरि ८ जिन-युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि १०, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ११, युगप्रवरागम जिनपतिसूरि १२, जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) १६, जिनप्रबोधसूरि १८, कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि १६, दादा श्री जिनकुशलसूरि २१, जिनपद्मसूरि २३, जिनलब्धिसूरि २४, जिनचन्द्रसूरि २४, जिन राजसूरि २५ जिनभद्रसूरि २६, जिनचन्द्रसूरि २७, जिनसमुद्रसूरि २७, जिनहंससूरि २८, जिन माणिक्यसूरि २८,युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि २८, जिनसिंहसूरि ३१, जिन
राजसूरि ३२, जिनरत्नसूरि ३३, जिनचन्द्रसूरि ३४ जिनसुखसूरि ३४ जिनभक्तिसूरि ३५, जिनलाभसूरि ३५।
चार दादा गुरुओं का संक्षिप्त जीवन परिचय क्रान्ति के विविधरूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्रीजी ३७ खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय मंजुल विनयसागर जैन ४४
- सुखसागरजी म. का समुदाय ४४-५४ उपाध्याय प्रीतिसागरगणि, वाचक अमृतधर्मगणि, उपाध्याय क्षमा कल्याण, धर्मविशालजी, राजसागरजी, ऋद्धिसागरजी, गणाधीश सुखसागरजी, गणाधीश भवनसागरजी, तपस्वी छगनसागरजी, त्रैलोक्यसागरजी जिनहरिसागरजी, जिनानन्दसागरसूरि, जिनकवीन्द्रसागरसूरि, महोपाध्याय सुमतिसागरजी, जिनमणिसागरसूरि जिनउदयसागरसूरि, जिनकान्तिसागरसूरि ।
। श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी का समुदाय ५४-५६ जिन जयसागरसूरि, उपाध्याय सुखसागरजी, मुनि कान्तिसागर जी
0 श्री मोहनलालजी म. का समुदाय ५६-६४ जिनयशसूरि, जिनऋद्धिसूरि, जिनरत्नसूरि, गणिवर्या श्री बुद्धिमुनिजी । सुखसागरजी म. के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय सन्तोष विनयसागर ५६-६४
पूज्य उद्योतश्रीजी, प्र. लक्ष्मीश्रीजी म. प्र. पुण्यश्रीजी म. प्र. सुवर्णश्रीजी, म. प्र. ज्ञानश्रीजी, म. उपयोगश्रीजो, म. प्र. विचक्षणश्रीजी. प्र. सज्जनश्रीजी।
[] शिवश्रीजी म. का समुदाय ६५ प्र. प्रतापश्रीजी, प्र. देवश्रीजी, प्र. प्रेमश्रीजी, प्र. बल्लभश्रीजी प्र. प्रमोदश्री, प्र. जिनश्रीजी।
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३
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ह
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त स्वास्थ्य पर धर्म का प्रभाव जैनधर्म में मनोविद्या धर्म - साधना के तीन आधार जैनधर्म विश्वधर्म बन सकता है। अनिर्वचनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति जैनदर्शन और योग दर्शन 'कर्म - सिद्धान्त जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति सम्यग् आचार की आधारशिला : सम्यक्त्व नमस्कार महामन्त्र : वैज्ञानिक दृष्टि स्वरूप- साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति आत्मकेन्द्रित एवं ईश्वरकेन्द्रित धर्म-दर्शन जैन हिन्दी काव्य में सामायिक जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता जैन साधक के षड़ावश्यक कर्म १८ जर्मनी के जैन मनीषी डा० हेरमान याकोबी सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना
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( १६ )
स्व० आचार्यश्री जिन कवीन्द्रसागर सूरिजी म. खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा
खरतरगच्छ की गौरवमयी परम्परा खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय
श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर, एक परिचय प्र. सिंहश्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित गोत्र जिनका मूल गच्छ खरतर है ।
डा. शिवप्रसाद हजारीमल बांठिया भंवरलाल नाहटा
चतुर्थ खण्ड : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
अर्ह का विराट स्वरूप अप्पा सो परमप्पा
साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
राजेन्द्रकुमार श्रीमाल जयपुर
संघप्रमुख चन्दन मुनि डा. हुकमचन्द्र भारिल्ल
पन्यास प्रवर श्री नित्यानन्द विजय जो युवाचार्य महाप्रज्ञ गणेश लालवाणी
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि काका कालेलकर
मुनिश्री अमरेन्द्र विजय जी म०
रतनलाल जैन एम. ए. एम. एड. डा. नरेन्द्र भानावत साध्वी सुरेखाश्री
साध्वी श्री राजीमतीजी
अनेकान्तवाद और स्याद्वाद हिंसा घृणा का घर : अहिंसा अमृत का
निर्झर क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय जैन कला में तीर्थंकरों का वीतरागी
स्वरूप
आचार्य मुनिश्री सुशील कुमारजी डा. मांगीमल कोठारी डा. श्रीमती अलका प्रचंडिया महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर डा. पवन सुराणा
पं. कन्हैयालाल दक
डा. चेतनप्रकाश पाटनी
डा. आदित्य प्रचण्डिया साध्वी प्रज्ञाश्री
७०
७८
50
१०६
१०६
११८
१-११८
१
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४८
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७०
७३
७६
८२
८४
६२
६५
१००
१०४
१०७
डा. मारुती नन्दन तिवारी, डा. चन्द्रदेवसिंह ११४
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( २० )
पंचम खण्ड : नारी : त्याग, तपस्या एवं सेवा की सुरसरि ११६-१८०
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११६
Mmr
१५५
१ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की
स्थिति का मूल्यांकन प्रो. सागरमल लेन २ भारतीय नारी : युग-युग में और आज राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी डी. लिट्
जैन आगमों में वर्णित ध्यान-साधिकाएँ ___डा. शान्ता भानावत प्राकृत साहित्य में वर्णित शील- सुरक्षा
के उपाय डा. हुकमचन्द जैन भगवान महावीर की दृष्टि में नारी । विमल मेहता
सतीप्रथा और जैनधर्म रज्जनकुमार अहिंसा अपरिग्रह के सन्दर्भ में नारी की
श्रीमती सरोज जैन, एम. ए. नारी : मानवता का भविष्य सुरेन्द्र बोथरा जैनधर्म को जनधर्म बनाने में महिलाओं
का योगदान आर्या प्रियदर्शनाश्री
953
.ur 9
१६६
१७३
.
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१७८
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शुभकामना : संदेश
,राज भवन, जयपुर दिनांक अप्रैल २२, १९८६
सत्यमेव जयते
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर की ओर से आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज के अभिनन्दन अवसर पर २० मई, १९८६ को अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है धर्मावलम्बियों एवं श्री सज्जनश्रीजी के अनुयायियों के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ प्रेरणास्पद और उपयोगी रहेगा।
मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की लहेदिल से कामना करता हूँ।
सुखदेव प्रसाद (राज्यपाल, राजस्थान)
RAJ BHAWAN
Hyderabad-500041 सत्यमेव जयते
March 28, 1989 India has been the birth place of many a faith spreading the message of love, tolerance, peace and brotherhood for centuries. Jainism is one such religion reflecting the philosophy of non-violence and peaceful co-existence. The Jain Munis are a living symbol of these divine qualities which are so essential for human existence. It is in this context the felicitations organised by the Ja n community to honour the Jain Sadhvi Shri Sajjan Shreeji Maharaj at Jaipur on the 20th May, 1989 assume a special significance to the Jain fraternity.
I have great pleasure in sending my cordial greetings and good wishes for the Abhinandan Granth being broughtout in this connection and in offering my felicitations to the Jain Sadhvi. I wish the function every success.
KUMUD JOSHI Governer Andhra Pradesh
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शुभकामना : संदेश
मुख्य मन्त्री राजस्थान
जयपुर
दिनांक २९ भारतीय सन्तों ने अपने आध्यात्मिक चिन्तन और ज्ञानामृत से न केवल हमारे देश वरन् विश्व के जन-मन को आलोकित किया है। आज के युग में जब आदर्श और आचरण के बीच खाई गहरी होती जा रही है, तब हमारे सन्तों के निर्मल उपदेश और अधिक प्रासंगिक होगये हैं। इसलिए सन्तों और महात्माओं के प्रति हम अपनी श्रद्धा व्यक्त करें, यह एक शुभ लक्षण है।
मुझे प्रसन्नता है कि इस अनुकरणीय परम्परा में जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर द्वारा प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का अभिनन्दन किया जा रहा है और इस अवसर पर एक ग्रन्थ का प्रकाशन भी किया जा रहा है। मुझे आशा है, इस ग्रन्थ में ऐसी सामग्री का समावेश किया जायगा जो उदात्त जीवन मूल्यों के प्रसार में सहायक होगी।
मैं प्रकाश्य ग्रन्थ एवं अभिनन्दन समारोह की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभ-कामनाएँ देता हूँ।
शिवचरण माथुर (मुख्यमन्त्री राजस्थान)
New Delhi-110001 March 31, 1989
I am extremely happy to know that Sadhvi Sajjan Shreeji being felicitated and honoured with an Abhinandan Granth. Sadhvi Sajjan Shreeji has been undoubtedly a great source of moral and spiritual inspiration and guidance to the Jain community and her literary and spiritual writings and speeches have indeed been monumental. I wish the felicitation function all success and pray to Almighty to give Sadhvi Sajjan Shreeji many more purposive years of life, to pursue her chosen path,
MAHAVIR PRASAD (Deputy Minister For Railways)
India
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शुभकामना : संदेश
राज्य मन्त्री भारत सरकार
विदेश मन्त्रालय, नई दिल्ली- ११००११
१६ मार्च, १६८६
मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर रही है ।
अभिनन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की कामना करता हूँ ।
कमलाकान्त तिवारी ( विदेश राज्यमन्त्री)
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विजयसिंह नाहर : संसद सदस्य ( भूतपूर्व ) (भूतपूर्व उपमुख्यमन्त्री पश्चिम बंगाल कलकत्ता)
श्रीपत्री १०८ आर्या शशिप्रभाजी महाराज जोग विजयसिंह नाहर का सविनय वन्दन बहुत बहुत कर अवधारियेगा । यहाँ कुशल है, आप महाराजों का सदा सुख साता चाहता हूँ। मैं अस्वस्थ था इसलिए लेख व पत्रोत्तर नहीं भेज सका, कृपया क्षमा करें ।
मात्र
आर्यारत्न प्रवर्तिनोश्री सज्जनश्रीजी महाराज का अभिनन्दन एवं ग्रन्थ प्रकाशन हो रहा है जानकर खुशी हुई । सदा स्वाध्यायरत प्रवर्तिनी महाराज ने धर्मं ज्ञान प्रसार में जो कार्य किया है वह समाज को अहिंसा एवं अपरिग्रह के रास्ते में आगे बढ़ाने में शक्तिशाली प्रेरणा है । आशा है आज के वैज्ञानिक युग में महाराजश्री द्वारा जैन विज्ञान का बराबर प्रसार होता रहेगा | जैन विज्ञान ऊपर के मशीनों का विज्ञान नहीं है, यह तो अन्दर में मनुष्य देह के अन्तरात्म-विकास का विज्ञान है। जैन सन्त इस प्रगति को नये रूप में विश्व के सामने प्रसारित करें यही कामना रखता हूँ ।
अभिनन्दन समारोह की पूर्ण सफलता चाहता हूँ ।
विजयसिंह नाहर
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शुभकामना : संदेश २५-३-१९८६
आर्या साध्वी श्री शशिप्रभाश्रीजी
सेवा में नतमस्तक वन्दन स्वीकृत हो। यह आप जैन साहित्य के सृजन, भगवान महावीर की जानकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि आर्यारत्न प्रवर्तिनी वाणी के प्रचार व आत्मकल्याण में सर्वोपरि हैं। श्री सज्जनश्रीजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ का जिनेश्वर देव से प्रार्थना है आप शतायु हों। प्रकाशन हो रहा है और यह समारोह दिनांक आपकी वाणी व कार्यों से निरन्तर समाज सेवा व २० मई १९८६ को जयपुर में होगा।
धर्म सेवा होती रहे । अभिनन्दन समारोह की प्रवतिनीजी ने अपने दीक्षित जीवन के गत सफलता की कामना करता हूँ। ४७ वर्षों में जैन समाज की अटूट सेवा की है। आप अपने में, आज भारत की समस्त जैन समाज
आपका की साध्वी समुदाय में अपना एक अनूठा स्थान -एस0 मोहनचन्द ढढ्ढा (मद्रास) रखती हैं । आपका व्यक्तित्व व कृतित्व बेजोड़ है ।
श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ की कार्यसमिति (१६८८-६१)
१. श्रीमती जतन कंवरजी गोलेच्छा अध्यक्ष २. श्री उमरावचन्दजी डागा उपाध्यक्ष १७. श्री त्रिलोकचन्द गोलेछा ३. श्री शेरसिंहजी जिन्दाणी उपाध्यक्ष १८. श्री नेमीचन्द भंसाली ४. श्री उत्तभचन्दजी बडेर
संघ मंत्री १६. श्री नथमलजी लोढा ५. तिलक राजजी जैन
सह मंत्री २०. श्री प्रकाशचन्दजी खवाड़ ६. श्री राजेन्द्रकुमारजी जैन कोषाध्याक्ष २१. श्री प्रकाशचन्दजी बांठीया ७. श्री सुभाषचन्दजी कांस्टीया सांस्कृतिक मंत्री २२. श्री पदमचन्दजी पंगलिया ८. श्री संतोषचन्दजी डागा
भंडारक २३. श्री प्रतापचन्दजी महता ६.श्री पदमचन्दजी गोलेछा मंत्री मंदिर व दादाबाड़ी २४. श्री प्रतापचन्दजी लूनावत १०. श्रीमती मोनादेवीवैद मन्त्री-महिला विभाग २५. श्री प्रेमचन्दजी श्री श्रीमाल ११. श्री जतनमलजी सुराना मन्त्री-बर्तन वि० २६. श्री मोहनलालजी डागा १२. श्री अशोककुमार जी बोहरा सदस्य २७. श्री माणकचन्दजी गोलेच्छा १३. श्री इन्दुमलजी भंडारी
सदस्य २८. विजयकुमारजी संचेती १४. गिरधारीलालजी टांक
सदस्य २६. श्री विमलचन्दजी सुराणा १५. श्री गुमानमलजी लूनिया
सदस्य ३०. श्री हेमचन्दजी चौरडीया १६. श्री चन्द्रप्रकाशजी बैगानी
सदस्य ३१. श्री हीरालालजी पारख 00
सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य
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खण्ड १
चौवन ज्योंदि
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१. जीवन-ज्योति
- यह शरीर माटी का दीपक है, प्राण इसकी ज्योति है, प्राणो की लौ जब ऊर्ध्वमुखी बनती है तो चेतना का आलोक जगमगा उठता है और दीपपरिसर से अज्ञान-अंधकार पलायन कर जाता है ।
संत-जगत के चिन्मय दीपक हैं । इस जगत परिपाव में अज्ञान-भय-संत्रास-पीड़ा का अंधकार भरा है, जब संत की चेतना-बाती ऊर्ध्वमुखी बनकर आलोक वर्षाती है तो जगत् जीवो के मन मे भरा अज्ञान अधकार, चेतना के गहरे आवरण में छिपा दुःख, संत्रास, कालुष्य का तमस् घुलने लगता है और धीरे-धीरे ज्ञान का मन्द-मनभावन आलोक जग-मगा उठता है । सुख-शान्ति-समता करुणा की प्रकाश रश्मिया जन-मन को आश्वस्त करने लगती हैं और मानवता का मन्दिर जगर-मगर कर उठता है । चेतना नव पुलक से उमग उठती है ।
संत की तपस्या, साधना, उसके अन्तःकरण से प्रवाहित करुणा, जीव मात्र को कृतार्थ करती है । सन्त की उपस्थिति से जगत कृतार्थ होता है और जगत को आलोक-दान कर सन्त-जीवन कतकत्यता अनुभव करने लगता है ।।
पज्य प्रवर्तिनी आर्या सज्जनश्री जी की जीवन-ज्योति, उनके प्रभास्वर व्यक्तित्वकृतित्व की दीप्ति विचारों की गरिमान्वित आभा जग-जीवो को आलोक प्रदान करने मे किस प्रकार सक्षम हुई यही अकित है। इन पृष्ठो.... की दीवट पर.. |
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ग्रन्थनायिका परमविदुषी संयम-तपोमूर्ति प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज की
जीवन ज्योति
[ साहवी शशिप्रभाश्री जी
[दर्शनाचार्य : प्रस्तुत ग्रंथ की प्रधान संपादिका तथा बहुध त श्रमणी] प्रियदर्शनाश्री जी(साहित्यरत्न)
"बाबुसा ! मैं दीक्षा लूगी।" नववर्षीय पुत्री ने अपने पिता से बालसुलभ बोली में कहा।
पुत्री के शब्द सुनकर पिता चकित रह गये। मानस में गम्भीर विचारों की तरंगें उठने लगीं। किन्तु पुत्री को किसी प्रकार समझाना तो था ही। अतः विचारों के उद्वेलन को कुछ क्षण के लिए रोककर, सिर पर हाथ फिराते हुए बोले
___ "बेटी ! तुम अभी नादान हो । दीक्षा ग्रहण करने और दीक्षित जीवन व्यतीत करने में कितने कष्ट हैं, तुम क्या जानो ? तुम अभी तक सूख-सुविधाओं में पली हो। फूल-सी कोमल नाजुक उमर है तुम्हारी । केशलोच करना, सर्दी-गर्मी में नंगे पैरों चलना, जैसा मिले वैसा खाना; अनेकों कष्ट हैं, बेटी ! इसलिए दीक्षा का विचार कोई हँसी-खेल नहीं है। साधुजीवन खांड़े की धार है।"
पुत्री चुप हो गयी; लेकिन उसके चेहरे पर आते-जाते भावों से पिता ने अनुभव किया कि पुत्री ने दीक्षा का विचार पक्का कर लिया है। इतनी छोटी उम्र है किन्तु समझ और संकल्प बहुत गहरा है। उसके मन में दीक्षित होने के संस्कार जग चुके हैं।
प्रसिद्ध शिक्षा मनोवैज्ञानिक ड्यूई (John Dewey) ने कहा है-'बच्चा कोरी स्लेट नहीं है, जिस पर हम मनचाही इबारत लिख दें, वह निश्चित संस्कार लेकर आता है और अनुकुल पर्यावरण (परिस्थिति) मिलते ही वे संस्कार प्रबल हो उठते हैं; तथा उसी के अनुरूप बच्चे का चरित्र-निर्माण होता है, उसका भावी जीवन बनता है।'
इसी को अध्यात्मवादी जैन धर्म-दर्शन में पूर्व-जन्मों के संस्कार कहा गया है और इन शुभाशुभ संस्कारों के बीज पूर्व-जन्मोपार्जित शुभाशुभ कर्मों में निहित रहते हैं।
जिन्होंने पूर्वजन्मों में शुभ कर्मों का उपार्जन किया होता है, ऐसे बच्चे बाल्यावस्था में ही धर्मानुरागी बनकर संयमी जीवन धारण करने की
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी इच्छा करते हैं। और उनके संकल्पों में फूलों-सी नाजुकता भले ही हो, मगर रेशम-सी दृढ़ता भी होती है।
हमारी चरितनायिका सज्जनकुमारी जी ऐसे ही शुभ-संस्कारों से सम्पन्न महान आत्मा हैं, तभी तो उन्होंने ६ वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता श्री गुलाबचन्द जी सा. लूणिया के सम्मुख दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की थी।
श्रीमान गुलाबचन्दजी लूणिया धर्मनिष्ठ और श्रेष्ठ विवेकवान थे। वे जैन तत्त्व ज्ञान के गम्भीर ज्ञाता भी थे और कवि मानस भी थे। इसलिए उनके हृदय में गम्भीरता के साथ सुकुमारता और कल्पनाशीलता भी थी । वे एक संवेदनशील पिता ही नहीं भावुक कवि और संगीतकार भी थे । इस कन्या को वे लक्ष्मी सरस्वती का संयुक्त अवतार समझते थे। इसलिए एक खास मानसिक सम्मान था उनका सज्जन के प्रति । साथ ही अपनी इकलौती पुत्री के प्रति उन्हें विशेष मोह था। फिर इस मोह का एक विशेष कारण भी था कि अनेक मनौतियों और कई वर्षों की प्रतीक्षा के बाद उन्हें इस कन्या-रत्न की उपलब्धि हई थी और इसी के कारण उनके जीवन की सूखी बगिया में बहार आई थी, खुशी के फूल खिले थे । ऐसी प्रिय कलेजे की कोर पुत्री के मुख से दीक्षा की बात सुनकर उनका मुख-कमल मुरझा गया, मानस उद्वेलित हो गया, उनके स्मृति-पट पर विगत-जीवन धारावाहिक चलचित्र के समान नाचने लगा।
गुलाब-सा सुरभित जीवन : श्री गुलाबचंद जी लूनिया निवास-नगर- राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जिसका देश के इतिहास में विशिष्ट स्थान है । मुगल बादशाहों ने भी इस नगर के शासकों और व्यापारियों को विशेष सम्मान दिया, प्रामाणिक माना तथा ब्रिटिश शासकों के समय भी व्यापारियों ने अपनी प्रामाणिकता को अक्षुण्ण रखा।
___ इसी नगर को जवाहरात के व्यापार में विशिष्ट गौरव प्राप्त था। यहाँ के जौहरी प्रामाणिक, रत्नों के सच्चे पारखी और व्यवहारकुशल माने जाते रहे । बोली के मीठे, स्वभाव के मधुर व चतुर कुशल व्यापारी गुलाबी नगरी के गौरव थे।
इन जौहरियों में जैन धर्मानुयायिकों की संख्या अधिक थी। वैसे भी जयपुर नगर में जैनों का निवास विशेष रूप से रहा है।
इन्हीं में जैन श्रावक गुलाबचन्द जी लूनिया भी थे। आप जवाहरात के व्यापारी थे। आप अपने व्यापार में तो दक्ष थे ही, बहुत धर्मनिष्ठ, सच्चरित्र, सदाचारी भी थे। अपनी गुलाबी मुस्कराहट से आपने जन-जन के हृदय में अपना स्थान बना लिया था। अपने हंसमुख स्वभाव और व्युत्पन्नमति के कारण आप लोकप्रिय हो गये थे, सभी आपको सम्मान देते थे। वैभव के बीच आपका जीवन सदाचारपूर्ण और धर्मनिष्ठ था । आप बारह व्रतधारी श्रावक थे।
स्वाध्यायनिष्ठा-स्वाध्याय आपके जीवन का अंग था। अनेक ग्रन्थों के गंभीर अध्ययन के परिणामस्वरूप साम्प्रदायिकता की भावना आपके हृदय से निकल गयी थी। यद्यपि आप तेरापंथी समाज के प्रमुख श्रावक थे, फिर भी धार्मिक मामलों में उदार और व्यापक दृष्टि रखते थे।
वंश परिचय के लिए लूनिया वंशावलि देखें ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
स्वर-विशेषता-प्रकृति ने आपको भले ही 'लूनिया' गोत्र में अवतरित किया किंतु आपका हृदय तो मिश्री-सा मीठा, और स्वर तो शहद से भी अधिक मधुर रसवाही था। प्रभुभक्ति के गीतों में आपको विशेष रस आता था। स्वर भी महीन था। इन गुणों के कारण समाज में आपका अग्रगण्य स्थान था। धार्मिक उदारता के कारण जयपुर, अजमेर, सांगानेर आदि में जब भी पूजा (भगवद्पूजा) होती आपका बुलाया जाता, आप भी सहर्ष और सोत्साह सम्मिलित होते और पूजा-गायन करते । गायकों में आपका अग्रगण्य स्थान था।
रचनायें-आपकी कवित्वशक्ति अद्भुत थी । आपने प्रभुस्तवन, उपदेशी पद, गुरुभक्ति पद-आदि सैकड़ों की संख्या में रचे । जो प्रायः सभी प्रकाशित हो चुके हैं । इनमें से जानपने के पच्चीस बोल, तेरहद्वार प्रश्नोत्तर, तत्वाध, श्रावक आराधना (पद्यमय), अर्थसहित प्रतिक्रमण आदि अब भी उपलब्ध हैं।
धार्मिक शिक्षा-प्रसार-आप भलीभाँति जानते थे कि बाल्यावस्था में दिये गये संस्कार जीवन भर स्थायी रहते हैं। बच्चों को धार्मिक संस्कार बचपन में ही मिलें, इस दृष्टिकोण से आपने 'तेरापंथ स्कल' की स्थापना अपने सद्प्रयासों से करवाई । राजस्थान में बच्चों की शिक्षा के लिए इस प्रकार का प्रयास आपके विद्या प्रेम और उर्वर कल्पनाशील मानस का प्रतीक है। उस समय यह 'प्राइमरी स्कूल' था जो प्रगति करता हआ अब 'हाईस्कूल' बन गया है।
जैसे आप धर्मनिष्ठ और सदाचारी थे वैसी ही धर्मनिष्ठा सुशीला जीवन-संगिनी की आपको प्राप्ति हई थी। यह भी एक महान पुण्य संयोग की समझना चाहिए । आपकी धर्मपत्नी का नाम मेहताब देवी था। मेहताब कहते हैं- चन्द्रमा को । चन्द्रमा के समान ही आपका स्वभाव शीतल और सभी जनों के लिए सुखद था।
मेहताबदेवो व्रत-नियम-त्याग-तप आदि का दृढ़तापूर्वक पालन करती थीं। रात्रि-भोजन एवं जमीकन्द का सर्वथा त्याग था । यावज्जीवन के लिए सिर्फ २५ प्रकार के फल और सब्जियों का नियम था। शेष का त्याग था। विभिन्न प्रकार के तप करती रहती थीं।
__ आपका धार्मिक ज्ञान भी प्रशंसनीय था । जानपने के २५ बोल, चर्चा के १३ द्वार, बाबन बोल, गत्यागति, अल्पबहुत्व, पांचज्ञान तेतीसा का स्तोक, छह लेश्या, नियण्ठा खण्डाजोणि (क्षेत्र समास) इत्यादि कई स्तोक (थोकड़े) तथा दण्डक संग्रहणी आदि के कई बड़े-बड़े स्तवन, नव बाड़ व आराधना की ढालें आपको कण्ठस्थ थीं तथा साथ ही इनका विशिष्ट ज्ञान भी था, जिसका चिन्तन-मनन-पारायण आप सामायिक साधना के दौरान किया करती थीं।
किन्तु जिस प्रकार चम्पा बेल इतनी सुन्दर, सुगन्धित होते हुए भी फलहीन होती है । यह प्रकृति का एक क र मजाक ही समझना चाहिए। उसी प्रकार मेहताब देवी की जीवन बेल में भी एक सन्तान-फल का अभाव खटकता था । इस अभाव की पूर्ति के लिए दोनों पति-पत्नी चिन्तित रहते थे, किन्तु वह अभाव, अभाव ही बना रहता।
ऐसा भी नहीं था कि मेहताबदेवी बाँझ हो, उसके सन्तान होती ही न हो । सन्तान तो होती थी किन्तु एक वर्ष की होते-होते काल के गाल में समा जाती। भरी गोद फिर सूनी हो जाती। खिली लता फिर मुझ जाती, वसन्त आने से पहले काल का प्रहार हो जाता । माता-पिता के हृदय में विषाद की गहरी रेखा खिच जातीं। जिस मातृत्व का सपना प्रत्येक स्त्री संजोती है, वह साकार होता और काल के प्रहार से कल्पना-महल के समान बिखर जाता।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
बाँझपन ही नारी-जीवन का अभिशाप है। बाँझ स्त्री को लौकिक जन अमंगल मानते हैं। फिर भी बाँझपन को पूर्वकृत कर्मों का दोष मानकर स्त्री सह भी जाये, लेकिन सन्तान होकर चल बसे तो दारुण दुःख होता है । रत्न हाथ में आकर लुट जाये तो वह कैसे धीरज धारण करे ?
जैसे अच्छा-सा सुन्दर फल कोई किसी को दे और फिर कुछ क्षण बाद ही उसे छीन ले, पाने वाला अतृप्त ही रह जाय, उसका आनन्द न ले सके तो अतृप्तिजन्य दारुण वेदना होती है, हृदय में शूल से चुभते हैं, वैसी ही वेदना मेहताबदेवी को भी होती थी, पर धर्मनिष्ठ और विवेकवती होने के कारण वह यह वेदना भी समता से सह जाती थी।
इतने पर भी उसका मातृत्व तो अतृप्त ही रह जाता था । अपने बच्चे की तुतली भाषा में 'माँ' शब्द सुनने को उसने कान तरसते रह जाते। मन में हूक उठती-जब मेरे भाग्य में पुत्र-सुख है ही नहीं तो देव मुझे पुत्र देता ही क्यों है ? इधर दिया और उधर छीन लिया, हे दैव ! एक अबला के साथ तू इतना क्रूर मजाक करता ही क्यों है ?
....."और फिर अपने मन को समझा लेती-मेरे पूर्वजन्म के कर्म ही ऐसे हैं। अवश्य ही मैंने पूर्वजन्मों में किसी की इष्ट वस्तु चुरायी होगी। किसी को इसी प्रकार पीड़ित किया होगा, उन कर्मों का यह दुष्फल मेरे सामने आ रहा है । और वह सन्तोष कर आशावान हो जाती । किन्तु दीर्घायु पुत्र-प्राप्ति के लिए तथा उसके जीवन की रक्षा के लिए किसी भी देवी-देवता की मनौती नहीं करती थी।
लेकिन अन्य सभी पारिवारिकजनों की इच्छा यही थी कि 'मेहताब देवी की सन्तान जीवित रहे। और इस इच्छा की पूर्ति के लिए मनौतियाँ करते रहते थे।
शुभ-स्वप्न संकेत-एक रात्रि ! मेहताबदेवी अपनी सुख-शैय्या पर निद्राधीन थी । बन्द आँखों में सपने तैरने लगे-सत्संग हो रहा है । सन्तों का प्रवचन चल रहा है । उसमें मैं बैठी प्रवचन सुन रही हैं। मेरे समीप ही एक दिव्य देवांगना बैठी है । प्रवचन समाप्त हुआ । देवांगना जैसे मेरे शरीर में समा गई । सन्तों की और धर्म की जय-जयकार होने लगी, श्रोताओं, भक्तजनों का हर्षनाद तुमुल स्वर में व्याप्त हो गया । अचानक ही आँख खुल गईं । देखा तो वही कक्ष ।
मेहताबदेवी का चिन्तन उभरा-कितना मधुर और सुहावना स्वप्न था। काश ! आँख न खुलतीं। प्रवचन चलता ही रहता । यह जागृति तो बैरिन बन गई । सुख की घड़ियाँ लूट ले गई।
चिन्तन आगे बढ़ा-और सब लोग तो जाते दिखाई दिये लेकिन वह देवांगना कहाँ चली गई ? कितनी सुन्दर थी । कैसी मनोहारी मूरत...""अरे वह तो मेरे शरीर में ही समा गई।
पलक उठा मेहताबदेवी का तन-मन ! हर्ष से हिया छलक उठा। सोचा-अपनी खुशी में पतिदेव को भी साझीदार बनाऊँ । उठी, पति को जगाया और पूरा स्वप्न सुना दिया।
गुलाबचन्द जी का मन मोद से भर गया, शब्द निकले गुलाबी हँसी के साथ उत्तम स्वप्न है। तुम माता बनोगी । तुम्हारी कन्या साधारण नहीं, कन्या-रत्न होगी, जिसके उजास से हमारा हृदय-घट तो प्रकाशित होगा, पूरा समाज उससे उजाला पाकर धन्य अनुभव करेगा अपने आपको ।
__ और मेहताबदेवी अभी से अपने को धन्य अनुभव करने लगी। ज्यों-ज्यों गर्भ में वृद्धि हुई, माता की धर्म प्रवत्तियाँ दिनोंदिन प्रद्धित होती चली गई । अब उन्हें सुपात्रदान, गुरु-दर्शन-वन्दन, प्रवचन श्रवण आदि में अधिक आनन्द आता। सभी व्यवहारों में विनय विशेष रूप से समाहित हो गई।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
जन्म एवं शैशव जन्म-गर्भकाल पूरा होने पर श्रीमती मेहताबदेवी ने एक बालिका को इसी प्रकार जन्म दिया, जैसे प्राची दिशा सूर्य को जन्म देती है, जिसके प्रकाश से जन-जन चेतनाशील हो जाता है । वह दिन था विक्रम संवत् १६६५ की वैशाखी पूर्णिमा।
भारत के धार्मिक इतिहास में इस पूर्णिमा का भी विशेष महत्व है। करुणा के प्रसारक तथागतबुद्ध का जन्म भी वैशाखी पूर्णिमा को हुआ, उन्हें बोधि भी इसी दिन प्राप्त हुई और इसी दिन उनका शरीर भी छूटा । इसी कारण यह पूर्णिमा बुद्ध जयन्ती के नाम से भारत, चीन, जापान आदि एशिया खण्ड के अनेक देशों में प्रसिद्ध है।
नवजात पुत्री जिसका नाम माता-पिता ने सज्जनकुमारी रखा और आज सज्जनश्री म० के रूप में हैं, उनमें भी करुणा, क्षमा, आदि अनेक सद्गुण साकार रूप में परिलक्षित होते हैं ।
पुत्री के जन्म से माता-पिता के हृदय में जो अंधकार था, वह मिट गया, उसका स्थान प्रकाश ने ले लिया, उनके मन में मोद भर गया । सारे परिवार में खुशियाँ छा गईं।
लेकिन मानव-मन शंकालु भी तो है । आप से पहले जितनी भी सन्तानें हुईं वे सभी एक वर्ष की ही मेहमान रहीं, अतः पारिवारिक जनों, विशेष रूप से परिवार की बुजुर्ग स्त्रियों के मन में इस नवजात पुत्री के अमंगल की आशंका भी उठ खडी हुईं, उन्हें इसके जीवन की चिन्ता लग गई।
यद्यपि यह अकाट्य सत्य है कि कोई भी अन्य व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के आयुष्य को एक क्षण भी नहीं बढ़ा सकता और न स्वयं व्यक्ति यहाँ तक कि तीर्थकर भी नहीं।
भगवान महावीर का अन्त समय समीप था । उस समय कक्र देवराज उनके चरणों में उपस्थित हआ, करबद्ध होकर प्रार्थना की उसने-भगवन् ! आपकी जन्म राशि पर भस्मक ग्रह चल रहा है । यदि इसी समय आपने शरीर त्याग दिया तो आपके शासन की बहुत अवनति होगी । दो हजार वर्ष तक इसका प्रभाव रहेगा । अतः आप आयुष्य के कुछ क्षण बढ़ा लें तब तक यह भस्मक ग्रह उतर जायेगा, आप सर्वसमर्थ हैं, आयु के कुछ क्षण बढ़ा सकते हैं।
. इस पर भगवान महावीर ने फरमाया-हे इन्द्र ! ऐसा न कभी हुआ है और न होगा ही आयुष्य का एक क्षण भी बढ़ाया नहीं जा सकता।
इस तथ्य को जानते-समझते हुए भी मानव यही सोचता है कि कुछ टोटके करके नवजात बालकबालिकाओं को दीर्घायुष्य बनाया जा सकता है । विपाक सूत्र में ऐसे टोटकों का उल्लेख मिलता है । यथाशकट को शकट (गाड़ी) के नीचे से निकाला गया था।
घर की बुजुर्ग स्त्रियों ने भी ऐसा ही एक टोटका किया। सोचा-इस बार पुत्री को नमक से तोलकर लिया जाय । ऐसा ही किया भी गया । भावना यही रही कि इस प्रकार करने पुत्री दीर्घायु वाली होगी।
शैशव-क्रीड़ाएँ-बालिका माता-पिता तथा परिवारीजनों को हर्षित करती हुई दिनोंदिन बढ़ने लगी । उसकी शिशु-क्रीड़ाओं को देख-देखकर सभी हर्षित होते।
मिल्टन (Milton) ने अपनी एक रचना में लिखा हैCrawling of child shows its future. (शिशु की क्रीड़ाएँ उसके भावीजीवन की संकेत होती है।) ऐसी ही एक लोकोक्ति है-पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी इसी बात से यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सामान्य बालकों की शिशु-क्रीड़ाएँ सामान्य होती हैं और विशिष्टों की विशिष्ट । उस युग में सामान्य बालिकाओं की सामान्य-क्रीड़ा थीं-गुड़ियों से खेलना, उनका व्याह रचाना आदि ।
__ किन्तु हमारी चरित नायिका तो विशिष्ट थी, विशिष्ट संस्कार लेकर उन्होंने यह जन्म ग्रहण किया था । अतः उनकी शिशु-क्रीड़ाएँ भी विशिष्ट थीं।
जिस आयु में लड़कियाँ गुड्डा-गड़ियों के ब्याह रचाया करती हैं, उस बचपन की आयु में आप कभी गणेशजी का चित्र लेकर उसकी पूजा करतीं तो कभी राम-लक्ष्मण-सीता का अभिनय करती।
__आपकी सर्वाधिक प्रिय क्रीड़ाएँ थीं-मुख पर मुहपत्ति बाँधकर साध्वी का रूप रखना और छोटीछोटी कटोरियों के पात्रे बना रूमाल की झोली बनाकर बहरने जाना । कभी आप साधु के समान परदा लगाकर भोजन करने का अभिनय करतीं तो कभी ऊँचे आसन पर बैठकर अन्य बालिकाओं को धर्मोपदेश देती-वैसा ही जैसे तीर्थकर भगवान समवसरण में विराजमान होकर बारह प्रकार की धर्म-परिषदा को धर्म का उपदेश प्रदान करते हैं।
इन क्रीड़ाओं में आपको बहुत रस आता।
बाल-सुलभ क्रीड़ाओं के साथ ही सत्य को जानने की आपकी जिज्ञासा प्रबल थी । विनय-विवेक और तर्कबुद्धि का भी आप में निरन्तर विकास हो रहा था।
माता अपनी पुत्री की इन क्रीड़ाओं को देखकर फूली न समाती, अपने मातृत्व को सफल-सार्थक हुआ समझती।
___ माता जैसे गौरवपूर्ण शब्द के लिए अंग्रेजी में 'मम्मी' शब्द है । अंग्रेजियत के रंग में रंगे बच्चे अपनी माता को मम्मी कहने लगे हैं, माताएँ भी इस सम्बोधन से बहुत खुश होती हैं और बच्चों को ऐसे बोलने के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं । लेकिन वे नहीं जानतीं कि 'मम्मी' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है।
__'मम्मी' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'शव' (डैड बोडी) । मिस्र के पिरामिडों में हजारों साल पुराने जो मसाला लगे हुए शव रखे हैं, उन्हें मम्मी (mummy) कहते हैं । ऐसी ही एक मम्मी जयपुर के अजायबघर में भी रखी हुई है।
साथ ही अब पिता को 'डैडी' कहने का भी फैशन चल पड़ा है। कुछ बच्चे तो डैडी को भी शोर्ट करके डैड कहते हैं । डैड का अर्थ होता है--मरा हुआ व्यक्ति ।
भारतीय जनजीवन में पश्चिम की संस्कृति की मूर्खतापूर्ण नकल की जाती है और ये नकलची अपने को 'मॉडर्न' या आधुनिक भाषा में 'सभ्य' सुसंस्कृत (कल्चर्ड) समझते हैं। वे नहीं जानते कि सभ्यता और संस्कृति अपने उच्च आदर्श और उदात्त विचार-संस्कारों की पोषक होनी चाहिए शोषक नहीं अस्तु
धार्मिक संस्कार--यद्यपि आधुनिक माता-पिता इस प्रवाह में बहे जा रहे हैं। लेकिन हमारी चरितनायिका की माता मेहताबदेवी अलग ही प्रकार की थी। असली भारतीय नारी थीं, उनके संस्कारों में उच्च धार्मिकता थी, विचारशीलता भी महक थीं । वह बच्चे को-अपनी पुत्री को धार्मिक संस्कार देने में अपने मातृत्व का गौरव मानती थीं । वह पुत्री को अतिशय लाड-प्यार करती थीं, वात्सल्य लुटाती थीं किन्तु साथ ही अपने कर्तव्य का उन्हें भान भी था। जानती थीं-माता हजार शिक्षकों के बराबर होती है। और बच्चे की प्राथमिक शिक्षिका माँ ही होती है । जैसे संस्कार माता अपनी सन्तान
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खण्ड १ | जीवन ज्योति में भर देती है, वे जीवन भर स्थायी रहते हैं । इसी कारण वे अपनी पुत्री सज्जनकुमारी को धर्म-सम्बन्धी शुभ संस्कार देने में सदा सजग-सावधान रहतीं।
जब सज्जनकुमारी की अवस्था मात्र ३ वर्ष की ही थी, तभी से माता अपनी प्रिय पुत्री को ब्राह्ममुहूर्त में अपने साथ ही उठातीं और मुहपत्ति लगाकर सामायिक करवाती । सामायिक के दौरान ही माला, धार्मिक पाठ और थोकड़े याद करवातीं । वे स्वयं भी दिन में तीन सामायिक करती थीं । सामायिक के बाद नगर में विराजमान संत-सतियों के दर्शन-वन्दन को जाती तो साथ में अपनी पुत्री को भी ले जातीं। जयपुर में सदा से ही साधु-साध्वियों का निवास और आवागमन बराबर बना रहता है, वर्तमान में वही स्थिति है । अतः उन्हें सहज ही संत-सतियों के दर्शन-वन्दन का लाभ प्रतिदिन ही मिल जाता था।
इस प्रकार माता अपनी पुत्री (चरितनायिका) के हृदय में धार्मिक संस्कारों की जड़ जमा रही थी। उन्हीं संस्कारों का परिणाम सुदृढ़ चारित्र सम्पन्न सज्जनश्रीजी म० के रूप में आज हमारे सामने हैं।
व्यावहारिक शिक्षा-आपकी व्यावहारिक शिक्षा का प्रारम्भ आपश्री के पिता श्रीगुलाबचन्दजी सा० द्वारा हुआ।
उन दिनों जयपुर में जवाहरात के चार-पाँच ही शोरूम थे। उनमें श्रीगुलाबचन्दजी का शोरूम अधिक प्रसिद्ध था। प्रसिद्धि का कारण था आपकी प्रामाणिकता, नैतिकता और शालीनतापूर्ण शिष्टमिष्ट व्यवहार । उनके व्यवहार और वाणी में अभिजात्यता थी। उनका संपर्क अनेक राजपरिवारों व बड़े ब्रिटिश अधिकारियों के साथ भी था। इसी कारण विदेशी लोग भी खिचे चले आते थे । साथ ही व्यापार भी दिनोंदिन प्रगति पथ पर बढ़ रहा था, लाभ भी हो रहा था।
सज्जनकुमारी पिता की लाड़ली तो थी ही । अभी उसकी चार वर्ष की आयु ही थी; किन्तु पिताश्री उसे अपने साथ दूकान पर ले जाते । वहां वह पिताश्री और फोरेनर्स (विदेशी व्यक्ति) के मध्य हुआ वार्तालाप सुनती । विदेशी तो अंग्रेजी ही बोलते थे और गुलाबचन्दजी भी उनसे अंग्रेजी में ही बात करते थे । बालसुलभ जिज्ञासावश सज्जनकुमारी उस वार्तालाप को ध्यान से सुनती, समझने का प्रयास करती और फोरेनर्स के जाने के बाद पिताश्री से पूछकर उस शब्दों का ज्ञान प्राप्त करती । इस प्रकार अंग्रेजी शब्दों का ज्ञान भी सज्जनकुमारी का बढ़ने लगा। कभी अपने मुनीमजी से . भी जिज्ञासा शांत करती । मुनीमजी की इंगलिश काफी अच्छी थी । जब वे सज्जनकुमारी के मुख से इंगलिश शब्दों का स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण सुनते तो बहुत प्रसन्न होते और उन शब्दों का भाव (sense) बड़े प्रेम से समझा देते।
___ सज्जनकुमारी की तीव्र बुद्धि से पिता श्री गुलाबचन्द जी सा. बहुत प्रभावित हुए । यद्यपि उस समय लड़कियों की उचित शिक्षा का विशेष प्रचलन नहीं था; किन्तु पिता ने अपनी पुत्री को शिक्षा दिलाने का निर्णय कर लिया।
__उस समय स्थिति यह थी कि लड़कों के लिए तो हाईस्कूल थे; किन्तु लड़कियों के लिए राजकीय प्राइमरी और मिडिल स्कूल ही थे। और जो स्कूल थे भी उनमें उच्चकुलीन लोग अपनी पुत्रियों को भेजना उचित नहीं समझते थे। ..
कई प्राइवेट सामाजिक स्कूल भी थे
(१) लीलाधरजी के उपाश्रय में जैन श्वेताम्बर मिडिल स्कूल-इसमें ओसवाल समाज तथा अन्य समाजों के लड़के पढ़ते थे। यह वर्तमान में हाईस्कूल है।
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जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
(२) स्थानकवासी समाज द्वारा संचालित कन्या पाठशाला । इसका वर्तमान नाम सुबोध हायर सैन्डी स्कूल है । इसमें कन्याओं के शिक्षण की व्यवस्था है । यह प्रगति पथ पर है ।
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(३) वीर बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय व कॉलेज भी वर्तमान में है । इसका श्रीगणेश ५० वर्ष पहले पूज्या श्री स्वर्णश्री जी म. सा. की प्रवचन प्रेरणा से हुआ था ।
किन्तु जब चरितनायिका ५ वर्ष की थीं, उस समय ये स्कूल नहीं थे । तेरापंथ समाज की ओर से भी कोई स्कूल नहीं था ।
लेकिन तेरापंथ समाज में एक ऐसे स्कूल की आवश्यकता अवश्य अनुभव की जा रही थी जहाँ (पुत्री) कन्याओं को व्यावहारिक शिक्षण के साथ-साथ धार्मिक संस्कार भी मिलें । इस दृष्टिकोण से तेरापंथ समाज की ओर से एक पाठशाला स्थापित की गई, जिसकी स्थापना में श्री गुलाबचन्दजी लूनिया ( चरितनायिका के पिता) अग्रणी थे ।
इसी पाठशाला में चरितनायिका जी को प्रवेश कराया गया। इसके अतिरिक्त घर पर भी शिक्षण शुरू किया गया। पंडित मीठालालजी सा. हिन्दी, गणित तथा अन्य विषयों का ज्ञान प्रदान करते थे तो पंडित श्री मदनमोहन जी शास्त्री संस्कृत का शिक्षण देते थे । विद्यालय में भी ये ही पढ़ाते थे । छोटे-छोटे लड़के-लड़की साथ ही पढ़ते थे ।
हमारी चरितनायिका धार्मिक क्रिया, सामायिक प्रतिक्रमण आदि सीखने के लिए तत्रस्थ विराजित साधु-साध्वीजी म. तथा समीपस्थ धामिक पाठशाला में जाती थी । यह पाठशाला सेठ श्री फूलचन्द जी सा. द्वारा संचालित थी और यहाँ मेहताब जी यतिनी' तथा भंवरबाई ( अध्यापिका) धार्मिक तथा सामान्य ज्ञान देती थीं । यहाँ विशेषरूप से उच्चारण की शुद्धता और अर्थ के चिन्तन पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
ये दोनों गुण तो आप में प्रारम्भ से ही विकसित थे, साथ ही आपकी बुद्धि भी कुशाग्र थी, अतः थोड़े समय में आपने काफी ज्ञान उपार्जित कर लिया। आठ वर्ष की आयु तक तो आपने पच्चीस बोल, चर्चा के तेरह द्वार, बावन बोल, दण्डक हुन्डी, अनुकम्पा की ढालें आदि कई छोटे-बड़े थोकड़े कण्ठस्थ कर लिए थे ।
महान् आत्माओं के उद्गार - धार्मिक पाठशाला की सहपाठिनियों चाँदबाई, सरदारबाई, मिश्री - बाई, उमरावबाई आदि ( ये सब मन्दिरमार्गी थीं) के साथ एक बार आप इमलीवाले उपाश्रय में (यह वर्तमान में विचक्षण भवन के नाम से प्रसिद्ध है) जहाँ स्वनामधन्या पुण्यश्री जी म. अपने शिष्या समुदाय के साथ विराजते थे, उनके दर्शन - वन्दन हेतु गयीं। उनकी तेजस्वी, शांत मुखमुद्रा को देखकर आप बहुत प्रभावित हुईं। फिर तो आप नित्य ही जाने लगीं ।
इसी प्रकार एक बार जब आप ५ वर्ष की ही थीं, अपने पिताजी के साथ, जयपुर में ही विराजित खरतरगच्छीय परम आगमज्ञ योगिराज शिवजीरामजी म. के दर्शनार्थ गयीं । आपको देखकर योगिराज के मुख से उद्गार निकले -
१. पुरुष यति के समान स्त्री यतिनी होती थीं। अब तो नामशेष हो चुकी हैं ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
“सेठ सा० आपकी यह कन्या तो बड़ी भाग्यशालिनी है । इसकी शालीनता और शुभलक्षणों को देखकर ऐसा अनुभव होता है कि आगे चलकर यह कुलदीपिका धुरन्धर विदुषी साध्वी बनेगो और शास्त्रज्ञा बनकर ख्याति प्राप्त करती हुई उच्च पद पर प्रतिष्ठित होगी।"
योगिराज के ये उद्गार आज अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रहे हैं ।
ओत-प्रोत धार्मिकता-यद्यपि चरितनायिका सज्जनकमारी का बचपन वैभव में व्यतीत हो रहा था, घर में सभी प्रकार की सुविधाएँ थीं, माता-पिता का अत्यधिक वात्सल्य था; फिर भी सज्जनकुमारी का जीवन धार्मिकता से ओत-प्रोत था । वह अपने स्वीकृत व्रत-नियमों का दृढ़ता से पालन करती थी । धर्म का जीवन में प्रमुख स्थान था । इसीलिए ६ वर्ष की आयु में ही उसने दीक्षा लेने की भावना प्रगट की थी, जिसे सुनकर पिताश्री गुलाबचन्द जी सा० गहरे विचारों में डूब गये थे ।
विवाह-मोह की बड़ी विचित्र विडम्बना है । यद्यपि गुलाबचन्दजी धार्मिक थे, धर्म के मर्म को जानते थे, बारहव्रती श्रावक थे, फिर भी पुत्री के प्रति अत्यधिक प्रेम था । वे पुत्री को दीक्षित होते देखना नहीं चाहते थे । पुत्री-प्रेम के प्रवाह में उनका चिन्तन दूसरी ओर मुड़ गया। सोचा-इसका विवाह कर देना चाहिए । गृहस्थी में फंसकर यह साध्वी बनने की बात भूल जायेगी। घर में रहकर ही जितनी संभव होगी, धार्मिक साधना करती रहेगी।
आज के युग में 6 वर्ष की कन्या के विवाह के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। ऐसी बात कहने वाले को भी आज के युग में दकियानूसी और पुराणपंथी कहा जायेगा । बहुत से लोग उसका मजाक भी बना सकते हैं; लेकिन उस युग में यह आम प्रथा थी। सात, यहाँ तक कि पाँच वर्ष तक की कन्याओं के विवाह कर दिये जाते थे । मनु के ये शब्द जन-मानस में गहरे पैठ चुके थे--
नव वर्षा भवेद् गौरी दश वर्षा च रोहिणी सभी उच्चकुलीन व्यक्ति अपनी नववर्षीया पुत्री को विवाह-बंधन में बांध देना अपना कुल-गौरव समझते थे।
इसके विपरीत आज के युग में विवाहयोग्य आयु २० वर्ष से ऊपर मानी जाती है। स्त्री-शिक्षा के प्रसार के कारण कन्या की शैक्षिक योग्यता कम-से-कम बी० ए० है। उससे पहले माता-पिता उसके विवाह की बात भी नहीं सोचते, उसे स्वयं विवाहयोग्य ही नहीं समझते । स्वयं कन्याओं की भी ऐसी ही विचाराधारा है।
लेकिन श्री गुलाबचन्दजी जिस युग में जी रहे थे, उसी युग से प्रभावित थे। अतः वे भी अपनी पुत्री सज्जनकुमारी, जो अभी नौ वर्ष की ही थी, उसका विवाह करना अपने कुल-गौरव के अनुरूप ही समझते थे।
इसके अतिरिक्त सज्जनकुमारी की दीक्षा लेने की भावना ने उन्हें और भी उत्प्रेरित कर दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह शीघ्र कर देने का निर्णय कर लिया।
निर्णय के अनुसार पंडितजी को सज्जनकुमारी की जन्म-पत्रिका दिखाई गई।
खण्ड १/२
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एक प्रसिद्ध पंडित द्वारा बताया गया जन्म कुण्डली का फलादेश
शुभ सं० १९६५ वैक्रमीये वैशाख शुक्ला १४ शुक्रवासरे सूर्य स्पष्ट १-२ इष्ट घटी ५३/२३ समये मीन लग्ने विशाखा नक्षत्र तृ० चरणे जन्म |
पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज की जन्म कुन्डली
(10)
१
बु शु.
मं ३ रा.
४ बृ.
m
५
शनि
१२
w
११
केतु
कारक है ।
जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
१०
दीक्षा योग - गुरु शनि का त्रिकोण योग - त्यागवृत्ति वैचारिक शक्ति अर्थात् सोचने-समझने की विशेष शक्ति ।
बुध शुक्र स्थान परिवर्तन योग - तीव्रज्ञान, सौलीसीटर जैसा बुद्धिमान । सूर्य आत्मबल का प्रतिनिधि है उस पर शनि की पूर्ण दृष्टि होने से सर्वत्याग की भावना तथा सोचने समझने की बुद्धि होती है । दशमेश उच्च का है । उस पर शनि की त्रिकोण दृष्टि है तथा दशम भाव पर पूर्ण दृष्टि है यह योग भी वैराग्यकारक है ।
चन्द्रमा से दशम स्थान में उच्च राशि का गुरु है इससे उच्च श्र ेणी का आत्मिक कार्य करने वाला होता है ।
लेखन कला योग - तीसरा स्थान लग्न में स्थित शनि से दृष्ट है तथा उसमें 'बुध' बैठा है अतः वह लेखनकला में कुशल बनाता है ।
चन्द्र
शासन सत्ता योग - चन्द्रमा लग्नेश को देखता है तथा तृतीयेश पर भी दृष्टि है। तृतीयेश मंगल गृह के साथ है तथा तीसरे चौथे स्थान के स्वामियों का परस्पर परिवर्तन योग है अतः शासन सत्ता योग बनता है । शनि गुरु की राशि में व गुरु की ही दृष्टि में होने से महान् तीव्र अध्यात्मज्ञान और कलाओं पर स्वामित्व प्राप्त कराता है। शासन सत्ता का भी महान् योग करता है ।
शिष्यादि का योग - गुरु शनि का त्रिकोण योग, व्ययेश पर गुरु की दृष्टि होने से शिष्यादि का योग तथा शास्त्रवेत्ता योग करता है । तृतीयेश का केन्द्र में और चतुर्थेश का पराक्रम में परिवर्तन योग होने से महान् धैर्य और समाधि योग होता है ।
आगम ज्ञान -- लाभेश पर गुरु की दृष्टि और लाभेश शनि तथा लग्नेश गुरु का त्रिकोण योग । सुखेश पर मोक्षेश की दृष्टि महान् उपदेशक व महान् ज्ञानी बनाती हैं तथा ब्रह्मचर्य मन का धैर्य महान् समाधिधारक दृढ़श्रद्धाशील तथा उद्यमी बनाती है ।
आत्मबल योग---मंगल धनेश और भाग्येश होकर केन्द्र में तृतीयेश के साथ बैठा है यह योग आत्मबली मनोभिष्ट कार्य सिद्ध करने वाला तथा महान् आत्मबली बनाता है ।
उच्चपद तथा दीर्घायु योग- शंख योग- लग्नेश और दशमेश त्रिकोण में दीर्घायु और उच्चपद
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
साहित्यिक अनुसंधान करने वाला, वाक्चातुर्य, न्यायज्ञाता बनाता है।
गुरु की दृष्टि शनि पर होने से आगमों को जानने वाला, न्यायशास्त्रों का ज्ञाता और सौलीसिटर जैसा प्रभावशाली व वाक्चातुर्य से युक्त बनाता है।
इस प्रकार ज्योतिषी द्वारा बताये गये सभी फलादेश गुरूवर्याधी के जीवन में फलीभूत होते हुए देखे जा रहे हैं।
x
__पंडितजी ने उक्त जन्म-पत्रिका पढ़ी, ग्रह-गोचर लग्न आदि देखे, जन्म कुण्डली पर गौर किया और गम्भीर चिन्तन में डूब गये। उनके मस्तक पर गम्भीरता की रेखाएँ उभर आईं।
पंडितजी की गम्भीर मुखमुद्रा को देखकर श्री गुलाबचन्दजी चिन्तित हो गये, उनका उद्विग्न स्वर निकला
"क्या बात है पंडितजी ! आप गम्भीर कैसे हो गये ? पुत्री की जन्म-कुण्डली में कुछ अशुभ है क्या?
पंडितजी ने गम्भीर स्वर में कहा
"अशुभ तो कुछ भी नहीं, सब शुभ ही शुभ है। ग्रह तो सभी उत्तम है, ऐसी जन्म-पत्री तो विरलों की ही होती है। आपकी पुत्री अवश्य ही तेजस्वी, यशस्वी बनेगी।" ।
"फिर आपकी गम्भीरता का क्या कारण है ?" गुलाबचन्दजी की उद्विग्नता अब भी कम नहीं हुई थी।
"गम्भीरता का कारण है ।" पंडितजी ने कहा-"आपने जिस इच्छा से मुझे यह जन्म-पत्रिका दिखाई है, उसमें मुझे कुछ बाधा दिखाई दे रही है।"
___ "तो क्या पुत्री का विवाह नहीं होगा ?" गुलाबचन्दजी के मुख से अनायास ही ये शब्द निकल गये क्योंकि उनके मस्तिष्क में सज्जनकुमारी की दीक्षा-भावना तैर गई थी।
"स्पष्ट ही सूनना चाहते हो तो सुनो।" पंडितजी ने कहा-"तुम्हारी पुत्री मंगलीक है। इसलिए इसका विवाह मंगलीक लड़के के साथ करना उचित रहेगा। किन्तु फिर भी मंगल दाम्पत्य-सुख में बाधा तो देगा ही। फिर भी घबराने की बात नहीं है, आप मंगलीक लड़के की ही खोज करें। सब कुछ मंगल होगा।"
पंडितजी इतना कहकर चले गये और श्री गुलाबचन्दजी मंगलीक लड़के की खोज में जुट गये।
२ वर्ष के अनवरत प्रयास के बाद जयपुर के ही स्व० दीवान श्री नथमलजी सा. गोलेच्छा के पौत्र एवं श्री सौभागमलजी के सुपुत्र श्रीमान् कल्याणमलजी की जन्म-पत्री सज्जनकुमारी की जन्म-पत्री से अच्छी मिली।
निराशा-हताशा की घड़ियाँ समाप्त हुई। प्रसन्नता का वातावरण बन गया। यथेष्ट दानदहेज, स्वागत-सत्कार के साथ १२ वर्षीय सज्जनकुमारी का विवाह श्री कल्याणमलजी के साथ कर दिया गया। सज्जनकुमारी बहू बनकर ससुराल में पहुंच गईं गृहलक्ष्मी के रूप में ।
___ नया घर, नया वातावरण, अपरिचित लोग-यही सब कुछ मिलता है नववधू को ससुराल में । इन्हीं लोगों और वातावरण के साथ उसे घुल-मिल जाना पड़ता है; जिस व्यक्ति को पहले कभी देखा तक नहीं उसे सर्वस्व समर्पण करके उसके व्यक्तित्व के साथ एकाकार होने में ही नववधू की सार्थकता है। १. गोलेच्छा परिवार का परिचय जीवन-वृत्त के परिशिष्ट में देखें।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी इस समामेलन, समायोजन और समर्पण में समुराली जनों का सहयोग अपेक्षित होता है। वे यदि प्रेम से, वात्सल्य और प्यार से नववधू को अपनावें, सास बहू को पुत्री से बढ़कर माने, ननद उसे अपनी बहन जैसा प्यार दे, ससुर अपनी पुत्री माने तभी सुखद वातावरण बनता है। साथ ही नववधू भी अपनी विनय, शालीनता, कर्तव्यपरायणता, शिष्ट-मिष्ट वाणी से ससुरालीजनों के हृदय में अपना स्थान बनाती है।
ये सब गुण सज्जनकुमारी को माता की जन्म घूटी के साथ ही मिल गये थे और १२ वर्ष तक उनका सिंचन-संवर्धन होता रहा था । अतः वह शीघ्र ही ससुराल के परिवारी जनों में घुल-मिल गयी । सभी उसकी प्रशंसा करते थे।
पारिवारिक कर्तव्यों के साथ-साथ सज्जनकुमारी अपने स्वीकृत व्रत-नियमों का दृढ़ता से पालन करती थीं; किन्तु उसका व्रत-नियम-पालन उसके पतिदेव को अच्छा नहीं लगता था । वे व्रत-नियम छोड़ने के लिए कहते, पर सज्जनकुमारी यद्यपि जवाब तो न देती; पर टाल जाती, धर्माचरण न छोड़ती । इस पर पतिदेव जब उग्र हो जाते तो सज्जनकुमारी का हृदय व्यग्र हो जाता, मन में वैराग्य-भावना भर जाती; पर अपनी भावना को प्रगट न करती क्योंकि इससे परिवार में संक्लेश का वातावरण बन सकता था, जिसे सज्जनकुमारी नहीं चाहती थीं।
कोटा में निवास और विचार-परिवर्तन-विवाह के एक वर्ष पश्चात् आप किसी कार्यवश अपने संपूर्ण परिवार के साथ अपनी भूआसासुजी के घर कोटा गये । भूआसासुजी सेठानी श्री उमराव कवरबाई सा० थीं। ये सेठ श्रीनथमलजी की पुत्री और कोटा के प्रसिद्ध रायबहादुर की पदवी से विभूषित माननीय सेठ केसरीसिंह जी बाफना' की धर्मपत्नी थीं । ये मंदिरमार्गी आम्नाय को मानती थीं।
भूआसा० ने कल्याणमलजी को काम सीखने के लिए अपने पास रख लिया, फलतः सज्जनकुमारी को भी भूआसा० के पास रहने का अवसर प्राप्त हो गया।
भूआसा० अपने धर्म क्रियाओं में बहुत ही चुस्त और दृढ़ थीं। उनके घर का खान-पान, रहनसहन सात्विक था, वातावरण भी धर्ममय था। भूआसा० का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था। घर में तो उनका प्रभाव था ही, समाज में भी काफी प्रभाव था, उनकी इच्छा को ही आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया जाता था।
चरितनायिका को वहाँ का वातावरण और भूआसा० का स्वभाव बहुत पसंद आया । इसके अतिरिक्त चरितनायिका सज्जनकुमारी की रुचि जमने का एक और भी कारण था, वह था नंदकुवर बाई सा०।
नंदकवरबाई सा० श्री सज्जनकुमारीजी की हमउम्र (समवयस्क) थीं। उनका विवाह सज्जनकुमारीजी के विवाह के दो महीने बाद हुआ था । ये सेठ केसरीसिंहजी की द्वितीय पत्नी थीं। यह विवाह स्वयं उमरावकुवरजी ने आग्रह करके कराया था। कारण यह था कि उमरावकुंवरजी के दो पुत्र हुए किन्तु उनमें से जीवित कोई न बचा। तदुपरान्त दीर्घकाल तक कोई सन्तान नहीं हुई। संतान-प्राप्ति के लिए स्वयं उमरावकुवरजी ने आग्रह करके नंदकुवर का विवाह अपने पति सेठ केसरीसिंहजी के साथ कराया।
समवयस्क होने के कारण सज्जनकुमारीजी और नंदकुवरजी में पारस्परिक प्रेम हो गया। १. बाफना परिवार का परिचय परिशिष्ट में दिया गया है।
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मनमौजी भोला सा बचपन । कितना सहज मधुर मन भावन ॥
८ वर्षीय बाल्यावस्था में पिताश्री ने बड़े प्यार दुलार से तारा सुलमा जड़ी टोपी पहनाकर सज्जनकंवर को गब्जी नाम से
पुकारा था ।
अखण्ड सौभाग्यवती श्रीमती सज्जनकुमारी गोलेछा दीक्षा पूर्व वैराग्य अवस्था का चित्र
जन्म : वि. सं. १६६५, वैशाख पूर्णिमा
दीक्षा : वि. सं. १९६६, आषाढ शुक्ला २, बुधवार
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अपनी शिक्षागुरु ज्ञान-ध्यान निरत श्री उपयोग श्री जी महाराज के साथ
प्रतिनी सज्जन श्री जी महाराज
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खण्ड १ ! जीवन ज्योति
। उस समय पूज्य सुमतिसागरजी म. सा० और श्री मणिसागरजी म. सा. कोटा में ही विराजते थे । कारण था-आगम, शास्त्रादि की उचित मुद्रण व्यवस्था हेतु एक जैन प्रेस की स्थापना करवाना।
उमरावकुंवरबाई ने सेठसाहब से नई सेठानी नंदकुवरबाई को धर्म सिखाने का आग्रह किया तो उन्होंने जयपुर विराजित पूज्य प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्री जी म. सा. और पूज्य श्री उपयोगश्री जी म० सा० आदि साध्वियों से कोटा पधारने की विनती की।
सेठसाहब की विनती को सम्मान देकर साध्वीवृन्द कोटा पधारीं । साधु-साध्वी तथा श्रावकश्राविका-चतुर्विध संघ के एकत्रीकरण से धर्म को गंगा बहने लगी। चातुर्मास में खूब धर्म-ध्यान-तपस्या आदि हुए । साधु-साध्वियों के प्रवचनों से प्रेरित होकर लोगों ने अनेक प्रकार के व्रत-प्रत्याख्यान-नियम आदि ग्रहण किये।
सेठानी उमरावकुवरबाई अपने साथ नई सेठानी नन्दकुवरबाई और सज्जनकुमारीजी को लेकर व्याख्यान आदि में जाती थीं। गुरुदेव और गुरुवर्या की अमृतोपम वाणी ने सभी कोटा निवासियों को आकर्षित/प्रभावित किया । सज्जनकुमारीजी और नंदकुवरजी तो विशेष रूप से प्रभावित थीं। इन्हें पुण्यलाभ का विशेष अवसर प्राप्त हुआ था।
ज्ञानश्रीजी म. सा. तो ज्ञान की आगार और क्षमता, समता व सरसता की प्रतिमूर्ति ही थीं। पूज्य उपयोगश्री जी का अंग सौष्ठव अनुपम था, उनकी प्रवचन-कला में जादू था, वाक्चातुर्य अनूठा था और कंठ इतना सुरीला था कि श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
गुरुवर्या के इन गुणों से सज्जनकुमारीजी बहुत प्रभावित हुई और उनसे धार्मिक अध्ययन करने की इच्छा करने लगीं।
सज्जन व्यक्ति की कोई भी सदिच्छा अपूर्ण नहीं रहती, स्वयं ही ऐसे निमित्त मिल जाते हैं कि उनकी इच्छा पूरी हो ही जाती है । हमारी चरितनायिका की इच्छा भी पूरी होने में निमित्त बनी भूआ सा० उमरावकुंवरबाई।
उमराव वरबाई ने पूज्यश्री से निवेदन किया-महाराजसा० नई सेठानी (नन्दकवरबाई) और मेरे भतीजे की बह (सज्जनकुमारी) को धर्म सिखाने की कृपा करें। भतीजे की बहू तेरापंथियों की लड़की है, थोकड़े बोल आदि तो याद हैं; किन्तु मंदिरमार्गी धर्म से अनभिज्ञ है। उसकी मंदिर तथा पूजा आदि के विधि-विधानों में श्रद्धा जागृत हो जाये ऐसी कृपा करें।
महाराजश्री ने स्वीकृति दी । दूसरे दिन से ही नन्दकुँवरबाई और सज्जनकुमारीजी का धार्मिक अध्ययन शुरू हो गया ।
सज्जनकुमारीजी में जिज्ञासावृत्ति तीव्र थी। वह गुरुवर्याश्री के सामने इस प्रकार की जिज्ञासाएँ रखतीं
मंदिर शाश्वत हैं या अशाश्वत ? धर्म में इतने मतभेद क्यों हैं ? क्रियाओं तथा विधि-विधान में अन्तर क्यों है ? यद्यपि शास्त्र (आगम) सबके एक हैं पर मान्यताओं में इतना अन्तर क्यों है ?
इसी प्रकार की अन्य जिज्ञासाएँ भी आप रखतीं और गुरुवर्याश्री शास्त्रीय उदाहरणों द्वारा उनका समाधान करती।
साध्वीजी के बताए अनुसार आपने कई ग्रन्थों का अध्ययन करके नंदीश्वर दीप, शाश्वत प्रति
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी माओं, मेरु पर्वतों आदि का ज्ञान प्राप्त किया । परिणामतः मन्दिर, जिनदर्शन-वन्दन, प्रतिमा-पूजन आदि के प्रति आपकी दृढ़ श्रद्धा बन गई।
__गुरुवर्याश्री से आपने स्वतः प्रेरित होकर मंदिर-मार्गी सामायिक-प्रतिक्रमण तथा जिन-प्रतिमादर्शन-वन्दन-पूजन विधि विस्तार से सीखी और उसी के अनुमार सामायिक आदि करने लगीं। जिनप्रतिमा-दर्शन-वन्दन-पूजन आपके जीवन के नित्य-नियम बन गये।
आपने गुरुवर्याश्री से सप्तस्मरण, गौतमरास, शत्रौंजय रास आदि भी सीखे और इन्हें जब आप प्रातः सेठानी उमरावकुवर बाईसा० को सुनाती तो वे हर्ष-विभोर हो जाती।
इस प्रकार धार्मिक क्रियाओं और पारिवारिक सुमेल में दो-ढाई साल कब बीत गये, पता ही नहीं चला।
किन्तु अचानक इस व्यवस्था में परिवर्तन आया । हुआ यह कि उमरावकुंवरबाईजी एकाएक ही अस्वस्थ हो गईं, चिकित्सा के लिए जयपुर लाना पड़ा । आप भी इनके साथ जयपुर आ गई। चिकित्सा प्रारंभ हो गई।
उन दिनों (वि० सं० १९८० में) जयपुर पूज्याश्री हुलासश्री जी म० सा० तथा पूज्या श्री चम्पाश्री जी म० सा० (महत्तरा पद पर इनका इसी वर्ष सं० २०४५ में स्वर्गवास हो गया है) इमली वाले उपाश्रय में विराज रहे थे। सेठानीजी की अस्वस्थता के बारे में सुनकर दर्शन देने पहुँचे । सेठानी जी की भावना को मान देकर प्रतिदिन दोनों साध्वीश्री दर्शन देने आती और मांगलिक सुनातीं।।
कुछ तो श्रद्धापूर्वक मांगलिक श्रवण का प्रभाव और कुछ समुचित चिकित्सा का असर सेठानी जी के स्वास्थ्य में दिनोंदिन सुधार आने लगा । स्वास्थ्य सुधर जाने पर भी चिकित्सकों ने कुछ दिन और आराम करने का सुझाव दिया।
भूआसा० की प्रेरणा से आप इमली वाले उपाश्रय में जाने लगी तथा प्रतिक्रमण आदि सीखने लगीं । आठ दिन में राइ देवसी प्रतिक्रमण सीख लिया, एक दिन में ही भक्तामर स्तोत्र, २ दिन में अजित शान्ति, डेढ़ (१-१/२) दिन में बड़ी शान्ति सीख ली । इनके अतिरिक्त जो भी पाठ शेष थे, वे भी अत्यन्त अल्प समय में सीख लिए।
आपकी तीव्र स्मरण शक्ति, शालीन स्वभाव, शिष्ट व्यवहार आदि से गुरुवर्या पू० श्री हुलासश्री जी म. सा० तथा पूज्य श्री चम्पाश्री जी म. सा. बहुत प्रभावित हुईं। वे परस्पर विचार करतीसज्जनकमारी दीक्षा लेने योग्य है । इस जैसी बुद्धिशालिनी और प्रतिभाशालिनी दीक्षा ले ले तो जैन शासन में चार चाँद लग जायें ।
यदा-कदा ये शब्द सज्जनकुमारीजी के कानों में भी पड़ जाते । उनकी सुप्त वैराग्य-भावना पुनः अंगड़ाई लेने लगी। मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में ही दीक्षा लेने को आप आतुर हो गईं।
किन्तु अभी समय परिपक्व नहीं हुआ था, काललब्धि नहीं आई थी, प्रत्याख्यानीकषाय का क्षयोपशम नहीं हुआ था, अतः दीक्षा की बात तो दूर, धार्मिक क्रियाओं में भी अन्तराय आ गया।
हुआ यह कि भूआसा० तो स्वस्थ होकर कोटा लौट गईं और आप जयपुर में ही रह गईं। आपके सास-ससुर और पतिदेव ने मन्दिर आना-जाना तो बन्द किया, धार्मिक क्रियाओं पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। आपका मन्दिर, उपाश्रय जाना बन्द हो गया।
___ इस स्थिति से आपश्री को दुःख तो हुआ पर मन में यह सोचकर कि अभी निकाचित चारित्रमोहनीय का उदय चल रहा है-मन में समता धारण कर ली। परिवार की शान्ति के लिए आपने मौन का आश्रय लिया।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
समता का अभिप्राय निष्क्रियता नहीं है । आप निष्क्रिय होकर नहीं बैठ गयीं अपितु अपनी दीक्षा ग्रहण की भावना को साकार रूप देने का हर संभव प्रयास करती रहीं। इन प्रयासों से यद्यपि आपका पारिवारिक जीवन संघर्षमय बन गया; परन्तु आपने बुद्धि-सन्तुलन नहीं खोया, संक्लेश की स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी । इस विषम परिस्थिति में भी ज्ञानार्जन एवं तपस्या आदि करती रहीं।
___ दीक्षा-पूर्व के प्रयास-ज्ञानाभ्यास-घर का कार्य निबटाकर आप एकांत में बैठ जातीं और प्रभुस्तुति में लीन हो जाती । आपने इसी समय में अपनी कवित्व शक्ति का प्रयोग कर अनेक भजन, वैराग्योत्पादक सज्झाय, स्तुति, चैत्यवन्दना की रचना की । कवित्व-कला आपको जन्मजात संस्कारों में पिताश्री से मिली थी। आपकी दीक्षा के बाद इन रचनाओं के संकलन 'सज्जन विनोद'; 'कुसमांजलि', जैनगीतांजलि' नाम से प्रकाशित हुए हैं जिन्हें पढ़-सुनकर श्रोता आज भी भक्ति रस से सराबोर हो जाते हैं । और लघुवय में रची उन रचनाओं से आपश्री की सहज प्रतिभा का अनुमान लगा सकते हैं।
इसी समय का उपयोग आपने विभिन्न प्रकार की अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ने में किया । आपके पिताजी के यहाँ सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह था, जिनमें उपन्यास, कहानी, चरित्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि थीं जो आपकी अध्ययन-रुचि के कारण अछूती नहीं रही होंगी । इन पुस्तकों को पढ़ने से आपके व्यावहारिक ज्ञान में भी वृद्धि हुई ।
जब आपने पंजाब मैट्रीक्यूलेशन की मैन्युअल ग्रामर आफ संस्कृत पढ़ी तो आप संस्कृत के काव्य-महाकाव्य आदि पढ़ने/समझने लगीं । रुचि और बढ़ी तो अमरकोश का एक काण्ड भी कण्ठस्थ कर लिया। (अमरकोश पूर्णरूप से संस्कृत भाषा में रचा गया है । इसके तीन काण्ड हैं और इसमें एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं।) इस प्रकार आपका अध्ययन बराबर चलता रहा ।
मन्दिर उपाश्रय जाने का सिलसिला कभी चलने लगता और कभी टूट जाता। किन्तु साधुसाध्वियों के दर्शन होते ही रहते थे।
__ कारण यह था कि आपके निवास स्थान कटले में काफी लम्बी-चौड़ी जमीन पड़ी थी (उस जमीन पर वर्तमान में अग्रवाल कॉलेज है) अतः साधु-साध्वी स्थंडिल के लिए वहीं पधारते थे, अतः आप श्री को आते-जाते अनायास ही उनके दर्शन का लाभ प्राप्त हो जाता था। साथ ही सीखने की-ज्ञानाभ्यास की प्रेरणाएँ भी मिल जाती थीं । कौमुदी सीखने की प्रेरणा पूज्याश्री सत्यश्रीजी म. सा. से मिली। पूज्याश्री पधारती तो पाठ ले लेती और मौका देखकर सुना भी देते।
सूत्राध्ययन की रुचि आपको प्रारम्भ से ही थी। क्योंकि आप जानती थीं कि ज्ञान ही प्रकाश है, मिथ्यात्व का अन्धकार ज्ञान से ही दूर होता है, श्रद्धा भी ज्ञान से पुष्ट होती है और ज्ञान-ज्योति से कर्मों का भी क्षय होता है, ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। जैसा कि एक कवि ने कहा है
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञानविन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति नै सहज टरै ते ॥ ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन ।
इहि परमामृत जन्म-जरा-मृति-रोग-निवारन । ज्ञान का महत्व तो गीता में भी स्वीकार किया गया है
ज्ञानग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
अतः गृहकार्य से निवृत्त होकर आप भी सूत्र स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जातीं। आपके पिताजी के यहाँ अमोलकऋषिजी महाराजकृत सूत्रों के हिन्दी अनुवाद की प्रतियाँ थीं, वे सब भी आपने पढ़ीं। इनसे आपका ज्ञान और गम्भीर हुआ।
तप-अभ्यास-ज्ञानाभ्यास से आप तप की महिमा से भी परिचित हो गई थीं। दशवकालिक में तो धर्म को अहिंसा, संयम और तप रूप ही बताया है। आप जानती थीं कि कर्मों की निर्जरा में तप बहुत सहायक होता है, इसी से कर्मों की निर्जरा होती है। तप से ही आध्यात्मिक परिपूर्णता की सिद्धि होती है।
आपके मानस में विचार उभरे-मेरा अन्तराय कर्म चल रहा है, चारित्रमोहनीय प्रबल है, तभी तो मेरी दीक्षा-भावना सफल नहीं हो रही है, अतः तप करना चाहिए जिससे कर्मों के बन्धन शिथिल हों और दीक्षा के भाव सफल हों।
अतः आपश्री ने कई प्रकार की तपाराधना की। यथा-उपधान तप, नवपद ओली, विंशति स्थानक तप, पक्खवासा, सोलिया, मासक्षमण, कल्याणक एवं वर्षीतप ।
आप नवपद ओली की महिमा से तो परिचित थी ही । अतः इस तप की आराधना प्रारम्भिक आयु में ही शुरू कर दी थी। शहर में साध्वीजी महाराज होते तो उनके पास चली जाती अन्यथा मंदिर में ही अन्य साधर्मी बहनों के साथ नवपद ओली की साधना शुरू कर देतीं। इस प्रकार १८-१६ ओलियाँ हो चुकी थीं।
वि. सं. १६६४ में पूज्या प्रवतिनी श्रीज्ञानश्रीजी म. सा० उपयोगश्रीजी म. सा० का अपनी शिष्या समुदाय के साथ जयपुर चातुर्मास हुआ। उनकी निश्रा में नवपद की ओलियाँ आपने बड़ी धूमधाम से संपन्न की।
वि० सं० १९६६ में पुनः तपस्याओं की लहर आई । कारण था-पूज्या प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी म० सा०, उपयोगश्रीजी म. सा. अपनी गुरुबहिनों के साथ जयपुर में विराज रही थीं। वे धार्मिक क्रियाओं-तपस्या आदि के लिए प्रेरणा देती रहती थीं।
फाल्गुन चौमासी का प्रतिक्रमण चल रहा था । अन्तिम कायोत्सर्ग के पश्चात् साध्वीजी ने वर्षी तप की प्रेरणा दी । भावना ने साकार रूप लिया। बहनों की प्रार्थना पर वहाँ विराजित ८ साध्वीजी (पू. श्री समर्थश्री जी म. सा., श्री चरणश्री जी म. सा., श्री इन्द्रश्री जी म. सा., सत्प्रेरिका श्री उपयोगश्री म. सा., श्री सुमनश्रीजी म. सा., श्री जीवनश्रीजी म. सा., श्री विचित्रश्रीजी म. सा. एवं वीरश्रीजी म. सा.) ने भी वर्षी तप करने का निश्चय किया। सोने में सुहागा हो गया। साथ ही लगभग ४०-४५ श्राविकाएँ भी तैयार हो गई।
चरितनायिका श्री सज्जनकुमारीजी भी उपाश्रय जाती रहती थीं। आपको वर्षी तप की बात ज्ञात हुई तो आपने भी वर्षी तप करने की भावना पतिदेव और सासूजी के समक्ष रखी। सौभाग्य ही था कि आपको अनुमति मिल गई । प्रसन्नतापूर्वक आप भी वर्षी तप की साधना में सम्मिलित हो गईं। सभी तपस्वी बहनों की तपाराधना निर्विघ्नतापूर्वक चल रही थी। छह महीने व्यतीत हो चुके थे।
एक बार सभी की भावना बरखेड़ा तीर्थ के दर्शनों की हुई। यह तीर्थ जयपुर से १० कोस दूरी पर है और यहाँ विराजित ऋषभदेव भगवान् की प्रतिमा तालाब से निकली है। इस भावना को मण्डल की प्रमुखा पूज्या श्री उपयोगश्रीजी के अपनी सहमति प्रदान कर दी। परमभक्त धाविका श्रेष्ठा अखण्ड सौभाग्यवती मखाणी बाई ने अपने उद्गार व्यक्त किये-बरखेड़े का तो छः री पालित संघ निकालना चाहिए । इस पर शिखरु बाई सा० तुरन्त बोल उठी-संघ तो आप जैसी भाग्यशाली ही ले जा सकती हैं।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति मखाणीबाई के बात छू गई । उन्होंने घर आकर अपने पति (धर्मनिष्ठ श्रावक श्रेष्ठ मांगीलालजी सा. गोलेच्छा) के समक्ष बरखेड़े संघ में ले जाने की बात रखी तो प्रसन्न होकर बोले-भावना बहुत शुभ है, अवश्य संघ ले जाओ। अभी तो मुनिराजों (दर्शनविजयजी आदि जो त्रिपुटी के नाम प्रसिद्ध थे) का भी संयोग है । ऐसा स्वर्ण अवसर सौभाग्य से ही मिलता है । इस अवसर को चूकना नहीं चाहिए।
मांगीलाल जी की स्वीकृति से सभी ओर हर्ष की लहर फैल गई। ३-४ श्रावकों को साथ लेकर मांगीलालजी ने श्री दर्शनविजय जी म. सा. के समक्ष संघ निकालने और उसमें उनके सम्मिलित होने की प्रार्थना की तो म. सा. ने भी सहमति दे दी । फाल्गुन शुक्ला द्वितीया के दिन, जब बरखेड़ा तोर्थ का वार्षिक उत्सव मनाया जाता है, उस अवसर पर संघ ले जाने का निश्चय हो गया।
मांगीलाल जी गोलेच्छा से चरितनायिका जी के परिवार का गोत्रीय सम्बन्ध तो था ही निकट का कौटुम्बिक पारिवारिक सम्बन्ध भी था। अतः इनके परिवार से भी इस संघ में सम्मिलित होने का आग्रह किया गया।
फाल्गुन कृष्णा १४ संध्या के शुभ मुहूर्त में खूब धूमधाम से हर्षोत्सव के साथ चतुर्विध संघ ने जयपुर से प्रस्थान किया। इस संघ में लगभग १२०० श्रावक-श्राविका, पू. दर्शनविजय जी आदि ३ मुनिराज और पू. प्र. श्री ज्ञानश्री जी म. सा., श्री उपयोगश्री जी म. सा. तथा ८ साध्वियां भी थीं। सज्जनकुमारी तो साथ थी हीं।
बरखेड़ा तीर्थः छः री पालित संघ-संघ बड़े हर्षोल्लास और बैंडबाजे के साथ बरखेड़ा तीर्थ फाल्गुन शुक्ला २ के दिन पहुँचा। वहाँ बड़े ठाठ-बाट के साथ स्नात्र पूजा हुई। संघपति मांगीलालजी गोलेच्छा को माला पहनाई गई, मध्याह्न में बड़ी पूजा (सत्तरहभेदी पूजा) तथा उसके उपरान्त स्वामी वात्सल्य का कार्यक्रम रखा गया । सभी कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुए । पूज्य गुरुदेव और साध्वी जी म. सा. के सान्निध्य में सर्व संघ ने संघपति श्री मांगीलालजी गोलेच्छा का अभिनन्दन कर सम्मान किया। वस्तुतः ७ दिन का यह स्वीट एण्ड शोर्ट (छोटा और मधुर) संघ जयपुर के इतिहास में अपनी अमर छाप छोड़ गया।
ऐसे आयोजन पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारण बनते हैं साथ ही जैन शासन की प्रभावना में भी वृद्धि होती है।
वहाँ से गुरुदेव (तीनों मुनिराज) तो आगे की ओर विहार कर गये किन्तु साध्वी समुदाय वापिस जयपुर आया। उसके दो कारण थे--प्रथम, जयपुर संघ का अत्याग्रह और द्वितीय वर्षीतप की साधना और इस तप का पारणा जयपुर में ही करना उचित समझा गया।
वर्षीतप का पारणा अक्षय तृतीया के दिन जयपुर रेलवे स्टेशन के समीप पुंगलियों के मन्दिर (जहाँ ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा विराजमान है और उसी से जुड़ी हुई धर्मशाला है) में बड़ी धूमधाम से अठाई महोत्सवपूर्वक स्वयं श्रीमान् गोकुलचन्दजी पुंगलिया की धर्मपत्नी की ओर से हुए ! इसका कारण पारणा करवाने की उनकी उत्कृष्ट भावना थी, इसीलिए संघ की अनुमति से उन्हें यह लाभ प्रदान किया गया।
धर्माराधना का प्रभाव-वर्षीतप तथा त्याग-संयम-तप की रुचि से चरितनायिकाजी के वैराग्य संस्कार दिनोंदिन दृढ़ होते जा रहे थे। इन सबका प्रभाव आपके परिवारीजनों पर भी पड़ना शुरू हो गया। आपकी संगति का असर होने लगा। सत्संगति तो पापी को भी धर्मात्मा बना देती है, धर्मविरोधी को धर्माराधक बना देती है। खण्ड ११३
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी श्री कल्याणमल जी सा. की जीवन रूपी ऊसर मनोभूमि भी धर्म की दृष्टि से उर्वर
होने लगी।
उपधान तप–वि. सं. १९९८ में चारित्रनिष्ठ पूज्य गुरुदेव मणिसागरजी म. सा. एवं बालमुनि श्री विनयसागरजी म. सा. जयपुर संघ की आग्रह भरी विनती को स्वीकार कर चातुर्मास हेतु जयपुर पधारे। धूमधाम से नगर-प्रवेश कराया गया ।
आपश्री के अमृतोपम जोशीले प्रथम प्रवचन ने धर्मध्यान की सुरसरि ही प्रवाहित कर दी, जनता बहुत प्रभावित हुई। यहाँ तक कि कभी प्रवचनों में न आने वाले सेठ सा. श्री कल्याणमलजी भी प्रतिदिन प्रवचनों में आने लगे। इतना आकर्षण था म. सा. श्री के प्रवचनों में ।
चातुर्मास के प्रारम्भ में ही धर्मनिष्ठ श्रावकों ने महाराज साहब से उपधान तप करवाने की प्रार्थना की । महाराज साहब ने स्वीकृति के देने के साथ ही श्रावकों से पूछ लिया-इस तप की आराधना के लिए आप लोगों ने कहाँ और कैसा स्थान चुना है ?
श्रावकगण अभी स्थान के बारे में सोच ही रहे थे कि सेठ कल्याणमल जी सा. ने तुरन्त खड़े होकर विनम्रस्वर में कहा-भगवन ! उपधान तप का कार्यक्रम विधि-विधान आदि कटले में (जहाँ उनकी बहुत लम्बी-चौड़ी जगह थी और वहीं वे निवास भी करते थे-वर्तमान में इस जगह पर अग्रवाल कॉलेज है) हो तो बहुत सुन्दर रहे । मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली समझूगा।
सेठ कल्याणमलजी के इन शब्दों को सुनकर सभी उपस्थित जन चकित रह गये-जो व्यक्ति कुछ दिन पहले तक धर्म के नाम से ही दूर भागता था, वह ऐसी प्रार्थना कर रहा है। खैर, संघ ने सहमति दी और महाराज साहब ने अनुमति दे दी। सेठ कल्याणमलजी हर्षित हो गये और उपधान के लिये तैयार भी।
. घर पहुँचे और परिवारीजनों को यह सब बताया तो पहले तो किसी को विश्वास ही नहीं हआ और जब विश्वास हुआ तो सभी हर्षित हुए। सज्जनकुमारीजी के तो हर्ष का ठिकाना ही न रहा, अपने पति की इस बदली हुई प्रवृत्ति को देखकर।
मनुष्य की प्रवृत्ति को बदलते देर नहीं लगती, चाहिए सिर्फ प्रेरक निमित्त । सेठ सुदर्शन का निमित्त पाकर हत्यारा अर्जुनमाली बदल गया और भगवान महावीर की संगति से मुक्त भी
हो गया।
वास्तविक स्थिति यह है कि मनुष्य में विल पावर (इच्छा शक्ति) प्रबल होनी चाहिए। यह शक्ति होती तो सबमें है, पर सुप्त, अर्धसुप्त दशा में पड़ी रहती है। जैसे ही कोई प्रबल निमित्त मिला कि यह शक्ति जागृत हो जाती है। पू. मणिसागरजी म. सा. के रूप में ऐसा ही प्रबल निमित्त सेठ कल्याणमलजी को मिला और उनकी प्रवृत्ति भी धर्माभिमुखी हो गई। - आसोज शुक्ला १० के मंगलमय शुभ दिवस में पू. गुरुदेव मणिसागरजी म. सा., बालमुनिश्री विनयसागरजी म. सा. तथा तत्रस्थ विराजित जाप परायण प्र. महोदया श्री ज्ञानश्री जी म. सा., मधुर गायिका पू. श्री उपयोगश्रीजी म. सा., जैन कोकिला पू. श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. आदि की पाबन निश्रा में उपधान तप शुरू हो गया। सेठ कल्याणमलजी ने भी अपनी धर्मपत्नी श्री सज्जनकुमारीजी के साथ उपधान तप शुरू कर दिया।
उपधान तप एक कठिन तपस्या है। इसमें ५१ दिन तक एक दिन उपवास और दूसरे दिन एकासना किया जाता है।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
यद्यपि तप करने और कराने वाले सभी प्रसन्न थे, किन्तु चकित भी थे । चकित होने का कारण थे-सेठ कल्याणमलजी। वे लोग सोचते-जो व्यक्ति कभी नवकारसी भी नहीं करता, रात्रि भोजन का भी जिसे त्याग नहीं; ऐसा व्यक्ति कैसे इस कठिन तपस्या को पार लगायेगा? लेकिन कल्याणमलजी ने सफलतापूर्वक उपधान तप की साधना तो की ही, साथ ही एक दिन का भोजन भी आपकी ओर से हुआ।
इसीलिए कहा गया है कि सन्तसंगति काँच को भी हीरा बना देती है। मानव को सदा ही ज्ञानियों की, चारित्रात्माओं की संगति करनी चाहिए।
उपधान तप की पूर्णाहति के दिन निकट आने लगे । अठाई महोत्सव, महापूजनादि शुरू हए । स्थानीय भजन-मण्डलियों ने प्रभु-पूजा-भक्तिपूर्ण सहयोग दिया। अन्तिम दिन कटले के विशाल प्रांगण में पू. गुरुदेवश्री और पू. साध्वीजी म. की निश्रा में खूब धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ उपधानतप सानन्द सम्पन्न हुआ।
आज्ञा-प्राप्ति और भागवती दीक्षा यद्यपि कल्याणमलजी ने उपधान तप की साधना सफलतापूर्वक कर ली थी; फिर भी वे अभी तक अपनी पत्नी सज्जनकुमारी जी को दीक्षा की अनुमति देने का मन नहीं बना पाये थे। जब भी सज्जनकुमारी अपनी वैराग्य भावना को व्यक्त करतीं तो पारिवारिक वातावरण विषम बन जाता।
सज्जनश्री मन ही मन सोचकर रह जातों अभी काल-लब्धि नहीं आई है, समय परिपक्व नहीं हुआ है, चारित्रमोह का उदय है, इसीलिए दीक्षा में अन्तराय है। फिर भी धैर्य उन्होंने नहीं छोड़ा, यही सोचा धीरे-धीरे वातावरण अनुकूल हो जायेगा। यही सोचकर मन को समझा लेती
धीरे-धीरे रे मना ! धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥ समय गुजरता रहा, और साथ ही फल आने के आसार दिखाई देने लगे, सम्भावनाएँ नजर आने लगीं।
वि. सं. १९६८ के माघ मास में परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री आनन्दसागरसूरिजी म. सा. पूज्या प्रवर्तिनी शान्तरसनिमग्ना श्री ज्ञानश्री जी म. सा. को दर्शन देने जयपुर पधारे। कारण यह था कि श्री ज्ञानश्रीजी म. जयपुर में ठाणापति के रूप में विराजित थीं। परम श्रद्धय सूरिजी म. सा. ने श्री सज्जनकुमारीजी की दृढ़ वैराग्य भावना को जाना तो बहुत प्रसन्न हुए। वे भी सज्जनकुमारीजी की शांत, निश्छल, सौम्य स्वभाव, विद्वत्ता, कवित्वशक्ति आदि से पूर्व ही परिचित थे, अतः उन्होंने भी सेठ कल्याणमलजी को दीक्षा की अनुमति देने के लिए प्रेरणा दी ।
___ जापपरायणा श्री ज्ञानश्री जी म. सा., परमोपकारिणी मंडलप्रमुखा उपयोगश्रीजी म. सा. आदि की सप्रेरणाओं और सत्प्रयत्नों तथा सेठ केसरीसिंहजी बाफना तथा सेठानीजी श्री गुलाबसुन्दरीजी के (भुआ सा.) के परिश्रम से सेठ कल्याणमलजी के मानस में परिवर्तन हुआ। उनके मन में विचार घुमड़ने लगे-मैंने हर सम्भव प्रयत्न करके देख लिया; लेकिन पत्नी की वैराग्यभावना दृढ़ है, उसकी सांसारिकता में बिल्कुल भी रुचि नहीं। कब तक उसे इस तरह रखा जा सकता है ? व्यर्थ है रोकना । मैं भी क्यों अन्तराय बाँधू । अब तक व्यर्थ ही रोकता रहा। ऐसा विचार करके उन्होंने दीक्षा की अनुमति दे दी, कहा
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी "मेरी ओर से आज्ञा है। ये (पत्नी सज्जनकुमारीजी) अपनी वैराग्य भावना पूर्ण करें, दीक्षा लें और साध्वी बनकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र में निरन्तर प्रगति करें।"
दीक्षा की अनुमति से सज्जनकुमारी को अत्यधिक हर्ष हुआ, आत्मिक सुखानुभूति हुई। उनकी भावना पूर्ण होने जा रही थी।
मुहूर्त निकलवाया गया दीक्षा का। पंडित ने पंचांग देखकर आषाढ़ शुक्ला २ का दिन शुभ बताया । दीक्षा-तिथि का निर्णय हो गया ।।
तिथि का निर्णय होते ही पूज्यवर्या श्री उपयोगश्रीजी म० सा० ने वैराग्यवती सज्जनकुमारी को साध प्रतिक्रमण प्रारम्भ करवा दिया, जिसे अपनी कुशाग्रबुद्धि से चरितनायिका ने ५-६ दिन में ही पूर्ण कर लिया और ३६० गाथाओं का पाक्षिक सूत्र केवल २ ही दिन में पूर्ण कर लिया।
__ अब आपके पितगृह तथा ससुराल में दीक्षा की तैयारियां होने लगीं । आपके साथ ही वैरागिन चौथीबाई कोचर की भी दीक्षा थी।
आखिर दीक्षा दिवस आ ही पहुँचा । सज्जनकुमारी के लिए आज सोने का सूरज उगा था। उनके हृदय में ऐसी खुशी थी जैसे अमूल्य मणि मिल गई है। उनकी रोम राजि विकसित थी । रग-रग से बैराग्य का दिव्य रस छलक रहा था।
प्रातःकालीन नित्य नैमित्तिक क्रियाएँ, यथा-सामायिक, प्रतिक्रमण, माला, पाठ-सप्तस्मरण, भक्तामर आदि करके तथा सांसारिक रीति-रिवाजों से निवृत हो, स्नान आदि से स्वच्छ बन, अपने निवास स्थान पर ही दीक्षोपलक्ष्य में स्वयं अपने द्वारा बनवाये हुए लघु देरासरवत् नूतन जिनमन्दिर में पूजा हेत पधारी । आज द्रव्य-पूजा का आखिरी दिन था । अतः बहुत ही भक्तिभाव और उल्लास के साथ स्नात्र पूजा सहित अष्ट प्रकारी पूजा की। उसके पश्चात् चैत्यवन्दनादि भाव-पूजा से भी निवृत्त हुई।
वरघोड़े की तैयारियाँ हो रही थीं। हाथी, घोड़े, बैंडबाजों व गीतों की मधुर ध्वनियों व मंडल आदि से वरघोड़े की शोभा में चार चाँद लग रहे थे । धर्मशाला से वरघोड़ा प्रारम्भ हुआ।
वैरागिन सज्जनकुमारी तथा चौथीबाई शिविकाओं में विराजमान थीं। दोनों ओर चमर ढलाए जा रहे थे । उदार हृदय से वर्षीदान देती हुई आगे बढ़ती जा रही थीं । हजारों लोग आकर्षित और चकित थे । जैनेतर लोग तो बहुत ही आश्चर्य कर रहे थे। सभी ओर से अहोधन्यं, अहोधन्यं की गूंज हर्षित हृदय से निकल रही थी। लोग मुक्तकण्ठ से जैनशासन की अनुमोदना करके पूण्य लाभ ले रहे थे।
जुलूस जौहरी बाजार से होकर नथमलजी (नथमलजी सज्जनकुमारी के दादा ससूर साहब का नाम था) के कटले में पहुँचा । हजारों लोग इकट्ठे हो गये; क्योंकि लोगों के लिए दीक्षा का प्रसंग नया ही था । सभी लोग देखने के लिए लालायित थे। कटले का विशाल प्रांगण जनमेदिनी से खचाखच भर गया । जयपुर के आस-पास के लोग भी आये थे। शामियाना खचाखच भर जाने से लोग वक्षों पर बैठे थे, इस आशा के कि सम्पूर्ण दृश्य दिखाई दे ।
पूर्व दिशा में लगभग दो फुट ऊँचा, लम्बा-चौड़ा, स्टेज बना हुआ था। उसके ठीक बीचोंबीच भगवान का ममोसरण था । ठीक उसके सामने पूज्य गुरुदेव मणिसागरजी म. सा० एक ऊँचे पट्ट पर विराजित थे। उसी ओर एक पड़े पट्टे पर प्र० श्री ज्ञानश्रीजी म. सा., श्री उपयोगश्रीजी म. सा. आदि अपने साध्वीमंडल के साथ विराज रही थीं । पूज्य गुरुदेव ने भ० महावीर की जयकार से जन कोलाहल
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
को शांत करके क्रिया प्रारम्भ करवाई तथा सेठ सा० कल्याणमलजी एवं सर्व संघ की सहमति से वैरागिन सज्जनकुमारी को उपस्थित जनसमह के समक्ष चारित्रोपकरण शिरोमणि, चारित्रालंकार रजोहरण प्रदान किया। दीक्षोपकरणों के साथ आप साध्वी वेश धारण करने के लिए जली मई।
अब गुरुदेवश्री ने अपनी मधुर वाणी में त्याग-तप-संयम-दीक्षा के महत्व पर ओजस्वी प्रवचन दिया, जिसका संक्षिप्त हार्द इस प्रकार हैबन्धुओ!
जैन धर्म-संस्कृति में श्रमण-जीवन आदर्श माना गया है । यद्यपि श्रावक और श्रमण दोनों के ही जीवन का लक्ष्य त्याग है तथापि श्रेष्ठता और ज्येष्ठता में श्रमण अग्रणी है । श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है, उसका कारण यह है कि श्रावक श्रमणों के त्याग-तपस्यामय जीवन का अनुकरण करने वाला होता है, उसका आदर्श भी श्रमण-जीवन होता है।
श्रमणपरम्परा में स्वाध्याय, ध्यान, त्याग व तप ये चार चरण हैं। इन चारों का संगम ही श्रमण होता है।
श्रमण दीक्षा ग्रहण करना कोई सरल कार्य नहीं है । श्रमणव्रतों का पालन खांडे की धार पर चलना है। जिसका चित्त समाहित है, परित्यक्त भोगों को पुनः भोगने की जिसमें इच्छा भी नहीं, जो षटकाय (प्राणीमात्र) का प्रतिपालक है और पंचास्रवों से पूर्णतया विरक्त है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र में जिसकी दृढ़रुचि, प्रतीति है, वही श्रमणदीक्षा ग्रहण करता है और साधुत्व का पालन कर सकता है ।
इस प्रकार लम्बी देशना चलती रही। इसी प्रकार पू० साध्वीजी म० सा० ने भी अपने उद्गार व्यक्त किये।
सज्जनकुमारीजी श्वेत वस्त्रों में ओघा डांडा पात्रों से सुसज्जित मंडप में पधारी । उस समय वे सरस्वती के समान प्रतिभासित हो रही थीं। सभी की दृष्टि उनकी ओर उठ गई।
शेष क्रिया प्रारंभ हुई । पूज्य गुरुदेव ने सज्जनकुमारीजी को प्रवर्तिनीवर्या श्रद्धया श्री ज्ञानश्री जी की शिष्या घोषित किया और नाम दिया--सज्जनश्रीजी।
दीक्षोपरान्त आपने थोड़े ही शब्दों में अपने दीक्षित होने की खुशी प्रगट की। इसके बाद दीक्षा कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ।
इसके साथ ही चौथीबाई कोचर की भी दीक्षा संपन्न हुई । उनका नाम विबधश्री रखा गया और आपको बसंतश्रीजी म. सा० की शिष्या घोषित किया गया।
सभी ने नूतन साध्वीजी को वन्दना की तथा पूज्य गुरुदेवश्री से मांगलिक और मोदक की प्रभावना लेकर अपने-अपने स्थान को प्रस्थान किया।
श्रावक-श्राविकाओं तथा साध्वीजी म. के साथ नूतन साध्वी सज्जनश्रीजी दादावाडी पधारी । उस दिन आपके चौविहार उपवास था। आप जैसी विदुषी साध्वी को पाकर गुरुवर्याजी को तो हर्ष था ही, समस्त साध्वीमंडल भी हर्षित था।
१. इस नाम का कारण यह था कि आपश्री द्वारा रचित २५०-३०० स्तवन सज्झाय आदि 'सज्जन' नाम से प्रसिद्ध
थे । और इन स्तवनों की रचना आपश्री ने १५-१६ वर्ष की आयु से शुरू कर दी थी। साथ ही नामानुरूप आपका जीवन भी था।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
सं. १६६६ का प्रथम वर्षावास-जयपुर यद्यपि शास्त्रीय विधान के अनुसार दीक्षा के बाद ही विहार कर देना चाहिए। किन्तु आप विहार न कर सकीं । उसका कारण यह था कि आषाढ़ शुक्ला २ सं० १९६६ को आपकी दीक्षा हुई और वर्षावास से पहले ही बरसात प्रारम्भ हो गई।
इसी कारण आपका प्रथम सं० १९६६ का प्रथम वर्षावास जयपुर में ही गुरुवर्या पू. प्र. श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. की छत्रछाया में हुआ।
इसी वर्षावास में आपका शास्त्रीय अध्ययन प्रारम्भ हुआ। साधु-प्रतिक्रमण आदि तो आप पहले ही सीख चुकी थीं। इस वर्षावास में शेष साधुक्रियाएँ सीखीं और दशवकालिक सूत्र का अध्ययन किया। पं. मांगीलालजी से अवशिष्ट कौमुदी, अमरकोश तथा रघुवंश आदि भी संपूर्ण कर लिए।
दीक्षा ग्रहण करने के दिन उपरान्त ही आषाढ़ शुक्ला ११ को बड़े दादा जिनदत्तसूरिजी म. के जयन्ती समारोह के शुभ अवसर पर आपने सार्वजनिक प्रवचन दिया। यद्यपि सार्वजनिक प्रवचन का आपका पहला ही मौका था; लेकिन प्रवचन इतना प्रभावशाली रहा कि श्रोतागण झूम उठे। साध्वीवृन्द भी चकित रह गये।
पू. प्रतिनी श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. का जयपुर में ठाणापति वास-पू. प्र. जी म. सा. की शारीरिक अस्वस्थता पिछले दो-तीन वर्ष से ही चल रही थी, इसी कारण वे जयपुर ही विराज रही थीं।
अस्वस्थता इतनी अधिक थी कि वे एक-दो मंजिल ही जातीं तो ३-४ डिग्री ज्वर हो जाता और उन्हें वापिस लौटना पड़ता। साधु-साध्वी के लिए भगवान की आज्ञा है-'विहार चरिया मुणीणं पसत्था' -मुनियों (साध्वियों) के लिए सतत् विहार करना ही प्रशस्त है। एक दोहा भी इस विषय में प्रसिद्ध है
बहता पानी निर्मला, बँधा गँदेला होय ।
साधु तो रमता भला, दोष न लागे कोय ।। इसी भावना से पू. प्र. जी म. सा. शरीरबल क्षीण होते हुए भी आत्म-बल के सहारे से विहार करतीं; लेकिन १-२ मंजिल चलते ही शरीर जवाब दे जाता और वापिस लौटना पड़ता।
इस बार भी उन्होंने विहार का प्रयास किया; किन्तु वही स्थिति सामने आ गई । बुखार चारपाँच डिग्री हो गया। चलने की आगे बढ़ने की सामर्थ्य न रही।
यद्यपि जयपुरसंघ आपश्री से पहले ही कई बार ठाणापति विराजने की प्रार्थना करता रहा लेकिन इस बार तो श्रावकसंघ का आग्रह बहुत बढ़ गया। प्रमुख श्रावक-श्राविकाओं ने यहाँ तक कह दिया कि आपश्रीजी जब तक ठाणापति विराजने की स्वीकृति नहीं देंगी; तब तक हम लोग मुंह में पानी भी नहीं लेंगे। आखिर अपनी शारीरिक अस्वस्थता और श्रावक-संघ की आग्रहभरी विनय को सम्मान देकर उन्हें ठाणापति विराजने की स्वीकृति देनी ही पड़ी।
इस प्रकार पू. प्र. जी म. सा. के लगभग ३० वर्षावास जयपुर में ही ठाणापति के रूप में हुए।
ठाणापति रहने पर भी उनका किसी के प्रति कोई लगाव नहीं था, यहाँ तक कि अपनी शिष्याओं के प्रति भी नहीं। उनकी इतनी इच्छा अवश्य थी कि जहाँ भी मैं रहूँ वहाँ व्यवस्थित रूप से व्याख्यान चौपी आदि होते रहने चाहिए। इस दृष्टि से योग्य साध्वीजी को अपने पास अवश्य रखती थीं।
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प्रवर्तिनी गुरुवर्या ज्ञानश्रीजी महाराज
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
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पू. प्र. श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. की चारित्र के प्रति अनुपम निष्ठा थी। नित्य-प्रति आप प्रातः दो-ढाई बजे उठकर माला-ध्यान-जप-स्वाध्याय आदि धर्मप्रवृत्तियों में लग जातीं। नवकार-मंत्र अथवा अजापजप तो सतत चलता ही रहता था । आपकी अप्रमत्त दशा अनुकरणीय थी।
आपकी सरलता, सौम्यता तो देखते ही बनती थी । प्रवर्तिनी पद (सर्वोच्च पद) पाकर भी कभी आदेश की भाषा का प्रयोग नहीं करती थीं । आपको वचनसिद्धि भी प्राप्त थी। जो उनके मुख से निकल जाता, अवश्य पूरा होता।
आपकी निर्दोष जीवनचर्या को देखकर चौथे आरे की साध्वियों का स्मरण हो आता था। ऐसी महान् गुरुवर्या की निश्रा में चरितनायिका सज्जनश्रीजी का प्रथम वर्षावास हुआ।
वर्षावास पूर्ण होते ही पूज्या प्रवर्तिनी ने आपश्री (सज्जनश्रीजी) की बड़ी दीक्षा कराने हेतु आपको आपकी परमोपकारिणीश्री उपयोगश्रीजी म. सा०, श्री बसन्तश्रीजी म. सा०, तथा सज्जनश्रीजी म० के साथ ही दीक्षिता श्रीविबुधश्रीजी म० आदि ७ साध्वीजी को लोहावट फलोदी की ओर प्रस्थान करवाया।
सभी साध्वीजी म० की हार्दिक इच्छा प्रत्यक्ष प्रभावी दादा श्री जिनकुशल गुरुदेव के दर्शनार्थ मालपुरा जाने की थी। अतः मालपुरा की ओर विहार किया। सातवें दिन पूज्य गुरुदेव के चरणों में पहुँचे, दर्शन किये, चित्त को प्रसन्नता के साथ हार्दिक शांति की अनुभूति हई।
दादाबाड़ी से कुछ ही दूरी पर मालपुरा गाँव था, वहाँ के श्रावक भी दर्शन-वन्दन हेतु आ जाते, रात्रि में कथा-कहानी तथा प्रातः प्रवचन होते । इस प्रकार धर्म-जागरणा करते हुए वहाँ एक मास तक रहे । वहाँ से आप सबने टोड़ा केकड़ी की ओर प्रस्थान किया।
___ मार्ग के कई ग्रामों को आपथी ने फरसा। आपकी मधुरवाणी से जनता प्रभावित होती, व्याख्यान-सज्झाय आदि के सुन्दर माहौल से जनता की धर्म को ओर रुचि होती। कई लोगों ने तो चलतेफिरते (त्रस जीव) जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा और मद्य-मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया, कई बहनों ने जूए मारने तथा गाली-गलौच-अपशब्दों को बोलने का त्याग कर दिया। पौष मास तो टोड़ा केकड़ी में ही पूर्ण हो गया।
माघ मास में सरवाड़ सराणा, ठाँठोरी, मसूदा आदि छोटे-छोटे ग्रामों में विचरण किया।
यद्यपि इन क्षेत्रों में जैनों की संख्या काफी थी पर बहुत दिनों से साधु-साध्वियों का विचरण न होने से इनके धार्मिक संस्कार लुप्त से हो गये थे । कुछ क्षेत्रों में साधुमार्गी आम्नाय का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर हुआ।
परिणाम यह हुआ कि मंदिर के प्रति लोगों को अश्रद्धा हो गई । दर्शन, पूजन की बात तो बहुत दूर, लोगों ने मन्दिर जाना ही छोड़ दिया । मन्दिरों के कपाट ही बन्द हो गये। इतना अवश्य था कि कोई मन्दिरमार्गी साधु-साध्वी आ जाते तो किवाड़ खोलकर उन्हें दर्शन करा देते थे; लेकिन वे यदाकदा ही आते अतः मन्दिरों के किवाड़ अधिकांशतः बन्द ही रहते । स्थिति यहाँ तक आ गई थी कि मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गये, धुल जम गई, अन्दर मकड़ियों ने जाले बुन दिये, चमगादडों ने निवास बना लिये, बिच्छू आदि उत्पन्न हो गये, सूक्ष्म जीवों की भरमार हो गई।
सज्जनश्री आदि साध्वी मंडल का जब इन क्षेत्रों में विचरण हुआ तो लोग काना-फूसी आपस में करने लगे-बिना मुहपत्ति वाले साधु-साध्वीजी महाराज भी होते हैं क्या ? वन्दन करने का तो प्रश्न ही नहीं, कई लोग तो खिल्लियाँ भी उड़ाते ।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी ऐसी विषम परिस्थितियों में साध्वियों ने उन ग्रामों में विचरण किया। प्यार से समझाया, ओजस्वी प्रवचन दिये, रुचिकर कहानियाँ और मधुर कण्ठ से राग-रागिनियाँ, स्तवन, सज्झाय, चौपी आदि सुनाये । इन प्रयासों से वहाँ की जनता का भ्रम दूर किया । वे लोग यथार्थता से परिचित
मन्दिरों के दरवाजे खुले तो वहाँ की दशा देखकर हृदय दुःख से भर गया । सफाई आदि के बाद लोग मंदिर आने लगे, मन्दिरों की रौनक पुनः लौटी । प्रतिदिन प्रातःकाल भक्तामर, मांगलिक आदि का कार्यक्रम चलने लगा । लोग दर्शन विधि भी भूल गये थे। इन्हें विधिपूर्वक दर्शन की विधि सिखाई और कइयों को तो कण्ठस्थ भी कराई । इनकी रुचि बढ़ी तो बहुत लोग पूजन-सेवा भी करने लगे। बहुत लोगों ने पुनः मन्दिरमार्गी आम्नाय को स्वीकार कर लिया और दादा गुरुदेव जिन कुशल सूरि के स्वर्ण जयन्ति वार्षिक महोत्सव पर मालपुरा भी जाने लगे ।
जनता यहाँ तक प्रभावित हुई कि चातुर्मास के लिए विनती करने लगी किन्तु आपश्री को बड़ी दीक्षा के लिए लोहावट फलोदी पहुँचना था, इसलिए धर्म-जागरणा और धर्म की जाहो जलाली करते हुए आगे बढ़ते गये।
__मार्गस्थ ग्रामों में शासन प्रभावना करते हुए ब्यावर, जैतारण विलाड़ा, आदि में सात-सात, आठ-आठ दिन रुककर कापरड़ा तीर्थ पहुँचे। वहाँ की यात्रा करके फाल्गुन सुदी ११ को जोधपुर (सूर्यनगरी) पहुँचे।
जोधपुर में साध्वी सज्जनश्रीजी की नानीसुसराल है। मूथाजी, जो इनके नानी ससुर थे, नगर के बाहर इनके द्वारा बनवाया हुआ एक मंदिर है जो मूथाजी के मन्दिर नाम से प्रसिद्ध है, साध्वीमंडल उस मंदिर में ही कुछ दिन के लिए ठहरा, प्रवचन आदि का खूब प्रभाव रहा। मूथा परिवार ने भरपूर लाभ लिया।
वहाँ से आप सभी शहर में केशरियानाथजी की धर्मशाला में विराजित पूज्यवर्या श्री लालश्री जी म० सा०, श्री धर्मश्री जी म० सा०, आदि जो वहाँ ठाणापति के रूप में विराज रही थीं और श्री फूलश्री जी म० सा० के दर्शन हेतु पधारी । मधुर मिलन हुआ। उन्होंने आप लोगों का हर्षपूर्वक स्वागत किया । यद्यपि वहाँ आपका ३-४ दिन रुकने का विचार था किन्तु पूज्या साध्वियों के आग्रह, श्रावकों की भावभरी विनती ने नवपद ओली तक रुकने को विवश कर दिया।
आपकी प्रेरणा से कई श्रावकों ने नव पद ओली तप की आराधना शुरू की। प्रातः श्रीपाल चरित्र श्री सज्जनश्रीजी सुनाती और मध्यान्ह में ओली को क्रिया आप तथा पूज्या उपयोगश्रीजी विभिन्न राग-रागनियों से करवाती । वातावरण बहुत ही आनन्दमय बन जाता, सभी अध्यात्मरस में डूब जाते।
धर्म का रंग ऐसा जमा कि जोधपुर के श्रावक-श्राविकाओं ने चातुर्मास के लिए पुरजोर विनती की; किन्तु आपश्री पहले ही फलोदी चातुर्मास की स्वीकृति दे चुके थे अतः जोधपुर का चातुर्मास स्वीकृत न हो सका।
लगभग सवा महीना जोधपुर रुककर तिंवरी-ओसिया तीर्थ की यात्रा करते हुए आपश्री तपस्वी बापजी की पुण्यभूमि लोहावट पधारे। पू० प्रेमश्रीजी म. सा., पूज्य पवित्रश्रीजी म. सा. आदि वहाँ विराजित थे। मधुर मिलन हुए । कुछ दिन वहाँ रुककर आपश्री ने फलोदी की ओर अपने कदम बढ़ाए । मार्ग में पलाना स्टेशन, जो फलोदो से मात्र २ मंजिल ही दूर था, वहाँ धर्मशाला में ठहरी ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
फलोदी संघ को ज्यों ही मालूम हुआ कि आप लोग पलाना पधार गयी हैं तो श्री गुलाबराय
० बरड़िया ( ० श्री उपयोग श्रीजी के सांसारिक जीवन में (पति) जीवन-साथी थे) ने वहाँ स्वामि-वात्सल्य रखा; फलोदी से आपश्री के दर्शनार्थ उमड़ आई जनता का हार्दिक स्वागत-सत्कार किया, भोजन आदि से तृप्त किया । पलाना स्टेशन पर लगभग ५०० व्यक्तियों का स्वामी - वात्सल्य था । सं० २००० का फलोदी चातुर्मास
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सद्ज्ञान गोष्ठी करते हुए साध्वी मंडल फलोदी की सीमा में पधारे। जय-जयनादों से हर्षोंल्लासपूर्वस आपश्री का नगर प्रवेश कराया गया । बैण्ड बाजों की मधुर ध्वनियों के साथ आप सब लोग धर्मशाला में पहुँचीं । वहाँ मांगलिक प्रवचन हुआ, जो बहुत प्रभावशाली रहा। संघ के आग्रह पर प्रतिदिन व्याख्यान देना स्वीकार किया ।
वहाँ से आप सभी शीतलपुरा के उपाश्रय में पधारीं । वहाँ विराजित पू० श्री ताराश्री जी म० सा०, हितश्री जी म० सा० आदि के दर्शन तथा विधिपूर्वक वन्दन करके आशीर्वाद प्राप्त किया ।
उन दिनों फलोदी एक प्रकार से धर्मक्षेत्र बना हुआ था । वहाँ लगभग १२०० परिवार थे और सभी धार्मिक थे । अत्यन्त सुन्दर विशाल जिनमन्दिर, ४ विशाल दादावाड़ियाँ - जिनमें भक्तजनों की भीड़ रहती, उपाश्रय भी अनेक थे जिनमें साधु-साध्वी विराजते और श्रावक-श्राविकाओं की धर्मक्रियाओं से गू ँजते रहते । यहाँ अनेक भव्यात्माओं ने चारित्रधर्म स्वीकार किया और आत्म-कल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण करके जिनशासन को दिपाया है ।
उन्हीं में मण्डलाधिनायिका परम श्रद्धया पुण्यशालिनी पुण्यश्रीजी म. सा., जापपरायणा, ज्ञानध्याननिमग्ना पूज्या श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. ( चरितनायिका सज्जन श्री जी की गुरुवर्या) पू. श्री उपयोगीजी म. सा. भी हैं ।
पूज्यवर्याओं की तपःपूत पावन जन्मभूमि फलोदी ( फलवद्धि) नगरी में आकर हमारी चरित नायिका ने भी स्वयं को धन्य माना ।
बड़ी धर्मशाला में प्रातः साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे तक चरितनायिका जी प्रवचन फरमाती और मध्यान्ह में पू. उपयोगश्री जी म. सा. महाबल - मलया की चौपी मधुर स्वर में सुनातीं । प्रवचन और चौपी सुनकर श्रोतागण बहुत प्रभावित होते । प्रवचन प्रभा की रश्मियाँ विकीर्ण होने लगीं । जो एक बार सुन लेता, बार-बार आता, भीड़ बढ़ने लगी, बड़ी धर्मशाला का विशाल हॉल भी श्रोताओं से
खचाखच भर जाता ।
आपकी प्रवचन कला की विशेषता थी कि आपश्री शास्त्रीय तत्व-अपने वर्ण्य विषय को उदाहरणों से -पटकथाओं से पुष्ट करतीं, भाषा प्रांजल और प्रवाहमय थी, वाणी में ओज-तेज -संप्रेषणीयता तथा भावों को वहन करने की क्षमता थी । इसी कारण लोग आपका व्याख्यान सुनने उमड़े चले आते थे ।
फलौदी में उस समय कई तत्व रसिक, आगमज्ञ श्रावक भी थे, उनमें फूलचन्दजी झावक, मेघराजजी मुणोत, रेखचन्दजी लूँ कड़, कँवरलालजी गोलेच्छा आदि मुख्य थे । ये लोग प्रवचन तो सुनते ही थे, अतिरिक्त समय में तत्व चर्चा भी करते और अपने प्रश्नों का शास्त्रीय समाधान पाकर और भी प्रभावित होते तथा आपश्री के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करते ।
अनेक कन्याएँ आपश्री के पास प्रतिक्रमण सीखने आतीं और रात्रि शयन भी वहीं करतीं ।
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जीबन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
इन सब धार्मिक प्रवृत्तियों और वातावरण का ऐसा प्रभाव हुआ कि दो बहनों में वैराग्य का अंकुर उदित हुआ।
उनमें से एक थी सुखलालजी गोलेच्छा की सुपुत्री एवं श्री "ललवानी की पुत्रवधू इन्द्रादेवी । थे सद्यः परिणीता थीं और १५ वर्ष की आयु में सांसारिक भोगों को त्यागकर संयमी जीवन ग्रहण करने के लिए उद्यत हो गई थीं।
दूसरी थीं-श्रीमान सोहनराजजी सा. झावक की सुपुत्री पुष्पाकुमारी । ये समुदायाध्यक्ष पू. श्री चम्पाश्रीजी की शिष्या घोषित हुई और इनका दीक्षोपरान्त नाम दिया गया-जितेन्द्रश्रीजी । विनय-वैयावृत्य करते हुए आप अपना जीवन सफल बना रही हैं।
___ इसी चातुर्मास में अभिवृद्धिरूप पंचरंगी तप, सामूहिक आयम्बिल, एकासने, अठाई ११-१५, क्षीरसागर गौतम पात्र आदि अनेक प्रकार की तपस्याओं की झड़ी लग गई।
इस प्रकार फलौदी का चातुर्मास व्याख्यान, तपस्या, प्रत्याख्यानादि की अधिकता से पूर्ण सफल
रहा।
इसी समय (वि. सं. २००० में) आचार्य सम्राट श्रीमज्जिनहरिसागर सूरीश्वर जी म. सा. का चातुर्मास प्रसिद्ध तीर्थ जसलमेर में था। चातुर्मास पूर्णकर आपश्री फलौदी पधारे । श्रीसंघ ने बहुत ही उत्साहपूर्वक पूज्येश्वर का नगर-प्रवेश कराया। यद्यपि गुरुदेव का लक्ष्य ज्ञान भण्डार को सुव्यवस्थित कराने के लिए लोहावट पधारना था किन्तु भक्तों के अत्याग्रह के कारण कुछ दिन फलौदी ठहरे। व्याख्यान का क्रम चालू किया। प्रवचन का लाभ सज्जनश्रीजी आदि साध्वी मंडल ने भी लिया।
___ संघ पू. गुरुदेव से होली चातुर्मास वहीं फलौदी में करने की भावभरी विनय की किन्तु पू. गुरुदेव को लोहावट जाना था और चरितनायिका जी की बड़ी दीक्षा भी करवानी थी। अतः बडी दीक्षा के लिए फाल्गुन शुक्ला ५ का दिन निर्णीत कर लोहावट पधार गये।
पू. उपयोगश्रीजी म. सा. को चरितनायिका जी की बड़ी दीक्षा करवाने हेतु लोहावट जाना था। किन्तु अभी २ महीने बाकी थे, फिर चरितनायिका जी पं. श्री ब्रह्म दत्त से तिलकमंजरी महाकाव्य का अध्ययन कर रही थीं और जनता का भी अत्यधिक आग्रह था, इन्हीं सब कारणों से साध्वी मंडल फलौदी में ही विराजता रहा ।
इसी बीच एक वयःस्थविरा साध्वीजी असाध्य रुग्ण हो गई। और हमारी चरितनायिका सज्जनश्रीजी में सेवा-वैयावृत्य की भावना अत्यधिक है, ग्लान-रुग्ण की सेवा वे अपना पुनीत कर्तव्य मानती हैं । अतः वयःस्थविरा रुग्ण साध्वी जी की सेवा में तन-मन से लग गईं।
फाल्गन मास शुरू हो गया था तथा अध्ययन भी सम्पूर्ण हो गया था। अतः तत्र विराजित साध्वियों से आज्ञा लेकर आपश्री ने लोहावट की ओर प्रस्थान किया। आपश्री के साथ ही दीक्षित विबुधश्रीजी की बड़ी दीक्षा होनी थी, साथ ही अन्य सात साध्वियों की भी बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम था । वीरश्रीजी म. सा. व हेमश्रीजी को दशवकालिक के योगोद्वहन करने थे। इस प्रकार १० साध्वीजी म. योंगोद्वहन करने वाले थे।
__शुभ दिन से योगोद्वहन प्रारम्भ हो गये। इस उपलक्ष्य में दो अष्टान्हिका महोत्सव हुए अर्थात् योगोद्वहन के साथ ही पूजाओं का क्रम भी प्रारम्भ हो गया। प्रभु भक्ति का सुन्दर रसप्रद वातावरण बन गया। सज्जनश्रीजी व उपयोगश्रीजी म. सा. को पूजाओं का बहुत शौक था। जब आपथी वीणा-जैसे मधुर स्वर में पूजा गातों तो जनसमूह भक्ति रस में निमग्न होकर झूम उठता ।
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खण्ड १ । जीवन ज्योति
जिस उपलक्ष्य में यह महोत्सव हो रहा था, प्रतीक्षित बड़ी दीक्षा का वह शुभ दिन फाल्गुन शुक्ला ५ आ पहुँचा । सभी योगोद्वाहिका साध्वीजी केशर के छपे हुए कपड़े पहनकर गुरुवर्या और गुरुबहनों के बड़ी दीक्षा के स्थान चम्पावाड़ी में पहुँचे । यह स्थान लोहावट ग्राम के बाहर है तथा यहाँ पूज्य गुरुवरों एवं तपस्वीवर पूज्य छगनसागर म. सा के चरण पादुकाएँ और मूर्तियाँ हैं । इस पावन स्थल में लोगों की भीड़ पहले से ही मौजूद थी। जयपुर, जोधपुर, फलौदी आदि से बड़ी दीक्षा वाले साध्वीजी के परिवारीजन व अन्य श्रावक-श्राविका भी बड़ी संख्या में आये।
लोहावट श्रीसंघ ने मुक्तहस्त ने इस विशाल समारोह में द्रव्य का सदुपयोग कर पुण्यानुबन्धी पुण्य का उपार्जन किया।
इस प्रकार वि० सं० २००० फाल्गुन शुक्ला ५ को परम श्रद्धय शासन सम्राट श्रीमज्जिनहरिसागरसूरीश्वरजी के वरद हस्त से बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।।
बड़ी दीक्षा के उपरान्त साध्वी मंडल ने पू. गुरुवर्या के चरणों में पहुँचने के लिए जयपुर की ओर कदम बढ़ाये। मार्ग में ओसिया तीर्थ के दर्शन किये और सीधे मेड़ता रोड, पुष्कर होते हुए अजमेर पहुँचे । इधर पू. चम्पाश्रीजी म. सा., श्री धर्मश्रीजी म. सा. आदि जयपुर चातुर्मास करके दुइ दाँतरी होते हुए किशनगढ़ पहुंच चुके थे। पू. उत्तमश्रीजी म. सा. का वार्षिक तप चल रहा था। तप का पारणा वहीं हो, किशनगढ़ श्रीसंघ का ऐसा आग्रह था अतः वहीं विराज रही थीं। सज्जनश्रीजी आदि साध्वियाँ भी किशनगढ़ श्री संघ के अत्यधिक आग्रह से पारणा तक वहीं रुकी रहीं। सानन्द पारणा होने के बाद जयपुर की ओर प्रस्थान किया।
दाँतरी ग्राम में सुखलालजी गोलेच्छा की पुत्री इन्द्रकुमारीजी की दीक्षा सं० २००१ की वैशाख शुक्ला ६ को सानन्द सम्पन्न हुई तथा उन्हें राजेन्द्रश्रीजी नाम देकर पू. उपयोगश्रीजी म. सा की शिष्या घोषित किया गया।
___वहाँ से नूतन दीक्षित साध्वीश्री राजेन्द्रश्रीजी म. को साथ लेकर जयपुर पधारीं । वि० सं० २००१ का जयपुर चातुर्मास
चरितनायिकाजी का यह चातुर्मास पूज्या गुरुणीजी की निश्रा में हुआ। इसी चातुर्मास में कोटा के सेठ श्री केसरीसिंहजी ने अगला चातुर्मास कोटा करने की विनती की। सेठ केसरीसिंहजी हमारी चरितनायिकाजी के फूफी श्वसुर हैं और विवाह होने के पश्चात् वहीं आपको संवेगीधर्म की प्राप्ति तथा आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ था। अतः होली चातुर्मास में कोटा चातुर्मास की स्वीकृति दे दी गई। वि० सं० २००२ का कोटा चातुर्मास
पू. प्रवर्तिनीजी म. सा. की आज्ञा से मण्डल संचालिका उपयोगश्रीजी म. सा. सज्जनश्रीजी म. सा. समनश्रीजी म. सा. राजेन्द्र श्रीजी म. सा. आदि ४ मार्ग के अनेक स्थानों को फरसते हुए कोटा पहुँचे तो कोटा श्री संघ एवं सेठ केसरीसिंह जी ने आपश्री का भावभरा स्वागत किया, हर्षोल्लास एवं शाही बैंड बाजों के साथ आपका नगर प्रवेश कराया गया। व्याख्यान एवं तपस्याओं की झड़ी लग गई। अठाई महोत्सव, साधर्मीवात्सल्य आदि भी खूब हुए। सेठ साहव ने बहुत पुण्यलाभ लिया। कुल मिलाकर चातुर्मास सफल रहा।
चातुर्मास समाप्ति के पश्चात नूतन दीक्षिता राजेन्द्रश्रीजी की बड़ी दीक्षा के लिए सैलाना पहुंचना था । अतः कोटा से प्रस्थान करके मानपुर-मन्दसौर-जावरा होते हुए नागेश्वर पहुंचे।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी नागेश्वर में तीर्थमण्डन प्रभु पार्श्वनाथ की मूर्ति थी। उसकी पूजा एक संन्यासी सिन्दूर और तेल के विलेपन से करता था। यह जैन पूजा पद्धति नहीं अपितु तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा की घोर आशातना है। इस आशातना को देखकर गुरुवर्या श्री आदि को घोर दुःख हुआ। दो-तीन दिन वहीं रुके, श्रावकों को बुलाकर जानकारी ली। उन्होंने बताया-यह करतूत एक संन्यासी की है, वही ऐसी पूजा करता है, किसी की भी नहीं सुनता है, मन्दिर की ७०० बीघा जमीन का मालिक भी वही बना हुआ है।
यह सब जानकर चित्त और भी खिन्न हो गया-साध्वीजी का। आस-पास के ग्राम निवासियों को बुलवाकर स्थिति समझाई। आपकी प्रेरणा से उनमें धार्मिक उत्साह जागा और सभी ने शीघ्र ही उद्धार करने का संकल्प किया।
उनके प्रयास सफल हुए। तीर्थ का उद्धार शुरू हो गया। आज तो वहाँ भव्य जिनालय, विशाल दादावाड़ी और सुन्दर सुव्यवस्थित धर्मशाला है । और मुख्य तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है।
यह सब चरितनायिकाजी की सप्रेरणा का फल है।
यहां से मन्दसौर, जावरा होते हुए रतलाम पधारे । सेठ केशरीसिंह जी बाफना द्वारा बनवाई हई कोठी में विराजे । दूसरे दिन पौष बदी १० (भ. पार्श्वनाथ का जन्म दिवस) थी । समीप स्थित बिबडोद तीर्थ के दर्शनार्य पधारे। वहाँ पूजा तथा साधर्मी वात्सल्य भी था। संध्या को साध्वी-समुदाय पुनः रतलाम पधार गया। वहाँ से पूज्येश्वर वीर-पुत्र श्री आनन्दसागरजो म. सा. की निश्रा में बड़ी दीक्षा कराने हेतु सैलाना पधारे।
उस समय सैलाना के राजा 'महाराज दिलीपसिंह शासन की रजत जयन्ती' मना रहे थे । महाराज दिलीपसिंह पूज्य गुरुदेव वीरपुत्र म. सा. के सहपाठी भी रह चुके थे । एक दिन वे गुरुदेव के दर्शनार्थ पधारे। उस समय पू. चरितनायिकादि भी वहाँ विराज रहीं थीं। गुरुदेव ने एक भजन सुनाने को कहा। गुरुवर्याश्री के मधुर वीणा समान गायन को सुनकर राजा दिलीपसिंह भावविभोर हो गये और जैन साध्वाचार की बहुत-बहुत प्रशंसा की।
नूतन दीक्षिता राजेन्द्रश्री म. की बड़ी दीक्षा के योगोद्वहन शुरू हो चुके थे और पू. सज्जनश्रीजी म.सा. ने दशवैकालिक के अवशिष्ट योगोद्वहन भी शुरू कर दिये थे। बड़ी दीक्षा के दिन गुरुदेव की चरणपादुका स्थापन का भी समारोह था अतः अठाई महोत्सव, पूजन, भक्ति, रात्रि जागरणादि प्रारम्भ हो गये। राजेन्द्रश्रीजी म. के पारिवारिक सदस्य तथा आस-पास के अन्य लोग भी बड़ी संख्या में आ गये थे। इन सबकी उपस्थिति में पूज्य गुरुदेव के कर-कमलों से श्री राजेन्द्र श्रीजी म. की बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ। __ आप लोग (साध्वीजी) वहाँ से विहार करती हुई पू. गुरुवर्याश्री के पास जयपुर पधारी ।
सज्जनश्रीजी म. सा. के २००३, २००४ व २००५ के चातुर्मास गुरुणीजी श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में जयपुर में ही हुए। व्याख्यान का कार्य आप स्वयं सँभालती थीं।
वि. सं. २००५ में पू. आचार्यदेव श्री रत्नसूरीश्वरजी म. सा., उपाध्याय श्री लब्धिमुनिजी म. सा., प्रेममुनिजी म. सा., मेघमुनिजी म. सा. व मुक्तिमुनिजी म. सा. का जयपुर में पदार्पण हुआ। आपके प्रवचनों से प्रभावित हो जययुर संघ ने चातुर्मास की विनती की जिसे आपश्री ने स्वीकार कर लिया।
इस चातुर्मास में व्याख्यान आचार्यदेव फरमाते थे, अतः व्याख्यान भार से मुक्त, होकर आपने अपनी गुरुवर्याश्री प्रवर्तिनी महोदया एवं परमोपकारिणी पू. श्री उपयोगश्री जी म. सा. से तपस्या की
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आज्ञा मांगी और इनकी आज्ञा प्राप्त कर आपने व पू. जिनेन्द्रश्रीजी म. ने श्रावण बदी ७ से मास-क्षमण की तपस्या प्रारम्भ कर दी । आपके साथ कमलादेवी ने भी तपस्या शुरू कर दी । (कमलादेवी सेठ हजारीमलजी बाँठिया की सुपुत्री थीं, युवावस्था आने से पहले ही विधवा हो चुकी थीं और चरितनायिकाजी के गृहस्थ जीवन की सखी थीं तथा जयपुर की एक मुखिया श्राविका के रूप में प्रसिद्ध थीं।)
तेले के दिन से ही शासनदेवी के गीत प्रारम्भ हो गये और निरंतर एक महीने तक चलते रहे । नित्य प्रभावनाएँ होतीं, कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन भी हो जातीं । पूर्णाहुति पर राजेन्द्रश्रीजी म. सा. ते अठाई और बहुत से लोगों ने अट्ठम तप किये। अठाई महोत्सव, महापूजन, वरघोड़ा, रात्रि जागरण आदि सभी धर्मानुष्ठान अभूतपूर्व कार्यक्रम के साथ सानन्द पूर्ण हुए।
पारणे के पश्चात आपको टाइफाइड हो गया जो उचित औषधोपचार से ठीक हो गया।
अध्ययन का आपको बचपन से शौक था और आज भी है। चातुर्मास के बाद शीतकाल में आपने पण्डित प्रवर वीरभद्रजी से प्रमाणनयतत्वालोक का तलस्पर्शी अध्ययन किया।
वि. सं. २००६ में पू. गणिवर्यश्री बुद्धिमुनिजी म. सा., तथा साम्यानन्दजी म. सा. संघ की विनती को स्वीकार करके चातुर्मास हेतु जयपुर पधार गये थे।
अतः प्रवचन कार्य से आप मुक्त हो गई थीं किन्तु मध्याह्न में चौपी आप ही बाँचती थी जिसमें जैन कवि केशराज रचित रामयश रसायन के साथ तुलसीकृत रामचरितमानस और मैथिलीशरण गुप्त के साकेत के सम्बन्धित अंश भी सुनातीं। जैन-अजैन अभी श्रोता मुग्ध हो जाते, प्राचीन उपाश्रय (जहाँ अभी विचक्षण भवन बना हुआ है) का हॉल खचाखच भर जाता। श्रोतागण राम के पवित्र चरित्र में इतने रसमग्न हो जाते, मानो सब कुछ उनके सामने ही घटित हो रहा हो ।
ऐसी अनुपम थी आपकी वक्तृत्व कला । आज तो इसमें और भी निखार आ चुका है। झुंझनु चातुर्मास : वि. सं. २००६
झुंझनु धार्मिक क्षेत्र के साथ-साथ ऐतिहासिक क्षेत्र भी है। यह क्षेत्र बहुत अनूठा है। यहाँ अनेक सतियाँ हुई हैं। कुछ महान सतियों के तो मन्दिर भी बने हुए हैं। इनमें राणीसती का मन्दिर तो विशेष प्रसिद्ध है।
ग्यारहवीं शताब्दी में परमश्रद्धय गुरुदेव दादा सा. श्री जिनदत्तसूरि जी म. का भी इस क्षेत्र में विचरण हुआ था, ऐसा उनके स्वयं के लिये हुए 'चर्चरी' ग्रन्थ में वर्णन आता है। यहाँ की दादावाडी की ऊँचाई अन्य दादावाड़ियों की तुलना में काफी अच्छी है।
उस समय यहाँ पर ६० घर श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के थे, सभी खरतरगच्छीय श्रीमाल गोत्र के और प्रायः सभी उच्च शिक्षा प्राप्त-कोई वकील तो कोई जज । श्री पूनमचन्दजी तो झुंझनु जिले के प्रसिद्ध वकील थे। धार्मिक क्षेत्र में भी झुंझनु संघ अग्रणी था, विद्वान साधु-साध्वियों के चातुर्मास होते ही रहते थे। लेकिन वर्तमान में तो २५-२७ घर ही रह गये हैं। प्रायः सभी बम्बई, जयपुर आदि नगरों में जाकर बस गये हैं।
इसी झन्झनु संघ ने प्रवर्तिनी महोदया के समक्ष चातुर्मास हेतु विनती की। उनकी विनती को सम्मान देकर प्रवर्तिनीजी म. सा. ने निर्णीत शुभ दिवस में पू. चरितनायिका, मंडल-संचालिका पू. श्री उपयोगश्रीजी म. सा. पू. श्री शीतलश्रीजी म. सा. तथा राजेन्द्रश्रीजी म. सा. को झुन्झनु चातुर्मासार्थ विहार करवाया। मार्गस्थ ग्रामों में वीरवाणी सुनाते, धर्म की वंशी बजाते, जनता को माँस मद्य आदि
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी अभक्ष्यभक्षण का त्याग कराते हुए झुन्झनु सीमा में पहुँचे। श्रद्धालु संघ ने बड़ी धूम-धाम से नगरप्रवेश कराया।
। प्रतिदिन के व्याख्यान में श्रीचन्द केवली चरित्र का प्रारम्भ किया। आपकी रोचक शैली को आज भी लोग याद करते हैं। पूजा, तपस्या आदि का ठाठ लगा रहा । पूजा-प्रभावनाएँ भी खूब हुईं। तब से आज तक वहाँ के निवासी प्रति पूनम को रात्रि-जागरण व प्रभावना आदि करते आ रहे हैं ।
श्री राजेन्द्रश्रीजी म. को वाराणसीय संस्कृत विश्वविद्यालय की ज्ञानप्रभा परीक्षा में सम्मिलित होना था और उनका परीक्षा केन्द्र फतेहपुर था, अतः झुन्झनु चातुर्मास सानन्द पूर्णकर आपने फतेहपुर की ओर कदम बढ़ाये । चिडावा, पिलानी होते हुए फतेहपुर पहुँचे ।
फतेहपुर में भी जैन घर काफी हैं, व्याख्यान आदि का क्रम चलने लगा । लोग प्रभावित हुए। कुछ दिन रुकने का आग्रह किया। लेकिन आपको गुरुणीजी की सेवा में पहुँचना था अतः परीक्षा दिलवाकर जयपुर की ओर प्रस्थान किया।
श्री राजेन्द्रश्री जी म० सा० का स्वास्थ्य झुन्झनु चातुर्मास में रुग्ण रहने लगा। कभी सर्दी जुकाम खाँसी बढ़ जाते तो कभी कम हो जाते, साधारण घरेलू उपचार चलते रहे पर कोई विशेष लाभ न हुआ। जयपुर आने पर तो खाँसी-जुकाम और बड़ गये । कई वैद्यों का उपचार कराया गया पर सब व्यर्थ । आखिर स्पेशलिस्ट डाक्टर को दिखाया गया। उसने फुल टेस्ट की सलाह दी । टेस्ट हुए । एक्स रे रिपोर्ट से ज्ञात हुआ कि साध्वीजी को राजयक्ष्मा ने गम्भीर रूप से जकड़ लिया है।
उस युग में टी० बी० की कोई अक्सीर दवा भी न थी। इस रोग का नाम ही भयंकर था। सुनते ही चरितनायिका जी चिन्तित हो गईं, तन-मन से श्री राजेन्द्रश्री जी म० सा० की सेवा में जूट गईं। किन्तु उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही गया, शारीरिक शक्ति क्षीण होती ही चली गयी । डाक्टर की चिकित्सा और चरितनायिका जी की सेवा कोई काम न आई । आखिर वि० सं० २०१२ विजयादशमी के दिन २६ वर्ष की अल्पायु में ही श्री राजेन्द्रश्रीजी म. सा. की आत्मा स्वर्ग को प्रयाण कर गई।
सर्व साध्वी मंडल और श्री संघ को हार्दिक दुख हुआ; पर काल-बली के सामने किसी का वश नहीं चलता।
श्री राजेन्द्रश्री जी म. सा. ने १२ वर्ष की अल्प संयम पर्याय में वैयावच्च, अध्ययन, शासन सेवा के साथ-साथ विभिन्न तप पंचमी पखवासा, सोलिया, नवपद ओलीतप, दश पच्चक्खाणा, बेला, तेला, अठाई आदि किये तथा अन्तिम समय में गुरुमुख से निर्यामना स्वस्थचित्त से सुनती हुई, सर्व प्रत्याख्यान करती हुई नश्वर देह का त्याग किया, अपना श्रमणी-जीवन सफल बनाया।
श्री राजेन्द्रश्रीजी म० की अस्वस्थता के कारण वि० सं० २००७ से २०१३ तक के ७ चातुर्मास चरितनायिकाजी के जयपुर में ही हुए । ये चातुर्मास आपने गुरुवर्याश्री के दर्शनार्थ आने वाले पूज्य श्रमणश्रमणी के आदर-सत्कार और ज्ञानार्जन में व्यतीत किये।
वि० सं० २०१२ में पूज्य प्रवर उपाध्याय महोदय श्री सुखसागरजी स० सा०, पूज्य श्री मंगल सागरजी म० तथा उद्भट विद्वान श्री कान्तिसागरजी म. सा. का चातुर्मास हेतु गुलाबी नगरी जयपुर
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आगमन हुआ । व्याख्यान के उत्तरदायित्व से आप मुक्त हुईं। इस समय का सदुपयोग करके आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की साहित्यरत्न परीक्षा फर्स्ट डिवीजन में उत्तीर्ण कर ली ।
प्रखर व्याख्याता पू० कान्तिसागरजी की सद्प्रेरणा से जयपुर संघ ने जैन श्वेताम्बर दादाबाड़ी (मोती डूंगरी रोड ) में पू० प्रवर उपाध्याय श्री सुखसागर जी म० सा० के सान्निध्य में द्वितीय उपधान तप करवाकर अतुल लाभ लिया । श्रावक-श्राविकाओं ने उत्साहपूर्वक तपाराधना की और मालारोपण का कार्यक्रम भी बड़े अच्छे से ढंग सम्पन्न हुआ ।
इसी उत्सव के दौरान पूज्याश्री उपयोगश्रीजी म. सा. की संसारपक्षीय भतीजी किरण वैराग्य भावना से प्रेरित हो आपके पास आई । वह फलौदी निवासी श्रावक श्र ेष्ठ श्रीमान् ताराचन्दजी की सुपुत्री थी और उसकी आयु कुल ११ वर्ष की थी ।
वि सं० २०१३ में पूज्य आचार्य श्रीमज्जिनआनन्दसागर सूरीश्वर जी म. सा., पू. उपाध्याय श्री कवीन्द्रसागर सूरीश्वरजी म. सा., उपाध्याय सुखसागरजी म. सा., गणिवर्य हेमेन्द्रसागरजी म. सा., उदयसागरजी म. सा. की निश्रा में युगप्रधान दादा जिनदत्त सूरीश्वरजी म. सा. की पुण्यभूमि अजमेर में अखिल भारतीय खरतरगच्छ की सम्मति से उनकी अष्टम शताब्दी समारोह आयोजित करने का निर्णय ले लिया गया था । इसी अवसर पर साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका सम्मेलन का कार्यक्रम रखा गया गया और सभी पू. मुनिवरों तथा साध्वियों को आमन्त्रित किया गया ।
समीपस्थ क्षेत्रों में विचरण करने वाले सभी साध्वी जी म. सा. सम्मलित हुए । यथा - पू. श्री उमंग श्रीजी म. सा., पू. श्री कल्याणश्रीजी म. सा., जैन कोकिला श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. अपनी शिष्या मंडली सहित व पू. श्री अनुभव श्रीजी म. सा. तथा पू. प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी की प्रतितिधि के रूप पू. चरितनायिका जी भी पधारीं । इस प्रकार कुल ५५ साध्वीजी म. सा. सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे ।
सम्मेलन की शोभा तो अभूतपूर्व थी ही, विशेषता यह थी कि सभी गच्छ वालों ने बिना भेदभाव से सम्मिलित होकर सम्मेलन को सफल बनाया। बड़े ही शानदार ढंग से विराट आयोजन के साथ सम्मेलन सम्पूर्ण हुआ । शताब्दी स्मारिका में इसका सचित्र वर्णन है । इसी अवसर पर जिनदत्तसूरि संघ की स्थापना हुई जो सर्वत्र प्रगति पथ पर है ।
सम्मेलन में आये हुए जयपुर संघ ने पू. प्रवर्तिनीवर्या की प्रेरणा से श्रद्धय आचार्यश्री को जयपुर चातुर्मास की आग्रहभरी विनती की, जिसे आचार्य श्री ने स्वीकार कर लिया । चरितनायिकाजी गुरुवर्या की सेवा में पधार गयीं ।
परम श्रद्ध ेय आचार्य प्रवर श्रीमज्जिनआनन्दसागरसूरीश्वरजी अपने शिष्य मंडल सहित चातुर्मास हेतु जयपुर पधारे। खूब धूमधाम से जयपुर संघ ने स्वागत किया ।
आचार्य प्रवर के साथ चरितनायिकाजी का पहला ही चातुर्मास था । उनके गम्भीर शास्त्रीय ज्ञानयुक्त प्रभावशाली बाणी से आप बहुत प्रभावित हुईं । आपश्री को आचार्यदेव का अनुग्रह प्राप्त हुआ । आचार्यश्री की दीर्घ दृष्टि से आपकी विलक्षण प्रतिभा छिप न सकी। पू. प्रवर्तिनी जी को उन्होंने कहाआप बहुत भाग्यशाली हैं जो आपको ऐसी सुयोग्य गुणवती शिष्या ( सज्जन श्रीजी ) प्राप्त हुई हैं । यह भविष्य में अपने गच्छ को कोर्ति को खूब दीपायेंगी ।
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आचार्यश्री के यह उद्गार कुछ ही समय में सत्य में प्रमाणित होने लगे।
संघ के आग्रह से आचार्यश्री ने चातुर्मास में भगवती सूत्र का वाचन शुरू किजा । अचानक ही वे अस्वस्थ हो गये । उन्होंने आपको बुलाया और व्याख्यान देने का आदेश फरमा दिया। आप विचार में पड़ गईं-'भगवती सूत्र तो मैंने कभी उठाकर देखा भी नहीं, कैसे व्याख्यान दे सगी ।' आपको विचारमग्न देखकर आचार्यश्री ने फरमाया-'विचार में क्यों पड़ गईं ? तुम तो हमसे भी विदुषी और प्रतिभाशालिनी हो।'
बस, आपत्री ने आचार्यदेव की आज्ञा शिरोधार्य की और इष्टदेव का स्मरण कर पाट पर बैठ गई। फिर एक सूत्र को लेकर आपने उसकी जो व्याख्या की, तर्क दिये और दृष्टान्तपूर्वक समझाया तो सभी आश्चर्यचकित हो गये । आचार्यश्री स्वयं भी सुन रहे थे वे दंग रह गये । मन ही मन में सोचने लगेक्या गजब की बुद्धि है, क्या प्रतिभा है ? भगवती जो सबसे गूढ़ और कठिन अंग है, जिसकी व्याख्या करने में बड़े-बड़े धुरन्धर चकरा जाते हैं, उसके सूत्र की एक-एक कली खोलकर रख दी है। अनुपम मेधा है इन साध्वीजी की।
व्याख्यान के बाद जब आचार्यश्री के समक्ष आप पधारी तो उन्होंने हर्षित होकर आपकी प्रशंसा की और साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका सभी के समक्ष कहा - तुम तो व्याख्यात्री हो । भविष्य में इससे भी बढ़कर आगमों का ज्ञान प्राप्त करोगी । ऐसा मेरा विश्वास है।
आचार्यश्री का यह विश्वास आज साकार हो रहा है। आचार्यश्री के इस आशीर्वाद को सुनकर सभी उपस्थित जन प्रसन्न हो गये। वि. सं. २०१३ का आचार्यश्री का चातुर्मास सानन्द सम्पूर्ण हुआ।
इस चातुर्मास के उपरान्त वैराग्यांकुर धारिणी किरण (जो अब १२ वर्ष की हो चुकी थी) ने अपनी भूआ (ज्ञानमंडल की संचालिका उपयोगश्रीजी म. सा.) से अपनी दीक्षा शीघ्र करवाने की विनती की, क्योंकि उसका वैराग्य पूर्ण पल्लवित हो चुका था। पूज्याश्री ने कुछ समय बाद भावना को साकार रूप देने का सुझाव दिया।
किरण का अध्ययन सुचारु रूप से चल रहा था। पंचप्रतिक्रमण कुछ ही समय में पूर्ण हो गया। तदुपरान्त संस्कृत चैत्यवन्दन स्तुति, जीवविचार, नव तत्वादि चारों प्रकरण, तीन भाष्य, कर्मग्रन्थ आदि भी कुछ ही समय में कंठस्थ कर लिया। प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ जो सामूहिक होतीं उनमें वन्दित्त सूत्रादि बोलने का आदेश प्रायः किरण ही लेती और उसकी बोली मधुर, स्पष्ट व वजनी होने के कारण बहनें भी उसका ही बोलना पसन्द करतीं। वैरागिन किरण ने अपनी योग्यता, नम्रता और मधुर वाणी से सभी के मन-मस्तिष्क पर अपना अधिकार कर लिया। पू. उपयोगश्रीजी भी वैरागिन किरण से सन्तुष्ट थीं और उसे दीक्षा योग्य समझने लगीं।
जयपुर श्रीसंघ को वैरागिन किरण की इतनी जल्दी दीक्षा का अनुमान नहीं था। जब दीक्षा महोत्सव का मुहूर्त निकल गया और तैयारियाँ होने लगी तब कुछ प्रमुख श्रावकों ने इसे बाल-दीक्षा कहकर कठोर विरोध किया। यहाँ तक निश्चय कर लिया कि वैरागिन किरण की दीक्षा नहीं होने देंगे । इस विरोध के कारण पूज्य गुरुदेव और पू. प्रवर्तिनी महोदया ने वैराग्यवती किरण की दीक्षा उस वर्ष स्थगित कर दी । इसे अन्तराय कर्म का ही प्रभाव माना जाना चाहिए कि दीक्षा में अवरोध खड़ा हो गया।
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पू० चरितनायिकाजी का सं० २०१४ का चातुर्मास टोंक था और परम श्रद्धय कवि सम्राट श्रीकवीन्द्रसागरजी म० सा० का जयपुर में था। वैराग्यवती किरण की दीक्षा की बातें चल ही रही थीं, जयपुर वालों के विरोध को भी वे जानते थे और विश्वास था ये लोग दीक्षा होने नहीं देंगे, पू० प्रवर्तिनी जी म.सा० की भी यही धारणा थी। फिर भी किसी प्रकार दीक्षा हो जाये, ऐसी इनकी हार्दिक इच्छा
थी।
वैराग्यवती किरण की अन्तराय टूटी, पुण्य का उदय हुआ। कुछ लोग विघ्नसंतोषी होते हैं तो कुछ विघ्ननिवारक भी । ऐसा ही हुआ । ब्यावर के अग्रगण्य श्रावक उदयचन्दजी कास्टिया जयपुर पधारे, मसा० के दर्शन किये । चर्चा के दौरान संपूर्ण स्थिति से अवगत हुए तो बोले-यह सौभाग्य ब्यावर संघ को मिलना चाहिए । महाराज साहब ! आप वैरागिन किरण और इसके परिवारीजनों को इस तरह ब्यावर भेज दीजिए कि विघ्नसंतोषी जयपुर वालों को मालूम न पड़े। वहाँ दीक्षा सानन्द हो जाएगी।
__ सर्वसम्मति से दीक्षा का निर्णय ले लिया गया। उदयचन्दजी ब्यावर चले गये । ब्यावर संघ के श्रावक भी दीक्षा की बात सुनकर सहमत हो गये।
पू० प्रवर्तिनी महोदया ने प्रसिद्ध पण्डित श्रीभगवानदासजी से दीक्षा का मुहूर्त निकलवाया तो मिगसिर वदी ६ का मुहूर्त निकला । जयपुर वालों ने फोन से सब समाचार व्यावर दे दिये । दो दिन पहले वैरागिन किरण को ब्यावर के लिए रवाना कर दिया गया, उसके परिवार वाले भी पहुँच गये । जयपुर के मुख्य-मुख्य श्रावक श्रीमान हमीरमलजी सा० गोलेच्छा, सिरेहमलजी सा० संचेती, प्रेमचन्दजी सा० बांठिया आदि भी दीक्षा में सम्मिलित होने ब्यावर रवाना हो गये।
वि० सं० २०१४ मिगसिर वदी ६ के शुभ दिन शुभ मुहूर्त में पूज्या विज्ञानश्रीजी म० की निश्रा में ब्यावर स्थित दादाबाड़ी के विशाल प्रांगण में वैराग्यवती किरण की दीक्षा सानन्द संपन्न हुई । उन्हें 'शशिप्रभाजी' नाम दिया गया और सज्जनश्रीजी म.सा० (चरितनायिकाजी) की शिष्या घोषित किया गया।
श्रद्धय कवि सम्राट नूतन साध्वी शशिप्रभाजी की बड़ी दीक्षा कराने हेतु अजमेर पधारे । ब्यावर से पूज्या विज्ञानश्रीजी म.सा० आदि भी नूतन साध्वीजी को साथ लेकर अजमेर पधारे और टोंक से चरितनायिकाजी भी चातुर्मास सानन्द पूर्णकर जयपुर जाते हुए अजमेर पधारी । इधर मणिप्रभाजी, जो जयपुर की ही लड़की हैं और जिनकी दीक्षा टोंक में हुई तथा पूज्या जैन कोकिला की शिष्या बनीं, उनकी भी बड़ी दीक्षा अजमेर में करने का विचार हुआ । अतः शशिप्रभाजी के साथ ही मणिप्रभाजी की भी बड़ी दीक्षा अजमेर में ही कवि सम्राट के कर-कमलों से सं० २०१४, भिगसिर सुदी ११ को सानन्द संपन्न हुई।
बड़ी दीक्षा के पश्चात् पू० चरितनायिकाजी नूतन साध्वी श्रीशशिप्रभाजी आदि के साथ प्र. महोदया के चरणों में जयपुर पधारी । वहीं नूतन साध्वीजी के अध्ययन की व्यवस्था हुई और छोटीमोटी अनेक परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली।
अजमेर में चैत्र मास की ओली आराधना करवाकर पू. विचक्षणश्रीजी म.सा. भी अपनी शिष्या मंडली सहित पू. प्रवर्तिनीजी के दर्शनार्थ जयपुर पधारी । यद्यपि आप सिर्फ दर्शनार्थ ही आई थीं लेकिन खण्ड १/५
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जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्री
प्रवर्तिनीजी के वात्सल्य और आत्मीयता भरे आदेश को स्वीकार करके चातुर्मास हेतु वहीं रह गईं । इसमें संघ का आग्रह भरी विनती भी एक कारण रहा।
चरितनायिकाजी व्याख्यान - भार से मुक्त थीं । अतः पू. प्रवर्तिनीज, श्री उपयोगश्रीजी और जैन लाजी की सत्प्रेरणा से 'पुण्य जीवन ज्योति' का लेखन कार्य आपने प्रारम्भ किया । आपका यह लेखन कार्य ५०० पृष्ठों के एक अनूठे वृहत् सचित्र ग्रन्थ रूप में जनता के समक्ष आया जो अपने आप में एक इतिहास संजोए हुए हैं। इस ऐतिहासिक ग्रन्थ में श्रमणी वृन्द की गौरवपूर्ण गाथा के साथ-साथ नारी जीवन का महत्व भी वर्णित हुआ है ।
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आपकी परिष्कृत और परिमार्जित लेखनी से समुद्भूत यह एक ऐसो पुष्प मंजूषा है जिसमें विभिन्न आकृतियों के सुरभित स्वर - सुमन अपनी सुगन्धि विकीर्ण कर रहे हैं ।
वस्तुतः यह ग्रन्थरत्न आपके गम्भीर और तलस्पर्शी अध्ययन तथा प्रत्युत्पन्न मेधा का परिचायक है ।
संवत् २०१५ का चातुर्मास सानन्द सम्पूर्ण हुआ ।
पूज्या विचक्षणश्रीजी म. सा. का सं. २०१६ का चातुर्मास जयपुर में था और टोंक संघ के आग्रह के कारण आपश्री का चातुर्मास टोंक निश्चित हो चुका था । टोंक के लिए चातुर्मासार्थ आपने जयपुर से विहार भी किया, प्रथम मंजिल सांगानेर तक पधार भी गये लेकिन मन उखड़ रहा था, पाँव आगे जाने को तैयार न थे, कुछ अनहोनी घटित होने की आशंका बार-बार चित्त को उद्विग्न बना रही थी । अतः वापिस जयपुर लौट आईं, टोंक संघ को ना करवादी ।
वज्रपात - अप्रत्याशित विरह परमोपकारिणी उपयोग श्रीजी का
जयपुर में चातुर्मास सुन्दर ढंग से चल रहा था । कार्तिक माह में पू. प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी म.सा. के स्वास्थ्य में कुछ गड़बड़ी हुई । आयुर्वेदिक औषधियाँ चल रही थीं पर कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा था, स्वास्थ्य गिरता ही जा रहा था। गुरुवर्या की अस्वस्थ दशा से आप चिन्तित थीं ।
इधर उपयोग श्रीजी म. सा. के पाँव के अँगूठे में ठोकर लग जाने से अँगूठा पक गया, दर्द होने लगा, उपचार से भी कोई लाभ न हुआ, पीव पड़ गई और रिसने लगी। तब जयपुर की प्रसिद्ध लेडी डाक्टर चन्द्रकांता को बुलाया गया ।
कार्तिक कृष्णा ३ का दिन था । सन्ध्या का समय था । सभी का चौविहर का समय था । पू. विचक्षणश्रीजी प्रतिदिन की भाँति गोचरी करके दादाबाड़ी पधार गये थे ।
डाक्टर आईं। पू. प्रवर्तिनी महोदया को देखकर लौट रही थीं कि उपयोगश्रीजी म. सा, ने आवाज देकर बुलाया और कहा- डाक्टर साहब देखिए । मेरा अँगूठा पक गया है । १५-२० दिन हो गये, पीव रिसती रहती है, बन्द होती ही नही ।
पूज्यवर्या ने पट्टी खोली तो डाक्टर साहब ने देखकर कहा - केस सीरियस हो गया है, इंजेक्शन afaar ठीक नहीं होगा । आपको पेनिसिलिन का इंजेक्शन लगा दूँ, जल्दी आराम आ जायेगा ।
पूज्यावर्या ने चरितनायिका जी से इंजेक्शन लगवाने के बारे में पूछा तो उन्होंने सहमति व्यक्ति कर दी, भावना यही थी शीघ्र आराम हो गया । लेकिन कौन जानता था कि ऐसा आराम हो जायेगा कि यह शरीर ही छूट जायेगा, जब हंस ही चला जायेगा । तो बीमारी किसे होगी ? और कौन दुख का वेदन करेगा |
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
डाक्टर ने इंजेक्शन लगाया और नीचे उतरने लगीं । अभी वह जा भी नहीं पाई थीं कि पूज्यवर्या ने चरितनायिका जी से कहा-सज्जनश्रीजी ! मेरी तो छाती में जलन हो रही है ।
चरितनायिका ने तुरन्त डाक्टर को आवाज दी । डाक्टर लौटीं । पू० वर्या की दशा देखकर चकित रह गई। अचानक यह क्या हो गया ? क्षण भर में समझ गई इंजैक्शन रीएक्शन कर गया। अपना बैग टटोला लेकिन पेनिसिलिन के रिएक्शन को समाप्त कर दे, ऐसा कोई इन्जेक्शन, टेबलेट या कैप्सूल नहीं मिला । तुरन्त एक इन्जैक्शन लेने के लिए दौड़ाया।
तब तक पू० वर्या बेहोश हो चुकी थीं । इंजैक्शन आने पर लगाया भी; परन्तु पेनिसिलिन का शॉक अपना काम पूरा कर चुका था; नया इंजैक्शन बेअसर साबित हुआ ।
पू० श्री की जिह्वा बाहर निकल आई । चरितनायिका जी ने उनका सिर अपनी गोद में ले लिया । नब्ज टटोली तो गायब ! सारा शरीर ठंडा पड़ चुका था। दूसरा डाक्टर बुलवाया। वह आया तब तक तो खेल खत्म हो चुका था, हंस उड़ चुका था। चरितनायिका की गोद में गुरुवर्या की आत्मा ने स्वर्ग प्रयाण कर दिया था, नश्वर देह ही वहाँ पड़ी थी।
सभी को घोर दुःख हुआ। पू० प्रवर्तिनी जी भी इस वज्रपात से विह्वल हो गई थीं। सन्ध्या समय श्राविकाएँ प्रतिक्रमण के लिए आती थीं, वे भी इस अघटित से घोर दुखी हुई।
तथ्य यह है कि मौत बहाने ढूढ़ती है। उपयोगश्री जी म० सा० के लिए पेनिसिलिन का इन्जैक्शन ही काल का पैगाम बन गया । प्राणी हारता है और काल जीतता है । यहाँ भी काल विजयी हुआ।
उपयोगश्रीजी म. सा. विशिष्ट व्यक्तित्व वाली आर्यारत्न थीं। वे गुरुसेवा में सदा तत्पर रहती थीं । उत्तम संयमी जीवन, मधुर-गम्भीर वाणी, विशाल सहृदयता, उदारता, सुन्दर व्यवहार कुशलता, अनुपम मेधा सभी कुछ था पूज्या उपयोगश्रीजी में । गुरुवर्या की सेवा में इतनी तत्पर कि मात्र तीन चातुर्मासों के अतिरिक्त अपनी गुरुवर्या से कभी अलग नहीं रहीं। निस्पृहता इतनी कि अपने उपदेशों से प्रभावित होकर जिन्होंने दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की उन सबको अपनी शिष्या न वनाकर गरुवर्या की शिष्या घोषित किया। चरितनायिकाजी की दीक्षा में भी आपकी ही प्रेरणा और सद्प्रयत्न थे; किन्तु इन्हें भी गुरुवर्या पूज्य प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी म० सा० की शिष्या ही घोषित करवाया।
ऐसी निस्पृह सेवाभावी साध्वीरत्न के स्वर्गवास से पूरा समाज ही शोक सागर में निमग्न हो गया, शवयात्रा में हजारों की जनमेदिनी थी । सभी अपनी शोक श्रद्धांजलि समर्पित कर रहे थे।
___ दुःख तो साध्वी मंडल को भी बहुत हुआ, किन्तु जैन साधना का प्रथम सोपान ही समता है अतः समतापूर्वक इस वज्र प्रहार को साध्वी मंडल ने सहन किया।
पूज्याश्री के देवलोक के पश्चात पू० प्रवर्तिनीजी के मंडल की सम्पूर्ण जिम्मेदारी चरितनायिका जी पर आ गई । अतः चातुर्मास तथा शेष काल में कहीं जाने का प्रश्न ही समाप्त हो गया और पू० प्र० वर्या की सेवा शुश्रूषा में संलग्न हो गई है। चरितनायिका का विशिष्ट गुण, सेवा
चरितनायिका जी में सेवा का विशिष्ट गुण है । यद्यपि आपका बचपन लाड़-प्यार में बीता, कभी काम करने का अवसर ही न आया; शादी भी वड़े घर में हुई; फिर भी सेवा के लिए सदा तत्पर
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जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्री रहतीं। बड़ा या छोटा कैसा भी काम हो, लगन से करतीं । काम को इतने सुचारु रूप से करतीं कि देखने वाले यह समझते कि आप इस कार्य में निष्णात हैं ।
जयपुर में पहले आयम्बिल खाता नहीं था । अतः कभी-कभी दो-दो मटकियाँ ( घड़े) पानी की आप घरों से ले आतीं । गोचरी आदि कार्यों में भी आप निष्णात थीं । कई बार व्याख्यान से सीधी उठकर गोचरी हेतु चली जाती । आपके मन में तनिक भी विचार नहीं आता कि मैं इतने बड़े घर की बहू हूँ, गोचरी के लिए कैसे जाऊँ ।
आपका तो सीधा सिद्धान्त है कि इस नश्वर शरीर से जितनी भी दूसरों की सेवा की जा सके, करनी चाहिए अन्यथा एक दिन तो यह मिट्टी में मिलना है । सेवा से ही मानव शरीर की सार्थकता है ।
किसी ने कहा है
न से सेवा कीजिए, मन से भले विचार । धन से इस संसार में, करिए पर उपकार ॥
सज्जनों का तो कार्य ही पर उपकार करना है और इस रूप में आपश्री ने अपने सज्जनश्री नाम को सदा सार्थक किया है ।
चातुर्मास के पश्चात पू० श्री विलक्षणश्री म. सा. का विचार मालपुरा की ओर विहार करने का था । किन्तु जयपुर के जौहरी अध्यात्मयोगी श्रीमान् अमरचन्दजी नाहर ने मालपुरा का छःरी पालित संघ ले जाने की भावना व्यक्त की । आपश्री ने उनकी भावना को स्वीकृति प्रदान कर दी । प्रस्थान का समय निकट आ रहा था । चरितनायिका जी ने सोचा, प्रस्थान - विदाई समारोहपूर्वक होना चाहिए । ऐसा विचार करके आपने जयपुर के अग्रगण्य श्रावकों के बुलवाया और उन्हें प्रेरणा दी कि जैन कोकिला पूज्या श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. को 'व्याख्यान भारती' पदवी से विभूषित किया जाय ।
प्रस्थान के दिन रामनिवास बाग में स्थित म्यूजियम के विशाल प्रांगण में जयपुर श्री संघ ने आपका अभिनन्दन करते हुए अभिनन्दन पत्र भेंट किया तथा चरितनायिकाजी द्वारा रचित एक गीतिका को स्थानीय जैन नवयुवक मंडल ने गायी । जिसके भावों में अवगाहन कर सभी के नेत्र सजल हो गये । तदुपरान्त सर्व संघ के समक्ष जयपुर खरतरगच्छ संघ ने पू० जौन कोकिला जी को 'व्याख्यान भारती' की पदवी से विभूषित किया ।
इसके उपरान्त सर्व संघ के साथ आपने मालपुरा प्रस्थान किया । नाहर सा० ने संघ भक्ति का अपूर्व लाभ लिया ।
आचार्यश्री का अप्रत्याशित वियोग
सं. २०१७ के चातुर्मास के पश्चात् पालीताना में विराजित आचार्य सम्राट वीरपुत्र श्री आनन्द सागरजी म. सा. का पौष सुदी १० को हृदयगति रुक जाने से अचानक ही स्वर्गवास हो गया । आपश्री के पाट पर कविकुलकिरीट श्रद्धय गुरुदेव कवीन्द्रसागरजी म. सा. को विराजमान किया गया किन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि सिर्फ ११ महीने की अवधि में ही सं० २०१८ की फाल्गुन शुक्ला ५ को आप भी देवलोक प्रयाण कर गये ।
श्रद्ध ेय गुरुदेव बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, आशुकवि थे । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी में रचित आप की रचनाएँ बेजोड़ हैं, गायकों व श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध बना देती हैं ।
आपका देहावसान संघ की अपूरणीय क्षति है ।
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वि. सं. २०१६ में पण्डित प्रवर श्री दयारामजी से श्री शशिप्रभाजी ने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया और अल्प समय में ही अच्छी गति करली फिर पण्डितजी की प्रेरणा से वाराणसी विश्वविद्यालय की प्रथमा परीक्षा का फार्म भर दिया और पण्डितजी की प्रेरणा से ही चरितनायिकाजी ने मध्यमा का फार्म भर दिया।
लेकिन परीक्षा के समय समस्या यह आई कि परीक्षा केन्द्र ब्यावर में था, पूज्या प्रवर्तिनीवर्या को छोड़कर कैसे जायें ? यद्यपि शीतलश्रीजी म. सा., रमणीकश्रीजी म. सा., जिनेन्द्रश्रीजी म. सा. आदि साध्वियाँ सेवा में थीं पर व्याख्यान का भार कौन सँभाले ? यह सबसे बड़ी समस्या थी। किन्तु गुरुदेव की कृपा और पूज्य प्रवतिनीजी के आशीर्वाद से टोंक विराजित कल्याणश्रीजी म. सा. आदि जयपुर पधार गये । समस्या हल हो गई।
प. प्रवर्तिनीजी के आदेश से आप (चरितनायिका) शशिप्रभाजी के साथ ब्यावर पधारे और परीक्षा दी। वापिस जयपुर लौटते समय मार्गस्थ अजमेर में निर्मलाश्रीजी की बड़ो दीक्षा हेतु अनुयोगाचार्य श्रद्धय कान्तिसागरजी म. सा. और पूज्य श्री दर्शनसागरजी म. सा. पधारे हुए थे। बड़ी दीक्षा का दिन समीप हो था अतः पूज्येश्वर के आदेश और विजयेन्द्रश्रीजी म. सा. के आग्रह के कारण बड़ी दीक्षा तक आपको अजमेर रुकना पड़ा।
इसी दौरान पू. प्रवतिनीजी को प्रेरणा से जयपुरश्री संघ के अग्रणी श्रावक पू. अनुयोगाचार्य के पास चातुर्मास की विनती लेकर गये, जिसे उन्होंने स्वीकृति प्रदान कर दी।
बड़ी दीक्षा सानन्द सम्पन्न हुई। तदुपरान्त चरितनायिकाजी शशिप्रभाजी को साथ लेकर उसी संध्या को रवाना हुईं और उग्र विहार करके पू. प्रवर्तिनीजी के चरणों में जयपुर पधार गई। अनुयोगाचार्य का जयपुर चातुर्मास
कुछ दिन बाद पू. अनुयोगाचार्यजी ने भी जयपुर के लिए विहार कर दिया। कुशल गुरुदेव की पूण्यभूमि मालपुरा के दर्शन करते हुए जयपुर पधारे । जयपुर संघ ने बड़ी धूम-धाम बैंड बाजों के साथ नगर प्रवेश कराया। व्याख्यान क्रम चालू हो गया। आप इतनी ओजस्वी, मधुरवाणी में प्रवचन फरमाते कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते ।।
मध्याह्न में चरितनायिकाजी जयानन्द केवलीरास अपनी सुरीली वाणी में फरमातीं।
अनुयोगाचार्य के पधारने से धर्म की लहर सी आ गई। बाल साध्वी शशिप्रभाजी ने अठाई की तपस्याएँ की। फिर तो झड़ो ही लग गई। पंचरंगी, मास-क्षमण आदि तप खूब हुए। अठाई महोत्सव, वरघोड़ा, पूजा-प्रभावना आदि से चातुर्मास सफल रहा।
__ आगे भी पू. चरितनायिकाजी के सं. २०, २१, २२, २३, २४ के चातुर्मास गुरुवर्या पू. प्रवर्तिनीजी की सेवा में जयपुर में ही हुए। आपश्री ने ज्ञान-ध्यान और सेवा का खूब लाभ लिया। जयपुर में सामूहिक व्याख्यानों की लहर
___ जयपुर में सं० २०२२ में व्याख्यानों की लहर आई। उस समय दिगम्बराचार्य देशभूषणजी म., तपागच्छ के विशालविजयजी म. सा., तेरापंथी श्री नगराजजी म., खरतरगच्छ की चरितनायिका श्री सज्जनश्रीजी म. सा. और स्थानकवासी किसी विद्वान आचार्य का चातुर्मास था। प्रति रविवार को एक ही मंच से सभी का व्याख्यान होता। पन्द्रह-बीस हजार श्रोताओं की उपस्थिति हो जाती। साम्प्रदायिक सुमेल और सद्भाव की छटा देखते ही बनती।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्री
यद्यपि सभी पूज्यवरों की अपनी-अपनी प्रवचन शैली, भाषा प्रवाह और रसमयता थी किन्तु सज्जनश्री जी म. सा. की शैली में कुछ ऐसा अद्भुत आकर्षण था, भाषा में कुछ ऐसा रंग था, बोलीवाणी में कुछ ऐसी मिश्री सी मिठास थी कि तालियों की गड़गड़ाहट से सारा पांडाल गूंज उठता, श्रोताओं पर आपकी भाषा का रंग चढ़ जाता, आपकी सुरीली शब्दावली उनके कानों से होकर हृदय तक पहुँच जाती, तन-मन सब सराबोर हो जाता। जयपुर संघ आपश्री को अमूल्य दिव्यमणि के समान मानने लगा था।
चरितनायिका जी के प्रवचनों का मुख्य विषय सेवा होता । आप विभिन्न तर्कों और उदाहरणों से सेवा का महत्व प्रतिपादित करतीं और सेवाधर्म को जीवन में उतारने की प्रेरणा देती।
आपकी कथनी-करनी में एकता है, उनके जीवन में भी सेवाधर्म साकार है। यद्यपि भर्तृहरि ने सेवाधर्म को अत्यन्त कठिन और योगियों के लिए भी अगम्य कहा है तथापि उसी अति कठिन सेवाधर्म को अपये अपना सहज स्वभाव बना लिया है।
पू० प्रवर्तिनी श्रीज्ञानश्रीजी म. सा. का महाप्रयाण संवत् २०२३-पू. प्रतिनीजी म. सा. की वार्धक्यावस्था पूर्णता पर थी किन्तु उनकी ज्ञान-ध्यानसाधना यथावत् चल रही थी। शरीर सामान्यतः स्वस्थ ही था। स्फूर्ति और अप्रमत्तता थी । यद्यपि सेवा में साध्वियाँ तत्पर रहती थीं; पर वे अपना सब काम स्वयं ही करती थीं। आलस्य का नाम भी नहीं था। चैत्र कृष्णा ४ को चरितनायिका जी से केश लोंच भी करवाया । स्थण्डिल के लिए २ मंजिल नीचे पधारती थीं।
__चैत्र कृष्णा ७ का दिन, प्रातः का समय, पूज्या प्रवर्तिनीश्री जी म. सा० स्थंडिल के लिए २ मंजिल नीचे उतरी । सदा की भाँति चरितनायिका जी साथ ही थीं। पूज्या प्रवर्तिनी जी तिरपनी में पानी भर रही थीं कि सहसा ही बोल उठी-सज्जनश्रीजी ! मेरा हाथ नहीं उठता।
चरितनायिकाजी एकदम घबड़ा गई, अन्य साध्वियों को बुलाया, सभी मिलकर पूज्याश्री को पाट पर ले आई । उस समय तक प्रवर्तिनी जी को कुछ होश था, बोलना चाहा पर न जबान हिली और न ही आवाज निकली, बेसुध हो गयीं।
प्रातः पुजा आदि के उपरान्त श्रावक-श्राविका प्रवर्तिनी जी से मांगलिक सुनने आते थे, वे आये और आपकी यह दशा देवकर चिन्तित हो गये। तुरन्त डाक्टर बुलवाया। उसने दशा का निरीक्षण करके बताया-आपको हेमरेज (दिमाग की नस फट जाना) हो गया है, साथ ही पक्षाघात (पेरेलिसिस) का भी हल्का सा असर है। इसकी मियाद ७२ घण्टे है। बचना तो बहुत ही मुश्किल है। फिर भी हॉस्पीटल ले चलिए। हम अपना पूरा प्रयास करेंगे कि जीवन लौट आये।
इतना कहकर डाक्टर चला गया। सभी साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं ने मिलकर सलाह की और इस निर्णय पर पहुंचे कि हॉस्पीटल नहीं ले जाना।
इस निर्णय का एक आधार पू. प्रवर्तिनीजी की इच्छा भी थी। उन्होंने साध्वियों से कह रखा था--यदि मैं बेहोश हो जाऊँ तो न कभी हॉस्पीटल ले जाना और न डाक्टरों का हाथ मेरे शरीर से लगवाना।
स्थिति यह थी कि पू. प्रवर्तिनीजी की ७० वर्ष की लम्बी संयम पर्याय में न कभी पुरुष का स्पर्श हुआ था और न डोली में ही बिठाने का प्रसंग उपस्थित हुआ । अतः सम्पूर्ण साध्वी मंडल और प्रमुख श्राविका शिखरबाई सा. आदि द्वारा हॉस्पीटल न ले जाने का निर्णय किया गया।
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परन्तु फिर भी जैसी कि लोकोक्ति है-जब तक साँस, तब तक आस । जीवन बचाने का मनुष्य हर सम्भव प्रयास करता ही है । पू. प्रवर्तिनीजी की साँस भी चल रही थी। अतः लेडी डाक्टर को बुला कर इंजैक्शन भी लगवाया गया पर कोई परिणाम न निकला।
पू. प्रवर्तिनी जब से बेहोश हुईं तभी से नवकार मन्त्र की धुन, औपदेशिक भजन, सज्झाय, स्तवन आदि होते रहे।
आखिर चैत्र कृष्णा १० का दुर्भाग्यपूर्ण दिन आया । साँस धीमी होते-होते संध्या के ६-५० पर बन्द हो गई । हल्की सी फट की आवाज हुई, जिसे समीप बैठी चरितनायिकाजी ने सुना और प. प्रवर्तिनी जी का आत्मा सहस्रार केन्द्र से निकलकर, अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गया।
गुरुवर्याजी का जीवन जल में कमलवत् सर्वथा निर्लेप था। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की ज्योति, सरलता, कोमलता की साक्षात् प्रतिमा, तात्विक ज्ञान की प्रज्वलित प्रभा, अप्रमत्त साधिकार ज्ञानध्यानजपयोगिनी, सर्वथा निश्छल स्वभाव, दुराव-छिपाव रहित सर्वथा सरल-सहज जीवन था आपश्री का।
उज्ज्वल गेहुंआ रंग, स्मितमयी तेजस्वी मुखाकृति, तप. स्तेज से दीप्त भाल, परमशांत अधखुले नयन, सरल किन्तु तीक्ष्ण नासिका, मध्यम कद, सुन्दर देहयष्टि, अत्यन्त कोमल करतल, शंखावर्त जाप की अभ्यस्त अँगुलियाँ, तर्जनी आदि पर घूमता अँगूठा-ऐसा आकर्षक और प्रभावशाली बाह्य व्यक्तित्व था आपश्रीजी का । जिन्होंने उनके इस रूप को देखा है, आज भी वह उनके नेत्रों में चलचित्र की तरह घूमता रहता है।
संसारी जीवन में भी आप सिर्फ बैलगाड़ी और ऊँट गाड़ी में ही बैठीं । अन्य किसी वाहन का उपयोग ही नहीं किया।
किन्तु संसारी जीवन रहा ही कितना ! ६ वर्ष की आयु में माता-पिता ने विवाह के बंधन में बाँध दिया । लेकिन भावी को तो उनका उत्तम संयमी जीवन मंजूर था। विवाह के छह महीने बाद ही पतिदेव का स्वर्गवास हो गया। ससुर गृह जाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हुआ। १३ वर्ष की किशोर वय में ही स्वनाम धन्या पू. पुण्यश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में भागवती दीक्षा स्वीकार करके संयम के कंटकीय मार्ग पर चल पड़ी । ७० वर्ष तक निर्दोष संयम का पालन किया और ८३ वर्ष की आयु में इस नश्वर शरीर का त्याण कर दिया। .
___ आपश्री की अन्तिम यात्रा में हजारों व्यक्ति सम्मिलित हुए और सश्रद्धा अश्र श्रद्धांजलि समर्पित करके अपने-अपने गन्तव्य स्थानों की ओर चले गये । एक चमत्कार : आँखों देखा
पूज्या प्रवर्तिनीजी के प्रति अनन्य श्रद्धा थी मद्रास निवासी श्रीमान मिश्रीमलजी और उनकी पत्नी की । वे परिवार सहित पूज्याश्री के अन्तिम दर्शनों के लिए जयपुर आये, लेकिन गाड़ी के लेट होने से अन्तिम दर्शन न हो सके । संध्या हो चुकी थी । सीधे मोहनवाड़ी पहुँचे । देखा तो सिर की ओर दिव्य आभा विकीर्ण ज्योति अभो भी प्रज्वलित है जो चारों ओर सुगन्धमय प्रकाश विकीर्ण कर रही है।
इस चमत्कार को देखकर वे अभिभूत हो गये । साध्वियों को जब सुनाया तो सभी श्रद्धावलत हो गई।
पू. प्रवर्तिनीजी के वियोग से संपूर्ण साध्वीमण्डल स्वयं को अनाथ सा अनुभव कर रहा था, सभी को गहरा शोक था। ऐसे समय में पू. श्रीविजयश्रीजी म. सा. पू. श्री कल्याणश्रीजी म. सा, आदि ने सबको धैर्य बंधाया, समवेदना प्रकट की।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्री जयपुर संघ ने पूज्या प्रवतिनीजी के देवलोकगमनोपलक्ष में धूम-धाम से शांतिस्नात्र, महापूजन, अठाई महोत्सव आदि करवाये । अन्य अनेक स्थानों पर भी अठाई महोत्सव हुए।
पूज्या जैनकोकिला विचक्षणश्रीजी को प्रवर्तिनी के पद पर अधिष्ठित किया गया।
चरितनायिकाजी के विशिष्ट गुण-सामान्यतया एक स्थान पर रहने से उस स्थान के प्रति राग हो जाता है और श्रावकगण भी उपेक्षा करने लगते हैं। कहा भी है-अतिपरिचयात् अवज्ञा । लेकिन यह सब विशिष्ट व्यक्तित्व वालों के लिए सत्य नहीं । चरितनायिकाजी विशिष्ट व्यक्तित्व वाली हैं। वे एक स्थान (जयपुर) पर गुरुवर्या की निश्रा में २२ वर्ष तक रहीं, फिर भी श्रावक-श्राविका उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते रहे।
___ इसका कारण रहा, उनके विशिष्ट गुण । आप स्नेह, सरलता, शुचिता, उदारता की प्रतिमूर्ति हैं । जहाँ अन्तो तहा बहिं आदर्श- उनमें मूर्तिमान है । एकान्त में हों अथवा समाज में--सर्वत्र एक समान ही रूप, व्यवहार, आचार-विचार और ज्ञान में, अध्ययन में, जपाराधना में निमग्नता, सर्वथा निखालिस स्वर्ण, दोष, खोट, मल का नाम निशान भी नहीं।।
यही इनकी कुछ विशेषताएँ हैं, जिनके कारण दीर्घकाल तक एक स्थान पर रहकर भी निर्दोष रहीं। वैराग्यवती सुश्री किरण की दीक्षा
श्री कमलचन्दजी सा. बांठिया की सुपुत्री सुश्री किरण वैरागिन के रूप में आपश्री के पास रह रही थी। पू. शशिप्रभाजी म. सा. के साथ ही इसने भो उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर से मैट्रिक की परीक्षा दी थी। गृहस्थाश्रम में कौमुदी और अमरकोश प्रारम्भ कर दिये थे। धार्मिक शिक्षा भी त्वरित गति से हस्तगत कर रही थी। उन दिनों पू. श्री शशिप्रभाजी को संस्कृत का अध्ययन कराने के लिए उद्भट विद्वान पण्डित प्रवर चण्डीप्रसाद आचार्य, जो महाराजा संस्कृत कालेज के प्राचार्य थे व प्रिंसीपल पद पर भी रह चुके थे, वे आते थे ।
उन्हीं की सत् प्रेरणा से उन्हीं के द्वारा किरण ने भी संस्कृत प्रवेशिका को पढ़ाई की और निर्धारित समय में परीक्षा देकर फर्स्ट क्लास मार्क्स प्राप्त किये । उनकी (किरण को) वैराग्य भावना दिनानुदिन अभिवद्धित हो रही थी। पूज्या प्रवर्तिनीजी के स्वर्गवास के वाद उनका आग्रह बहुत बढ़ गया। उनके वैराग्य की कई कठिन परीक्षाएँ भी ली गईं, पर वे उन सब में सफल हुईं।
उनकी दृढ़ता से प्रभावित होकर ताऊजी सुगनचन्दजी बांठिया, पिताजी कमलचन्दजी बांठिया आदि सभी परिवारीजनों ने स्वीकृति प्रदान कर दी।
___ आषाढ़ शुक्ला ६ के दिन तपागच्छीय श्री विशालविजयजी म. श्री राजशेखरजी म. की नित्रा में एवं पूज्याश्री कल्याणश्रीजी म. सा. आदि के सान्निध्य में बाँठिया परिवार ने श्री संघ के सहयोग से त्रिपोलिया स्थित आतिश मार्केट में खूब धूमधाम से विराट समारोह के साथ वि. सं. २०२४ में सुधी किरण की दीक्षा सम्पन्न कराई। पूज्य श्री विशाल विजयजी म. ने सम्पूर्ण क्रिया खरतरगच्छ के अनुसार करवाई । किरण का दीक्षोपरान्त नाम प्रियदर्शनाजी रखा गया और श्री सज्जनश्रीजी की शिष्या घोषित की गयीं।
चातुर्मास अत्यन्त निकट था और बाल साध्वी प्रियदर्शना भी जयपुर की थी, अतः जयपुर संघ के अत्यधिक आग्रह पर चरितनायिकाजी ने सं. २०२४ का चातुर्मास जयार में हो किया। इस चातुर्मास
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खण्ड १ | जीवन ज्योति की विशेषता यह थी कि यह चातुर्मास अपनी जिम्मेदारी पर किया। क्योंकि अब तक के सभी चातुर्मास पू. प्रवर्तिनो श्री ज्ञानश्रीजो महाराज के आदेश से हुए अथवा उनको निथा में हुए।
वीरबालिका विद्यालय की ओर से चरितनायिका जी की दीक्षा रजत जयन्ती एवं विदाई समारोह-चरितनायिकाजी को भागवती दीक्षा ग्रहण किये हुए २५ वर्ष हो रहे थे । इस उपलक्ष्य में वीर बालिका विद्यालय ने कार्तिक सुदी ५ (स्कूल का स्थापना दिवस) को आपश्री की दीक्षा रजत जयन्ती मनाई । आपके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए भावाभिसिंचित अभिनन्दन पत्र भेंट दिया गया।
जयपुर से विदाई चातुर्मास की समाप्ति पर जयपुर श्रीसंघ ने 'शिवजीराम भवन' में विदाई समारोह का आयोजन किया। जिसमें सैंकड़ों व्यक्ति उपस्थित थे। प्रमुख व्यक्तियों ने चरितनायिकाजी के २५ वर्षीय निर्दोष संयमी जीवन पर प्रकाश डाला, आपके विशिष्ट गुणों का वर्णन किया और सद्कामना की कि जयपूर का यह कोहिनूर हीरा दशों दिशाओं में अपनी भव्य आभा विकीर्ण करता रहे।
मंत्रिवरथी कोठारीजी ने संघ की ओर से कमली ओढ़ाकर आपका बहुमान किया, सेठश्री कल्याणमलजी गोलेच्छा ने भी आपको कमली ओढ़ाई । कमला देवी बांठिया ने अपनी सुरीली बुलन्द आवाज में विदाई गीतिका गाई जिसके भाव इतने मार्मिक थे कि उपस्थित जन समूह के नयन सजल हो उठे।
अन्त में सभी के श्रद्धा सुमन स्वीकृत करते हुए आपश्री ने भावोद्गार व्यक्त किये-"इतने समय मैं जयपुर में रही हूँ, किसी प्रकार का अविनय हुआ हो, कटुवचन निकल गया हो, किसी का दिल दुखाया हो तो हृदय से क्षमा प्रार्थिनी हूँ।" ..
तदुपरान्त विदाई समारोह सम्पन्न हो गया।
वहाँ से आप अपनी गरु-बहनों (शीतलश्रीजी, जिनेन्द्रश्रीजी) तथा शिष्याओं (शशिप्रभाजी, प्रियदर्शनाजी) के साथ रामलीला मैदान की ओर पधारी । सैंकड़ों व्यक्ति साथ थे । जयघोषों से धरागमन गूंज रहे थे । रामलीला मैदान में आपने सबको मांगलिक सुनाया। सभी भरे हृदय लिये हुए अपनेअपने गन्तव्य स्थान की ओर चले गये और आपने अपने कदम अजमेर होते हुए नाकोडाजी की ओर बढ़ा दिये । नाकोड़ा जाने का कारण यह था कि पू० अनुयोगाचार्य श्री कान्तिसागरजी म. सा. व पू० श्री दर्शनसागरजी म. सा. की निश्रा में बाड़मेर संघ की ओर से उपधान हो रहा था तथा उनकी आज्ञानसार नूतन साध्वी प्रियदर्शनाजी की बड़ी दीक्षा भी वहीं करवानी थी।
मार्गस्थ अजमेर, ब्यावर, पाली, जोधपुर आदि क्षेत्रों को स्पर्शते हुए तीर्थ शिरोमणि नाकोड़ा के दर्शनार्थ पहुँचे । वहीं वि. सं. २०२४ की माघ कृष्णा एकादशी को उपधान की माला के दिन बड़े ठाठबाट से बड़ी दीक्षा संपन्न हुई नूतन साध्वीश्री प्रियदर्शनाजी म. सा. की।
इस अवसर पर अनेक क्षेत्रों के लोग आये हुए थे । अन्य लोगों से आपकी (चरितनायिकाजी की) प्रशंसा सुनकर और प्रत्यक्ष आपके व्याख्यान आदि से प्रभावित होकर अपने-अपने क्षेत्र में चातुर्मास की आग्रह भरी बिनती करने लगे। किन्तु आपश्री ने बीकानेर चातुर्मास की विनती स्वीकारी। उसका एक कारण यह भी था कि श्री शशिप्रभाजी को 'शास्त्री' की परीक्षा दिलवानी थी और परीक्षा केन्द्र बीकानेर ही था।
नाकोड़ा से माघ शुक्ला ३ के दिन विहार करके जोधपुर पधार गई, अपनी शिष्य-मण्डली के साथ । अनुयोगाचार्यजी भी जोधपुर पधार गये । खण्ड १/७
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
कापरडा संघ जोधपुर निवासी चांदजीबाई सा० की भावना पू० श्री कांतिसागरसूरिजी म० की निश्रा में कापरडा संघ निकालने की थी और पूज्यश्री भी स्वीकृति दे चुके थे। सूरिजी की आज्ञा और चाँदजोबाई सा के अत्याग्रह से कापरडा तक आप सभी साथ रहीं । जोधपुर से आई हुई मुख्य श्राविका भी बीकानेर तक साथ चलने को तैयार हो गयीं।
कापरडा से पूज्य गुरुदेव की आज्ञा लेकर आप सभी पीपाड़, साथीन होते हुए नागौर पधारी । वहाँ पूज्याश्री चंचलजी म० सा०, कमलाश्रीजी म. सा. आदि विराजमान थे। उनकी निश्रा में फागुन शुक्ला ५ को पूज्य कवि सम्राट का स्वर्गारोहण समारोह मनाया और मध्यान्ह में दादा गुरुदेव की पूजा भणाई । वहाँ से विहार कर आप सभी गोगोलाव होते हुए फाल्गुन शुक्ला ११ के दिन गंगाशहर पधारे ।
बीकानेर चातुर्मास सं० २०२५ का आपके बीकानेर आगमन के समाचार त्वरितगति से नगर भर में फैल गये। बड़े धूमधाम से नगर-प्रवेश कराया गया। हजारों लोग साथ थे। जुलूस बाजारों से होता हुआ निकला। चिंतामणिजी व आदेश्वर जी के मन्दिरों के दर्शन किये और शिष्यामंडली सहित रांगड़ी चौक स्थित सुगनजी के उपाश्रय में पहुँचे।
वहाँ आपने जोशीला प्रवचन दिया जिसे सुनकर सभी लोग गद्गद हो गये । प्रतिदिन व्याख्यान का क्रम चालू हो गया।
श्वाश्वत ओली पर्व आने वाला था, अतः आपने श्रीपालचरित्र शुरू कर दिया। समीक्षात्मक विवेचन और सुन्दर वाचन की सभी ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
रामनबमी और महावीर जयन्ती का समारोह हर्षोल्लासपूर्वक मनाया गया तथा चैत्री पूर्णिमा के दिन भी अच्छी तरह पर्वाराधन किया गया।
तत्वज्ञ श्रावकों के आग्रह पर आपने राजप्रश्नीय सूत्र का वाचन किया। आपकी विवेचना शैली से प्रभावित होकर जनता खिची चली आती, उपाश्रय का हॉल भर जाता, कितनी ही श्राविकाएँ तो बराबर के उपाश्रय की खिड़कियों में बैठकर आपका व्याख्यान सुनतीं ।
पूज्या शशिप्रभाजी ने वैशाख के महीने में शास्त्री के प्रथम खण्ड की निविघ्न परीक्षा दी। __ चातुर्मास प्रारम्भ हो गया। आपने आचारांग के वाचन का निर्णय लिया क्योंकि इसमें आचार धर्म का विशद विवेचन है। ज्ञानपूजा के साथ सूत्र का प्रारम्भ हुआ। आपकी व्याख्यान शैली से श्रोता झूम उठते थे । वास्तव में वस्तु का विश्लेषण करने की आप में अद्भुत क्षमता है। इसीलिए गच्छ में आप सर्वोपरि आगमज्ञा कही जाती हैं।
इसी चातुर्मास में आचार्य विजयवल्लभसूरिजी के पट्टधर शिष्य पू० श्री विजयसमुद्रसूरिजी म० सा० अपनी शिष्यमंडली के साथ वर्षावास हेतु बीकानेर पधारे हुए थे। उनके साथ १८ मुनिराज और अनेक साध्वियाँ थीं।
स्व० आचार्य विजयवल्लभसूरिजी म. सा. बड़े ही समयज्ञ, निश्छल और उदार विचारों वाले थे और थे गच्छ भेद भाव से सर्वथा परे । उनकी इस विशाल हृदयता का असर इनके साधु समुदाय पर पड़ा अतः आज भी वे किसी से मिलते हैं तो बड़ा स्नेह व आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करते हैं।
खरतरगच्छ के साधु-साध्वी तो वैसे भी प्रायः सरल हृदयी और व्यवहार कुशल होते हैं । दोनों ओर के परस्पर सद्व्यवहार के कारण आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी व उनके समुदाय का चरितनायिका जो और उनको शिव्यामंडलों के साथ बड़ा हा सोजन्यापू गं व्यवहार था। संपूर्ग चातुर्मास में आचार्यश्री
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
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की वात्सल्यपूर्ण स्रोतस्विनी प्रवाहित रही । प्रत्येक समारोह में वे चरितनायिकाजी को सादर आमन्त्रित करते और अपने व्याख्यान में अपने ही मुख से चरितनायिकाजी की विद्वत्ता और सद्गुणों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते ।
सुनकर लोग चकित रह जाते, सोचते - पूज्यश्री की कितनी उदारता । तपागच्छ में जहाँ श्रावक लोग साध्वी का व्याख्यान भी सुनना पसन्द नहीं करते, वहाँ ये आचार्य होकर भी अन्य गच्छ की साध्वी की प्रशंसा अपने मुख से करते हैं ।
वस्तुतः यह प्रशंसा चरितनायिकाजी के विशिष्ट निर्दोष श्रमणाचार की थी और थी उदारता, सहृदयता, सरलता, प्रकांड विद्वत्ता आदि अलभ्य गुणों की जो इनमें साकार हैं ।
इसी कारण आपका श्रमणी मंडल अत्यधिक समादृत हुआ । प्रत्येक संक्रान्ति समारोह पर चरितनायिकाजी की उपस्थिति अनिवार्य थी ।
एक बार कोचरों के चौक में विराट् रूप में संक्रान्ति महोत्सव का आयोजन था और उसी के साथ था योगोद्वाहक मुनिजनों का पदवी महोत्सव तथा उपधान तप के आराधकों का माल महोत्सव । तीन आयोजन एक साथ होने से विशाल जनसमूह तो एकत्र होना ही था । २०-२५ बसें बाहर से आयीं, इतने ही खुले टिकट आये थे । जयपुर से एक बस पंजाबी समुदाय की आई थी और जयपुर से चरितनायिकाजी की मातुश्री तथा सेठ कल्याणमलजी गोलेच्छा ( चरितनायिका के संसारपक्षीय पति) का भी आगमन हुआ था | बीकानेर के लोग तो थे ही । चालीस हजार श्रोता संख्या हो गई थी ।
इस विशाल जन - मेदिनी में चरितनायिकाजी ने जो जोशीला, प्रभावपूर्ण, धारा प्रवाह भाषण दिया तो सभी श्रोता दाँतों तले अंगुली दबा गये । समझ ही नहीं पाये कि यह साध्वी है अथवा सदेह सरस्वती । कैसी सुरीलो आवाज है मानो सरस्वती की वीगा ही झंकृत हो रही हो, एक-एक शब्द सरस है, गजब का आकर्षण और प्रेषणीयता है । भाषण क्या है ? चमत्कार है, जादू है ।
इस भाषण को सुनकर कल्याणमलजी के नेत्र भी हर्षातिरेक से भर आये और बीकानेर ही नहीं आस-पास के सभी क्षेत्रों में चरितनायिकाजी ख्याति प्रसारित हो गई ।
तेरापंथ के विद्वानमुनि शतावधानी श्रीराजकरणजी व पार्श्वचन्द्र गच्छ के विद्वान मुनि श्री सुरेश चन्द्रजी म० के साथ भी आपके कई भाषण हुए । सर्वत्र आपकी वक्तृत्व कला की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई । चरितनायिकाजी की विशाल हृदयता
चातुर्मास के पश्चात एक बार अपनी शिष्या समुदाय के साथ भीनासर पधारीं । वहाँ पूजा महोत्सव था । उसमें सम्मिलित होने के लिए पू० समुद्रसूरिजी भी अपने शिष्य - शिव्या - मंडल के साथ पधारे थे । पूजा के साथ तपगच्छ संघ की ओर से स्वाधमिवात्सल्य का भी आयोजन था । पूजा समाप्ति पर आप जैसे उठकर जाने लगे कि श्रावकों ने बहरने का अत्यधिक आग्रह किया। आप विचार में पड़ गयीं कि पात्रे तो लाये ही नहीं, बहरें कैसे ?
आपकी त्वरित बुद्धि ने तुरन्त उपाय सोच लिया । तपागच्छीय प्रवीणश्री जी म. सा. आदि से पात्रे लिए और उसके साथ बहरने गईं । आपश्री के हाथ में लाल पात्रे देखे तो पहले तो लोग चकित हुए और फिर आपकी विशालहृदयता का अनुभव करके आनन्दित हो उठे ।
बहरा हुआ आहार तपागच्छीय साध्वीजी के साथ आपने खाया । आपके स्नेह से सभी भूत / आल्हादित हो गये ।
बीकानेर का यह ऐतिहासिक चातुर्मास आज भी लोगों की स्मृति में ताजा है और वहाँ के लोग अब भी दर्शनार्थ आते रहते हैं ।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
वैशाख मास में पू. शशिप्रभाजी म. सा. को शास्त्री द्वितीय खण्ड की परीक्षा देनी थी, अतः चातुर्मास के बाद भी तब तक वहाँ ठहरना पड़ा।
इस बीच बीकानेरवासियों ने दूसरे चातुर्मास की आग्रह भरी विनती शुरू कर दी; किन्तु फलोदी (फलवद्धि) नगरी में विराजित वात्सल्यमयी त्यागमूर्ति श्री चम्पाजी म. सा. का आग्रहपूर्ण आदेश था चातुर्मास हेतु फलोदी आने का।
और चरितनायिकाजी का यह विरल गुण है कि वे बड़ों की आज्ञा अनुल्लंघनीय मानती हैं। इसलिए बीकानेर चातुर्मास की स्वीकृति न दे सकी। अस्वीकृति से बीकानेर संघ को दुःख तो बहुत हुआ पर करते क्या ? आखिर बड़े ही समारोहपूर्वक विदाई दी और साथ ही पुनः पधारने की भावभीनी विनती भी की।
सैंकड़ों नर-नारियों के साथ चरितनायिकाजी ने अपनी शिष्या मंडली सहित फलोदी की ओर कदम बढ़ाये । पहली मंजिल 'नाल' पहुँचे । यह कुशल गुरुदेव का बड़ा ही चमत्कारिक स्थान है। बीकानेर संघ ने यहाँ पूजा और सार्मिवात्सल्य का आयोजन किया था । सर्व कार्य व्यवस्थित सम्पन्न होते ही उस शुष्क मरुधर प्रदेश में ज्येष्ठ मास की भयंकर गर्मी में इतनी तेज वर्षा हुई कि लोग चकित रह गये । कहने लगे-पूज्याश्री ने क्रोध-मान आदि कषायों की आग से तप्त हमारी मानस-भू को शीतल बनाया है, उसी प्रकार प्रकृति ने भी भूमि को ठण्डक प्रदान की है। यह सब पूज्याश्री की साधना का ही चमत्कार है।
उनकी हार्दिक प्रसन्नता इन शब्दों में प्रगट हो रही थी।
दूसरे दिन शीतल सुखद वातावरण में विहार करके आपश्री झज्झू पधारी । वहाँ भी बीकानेर संघ की ओर से स्वामी वात्सल्य था। मध्यान्ह में प्रवचन पीयूष का पान कराकर सबको सन्तुष्ट किया। कइयों ने विभिन्न प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान किये।
। यद्यपि मरुधरा की ज्येष्ठ मास की गर्मी अति भयंकर होती है, उसमें विहार करना अति कष्टप्रद है किन्तु बीकानेर संघ की भक्ति के कारण मार्ग सुखपूर्वक पूर्ण हो गया। सानन्द फलोदी की सीमा में पहुंच गये।
फलोदी चातुर्मास : वि० सं० २०२६ दो-तीन मंजिल पहले ही फलोदी के लोगों का आगमन शुरू हो गया था। साध्वी श्री जितेन्द्र श्री जी म. तथा जिनेन्द्रश्री जी म. एवं सूर्यप्रभाजी म. आदि एक मंजिल तक लेने आई। बड़े हर्षोत्साह के साथ नगरप्रवेश हुआ। जिन-दर्शन-वन्दन बरती हुईं बड़े उपाश्रय पधारों। वहाँ से वात्सल्यसरिता पू. श्री चम्पाश्री जी म. सा., श्री धर्मश्री जी म. सा., श्री रतिश्रीजी म. सा. आदि के दर्शन कर आपने स्वयं को कृतार्थ माना; हृदय आनन्द सागर में निमग्न हो गया। स्वयं पूज्येश्वरी को भी अमित हर्ष हो रहा था। चातुर्मास प्रारम्भ हुआ।
यहाँ के श्रावक तत्वरुचि वाले थे। अतः आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध और 'आराम शोभा चरित्र' प्रारम्भ किया। श्रोताओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ने लगी।
यहाँ आपके अध्ययन-अध्यापन का कार्य भी सुचारु रूप से चल रहा था। मध्यान्ह में सर्व साध्वियों को अनुयोगद्वार सूत्र की वाचना देते और प्रद्युम्न चरित्र पढ़ाते थे।
साध्वी श्री शशिप्रभाजी म. सा. ने पूज्यवर्याओं की निश्रा में मासक्षमण तप प्रारम्भ किया । ५ उपवास के दिन से ही शासनदेवी के गीत प्रारम्भ हो गये । बहनों में बहुत उत्साह था। सेवामूर्ति
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खण्ड १ | जीवन ज्योति जितेन्द्रश्री जी म. सा. तपस्विनीजी की सेवा में संलग्न हो गईं। वे दिन में तपस्विनी जी की सेवा करती और रात्रि में अपनी पूज्याश्री व चरितनायिकाजी की सेवा करतीं। उनकी सेवा भावना से सभी साध्वियाँ अभिभूत थीं।
दुखद प्रसंग यह बना कि शशिप्रभाजी की तपस्या के दौरान ही फलोदी के अग्रगण्य श्रावक श्रीमान गुलाबचन्दजी गोलेच्छा का अकस्मात ही हार्ट फेल हो गया।
इस घटना से तप की पूर्णाहुति पर हर्ष तो कम हो गया पर कार्य सभी किये गये । पंचरंगी तप १५-१६ अठाइयाँ, शंखेश्वर के अट्ठम आदि तथा अठाई महोत्सव, वरघोड़ा, रात्रि जागरण, स्वामि-वात्सल्य के साथ मासक्षमण तप सानन्द सम्पन्न हुआ। पारणा एवं स्वामिवात्सल्य का सम्पूर्ण लाभ पू. शशिप्रभाजी म सा. के संसारपक्षीय भ्राता श्रीमान मूलचन्दजी सा. गोलेच्छा ने लिया।
इसी समय बीकानेर में श्री शशिप्रभाजी द्वारा शास्त्री परीक्षा के दो खण्डों के परिणाम निकले, उनमें आप सैकण्ड डिवीजन में उत्तीर्ण हुईं।
वात्सल्यनिधि पूज्या श्री चम्पाश्री जी म. सा. अपने जीवन के ८० वर्ष और संयमी पर्याय के ६० वर्ष पूर्ण कर चुकी थीं। उनका संयमी जीवन कोरी चादर के समान निर्दोष था । अतः सर्व ज्येष्ठ होने के कारण चरितनायिकाजी ने उन्हें 'समुदायाध्यक्षा' के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा चरितनायिकाजी के द्वारा रचित गीतिका चरितनायिका और उनकी शिष्याओं ने गाया। सुनकर जनता भाव विभोर हो गई।
इस प्रकार नित्य नये कार्यक्रमों के साथ फलोदी चातुर्मास पूर्ण सफल हुआ।
यद्यपि चातुर्मास के पश्चात् फलोदी संघ ने मौन एकादशी तक रुकने का आग्रह किया किन्तु आपको जैसलमेर लौद्रवपुर आदि की यात्रा करनी थी, आपकी भावना से पूज्येश्वरी परिचित थी अतः वे तटस्थ रहीं । आपने फलोदी रुकना स्वीकार नहीं किया और पूज्येश्वरी की आज्ञा तथा संघ की सहमति से विहार कर दिया।
___ विदाई वेला भावविह्वल कर देने वाली थी। पूज्याओं को छोड़ते हुए आपका मन विकल था, जनता के नेत्र तो अध पूरित थे ही। विदा लेकर व देकर आप आगे बढ़ रहे थे, कुछ लोग अब भी साथ चल रहे थे। जितेन्द्रश्री जी म. आदि दो-तीन साध्वियाँ एक मंजिल तक एक साथ आई थीं। वहाँ से जनता तथा साध्वीजी म. वापिस लौट गये । मात्र शशिप्रभाजी म. सा. की बहन तेजाबाई आदि २-३ व्यक्ति मार्ग-सेवा के लिए साथ रहे।
विहार करते हुए आपश्री जैसलमेर की पावन भूमि में पहुँचे और महावीर भवन में विश्राम लिया।
दूसरे दिन आप किले पर पधारी । वहाँ शिखरबद्ध जिन-मन्दिरों के दर्शन से ही हृदय आनन्द विभोर हो गया। शिल्पियों ने अद्भुत कला दिखाई है। अन्दर विराजमान प्रतिमाएँ तो इतनी विशाल
और आकर्षक हैं कि उनकी छवि निरखते हुए न मन थकता है, न नेत्र तृप्त होते हैं, वाणी मूक हो जाती है, बस देखते ही रहो, देखते ही रहो-ऐसी दशा हो जाती है तन-मन-नयन की, सम्पूर्णतः व्यक्ति भक्ति रस में सराबोर हो जाता है।
ये प्रतिमाएँ भी एक-दो नहीं साढ़े छह हजार हैं। दर्शन-वन्दन से तन-मन-नयन तृप्त हो गये। भक्ति रस उमड़ चला।
भंडार देखा तो पूर्णतः व्यवस्थित । पू. श्री पुण्यविजयजी महाराज ने उसे पूर्ण व्यवस्थित करके अमित पुण्योपार्जन किया है ।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी एक और भी वस्तु दृष्टि पथ में आई । बड़ी चमत्कारी। वह है-बड़े दादा जिनदत्त सूरीश्वर जी की चादर । अग्नि संस्कार के समय यह चादर जली नहीं, अग्नि से अप्रभावित रही और आज ६०० वर्ष बाद भी जैसी की तैसी है, न तो मौसम का ही कोई प्रभाव है इस चादर पर और न काल का ही। यह सब पूज्य दादा जिनदत्त सूरीश्वर के निर्मल तप-त्याग-साधना का प्रभाव है, जो उनकी चादर के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहा है ।
इन सब वस्तुओं को देखते हुए आप आठ दिवस तक रुके ।
आठ दिन बाद आप सब समीपस्थ महान तीर्थ लौद्रवपुर पधारे। वहाँ सहस्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु के बिम्ब के दर्शन कर हृदय आह्लाद से भर गया। दर्शन-वन्दन कर नीचे उतर रहे थे तो एक और चमत्कार से साक्षात्कार हो गया।
हुआ यह कि मन्दिर के तोरणद्वार पर लटकते हुए अधिष्ठायक देव की पूछ पू. श्री शशिप्रभाजी म. सा. की कमली पर आ गयी। भारीपन-सा लगा तो सबने मुड़कर देखा तो पूछ लटकती दिखाई दी। भय मिश्रित आश्चर्य के भाव उमड़ने लगे।
इतने में पुजारीजी आ गये। सभी ने एक-डेढ़ मिनट तक अच्छी तरह दर्शन किये। पुजारी चकित स्वर में कहने लगे--महाराज साहब ! आप बहुत भाग्यशालिनी हैं कि अनायास ही इतनी देर तक दर्शन दिये अन्यथा अनेकों प्रयत्न करने पर भी दर्शन नहीं देते।
इस घटना से प्रगट हो जाता है कि सच्चे त्यागी-तपस्वी श्रमण-श्रमणियों को अनायास ही देवदर्शन हो जाता है।
वहाँ से बिहार करके अमरसर के मन्दिर के दर्शन किये। पुनः जैसलमेर पधारीं । वहाँ से बाड़मेर की ओर प्रस्थान किया । पू. चरितनायिकाजी की कमर में वायु का दर्द हो गया था, वहाँ आयुर्वेदिक इलाज कराया। १५ दिन में आरोग्य लाभ करके नाकोड़ा तीर्थ की यात्रा करते हुए जोधपुर आये।
आपके आगमन से जोधपुर की जनता अति प्रसन्न हुई, व्याख्यान का आग्रह किया। चरितनायिकाजी ने जोशीला व्याख्यान दिया। व्याख्यान से प्रभावित होकर जनता ने चातुर्मास का आग्रह किया। लेकिन उससे पहले ही पू. श्री गणाधीश म. सा., अनुयोगाचार्य गुरुदेव व पू. श्री जैन कोकिला का आदेश आ चुका था कि इधर-उधर कहीं चातुर्मास न करके जयपुर होते हुए दिल्ली पधारो।
. अतः जयपुर की ओर कदम बढ़ाये । कापरड़ा, बिलाडा, जैतारण होते हुए ब्यावर पहुँचे । एक दिन ब्यावर रुके। वहीं पर श्रीमान् लालचन्दजी सा. वैराठी जो मालपुरा के व्यवस्थापक थे, मालपुरा मेले में पधारने के लिये विनती करने आये, चूँ कि मेला निकट ही था। मालपुरा तो आपश्री को भी जाना ही था, सहज संयोग मिल रहा था, स्वीकृति दे दी। ब्यावर से मांगलियावास पधारे क्योंकि वहीं से मालपुरा के लिये मार्ग जाता था। संयोग से वहीं तेजबाई मेहता जो चरितनायिकाजी की शिष्या बनने की इच्छुक थीं, आ गई और मालपुरा तक साथ रहीं। गुरुदेव के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा से सभी लोग शीघ्र ही मालपुरा पहुँच गये।।
___ मालपुरा गुरुदेव जिनकुशलसूरीश्वर का न जन्म-स्थान है और न स्वर्गगमन स्थान; आपेतु एक चमत्कारिक स्थान है। यहाँ दादा गुरुदेव ने एक भक्त को दर्शन दिये, उसके बाद कई भक्तों को दर्शन दिये। जिस शिला पर खड़े होकर दादा गुरुदेव ने साक्षात् दर्शन दिये, वह आज चरण के रूप में है।
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खण्ड १ | जीवन-ज्योति
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वहाँ विशाल दादाबाड़ी निर्मित हो गई है और एक ऐतिहासिक स्थान बन गया है। यह स्थान जयपुर से सिर्फ १०० किलोमीटर दूर है। जयपुर वाले प्रति पूनम बस लेकर आते हैं व पूजा, सेवा, रात्रि जागरण, जीमन आदि करते हैं। प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावस के दिन मेले का आयोजन बड़े धूमधाम से जयपुर संघ की ओर से किया जाता है, स्वामि-वात्सल्य भी होता है।
___ इस सब का प्रमुख हेतु है-श्रद्धय दादागुरु जिनकुशलसूरीश्वरजी का कलिकाल में कल्पवृक्ष के समान होना।
ऐसे चमत्कारिक स्थान में पधारने का सौभाग्य चरितनायिकाजी और उनकी शिष्य मंडली को भी प्राप्त हुआ। ५ दिन रुके, पूजा-भक्ति की और श्रद्धा-सुमन अर्पित किये।
जयपुर संघ की आग्रह भरी विनती को स्वीकार करके चरितनायिकाजी जयपुर पधारी । वैराग्यवती तेजबाई साथ थीं। उनकी दीक्षा का मुहूर्त निकलवाया पंडित प्रवर भगवानदासजी के पास तो वि. सं. २०२६ वैशाख कृष्णा दशमी का निकला। दीक्षा की तैयारियाँ होने लगी। इसी बीच शासन प्रभावक पूज्य अनुयोगाचार्य कान्तिसागरजी म. सा. एवं साहित्य शास्त्री श्री दर्शनसागरजी म. सा. कलकत्ते का ऐतिहासिक भव्य चातुर्मास और कलकत्ता संघ की ओर से सम्मेतशिखर तीर्थ पर कराये गये उपधान तप की आराधना खूब धूमधाम के साथ सम्पूर्ण करवाकर मार्गस्थ तीर्थों की यात्रा करते हुए जयपुर पधारे।
चरितनायिकाजी के अत्याग्रह से दीक्षा तक रुकने की स्वीकृति दी। आपश्री की निश्रा में धूमधाम से तेजबाई की दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षोपरान्त नाम दिया गया 'जयश्री' और चरितनायिका पू. सज्जनश्री जी की शिष्या घोषित की गईं।
पू. गुरुदेव को पालीताणा पहुंचना था अतः उसो सन्ध्या को जयपुर से विहार कर दिया ।
चरितनायिकाजी पन्द्रह दिन जयपुर में और रुके । ज्येष्ठ मास शुरू होने वाला था, गर्मी अपना प्रकोप दिखा रही थी किन्तु चातुर्मासार्थ पहुंचना ही था। अतः वैशाख शुक्ल १० को ही विहार कर दिया। मार्गस्थ बैगट (प्राचीन मत्स्यदेश की राजधानी--विराटनगर) में अति प्राचीन मन्दिर के दर्शन किये। मन हर्षित हो गया। वहाँ से अलवर पहुँचे। वहाँ भी रावण पार्श्वनाथ (अति प्राचीन) मन्दिर में अवस्थित विशाल प्रतिमा के दर्शन करके मन झूम उठा । वहाँ से प्रस्थान कर दिल्ली के समीप महरोली में पहुंचे।
___ महरौली मणिवारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि का अग्नि संस्कार स्थान है। उस युग में दिल्ली यहीं बसी हुई थी। उस समय यहाँ माणक चौक था, जिस स्थान पर आज गुरुदेव का स्थान बना हुआ है। पूज्य दादा गुरुदेव ने अपने ज्ञान बल से अपना अन्तिम समय जानकर भक्तों से कहा कि मेरी बैकुण्ठी (रथी) को बीचवासा मत देना। लेकिन शोकाकुल भक्त गुरुदेव के वचनों को भूल गये, बीचवासा दे दिया। बस, फिर क्या था? सैंकड़ों व्यक्ति लग गये फिर भी रथी टस से मस न हुई। हाथी लगाया, उसका बल भी विफल हो गया। तब तत्कालीन दिल्ली नरेश अनंगपाल ने वहीं अग्नि संस्कार की आज्ञा दे दी। अग्नि संस्कार हुआ और भक्तों ने वहीं स्तूप बनवा दिया। वही स्थान आज दादाबाड़ी के रूप में है। यहाँ प्रतिवर्ष भादवा शुदी ८ को मेला लगता है।
अपनी शिष्या मंडली के साथ चरितनायिकाजी यहाँ दो दिन रुकी, दिल्ली के गण्यमाण्य श्रावक भी आ गये थे। पूजा का खुब ठाठ रहा, आने-जाने वालों का मेला-सा लगा रहा।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
यहाँ से चार माईल दूर छोटी दादाबाड़ी पधारे। यहाँ जैन श्रावकों के अनेक घर हैं । अब तो वहाँ सन्त-सतियों के चातुर्मास भी होते हैं। आप भी वहाँ १५ दिन रुके। यहाँ आपकी संसार पक्षीय भुवासासु (कोटा वाली सेठानी गुलाबसुन्दरी) का 'केसर पोट्रो' के नाम से विशाल स्थान है और निवास स्थान भी। उनके आग्रह से दो दिन वहाँ ठहरे ।
सं० २०२६ का दिल्ली चातुर्मास दिल्ली संघ ने बड़े धर्मोत्साह और धूमधाम से नगरप्रवेश कराया। लाल किले के पास दिल्ली श्रीसंघ स्वागतार्थ उपस्थित था । चाँदनी चौक से नई सड़क होते हुए नौघरा के मंदिर पहुंचे, दर्शनवन्दन किये, फिर भोपुजरा धर्मशाला पधारे। वहीं आपका मंगल प्रवचन हुआ तथा प्रभावनादि का वितरण भी हुआ । फिर तो नित्य प्रवचन का क्रम शुरू हो गया। आपकी साहित्यिक, परिमार्जित भाषा शैली से जनता मन्त्र मुग्ध-सी बन जाती ।
इसी चातुर्मास में आपने श्रीमद् देवचन्द्रजी म० द्वारा रचित 'अध्यात्म प्रबोध' (इसका अपरनाम देशनासार है) का अति सुन्दर अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जिसकी प्रथमावृत्ति तो छप चुकी है और द्वितीया वृत्ति प्रेस में है।
राष्ट्रीय स्तर पर मणिधारी दादा की अष्टम शताब्दी समारोह की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं । प्रचार-प्रसार भी उत्साह से हो रहा था । भारत के प्रमुख समाचार-पत्रों और जैन समाज की सभी पत्र-पत्रिकाओं में समाचार प्रसारित किये गये, विदेशों को भी भेजे गये । दिल्ली सेन्टर होने के कारण एक लाख व्यक्तियों के आने की आशा थी। दिल्ली संघ में जैसा उत्साह था, कार्य शैली उतनी ही उत्तम थी, सभी कार्य सुचारु रूप से हो रहा था।
शताब्दी समारोह में सम्मिलित होने के लिए खरतरगच्छ के सभी साधु-साध्वियों को आमंत्रित किया जा चुका था।
चरितनायिका जी दादा गुरुदेव का जीवन चरित्र लिख रही थीं साथ ही गुरु स्तवन भी । दोनों ही पुस्तकें समय से छप गयी थीं।
आप प्रथम बार ही दिल्ली पधारे थे अतः चातुर्मास के पश्चात हस्तिनापुर प्रस्थान किया, इसका एक कारण यह भी था कि शताब्दी समारोह चैत्र मास में होना था । हस्तिनापुर की यात्रा करके आप दिल्ली पुनः पधार गये ।
पालीताना से उग्र विहार करते हुए सर्वप्रथम पू० अनुयोगाचार्य श्री कान्तिसागर जी म. सा. एवं श्री दर्शनसागरजी म. सा. फागुन शुरू होते ही पधार गये और लाल धर्मशाला में ही विराजे । उनकी निश्रा में नूतन साध्वी जी की बड़ी दीक्षा फागुन सुदी ११ को धूमधाम से सानन्द सम्पन्न
मणिधारी अष्टम शताब्दी समारोह । चैत्र प्रारम्भ होते-होते पूज्य प्रवर श्री उदयसागरजी म. सा., श्री प्रभाकरसागरजी म. सा., श्री महोदयसागरजी म. सा., श्री तीर्थसागरजी म० सा०, श्री कैलाशसागरजी म. सा. आदि भी पधार गये और जैन कोकिला श्री विचक्षणश्री जी म. सा भी अपनी शिष्या मंडली सहित यथासमय पधार गयीं । अन्य साधु-साध्वीजी महाराज आदि भी उचित समय पर पधार गये ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
महरौली में ही विशाल मणिधारी नगर बसा था । दिल्ली संघ ने आवास निवास की समुचित व्यवस्था की थी । आगन्तुकों का जैसा प्रेमपूर्ण स्वागत किया था, वह आज भी स्मरणीय है । (विशेष विवरण अष्टम शताब्दी समारोह पत्रिका में दिया गया है - जिज्ञासु वहाँ देखें ।)
यद्यपि हम लोगों का विचार बनारस जाने का था पर निमित्त ऐसा बना कि पुनः हस्तिनापुर जाना पड़ा । कारण था - वर्षीतप का पारणा । यहाँ पर श्री चन्द्रप्रभाजी, मुक्तिप्रभाजी, विजयप्रभाजी, ज्योतिप्रभाजी एवं निरंजनाश्रीजी आदि ५ के वर्षीतप चल रहा था । हस्तिनापुर दिल्ली से सिर्फ ६० माइल दूरी पर है और यहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का प्रथम पारणा हुआ था अतः सभी की भावना हस्तिनापुर पारणा करने की थी । वैशाख सुदी ३ ( अक्षय तृतीया) का दिन भी समीप था और जैन कोकिला पू० श्री विचक्षणश्री का आमन्त्रण भी । अतः पुनः हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया ।
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पूज्य उदयसागर जी म. सा. पू० अनुयोगाचार्य श्री कान्तिसागर जी म. सा. आदि तथा सर्व साध्वीमंडल एवं कई श्रावक-श्राविकाएँ दिल्ली से प्रस्थान करके गाजियाबाद पधारे । यहाँ भी मंदिर की प्रतिष्ठा करवानी थी । अतः गाजियाबाद संघ के आग्रह से पू० अनुयोगाचार्य जी म० सा० वहीं रुके ।
आपश्री सर्व संघ के साथ हस्तिनापुर पहुँचे । अक्षय तृतीया के दिन सभी तपस्विनी बहनों का पारणा हुआ । बड़ी पूजाएँ आदि रखी गई। पूज्या श्री मनोहरश्रीजी व मुक्तिप्रभाजी के भाई ने पारणे के अवसर पर भजन गाकर भक्ति रस साकार ही कर दिया ।
वैशाख शुक्ला ४ के दिन चन्द्रप्रभाजी की मातुश्री धापूबाई की दीक्षा पू० गुरुदेव की निश्रा में सम्पन्न हुई। उन्हें वर्द्धमानश्रीजी नाम दिया गया ।
वैशाख शुक्ला ५ को यहाँ से विहार किया । प्रमोद श्रीजी की शिष्या श्री चन्द्रोदयश्री जी एवं स्वयंप्रभाश्री जी भी सम्मेत शिखर जी तीर्थों की यात्रा हेतु साथ हो गई । बुलन्दशहर, एटा, अलीगढ़ होते हुए काम्पिलपुर तीर्थ गये । यहाँ विमलनाथ तीर्थंकर के तीन कल्याणक हुए हैं। दर्शन किये । चित् प्रसन्न हुआ । आगे बढ़कर कानपुर पहुँचे । वहाँ पृ० श्री भुवनभानुविजयजी म. सा. के आनन्दपूर्वक दर्शन किये। पूज्यश्री संयम तप की साक्षात प्रतिमा हैं । सब मन्दिरों के दर्शन किये । ८ दिन ठहरे । यद्यपि जाना तो बनारस था पर समय कम था वर्षा भी शुरू हो चुकी थी अतः लखनऊ की ओर प्रस्थान किया । लखनऊ से एक-डेढ़ किलोमीटर दूर एक धर्मशाला में विराजे ।
लखनऊ में जयपुर निवासी सेठ श्री हमीरमलजी साहब गोलेच्छा की पौत्री और श्री मनोहर लाल जी की सुपुत्री माणकबाई का ससुराल था । वे जब भी जयपुर आतों चरितनायिका जी से लखनऊ फरसने की भावभरी विनती करती और चरितनायिका जी वर्तमान योग अथवा यथायोग छोटा सा उत्तर दे देतीं ।
इस बार सहज ही संयोग बन गया लखनऊ आने का । साथ वाले भाई को माणकबाई के नाम पत्र दिया । पत्र मिलते ही माणकबाई हर्षाश्चर्य मिश्रित भाव हृदय में लिये आईं । चरितनायिका जी के दर्शन-वन्दन किये। हर्ष से नेत्र सजल हो गये। सभी साध्वियों के दर्शन-वन्दन किये, सुख- साता पूछी और लौटकर लखनऊवालों को आपश्री के आगमन के समाचार दिये । उनके तो मन मयूर ही नाच उठे । बड़े उत्साह और धूमधाम से नगर प्रवेश कराया ।
खण्ड १/७
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
लखनऊ चातुर्मास : सं० २०२८ मार्ग में जिनमन्दिर के दर्शन करते हुए शांतिनाथ जी की धर्मशाला में पधारी, वहाँ आपश्री ने ओजस्वी वाणी में मांगलिक प्रवचन दिये । लोग आश्चर्याभिभूत हो गए।
लखनऊ में कुल ३५ घर हैं लेकिन प्रायः सभी सम्पत्ति और सन्मति से युक्त । धर्मोत्साह के साथ चातुर्मास प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान शृंखला शुरू हुई । प्रभु पूजाएँ, दादागुरु पूजाएँ आदि कार्यक्रमों से चातुर्मास सफलता के सोपान चढ़ने लगा। मेघधाराओं के समान त्याग-तपस्याओं की झड़ियाँ लग गई। लखनऊवालों में अत्यधिक उत्साह था। ८, ९, ११, २१ आदि की तपस्याओं का ठाठ लग गया। कोई घर ऐसा न बचा जहाँ एक-दो अठाइयाँ न हुई हों। पूजाएँ व स्वधर्मी-वात्सल्य की तो धूम ही मची रही, सम्पूर्ण चातुर्मास में।
इंगलिश में निष्णात श्री जोगेश्वर मास्टर सा० शशिप्रभाजी व प्रियदर्शना को इंगलिश पढ़ाने आते थे। वे भी अत्यन्त प्रभावित हुए, कहते थे-महाराजश्री की दृष्टि में अद्भुत शक्ति है जिसकी ओर भी शांत-स्नेहसिक्त दृष्टि से देख लें, वही निहाल हो जाय ।
पूज्याश्री मध्यान्ह में अपनी शिष्याओं को आचारांग सूत्र की वाचना देती थीं, अन्य भी सुनने आते थे । सुश्रावक अमोलकचन्द जी सा. के आग्रह से 'पुण्यप्रकाश' स्तवन का हिन्दी अनुवाद भी आपने किया।
लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और अयोध्या तीर्थ के समीप है, अतः साधु-साध्वियों का आगमन होता रहता है, धर्मभावना अच्छी है फिर भी चातुर्मास बहुत कम होते हैं । लेकिन आपका यह चातुर्मास सभी दृष्टियों से सफल रहा।
चातुर्मास के उपरान्त शिष्या मंडली सहित अयोध्या तीर्थ की ओर गमन किया। विहार का सारा लाभ माणकबाई सा. की सासु ने लिया । रत्नपुरी पहुंचे । यह भ० धर्मनाथ की कल्याणक भूमि है। लखनऊ के लोग यहाँ आते रहते हैं। इस बार स्वधर्मी-वात्सल्य का आयोजन किया गया। कार्य की समाप्ति पर हमने अयोध्या की ओर प्रयाण किया । मार्ग में फैजाबाद मंदिर के दर्शन करते हुए अयोध्या पहुंचे।
विभिन्न प्रदेशों की तीर्थ-यात्राएँ अयोध्या-यह नगरी अत्यन्त प्राचीन है । आज श्रीराम जन्मभूमि के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु असंख्य वर्ष पहले भगवान ऋषभदेव ने जन्म लेकर इस नगरी को धन्य बनाया था। ऋषभदेव पहले राजा, पहले योगी और पहले तीर्थंकर थे । उनसे पहले युगलिक युग था। उन्होंने ही मानव को सर्वप्रथम असि, मसि, ललित कलाओं तथा अन्य सभी प्रकार का ज्ञान कराया, गणित-विद्या और लिपिविद्या के पुरस्कर्ता भी वे ही थे । एक शब्द में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति के जनक थे ऋषभदेव ।
ऐसी महान नगरी में पहुँचे, मन्दिरों की दशा देखकर दुःख हुआ। मुस्लिम काल में मन्दिर और मूर्तियों को तोड़कर मस्जिदें बना ली गईं। धार्मिक मतान्धता थी यह ।
इस स्थिति को देखकर मन खिन्न हो गया । यहाँ से विहारकर कन्नौज आदि होते हुए वाराणसी पहुंचे।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
तीर्थभूमि वाराणसी-यह नगरी तेईसवें तीर्थंकर पार्श्व प्रभु की जन्मस्थली है। गंगा-किनारे बसी हुई है । यहाँ कई जिनमन्दिर और दादावाड़ियाँ हैं । भेलूपुर (भगवान पार्श्वनाथ की जन्मस्थली) में प्रतिवर्ष पौष वदी १० (पार्श्व प्रभु का जन्म दिन) के दिन मेला भरता है, साथ ही प्रभुपूजा और स्वधर्मीवात्सल्य भी होता है।
हम लोगों ने भी पोष बदी दशमी का मेला यहीं किया।
वाराणसी में हिन्दुओं का भी तीर्थ है। यहाँ हिन्दुओं के भी मन्दिर हैं । विश्वनाथ का मन्दिर अति प्रसिद्ध है।
वाराणसी प्राचीनकाल से विद्या का केन्द्र रहा है। संस्कृत भाषा के अनेक श्रेष्ठ विद्यालय हैं। यथा-संस्कृत विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, पार्श्वनाथ विद्याश्रम आदि । भारत के दूरस्थ प्रान्तों के निवासी संस्कृत अध्ययन के लिए आते हैं । एक जैन यूनिवर्सिटी है, जहाँ से कई लोग पी-एच. डी. करते हैं।
हम लोग जैन भवन में रुके । उन दिनों बंगला देश का युद्ध चल रहा था। अतः श्रावकों के आग्रह से १५ दिन वहीं रुके । इस बीच सिंहपुरी, चन्द्रपुरी आदि कल्याणक भूमियों की यात्रा की । वहाँ के तपागच्छ मुनिराज की निश्रा में संघ निकल रहा था । अतः हमें भी आमन्त्रित किया गया । हमें भी यात्रा करनी थी, हो लिए उनके साथ । 'संगच्छत्वं' का सूत्र सामने था।
चन्द्रपुरी के पहले सिंहपुरी आता है, यह शहर से लगभग ६-१० किलोमीटर दूर है । बनारस में गाँधी परिवार की कोठी है, फार्म भी है । उनकी ओर से चाय-नाश्ता आदि की व्यवस्था थी। सिंहपरी में भ० श्रेयांसनाथ के च्यवन, जन्म, दीक्षा तीन कल्याणक हुए हैं। विशाल मन्दिर व धर्मशाला है।
पास ही सारनाथ है, यह ऐतिहासिक बौद्धस्थल है, अनेक बुद्ध मन्दिर हैं । सिंहपुरी के निकट के मगदाव वन में ध्वंसावशेष हैं। इनमें सम्राट अशोक द्वारा बनवाया हुआ धर्मचक्र है, जो आधुनिक भारत का राजचिन्ह है । कई बौद्ध मन्दिर, मठ, विद्यापीठ भी दर्शनीय हैं।
दूसरे दिन चन्द्रपुरी पहुंचे। यहाँ भ. चन्द्रप्रभु के तीन कल्याणक हुए हैं।
पुनः बनारस लौटे । राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद सपरिवार यहीं रहते थे। ये पूज्याश्री के संसारपक्षीय सम्बन्धी भी हैं । उनके अत्यधिक आग्रह को स्वीकार करके एक दिन उनकी सेवाभक्ति भी स्वीकार की।
बनारस से बिहार कर हम लोग पटना पहुँचे ।
पटना-यह एक ऐतिहासिक नगरी है। पाटलिपुत्र, कुसुमपुर आदि नामों से प्राचीनकाल में प्रसिद्ध रहा है। महाराज श्रेणिक के पौत्र उदयन ने इसे बसाया और नन्द सम्राटों, चन्द्रगुप्त मौर्य, प्रियदर्शी सम्राट अशोक, जैन सम्राट सम्प्रति आदि की राजधानी रही है । पाटलिपुत्र भारत के इतिहास, संस्कृति के निर्माण और विध्वंस में भी प्रमुख भूमिका बना है।
यहीं भावी तीर्थंकर पद्मनाभ का विशाल मन्दिर है और समीप ही धर्मशाला है । वहीं हम लोग ठहरे । वहाँ पर स्थानीय व बाहर से आये हुए लोगों के घर हैं। स्थूलिभद्र और सुदर्शन सेठ भी वहीं के थे । शहर के बाहर उनका स्थान बना हुआ है, जहाँ उनके चरण स्थापित हैं।
हम लोग लगभग ८ दिन रहे । गुरुवर्याश्री के मार्गदर्शन में प्रायः सभी दर्शनीय ऐतिहासिक स्थल देखे, जिनसे हमारे धर्म की प्राचीनता और जैनसंस्कृति के अवशेष परिलक्षित होते थे। गुरुवर्या के
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
मुख से उन स्थानों की ऐतिहासिकता सुनकर ज्ञानवृद्धि हुई। सांस्कृतिक गौरव का एक चित्र सामने आया।
वहाँ से नालन्दा कुण्डलपुर की ओर कदम बढ़ाए।
नालन्दा-भगवान महावीर के समय यह राजगृही नगरी का उपनगर था। बाद में यहाँ विश्वविख्यात नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित हुआ जहाँ अनेक विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे, अब तो ध्वंसावशेष मात्र ही हैं, बौद्धविहार भी खण्डहर हो चुके हैं। 'नया पाली विश्वविद्यालय' भी देखा । एक बौद्ध मठ ऐसा देखा जिसमें १२५ वर्ष के बौद्ध साधु थे, वे बड़े सरल हृदयी व प्रज्ञाचक्षु थे।
कुण्डलपुर-यहाँ आदिनाथ भगवान की केशों वाली विशाल मूर्ति है । इस प्राचीन मूर्ति के दर्शन करके मन प्रफुल्लित हो गया । बगीची में छोटी-सी दादाबाड़ी भी है।
राजगह-यह महाराज श्रेणिक की राजधानी रही है। इसके उपनगर नालन्दा में भ० महावीर ने १४ चातुर्मास किये थे तथा यही बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवल ज्ञान कल्याणक की पावन भूमि है । यहाँ विशाल जिनमन्दिर, धर्मशाला व भोजनशाला है।
शिखरबद्ध विशाल मन्दिर में श्यामवर्णी भ० मुनिसुव्रत नाथ की विशाल प्रतिमा के दर्शन पाकर मन आनन्दसागर में निमज्जित हो गया । पूज्या गुरुवर्या तो प्रायः ध्यानस्थ हो जातीं। उनकी ऐतिहासिकता बताकर हमारे ज्ञान में भी वृद्धि करतीं । वास्तव में प्राचीन तीर्थस्थानों का सही आनन्द वही अनभव कर सकता है, जो उनकी ऐतिहासिकता का जानकार हो तथा जिसकी नजर कला-पारखी और हृदय सौन्दर्य में रस लेने वाला हो ।
ये तीन भूमियाँ आज भी हमें मन की पवित्रता और भक्ति-लीनता को प्रेरणा दे रही हैं। पूज्या गुरुवर्या के साथ हमने उदयगिरि विपुलगिरि आदि पाँचों पहाड़ों की यात्रा की ।
स्थानकवासी प्रसिद्ध मुनि जयन्तीलालजी अपनी शिष्य मंडली सहित अपने गुरुदेव श्रीजीवनलाल जी म० का स्वर्गारोहण दिवस मनाने आये हुए थे। हम लोगों को भी जयन्ती दिवस तक रुकने का आग्रह किया गया । तीसरे पहाड़ के नीचे स्वर्गस्थान पर समाधि बनी हुई है, वहीं आयोजन था। बौद्ध फ्यूजी गुरु भी आये हुए थे। हम लोग इस आयोजन में सम्मिलित हुए। सभी के भाषणों के बाद गुरुवर्याश्री का भाषण हुआ। भाषण इतना जोशीला, सरस और आकर्षक था कि सभी श्रोताओं ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
नजदीक ही शान्तिस्तूप पर्वत है, वहाँ इलैक्ट्रिक रोप लगी हुई है, तथागत बुद्ध का चतुर्मुखी स्टेच्यू है, चारों ही ओर अलग-अलग पोज में बुद्ध-मूर्तियाँ हैं । सैकड़ों व्यक्ति देखने के लिए देश-विदेश से आते हैं।
यहाँ से बिहार करके पावापुरी आये।
पावापुरी--- यह भगवान महावीर के प्रथम समवसरण, तीर्थस्थापन और निर्वाणभूमि है । पावापुरी में प्रवेश करते-करते मन-मस्तिक २५०० वर्ष पीछे पहुंच गया। भगवान महावीर की स्मृति मानस पटल पर तैरने लगीं।
. जलमन्दिर को देखकर भगवान की पार्थिव देह का अग्नि संस्कार स्थल दृष्टि में नाच उठा। किंवदंती है कि भगवान के अग्नि संस्कार के उपरान्त देवी-देवताओं, मानवों द्वारा अत्यधिक भस्मी ले
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खण्ड १ | जीवन ज्योति जाने से यहाँ गड्ढा हो गया, उसी ने पानी भरने से तालाब का रूप ले लिया । तालाब के बीच मन्दिर में भगवान के चरण प्रतिष्ठित हैं । निर्वाण के समय जब भगवान के लड्डू-चढ़ता है तो चरणों के ऊपर जो व्त्र लगा है, वह एक मिनट तक हिलता रहता है, ऐसा लोग कहते हैं ।
जलमन्दिर बड़े सुन्दर ढंग से बना हुआ है, चारों ओर गुरुदेव के चरण-बीच में भगवान की छतरी। आने-जाने के लिये चारों ओर से मार्ग । भावपूर्वक दर्शन करके हम सभी ने स्वयं को धन्य माना।
गरुवर्याश्री के हार्दिक उद्गार निकले-भगवान जिस समय जीवित थे, उस समय तो हम जाने कहाँ होंगे ? यदि मन से भगवान की वाणी सुनी होती तो इस पंचम काल में क्यों आते ? वे लोग धन्य हैं जिन्होंने प्रभु के मुखारविंद से निकली अमृतोपम वाणी का साक्षात् पान किया, हृदयंगम किया और तदनुरूप आचरण में संलग्न हो गये। फिर भी हम लोग भाग्यशाली हैं कि हमें जैनधर्म और संयमी जीवन प्राप्त हुआ तथा इन तीर्थों की यात्रा करने का सुयोग मिला।
वहाँ से हम लोग गाँव मन्दिर गये, दर्शन किये और तदुपरान्त मुनीमजी की आज्ञा लेकर विश्राम हेतू ठहर गये। वहाँ समवसरण मन्दिर गये । पहले तो वहाँ चरण कमल ही थे, अब तो विशाल समवसरण की अनुकृति हो गई है। चतुर्मुख भगवान द्वादश परिषद को प्रवचन फरमा रहे हैं, ऐसा तीन गढ़ वाला मन्दिर निर्मित हो गया।
गुरु गौतम का कैवल्य स्थान गुणायाजी-गुरु गौतम (इन्द्रभूति गौतम) भ. महावीर के प्रथम पट्टधर शिष्य, १४००० श्रमणों के नायके, अक्षीण महानस आदि अनेक लब्धियों के धारक और भगवान के प्रति प्रशस्त अनुराग वाले थे। यह अनुराग उनके कैवल्य में बाधक बना हुआ था, क्योंकि कैबल्य की प्राप्ति राग-दोष-दोनों के क्षय होने पर ही होती है। इसीलिए भगवान ने उन्हें देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिये गुणायाजी भेजा था। भगवान को निर्वाण हो गया। देव-दुन्दुभी के स्वर सुनकर गौतम स्वामी को भगवान के निर्वाण के विषय में ज्ञात हुआ, बहुत दुःख हुआ उन्हें; किन्तु दूसरे ही क्षण सुप्त ज्ञान-विवेक जाग उठा, राग-पलायन कर गया, प्रशस्त मोह की जंजीरे टूटी, कैवल्य भानु जगमगा उठा । ऐसे गुरु गौतम स्वामी के दर्शन कर हम कृतकृत्य हो गये।
वहाँ से विहार करके क्षत्रियकुण्ड ग्राम पहुँचे।
क्षत्रियकुण्ड ग्राम -भगवान महावीर की जन्मस्थली है। यहाँ सात पहाड़ों के मध्य अत्यन्त सन्दर जिनालय है। इसमें श्याम वर्णी भ. महावीर की प्रतिमा इतनी मनोहर है कि दृष्टि हटाये नहीं हटती, साथ ही इतनी सचिक्कण भी है कि सैकड़ों घड़े पानी डालने पर एक बूंद भी न ठहरे। इस मूर्ति के विषय में प्रसिद्ध है कि इस प्रतिमा का निर्माण भगवान के बड़े भाई नन्दीवर्धन के द्वारा भगवान के (जीवन-काल) में ही कराया गया था।
इस प्रतिमा के दर्शन-वन्दन करके तन-मन विभोर हो गये। वहाँ से समीपस्थ ही काकन्दी पहुँचे ।
काकन्दी-यह भगवान सुविधिनाथ के च्यवन, जन्म और दीक्षा कल्याण की पावन भूमि है। धन्ना अनगार, जिनके विशिष्ट तप की प्रशंसा स्वयं भ. महावीर ने की, वे भी इसी नगरी के गौरव थे । यहाँ से विहार करके जमुही पहुँचे ।
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[ जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
विहार यात्रा में पूज्याश्री का उत्साह गजब का रहा । ६५ वर्ष की आयु फिर भी युवाओं जैसी स्फूर्ति । तीर्थों के दर्शन-वन्दन करते-करते आत्मविभोर बन जातीं । उत्साह इतना कि लम्बी-लम्बी यात्राएँ करने पर भी नाममात्र को थकान नहीं, मुख पर सदा प्रसन्नता के दर्शन होते ।
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यहाँ से चम्पापुरी की ओर विहार किया । मार्ग में शैवों की तीर्थ नगरी वैद्यनाथ पड़ा । यहाँ कामना पूर्ति के बाद भक्तजन दण्डवत् यात्रा करते हैं । हमने भी देखा ।
चम्पापुरी - यह बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य की पंचकल्याणक स्थली है । सम्राट श्रेणिक की मृत्यु के बाद अजातशत्रु ने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया । भ० महावीर की ३६००० श्रमणियों की नायिका सती चन्दनबाला भी यहीं की राजकुमारी थी । कच्चे सूत और चलनी से जल निकालकर शीलधर्म की जयपताका फहराने वाली सती सुभद्रा भी यहीं की है। इस प्रकार इस नगरी से कई ऐतिहासिक, पौराणिक प्रेरक घटनाएँ जुड़ी हैं ।
अत्यन्त सुन्दर जिनालय और समीपस्थ सुव्यवस्थित धर्मशाला है । जिनालय में भगवान दासुपूज्य की मनोरम मूर्ति के भावपूर्वक दर्शन किये ।
निकट स्थित नाथनगर पहुँचे । वहाँ बाबू रायकुमारसिंह जी की हवेली में रुके ! ऊपर ही जिनमन्दिर था ।
श्री रायकुमारसिंह जी की धर्मपत्नी सज्जनबाई सा. जयपुर के भांडिया परिवार की लड़की हैं। और बाल-सहेली हैं पूज्या गुरुवर्या श्री की, जो बारह व्रतधारी श्राविका हैं । हमारे अप्रत्याशित आगमन को जानकर हर्ष से भर गईं। उनके आग्रह से दो-तीन दिन रुके। हमें फाल्गुन चौमासा - होली पर्व - प शिखरजी पहुँचना था अतः शिखरजी की ओर प्रस्थान कर दिया ।
पर
बिहार - अतीत युग में बहुत उन्नत प्रदेश था । तीर्थंकरों के अधिकांश कल्याणक इसी प्रदेश में हुए हैं। तीर्थंकरों, श्रमण-श्रमणियों के सतत विचरण से - उनके धर्मोपदेश से पावन बना हुआ । बौद्ध विहारों, मठों की अधिकता से इसे बिहार नाम प्राप्त हुआ था ।
लेकिन आज स्थिति बिल्कुल ही विपरीत है। हिंसा का साम्राज्य छाया हुआ है, चोर-पल्लियाँ हैं, जन-जीवन असुरक्षित है, सवर्ण और असवर्णों के संघर्ष होते रहते है । काम-धन्धे, व्यापार आदि का HIT हो गया है । खेती बाडी भी स्त्रियाँ करती हैं, पुरुष तो ताड़ी पीकर पड़े रहते हैं । मद्य माँ आदि का प्रयोग खूब होता है। मछली पकड़ने का धन्धा आम हो गया है। छोटे-छोटे बच्चे भी मछली पकड़ने में चतुर हैं। कुल मिलाकर यह प्रदेश अवनत स्थिति में है। बिहार अपने प्राचीन संस्कृति एवं गौरव को खो चुका है ।
विहार करते-करते हम लोग ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ तीर्थराज सम्मेतशिखरजी स्पष्ट दिखाई पड़ता है | सबसे ऊँची टोंक भ० पार्श्वनाथ की है। जैसे ही उसके दर्शन हुए सिर श्रद्धा से झुक गये और हाथ मुक्तशुक्ति मुद्रावत् बन गये ।
गुरुवर्याजी ने 'बीस कोस से शिखर देख्यो' इस मधुर, सरस स्तवन कड़ी से हम लोगों का ध्यान आकर्षित किया । कितना सत्य कहा है स्तवनकार ने, अभी सम्मेत शिखर बीस कोस दूर था कि फिर भी वहीं से हम लोगों को शिखर के दर्शन हो रहे थे । दर्शन करते ही हृदय में जैसे नव स्फूर्ति और उल्लास
भर आया ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
गिरिडीह होते हुए भ. महावीर के कैवल्यप्राप्ति स्थल ऋजुबालुका तट पर स्थित बराकड़ तीर्थ पहुँचे । केवलज्ञान भूमि के दर्शन किये । फिर सम्मेत शिखर की उपत्यका (तलहटी) में स्थित मधुवन में प्रवेश किया।
प्रथम बार गिरिराज के दर्शन करके पूज्या गुरुवर्या जी (और हम सब भी) बहुत आनन्दित हो रही थीं। हर्ष ऐसा जैसे जन्म-जन्म की साध पूरी हो गई हो।
तीर्थ के मुख्य द्वार के पास ही तीर्थाधिष्ठायक भौमियाजी की बड़ी, भव्य, विशाल और तेजस्वी मूर्ति है । मन्दिर भी बड़ा कलात्मक और मनोहारी है। आगे बड़ी विशाल थर्मशाला है । वहाँ योग्य, व्यवस्थित स्थान देखकर हम लोगों ने विश्राम किया।
तीर्थाधिनायक भ० पार्श्वनाथ की भव्य प्रतिमा के दर्शनकर हृदय आनन्दित हो गया । पश्चात दादावाड़ी में गुरुदेव को वन्दन नमस्कार किया। समीप ही श्रद्धय कवि सम्राट के शिष्य कल्याणसागरजी म. सा. विराजमान थे, उनके दर्शन किये । आप शिखरजी की नव्वाणु यात्रा कर रहे थे।
शिखरजी जैनधर्म में तीर्थराज कहलाता है । इस पावन भूमि से २० तीर्थंकर मोक्ष पधारे हैं। अन्य कितने साधक-मुनिराजों ने मुक्ति प्राप्त की है, इसकी तो गणना ही नहीं; असंख्य जीव मुक्त हुए हैं, इस पर्वत से । इसीलिए इस पर्वत के कंकड़-कंकड़ के प्रति भक्ति भावना उमड़ती है । हमने यात्रा शुरू की।
शिखर तक की ६ माईल की चढ़ाई है। यात्रा के प्रथम चरण में ही 'सीतानाला' आता है। यहाँ यात्रा करके लौटने वाले यात्रियों को नाश्ता दिया जाता है । इसके पश्चात् कुछ आगे बढ़ने पर गंधर्व नाला आता है । यहाँ से और चढ़ाई शुरू हो जाती है। यह तीन माइल की एकदम खड़ी चढ़ाई है। इसे पूर्ण कर सर्वप्रथम गणधर गौतम स्वामी को टुंक (टोंक) है। अनेक लब्धियों के धारी, चतुर्दश पूर्वधर, भगवान महावीर के पट्ट शिष्य-गौतम स्वामी, उनकी टुंक के दर्शन करके चित्त उनके गुणों में रमण करने लगा।
अन्य तीर्थंकरों के ठेकों के दर्शन करते हुए जलमन्दिर पहुँचे। बीच में मन्दिर और चारों ओर जल बड़ा सुहावना, अद्भुत दृश्य है। पर्वतमाला में चारों ओर टुंक ही टुंक दृष्टिगोचर होती हैं । एक पर चढ़े, उससे उतरे, फिर दूसरी पर चढे बड़ा आनन्द आया। अन्तिम टंक भ० पार्श्वनाथ की टंक पर पहुंचे । यह सबसे ऊँची है। भावपूर्वक दर्शन किये । चित्त में उल्लास समा नहीं रहा था। पीछे से उतरे । बड़ी विषम उतराई है । कई स्थानों पर तो सिर्फ दो ही आदमी चल सकते इतना ही रास्ता है। एक ओर ऊंचा पहाड़, दूसरी ओर गहरी खाई । जरा-सी असावधानी हुई कि हजारों फीट नीचे, हड्डी पसली भी न बचे । पर तीर्थराज का कैसा प्रभाव ! आज तक कोई दुर्घटना कभी हुई हो, ऐसा हमने नहीं सुना । हजारों भक्त यात्रा करते हैं और सभी सकुशल, उल्लसित मन लौटते हैं । हम लोग भी लौटे, मन उल्लास से भरा हुआ था । धर्मशाला पहुँचे । होली पर्व बहुत ही आनन्द, उल्लास और आध्यात्मिक रूप में मनाया।
पूज्य कल्याणसागरजी म. सा. की नब्वाणु यात्रा चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को पूर्ण हो रही थीं। उन्होंने हम लोगों को रुकने का आग्रह किया । हम रुक गये । शाश्वती ओली की आराधना और महावीर जयन्ती पर्व गिरिराज की छत्रछाया में बड़े आनन्द से मनाया।
जिस तरह सुमन की सौरभ स्वयं ही पवन के झकोरों के साथ चारों ओर फैल जाती है, इसी प्रकार गुरुवर्याश्री का सम्मेतशिखर आगमन भी कलकत्ता संघ को मालूम हो गया। वहाँ के मुख्य
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
मुख्य श्रावक मारवाड़ी साथ वाले श्रीमान ताजमलजी साबोथरा, भंवरलालजी सा० नाहटा, हीरालालजी सा० लूनिया, पानमलजी सा० कोठारी, ज्ञानचंदजी सा० लूणावत आदि तथा मुर्शिदाबादी व जौहरी साथ वाले कई श्रावकगण कलकत्ता चातुर्मास हेतु एक बड़ा विनती पत्र, कलकत्ता श्रीसंघ के हस्ताक्षर युक्त लेकर पधारे, पूज्याश्री के सम्मुख रखा और भावभरी विनती की। उन्हें शीघ्र ही स्वीकृति मिल गयी । जहाँ भाव हो वहाँ मनुहार कैसी ?
पूज्याश्री रंभाश्रीजी म. सा. आदि भी इधर के क्षेत्रों में धर्म-जागरण करती हुई पधार गई। उत्साह और बढ़ गया। पू० कल्याणसागरजी म. सा० के नवाणु यात्रा के निमित्त अठाई महोत्सव-पूजाओं आदि का ठाठ रहा ।
लगभग सवा महीने हम लोग शिखरजी रहे । बड़े उत्साह से मन भरकर यात्राएँ-वन्दनाएँ कीं। बड़ा आनन्द का वातावरण रहा । चित्त में उल्लास छाया रहा । तन-मन स्फूति से उमग रहा था।
वहाँ से प्रस्थान करके कतरास, झरिया, धनवाद, बर्द्धमान आदि नगरों में विचरण करते हुए तथा मन्दिरों के दर्शन करते हुए, जन-साधारण को प्रवन लाभ देते हुए सैंथिया ग्राम (श्वेताम्बिका नगरी) में आये। मार्ग में कलकत्ता से ४-५ श्रावक आ गये । वे भी यहाँ तक साथ रहे ।
संथिया--यहाँ के लगभग सभी लोग स्थानकवासी थे; लेकिन गुरुवर्याश्री के प्रवचनों से प्रभावित हो, ठाठ से नगर-प्रवेश कराया। मंदिरों के दर्शन करते हुए महावीर भवन पहुँचे । वहाँ आपश्री का ओजस्वी प्रवचन हुआ । लोग चकित रह गये-क्या साध्वीजी भी इतनी विद्वान और प्रवचनकुशल हो सकती हैं ? बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने कुछ दिन रुकने की विनम्र श्रद्धायुक्त विनती की। हमारे भी उस क्षेत्र के लगभग सभी तीर्थ हो चुके थे, चातुर्मास में भी अभी समय था, अतः स्वीकृति दे दी।
प्रतिदिन के व्याख्यानों से काफी धर्म प्रभावना हुई । उन लोगों ने चातुर्मास का आग्रह किया पर कलकत्ता चातुर्मास स्वीकृत हो चुका था, अतः उन्हें स्वीकृति न मिल सकी।
यहाँ से निकट ही वह स्थान है जहाँ प्रभु महावीर ने चण्डकौशिक नाग को प्रतिबोध दिया था। अब वह स्थान जोगी पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है । उस समय वहाँ स्मारक बनाने की योजना चल रही थी जो अब पूर्ण हो गई है, चरण स्थापित हो गये हैं।
बंगाल प्रवेश यहाँ से मुर्शिदाबाद की ओर कदम बढ़ाए । मार्ग में बंगाली लोगों से परिचय हुआ । अपनी भाषा में बड़ी स्त्री को वे मां और छोटी स्त्री को वे दीदी कहते हैं । भाषा प्रायः मधुर थी। हमारे वेश के प्रति उन लोगों के हृदय में सम्मान भी था । हमारे आचार-विचार-निवास के बारे में जिज्ञासा भी कर लेते थे । जैसे-आपका घर कहाँ है (आपनार बाड़ी को थाय) ? आप बाल क्यों नहीं रखते ? पैदल (बिना चप्पल जूते के) क्यों चलते हैं, आदि-आदि । हम लोग भी टूटी-फूटी बंगला में संक्षिप्त उत्तर दे देते ।।
जैन श्रमणी की कठोर चर्या को सुनकर वे लोग चकित रह जाते । अधिकांश बंगाली लोगों में भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। धोती कुर्ते का पहनावा, अतिथि सत्कार की भावना, त्यागियों के प्रति पूज्यभाव, नारीजीवन में सतीत्व व पातिव्रत्य को प्रथम स्थान । लोगों की दृष्टि में अश्लीलता का अभाव । यद्यपि पहनावे आदि में आधुनिक प्रभाव बढ़ रहा है, फिर भी अपनी सांस्कृतिक मर्यादाओं के प्रति प्रेम और आदर का भाव है उनमें ।
____ महिमापुर में पहुँचे । वहाँ जगत्सेठ का कसौटी पत्थर का पूरा मंदिर बना हुआ है । अतः
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खण्ड १ | जीवन ज्योति पुलिस का पहरा रहता है । वहाँ कठगौला राय लक्ष्मीपतिसिंहजी द्वारा निर्मित उद्यान स्थित मंदिर के दर्शन करते हुए जीयागंज पहुँचे ।
जोयागंज-यहाँ बड़े सुन्दर आलीशान मंदिर हैं । पहले यहाँ का वैभव बहुत था, लेकिन अब वह बात नहीं रही, साधु-साध्वियों का आगमन भी कम होता है, फिर भी यहाँ के निवासियों में धर्मानुराग और शुद्ध धर्मनिष्ठा काफी है । पहले यहाँ जैन घर काफी थे पर अब व्यापार धन्धे के कारण कलकत्ता जाकर बस गये हैं । समय का प्रभाव है यह ।
दो दिन रुककर गंगा पार अजीमगंज गये । वहाँ शहर के बाहर शिखरबद्ध जिन मन्दिर में भ० सम्भवनाथ की प्रतिमा अति विशाल और बहुत मनोरम है । भ० नेमिनाथ का मन्दिर और प्रतिमा भी भव्य और चित्ताकर्षक है । भव्य मंदिरों और प्रतिमाओं के दर्शन करके हृदय प्रफुल्लित हो गया। उसी संध्या को पुनः जीयागंज लौट आये। २-३ दिन रुके। पुजाएँ आदि हुईं। लोगों ने रुकने का आग्रह किया किन्तु चातुर्मास का समय निकट आ रहा था और कलकत्ता के लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था, अतः रुके नहीं । कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों में धर्म-जागरणा करते हुए आषाढ़ कृष्णा १३ के दिन माणकतल्ला में सुप्रसिद्ध राय बद्रीदास टेम्पल पहुँचे ।
कलकत्ता वालों ने हमारे ठहरने के लिए सामने ही दादाबाड़ी में समुचित व्यवस्था कर रखी थी। कुछ दिन वहीं ठहरे, क्योंकि कलकत्ता में तो आषाढ़ शुक्ला में ही प्रवेश करना था । एक कारण और भी था। पूज्याश्री समताश्री जी म० सा०, कुसुमश्री जी म. सा. आदि ६ ठाणा भी चातुर्मासार्थ आने वाले थे और प्रवेश सभी का साथ ही होना था । यथासमय वे पधार गये । शुभ मुहूर्त में बैंडबाजों और हर्षोल्लासपूर्वक कलकत्ता वालों ने नगर प्रवेश कराया।
संघ के साथ बड़े मंदिर के दर्शन किये । कलाकार स्ट्रीट में स्थित जैन भवन में पहुँचे। वहाँ मंगल प्रवचन हुआ और प्रभावना के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ। यहाँ से तुल्लापट्टी स्थित ११ नं० (बड़े मंदिर के ऊपर) उपाश्रय में आये । यहाँ हम लोगों के रुकने की उचित व्यवस्था थी।
कलकत्ता चातुर्मास : सं० २०२६ चातुर्मास का शुभारम्भ हुआ । गुरुवर्या बड़तल्ला में स्थित बजाज धर्मशाला में थे। प्रतिदिन के व्याख्यान जैन भवन में होते थे । व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि और आचार-विचार से परिचित कराने वाले, द्वादशांगी के प्रथम अंग, आचारांग सूत्र का प्रारम्भ किया गया । ओजपूर्ण वाणी और युक्तियुक्त सामयिक बिवेचन से श्रोता विभोर हो जाते । उपस्थिति दिनोंदिन बढ़ने लगी। मध्यान्ह में गुरुवर्या श्री रत्नचूड़ चौपी अपनी मधुर वाणी में फरमाती थीं।
गुरुवर्याधी ने लक्ष्मीवल्लभ टीका, व श्री समयसुन्दरगणी की कल्पलता व्याख्या एवं बुद्ध मुनिजी म० की कल्पबोधिनी टीका के आधार पर कल्पसूत्र का परिष्कृत एवं परिमार्जित भाषा में हिन्दी अनुवाद का श्रीगणेश तो जयपुर में ही कर दिया किन्तु इस लेखन कार्य की परिसमाप्ति कलकत्ता चातुर्मास में हुई।
कलकत्ता में साधु-साध्वियों के चातुर्मास हेतु स्थान का अभाव-सा था। हम लोग जहाँ रुके थे वहाँ भी काफी असुविधाएँ थीं । गुरुवर्या ने उचित स्थान लेने का प्रस्ताव संघ के सामने रखा । तुरन्त खण्ड ११८
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चन्दा भी शुरू हो गये । ५-७ लाख की राशि एकत्र हो गई। कई स्थान देखे गये किन्तु कलकत्ता जैसी घनी बस्ती वाले नगर में स्थान का मिलना असंभव सा ही है। एक बात और भी थी वह यह कि जैन भवन या बड़े मन्दिर के पास ही कोई सेपरेट (Seperate) जगह मिल जाय, वह न मिल सकी । योजना सफल न हो सकी ।
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श्रावण की बरसात की झड़ियों के साथ ही तपस्याओं की झड़ी भी लग गई । पूर्णाहुति पर पूजा और स्वधर्मी वात्सल्य का भी खूब ठाठ रहा । अक्षय निधि तप ( इसमें निरंतर १५ दिन तक एकासने व अन्तिम संवत्सरी के दिन उपवास किया जाता है, में भी लड़कियों ( अब तरुणियाँ) बहुओं, स्त्रियों की संख्या अधिक रही । क्रिया स्थापना आदि सामूहिक रूप से ही जैन भवन में तथा एकासना का कार्यक्रम श्री मोतीचन्दजी नखत की धर्मशाला (जो जैन भवन के बाजू में ही थी) होते थे ।
व्याख्यान में श्रोताओं की संख्या लगातार बढ़ रही थी । संवत्सरी के दिन तो तीसरी मंजिल तक श्रोता बैठे थे । ५७ हजार व्यक्तियों की उपस्थिति थी, अतः माईक की व्यवस्था भी थी ।
गुरुवर्याश्री के अगाध ज्ञान और तत्त्व विवेचन शैली से कलकत्तावासी बहुत प्रभावित हुए । तत्त्वज्ञ विद्वान श्रीमान भँवरलालजी नाहटा, श्री जिनप्रभसूरिरचित विविध तीर्थ कल्प ( यह ग्रन्थ प्राकृत तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में है) का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे । जहाँ उन्हें कठिनता आती या विषय स्पष्ट नहीं होता वहाँ गुरुवर्याश्री से पूछते और स्पष्ट व समुचित समाधान पाकर हर्षित तुष्टित होते । इस प्रकार कलकत्ता चातुर्मास पूर्ण सफल रहा ।
कार्तिक पूर्णिमा की शोभायात्रा
कलकत्ता की कार्तिकी पूर्णिमा की शोभायात्रा विश्वप्रसिद्ध है । यह चातुर्मास पूर्ण होने पर निकाली जाती है । लगभग साढ़े तीन माईल लम्बी शोभा यात्रा को मारवाड़ी, बंगाली तथा अन्य सभी बड़े चाव से देखते हैं । जैन समाज तो भाव विभोर होते ही हैं, अन्य सम्प्रदाय वाले भी प्रभावित होते हैं, मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं ।
शोभायात्रा में सबसे आगे इन्द्र ध्वज चलता है, जिसकी ऊँचाई इतनी होती है कि ट्राम्स के तारों के ज्वाइंट्स भी खोलने पड़ जाते हैं । सुविधा, सुरक्षा और सुव्यवस्था के लिए पुलिस साथ रहती है । यह शोभा यात्रा बड़े मन्दिर से शुरू होकर राय साहब के बगीचे (बद्रीदास टेम्पल) तक आती है और पूजा स्वधर्मी वात्सल्य के कार्यक्रम के साथ परिसमाप्त हो जाती है ।
हमारे चातुर्मास के साथ ही तपागच्छ में आचार्य त्रिपुटी - श्री जयन्तसूरि, विक्रम सूरि और tataसूरि तीनों आचार्यों का तथा सर्वोदया श्री जी म० सा० वाचंयभाश्री जी म०सा० आदि साध्वीजी का चातुर्मास भवानीपुर, जो कलकत्ते का ही एक उपनगर है, उसमें था । यहाँ जैनों के अनेक घर हैं व बड़ा शिखरबद्ध विशाल मंदिर है और साथ ही attached धर्मशाला भी है, जो ४-५ मंजिल की है और साधु-साध्वियों के ठहरने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं ।
चातुर्मास पूर्ण कर हम लोगों ने भी भवानीपुर, बालीगंज, लेकरोड आदि में स्थित मंदिरों के दर्शन किये और फिर खड़गपुर की ओर कदम बढ़ाने का निर्णय किया। उसका कारण था कि भूतपूर्व प्र० स्व० पूज्या श्री ज्ञानश्री जी म० सा० के संसार पक्षीय भतीजे फलोदी निवासी श्रीमान चाँदमलजी स।० गोलेच्छा व्यापार धन्धे के कारण खडगपुर ही रहते थे । वे जब भी पूज्याश्री के दर्शनार्थ जयपुर आते तभी खडगपुर पधारने की विनती करते थे ।
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कलकत्तावासियों से समारोहपूर्वक पुनः चातुर्मास के आग्रह के साथ भावभीनी विदाई लेकर हम लोगों ने खड्गपुर की ओर कदम बढ़ाये । सैंकड़ों व्यक्तियों के साथ हावड़ा पहुँचे । बीकानेर के प्रसिद्ध श्रावक श्री रामपुरियाजी के यहाँ रुके, आपकी भावना प्रशंसनीय है, साथ आये सभी लोगों का स्वागत सत्कार किया। हम लोगों से भी दो दिन रुककर बड़ी पूजा और व्याख्यान आदि का आग्रह किया। दूसरे दिन उनके घर पर ही प्रातः ६ बजे से व्याख्यान हुआ जिसमें हावड़ा निवासियों के अतिरिक्त शहर के भी बहुत लोग उपस्थित हुए। रामपुरियाजी के यहाँ ही सभी का भोजन था। दोपहर की पूजा के बाद सभी लोग चले गये । हमने भी आगे प्रस्थान कर दिया।
मार्ग में कोयलाघाट आये । यहाँ दिगम्बर-श्वेताम्बर का एक ही मन्दिर है। एक श्वेताम्बर प्रतिमा वहीं की नदी में निकली थी, वही मन्दिर में विराजमान है । बड़ी भव्य मनोहर प्रतिमा है। इधर साधु-साध्वियों का आगमन बहुत कम होता है । मारवाड़ी जैनों के काफी घर हैं। हम लोगों से व्याख्यान का आग्रह किया। दोपहर में व्याख्यान हुआ। व्याख्यान सुनकर उन लोगों का धर्मोत्साह जाग उठा। तप-त्याग-प्रत्याख्यानों की बाढ़-सी आ गई। किसी ने रात्रि भोजन का त्याग किया तो किसी ने कन्दमूल का; किसी ने नवकार मन्त्र की माला फेरने का नियम लिया, तो किसी ने नवकारसी का।
इस प्रकार कोयलाघाट में धर्म व्यापार अच्छा रहा।
यहाँ से विहार कर ५वें दिन खड्गपुर पहुँचे । नगर से लगभग १ किलोमीटर दूर गोल बाजार स्थित धर्मशाला में रुके । यहाँ गुजराती जैनों के १०-१२ घर हैं। खड्गपुर से दर्शनार्थियों का तांता लग
गया।
खड्गपुर प्रवेश बड़े धूमधाम से खड्गपुर में प्रवेश किया । धर्मशाला में पहुँचे । वहाँ एक कमरे में बिना प्रतिष्ठा के ही भगवान विराजमान थे, उनके दर्शन किये, वहीं पूज्याश्री चन्द्रप्रभाश्री जी म. सा., श्री धरणीन्द्र श्री जी म. व दिव्यप्रभाजी म. पहले से ही ठाणापति विराजमान थे। हम भी वहीं रुके । सबको मांगलिक सुनाई। सबने विदा ली।
सम्पूर्ण संघ में हर्ष व्याप्त हो गया लेकिन वर्षों की भावना पूरी हो जाने से सर्वाधिक हर्षोल्लास श्री चांदमलजी साहब को था।
व्याख्यान शुरू हुए । यद्यपि हम लोग १०-१५ दिन ही रुकना चाहते थे लेकिन लोगों के आग्रह से चार महीने तक रुके । आचारांग सूत्र की एक मात्र सूक्ति 'खणं जाणाहि पंडिए' पर ही गुरुवर्याश्री की तत्वमेधिनी प्रज्ञा अमृत वर्षा करती रही । सभी लोग उनकी अगाध विद्वत्ता से प्रभावित हुए।
धर्मनिष्ठ चाँदमलजी सा. प्रतिदिन पूजा के उपरान्त मांगलिक सुनने आते थे। गुरुवर्याधी ने उन्हें नूतन मन्दिर बनवाने की प्रेरणा दी । बात उनके दिल में उतर गई। सर्वसम्मति से जैन भवन के ऊपर ही मन्दिर बनवाने का निर्णय कर लिया। फाल्गुन शुक्ला ५ के शुभ दिन गुरुवर्याश्री के कर कमलों से मंदिर का शिलान्यास हो गया।
मूल मन्दिर चाँदमलजी बनवा रहे थे; पर सभामण्डप के लिए चन्दा होने लगा। उसी समय श्रीमती सून्दरबाई कोचर (श्री भीखमचन्दजी कोचर की धर्मपत्नी) अपनी द्वादश वर्षीया पुत्री कमल को सामने कर हर्षातिरेक में बोल उठी
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(जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी "आप लोग तो सिर्फ रुपये पैसे का ही चन्दा कर रहे हैं लेकिन मैं महाराज साहब के चरणों में अपना चाँद का टुकड़ा समर्पित करती हूँ। यदि वर्तमान के समान भविष्य में भी इसको भावना बनी रही तो अवश्य ही दीक्षा दिलवाऊँगी।"
इन उद्गारों को सुनकर सभी धन्य-धन्य कह उठे। हम लोग भी चकित रह गये, क्योंकि इस सम्बन्ध में कभी कोई बात ही हमारे सामने नहीं आई। न कमल ने ही ऐसी कोई भावना हमारे सामने व्यक्त की और न उसकी माता ने ही।
हमने इस सम्बन्ध में कमल की माँ से कहा-आपने इतना बड़ा निर्णय अचानक ही कैसे ले लिया और संघ के समक्ष प्रकट (declare) भी कर दिया ?
तब उन्होंने कहा- आपको पहले ही बता देते तो ठीक रहता। बिना बताये ही डिक्लेयर कर दिया, यह हमारी भूल हुई। हम क्षमाप्रार्थी हैं। लेकिन जब से आप पधारे हैं और आपके ओजस्वी प्रवचन इसने सुने हैं तभी से दीक्षा की जिद कर रही है। बहुत समझाया, प्रलोभन भी दिये, पर मानती ही नहीं, दीक्षा की जिद पर अड़ी हुई है। अब आप इसे अध्ययन करवाइये। जब दीक्षा के योग्य हो जायगी तब इसे आपकी निश्रा में दीक्षा दिलवायेंगे।
यह कहकर कमल उन्होंने हम लोगों के सुपर्द कर दी।
यद्यपि पुनः कलकत्ता जाने का हमारा विचार नहीं था किन्तु वहाँ से बार-बार विनतियाँ आ रही थीं और खड्गपुर में नूतन मन्दिर में प्रतिष्ठा हेतु मूर्तियों के मंगल प्रवेश के शुभावसर पर तो कलकत्ता के श्रावक खड्गपुर में आ ही गये । उनमें से मुख्य थे-श्री ताजमलजी सा. बोथरा, भँवरलालजी सा. नाहटा, हीरालालजी सा. लूनिया, जतनमलजी सा. नाहटा और ज्ञानचन्दजी सा. लूणावत । सभी ने परजोर विनती की । यहाँ तक कह दिया कि जब तक आप कलकत्ता चातुर्मास की स्वीकृति नहीं देंगी तब तक न हम लोग मुंह में पानी डालेंगे और न ही यहाँ से उठेंगे।
इस श्रद्धा भक्ति भरे आग्रह और भविष्य में लाभ देखकर कलकत्ता चातुर्मास की स्वीकृति गरुवर्याधी ने दे दी।
शाश्वती ओली निकट थी । आपश्री ने चैत्री पूनम के लिए प्रेरणा दी तो कितनों ने ही सामूहिक आयम्बिल में नाम लिखाये । गुरुवर्याधी ने श्रीपाल चरित्र का मधुर भावपूर्ण शैली में वाचन किया। नवपद ओली की सबने आराधना की।
धार्मिक ज्ञान सीखने हेतु यहाँ की कई लड़कियाँ हमारे पास आती थीं। उनमें कमल की दोनों बडी बहनें निर्मला और हीरामणि भी थीं। निर्मला की तो सगाई की बातें चल रही थीं, पर इसने भी दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की, हीरामणि ने भी की, अन्य कई लड़कियों ने भी की परन्तु उस समय योग नहीं नहीं था, इसलिए उनकी भावना सफल न हो सकी।
पूनः कलकत्ता की ओर प्रस्थान और सं. २०३० का कलकत्ता चातुर्मास
संभवतः कलकत्ता के श्रावकों के मन में सन्देह था अतः कलकता की ओर हमें प्रस्थान करवा के ही लौटे।
कोयलाघाट में खड्गपुर के कई लोग आये थे ।
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हावड़ा से पहले लिलुआ ग्राम में नया मन्दिर बना था, उसके दर्शन किये। वहाँ के जैनों के आग्रह पर एक दिन रुके । हावड़ा ब्रिज पहुँचे। वहाँ स्वागतार्थ कलकत्ता के श्रावक उपस्थित थे। संघ के साथ बड़े बाजार स्थित मन्दिर के दर्शन-वन्दनकर ११ नं० उपाश्रय पहुँचे। मांगलिक सुनाया और प्रभावनादि का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
प्रतिदिन जैन भवन में व्याख्यान होता था । त्याग-तपस्या-प्रत्याख्यान आदि का माहौल पूर्ववत् (२०२६ के चातुर्मास) जैसा ही था । वैरागिन बहनें हमारे पास रहकर ही धार्मिक अध्ययन कर रही थीं। पूज्याश्री श्रीमद् देवचन्द्रजी म. रचित द्रव्य प्रकाश का अनुवाद कर रही थीं।
चातुर्मास सानन्द संपूर्ण हुआ। चैत्री पूनम की शोभा यात्रा देखते हुए हम लोग बद्रीदास टेम्पिल पहुँचे।
पूज्याश्री शशिप्रभाजी म. सा. और मुझको (प्रियदर्शनाजी) साहित्य रत्न की परीक्षा देनी थी। परीक्षा पोष बदी में थी। अतः एक महीने तक भवानीपुर रुके । परीक्षा हेतु पुनः शहर में आ गये।
खड्गपुर में भगिनी त्रय का दीक्षा समारोह खड़गपूर के लोगों ने आकर बताया कि दीक्षा का शुभ मुहूर्त बसन्त पंचमी का है और उस दिन तक पधारने की हम लोगों से विनती की। शिष्या-लाभ जानकर हम लोगों ने विहार किया और मार्ग के क्षेत्रों को फरसते हुए यथासमय खड्गपुर पहुँचे ।
श्री रम्भाश्री जी म. सा. भी खड्गपुर संघ के अत्याग्रह से टाटानगर चातुर्मास पूर्णकर खड्गपुर पहुंचे गये।
श्रीमान भीखमचन्दजी सा. व भाई प्रकाशचन्दजी कोचर ने हर्षोत्साहपूर्वक शान्ति स्नात्र, महापूजन सहित अठाई महोत्सव कराये । दीक्षा के प्रथम दिन वर्षीदान का भव्य वरघोड़ा जिसमें पालखी में भगवान भी साथ थे और हम लोग भी थे, मध्य बाजार से गुजर रहा था तो सभी लोगों के भावोद्गार निकले-इतनी छोटी सी उम्र में संयमी जीवन का स्वीकार ! धन्य हैं ये लोग ! इस प्रकार त्यागमार्ग की अनुमोदना कर रहे थे।
दूसरे दिन-माघ सुदी ५ को शुभ मुहूर्त में पूज्याश्री चन्दश्रीजी म. सा., पू. श्री रम्भाश्री जी म. सा. आदि की निश्रा में तीनों बहनों की दीक्षा सानन्द सम्पन्न हुई। निर्मला का नाम 'दिव्यदर्शनाजी' हीरामणि का नाम 'तत्वदर्शनाजी' और कमल का नाम 'सम्यग्दर्शनाजी' रखा गया तथा तीनों को पूज्या गुरुवर्या श्री सज्जनश्री जी म. सा. की शिष्याएँ घोषित की गयीं।
खड़गपुर में ही नहीं अपितु संपूर्ण बंगाल में ही संभवतः साध्वी दीक्षा का यह प्रथम अवसर था । अतः १५ दिन तक आस-पास के बंगाली सज्जन आते रहे तथा नूतन साध्वीजी के दर्शन एवं उनके परिवारीजनों के भाग्य की सराहना करते रहे ।
वी. नि. की २५वीं शताब्दी के उपलक्ष्य में पावापुरी चातुर्मास : वि. सं. २०३१
तीर्थकर भगवान की २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में भगवान की निर्वाण भूमि पावापुरी में विराट आयोजन हो रहा था । यद्यपि हमारा विचार नूतन साध्वियों की बड़ी दीक्षा कराने हेतु मध्यप्रदेश जाने का था किन्तु श्रद्धेय पूज्य अनुयोगाचार्य श्री कान्तिसागरजी म. सा. का आदेश पावापुरी रुकने
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૨.
जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी का आ गया। आदेश था-आगामी चातुर्मास पावापुरी में करना है और भगवान का २५वीं निर्वाण शताब्दी समारोह धूमधाम से मनाना है। राष्ट्रसंत कवि अमरमुनिजी म. एवं तेरापंथी मुनिश्री रूपचंद जी म. तथा साध्वी श्री सुमतिकुवरजी म., दर्शनाचार्या श्री चन्दनाजी म. आदि भी इस शुभावसर पर पधार रहे हैं और हम लोग भी शीध्र ही वहाँ पहुँचेंगे। श्रद्धय गुरुदेव के इस आदेश को हमने शिरोधार्य किया ।
पुनः पावापुरी की ओर प्रस्थान हमारे कदम नूतन दीक्षिता साध्वियों के साथ खड्गपुर से पावापुरी की ओर बढ़े। मार्ग में पुरुलिया, जमशेदपूर, विष्टिपुर आदि स्थानों में जहाँ जिन मन्दिर हैं और श्रद्धालु श्रावकों के घर हैं, वहाँ दो-दो, तीन-तीन दिन रुकते-ठहरते हुए, महोदा, झरिया, कतरासगढ़ होते हुए चैत्र सुदी ५ को निमियाघाट से शिखरजी पहुंचे।
हम लोगों को आशातीत प्रसन्नता हुई क्योंकि शिखरजी की यात्रा के पूनः संयोग की आशा ही नहीं थी हमें। शिखरजी में ही शाश्वती नवपद ओली का आराधन किया। वैशाख बदी ३ को शिखर जी से विहार कर कोडरमा होते पावापुरी पहुँचे । लगभग ८ दिन वहाँ रहे । विचार किया अभी तो चातुर्मास में बहुत समय है । एक वार पुनः राजगृह हो आयें। विचार के साथ ही पग बढ़े और दूसरे ही दिन शोर्टकट से राजगृह जा पहुँचे ।
___ महासती श्री सुमतिकुंवरजी एवं श्री चन्दनाजी म. वीरायतन के लिए यही विराजी थीं। पंचम पहाड़ वैभारगिरि की तलहटी में वीरायतन के लिए स्थान (जगह) लिया जा चुका था, दोनों साध्वीजी म. की निश्रा में शिलान्यास हो चुका था, निर्माण कार्य चल रहा था, राष्ट्रसन्त कवि अमरमुनिजी म. भी पधारने वाले थे।
वीरायतन का निर्माण कवि अमरमुनिजी म. और साध्वी चन्दनाश्री जी म. की अनोखी और सामयिक सूझ-बूझ का परिणाम है। वीर शासन के प्रति उन्होंने इस निर्माण कार्य से अपनी श्रद्धाभक्ति का परिचय दिया है। यहाँ ऐसा निर्माण ऐतिहासिकता को सुरक्षित रखने के लिये आवश्यक भी था।
__ हम लोग वीरायतन (प्राचीन ओफिस-जहाँ साध्वीजी म. स्वयं विराजती थीं और भोजनशाला भी थी) जाते रहते थे और साध्वी चन्दनाजी भी आती रहती थीं। साध्वीजी बहुत ही मिलनसार हैं। हमारी भेंट पहले अजमेर और दूसरी बार कलकत्ता दादाबाड़ी में हो चुकी थी। तभी से हम उनकी सहृदयता और मिलनसारिता से परिचित थों।
राष्ट्रसन्त कवि अमरमुनिजी म० के राजगृह प्रवेश पर निमन्त्रित होकर हम भी गये थे, नालन्दा बौद्ध संस्थान के कई विद्वान, जापान के फ्यूजी गुरुजी तथा प्रसिद्ध जैन विद्वान नथमलजी टांटिया (जो उस समय नालन्दा के प्रोफेसर और वर्तमान में जैन विश्वभारती के अध्यक्ष हैं) पधारे थे।
कविजी म० के स्वागत में सभा का आयोजन किया गया। सभी विद्वानों के भाषण हुए । गुरुवर्याश्री ने भारत के ऐतिहासिक तीर्थस्थलों का इतने सुन्दर ढंग से विवरण-विवेचन प्रस्तुत किया कि सभी ने उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की।
कुछ दिन पश्चात पालीताना से विहार कर श्रद्धय अनुयोगाचार्य श्री कांतिसागरजी म.सा० पू० दर्शनसागरजी म.सा० व बालमुनि मणिप्रभसागरजी भी राजगृही की सीमा में तीसरे पहाड़ की तलहटी
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खण्ड १ | जीवन ज्योति में स्थित छोटी-सी धर्मशाला में पधार गये । वहाँ पूज्य गुरुदेव ने अट्ठम तप के साथ तीन दिन तक मौन आराधना, जप-ध्यान किये।
__ कलकत्ते से कई अग्रगण्य श्रावक एवं राजगृह के व्यवस्थापक श्रीमान जयन्तीलालजी सा० आदि आपके स्वागतार्थ राजगृह के तीसरे पहाड़ में आ गये । खूब ठाठ से राजगृह में प्रवेश हुआ। बड़ी धर्मशाला के सामने एक प्राइवेट बंगले में गुरुदेव रुके । तेरापंथी मुनि रूपचन्दजी भी बगल (बाजू) में एक सुव्यवस्थित स्थान में रुके । हम लोग उनसे मिलने और विहार-सम्बन्धी सुख-पृच्छा करने गये । सौहार्दपूर्ण वातावरण रहा।
अनुयोगाचार्यजी भी दोनों मुनिराजों से मिले तथा पच्चीसवीं शताब्दी निर्वाणोत्सव में पधारने का आग्रह किया । ऐसा ही आग्रह साध्वी सुमतिकुवरजी एवं चन्दनाजी से भी किया। जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया।
पज्य गरुदेव कान्तिसागरजी ने और हम लोगों ने कच्चे शार्टकट से पावापुरी की ओर विहार किया । पावापुरी से १-२ किलोमीटर पहले स्वागतार्थ आये श्रावकों ने धूमधाम से प्रवेश कराया।
__ यद्यपि पावापुरी में जैन घर नहीं है, किन्तु इस विशाल आयोजन और साधु-साध्वियों के चातूमर्मास के समाचार प्रसारित होते ही अनेक जैन बन्धु कलकत्ता, विहार शरीफ, पटना, भागलपुर, बीकानेर आदि स्थानों से चातुर्मासकाल के लिए आ गये पावापुरी में । यो ३०-४० चौके हो गये।
जैन चौका
जैन चौका मात्र वह स्थान ही नहीं, जहाँ भोजन बनता है । चौका का रहस्य है-चार प्रकार की शुद्धियाँ । द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि और भावशुद्धि ।
द्रव्यशुद्धि का अर्थ भोजन तैयार करने वाली और जो द्रव्य, अन्न आदि हैं, वे सब शुद्ध हों। क्षेत्रशुद्धि में भोजन बनाये जाने वाले स्थान की स्वच्छता निहित है । कालशुद्धि का अभिप्राय भोजन की वेला का विचार रखना है और भावशुद्धि में भोजन बनाने वाले के भाव-चित्तवृत्तियाँ शुभ हों, शुद्ध हों, उदार हों, मन में यह भावना हो कि कोई त्यागी तपस्वी साध्वी-सन्त मेरे बनाये भोजन में से कुछ आहार ग्रहण कर लें तो मैं कृतार्थ हो जाऊँ, मेरा जीवन धन्य हो जाय, मेरा यह चौका पवित्र हो जाय ।
इन चारों प्रकार की शुद्धियों से शुद्ध चौका ही जैन चौका कहलाने योग्य है। ऐसे चौके पावापुरी में उस समय लगभग ३०-४० थे।
नूतन दीक्षिताओं भगिनियों की बड़ी दीक्षा श्रद्धय गुरुदेव की निश्रा में आषाढ़ शुक्ला १२ के दिन सानन्द सम्पन्न हुई । इस दीक्षा में दीक्षिताओं के माता-पिता भी सम्मिलित हुए।
श्रद्धय गुरुदेव के आदेश से पूज्य गुरुवर्याश्री ने भ० महावीर की प्रथम देशना के स्थान पर प्रथम प्रहर में श्री आचारांग सूत्र और मध्यान्ह में भगवान की अन्तिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र का वांचन शुरू किया जिसे श्रावक-श्राविका तथा बाहर से आये हुए सभी व्यक्ति सुनते थे।
इस भूमि का कण-कण भगवान महावीर से स्पशित है। अतः इसका विशेष महत्व है । हम सभी का तन-मन श्रद्धा में अभिसिंचित हो रहा था।
श्रद्धेय अनुयोगाचार्यजी के आदेश से गहवर्याधी ने बाल मुनि मणिप्रभसागरजी म० को चातु
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जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
र्मास काल में ही साधनिका सहित संपूर्ण कौमुदी कण्ठस्थ करवा दी । श्री मणिप्रभसागरजी म० की ग्रहणशक्ति भी प्रबल है, कि इन्होंने इतनी जल्दी कौमुदी को कण्ठस्थ कर लिया ।
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निर्वाण शताब्दी समारोह चातुर्मास के प्रारम्भ से ही शुरू हो गया था । हम लोग सब व पूज्य श्री चन्दनाजी म०, यशाजी, साधनाजी आदि निर्वाण मन्दिर से गाते हुए, धुन लगाते हुए प्रभात फेरी के रूप में जल मन्दिर जाते थे ।
आशा यह थी कि भगवान के २५००वें निर्वाण शताब्दी समारोह के अवसर पर बाहर से लगभग एक लाख स्त्री-पुरुष आयेंगे । उसी के अनुसार सुव्यवस्थित महावीर नगर बसाया गया । कार्यक्रम संपादन हेतु जलमन्दिर के एक ओर विशाल मंडल भी बनाया गया ।
किन्तु उन्हीं दिनों बिहार में श्री जयप्रकाशनारायण का आन्दोलन चल रहा था, वातावरण अशांत बना हुआ था । यद्यपि श्रद्ध ेय अनुयोगाचार्यजी विहार शरीफ की इतनी लम्बी यात्रा करके जे० पी० से स्वयं मिले और उनसे संपर्ण कार्तिक मास में आन्दोलन बन्द रखने का वचन ले लिया था, तथा इस प्रकार के समाचार रेडियो द्वारा प्रसारित भी करवा दिये । पर जितनी आशा थी बाहर से उतने लोग नहीं आये ।
कार्यक्रम १० दिन पहले ही शुरू हो चुका था । विद्वान लोग आ गये थे । विद्वद् गोष्ठियाँ और व्याख्यान होने लगे । वक्ता अपने व्याख्यानों में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत, आत्मवाद आदि का विवेचन करते । आस्तिक्य आदि की व्याख्या करते और प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने की प्रेरणा देते ।
भक्ति आस्था और श्रद्धा का वातावरण था । इसी अवसर पर निर्वाण मन्दिर का जीर्णोद्धार भी हुआ । जैसलमेरी पोत पाषाण की दो अत्यन्त प्राचीन प्रतिमाएँ, जो जैसलमेर से ही लाई गई थीं, उनको भी शांति स्नात्र महापूजन सह अष्टान्हिका महोत्सव पूर्वक बड़े धूम-धाम से मिगसिर कृष्णा में शुभ दिन और शुभ मुहुर्त मन्दिर के मूल गभारे में दोनों साइड में विराजमान की गई ।
स्थानकवासी राष्ट्रसंत कवि अमरचन्दजी म० आर्या महासती सुमतिकुंवरजी, चन्दनाजी तथा तेरापंथी मुनि रूपचन्दजी भी पूजादि में पधारते और अपनी मधुर वाणी में पूजा-भजन आदि गाते थे । इससे हमने वह अनुमान लगाया कि शास्त्रसम्मत प्रभु प्रतिमा को मानने में उन्हें कोई ऐतराज न था और न है ।
अनेकान्तवादी जैन धर्म में अपार सहिष्णुता और सद्भावना का स्थान है । सभी समारोह बड़े धर्मोत्साह के साथ सम्पन्न हुए ।
हमारा यह चातुर्मास अविस्मरणीय रहा ।
चातुर्मास के उपरान्त अनुयोगाचार्यजी को शिखरजी की ओर पधारना था ।
हमने राजस्थान की ओर कदम बढ़ाए । मार्ग में गया, बौद्ध गया आदि तीर्थ आये । गया में दिगम्बर जैनियों के घर काफी हैं, श्वेताम्बर जैनियों का एक भी घर नहीं है। ग्राम में दिगम्बर मन्दिर भी हैं । बोद्ध गया में भी जिस पिप्पल के वृक्ष के नीचे तथागत को वोध प्राप्त हुआ था, वह बोधिवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ विशाल बौद्ध मन्दिर है । चीन, जापान, बर्मा, लंका, थाइलैण्ड आदि देशों द्वारा बनवाये हुए बौद्ध मन्दिर भी हैं । बौद्ध विहार भी हैं । इनमें भिक्ष ु भिक्षुणियाँ रहते हैं । हमने इन सब को देखा तो भारत के प्रति गौरव का भाव मन में भर उठा। भारत के एक महापुरुष को विदेशों में
कितना सम्मान मिला ।
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खण्ड १ ! जीवन ज्योति
साथ ही इस बात का दुःख भी हुआ कि भारत के ही अन्य धर्मावलम्बी धर्मान्ध नरेशों ने जैनों पर इतने अत्याचार किये जिस प्रदेश में हमारे तीर्थंकर जन्मे, विचरे, ज्ञान का प्रकाश दिया, इसी भारत में हमारे धर्म का इतना पतन हो गया। अत्याचार तो बौद्धों पर भी हुए पर वे अन्य देशों में निकल गये, वहाँ अपना वर्चस्व स्थापित किया, लाखों-करोड़ों अनुयायी बनाए, किन्तु जैन तो पिछड़े ही रह गये और इसके अनेक ऐतिहासिक कारणों पर गुरुवर्याजी ने कई बार प्रकाश डाला।
बौद्ध गया से प्रस्थान करके नेशनल हाईवे पर चलते हुए बनारस, इलाहाबाद (पुरिमतालजहाँ भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ था), कानपुर (जहाँ काँच का दर्शनीय मन्दिर है) शौरीपुर (भगवान नेमिनाथ की जन्मभूमि) होते हुए आगरा आये । ८-१० दिन रुके। व्याख्यान पजाओं आदि का ठाठ रहा । सभो मन्दिरों के दर्शन किये।
___ 'श्वेताम्बर जैन' पत्र के संस्थापक-संपादक श्री जवाहरलालजी लोढ़ा के अति आग्रह से जयपुर हाउस स्थित नवीन बंगले पर गये । यहाँ उन्होंने दादा गुरुदेव पूजा व व्याख्यान का कार्यक्रम रखा था । समीपस्थ दादावाड़ी व सेठ के बाग के मन्दिर के दर्शन करके पुनः बंगले में आ गये ।
_ दूसरे दिन विहार कर दिया। चैत्र बदी २ को जयपुर पहुँचे। वहाँ पूज्य प्रवर श्री साम्यानन्द जी म एवं व्याख्यान वाचस्पति श्री जयानन्दजी म० की निश्रा में लगभग १५० श्रावक-श्रादिका उपधान तप कर रहे थे । चैत्र शुक्ला ५ को मालारोपण का शुभ मुहूर्त था । अतः पूज्य प्रवर के आदेश से १५ दिन वहीं रुके।
पूज्य गुरुवर्याश्री से तत्वरसिक श्रावक-श्राविका एक-डेढ़ घण्टे तक नित्य तत्वचर्चा करते थे । हम भी वहीं बैठते थे।
यद्यपि आज का युग भोगवाद का है । शिक्षा भी अर्थार्जन लक्ष्यी है। शिक्षितवर्ग भारतीय वेश-भूषा, खान-पान, आचार-विचार के प्रति हेय दृष्टि रखता है। धर्मक्रियाएँ भी आडम्बर और दिखावा मात्र रह गई हैं। इन्हें धर्मक्रिया न कहकर धार्मिक परेड कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। फिर भी इस भौतिकताप्रधान युग में भी कुछ तत्त्वरसिक श्रावक-श्राविका हैं, वे ही गुरुवर्याश्री से तत्वचर्चा करते थे।
इस प्रकार १५ दिन बीत गये । अष्टान्हिका महोत्सवपूर्वक मालारोपण का कार्यक्रम हुआ। उसी दिन गुरुदेव के बाहरी कक्ष में योगीराज श्री शांतिविजयजी म० की मूर्ति स्थापना का कार्यक्रम भी समारोहपूर्वक संपन्न हुआ।
हम शहर में आ गये । शाश्वत नवपद ओली, महावीर जयन्ती तथा चैत्री पूर्णिमा पर्यों की आराधना की।
वैशाख महीने में जैन कोकिला पू० श्री विचक्षणश्रीजी म.सा० आदि सर्व दिल्ली से पधार गये थे।
चातुर्मास समीप होने से अनेक क्षेत्रों की चातुर्मास हेतु विनतियाँ आ रही थीं। अजमेर संघ का आग्रह अत्यधिक था। किन्तु इस बार पू० प्रवर्तिनीजी की इच्छा पू० गुरुवर्या का चातुर्मास अपने साथ ही कराने की थी। अतः जैन कोकिलाजी ने सबको मधुर स्वर से इन्कार कर दिया। किन्तु अजमेर संघ का आग्रह अन्त तक रहा । उस वक्त तक तपागच्छ और खरतरगच्छ में कोई भेदभाव नहीं था। अतः संघ खण्ड १/६
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
के अग्रगण्य श्रीमान रामलालजो सा० लूनिया, श्रीरतनचन्दजी सा० संचेती आदि श्रावकों के अत्याग्रह पर अजमेर चातुर्मास के लिए प्रियदर्शनाजी, जयश्रीजी व दिव्यदर्शनाजी को अजमेर के लिए प्रस्थान करवाया।
जयपुर चातुर्मास सं० २०३१ जैन कोकिला पूज्याप्रवर्तिनी महोदया के साथ गुरुवर्याश्री को ज्ञानगोष्ठी का अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ।
प्रातः ६ से १०-३० तक गुरुवर्याजी सर्वसाध्वीमंडल को आवश्यक सूत्र का वाचन कराती थीं और मध्यान्होतर २ से ४ तक तत्वरसिक श्रावक-श्राविका वर्ग आ जाते और जैनकोकिला व गुरुवर्याश्री से अकाट्य समाधान, अपनी जिज्ञासाओं का पाकर हर्षित होते ।
चातुर्मास कब समाप्त हो गया, ज्ञानगोष्ठी करते-करते, पता ही न चला।
चातुर्मास संपूर्ण होने के उपरान्त गुरुवर्याश्री ने जैन कोकिलाजी से विनम्र शब्दों में केशरिया आदि तीर्थों की यात्रा करने की अनुमति मांगी। यद्यपि पू० प्रवर्तिनी महोदया नहीं चाहती थीं कि गुरुवर्याजीश्री उन्हें छोड़कर जायें तथापि यात्रा को प्राधान्यता देते हुए आज्ञा देनी पड़ी।
पूज्या प्रवर्तिनी महोदया की निश्रा में ही जयपुर के खरतरगच्छ ने विदाई समारोह का आयोजन किया। संपूर्ण संघ के समक्ष पू० प्रवर्तिनीजी ने गुरुवर्यात्री को 'आगम ज्योति' के विरुद से अलंकृत। किया। विदुषीवर्या श्री चन्द्रप्रभाजी म० व मणिप्रभाजी म० ने संस्कृत और हिन्दी स्वरचित अष्टक बड़े ही मधुर स्वर में समर्पित किये । सर्व मंडल और श्री संघ ने विदाई दी। गुरुवर्याश्री ने वहाँ से मिगसिर बदी में मालपुरा की ओर प्रस्थान किया। काफी दूर तक पू० प्रवर्तिनीजी तथा श्रीसंघ साथ थे। विदाई का समय बड़ा ही कारुणिक बन गया ।
पू० गुरुवर्याश्री मालपुरा पहुँची । अजमेर चातुर्मास पूर्ण करके प्रियदर्शनाजी आदि तीनों साध्वियां भी मालपुरा पहुँच गईं। ३-४ दिन जप-ध्यान-भक्ति-मौन साधना करते हुए वहीं रुके ।
वहाँ से प्रस्थान करके केकड़ी, विजयनगर, गुलाबपुरा होते हुए हम लोग प्रसिद्ध विद्वान श्री जिनविजयजी के आश्रम (चंदेरियाग्राम) पहुँचे । आप महान विद्वान, आगमों के अच्छे ज्ञाता तथा जैन संस्कृति की प्राचीनता व ऐतिहासिकता से पूर्णतः परिचित हैं । वे गुरुवर्या के अप्रत्याशित आगमन और मिलन से अति प्रसन्न हुए । उनके आग्रह से १ दिन रुके। ऐतिहासिक चर्चाएँ हुईं । हमने भी उनसे ज्ञातव्य ज्ञात किये।
दूसरे दिन विहार करके चित्तौड़ पहुँचे ।
चित्तौड़गढ़-यह ऐतिहासिक नगरी तो है ही, लौकिक और लोकोत्तर तीर्थस्थल भी है। यह नगरी वीर क्षत्रियों की जननी है तो धर्मवीरों की भी । इतिहास में इसका अमिट स्थान है।
___ याकिनी महत्तरासूनु हरिभद्रसूरि, जो जैन दर्शन के उद्भट विद्वान थे, उनकी जन्मभूमि एवं प्रतिबोध भूमि यही नगरी है।
चित्तौड़ के आसपास का क्षेत्र बागड़ कहलाता है। श्रीजिनवल्लभसूरि ने इस क्षेत्र में विचरण कर १८०० हूँबड़ बागड़ी लोगों को जैन दीक्षा देकर श्रावक बनाने का भगीरथ कार्य किया; और भी कई शासन प्रभावना के कार्य किये हैं । (विशेष जानकारी के लिए वल्लभ भारती देखें।)
चित्तौड़ दुर्ग पर बने शिखरबद्ध जिनमन्दिरों के दर्शन कर चित्त प्रसन्न हो गया। यहीं विजय स्तम्भ है, जिससे गुरुदेव का भी सम्बन्ध है । भक्त मीरावाई का मन्दिर भी सुन्दर है । रानी पद्मिनी का
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खण्ड १ | जीवन ज्योति जौहर स्थान भी यहीं है । हमने इन सबको देखा । ऐतिहासिक स्थान को प्रत्यक्ष देखकर हृदय गौरव से भर गया। दो-तीन दिन रुके ।
करेड़ा पार्श्वतीर्थ-चौथे दिन विहार किया। करेड़ा पार्वतीर्थ पहुँचे । भ० पार्श्वनाथ के विशाल शिखरबद्ध मन्दिर के दर्शन किये । धर्मशाला, भोजनशाला आदि सभी सुव्यवस्थित है।
यहाँ से उदयपुर पहुँचे । राजस्थान का यह दर्शनीय स्थल है । देश-विदेश के टूरिस्ट आते हैं। यहाँ कई विशाल मन्दिर हैं । सूर्य पोल के बाहर ही भावी तीर्थंकर पद्मनाभ का विशाल मन्दिर है, जिसमें प्रतिमा भी विशाल है । दो-तीन दिन रुके । सभी मन्दिरों के दर्शन किये। दूर-दूर के कुछ मन्दिर रह भी गये । सोचा था—केशरियानाथजी से लौटकर पुनः उन मन्दिरों के दर्शन कर लेंगे । क्योंकि इधर आकर हमें पुनः आबू, मांडोली आदि तीर्थों की यात्रा करनी थी । अतः केशरियानाथजी की ओर विहार किया।
__ केशरियानाथ-इसका मार्ग पर्वतीय क्षेत्रों में होकर है। काफी उतार-चढ़ाव हैं। उदयपुर से सांवलाजी तक तीखे मोड़ोंयुक्त घाटी है, भूमि ढालू है । इस घाटी को खजूरी घाटी भी कहा जाता है।
केशरियानाथ का नाम ऋषभदेव भी है। किलोमीटर के स्टोन पर भी यही नाम लिखा है।
चौथे दिन केशरियानाथ पहुँचे, गुरुवर्याश्री की भावना आज सफल होने से वे बहत प्रसन्न थीं। तीर्थ की प्राचीनता प्रतिमाजी और मन्दिर से स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी।
जैन और नैष्णवों के विवाद के कारण तीर्थ सरकार के हाथ में है। लेकिन देखने वाला कोई नहीं है । भ० ऋषभदेव को हिन्दू अपना आठवाँ अवतार मानते हैं। रोज गीता-रामायण का पारायण होता है । पर मन्दिर की दशा की ओर ध्यान नहीं । गभारा एकदम काला हो रहा है।
भगवान की ऐसी आशातना देखकर दुःख हुआ। व्यवस्थापकों व पुजारियों से इस विषय में बातचीत भी की लेकिन सुपरिणाम निकलने की कोई आशा नहीं दिखाई दी।
यहाँ से यद्यपि पुनः उदयपुर लौटने का विचार था लेकिन जैसे ही मालूम हुआ कि अहमदाबाद बहत समीप है तो पालीताना, गिरनार आदि पंचतीर्थी करने की भावना जाग उठी । गुरुवर्याश्री की इच्छा थी गिरिराज शत्रुजय की नवाणु यात्रा और वहीं चातुर्मास करने की । अतः कदम उसी ओर बढ़ गये।
मुहरीपार्श्वतीर्थ-मार्ग में मुहरीपार्वतीर्थ आया । इसके लिए मेन रोड़ छोड़कर कुछ अन्दर जाना पड़ता है। तीर्थ में पहुँचे । विशाल मन्दिर और भव्य प्रतिमा के दर्शनों से चित्त आनन्द से भर गया । 'जयउसाभिय' चैत्यवंदन सूत्र के पाठ 'मुहरिपास दुहदुरिय खंडण' से इसकी प्राचीनता स्पष्ट होती है। वर्तमान में यह तीर्थ टिटोइ ग्राम के नाम से प्रसिद्ध है।
मार्गस्थ तीर्थों की यात्रा करते हुए अहमदाबाद पहुँचे ।
अहमदाबाद-यह जैनों की धर्म नगरी है । ३००-३५० जिनमन्दिर हैं। कई भव्य बड़े विशाल शिखरबद्ध तो कई छोटे । लेकिन छोटों में भव्य और चित्ताकर्षक प्रतिमाएँ हैं । दर्शन करके मन तृप्त हो गया । नये मन्दिरों-धर्मशालाओं आदि का निर्माण भी हो रहा है।
इतने मन्दिर होने पर भी सभी सुव्यवस्थित हैं । जिस मन्दिर में जाओ ५-५० भक्त पूजा करते हुए मिल ही जायेंगे।
अहमदाबाद में ८ दिन रहकर हमने सभी मन्दिरों के दर्शन किये । और फिर पालीताणा की ओर विहार कर दिया।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी पालीताणा-यह शाश्वत तीर्थराज शत्रुजय जी की तलहटी में बसा है । यहाँ के तीर्थनायक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं । वे नवाणु बार इस तीर्थराज पर पधारे थे । नेमिनाथ के अतिरिक्त २३ तीर्थंकरों के चरण-कमल इस पर पड़े थे और भ० अजितनाथ तथा श्री शांतिनाथ ने यहाँ चातुर्मास भी किया था। पाँचों पांडवों की मोक्षस्थली भी यही है। यहाँ का कण-कण पवित्र है। ऐसी पावन स्थली का श्रद्धा से किया गया स्पर्श भी कोटि जन्मों के पापों का नाश करने वाला है। यहाँ पर किये गये पुण्यों का दस गुना फल होता है । पापी और अभव्य तो इसके दर्शनकर ही नहीं सकता। कहा है
पापी अभव्य न नजरे देखे"......
फाल्गुन कृष्णा २ को हमने इस तीर्थ में पदार्पण किया, रोम-रोम पुलकित हो उठा, 'शत्रुजय रास' की कड़ियाँ (पंक्तियाँ) मन-मानस में उमड़ने लगीं। नरशीनाथ, नरशीकेशव के दर्शन करते हुए हरि विहार धर्मशाला पहुँचे । पू. अनुयोगाचार्य श्रद्धय गुरुदेव वहीं विराज रहे थे। विधिपूर्वक दर्शनवन्दनादि किये । गुरुदेव ने वहीं रुकने का आग्रह किया परन्तु हमें तो नवाणु यात्रा करनी थीं । अतः तलहटी के अत्यन्त निकट हैदराबाद निवासी श्रीमान कपूरचन्दजी श्रीमाल के कपूर निवास की ओर चल दिये । मध्य में माधवलाल धर्मशाला में विराजित सम्पतश्रीजी म. सा., गुणवानश्रीजी म. सा. आदि साध्वियों के दर्शन करते हुए कपूर निवास पहुँच गये।
गरुवर्याश्री के नवाणु यात्रा के निश्चय को सुनकर हम लोग चकित रह गई। ६७ वर्ष की आयु और साढ़े तीन माईल की चढ़ाई। कैसे सम्भव हो सकेगा यह संकल्प पूर्ण ! पर सभी के मन में भक्ति भरा भावोल्लास था और गुरुवर्याश्री के मन में तो सबसे अधिक ।
- प्रातः ५ बजे चढ़ना, शांतिपूर्वक दर्शन, चैत्यवन्दन, देव वन्दन करना और ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक उतरना । यही क्रम चलता था। कभी-कभी घेटी पात्र भी पधारी, पर अधिक बार नहीं, क्योंकि इधर चढ़ाई खड़ी थी।
इसी अन्तराल में श्री अनुयोगाचार्य जो के पास ८ वर्षीय वैरागी मुकेश कुमार जो पाँच-सात महीने से गुरुदेव के पास हो रह रहे थे, उनकी दीक्षा फाल्गुन शुक्ला ३ को समारोहपूर्वक हुई और उन्हें पू. श्री मुक्तिप्रभसागरजी नाम दिया ।
पूज्यात्री ज्ञानश्रीजी महाराज साहब के स्वर्गदिवस चैत्र कृष्णा १० को सूरत निवासी श्री फतेचन्द पान चन्द भाई की ओर से मोती सुविया मन्दिर में बड़ी पूजा पढ़ाई। प्रभावना, रात्रि जागरण आदि सभी उन्हीं की ओर से था।
फतेचन्द भाई ने. चातुर्मास कल्याण भवन में ही करने का अत्याग्रह हम से किया।
नव्वाणु यात्रा के विधान के अनुसार पूज्या शशिप्रभाजी तथा अन्य छोटे साध्वी जी के तो लगभग नवाणु यात्रा हो चुकी थी। दूसरी भी करीब पूरी पूरी होने जा रही थी। पूज्या गुरुवर्या श्री की १०८ यात्रा पूरी होने जा रही थी। हमें अत्यधिक प्रसन्नता थी कि पूज्याश्री का संकल्प पूर्ण हो रहा है। वे प्रतिदिन बहुत ही भक्तिभाव तथा उत्साहपूर्वक दर्शन करती थीं।
___ चातुर्मास बिल्कुल ही निकट था। पू. श्री शशिप्रभाजी म. सा. यद्यपि एक मासक्षमण अपनी जन्मभूमि फलौदी में कर चुकी थीं परन्तु पुनः गिरिराज की छाया में मासक्षमण की तीव्र भावना हुई। मैंने भी मासक्षमण की भावना व्यक्त की।
चातुर्मासिक चतुर्दशी के दिन भी प्रतिदिन के समान गिरिराज पर चढ़े । आज अन्तिम दिन था । अन्य दिनों में तो कल पुनः चढ़ेंगे ऐसी ललक रहती थी। किन्तु आज की बात दूसरी थी। चार
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मास क्षमण तपाराधना के अवसर पर वि. सं. २०२५ भा. शु. ८ को मास क्षमण तक की पूर्णाहुति पर वरघोड़े में श्रद्धया गुरुवर्या प्रतिनी श्री ज्ञानश्रीजी म. (एकदम ऊपर) के साथ कुर्सी पर विराजमान हैं तपस्विनी प्र. श्री सज्जन श्रीजी महाराज।
शिक्षा ग्रह एवं अभिभावक श्रद्धेया श्री उपयोग श्रीजी म. के सान्निध्य में वि. सं. २००८ सेठानी सा. श्री मदन कुंवर वाईसा गोलेच्छा के उद्यापन के उपलक्ष में आयोजित अष्टान्हिका महोत्सव के समय जलयात्रा के वरघोड़े में dan Eduरामनिवास बाग में बिराजी हुई दायें से दूसरे क्रम पर शिक्षा गुरुणी श्री उपयोग श्रीजी म. के साथ चतुर्थ क्रम बरary.org
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WORKERA माह सितारराVAN
वि० सं० २०३३ श्रावण शुक्ला पूनम तीर्थराज पालीताना की पावन भूमि पर मासक्षपण तपाराधिका विदुषी शिष्या श्री शशिप्रभा श्री जी, श्री प्रियदर्शना श्री जी एवं तत्त्वदर्शना श्री जी आदि शिष्या मंडली के साथ पूज्य प्रतिनी श्री सज्जन श्री जो म०
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खण्ड १ | जीवन ज्योति मास के लिए दर्शनों का वियोग हो रहा था। अतः भक्ति एवं दर्शन के सुख के साथ वियोग का दुःख भी मिश्रित हो रहा था। सभी ने बड़ी भक्ति से दर्शन किये । गुरुवर्याश्री के साथ दादा के दरबार में आये । पुनः चैत्यवन्दनादि कर पू. श्री शशिप्रभाजी म. सा , मैंने (प्रियदर्शनाजी) और तत्वदर्शनाश्रीजी ने मासक्षमण की भावना से अट्ठम (तेले) के प्रत्याख्यान कर लिये और दादा से चार महीने के लिए विदाई ली। हमारे नेत्र अश्र पूर्ण थे। वर्षा ने भी हमारे दुख को समझा और चौधारा आँसू (जलधारा) बरसा कर सहयोग/समवेदना प्रगट की। कपूर निवास से कल्याणभवन पहुंचे क्योंकि चातुर्मास वहीं करना था।
पालीताणा चातुर्मास : सं० २०३३ अनुयोगाचार्यजी के आदेश से गुरुवर्याश्री ही व्याख्यान फरमाती थीं। मध्याह्न में अंजना चरित्र सुनाती थीं। हम तीनों का मासक्षमण के साथ मौन-जप-ध्यान चल रहा था।
पूर्णाहति पर बालमुनि मणिप्रभसागरजी ने भी अठाई तप की आराधना की। चातुर्मासार्थ आये हुए श्रावक-श्राविकाओं ने पचरंगी तप भी किया। अष्टाह्निका महोत्सव, पूजा-वरघोड़ा, रात्रिभक्ति आदि सभी कार्यक्रम हरिविहार में थे, इसलिये हम सब लोग भी वहीं आ गये थे। प्रसिद्ध गुडाबालोतान की मंडली बुलाई गई थी, जिससे पूजा, वरघोड़े आदि में चार चाँद लग गये थे। वरघोड़े की शोभा दर्शनीय और स्वामीवात्सल्य प्रशंसनीय रहा । सभी कार्य सुव्यवस्थित ढंग से सम्पन्न हुए।
चातुर्मास सभी प्रकार से सफल रहा। पठन-पाठन का कार्य भी सुन्दर रहा और फतेचन्दभाई की सेवा प्रशंसनीय रही।
हमें गुजरात की पंचतीर्थी की यात्रा करनी थी अतः चातुर्मास बाद विहार किया। मौन एका. दशी की आराधना गिरनार तीर्थ पर की।
वहाँ से विहार कर मार्गस्थ मांगरोल, वेरावल, आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए चन्द्रप्रभासपाटन (सोमनाथ पाटन) पहुँचे। यहाँ चन्द्रप्रभ भगवान के विशाल मन्दिर के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया । यहीं इतिहास विख्यात सोमनाथ का मन्दिर समुद्र किनारे बना हुआ है, जिसको महमूद गजनवी ने बार-बार लूटा और ध्वस्त किया तथा इसका बार-बार निर्माण होता रहा। इसे सरकार ने ऐसा भव्य रूप प्रदान किया कि टूरिस्ट लोग भी देखने आते हैं। यहाँ से सन सेट पाइन्ट भी बड़ा सुन्दर दिखाई देता है।
- यहाँ से विहार करके अजार। पार्श्वनाथ आये। लाल पत्थर की भगवान पार्श्वनाथ की बड़ी विशाल प्रतिमा है। भोजनशाला आदि भी व्यवस्थित है।
__ वहाँ से महुआ दाठा तलाजा आदि पंचतीर्थी की यात्रा करके शत्रुजयी डेम के पास नूतन मन्दिर के दर्शन करते हुए पालीताना आये ।
चूंकि तीर्थराज का प्रभाव ही ऐसा है कि बार-बार यात्रा करने को मन करता है। एक बार पुनः तीर्थाधिराज के दर्शन किये ।
इसी बीच सूरत से श्री संघ का विनती पत्र एवं तत्रस्थ विराजित पू. श्री गणाधीश महोदय का आदेश पू. श्री अनुयोगाचार्यजी के पास आया कि 'मेरा स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहता, अतः चातुर्मास हेतु किसी साध्वीजी को भेजें। पूज्य गुरुदेव ने पूज्या गुरुवर्याश्री से कहा और उन्होंने मुझे (प्रियदर्शनाजी), तत्वदर्शनाजी तथा सम्यग्दर्शनाजी को सूरत विहार करवाया।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
पालीताना में उसी दिन (चैत्र बदी ५ को) पू. गुरुदेव श्री कांतिसागरजी की निथा में दो भ्रातृ युगल श्री सुयशप्रभसागरजी व विमलप्रभसागरजी की दीक्षा हुई और दोनों ने श्री अनुयोगाचार्यजी का शिष्यत्व ग्रहण किया।
इधर जयपुर विराजित पू. प्र. महोदया विचक्षणश्रीजी म. सा. ने आदेश प्रेषित किया कि आप जैसी विद्वद्वर्या के ज्ञान का लाभ अन्य क्षेत्रों को भी मिलना चाहिये । अतः आगामी चातुर्मास सांचोर या जामनगर करना उचित है। आदेश के साथ ही जामनगर संघ की आग्रहपूर्ण विनती लेकर मुख्य-मुख्य श्रावक आ गये। पूज्या गुरुवर्या ने तत्काल स्वीकृति दे दी।
गुरुवर्याश्री ने जेष्ठ मास की अंगारे बरसाने वाली गर्मी में जामनगर की ओर प्रस्थान कर दिया।
जामनगर चातुर्मास : सं. २०३४ यह नगर सौराष्ट्र की सीमा पर है । यहाँ अनेक शिखरबद्ध जिनमन्दिरों में भव्य मोहक प्रतिमाएँ विराजमान हैं, ऐसी भव्य नगरी में सं. १६६२ में पू. प्र. श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. उपयोगश्रीजी म. सा. आदि का शानदार चातुर्मास हो चुका था। गुरुवर्याश्री के पधारने से लोगों में अतीत की स्मृतियाँ ताजा हो गई। बड़े ही धूमधाम से आपका नगर-प्रवेश हुआ। मन्दिरों के दर्शनकर आपश्री धर्मनाथ मन्दिर से संलग्न उपाथय में पधारी। धर्मदेशनारूप मांगलिक प्रवचन सुन्दर गुजराती भाषा में श्रवण कराया। श्रोता चमत्कृत रह गये कि मारवाड़ी-राजस्थानी साध्वीजी का गुजराती भाषा पर ऐसा अधिकार ।
फिर तो चार महीने तक गुरुवर्याश्री के मुख से गुजराती भाषा में प्रवचन पीयूष की स्रोतस्विनी बहती रही।
तथ्य यह है कि गुरुवर्याश्री का मारवाड़ी, गुजराती, हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत सभी भाषाओं पर पूर्ण अधिकार है।
चातुर्मास में बसनजी भाई (आप गुरुवर्या की सेवा में रहते थे) ने मासक्षमण किया, बहनों ने भी पंचरंगी, शंखेश्वरजी के अट्ठम आदि अनेक तपस्याएँ कीं। कई बहिनों ने सामायिक-प्रतिक्रमण, प्रकरण, कर्मग्रन्थादि सीखे । सभी का चार महीने तक धर्मोत्साह बना रहा।
यद्यपि यहाँ खरतरगच्छ के श्रावकों के घर कम है पर जितने भी हैं, उनमें धर्म उत्साह बहुत है।
तत्रस्थ विराजित अंचलगच्छीय साध्वीजी गुरुवर्याश्री के आगमज्ञान से प्रभावित होकर आचारांग की वाचना लेने आईं। गुरुवर्याश्री ने आचारांग के एक-एक सूत्र का ऐसा सारगर्भित विवेचन किया कि वे दंग रह गयीं। नित्य आने लगीं। गुरुवर्याश्री भी बिना भेदभाव के ज्ञान की वर्षा करने लगीं।
जामनगर से कच्छ समीप ही है अतः गुरुवर्याश्री के वहाँ जाने के भाव थे । पर जयपुर विराजित प. प्र. महोदया के, पूर्व असातावेदनीय कर्मोदयवश, ब्रस्ट' (छाती) में अचानक ही कैंसर की गाँठ हो गयी। जयपुर से पत्र द्वारा इस विषय के समाचार जानकर चिन्ता हुई, जयपुर जाने का निर्णय ले लिया। जामनगर से विहार करके मोरवी, ध्रांगध्रा आदि होते हुए शंखेश्वर आ पहुंचे, वह दिन पौष कृष्णा १० भ. पार्श्वनाथ का जन्म दिवस था।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
सूरत से प्रियदर्शनाजी आदि साध्वीजी भी आ गये । उल्लासपूर्वक प्रभु की स्तवना, भक्ति आदि करते हुए ३-४ दिन तक वहीं रहे।
वहाँ से सिद्धपुर, पालनपुर आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए माउन्ट आबू पहुँचे ।
माउण्ट आबू के शिखरबद्ध मन्दिर विश्वविख्यात हैं। बड़ी अनुपम कोरनी (कारीगरी) की गयी है। दौरानी-जिठानी के आले अत्यन्त सूक्ष्म किन्तु सुन्दर कोरनी से युक्त हैं। हमने सभी मन्दिरों के दर्शन किये। सनसेट पाइन्ट, नक्की झील आदि कई दर्शनीय स्थान हैं, जिन्हें देखने टूरिस्ट आते हैं।
वहाँ से और आगे अचलगढ़ गये। वहाँ बड़ी विशाल भव्य स्वर्णप्रतिमाएँ चौमुखजी के रूप में हैं। वहीं योगिराज श्री शान्तिगुरुदेव का स्थान है। वहाँ से पुनः माउण्ट आबू आकर हम लोग अणादरा (जो योगिराज की जन्मभूमि है) की घाटी से, जो बड़ा ही पथरीला मार्ग है, नीचे उतरे।
वहाँ से सिरोही जावाल आदि होते हुए बसन्त पंचमी (योगिराज का जन्म दिवस) के दिन मांडोली आये । इस दिन वहाँ बड़ा भारी मेला लगता है, स्वामीवात्सल्य होता है. पूजा पढ़ाई जाती है।
यहीं पर ४-५ व्यक्ति सिवाणा पधारने की विनती लेकर आये । समाचार दिया-पूज्या श्री चम्पाश्रीजी म. सा. यहीं ठाणापति विराजित हैं। उन्हीं की निथा में और पूज्यश्री तीर्थसागरजी म. सा. व कैलाशसागरजी म. सा. के हाथों ८ साध्वीजी की बड़ी दीक्षा का आयोजन है, सूर्यप्रभाजी ने भी मासक्षमण करने का निश्चय किया है, समुदायाध्यक्षा का भी यही आदेश है; अतः शीघ्र पधारें।
हमको भी उधर जाना था, अतः आश्वस्त करके विदा कर दिया।
मांडोली से विहार कर जालौर तीर्थ पहुँचे। वहाँ स्वर्णगिरि पर्वत पर ५ विशाल मन्दिर हैं । हम नंदीश्वर द्वीप की धर्मशाला में ठहरे। दूसरे दिन ऊपर चढ़े, सभी मन्दिरों के दर्शन किये, नीचे आये । दो दिन रुके। सिवाणा की ओर प्रस्थान किया। विशनगढ़, बालवाडा, रमणिया, मोकर हए ५-६ दिन में सिवाणा पहुँच गये।
सिवाणा में निर्णीत दिन बड़ी धूमधाम से बड़ी दीक्षाएँ हुईं। दीक्षार्थिनियों के पारिवारीजन तथा अन्य भी बहुत से लोग आये। अभी १५ दिन के दशवकालिक योग अवशिष्ट थे । अन्य कई साध्वीजी के १५ दिन के योग बाकी थे। अतः पूज्या श्री शशिप्रभाजी, मैंने (प्रियदर्शनाजी ने), जयश्रीजी व सम्यग्दर्शनाजी ने दशवैकालिक योग इन लोगों के साथ ही प्रारम्भ कर दिये । बड़ो शान्ति से योगोद्वहन पूर्ण हुए। लगभग सवा महीने हम लोग यहाँ रुके।
वहाँ से पूज्याश्री आदि सर्व गौड़वाड़ की पंचतीर्थी-नाडोल, नाडलाइ, राणकपुर, वरकाणा, मूछाला महावीरजी आदि की यात्रा करते हुए पाली पहुँचे ।
पाली विराजित पूज्याधी अनुभवश्रीजी म. सा. के दर्शन-वन्दन कर एक दिन विश्राम किया। तदुपरान्त सोजत की ओर विहार किया। मार्ग में बागावास के स्कूल में रात्रि विश्राम किया। यह स्थान सोजत से १३ किमी. दूर है।
प्रातः कुछ अंधेरा था । गुरुवर्याश्री स्थंडिल के लिए जैसे ही गेट से बाहर पधारे कि लकड़ी आदि बीच में आ जाने से गिर गये । घुटनों में काफी चोट आई। साथ वाले साध्वीजी ने दवाई आदि लगाने का आग्रह किया पर आप स्थण्डिल चली ही गईं। लौट आने पर देखा तो गौड़े (जाँघे) छिल गये थे । दवा आदि लगाई, कुछ राहत मिली तो चलने को प्रस्तुत हो गईं। प . शशिप्रभाजी ने बहुत मना किया पर
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी आप तो हिम्मत की धनी हैं, पू. शशिप्रभाजी विवश होकर चुप हो गई। सभी ने विहार किया । केवल दो साध्वीजी-प. श्री शशिप्रभाजी म. सा. व अन्य एक साध्वी को अपने साथ रखा, बाकी सभी को सोजत विहार करा दिया । आप धीरे-धीरे चलती हुई ४-५ घण्टे में ४-५ किलोमीटर चलकर एक प्याऊ पर रुकीं । किन्हीं कारवालों ने अपको देखकर कार रोकी। आपकी पीड़ा को समझकर एक ट्यूब दी व पहिए का ग्रीस लगाने को दिया ।
इधर जैसे ही साध्वीजी सोजत पहुँची तो वहाँ के श्रावकों को जानकारी हुई । वे लोग तुरन्त ही एक लेडी डॉक्टर को मरहम पट्टी के साथ लेकर उसी प्याऊ पर पहुँचे । पट्टी वगैरह तथा आहार-पानी की व्यवस्था की। फिर भी सूजन तथा दर्द में कोई राहत न मिली। बहुत धीरे-धीरे चलकर तीन दिन में सोजत पहुंचे। वहाँ लगभग पन्द्रह दिन रुके । पाँव बिल्कुल ठीक हो जाने पर वहाँ से विहार करके ब्यावर अममेर पधारे । वहीं पर हम लोगों ने (प्रियदर्शनीजी, तत्वदर्शनाजी) गुरुवर्याश्री के दर्शन किये ।
वहाँ से पूज्याश्री व हम सबने पूज्या जैन कोकिला जी के दर्शनार्थ जयपुर की ओर प्रस्थान किया।
जयपुर में प्रतिनीधीजी के दर्शन करके हम लोगों ने स्वयं को कृतकृत्य माना । पूज्या गुरुवर्याश्री ने जैन कोकिला से उस गाँठ के विषय में चर्चा की और देखा भी। बड़े बेर जितनी मोटी गाँठ थी। गुरुवर्याश्री ने जैन कोकिलाजी को करबद्ध होकर ऑपरेशन करवाने की प्रार्थना की तो प्रवर्तिनीश्री ने स्नेहसिक्त किन्तु दृढ़ शब्दों में कहा
'सज्जनश्री सा. ! मैं आपकी बात जरूर मान। पर मुझे उसमें सार तो नजर आये। मैंने देखा भी है और सुना भी है जिसने भी आपरेशन करवाया है और शेक लिया है। उसकी बीमारी बढ़ी है, कम नहीं हुई है । फिर यह तो कर्मों का कर्जा है, चुकाना ही पड़ेगा। इसे अभी चुकाना ही अच्छा है। इसलिए आप ऑपरेशन का आग्रह न करें । मैं किसी भी प्रकार उपचार नहीं करवाऊँगी। मेरा यही संकल्प है।'
इस संकल्प के आगे कुछ भी कहने को न रहा । सभी विवश हो गये।
चातुर्मास निकट आ रहा था। कई क्षेत्रों से विनतियाँ आई । अतः टोंक क्षेत्र में पू० श्री मणिप्रभाजी म० सा०, पू० श्री शशिप्रभाजी म० सा०, सम्यग्दर्शनाजी व विश्वा प्रज्ञाश्रीजी-इन चारों को प्रस्थान करवाया।
मालपुरा में-श्री मुक्तिप्रभाजी म० सा०, पू० कमलाश्रीजी म. सा. व दिव्यदर्शनाजी आदि तीन, पू० मनोहरश्रीजी म० सा० के साथ जयश्रीजी आदि तथा दिल्ली में श्री निरंजनाश्रीजी काव्यप्रभाजी आदि चार । इस प्रकार निकट के क्षेत्रों में साध्वीजी को चातुर्मासार्थ प्रस्थान करवाया।
प्र० महोदया जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी म. की निश्रा में
जयपुर चातुर्मास : सं० २०३५ पू० प्र० जैन कोकिलाजी ने पु० गुरुवर्याश्री को अपने ही पास रखा। साथ ही मुझे (प्रियदर्शनाजी) व तत्त्वदर्शनाजी को भी आपश्री की निश्रा में चातुर्मास करने का सौभाग्य मिला । पू० प्रवतिनीजी के साथ यह मेरा पहला चातुर्मास था।
इस वर्ष पू० श्री जयानन्दजी म० सा० का चातुर्मास भी जयपुर ही था । आपत्री ने पू० गुरुवर्याश्री से आचारांग सूत्र का वाचन किया था । मध्यान्ह में श्रीमद् देवचन्द के 'आगमसार' पर स्वाध्याय,
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प्रश्नोत्तर आदि चलते थे जिसमें सर्व साध्वीजी के अतिरिक्त तत्वरसिक श्रावक-श्राविका भी भाग लेते थे । श्रीमद् देवचन्द्र चौबीसी के स्तवनों का अर्थ पू० प्रवर्तिनी महोदया बड़े सुन्दर रूप में समझाती थीं । स्वाध्याय और तत्वचर्चा करते हुए जयपुर का चातुर्मास सम्पन्न हुआ ।
चातुर्मास के उपरान्त पू० प्रवर्तिनीजी दादाबाड़ी पधार गये । टोंक चातुर्मास करके पू० मणिप्रभाजी म० सा० आदि और मालपुरा चातुर्मास करके कमलाश्रीजी म० सा० आदि गुरुवर्या के चरणों में आ पहुँचे । पू० मनोहर श्रीजी म० सा० आदि अलवर चातुर्मास करके जयपुर आ पहुँचे । सुरंजनाश्रीजी म० सा० के साथ प्रियदर्शनाजी व सम्यग्दर्शनाजी म० को प्रयाग सम्मेलन की परीक्षा हेतु अजमेर प्रस्थान
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करवाया ।
पू० जयानन्दजी म० सा० दादावाड़ी की प्रतिष्ठा हेतु अलवर पधार गये ।
चैत्र मास में पू० श्री शशिप्रभाजी म० सा०, दिव्यदर्शनाजी व तत्वदर्शनाजी ने वर्षीतप प्रारम्भ किया, साथ ही कई गृहस्थ बहनों ने भी चालू किया ।
पूज्य श्री शीलवतीजी म० सा० का स्वास्थ्य उपचार के बाद भी गिरता ही जा रहा था । पू० प्रवर्तिनीजी तो दादाबाड़ी विराजित थीं; किन्तु शहर में विराजित पू० शीतल श्रीजी म० सा० के अस्वस्थ होने के कारण पू० गुरुवर्या श्री कभी दादाबाड़ी तो कभी शहर में आती जाती रहती थीं । हम लोग लगभग ५० साध्वीजी थे । उनमें से १०-१२ दादाबाड़ी में और बाकी शहर में रहती थीं ।
पू० प्रवर्तिनीजी ने अपने गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर पू० गुरुवर्या से पुण्यमंडल का कार्यभार संभालने को कहा । उत्तराधिकार सौंपा । (पूज्या विचक्षणश्रीजी म० के हस्तलिखित उत्तराधिकार पत्र की प्रतिलिपि पृष्ठ ७४ पर देखिए ।) जिस पर गुरुवर्या ने यथायोग्य शासनसेवा का वचन दिया । आषाढ़ महीने में पू० अनुयोगाचार्यजी पू० प्रवर्तिनी महोदया को दर्शन देने पधारे, सुख साता की पृच्छा की, दो दिन दादाबाड़ी में रुके और फिर प्रस्थान करके उग्र विहार करते हुए बाड़मेर पहुँचे । पू० श्री शीतलश्रीजी म० सा० का स्वास्थ्य गम्भीर हो गया । उन्हें त्याग-प्रत्याख्यान आदि सभी करवा दिये । पाठ- सज्झाय - नवकार मंत्र की धुन सुनते हुए आषाढ़ बदी १० को २ बजे उनका नश्वर शरीर छूट गया ।
यद्यपि पूज्या प्रवर्तिनी का स्वास्थ्य गम्भीर होता जा रहा था किन्तु अजमेर वाले चातुर्मास के लिए अड़े हुए थे । अतः इच्छा न होते हुए भी प्रवर्तनीजी ने गुरुवर्याजी को अजमेर चातुर्मास की आज्ञा दे दी । गुरुआज्ञा को शिरोधार्य कर पू० गुरुवर्याजी ने अपने साध्वीमंडल के साथ अजमेर की ओर विहार किया ।
अजमेर चातुर्मास : सं० २०३६
अजमेर पहुंचे। बड़े उल्लासपूर्वक दादा मेला मनाया गया। गुरुवर्या ने श्रद्धांजलि रूप एक गीतिका बनाई जिसे हम सभी ने पूजा में गाई ।
दूसरे दिन धूमधाम से नगर प्रवेश हुआ । प्रतिदिन बड़े उपाश्रय में व्याख्यान होता था । उपस्थिति अच्छी होती थी ।
मध्यान्ह में चौपो प्रियदर्शनाजी बांचती थीं ।
श्राविकाओं ने उत्साहपूर्वक पंचरंगी प्रारम्भ की। सम्यग्दर्शनाश्रीजी ने भी पंचरंगी में शरीक
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी उत्तराधिकार पत्र, बनाता है- शासन का छत्र
3ॐ नमः निजी सुभोपा सिदान्त विशाद न माल सजनजीकी सर्व
निदान।। श्रीक मा २ समr सुखमा ता अनुबना ये ना
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प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी महाराज ने शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति में जीवन की सांध्य बेला में पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज को श्रमणी समुदाय की समस्त जिम्मेदारी सौपकर
जो उत्तराधिकार पत्र लिखा, उसकी प्रतिलिपि.
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
होने के लिए उपवास प्रारम्भ किये । प्रारम्भ में भाव तो पचोले का ही था, किन्तु शासनदेव की कृपा से मासक्षमण ही हो गया। पर्वाधिराज पर्युषण की पूर्णाहुति पर ही मासक्षमण की पूर्णाहुति थी।
पर्णाहति पर अठाई महोत्सव हआ। पूजा पढ़ाने के लिए यतिवर्य श्री रूपचन्दजी एवं जयपुर से नागौरीजी पधारे। शंखेश्वर के अट्ठम (तेले) काफी हुए। पूजा-भक्ति, आंगी प्रभावना, स्वामीवात्सल्य का भरपूर लाभ अजमेर के खरतरगच्छ ने दिल खोलकर लिया । तप-दान-पूजा का रंग बरसने लगा।
__ स्थानकवासी सम्प्रदाय के पू० श्री नानालालजी म० सा० का चातुर्मास भी अजमेर ही था। वे स्वयं ही एक बार सुख-साता पूछने पधारे । इससे दोनों सम्प्रदायों में स्नेह की वृद्धि हुई।
इधर जयपुर से समाचार मिले कि पू. प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी के केसर गाँठ में दर्द बहुत बढ़ । गया है और खून आने लगा है। विचित्रता यह थी कि इस बीमारी में अन्य लोगों के तो दुर्गन्धयुक्त रक्तपीव रिसता है किन्तु पूज्या प्रवर्तिनीजी के तो एकदम शुद्ध रक्त रिसता था। उधर अनुयोगाचार्यजी की निश्रा में बाड़मेर से पालीताना का छःरी पालित संघ निकल रहा था जिसमें गुरुवर्याश्री को सम्मिलित होने का अनुयोगाचार्यजी का आदेश था।
दुविधापूर्ण स्थिति हो गयी। इधर पूज्य प्रवर्तिनीजी के स्वास्थ्य की चिन्ता, उधर अनुयोगाचार्य जी का आदेश । क्या किया जाय ? गुरुवर्या की इच्छा थी कि पहले जयपुर जाकर पू. प्रवर्तिनीजी की दशा स्वयं आँखों से देखू, इसके बाद अनुयोगाचार्यजी के आदेश का पालन करूं। लेकिन शारीरिक स्थिति ऐसा उग्रविहार करने की नहीं थी।
आखिर शशिप्रभाश्रीजी ने कहा-आप मुझे आदेश फरमायें ताकि मैं स्वयं जयपुर जाकर पू० प्रवर्तिनीजी की सारी स्थिति देख आऊँ। पूज्याश्री ने आदेश फरमाया और शशिप्रभाश्रीजी व दिव्यदर्शनाश्री जी ने जयपुर के लिये विहार किया।
उस समय जयपुर में विचक्षण भवन का उद्घाटन व हेमलता का दीक्षा समारोह था। दोनों में ही साध्वीजी सम्मिलित हुईं, ५-६ दिन रुककर पुनः अजमेर लौट आई । वहाँ से संघ में सम्मिलित होने के लिए ६ साध्वीजी ने विहार किया।
हम लोग ब्यावर से सोजत होकर पाली प्रस्थान कर रहे थे कि बीच में ही गुरुवर्याश्री के पाँवों में दर्द होने लगा, मुश्किल से पाली पहुँच सके । तीन-चार दिन रुककर मालिश करवाई, दर्द कुछ कम हुआ। विहार कर दिया। एक ही मंजिल पहुंचे कि दर्द फिर शुरू हो गया, जैसे-तैसे गुन्दोज पहुँचे । दर्द बहुत बढ़ गया, घुटनों में सूजन आ गई, उठना-बैठना भी मुश्किल हो गया। गुन्दोज में ही स्थिरता करनी पड़ी। संघ के लिये शशिप्रभाजी म. सा. और सम्यग्दर्शनाजी को विहार करवा दिया, वे लोग गांधव ग्राम में जाकर संघ में सम्मिलित हो गये ।।
पूज्यवर्याश्री आदि कुछ दिन गुन्दोज में रहे । यहाँ जिनमन्दिर भी हैं और श्रावकों के १५-२० घर भी। सभी अच्छे श्रद्धावान हैं। यहाँ रहकर आयुर्वेदिक उपचार कराया, मेथी आदि अधिक मात्रा में ली, दर्द बिल्कुल समाप्तप्राय हो गया तब विहार करके वादनवाड़ी, अदूपुरा होते हुए जाहोर आये। कष्ट और पीड़ा के क्षणों में भी गुरुवर्या में अपार सहनशीलता और तीर्थवन्दना की उमंग देखकर लगता है असातावेदनीय भी उनके सत्संकल्पों के समक्ष हार सा गया।
होली के दिन निकट थे अतः संघ के आग्रह से ८-६ दिन रुके । व्याख्यानों से प्रभावित होकर संघ ने चातुर्मास की विनती की। सिवाणा से भी ५-७ व्यक्ति चातुर्मास की विनती लेकर आ गये, बहुत
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
आग्रह किया। दिव्यदर्शनाजी व तत्वदर्शनाजी ने वर्षीतप का पारणा भी सिवाणा में हो, ऐसी भावना व्यक्त की। आखिर उनकी चातुर्मास की विनती स्वीकार हई।
आहोर से सिवाना की ओर चैत्र कृष्ण पक्ष में हम लोगों ने विहार कर दिया।
तखतगढ़, सांडेराव आदि छोटे-छोटे नगरों में विशाल जिन-मन्दिरों के दर्शन करते हुए मोकलसर आये। संघ के आग्रह से ८-१० दिन रुके । फिर विहार करके सिवाणा पहुंचे। दोनों साध्वीजी के वर्षीतप का पारणा सानन्द सम्पन्न हुआ ।
जैन कोकिला पू. प्रवर्तिनीजी का देवलोक गमन प्रतिदिन के समान वैशाख शुक्ला ५ को भी व्याख्यान चल रहा था। इसी बीच जयपुर से तार आया पू. प्रवर्तिनीजी श्री विचक्षणश्रीजी के स्वर्गवास का समाचार लेकर । जानकर बहुत दुख हुआ, व्याख्यान-सभा, शोक-सभा बन गयी। जैनजगत की एक दिव्य तारिका का अवसान ! सर्वत्र ही शोक छा गया।
शोक आखिर मोह का ही एक रूप है । मोह निवृत्ति वीतराग दर्शन से ही संभव है । अतः हमने सभी लोगों के साथ देव-वन्दन किये, मन्दिर गये । वीतराग चरणों में दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धा व शोक निवृत्ति की प्रार्थना की।
दो दिन पश्चात गुणानुवाद सभा का आयोजन किया गया। पू० प्रवर्तिनीजी के आदर्श जीवन और दिव्यगुणों पर प्रकाश डाला गया।
सिवाणा चातुर्मास सं० २०३७ कुछ दिन के लिए हम लोग मिठोड़ावास-उम्मेदपुरा (सिवाणा का एक उपनगर) चले गये । वहाँ खरतरगच्छ के २४० घर हैं। ३०-४० लड़कियाँ धार्मिक अध्ययन करने हमारे पास आती थीं। पू० शशिप्रभाजी म. सा. आदि जो संघ में गये थे वे भी पालीताना से उग्रविहार करके ज्येष्ठ सुदी में ही सिवाणा वापस पधार गये ।
मिठोड़ावास वालों का भी चातुर्मास के लिए अत्यधिक आग्रह हुआ । अतः शशिप्रभाजी मसा० और सम्यग्दर्शनाजी म० को मिठोड़ावास का चातुर्मास करवाया गया तथा पूज्या गुरुवर्याधी एवं प्रियदर्शनाश्रीजी व दिव्यदर्शनाजी ने गाँव में चातुर्मास किया।
व्याख्यान दोनों ही जगह होते थे । मिठोड़वाास में पू० शशिप्रभाजी व्याख्यान फरमातीं और गाँव में गुरुवर्याश्री।
गुरुवर्याश्री के व्याख्यानों से कुमारी नीता (नारंगी) ललवाणी के मानस में वैराग्य भावना उद्बुद्ध हो गई। - पू० शशिप्रभाजी म.सा० के व्याख्यानों में मानसपरिवर्तन करने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने मिठोड़ावास के लोगों के मन में पड़ी हुई तड़ों (भेदरेखाओं) को दूर कर दिया । मनोमालिन्य समाप्त हो गया । जो काम बड़े-बड़े दिग्गज विद्धान मुनि भी नहीं कर पाये, वह आपने कर दिखाया।
पूज्या गुरुवर्या के आशीर्वाद से आपकी वाणी में भी एक चमत्कार पैदा हो गया।
आपश्री के व्याख्यानों से १० वर्षीय कुमारी नारंगी उर्फ निशा तथा लक्ष्मी भंसाली-दो लड़कियों के मानस में संस्कारों के बीज प्रेरणा और प्रवचन के अमृत सिंचन से अंकुरित हुए । उन पर वैराग्य, समत्व व निवृत्ति के सुमन भी खिलने लगे । वैराग्य के बीज अंकुरित हो गये।
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दोनों जगह (गाँव और मिठोड़ावास) त्याग-तप-प्रत्याख्यान आदि खूब हुए । कई बहिनों ने १५-१६-११ के तप किये। तपस्वी बहिनों का बहुमान किया गया। पूजा-प्रभावना-स्वामिवात्सल्य का ठाठ रहा।
अष्टम शताब्दी मनाने का निर्णय भी इसी चातुर्मास में हुआ। मन्दिर बनवाने का निर्णय व गरुदेव की मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया गया।
अजमेर निवासी श्रीमानमलजी सुराणा की पुत्री मंजु सुराणा के मानस में वैराग्य बीज ४ वर्ष पहले अंकुरित हो चुका था, पर घरवालों ने स्वीकृति नहीं दी थी। किन्तु सिवाणा चातुर्मास में श्रीमानमलजी सा० अपनी सुपुत्री को लेकर सिवाणा आये और शिक्षा हेतु पास रखने की भावना तथा दीक्षा दिलाने के लिए अजमेर पधारने की विनती की। जिसे गुरुवर्या ने स्वीकार कर ली।
साथ ही जीवाणा निवासी स्व० हस्तीमलजी बागरेचा की सुपुत्री लीलाकुमारी जो वैरागिन के रूप में दो वर्ष से हमारे साथ ही रह रही थी, उसके भी परिवार वालों ने दीक्षा देने की स्वीकृति प्रदान कर दी। __इस प्रकार सिवाणा चातुर्मास सभी प्रकार से सफल रहा ।
पालीताना चातुर्मास पूर्णकर पू० गुरुदेव कांतिसागरजी म.सा० धोलका में नूतन दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा कराने हेतु पधारे थे। वहीं वैराग्यवती लीला बागरेचा अपने परिवारीजनों के साथ दीक्षा के अवसर पर पधारने की विनती करने गई। गुरुदेव ने नाकोड़ा में दीक्षा कराने का सुझाव दिया, जिसे परिवार वालों ने स्वीकार कर लिया। पौष शुक्ला १० का दिन दीक्षा दिवस निर्णीत किया गया । तदनुसार गुरुदेव नाकोड़ा पधारे ।
हम लोग सिवाणा से विहार करके पू० श्री चम्पाश्रीजी म. सा. की सेवा में बालोतरा पहुंचे। १५ दिन रुके । पार्श्वनाथ जन्म कल्याणक (पौष वदी १०) को नाकोड़ा पहुँचे गये ।
इसी अवसर पर छत्तीसगढ़ रत्नशिरोमणि पू. मनोहर श्रीजी म. सा. १७ ठाणा व जोधपुर चातुर्मास पूर्ण करके पू. मणिप्रभाश्रीजी आदि ३ ठाणा नाकोड़ा पौष बदी १० के मेले पर पधार गये। उत्साह से मेला मनाया।
जीवाणा श्रीसंघ के आग्रह से गुरुवर्याश्री ने पू. शशिप्रभाश्रीजी म. सा. आदि को जीवाणा विहार कराया व पू. मणिप्रभाजी म. सा. आदि कुछ दिन के लिए सिवाणा, मोकलसर आदि पधार गये । क्योंकि अभी दीक्षा में १५ दिन बाकी थे।
लीला बागरेचा की दीक्षा : सं. २०३७ कुमारी लीला की दीक्षा पर पू. श्री शशिप्रभाजी म. सा., पू. श्री मणिप्रभाजी म. सा. आदि पुनः नाकोड़ा पधार गये। पू. मनोहरश्रीजी म. सा. और हम सब इस तरह लगभग ३०-३५ ठाणा थे। पू० गुरुदेव की निश्रा में पौष शुक्ला १० को दीक्षा सम्पन्न हुई । कुमारी लीला को दीक्षोपरान्त नाम दिया गया-शुभदर्शनाजी और पूज्या गुरुवर्या की शिष्या घोषित की गई ।
पू. गुरुदेव ब्यावर की ओर विहार कर गये, क्योंकि उनका दिल्ली चातुर्मास निश्चित हो चुका था और उन्हें अजमेर-जयपुर होते हुए दिल्ली जाना था।
अजमेर में मंजु सुराणा की दीक्षा : सं. २०३८ मंजु सुराणा की दीक्षा हेतु हम लोगों ने अजमेर की ओर विहार किया तथा पू. मणिप्रभाजी
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जोवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
के साथ तीनों बहनों (खड़गपुर वालों) ने जैसलमेर की ओर कदम बढ़ाये।
अजमेर वालों की विनती स्वीकार कर दीक्षा करवाने हेतु पू. गुरुदेव श्री कैलाशसागरजी म. सा. पधारने वाले थे।
__ हम लोग दीक्षा से १०-१५ दिन पहले ही अजमेर पहुँच गये। पू. कैलाशसागरजी म. सा. नियत तिथि पर पहुँचे। पू. विजयेन्द्रश्रीजी म. सा. पहले से ही विराजित थे। तपागच्छ के साधु महाराज भी विराजित थे। जयपुर से गुरुवर्या जी की गुरुबहिन जिनेन्द्रश्रीजी म. सा. व जयश्रीजी म. सा. भी पधार गये थे।
वैशाख कृष्णा ६, सं. २०३८ को सुभाष उद्यान में कुमारी मंजू की दीक्षा सानन्द सम्पन्न हुई । दीक्षोपरान्त नाम रखा गया मुदितप्रज्ञाश्री और गुरुवर्या की शिष्या घोषित हुईं। इनकी बड़ी दीक्षा वैशाख शुक्ला १० को सम्पन्न हुई।
पू० शशिप्रभाजी के द्विवार्षिक तप का पारणा अक्षय तृतीया के दिन कोठी के मन्दिर में हुआ। यहाँ मूलनायक श्री ऋषभदेव भगवान हैं । संघ ने सिद्धचक्र, महापूजन सहित अष्टान्हिका उत्सव किया।
न्यावर में हालवालों के नवनिर्मित मन्दिर की प्रतिष्ठा ज्येष्ठ शुक्ला १० को पू० कैलाशसागर जी म. सा० की निश्रा में हो रही थी। हमें भी आमन्त्रित किया गया अतः हम भी सम्मलित हुए। सानन्द धूम-धाम से प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
चातुर्मास के लिये ब्यावर संघ की विनती स्वीकार कर ली पर जयपुर वालों का भी अत्यधिक आग्रह था अतः प्रियदर्शनाजी आदि ठाणा ५ को जयपुर विहार करवा दिया और गुरुवर्याश्री शशिप्रभाश्रीजी आदि ठाणा ६ ब्यावर में ही विराजे ।
ब्यावर चातुर्मास : सं. २०३८ ब्यावर चातुर्मास में व्याख्यान गुरुवर्याजी ही फरमाती थीं मन्दिर के परिसर में बनी धर्मशाला में । तप-नियम-त्याग-प्रत्याख्यान आदि खूब हुए।
दिल्ली चातुर्मास पूर्ण करके पूज्य गुरुदेव अनुयोगाचार्य जी ब्यावर पधारे। अजमेर से प्रधान सा० आदि तथा जयपुर से हम लोग भी ब्यावर पहुँच गये। पू० गुरुदेव को नागेश्वर दादावाड़ी की प्रतिष्ठा कराने जाना था अतः सिर्फ एक दिन रुककर नागेश्वर की ओर प्रस्थान कर दिया तथा हम लोगों ने जोधपुर की ओर ।
नागेश्वर में, अखिल भारतीय खरतरगच्छ संघ की मीटिंग में पू० श्री उदयसागरजी म० सा० व प० कान्तिसागरजी म. सा० को आचार्य पद पर तथा पूज्या गुरुवर्याजी को प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया गया। तथा पद समारोह जयपुर में ही करना है, यह भी निश्चित कर लिया गया।
जयपुर संघ तथा अखिल भारतीय खरतरगच्छ संघ का गुरुवर्याश्री से अत्यधिक आग्रह था कि पदोत्सव उत्सव पर जयपुर पधारें, पर शारीरिक अस्वस्थता के कारण नहीं पधार सकीं, अपने प्रतिनिधि के रूप में पू० शशिप्रभाजी म० सा० को जयपुर भेजा।
अखिल भारतीय खरतरगच्छ संघ ने ग रुवर्याश्री को जोधपुर में ही ठाठ से पद-प्रदान करने का निर्णय ले लिया।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
जयपुर में आचार्य पद समारोह आषाढ़ कृष्णा ६, सं० २०३६ को जयपुर में बड़े ही समारोहपूर्वक पू० उदयसागरजी म. सा० तथा पू० कान्तिसागरजी म. सा० को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया।
पू० उदयसागरजी म. सा० का चातुर्मास तो जयपुर में था अतः वे वहीं विराजे । किन्तु पु० कान्तिसागरजी म. सा. ने अपने शिष्य मंडल के साथ जोधपुर की ओर विहार किया। पू० शशिप्रभाजी ने भी जोधपुर की ओर प्रस्थान किया।
___जोधपुर चातुर्मास : सं० २०३६ उग्र विहार करते हुए सभी रातानाड़ा जोधपुर पधारे । जोधपुर संघ ने रातानाड़ा से जोधपुर शहर तक विराट जुलूस के साथ धूम-धाम से आप सबका नगर प्रवेश कराया।
___ चातुर्मास में न्यानि नौहरे में व्याख्यान पूज्य आचार्यश्री ही फरमाते थे। महामनीषी पू० प्रबर मणिप्रभसागरजी म० सा० पूज्या गुरुवर्याजी से आचारांग की वाचना लेते थे और अन्य भी कई प्रकार की शास्त्रचर्चाएं करते थे।
गुरुवर्याजी मधुर ओजस्वी वाणी में श्रीचन्द केवली रास फरमाती थीं। श्री मुदितप्रज्ञाश्रीजी ने इस चातुर्मास में मासक्षमण तप की आराधना की।
जोधपुर में प्रवर्तिनी पद समारोह : सं. २०३६ चातुर्मास के प्रारम्भ से ही प्रवर्तिनी पद समारोह की तैयारियां शुरू हो गयी थीं। समारोह की संपूर्ण व्यवस्था निमाज की हवेली में थी। अध्यक्षता तत्कालीन न्यायाधीश श्रीमान गुमानमलजी सा. लोढा ने की। आचार्य प्रवर श्रद्धय गुरुदेव ने पू. गुरुवर्याश्री को प्रवर्तिनी पद की क्रिया बड़े सुव्यवस्थित ढंग से करवाई । पू. गुरुदेव ने प्रवर्तिनी पद से सम्बन्धित अधिकारों, कर्तव्यों और गरिमा प्रकट करते हुए सारगर्भित विवेचन किया और शुभकामना प्रकट की कि प्रवर्तिनीजी इस पद की गरिमा बढ़ाती हुई चिरकाल तक जिनशासन की सेवा करती रहेंगी।
इसी अवसर पर गुरुवर्याधी द्वारा अनूदित कल्पसूत्र का विमोचन श्री लोढ़ाजी के करकमलों द्वारा हुआ और यह ग्रन्थ पू. गुरुवर्याश्री के पाणिपद्मों में अर्पित किया गया।
गुरुवर्याश्री के संसारपक्षीय भ्राता श्रीमान केसरीचन्दजी लूणिया और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रेखाजी ने पूज्या गुरुवर्या को कम्बली ओढ़ाकर सम्मानित किया, तत्पश्चात अन्य लोगों ने भी यथाशक्ति कम्बली ओढ़ाई।
समारोह हर्षोत्साहपूर्वक सम्पन्न हुआ। आचार्यश्री अपने शिष्य मंडल सहित नाकोड़ाजी की ओर विहार कर गये।।
हम लोगों ने पू. धर्मश्रीजी म. सा. व रतिश्रीजी म. सा. के अत्यधिक आग्रह से फलोदी की ओर विहार किया। कारण यह था कि पूज्यवर्याओं के परिवारीजनों ने महापूजन सहित अष्टान्हिका महोत्सव, स्वाभिवात्सल्य का आयोजन किया था। यथासमय हम वहाँ पहुँचे। सभी कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुए। हम लोग एक माह तक वहाँ रुके।
दादा गुरुदेव जिनकुशल की सप्तम शताब्दी : सिवाणा में : सं. २०४०
सिवाणा में ही दादा गुरुदेवश्री जिनकुशलसूरि का सप्तम जन्म शताब्दी समारोह मनाने का निर्णय हो चुका था। साथ ही अंजनशलाका सहित प्रभु गुरुदेव का प्रतिष्ठा समारोह भी विराट आयोजन
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के साथ २० मई ८३ को मनाना निश्चित किया जा चुका था । इसी शुभ अवसर पर पू० श्रीचम्पाश्री जी म० सा० का शतायु अभिनन्दन तथा ६ कुमारी बालिकाओं का दीक्षा समारोह भी था।
इन्हीं बालिकाओं में से २ बालिका (कुमारी नीता ललवानी व निशा छाजेड़) पिछड़े डेढ़-दो साल से पूज्या गुरुवर्याश्री की निश्रा में रहकर धार्मिक अध्ययन कर रही थीं, उनके परिवारीजनों ने भी गुरुवर्या के पास दीक्षा दिलाने की अनुमति प्रदान कर दी थी।
वैरागिनों के परिवारीजनों तथा सिवाणा संघ की इच्छानुसार खरतरगच्छ के सभी साधुसाध्वियों को इस शुभ अवसर पर सम्मिलित होने के आमंत्रित किया गया । हम भी आमन्त्रित थे।
प्रथम फाल्गुन शुक्ला में हमने फलोदी से विहार किया और क्षेत्रावा के प्राचीन मन्दिर के दर्शन करके शेरगढ़ पहुँचे। वहाँ जैनों के ६० घर हैं तथा बाजार में बीचोंबीच शिखरबद्ध मन्दिर है । दो दिन रुकने का विचार था पर अधिक दिन रुकना पड़ा।
मन्दिर के परिसर में बनी धर्मशाला में प्रतिदिन व्याख्यान होते, रात्रि को कहानियाँ कहने का प्रारम्भ हो गया । बड़ी संख्या में जैन-अजैनों की उपस्थिति होती । लोगों की रुचि देखकर सामूहिक आयंबिल, शंखेश्वरजी के तेले व सामूहिक एकासने आदि कर लिये । लोगों का उत्साह बराबर बढ़ने लगा।
होली का पर्व निकट था। लोगों का आग्रह मानकर वहीं रुक गये और होली के बाद ही विहार करने का निश्चय किया।
गुरुवर्याजी के प्रवचनों से लोग बहुत प्रभावित हुए। कई अजैनों ने अभक्ष्यभक्षण का त्याग कर दिया। एक मोची परिवार ने तो परम्परा से चली आ रही हिंसावृत्ति का सर्वथा त्याग कर दिया। उसी परिवार की सदस्या मोहिनीबाई ने तो पूर्णतः जैनधर्म स्वीकार कर लिया। उसने पूर्णतः जमीकन्द त्याग दिया। प्रतिदिन नवकारसी करना, नवकार मंत्र की माला फेरना, चातुर्मास में चौविहार करना, पर्वतिथि को उपवास-पौषध करना-उसका नियम बन गया। इसके इस आचरण से सभी प्रभावित हुए।
होली के पश्चात् विहार किया। विहार में शेरगढ़ के कई व्यक्ति साथ थे। मार्गस्थ छोटे-छोटे ग्रामों में धर्म-जागरणा करते हुए हम सब पचपदरा पहुँचे। वहाँ के लोगों के अत्यधिक आग्रह से शाश्वत ओली पर्व की वहीं आराधना की । तत्पश्चात् सिवाणा की ओर विहार किया। ४-५ दिन मे सिवाणा पहुँच गये।
वहां लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे । प्रवेश में काफी लोग साथ थे । श्रद्धय आचार्य श्री कांतिसागरजी म. सा. वहाँ पहले ही पधार गये थे। सभी की निश्रा में वैराग्यवती बहनों का डोरा बन्धन हुआ।
अंजनशलाका प्रतिष्ठा निमित्त प्रभु का पंच कल्याणक महोत्सव बड़े धूमधाम से चल रहा था। सभी उत्साहित थे । वैराग्यवती बहिनों का जुलूस और वर्षीदान देखकर तो लोग अत्यधिक प्रभावित
कुमारी नीता-निशा की दीक्षा : सं० २०४० वैराग्यवती बहनों की दीक्षा वैशाख शुक्ला ६ (१८ मई १९८३) को पू० आचार्य प्रवर उदयसागरजी मसा०, आचार्य प्रवर कांतिसागरजी म. सा. आदि मुनिवृन्दों एवं समुदायाध्यक्षा श्रीचम्पाश्रीजी म. सा., पू० प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म.सा. आदि की निश्रा में धूम-धाम से सानन्द सम्पन्न हुई।
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प्रतिनी पद समारोह-जोधपुर : वि. सं. २०३६ मगसरवदि ६ पूज्य सज्जनश्री जी म. को प्रवतिनी पद मंत्र प्रदान कर आशीर्वाद देते हुए आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरी जी म. पार्श्व स्थित श्री मणिप्रभसागर जी म.
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TIVALUERI
जयहाा
प्रवर्तिनी पद महोत्सव के पश्चात् पूज्य प्रवर्तिनी श्री जी को कम्बली ओढ़ाते हुए श्रीमती रेखालूनिया (धर्मपत्नी स्व. केसरीचन्द जी लूनिया-जयपुर)
प्रवर्तिनी श्री जी द्वारा सम्पादित-अनुदित कल्पसूत्र का लोकार्पण कर प्रवतिनी श्री जी को समर्पित
Envater Personal use only -करते हए तत्कालीन न्यायाधीश (राजस्थान) श्री गुमानमल जी लोढा
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२० मई को सप्तम शताब्दी समारोह भी सम्पन्न हो गया। (सम्बन्धित विस्तृत जानकारी शताब्दी स्मारिका में आलेखित है)।।
सिवाणा संघ की समुचित व्यवस्था सराहनीय तथा प्रशंसनीय रही। शासन की बहुत प्रभावना
कु. नीता लालवानी और निशा छाजेड़ के दीक्षोपारांत नाम क्रमशः शीलगुणाजी और सौम्यगुणाजी दिये गये तथा ये दोनों पू० गुरुवर्या की शिष्याएँ घोषित हुई।
महोत्सव के अवसर पर शेरगढ़ से भी एक बस आई थी। इनके अत्यधिक आग्रह पर चातुर्मास की स्वीकृति देकर प्रियदर्शनाजी आदि ठाणा ४ को शेरगढ़ की ओर चातुर्मासार्थ प्रस्थान करवाया गया और पू० प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म. सा. नूतन दीक्षिताओं सहित ६ ठाणा मिठोड़ावास की विनती को स्वीकार करके भंसाली भवन में चातुर्मासार्थ विराजी ।
मिठोड़ावास-सिवाणा चातुर्मास : सं. २०४० इस चातुर्मास में तप-त्याग-प्रत्याख्यान खूब हुए । चातुर्मास सफल रहा।
जयपुर संघ का जयपुर चातुर्मास के लिए आग्रह शताब्दी समारोह से पहले से ही चल रहा था लेकिन चातुर्मास के बाद तो वे लोग आकर जम ही गये । इच्छा न होते हुए भी स्वीकृति देनी ही पड़ी।
बागरेचा परिवार द्वारा मेन रोड नवनिर्मित भव्य, विशाल चौमुख मन्दिर की प्रतिष्ठा करवा कर वहाँ से विहार करके नाकोड़ा के दर्शन करते हुए जोधपुर पहुंचे। जोधपुरवालों ने भी चातुर्मास का आग्रह किया । सत्य स्थिति बतानी पड़ी । उन्होंने जयपुर वालों को पत्र डाला तो वे लोग आ गये । उन्होंने जोधपुर चातुर्मास के लिए हाँ भरवानी चाही पर उनके सभी प्रयास विफल हुए । आखिर जोधपुर से हम लोगों को जयपुर की ओर विहार करवा के ही गये ।।
हम लोग कापरड़ा, विलाड़ा की यात्रा करते हुए ब्यावर पहुँचने ही वाले थे कि पू. शशिप्रभाजी को पागल कुत्ते ने काट लिया । ब्यावर पहुँचकर श्रावकों की सहमति से पेट में १४ इन्जैक्शन लगवाने पड़े । शाश्वत ओली की आराधना ब्यावर में ही की।
वैशाख में विहार करते हुए अजमेर गुरुदेव के दर्शन करके शहर में पहुँचे । पूज्याश्री का रक्तचाप बढ़ जाने से यहाँ २-३ दिन रुकना पड़ा। वहाँ से विहार कर वैशाख शुक्ला १० के दिन जयपुर की सीमा में प्रवेश किया।
जयपुर संघ के लोगों को खूब उत्साह था अतः अपनी गुरुवर्याश्री की आगवानी के लिए सांगानेरी गेट पर इकट्ठे हो गये । जयपुर के प्रसिद्ध जियाबैण्ड और वीर बालिका स्कूल के बालिका बैण्ड के साथ शान से जयपुर में प्रवेश किया। प्रसिद्ध गायक लक्ष्मीचन्द जी भंसाली के गायन की मधुर स्वर लहरी की सबने प्रशंसा की । सैकड़ों व्यक्तियों के जुलूस के साथ पंचायती मन्दिर के दर्शन करते हुए विचक्षण भवन पहुँचे। वहाँ नववधुओं ने विभिन्न प्रकार की गलियों से आपका स्वागत किया। जयपुर के कई प्रसिद्ध श्रावकों-हीराचन्दजी सा. बैद, महताबचन्दजी सा. गोलेच्छा, उत्तमचन्दजी सा. बडेर आदि ने आपके तेजस्वी व्यक्तित्व के गुणग्राम किये पश्चात् आपश्री ने ओजस्वी प्रवचन दिया, अन्त में मांगलिक फरमाई।
जयपुर चातुर्मास : सं. २०४१ चातुर्मास में गुरुवर्याश्री ने 'आचारांग सूत्र' की व्याख्या फरमाई । चार महीने तक प्रवचन खण्ड १/११
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होते रहे । भावनाधिकार में नरवर्म चरित्र का आख्यान किया । त्याग, तपस्या, नियम, प्रत्याख्यान अठाई और मासक्षमण भी हुए। चातुर्मास संपन्न कर दादावाड़ी पहुँचे, वहाँ विराजे ।
दस दिवसीय आध्यात्मिक शिक्षण शिविर खरतरगच्छ संघ की ओर से पू० प्रवर्तिनीजी को निश्रा में जून १९८५ में दस दिवसीय आध्यात्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया जिसका संचालन विद्वद्वर श्री कुमारपालभाई ने किया एवं श्री ज्योतिकुमारजी व कमलकुमारजी का पूर्ण सहयोग रहा। लगभग २०० विद्यार्थी थे । सम्पूर्ण व्यवस्था बड़ी ही सुन्दर थी।
___ जयपुर चातुर्मास : सं० २०४२ गुरुवर्याश्री का यह चातुर्मास भी संघ के अत्याग्रह से जयपुर में हुआ।
किन्तु प्रियदर्शनाजी आदि को बालोतरा भेज दिया और सम्यग्दर्शनाजी ठाणा ३ को जीवाणा । इसका कारण यह था कि जीवाणा निवासी श्री हस्तीमलजी बागरेचा की सुपुत्री भंवरी बागरेचा गुरुवर्याश्री की निश्रा में रहकर पिछले दो वर्षों से धार्मिक अध्ययन कर रही थी और उसकी दीक्षा की आज्ञा भी उसके परिवारीजनों से मिल चुकी थी । अतः चातुर्मास के बाद तुरन्त उसकी दीक्षा होना निश्चित हो गया था । इसीलिए बालोतरा और जीवाणा की ओर विहार करवाया गया था।
जयपुर में गुरुवर्याश्री का चातुर्मास शानदार ढंग से शुरू हुआ। आपने आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन शस्त्र परिज्ञा की सारगर्भित विवेचना श्रोताओं को सुनाई।
त्याग-तपस्या आदि से चातुर्मास सफल रहा।
जीवाणा में प्रथम बार ही दीक्षा हो रही थी। हम लोगों ने बालोतरा चातुर्मास पूर्ण करके सिवाणा में पू० आचार्यश्री के दर्शन कर तथा पू० चम्पाश्री जी के दर्शन किये और दीक्षा के अवसर पर अपनी शिष्याओं को भेजने का आग्रह करके कच्चे रास्ते से जीवाणा के लिए रवाना हो गये।
आचार्यश्री का स्वर्गगमन आचार्यश्री ने भी मिगसिर बदी ४ को सिवाणा से जीवाणा की ओर विहार कर दिया । मोकलसर, रमणिया होकर जैसे ही गुरुदेव मांडवला पहुँचे कि उनका स्वास्थ्य अस्वस्थ हो गया, शरीर काँपने लगा, बुखार चढ़ने लगा। धूजनी इतनी अधिक थी कि १० कम्बली ओढ़ाने पर भी कम्पन बन्द नहीं हुआ । गाँव छोटा होने से कोई बड़ा डॉक्टर नहीं था । सामान्य कम्पाउण्डर था, उसे ही बुलाया गया, उसने इंजेक्शन लगाया, कुछ राहत मालूम हुई । रात्रि को नींद आ गई।
दूसरे दिन ६ बजे तबियत फिर बिगड़ने लगी । जालोर से बड़े डॉक्टर को बुलाने गये। डॉक्टर आता इससे पहले ही नवकार का उच्चारण करते हुए आचार्यश्री ने इस नश्वर देह का त्याग कर दिया।
इस अनहोनी से सभी विस्मित हो गये, शोक में डूब गये। तार-टेलीफोन से समाचार पाते ही श्रद्धालुजनों की भीड़ उमड़ पड़ी। सभी के नेत्र आँसुओं से भरे थे।
- अग्नि संस्कार की बोलियाँ १४ लाख रुपये की हुई और उसी स्थान पर विशाल गुरु मन्दिर निर्माण करवाने का निर्णय सर्व संघ ने ले लिया। कार्य निर्माणाधीन है ।
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इस अप्रत्याशित घटना से भंवरी बागरेचा की दीक्षा सन्देहास्पद बन गई। सभी संशयसागर में गोते खाने लगे। लेकिन पू० प्रवर मणिप्रभसागरजी म. सा० ने सिर्फ दो शब्द कहे-'दीक्षा होगी' और जीवाणा संघ का सन्देह दूर कर दिया।
श्रद्धय गुरुदेव मणिप्रभसागर की निश्रा में भंवरी बागरेचा की दीक्षा सम्पन्न हुई, इन्हें कनकप्रभाजी नाम दिया गया और पू० गुरुवर्याश्री की शिष्या घोषित की गई।
सम्यग्दर्शनाश्री जी आदि ३ तो दीक्षा के पश्चात जयपुर की ओर विहार कर गये और प्रियदर्शनाश्री जी, तत्वदर्शनाश्री जी, शुभदर्शनाजी नूतन दीक्षिता कनकप्रभाजी की बड़ी दीक्षा कराने हेतु पू० श्री कैलाशसागरजी म० सा० के पास गये । बड़ी दीक्षा के बाद वे भी जयपुर पहुंचे।
सं० २०४२ के गरुवर्याश्री के चातुर्मास में ही पूज्याश्री जैन कोकिला श्री विचक्षण म० सा० के अग्नि संस्कार स्थल (गलता रोड मोहनबाड़ी) विशाल समाधि स्थल पर मूर्ति स्थापित करने के निमित्त विराट समारोह का निर्णय खरतरगच्छ संघ ले चुका था। मूर्ति स्थापना समारोह की तिथि फाल्गुन शुक्ला ३ निर्णीत हुई थी।
प्रधान सा० पू० अविचलश्री जी म. सा. आदि पू० श्री चन्द्रप्रभाश्री जी म. सा० आदि तथा पू० श्री मणिप्रभाश्री जी म० सा० आदि सभी पधार गये थे। पू० प्रवर्तिनीजी वहाँ विराजमान थी ही । बड़ी धूमधाम से फाल्गुन शुक्ला ३ के दिन सभी की निश्रा में विचक्षण मूर्ति स्थापना समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ।
समारोह के बाद ही चातुर्मास की विनतियाँ आने लगीं। जोधपुर संघ का अत्याग्रह था किन्तु पू० श्री मणिप्रभाश्री जी की इच्छा पूज्या प्रवर्तिनीजी के साथ जयपुर चातुर्मास करने की थी। अतः पू० श्री सुरञ्जनाश्री जी म. सा., मुदितप्रज्ञाश्री जी व सिद्धांजनाश्री जी का जोधपुर चातुर्मास निश्चित किया गया और सम्यग्दर्शनाश्री जी, विद्यु तप्रभाश्री जी आदि ठाणा ५ का दिल्ली।
वैशाख में पू० श्री मणिप्रभाश्री जी म. सा. एवं पू० श्री शशिप्रभाश्री जी म. सा. आदि ठाणा ११ श्री जिनकुशल गुरुदेव के चमत्कारी स्थान मालपुरा के दर्शनार्थ गये।।
प्रियदर्शनाजी ने व विद्य तप्रभाश्री जी ने अक्षय तृतीया से वर्षीतप प्रारम्भ किया। .. पू० मणिप्रभाश्रीजी म. सा०, सौम्यगुणाश्रीजी एवं मृदुलाजी तीन ठाणा ने ज्येष्ठ मास में देवलिया की ओर विहार किया, क्योंकि वहाँ प्रतिष्ठा करवानी थी।
__ पू० श्री शशिप्रभाश्री जी म. सा. आदि तीन मांडोली यात्रा हेतु प्रस्थान कर गये। सम्यग्दर्शना जी आदि ठाणा ५ पुनः जयपुर आ गये ।
__ आषाढ़ बदी ४ को सम्यग्दर्शनाजी आदि ठाणा ५ को दिल्ली चातुर्मास हेतु प्रस्थान करवाया। आषाढ़ शुक्ला ३ को पू० प्रवर्तिनीजी, पू० श्री अविचलश्री जी म. सा. और प्रियदर्शनाश्री जी तीनों दादाबाड़ी आये। दूसरे दिन देवलिया प्रतिष्ठा कर पू० मणिप्रभाश्री जी म. सा. आदि पधार रहे थे तो गुरुवर्याश्री उन्हें लिवाने के लिए नीचे उतर कर पधारी। मणिप्रभाश्री जी ने कहा-महाराज साहिबा! मैं तो आपसे बहुत छोटी हूँ और आप मुझे लेने नीचे तक पधारी हैं। तब आपने फरमाया-यह आप लोगों का नहीं श्रामण्य का विनय है ।
कितनी विनम्रता है पूज्या प्रवर्तिनी जी म. सा० में ! उसी दिन स्वस्थ चित्त से आप स्थण्डिल पधारी। प्रियदर्शनाश्री जी साथ ही थीं। लौटी तो
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जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी अनमने भाव से बोलीं- आज तो मेरे बाँये अंग में कुछ शून्यता - सी महसूस हो रही है, सिर भारी हो रहा हैं, जीभ लड़खड़ा रही है, कहीं हैमरेज या पक्षाघात न हो जाय । प्रियदर्शनाजी घबड़ा गईं । तुरन्त पू० मणिप्रभाश्री जी को बुलाया । उन्होंने स्थिति देखते ही श्रावकों से कहा । गाड़ियाँ दौड़ गई । १५-१७ मिनट में डॉक्टर साहब पधार गये। बोलीं- बी० पी० बहुत हाई हो गया है, नापा तो २४० । उसी क्षण अर्कामाइन तथा अन्य इंजैक्शन मिक्स करके लगाया । Tab. और Capsule भी दिये । हमें ध्यान रखने के लिए सावधान किया। सारी रात पूज्याश्री को बेचैनी रही और हम लोगों को चिन्ता |
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पू० श्री शशिप्रभाजी म० सा० आदि मांडोली, सिवाणा, नाकोड़ा आदि की यात्रा करके दादाबाड़ी पहुँचे । देखते ही घबड़ा गईं, आँखों से सावन-भादों बरसने लगा ।
पू० श्री शशिप्रभाजी म० सा० ५ वर्ष की आयु में ही गुरुवर्याश्री के पास आ गई थीं और उन्हें ras से मां से भी बढ़कर वात्सल्य प्राप्त हुआ व हो रहा है ।
शारीरिक अस्वस्थता के कारण पूज्या प्रवर्तिनीजी ५ वर्ष से जयपुर में ठाणापति के रूप में विराज रही हैं, और पू० श्री शशिप्रभाजी उनकी सेवा में संलग्न हैं । हम सब चातुर्मास तथा अन्य दिनों में भी इधर-उधर जाते रहते हैं, लेकिन पू० शशिप्रभाजी म० तो गुरुवर्या के साथ ही छायावत् रहती हैं । उन्होंने अपना जीवन गुरुवर्या के चरणों में समर्पित कर दिया है ।
जयपुर चातुर्मास : सं. २०४३
औषधोपचार से गुरुवर्या के स्वास्थ्य में सुधार तो था पर स्थिति ऐसी नहीं थी कि २ किलोमीटर की यात्रा करके जयपुर पधार जाएँ। पू० प्रधान सा० पू० मणिप्रभाजी म० सा० आदि का चातुसार्थ जयपुर शहर में प्रवेश हो चुका था ।
गुरुवर्या श्री भी किसी प्रकार श्रावण शुक्ला ३ तक शहर में पधार गईं। कारण यह था कि पू० निर्मला श्री म० सा० के २१ उपवास तथा बालसाध्वी सौम्यगुणाजी एवं कनकप्रभाजी के अठाई की पूर्णाहुति श्रावण शुक्ला ५ को होनी थी ।
गुरुवर्याश्री निश्रा में सभी कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुए ।
चातुर्मास के बाद सदा की भाँति दादाबाड़ी आ गये । पू० श्री मणिप्रभाश्रीजी म० सा० आदि विहार करके दिल्ली पधार गये और पौष सुदी ११ को सम्यग्दर्शनाजी आदि ठाणा ४ दिल्ली से बिहार करके जयपुर आ गये ।
पू० गुरुवर्याश्री श्रीमद् देवचन्द्र चोबीसी (स्वोपज्ञ बालावबोध) के अर्थ का कार्य नियमित रूप से कर रही थीं.........
भयंकर रोग का आक्रमण
२३ दिसम्बर ! मध्यान्ह १ बजे आपश्री स्थण्डिल पधारीं तो देखा दस्त का एकदम काला (Black) कलर । चिन्ता हुई । मैंने पूछा तो आपश्री ने फरमा दिया - वैद्य की दवा ले रही हैं, उसका असर होगा । थोड़ी देर के पश्चात् पूज्याश्री ने कहा, मुझे कुछ कमजोरी महसूस हो रही है, लिखने में भी तकलीफ होती है। खैर, लेटकर ही लिखती हैं । कुछ समय तक लिखा, किन्तु चैन नहीं था, बेचैनी हो रही थी । ३ बजे पुनः स्थण्डिल पधारीं तो वही कलर दस्त का और ४ बजे पुनः पधारने पर भी वही स्थितिः । साध्वी शशिप्रभाजी ने डॉ. सौगानीजी को बुलवाया। डॉक्टर साहब ने आते ही नई दवा लिखी
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८५ तथा स्टूल, यूरीन आदि के टेस्ट लिखे । दस्त को देखा तो खून । उसे भी टेस्ट के लिए भिजवा दिया। उसी वक्त नर्स आई। उसने ब्लड लिया । यूरीन के लिए जैसे ही आप उठीं कि इतनी जोर से चक्कर आये कि आँखें ही ढेर दीं। हम पास खड़े थे, संभाल लिया। उसी क्षण बड़े जोर की खून की उल्टी हुई। दो-तीन मिनट बाद चेतना लौटी। हम लोग खड़े ही थे । कुछ शान्ति हुई । किन्तु कुछ समय बाद ही खून की ३-४ दस्तें । कुछ देर बाद खून की उल्टी और वही स्थिति । हम लोग घबड़ा गये । पुनः सौगानी साहब को बुलवाया।
इस बीच जयपुर के २००-२५० व्यक्ति इकट्ठे हो गये । गुरुवर्या की इस दशा से सभी चिन्तित थे।
सौगानी सा० ने गुरुवर्या की स्थिति देखकर श्री शशिप्रभाजी से कहा-दशा बहुत चिन्ताजनक है । ब्लड की बहुत कमी हो गई है । ७५ प्रतिशत ब्लड जा चुका है । तुरन्त हॉस्पीटल ले चलिए । ब्लड चढ़ाना बहुत जरूरी है।
शशिप्रभाश्रीजी ने डॉक्टर साहब से कहा-इस विषय में मैं निर्णय नहीं ले सकती। क्योंकि गुरुवर्याश्री सदा हॉस्पीटल ले जाने के बारे में हमें सावधान करती रही हैं कि 'मुझे हॉस्पिटल न ले जाया जाय' फिर भी मैं उनसे पूछकर आपको बताये देती हूँ।
श्री शशिप्रभाजी ने और श्रावकों ने भी गुरुवर्या को बहुत कहा पर उन्होंने एक ही जवाब दे दिया-मैं ठीक हूँ, आप लोग घबड़ाओ मत । मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। मेरी स्थिति बहुत गम्भीर नहीं है।
निराश होकर डॉक्टर ने कहा-जब महाराज साहब मान ही नहीं रही हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ ? अब तो बस, आपका भाग्य ही है। रात निकल जाय तो बहुत समझो । और डॉक्टर साहब चले गये।
रात निकली। सुबह हुई। डॉक्टर सौगानी पुनः आये। रिपोर्ट देखी तो बोले-आपके ब्लड में हिमोग्लोबिन सिर्फ ४ रह गया अतः ब्लड चढ़वाना ही होगा।
गुरुवर्याश्री ने शान्त भाव से फरमाया-डॉक्टर साहब ! मैं केवल ४-५ दिन का अवकाश चाहती हूँ । थाइराइड ग्रन्थि की प्रेक्षा करूंगी । मुझे विश्वास है ब्लड की क्षतिपूर्ति हो जायेगी।
___ डॉक्टर साहब क्या कहते, चले गये । ४-५ दिन बाद पुनः ब्लड टेस्ट हुआ। रिपोर्ट पढ़कर चकित रह गये। हिमोग्लोबिन पूरा ७ था।
डॉ० साहब श्रद्धा से विनत होकर बोले--मेरे लिये यह चमत्कार ही है-डॉक्टरी इतिहास में इतनी जल्दी ब्लड कवर हो जाना।।
और हम सब भी श्रद्धा से भर उठे-धन्य साधना, धन्य योग साधना, धन्य क्षमता, तितिक्षा परीषह विजय और समता । इस उम्र में और इतनी कमजोरी में भी ऐसी उच्चकोटि की साधना है गुरुवर्याश्री की।
आपकी स्वयं की साधना और डॉ. सौगानी के औषधोपचार से पुनः पहले जैसी स्थिति हो गयी।
___इधर पू. मणिप्रभसागरजी म. सा. आदि पू. गुरुवर्याश्री को दर्शन देने हेतु जयपुर पधार रहे थे। २ दिन बाद ही वे पधार गये । ५-७ दिन जयपुर रहे। पूज्या प्रवर्तितीवर्या के प्रति आपश्री का सदा से मातृवत् भाव है।
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जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी कुछ दिन बाद पू. मणिप्रभाश्रीजी आदि भी दिल्ली से जयपुर पधार गये ।
प्रियदर्शनाजी म. व विद्य त्प्रभाजी म. का वर्षीतप चल रहा था जिसका पारणा अक्षय तृतीया को होना था। श्रीमान माणिकचन्दजी गोलेच्छा एवं उनकी धर्मपत्नी भंवरीबाई आदि के भी वर्षांतप का पारणा था। पारणे का संपूर्ण कार्यक्रम मोहनबाड़ी (जहाँ मन्दिर में मूल नायक आदिनाथ के चरण हैं-समोसरण) में पू. प्रधान सा. श्री अविचलश्रीजी म. सा. व पू. प्रवर्तिनी महोदया आदि की निश्रा में धूमधाम से सानन्द सम्पन्न हुआ।
पूज्या गुरुवर्या श्री (सज्जनश्रीजी म. सा.) प्रवर्तिनी महोदया का विहार का विचार तो पक्षाघात के उपरान्त छूट ही गया है। शीतऋतु में मोती डूंगरी रोड स्थित दादाबाड़ी में धीरे-धीरे पधार जाती हैं। अब आपश्री का यही क्रम चल रहा है ।
सं. २०४४ के जयपुर चातुर्मास में अस्वस्थता के कारण व्याख्यान का भार भी पू. शशिप्रभाजी म. सा. को सौंप दिया। दो वर्ष से यह जिम्मेदारी पू. शशिप्रभाजी ही निभाती आ रही हैं।
इस (सं. २०४४ के) चातुर्मास के पर्युषण में पू. महाराजश्री की सप्रेरणा से शिवजीराम भवन के नवनिर्माण हेतु श्रीमान् ताराचन्दजी संचेती ने ५ लाख रुपये देने की स्वीकृति दी। अतः खरतरगच्छ संघ के मन्त्री श्री उत्तमचन्दजी बढेर की देख-रेख में निर्माण कार्य सुचारु रूप से चल रहा है। ऊपर-नीचे - १०-१२ कमरे बन गये हैं, जिससे यात्रियों और आने-जाने वालों को सुविधा हो गयी है । और भोजनशाला आदि में भी काफी परिवर्तन हो गया है।
सं. २०४५ के जयपुर चातुर्मास में श्री कनकप्रभाजी ने मासक्षमण तप की आराधना गुरुवर्याश्री की निश्रा में की। इतनी छोटी आयु ऐसा तप करना आश्चर्यकारी रहा। पू. प्रधान सा. श्री अविचलश्री जी म. सा. एवं पू. प्रवर्तिनी म. सा. की निश्रा में तपस्विनी का अभिनन्दन आदि सभी कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुए।
पूज्या गुरुवर्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी अब ठाणापति रूप में जयपुर विराजित हैं । वर्तमान समय में आपश्री जप-ध्यान-स्वाध्याय आदि में अत्यधिक रुचि ले रही हैं। आपका मानना है कि स्वाध्याय वह अमृत है जिसका पान करके मानव अमर हो सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी भगवान महावीर ने स्वाध्याय को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय का कारण बताया है।
आगम मर्मज्ञा तो आप हैं ही। आचारांग सूत्र का स्वाध्याय चल रहा है । यद्यपि इस सूत्र को आप अनेक बार पढ़ चुकी हैं, फिर भी भगवान की वाणी को जितनी भी बार पढ़ो बुद्धि के नये-नये उन्मेष खुलते हैं, नये-नये रहस्य प्रगट होते हैं, स्फुरणा जागती है और हृदय आनन्द विभोर हो जाता है, रस-मग्न हो जाता है । ऐसा ही आपके साथ हो रहा है।
ज्ञातासूत्र, प्रज्ञापना, अध्यात्म प्रबोधसूत्र, ओघ नियुक्ति, व्यवहारसूत्र, बृहकल्पसूत्र, निरयावलिया आदि चारसूत्र, सुरसुन्दरीचरियं, रयणचूड़चरियं, भीमसेनाहरिषेण, रायप्पसेणीय सुत्त आदि कितने सूत्रों का आप स्वाध्याय कर चुकी हैं और पारायण करती ही रहती हैं।
साध्वी मण्डल को भी स्वाध्याय की प्रेरणा देती रहती हैं । उन्हें वांचना भी देती हैं । शंकाओं और जिज्ञासाओं के शास्त्रसम्मत समाधान भी देती हैं। बार-बार पूछने पर भी न कोई झुंझलाहट, न कोई ऊब । अन्य गच्छों की साध्वियों को भी सूत्रों के भाव बिना भेदभाव बताये हैं।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
इस (लगभग ८१ वर्ष की आयु) उम्र में भी इतना उत्साह और ऐसी अप्रमत्तता, अन्यत्र दुर्लभ है। समताभाव इतना कि इतने उच्चपद पर प्रतिष्ठित हैं, फिर भी गर्व का नामोनिशान भी नहीं, साध्वीवृन्द को कभी आदेश की भाषा नहीं । अपने कार्य को स्वयं ही कर लेती हैं, किसी को कहती तक नहीं ।
वस्तुतः आपका जीवन खरा कंचन है। स्वाध्याय-तप-ध्यान-संयम आदि की कसौटी पर कसा हुआ खरा सोलहवानी सुवर्ण है। संयम की महक बावना चन्दन की सुवास से भी अधिक सुरभित है। आपका जीवन, संयमचर्या संसारसमुद्र में डूबते प्राणियों के लिए दीपस्तम्भ के समान पथ प्रदर्शित करने वाला है।
ऐसी पुज्या, निर्मलचरित्रा सद्गुरुवर्याश्री सज्जनश्रीजी म. सा. के अभिनन्दन का निर्णय जयपुर खरतरगच्छ संघ ने २० मई ८६ (वैशाखी पूर्णिमा) के दिन करना स्वीकार किया है । इस अवसर पर श्रीपुखराजजी लूनिया की इच्छा को साकार रूप देते हुए अभिनन्दन ग्रन्थ भी आपश्री को समर्पित किया जायेगा । जिसका नाम होगा 'श्रमणी श्री सज्जनश्री म. सा. अभिनन्दन ग्रन्थ' । यह खरतरगच्छ संघ का प्रथम अभिनन्दन ग्रन्थ होगा।
पूज्य प्रवर मणिप्रभसागरजी म.सा. ने भी इस ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु हमें प्रेरणा दी, साथ ही सहयोग भी दिया । श्रीचन्दजी सुराना सरस का भी हार्दिक सहयोग, मुद्रण-व्यवस्था आदि में सराहनीय एवं प्रशंसनीय योगदान रहा । आप जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान हैं, ग्रन्थ के संपादन में भी उन्होंने सहयोग किया है, जिसके लिए हम इनके आभारी हैं |
पू. प्रवर्तिनी महोदया का अभिनन्दन इसी अवसर पर अखिल भारतीय खरतरगच्छ संघ की ओर से गलता रोड़ स्थित मोहनबाड़ी, विचक्षण भवन में होगा। साथ ही विविध तपोपलक्ष्य में सामूहिक उद्यापन (उजमणा) प्रतिष्ठा आदि के कार्यक्रम आदि भी हो रहे हैं।
वस्तुतः जयपुर धर्मनगरी है । खरतरगच्छ के १०० वर्ष के इतिहास में कभी उपाश्रय खाली नहीं रहे, सध्वीजी म० आते ही रहे, विराजित भी रहे । चातुर्मास भी होते रहे।
श्रावकों में भी धर्म का उत्साह अत्यधिक है। अठाई आदि तपस्याएँ होती ही रहती हैं । दान की सुरसरि भी सदानीरा पयस्विनी की भाँति प्रवाहित रहती है।
इन्हीं सब बातों से जयपुर नगरी भाग्यशाली है।।
पूज्याश्री भी वहीं विराजित हैं । आपका जीवन मणि की भाँति धर्म का प्रकाश विकीर्ण करता रहे । युग-युग तक आलोक देता रहे।
इन्हीं शुभभावनाओं के साथ"......" ।
-सज्जन वाणी १. उपासना से भावना का, साधना से व्यक्तित्व का, आराधना से क्रिया
शीलता का परिष्कार और विकास होता है । २. सच्ची सेवा समाज को पतन से बचाकर उत्थान की ओर ले जाना ही है
अर्थात् दुराचरण, व्यसन आदि से रोककर उनके जीवन में सदाचरण की
भावना दृढ़ कर देना ही वास्तविक उत्थान है। ३. जीवन में सादगी, सात्विकता और विनम्रता जिनके होती है वे ही
मानव धन्य और पूज्य बनते है ।
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प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी म. सा. के यशस्वी चातुर्मास
प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी ने अपने अब तक के ४८ वर्षीय साधना काल में कुल ४७ चातुर्मास किये हैं जिनमें से २६ तो जयपुर शहर में ही सम्पन्न हुए हैं। इनमें से दस तो लगातार १६५८ से १९६७ तक ही हुए हैं। इसका मुख्य कारण गुरुसेवा की भावना रही है । इतना होने पर भी उनका किसी स्थान विशेष से कोई लगाव नहीं है। निरपेक्ष भाव से जहाँ भी चातुर्मास हो जाता है, वे कर लेती हैं। जयपुर में उनके इतने चातुर्मास हो जाना संयोग मात्र ही है, यद्यपि वह उनकी जन्मभूमि होने के साथ दीक्षा भूमि भी है।
उन्होंने सात चातुर्मास राजस्थान के बाहर किये हैं जो पूर्व में कलकत्ता से लेकर पश्चिम में जामनगर तक हुए हैं। राजस्थान से बाहर उनका प्रथम चातुर्मास भारत की राजधानी दिल्ली में सन् १९७० में हुआ था। उससे अगला चातुर्मास उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में और तीसरा पश्चिमी बंगाल की राजधानी कलकत्ता में सम्पन्न हुआ। यूं कलकत्ता में उनके दो चातुर्मास हो चुके हैं।
उन्हें कलकत्ता के तुरन्त बाद ही तीर्थंकर महावीर के निर्वाण से पावन और धन्य वनी पाबापुरी में १६७४ में चातुर्मास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पावापुरी चातुर्मास के दो वर्ष बाद उन्हें मन्दिरों की नगरी के नाम से विश्वविख्यात तीर्थराज शत्रुजय की तलहटी में बसे पालीताणा नगर में चातुर्मास करने का सुयोग प्राप्त हुआ। यह सन् १९७६ की बात है। पदयात्रा करते हुए एक साध्वी का देश के पूर्वी छोर से दो वर्ष के भीतर पश्चिमी छोर तक पहुँच जाना कम महत्व की बात नहीं है । उनका अगला चातुर्मास सौराष्ट्र के प्रसिद्ध नगर जामनगर में हुआ। इस तरह राजस्थान के अतिरिक्त उनके चातुर्मास दिल्ली सहित पाँच राज्यों में सम्पन्न हो चुके हैं। ये राज्य हैं : उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल और गुजरात।
दिल्ली जाने से पूर्व उन्होंने अपनी गुरुवर्या ज्ञानश्रीजी की जन्मभूमि फलोदी (जिला जोधपुर) में १९६९ में चातुर्मास किया था । फलोदी इस मामले में सौभाग्यशाली रही । इस महान् साध्वी ने दीक्षित होने के बाद दूसरा चातुर्मास भी फलोदी में ही किया था। वह सन् १९४३ की बात है। उस समय ज्ञानश्रीजी विद्यमान थीं। दोनों चातुर्मासों में पूरे २६ वर्ष का अन्तर रहा। यह एक संयोग ही है कि उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या शशिप्रभाश्रीजी की जन्मभूमि में भी यही फलोदी है। फलोदी और कलकत्ता के अतिरिक्त मरुधरा का सिवाना ही एकमात्र ऐसा नगर है जहाँ सज्जनश्रीजी ने दो चातुमसि किये । यह कैसा विचित्र संयोग है कि जिन चार स्थानों पर उनके एक से अधिक चातुर्मास हुए
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सन्
से १५.
से २६.
खण्ड १ | जीवन ज्योति उनमें दो जयपुर और कलकत्ता तो बड़े शहर और राज्यों की राजधानियाँ है और दो पुराने मारवाड़ की मरुभूमि के प्राचीन नगर। राजस्थान में उनके चातुर्मास उदयपुर संभाग को छोड़कर बाकी सब संभागों में हो चुके हैं। उनके अब तक के ४७ चातुर्मासों की तालिका प्रस्तुत है :स्थान
वि. सं. जयपुर १९६६
१९४२ फलोदी २०००
१९४३ जयपुर २००१
१९४४ कोटा २००२
१६४५ जयपुर
२००३ से २००६ १९४६ से १९४६ झुझुनू २००७
१६५० जयपुर
२००८ से २०१३ १९५१ से १९५६ टोंक २०१४
१६५७ जयपुर
२०१५ से २०२४ १९५८ से १९६७ बीकानेर २०२५
१६६८ फलोदी २०२६
१९६६ दिल्ली २०२७
१९७० लखनऊ २०२८
१९७१ कलकत्ता २०२६
१९७२ कलकत्ता २०३०
१९७३ पावापुरी २०३१
१६७४ जयपुर २०३२
१९७५ पालीताणा २०३३
१९७६ जामनगर २०३४
१९७७ जयपुर २०३५
१९७८ अजमेर २०३६
१९७६ सिवाना २०३७
१९८० ब्यावर २०३८
१९८१ ४१. जोधपुर
२०३६
१९८२ ४२. सिवाना २०४०
१९८३ ४३. से ४७. जयपुर
२०४१ से २०४५ १९८४ से १९८८ अभी आप अस्वस्थता के कारण जयपुर में ही विराजमान हैं।
खण्ठ १/१२
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प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी म० का शिष्या परिवार
प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी के शिष्या परिवार में कुल १२ सदस्याएँ हैं जिनमें शशिप्रभाश्री जी ज्येष्ठ और श्रु तदर्शनाश्री जी कनिष्ठ हैं।
स्वयं के दीक्षित होने के पन्द्रह वर्ष बाद उनकी प्रथम शिष्या शशिप्रभाश्रीजी की ब्यावर में संवत् २०१४ में दीक्षा हुई थी। यह कैसा संयोग है कि उनकी गुरुवर्याजी फलोदी में ही जन्मी थीं और फलोदी ने ही उन्हें प्रथम शिष्या प्रदान की।
शशिप्रभाश्रीजी के दीक्षित होने के एक दशक बाद जयपुर में प्रियदर्शनाश्रीजी की दीक्षा हुई। उसके तीन वर्ष बाद जयश्रीजी ने भी जयपुर में ही साध्वी दीक्षा ग्रहण की। यह संवत् २०२६ की बात है । पश्चिम बंगाल के रेलवे केन्द्र खड्गपुर ने उन्हें तीन शिष्याएँ प्रदान की। ये तीनों बहनें हैं। इनकी दीक्षा संवत् २०३० में हुई। ये शिष्याएँ-दिव्यदर्शनाश्रीजी, तत्वदर्शनाश्रीजी और सम्यग्दर्शनाश्रीजी हैं। प्रसिद्ध तीर्थ नाकोडाजी में दीक्षित होने वाली शिष्या ने शुभदर्शनाश्रीजी का नाम पाया। एक वर्ष वाद संवत् २०३८ में अजमेर में मुदितप्रज्ञाश्रीजी के दीक्षा लेने से शिष्या परिवार में एक और की अभिवृद्धि हुई। जयपुर की तरह सिवाणा ने भी उन्हें दो शिष्याएँ-शीलगुणाश्रीजी व सौम्याश्रीजी दी हैं । जीवाणा में भी दो दीक्षाएँ हुई-तीन वर्ष के अन्तराल से। ये शिष्याएं हैं-कनकप्रभाश्रीजी और श्रु तदर्शनाश्रीजी।
___ जन्म के हिसाब से जीवाणा (जालोर) ने तीन, फलोदी, गढ़ सिवाना तथा खड्गपुर ने दो-दो, जयपुर, अरई व अजमेर ने एक-एक शिष्याएँ प्रदान की हैं।
संवत् दीक्षा स्थल
नाम वि. सं. २०१४ ब्यावर
शशिप्रभाश्रीजी जयपुर
प्रियदर्शनाश्रीजी जयपुर
जयश्रीजी २०३० खड़गपुर
दिव्यदर्शनाश्रीजी २०३० खड़गपुर
तत्वदर्शनाश्रीजी २०३० खड़गपुर
सम्यग्दर्शनाश्रीजी २०३७ नाकोड़ाजी
शुभदर्शनाश्रीजी २०३८ अजमेर
मुदितप्रज्ञाश्रीजी २०४० गढ़ सिवाना
शीलगुणाश्रीजी २०४० गढ़ सिवाना
सौम्यगुणाश्रीजी २०४२ जीवाणा
कनकप्रभाश्रीजी जीवाणा
श्रुतदर्शनाश्रीजी ( ६० )
Kor or
२०२३ २०२६
xxx
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सौम्यगुणाश्री जी, शुभदर्शनाश्री जी. तत्वदर्शनाश्री जी, जयश्री जी,
दिव्यदर्शनाश्री जी, शीलगुणानी जी, सम्यग्दर्शनाश्री जी, मुदितप्रज्ञाश्री जी द्वितीय पक्ति:
शशिप्रभाश्री जी, पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज प्रियदर्शनाश्री जी म. सा. तृतीय पक्ति:
कनकप्रभाश्री जी, श्रुतदर्शनाश्री जी.
www.aine
पवर्तिनी थी सज्जनश्री जी महाराज शिष्या मण्डली के साथ
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
संक्षिप्त जीवन-वृत्त १. शशिप्रभाश्रीजी-जन्म फलोदी में संवत् २००१ में, पिता-ताराचन्दजी, माता-बालादेवीजी, गोत्र-गोलेच्छा, नाम-किरण, १० वर्ष की अल्पायु में दीक्षा, इनकी बुआ पुण्यश्रीजी के पास दीक्षित थीं, नाम था उपयोगश्रीजी, दीक्षा-संवत् २०१४ में मिगसर सुदी दूज ब्यावर में पू. विज्ञानश्रीजी के सान्निध्य में, हिन्दी, संस्कृत का अच्छा अभ्यास, राजस्थान विश्वविद्यालय से जैन दर्शन में आचार्य, तप-त्याग में विशेष रुचि, अनुशासनप्रिय व प्रभावी प्रवचनकार ।
२. प्रियदर्शनाश्रीजी-जन्म-जयपुर में संवत् २००६, पिता-कमलचन्दजी, माता-चंद्रावतीजी, गोत्र-बांठिया, नाम-किरण, दीक्षा-सवत् २०२३ में अषाढ़ सुदी ६ को जयपुर में, संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान, साहित्यरत्न परीक्षा उत्तीर्ण, प्रवचनकार ।
३. जयश्रीजी-जन्म--अरई (जिला अजमेर) में वि. सं. १६६० में, पिता-सगतसिंहजी, माताधापूबाईजी, गोत्र-मेहता, नाम--तेजकंवर, दीक्षा-संवत् २०२६ वैशाख बदी १० को आचार्य जिनकांतिसागरजी की निश्रा में, जयपुर में, स्वाध्यायशील, तप में विशेष रुचि ।
४. दिव्यदर्शनाश्रीजी-जन्म-फलोदी में वि. संवत् २००८, पिता-भीखमचन्दजी, मातासुन्दरदेवीजी, गोत्र-कोचर, नाम-निर्मला, दीक्षा-खड़गपुर में वि. सं. २०३० मिति माघ सुदी ५ को, अनेक प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों का अर्थ सहित अध्ययन, तप-त्याग में रुचि, अध्ययनशील व सेवा भावना अच्छी ।
५. तत्वदर्शनाश्रीजी-जन्म-खड़गपुर में वि. सं. २०१२ में, पिता-भीखमचंदजी, माता-सुन्दरदेवीजी, गोत्र-कोचर, नाम-हीरामणि दीक्षा-वि० सं० २०३० में माघ सुदी ५ (२८ जनवरी १९७३) को खड़गपुर में, तप-त्याग में रुचि के साथ सेवा भावना।
६. सम्यग्दर्शनाश्रीजी-जन्म-खड़गपुर में वि० सं० २०१६ (२१ फरवरी १९६०), पिता-भीखमचंदजी, माता-सुन्दरदेवीजी, गोत्र-कोचर, नाम-कमलेश, दीक्षा-खड़गपुर में वि० सं० २०३० में में माघ सुदी ५ (२८ जनवरी १९७३) में, अध्ययनरत व प्रवचनकार।
७. शुभदर्शनाश्रीजी-जन्म-जीवाणा (जालोर) में वि० सं० २०१६ पिता-हस्तीमलजी, मातामोहरादेवीजी, गोत्र-बागरेचा, नाम-लीला, दीक्षा-वि० सं० २०३७ पौष सुदी १० को नाकोड़ाजी तीर्थ में आचार्य जिनकांतिसागरजी की निश्रा में, अध्ययनरत ।
८. मुदितप्रज्ञाश्रीजी-जन्म--अजमेर में वि० सं० २०१४ में, पिता-मानमलजी, माता-चाँददेवीजी, गोत्र-सराणा, नाम-मंज. दीक्षा-अजमेर में कैलाससागरजी की निश्रा में वि० सं० २०३८ वैशाख बदी ६ को, शिक्षा-बी. ए., आगे अध्ययन जारी ।
६. शीलगुणाश्रीजी-जन्म-गढ़ सिवाणा (जिला बाड़मेर) में वि० सं० २०२०, पिता-हेमराजजी माता-सीतादेवीजी, गोत्र-ललवाणी, नाम-नीता, दीक्षा-वि० सं० २०४० वैशाख बदी ६ आचार्य जिन उदयसागरजी की निश्रा में, गढ़ सिवाणा में, अध्ययरत ।
१०. सौम्यगुणाश्रीजी-जन्म-गढ़ सिवाना में वि० सं २०२७, पिता--केशरीचंदजी, माताविमलादेवीजी, गोत्र-छाजेड़, नाम-निशा, दीक्षा-२०४० वैशाख बदी ६ को गढ़ सिवाणा में आचार्य उदयसागरजी की निश्रा में, नाम के अनुरूप सौम्य स्वभाव-अध्ययनरत ।
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जीवन ज्योति
११. कनकप्रभाश्रीश्री – जन्म - जीवाणा (जालोर) में वि० सं० २०२३, पिता -- हस्तीमलजी, माता - मोहरादेवीजी, गोत्र —- बागरेचा, नाम - भँवरी, दीक्षा - मणिप्रभसागरजी की निश्रा में वि० सं० २०४२ मिगसर बदी ३ को, अध्ययनरत ।
२
१२. श्रुतदर्शनाश्रीजी - जन्म - जीवाणा (जालौर) में वि० सं० २०२३, पिता - खेतमलजी, माता - हस्तुबाईजी, गोत्र – गोलेच्छा, नाम – सुमन, दीक्षा- मणिप्रभसागरजी की निश्रा में वि० सं० आसाढ़ बदी २ को, अध्ययनरत ।
सज्जन भारती
महावीर - जिन स्तवन
(तर्ज - वेदों का डंका आलम में )
सबोधामृत का सिन्धु भरा, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में । है वस्तुविषयक विज्ञान खरा, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में || स्थायी ॥
स्यादवाद सुधा की शैली सरल, देती है मिटा विसंवाद गरल । सिद्धान्त अबाधित अटल अचल, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में ॥१॥ जो है जग की उपकारकरा, दुःख दोन प्राणियों का है हरा । उसी दिव्य दया का सन्देश भरा, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में || २ || जो सब को शान्ति दिया करती, और मन में प्रेम भाव भरती । वही विश्व मैत्री धारा झरती, जीवन में ज्योति जागृत कर, जो है सन्मति का सुखप्रद निर्झर,
तुम्हारी
वाणी में ॥३॥
वर्द्धमान भर देती गुण अति शुभतर । वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में ॥४॥
तापत्रय से जो प्राणी तपा, उसको पीयूष की रहती है भरी निस्सीम कृपा, वर्द्धमान तुम्हारी भरी निवृत्ति पथ की पोषकता, और प्रवृत्ति मार्ग की है ऐसी अपूर्व अलौकिकता, वर्द्धमान तुम्हारी जिसे भव्य भक्ति से श्रवण करे, सुन संसृति सागर सुमधुर सुमञ्जुल भाव भरे, वर्द्धमान तुम्हारी उज्ज्वल गुण गण प्रकटाती है, मोहतम को दूर जनता अनुपम आनन्द पाती है, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में ||८|| अन्तर में ज्ञान रवि जग जाता, उपयोग शुद्धतर भवि पाता । "सज्जन" मन तन्मय हो जाता, वर्द्धमान तुम्हारी वाणी में ||
शीघ्र तरे । वाणी में ||७| हटाती है ।
0-0
पूत प्रपा । वाणी में ||५|
शोषकता ।
वाणी में || ६ ||
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परिवार-परिचय
_ [जीव मात्र को धारण (पोषण-संरक्षण) करने वाली इस पृथ्वी का एक सार्थक नाम है धरा! किंतु यह धरा, धरा मात्र नहीं, बसुन्धरा भी है। जब-जब इसने किसी आत्मशक्ति संपन्न तेजस्वी यशस्वी परोपकारपरायण पुण्यआत्मा को जन्म दिया, धारण किया तब-तब यह अपने वसुन्धरा (महामूल्यवान मणिरत्नों को धारण करने वाली) नाम में सार्थक हुई है और रत्नगर्भा अभिधान से गौरव मंडित
___ महान आत्मा स्वयं स्वार्जित गौरव की स्वाभिषिक्त मूर्ति है। उसे किसी अन्य के गौरव से अभिषिक्त करने की आवश्यकता नहीं रहती । किंतु श्रद्धाभिसिक्त होने के बाद लोक उस मूर्ति के मूल आधार का भी सन्मान करने लगते हैं। जिस खान में रत्न पैदा होता है उस खान का भी गौरव बढ़ता है । महान आत्मा जिस कुल वंश में जन्म लेते हैं उस कुल वंश की भी गरिमा युग-युग तक गाई जाती है और उन माता-पिता को भी लोक श्रद्धा से पूजते हैं, नमन करते हैं। स्वयं देवेन्द्र तीर्थंकर देव की माता-पिता की वन्दना करते हैं।
आज ऋषभदेव के नाम के साथ ही नाभिराय और माता मरुदेवी की वन्दना की जाती है। इक्ष्वाकुवंश का गौरव गाया जाता है। राम और कृष्ण के नाम के साथ ही दशरथ, कौशल्या, वसुदेवदेवकी यशोदा का नाम स्मरण किया जाता है । सूर्यवंश और चन्द्रवंश (हरिवंश) की यशोगाथाएं गाई जाती हैं । भगवान महावीर की वन्दना से साथ ही माता त्रिशला और राजा सिद्धार्थ को भी नमन किया जाता है। ज्ञात वंश का गौरव गाया जाता है। यह सब प्रत्यक्ष सत्य है-महापुरुष अपने जन्म से अपने कुल, वंश, परिवार और प्रदेश व देश को भी गौरवान्वित करते हैं।
इसी परम्परा के अनुरूप यहाँ पूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज के धर्मनिष्ठ पिता-माता तथा अन्य सम्बन्धित परिवार का परिचय अत्यावश्यक है और पाठक की जिज्ञासा का स्वयं ही ससाधान है।
-संपादक
धर्मपरायणा आदर्श माता : श्रीमती महताबबाई
----विनय कुमार लूणिया दृढ़धर्मी गौरवपुरुष सेठ श्री गुलाबचन्दजी लूणिया की धर्मपत्नी का नाम महताब बाई था। पति के विचारों की अनुगामिनी, आदर्श पत्नी एवं सत्-संस्कारों की शिक्षा देने वाली आदर्श माता और वात्सल्य की खान वे हमारी पूजनीया दादीजी थीं। आपके पिताश्री का नाम श्री चुन्नीलालजी कोठारी
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धर्मपरायण आदर्श माता : श्रीमती महताबबाई : विनय कुमार लूणिया था जो कि तत्कालीन भोपाल रियासत के खजांची थे। दादीसा० को धर्मनिष्ठा और धार्मिक संस्कारों का वरदान अपने पिताश्री से ही मिला था।
श्रीमान् चुन्नीलालजी के पूर्वज राजस्थान के बोरावड़ ग्राम में रहा करते थे। वे अपने बड़े भाई के साथ भोपाल व्यवसाय के लिए चले गये थे । वहाँ उन्होंने जवाहरात का कार्य प्रारम्भ किया। ईमानदारी एवं व्यवहार कुशलता के कारण व्यापार में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होने लगी और थोड़े ही समय में आपकी गिनती भोपाल नगर के गणमान्य वरिष्ठ व्यापारियों में होने लगी। उस समय भोपाल में बेगम साहिबा राज्य करती थीं। श्री चन्नीलालजी की नैतिकता और सच्चाई की चर्चा जब बेगम साहिबा के पास पहुँची तो उन्होंने सेठ साहब को अपने यहाँ आमन्त्रित किया। वे आपकी व्यवहारकुशलता, व्यापारिक प्रामाणिकता और स्पष्टवादिता से अत्यन्त प्रभावित हुई और उनको अपने राज्यकोष का खजांची बना दिया। बेगम साहिबा आपके कार्य से पूर्ण सन्तुष्ट एवं आश्वस्त थीं। धर्मनिष्ठ गृहणी
___ श्रीमती महताब बाई सेठ श्री चुन्नीलालजी की दूसरी संतान थीं जिनका विवाह जयपुर नगर के प्रसिद्ध जौहरी श्री गणेशमलजी के सुपुत्र श्री गुलाबचन्दजी के साथ हुआ । उस समय उनकी उम्र मात्र इग्यारह वर्ष थी। ये एक आदर्श दम्पत्ती थे। उनका जीवन धार्मिक संस्कारों एवं सात्विक विचारों से ओतप्रोत था। विवाह के तुरन्त बाद ही श्रावक के बारह व्रतों की कठोर अनुपालना उनके संयमित जीवन की साक्षी है । यह दोनों का मणि-कांचन सु-संयोग था जो परिवार और समाज में धर्म और परमार्थ की आभा फैलाता रहा।
दादी सा. को नवकार मंत्र की एक माला तथा एक सामायिक प्रतिदिन करने का नियम बाल्यकाल से ही था। इस नियम का आपने आजीवन पालन किया । पति के साथ बारह ब्रतों की साधना के अलावा आपने १५ वर्ष की आय से ही चतुर्दशी का व्रत रखना प्रारम्भ कर दिया था। इस व्रत का भी आपने ७५ वर्ष की अवस्था तक अनवरत पालन किया। बीमारी हो, प्रसूति हो या प्रवास हो, आपने इस व्रत को कभी नहीं टूटने दिया । कालान्तर में आपने एक सामायिक के स्थान पर तीन सामायिक प्रतिदिन करने का नियम ले लिया और उसे आजीवन निभाया।
आपको विभिन्न प्रकार के द्रव्यानुयोग के स्तोक (थोकड़े) याद थे । साधु-साध्वियों के नियमित दर्शन, उनकी सेवा, पदयात्रा, व्याख्यान आदि में आपकी गहरी रुचि थी। धर्म-चर्चा ही आपके जीवन का पाथेय था। अपने माता-पिता के धार्मिक संस्कारों की छाप ही संतानों पर भी पड़ी थी। प्रवर्तिनीश्री सज्जनश्रीजी म. सा. के उज्ज्वल जीवन को देखकर हम सहज ही जान सकते हैं कि माता-पिता कितने महान् संस्कारों से भावित थे।
उनके चार संतानें हुईं, दो सुपुत्रियाँ तथा दो सुपुत्र । सबसे बड़ी संतान हैं-वर्तमान में खरतरगच्छ धर्म-संघ की प्रवर्तिनी आर्यारत्न श्री सज्जनकुमारीजी म. सा. । दूसरी संतान हुए हमारे पिताश्री केशरीचन्दजी लूणिया जो अपने पिताश्री की भाँति ही तत्वज्ञानी, निर्भीक वक्ता एवं कुशल रत्न-व्यवसायी थे । उनकी प्रेरणा से ही आज उनके पुत्र-प्रपौत्र देश-विदेश में जवाहरात के व्यवसाय में अच्छी प्रगति कर रहे हैं । एक अन्य पुत्री श्रीमती कस्तूरी बाई तथा सबसे छोटे एक पुत्र श्री पूनमचन्दजी हुए। चारों ही संतानें धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ एवं व्यवहारनिष्ठ हुईं। व्यवहारकुशल आदर्शवादी
दादी सा० अनावश्यक एवं निरर्थक बातों में अपना एक क्षण भी नष्ट नहीं किया करती र्थी । वे अत्यन्त मृदुभाषिणी एवं शालीन स्वभाव की थीं। बच्चों को मारना तो दूर की बात है, वे उन्हें कभी
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(माताश्री) रत्नकुक्षि श्री मेहताब बाई लूनिया
For Private&Personal use only
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
जोर से डाँटती तक नहीं थीं । सांसारिक व्यक्ति के सामने परस्पर व्यवहार निभाने की अनेक उलझनें होती हैं, किन्तु वे अत्यन्त व्यावहारिक थीं तथा संयम और न्यायपूर्ण ढंग से चला करती थीं। वे हमारे दादाजी सेठ श्री गुलाबचन्दजी की केवल धर्मपत्नी ही नहीं थीं, अपितु धर्मयुक्त परामर्शदात्री भी थीं। अनेक अवसरों पर उन्होंने अपने पति को न्यायसंगत एवं नीतिसम्मत परामर्श देकर अपनी योग्यता का परिचय दिया था। प्रतिकूल परिस्थिति में भी उनका सम्यक् भाव अडिग रहता था।
___ अपने सबसे छोटे पुत्र श्री पूनमचन्द जी के आकस्मिक एवं असामयिक निधन पर भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया था। उनका चिन्तन था कि संसार नाशवान है, जिसने जन्म लिया है वह देरमबेर अवश्य जायेगा। और इसी चिन्तन के सहारे उन्होंने पुत्र के वियोग को मन पर हावी नहीं होने दिया। निर्लिप्त बनकर यथावत् अपने नियम-संयम का पालन करती रहीं। लगभग इसी प्रकार की अनित्य भावना का परिचय आपने उस समय दिया जब आपके पतिदेव सेठ श्री गुलाबचन्दजी का अन्तिम समय निकट था । उनको मरणासन्न जानकर भी दादी सा. ने धैर्य खोकर रोना-धोना आदि नहीं किया। अपित आपने पतिदेव को धर्म-चर्चा का श्रवण करवाया और नमस्कार महामन्त्र तथा चार धार्मिक संबल प्रदान करती रहीं। अनुकरणीय संस्मरण :
यों तो दादी सा. का सम्पूर्ण जीवन ही अनुकरणीय है, किन्तु अपने पति को निरन्तर धर्माचरण में प्रेरित करते रहना तथा निरन्तर उनके साथ रहकर धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त रहना सद्गृहिणी के अनुपम उदाहरण हैं। उन्हें अपने आप पर और अपने संयमित एवं नियमित जीवन पर पूर्ण विश्वास था। जिस प्रकार गांधीजी दढ़ता के साथ कहा करते थे कि मैं १२५ वर्ष तक जीऊँगा, क्योंकि उनको भी अपने नियमित, संयमित और धार्मिक जीवन की लम्बी आयु का पूर्ण विश्वास था, उसी प्रकार दादीजी भी अपनी लम्बी उम्र के विषय में पूर्ण आश्वस्त थीं।।
एक बार वृद्धावस्था में उनको मियादी ज्वर (टाईफाइड) ने घेर लिया । वे कृशकाय हो गयीं। किसी ने उनकी अवस्था और रुग्णता देखकर परामर्श दिया कि अब उनको संथारा (आमरण अनशन) पचख लेना चाहिए। किन्तु उन्होंने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया-'मेरा आयुष्य अभी बहुत शेष है । अनशन करके क्या विराधक बनना है ? मैं संथारा नहीं करूंगी।' ऐसा उत्तर वे ही दे सकते हैं जिनको अपने संयम-नियम और धर्माचरण पर पूर्ण निष्ठा हो। इस बीमारी के बाद वे २५ वर्ष से भी अधिक जीवित रहीं तथा ६७ वर्ष की दीर्घायु में दिवंगत हुईं। अपने अन्तिम समय तक वे धर्म-चर्चा में लीन रहीं और धर्माराधनापूर्वक त्याग-प्रत्याख्यान के साथ उन्होंने अपने इहलोक और परलोक को सार्थक बनाया।
दादी सा. स्वर्गीया महताब कँवरजी की माताजी का नाम जतनकँवरजी एवं छोटी बहिन का नाम फूलकँवरजी था । ये दोनों ही तेरापंथ धर्मसंघ के साध्वी वर्ग की आदर्श साध्वियाँ हुई हैं। उनकी गणना धर्मसंघ की अत्यन्त विनयशीला एवं सहनशीला सतियों में की जाती है।
गुरुवर्या प्रवर्तिनी आर्यारत्न सज्जनश्रीजी म. सा. की पूजनीया माताजी का स्मरण करना इस अवसर पर अत्यन्त आवश्यक है, धर्म लाभ का कार्य है, क्योंकि आज हमें जिस महान् विभूति के दर्शन सुलभ हैं वे उस महान् नारीरत्न की सुपुत्री हैं, जिसने अपने जीवन के ६७ वर्ष पवित्रता एवं धार्मिक भावना से ओतप्रोत रहकर लूणिया परिवार को शाश्वत गौरव प्रदान किया है। गुरुवर्या के पावन अभिनन्दन के शुभ अवसर पर मेरा उस महान् आत्मा को कोटिशः वन्दन !
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धर्मनिष्ठ तत्वज्ञ श्रावक सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया
धन का बिरवा परिश्रम का जल चढ़ाने से सहज ही बढ़ने लगता है। यश एवं कीर्ति का क्षेत्र भी पारस्परिक सम्पर्क, दानशीलता, सेवा-सहयोग, मृदु व्यवहार एवं मित्रभाव का पुट देकर जिस गति से चाहे बढ़ाया जा सकता है। किन्तु धर्म की बेल यूँ सहज ही फलीभूत नहीं होती । पूर्व संस्कारों का पवित्र जल इसमें सींचना होता है । पीढ़ी दर पीढ़ी धर्मनिष्ठ पूर्वजों की आस्था का पोषण इस बेल को देना पड़ता है। दैनन्दिन क्रिया कर्म, नियमित उपासना, तप और साधना के साथ-साथ लोक-व्यवहार, वृत्तिव्यवहार, घर-परिवार सभी क्षेत्रों में धर्मपरायणता का निर्वाह करना होता है। अनेकानेक भौतिक एवं मनोकायिक भूचालों से धर्म-बेल की रक्षा करनी होती है, तभी यह अमृत तुल्य फल प्रदान करती है, तभी परिवार में धार्मिक संस्कारों से युक्त संतानों का प्रादुर्भाव होता है ।
ऐसा ही सुयोग मिला था धर्मनिष्ठ तत्वज्ञ श्रावक सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया को। उनके पूर्वज ११वीं शताब्दी में मुलतान राज्य में व्यापार करते थे। उनमें सबसे ख्यातनामा थे श्री धींगरमल शाह (मूदड़ा) जो कि मुलतान राज्य में प्रधानमन्त्री के सम्मानित पद पर आसीन थे। उनके एक पुत्र लूणाशाह थे, जिनको एक बार सर्प ने डंस लिया । दैवयोग से उस समय वहाँ जैन मुनि श्रीगुरुजिनदत्तसूरि जी का आगमन हुआ। आप बड़े दादा गुरु के नाम से विख्यात थे। उन्होंने अपने मंत्रबल से लूणाजी शाह का सर्प विष उतार कर उन्हें स्वस्थ कर दिया । श्री धींगरमलजी इस चमत्कार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया । सन् १९९२ में आचार्य महाराज ने उनके पुत्र लूणाशाह के नाम पर ओसवाल जाति में “लुणिया" गोत्र प्रदान किया। गोत्र का शुभारभ उनसे ही हुआ।
__ श्री धींगरमल जी शाह का परिवार मुलतान में यवनों का शासन हो जाने तथा अकाल की स्थिति बन जाने के कारण मुलतान छोड़कर जैसलमेर में आ बसे । जहाँ यह परिवार १७ वीं शताब्दी तक रहा । जैसलमेर में व्यापार की अधिक प्रगति होती नहीं देखकर शाह जी दिल्ली में आकर बसे ।
दिल्ली से से लूणिया परिवार जयपूर आ गया तथा व्यापार दिल्ली व जयपूर दोनों स्थानों पर करते रहे । श्रीछबीलचन्दजी के सुपुत्र का नाम था गोरूमल जी; उनके दो पुत्र थे-एक श्रीचौथमलजी तथा दूसरे श्रीगणेशमलजी।
__ यह वह समय था जब महाराज जयसिंह ने जयपुर नगर बसाया था और अन्य प्रान्तों के विद्वानों, व्यापारियों, धार्मिक महापुरुषों और कलामर्मज्ञों को जयपुर में आकर बसने का आह्वान किया था। श्रीगोरूमलजी को भी महाराजा जयसिंह द्वारा आमंत्रण मिला और वो भी जयपुर आकर व्यापार करने लगे । उन्होंने जवाहरात के व्यवसाय में अच्छी ख्याति अर्जित की, तथा "गौरूमल चौथमल" नाम से एक फर्म की स्थापना की व कुन्दीगर के भैरूजी के रास्ते में एक हवेली बनवाई। जहाँ आज भी लूनिया परिवार रहता है।
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MARA
(पिताजी) स्वनामधन्य श्रेष्ठी श्री गुलाबचन्द जी लूनिया
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
श्रीगोरूमलजी ने अपने बड़े पुत्र चौथमलजी का विवाह चौधाणी (नाहटा) परिवार में किया तथा छोटे पुत्र गणेशमलजी का विवाह बोथरा परिवार में किया । गणेशमलजी की प्रथम पत्नी का देहान्त हो जाने पर उनका दूसरा विवाह भूरामलजी चोरडिया की बहिन से हुआ। गणेशमलजी का तीसरा विवाह राजगढ़ (सादुलपुर) में बेगवानी परिवार में हुआ। बड़े भाई चौथमलजी के कोई सन्तान नहीं हई । गणेशमलजी की तृतीय पत्नी से तीन सन्तानें हुई--एक कन्या और दो पुत्र । कन्या का नाम हुलासाबाई रखा गया। दोनों पुत्रों का नाम क्रमशः तेजकरण और गुलाबचन्द रखा गया। हुलासाबाई का विवाह उस समय के ख्यातिनामा ढड्ढा परिवार में श्रीबहादुरमलजी ढड्ढा से हुआ । बहादुरमलजी अधिक आयु नहीं पा सके । वे २५ वर्ष की अवस्था ही में अपनी पत्नी श्रीमती हुलासाबाई तथा पत्ररत्न श्रीउमरावमल को छोड़कर स्वर्गवासी हो गये। उमरावमलजी को लूनिया परिवार में दीपचन्द कहते थे।
___ श्रीगणेशमलजी के प्रथम पुत्र तेजकरणजी तथा उनकी पत्नी का देहान्त भी युवावस्था ही में हो गया। तेजकरणजी की पत्नी लनवाल परिवार से थी।
इसी पीढ़ी में श्रीगणेशमलजी के द्वितीय पुत्र गुलाबचन्दजी थे । श्रीगणेशजी की वंश बेल श्रीगुलाबचन्दजी से ही फली फूली । उनके द्वारा लगायी गयी वंश-पौध आज वट वृक्ष बनकर लहलहा रही है। इस वंश ने धन, सम्पन्नता, धर्मनिष्ठा, सामाजिक प्रतिष्ठा, लोक व्यवहार, विदेशों में व्यापारिक सफलता एवं ख्याति के अनेक कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी वंश वृक्ष की एक उज्ज्वल मणि हैं-आगमज्ञा, विदुषीवर्या आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी महाराज साहब । स्वनामधन्या श्रीसज्जनश्रीजी म. सा. अपनी ज्ञानसुधा से अध्यात्म पिपासु भक्तजनों के हृदयों को निरन्तर आप्लावित करने वाले श्रीगुलाबचन्द जी की पुत्री हैं जो अपने त्याग, तप, धर्मनिष्ठा तथा संयम-साधना से पीहर और ससुराल दोनों ही पक्षों का नाम उज्ज्वल कर रही हैं । श्री गुलाबचन्दजी की बाल्यावस्था
आपका जन्म संवत् १९३४ में जयपुर में हुआ । नीतिनिष्ठा और धर्माचरण आपको विरासत में प्राप्त हुए थे। पिताश्री गणेशमलजी की ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रभाव गुलाबचन्दजी के संस्कारों में भी आया । धार्मिक आचरण एवं साधु-सन्तों की सेवा दादाजी श्री गोरूमलजी के समय में भी परिवार के मुख्य कर्तव्य माने जाते थे । सं० १८८५ में तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने अपना चातुर्मास जयपुर में किया था । उस समय ५२ व्यक्तियों ने तेरापंथ की गुरु धारणा ग्रहण की । गोरूमल जी उन्हीं में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। धर्म की इस अजस्र धारा में ही पल्लवित-पुष्पित हुई थी श्री गुलाबचन्द जी की मानस वल्लरी । कल्पना-शक्ति और भावनामय उड़ान आपको ईश्वर प्रदत्त थी। बाल्यकाल ही से आप साधु-साध्वियों की सेवा में अधिक से अधिक समय दिया करते थे। धर्मचर्चा में आपका मन खूब रमता था । सुन्दर-सरस और तात्त्विक ढालें तो आप १७ वर्ष की आयु में ही लिखने लगे थे।
___ आप बचपन से ही मृदुभाषी थे । भावुक होने के कारण आपने कभी किसी को कटुवाणी से कष्ट नहीं पहुंचाया । सबके सहयोगी एवं सेवाभावी आप बाल्यकाल ही से थे। आपका सांसारिक कार्यों में कम ही मन लगता था । खण्ड ११३
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सेठ श्री गुलाबचन्दजी लूणिया
दीक्षा ग्रहण की तैयारी :
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अनेक आध्यात्मिक गुणों से युक्त वालक गुलाबचन्द जी का मन प्रायः दीक्षा के लिए लालायित रहने लगा । उनकी इस महती आकांक्षा को परिजनों ने भाँप लिया और हर सम्भव उपाय से वे उनका मानस बदलने का प्रयत्न करने लगे अतः १४ वर्ष की आयु में ही उनका विवाह यह विचारकर कर दिया गया कि गृहस्थी का भार वहन करने से दीक्षा लेने का भाव स्वतः ही तिरोहित हो जायेगा । श्री गुलाबचन्द दीक्षा तो नहीं ले पाये, किन्तु गृहस्थी में रहकर भी उन्होंने अग्रणी और पूर्ण धर्माचरणयुक्त श्र ेष्ठ श्रावक के रूप में ख्याति अर्जित की । सन्त- मुनिराज भी अपने प्रवचनों में श्री गुलाबचन्द जी के -कारे (तहत्ति) का ध्यान रखते थे, क्योंकि वे स्वाध्यायी थे, चिंतक थे और धर्म - आख्यानों का उन्हें विशुद्ध ज्ञान था, अतः उनका 'हूँ-कारा' आना प्रवचनकर्ताओं की सफलता का कारण बन जाता था । विवाह एवं गृहस्थ
जीवन
श्रावक सेठ श्री गुलाबचन्दजी का विवाह भोपाल रियासत के खंजाची श्री चुन्नीलालजी कोठ्यारी एवं श्रीमती जतनकुमारीजी को सुपुत्री महताबकुमारी के साथ हुआ था । श्रीमती महताब - कुमारी गृहकार्य में दक्ष, सुशील, व्रत-नियमों में आस्थाशील सदाचारिणी महिला थीं । वे अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। ऐसी सहधर्मिणी मिलने से सोने में सुहागा वाली कहावत चरितार्थ हो गई । युवावस्था में पति-पत्नी ने तेरापंथ के अष्टम आचार्य श्री कालूगणी से बारह व्रत धारण कर लिये थे । धर्माचरण सामायिक और व्रत - पचखाण के साथ दोनों ने गार्हस्थ्य जीवन की यात्रा आरम्भ की।
कुछ काल उपरान्त श्री गुलाबचन्दजी के पिताश्री और श्री चौथमलजी का स्वर्गवास हो गया । गृहस्थी का सम्पूर्ण भार श्री गुलाबचन्दजी तथा भाई तेजकरण जी पर आ पड़ा । किन्तु विधि के विधान श्री गुलाबचन्दजी को ही सारे उतरदायित्वों को वहन करवाने की योजना थी, अतः कुछ कालोपरांत भाई तेजकरण जी भी निःसन्तान ही इस संसार से विदा हो गये । अब सारे परिवार का भार श्री गुलाब चन्दजी पर ही आ पड़ा। आपने पूरी ईमानदारी तथा कठिन परिश्रम से इस उत्तरदायित्व को निभाया । संसारी रहे, किन्तु मन को संसार में नहीं रमाया, धर्म से अलग नहीं होने दिया । उन्होंने व्यापार और धर्मनिष्ठा में समान रूप से प्रगति की और दोनों ही क्षेत्रों में अच्छा नाम कमाया । सांसारिक उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी वे उससे मोहग्रस्त नहीं हुए, धन-वैभव अर्जित किया । और संसार में रहकर भी कमल की भाँति निर्लिप्त रहे ।
पारिवारिक वैभव :
सेठ श्री गुलाबचन्दजी के दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं ।
वर्तमान में जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ की प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी का जन्म १६ मई १९०८ को हुआ । बाल्यकाल में आपको सभी स्नेहवश 'गपजी' कहकर पुकारते थे । पिताश्री का आप पर अत्यन्त स्नेह था । वे इन्हें अपना पुत्र ही मानते थे । और धार्मिक क्रियाकलाप हो या सामाजिक समारोह, सब में आपको अपने साथ ही रखते थे । यह बात निर्विवाद सत्य है कि प्रवर्तिनी जी में धार्मिक संस्कारों का प्रस्फुटन अपने पिताश्री की प्रेरणा से ही हुआ, फिर भी आप में पूर्वजन्मों के धार्मिक संस्कारों का बीज भी अवश्य रहा है, अन्यथा यह धर्मपौध इतनी कम आयु ही में थोड़ी सी प्रेरणा पाकर ही कैसे प्रस्फुटित कैसे होता ? सज्जन श्रीजी का विवाह बाल्यकाल में ही १२ वर्ष आयु में जयपुर के प्रसिद्ध दीवान श्री नथमलजी गोलेछा के सुपुत्र श्री कल्याणमल जी से हुआ । विवाह बहुत धूमधाम
से सम्पन्न हुआ ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
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विवाहोपरांत भी प्रवर्तिनीश्रीजी सांसारिक बन्धनों, धन-वैभव की सुविधाओं, गार्हस्थ्य जीवन के मोहों में नहीं रम सकीं। जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है ? प्राणी पृथ्वी पर क्यों जन्म लेता है उसका वास्तविक लक्ष्य क्या है ? आदि -आदि प्रश्न आपके अन्तर् को निरन्तर सांसारिक जीवन से उदासीन तथा आध्यात्मिक जीवन की ओर उन्मुख करते रहे । अंततः आपने सांसारिक मोहबन्धन से छुटकारा पाने का दृढ़ निश्चय कर अपने भुवासास श्रीमती बाफना के सहयोग से सन् १६४० में जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ में दीक्षा ग्रहण करली । निर्बन्ध निर्लिप्त जीवन का शुभारम्भ हो गया । उस समय आपकी आयु मात्र ३२ वर्ष थी । तब से आज ८१ वर्ष की अवस्था तक आप कर्मठ तपस्विनी, साधिका, शास्त्रज्ञा, आगमवेत्ता संघ प्रवर्तिनी, गुरु सेविका और गुरुवर्या के रूप में ख्याति प्राप्त हैं ।
सन् १९१५ में श्री केशरीचन्द्र जी का जन्म हुआ, जिनके चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं । सन् १६१७ में दूसरी पुत्री कस्तूरीबाई का जन्म हुआ तथा १९२२ में दूसरे पुत्र पूनम चन्द जी जन्म हुआ । जिनके चार पुत्रियाँ और एक पुत्र हुए ।
व्यापारिक प्रगति
सेठ श्री गुलाबचन्द जी ने जयपुर के जौहरियों में अपनी सत्यनिष्ठा एवं ईमानदारी से शीघ्र ही विशिष्ट स्थान बना लिया था । भारत के अनेक जौहरीगण आपके आढ़तिये थे । वे समय-समय पर जयपुर आते और श्री गुलाबचन्द के घर पर ही ठहरते थे । श्री गुलाबचन्द जी के द्वारा किये हुए सौदों में आढ़तियों को भी अच्छी आय होती थी ।
विदेशियों से सम्पर्क
आपने जवाह्रात का एक शो रूम जौहरी बाजार में खोला। थोड़े समय पश्चात् आपकी ख्याति सुनकर रियासत के दीवान सर मिर्जा इस्माईल ने अपने नाम पर नव निर्माणाधीन मिर्जा इस्माइल रोड़ पर एक वृहत भूमिखंड बहुत कम कीमत पर प्रदान किया । जिस पर आपने जवाहरात का एक भव्य शो रूम व सुरम्य उद्यान लगाया जो “लुनियों के बाग" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अंग्रेजी जानने वाले गुमाश्ते रखे । व्यवसाय के क्षेत्र में जयपुर नगर में यह एक विशेष कार्य था । दो घोड़ों की बग्घी पर सेठ श्री गुलाबचन्दजी आया जाया करते थे । अपने ही घर पर आपने जड़िया सोने मीने का काम करने वाले कारीगर, बिंदाई व पुवाई का काम करने वाले पटवा, बेगड़ी, मोती पिराने वाले आदि रखे । उन सबका कार्य सेठसाहब की देख-रेख में ही होता था ।
आपके व्यापार में अच्छी वृद्धि हुई । धर्म का प्रभाव धनवृद्धि पर भी पड़ा । चतुर्दिक प्रतिष्ठा बढ़ने लगी । रियासत के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित अधिकारियों, जैसे- नवाब साहब, हाथीबाबू जी, मोतीलाल जी अटल, अमरनाथ जी अटल, गीजगढ़ ठाकुर कुशल सिंह जी, रूपसिंह जी राठौड़, अमर सिंह जी राठौड़, महाराजा माधोसिंह जी के साले साहब, खवास बालावक्ष जी, अंग्र ेज रेजीडेन्ट, आदि से अच्छा सम्पर्क था ।
जयपुर के प्रतिष्ठित जौहरियों से आपके पारिवारिक संबंध थे तथा उनके यहाँ सपरिवार आना-जाना होता था ।
सेठ श्री गुलाबचन्द जी ने एडवर्ड सप्तम के पुत्र पंचम चार्ज प्रिंस आफ वेल्स के दिल्ली आगमन पर हुए समारोह में जौहरी के रूप में सक्रिय भाग लिया। आपको प्रिंस ऑफ वेल्स और जार्ज पंचम तक से प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए । महाराजा माधोसिंह जी के दरबार में आपकी भी कुर्सी लगती थी । दरबार
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सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया के कई प्रतिष्ठित ठिकानेदारों से आपका व्यक्तिगत सम्पर्क था। महाराजा जामनगर ने आपसे जवाहरात का बहुत माल खरीदा और वे समय-समय पर आपको जामनगर आमन्त्रित करते थे।
इन सभी महत्वपूर्ण सम्पर्को, सम्बन्धों और व्यापारिक उपलब्धियों का एकमात्र कारण आपकी सत्यनिष्ठा ही थी । लाभांश से कई गुना अधिक आपका ध्यान संबंधों और सम्पर्कों की शुद्धता व निरंतरता बनाये रखने पर रहता था। यही कारण था कि अच्छे-अच्छे व्यापारी, ओहदेदार, ठिकानेदार, अंग्रेज अफसर, राजदरबारी आदि आपके आजीवन मित्र बने रहे। व्यापारिक सहिष्णुता :
इतने बृहद् पैमाने पर व्यापार होते हुए भी आपने कभी कचहरी का द्वार नहीं खटखटाया। कोर्ट-कचहरी, मुकदमेबाजी आदि झंझटों से आप आजीवन दूर रहे । गवाही (साक्षी) देने जाने की आपने सौगन्ध ले रखी थी। इस व्रत को आपने आजीवन निभाया । बहुआयामी किन्तु धर्म निष्ठजीवन :
__व्यापारिक, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन सभी क्षेत्रों में कर्तव्यनिष्ठ रहते हुए भी सेठ साहब ने अपने हृदय को धर्म की धुरी पर ही केन्द्रित रखा । कहते हैं, धर्मनिष्ठ गृहस्थी तपोनिष्ठ साधु से भी श्रेष्ठतर होता है । इसलिए श्री गुलाबचन्दजी का मान चारों ही सम्प्रदायों के आचार्य करते थे। सेठजी को सम्प्रदायवाद ने छुआ तक नहीं था। आपकी दृष्टि व्यापक थी।
नगर में किसी भी सम्प्रदाय के आचार्य पधारे हों, सेठसाहब उनकी सेवा में नियमित रूप से जाते थे । आप केवल औपचारिक श्रावक नहीं थे अपितु एक महान् तत्त्वज्ञानी थे। उपवास बेला तेला आदि की तपस्या भी करते रहते थे। जयपुर के एक प्रसिद्ध पंत जी महाराज के स्वर्गवास होने पर उनकी सम्पूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थों का भंडार आपने खरीद लिया तथा उनका अनुशीलन किया । आगम शास्त्रों का आपको गहरा ज्ञान था। ज्योतिषविद्या के भी आप अच्छे जानकार थे। आचार्यों से आपकी तत्त्व-चर्चा निरन्तर चलती रहती थी। इसलिए व्याख्यानों व प्रवचनों में आचार्यवर्य भी आपकी "तहत्ति” की निरन्तर अपेक्षा रखते थे । सामायिक, प्रतिक्रमण, आपकी दिनचर्या के नियमित क्रियाकलाप थे। युवावस्था ही में आपने अपनी धर्मपत्नी के साथ १२ व्रतों की पालना प्रारम्भ कर दी थी। आपने विदेशयात्रा, एलोपैथी औषधी, अखाद्य खाद्य, मुकदमेबाजी आदि नहीं करने की शपथ ले रखी थी। इन सभी नियमों का पालन आपने आजीवन किया था।
तेरापंथ धर्मसंघ की पाट-परम्परा के पाँचवें आचार्य श्री मघवागणी, छठे आचार्य श्री माणकगणी, सातवें आचार्य श्री डालगगी, आठवें आचार्य श्री कालूगणी एवं वर्तमान आचार्य श्री तुलसीगणी की आपने दत्तचित्त होकर सेवा की। इन पाँचों आचार्यों की निकट सेवा का अवसर सेठसाहब को अनेक बार मिला। उन्होंने गण और गणी की सेवा में सदैव तत्परता दिखलाई। आपका सम्पूर्ण जीवन ही संघ की सेवा से ओत-प्रोत रहा। यह उल्लेखनीय है कि जर्मन दार्शनिक हर्मन जेकोबी सर्वप्रथम आपके सम्पर्क में आए और आपने उनको जैनदर्शन, जैन आचार, आचार्य भिक्षु के तत्वदर्शन आदि के विषय में विस्तार से बताया । जर्मनी में जैनधर्म के प्रचार एवं प्रसार में आपका पूर्ण सहयोग रहा। भावमर्मज्ञ, भक्ति-रसज्ञ, संगीतज्ञ, कविहृदय
रात्रि जागरण के आयोजनों में यदि सेठ श्री गुलाबचन्दजी का भक्ति संगीत हो तो मंदिरों में आपकी ढालें और चौमासे की विनतियाँ सुनने के लिए हजारों की भीड़ लग जाती थी । आप एक सुमधुर गायक थे तो गीतिकाओं और ढालों के सिद्धहस्त रचयिता भी थे । तीन सौ से अधिक भजन ढालें आपने स्वयं लिखीं, जिनमें भक्तिरस, तत्वज्ञान और धार्मिक भावनाओं का त्रिवेणी संगम देखने को
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
मिलता है । आपको कई देशी राग-रागनियों का अच्छा ज्ञान था । आपने लोकप्रिय राग-रागनियों के आधार पर कई भजनों की रचना की । आज भी सेठ साहब के समय के लोग, मित्रजन, श्रावक उनके भजनों को गाते हैं और इस भक्त हृदय की संगति का स्मरण कर आत्मविभोर हो उठते हैं । आपके भजनों का संचय (केसेट) भी तैयार किया गया है, जिसे सुनकर हर व्यक्ति स्वयं अनुभव कर लेता है कि सेठ श्री गुलाबचन्दजी वस्तुतः ऐसे महकते हुए गुलाब थे जिनमें भक्ति-संगीत और काव्य-मर्मज्ञता की सुरभि पूर्णतः व्याप्त थी । निःसंदेह, इस सौरभ ने लूणिया परिवार, सम्पूर्ण जैन समाज और उनके स्वयं के जीवन को एक समुज्ज्वल धर्मभावना से आवेष्टित बनाये रखा था और आज भी वह सौरभ श्री सज्जनश्रीजी म. सा. के माध्यम से उसी गरिमा के साथ दिग-दिगन्त में व्याप्त है।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने श्री गुलाबचन्दजी लूणिया के विषय में कहा है कि श्री गुलाबचन्द जी प्रथम श्रावक थे जिन्होंने भक्ति-भाव पूर्ण ढालें, गीतिकाएँ, स्तवन आदि की रचनाएँ की और भक्तिभाव से विभोर हो उनको स्वयं गाया भी । श्री गुलाबचन्द जी लूणिया व श्री सुजानमल जी खाटेड की गायन युगल जोड़ी पूर्ण जैन समाज में प्रसिद्ध थी। ग्रन्थ प्रकाशन एवं धर्मभावना
धार्मिक समारोह, आध्यात्मिक जागरण एवं तत्वचर्चाओं में भाग लेने के साथ-साथ श्री गुलाबचन्द जी लूणिया ने अनेक स्वरचित व अन्य ग्रन्थों का प्रकाशन करवाया। उनके द्वारा रचित/प्रकाशित अनेक पुस्तकें उस समय जैन-तत्व दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती थीं। अनेक श्रावक-श्राविकाओं
और साधु-साध्वियों ने इन ग्रन्थों से जैन तत्वों की जानकारी प्राप्त की। आज भी इन ग्रन्थों को जैनतत्व दर्शन के प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। श्री गुलाबचन्दजी साहब के धर्मग्रन्थ जिनकी रचना आपने ही की थी, निम्नलिखित हैं
१. भिक्षुयश रसायन २. नव पदार्थ निर्णय ३. श्रावक धर्म विचार ४. शिशुहित शिक्षा ५. श्रावक आराधना ६. सुगणावली ७. प्रश्नोत्तर तत्वलोक ।
श्री लूणियाजी के ग्रन्थ प्रकाशन कार्य में सबसे अधिक सहयोग मिला था उनके अनन्य मित्र सहयोगी एवं सहधर्मी श्री हीरालालजी आंचलिया का। श्री आंचलियाजी भी लूणियाजी की तरह जैन शासन के भक्त-श्रावक रहे हैं । वे प्रथम श्रावक हुए हैं जिन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का शुद्धिकरण करवाया, उन्हें छपवाया और धर्मचेतना जाग्रत करने हेतु निःशुल्क वितरण करवाया।
श्री आंचलियाजी गंगाशहर (बीकानेर) रहते थे। किन्तु ग्रन्थ प्रकाशन के कार्य हेतु प्रायः जयपुर आया करते थे और श्री गुलाबचन्दजी लूणिया के यहाँ ही ठहरा करते थे। दोनों ही दृढ़ श्रद्धायुक्त भक्त थे जिन्होंने जैन ग्रन्थों के प्रकाशन, वितरण एवं प्रभावना की दृष्टि से ऐतिहासिक योगदान किया था ।
श्री गुलाबचन्दजी का स्वच्छ-रुचि सादे परिधानयुक्त सरल आध्यात्मिक हृदय वाला आकर्षक व्यक्तित्व था। वह भावपूर्ण, कला-मर्मज्ञ हृदय, उदार किन्तु उत्तरदायित्वपूर्ण गृहस्थ श्रावक, कुशल किन्तु स्वार्थरहित व्यवसायी थे। अपने पीछे दो पुत्र, दो पुत्रियों तथा यश-मान, कीर्ति, धर्म-प्रभावना, वैभव, प्रतिष्ठा और अनेक स्मरणीय एवं अनुकरणीय कृतियाँ छोड़कर उनकी दिव्यआत्मा अकस्मात् ही हृदय गति रुक जाने से वि० सं० १६६६ के माघ शुक्ला २ की रात्रि को ८ बजे स्वर्गलोक में प्रयाण कर गई। आज भी उनके भजन-गीत, ढालें-स्तवन और अनेक ग्रन्थ उनकी स्मति को अमर बनाये हुए हैं । आज भी वे अपनी सम्पूर्ण जीवंतता के साथ जीवित हैं। उन्हीं की एक सुपुत्री है स्वनामधन्या महान साध्वीरत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. जिनका अभिनन्दन करते हुए हम उस अमर आत्मा के प्रति श्रद्धावन्त हैं।
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पूज्य प्रवर्तिनी श्रीजी के संसारपक्षीय सहोदर बन्धु
श्री केशरीचन्दजी लूनिया
पिताजी श्री केशरीचन्दजी लूनिया का जन्म सन् १९१५ में हुआ। आपके पिताश्री श्रेष्ठ श्रावक प्रसिद्ध जौहरी सेठ गुलाबचन्दजी लूणिया थे, तथा माता का नाम महताब कुंवर था । १४ वर्ष की अल्पायु में ही जवाहरात के व्यवसाय में रुचि लेना शुरू कर दिया था। वे कलकत्ता में १९४०-१९५६ तक रहे और कलकत्ता के ग्रांड होटल और ग्रेट ईस्टर्न होटल में सफलता पूर्वक जवाहरात का शोरूम चलाया।
१९५७ में जयपुर के रामबाग पैलेस होटल में "एस गुलाबचंद लूनिया एण्ड कं०" के नाम से शोरूम खोला जो कि आज भी सफलता पूर्वक चल रहा है । द्वितीय महायुद्ध के बाद पिताजी व्यापारार्थ संघाई चीन] गये थे । जमनालालजी बजाज की अध्यक्षता में प्रजामंडल का जयपुर में अधिवेशन हुआ उसमें आप एक नवयुवक नेता के रूप में सम्मिलित हुये और कार्य किया।
__ स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जयपुर में १६४८ में पहली बार कांग्रेस का अधिवेशन हआ उसमें भी सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भाग लिया।
. अन्त समय तक नमस्कार मन्त्र का जाप-मेरे पिताश्री अत्यन्त ही विनोदी, मिलनसार और व्यवसायी बुद्धि के व्यक्ति होते हुए भी विज्ञान, दर्शन, कला आदि गंभीर विषयों के भी ज्ञाता थे। अंतिम दिनों में बीमारी के दौरान भी जरा सी भी तबियत ठीक होती तो कहते "चलो पन्ना हम रामबाम चलकर आते हैं।" जब भी कभी मेरी कोई भाभी आती तो कहते ढाले और भजन सुनते । हमेशा टेप रिकार्ड पर आचार्यश्री तुलसी व अन्य विद्वान साधु-साध्वियों के भजन आदि सूना करते थे।
बीमारी के दौरान हमेशा ही “अरिहंता को शरणों सिद्धाको सरणों" आदि शब्दों का उच्चारण किया करते थे। जब डॉक्टरों ने उन्हें इलाज हेतु विदेश जाने की सलाह दी तब उस जून की भीषण गर्मी एवं इतनी अस्वस्थता के बावजूद भी उन्होंने कहा-पहले मैं गुरुदेव (आचार्यश्री तुलसी) के दर्शन करूंगा फिर उनसे निर्देश प्राप्त करके ही कहीं जाऊंगा। वे लेटे-लेटे ही गाड़ी में दिल्ली चले गये और उनके दर्शन किये।
पिताश्री कष्ट और अपार शारीरिक वेदना में हमेशा ही प्रसन्नचित रहते और नमस्कार महामंत्र बोलते रहते थे । मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले ही उन्हें पूर्वाभास हो गया था और कहते थे अब मेरा समय निकट आ गया है “खमत खामणा है सभी लोगों से।
एक बार साध्वी जी दर्शन देने पधारी तो मंगल पाठ सुनाने के बाद फरमाने लगी “सेठा अब काय की इच्छा है" तो आप कहने लगे “महाराज अब तो मेरी किसी चीज की भी इच्छा नहीं है सिर्फ चाहता हूँ कि पंडित मरण आवे।"
पिताजी का जीवन हमेशा कीचड़ में कमल की भाँति निर्लिप्त रहा, राग द्वष किसी से भी नहीं था। किसी से भी कहा-सुनी होने पर भी कभी गाँठ नहीं बाँधते । दस मिनट बाद ही वह पहले जैसे हो जाते जैसे कुछ हआ ही न हो । उनका पूरा जीवन ऋजुता, क्षमा और सहनशीलता, दृढ़ निश्चय और आत्म विश्वास से पूर्ण था।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
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. आचार्य तुलसी, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ तथा अन्य साधु-साध्वियों का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु पिताश्री सेवार्थ तत्पर रहते थे । परिवार में निरन्तर कहा करते थे “मन का तप करो-तन का तप तो सोरा (सहज) है असली तप तो मन का है।"
ऐसे मेरे बहु आयामी पिताश्री का आशीर्वाद हमारे साथ है।
केशरीचन्दजी का विवाह जयपुर के प्रसिद्ध बैंकर्स के परिवार में श्री बीजराजजी बांठिया के यहाँ हुआ । आपकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती रेखादेवी लूनिया है । ये स्वयं भी अत्यन्त सरल हृदया एवं धर्मपरायण महिला हैं।
श्री केशरीचन्द जी साहब लूनिया को चार पुत्र रत्नों और तीन पत्रियों की प्राप्ति हुई जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) श्रीविजयकुमार लूणिया, (२) श्री पुखराज लूणिया, (३) श्रीमाणकजी लूणिया एवं (४) श्रीसुरेशकुमार लूणिया तथा पुत्रियाँ (१) श्रीमती कमल सांड, (२) श्रीमती पन्ना सकलेचा, एवं (३) श्रीमती मन्जु पाटी दिया है।।
श्री विजयकुमार लूणिया-श्री केशरीचन्दजी साहब के ज्येष्ठ पुत्र हैं । आप एक सफल व्यापारी है। आप हवामहल के सामने स्थित शोरूम "ओरिएन्टल जेम पैलेस" का सफल संचालन कर रहे हैं। आप मिलनसार, हंसमुख और कर्मनिष्ठ व्यक्ति है। आपकी स्व० धर्मपत्नी निर्मला लूणिया कर्तव्यपरायण धर्मनिष्ठ एवं सेवाभावी रही हैं, आपका पुत्र स्व. मनोज एक होनहार बालक था। आपकी अंजु और मनीषा नाम की दो पुत्रियाँ हैं।
श्री पुखराज लूणिया-श्रीकेशरीचन्दजी के द्वितीय पुत्र हैं । आपने जवाहरात के कार्य में देश-विदेश में अच्छी ख्याति अर्जित की है । आप उत्साही युवक हैं। और जवाहरात के कार्य में कई नवयुवकों का दिशानिर्देश निरन्तर करते रहते हैं, आप एक शिक्षित, समाजसेवी, धर्मनिष्ठ और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी है । आपकी सुशीला, सुशिक्षित, कला मर्मज्ञ धर्मपत्नी श्रीमती रत्ना लूणिया है। श्रीमती रत्नाजी गंगाशहर के प्रसिद्ध आंचलिया परिवार की पुत्री है जिनके साथ लूणिया परिवार का पुराना घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध रहा है और धार्मिक कार्यक्रमों में दोनों परिवार समान रूप में सम्माननीय रहे हैं । अतः .. आंचलिया परिवार की सुसंस्कारी सुशिक्षिता कन्या का इस परिवार में पुत्रवधु के रूप में आना सचमुच मणि-कांचन संयोग माना जायेगा । आपकी पुत्री का नाम अनुपमा है।
श्री माणकचन्द लूणिया-आप भी जवाहरात के व्यापारी हैं। आप केशरीचन्दजी के तृतीय पुत्र हैं। किसी भी कार्य को योजनाबद्ध कर उसे पूरी लगन और परिश्रम से पूर्ण करने के आप अभ्यासी हैं। सायर लूणिया आपकी सुन्दर सुशील पत्नी है । आपके दो पुत्र सुदीप और गौरव तथा एक पुत्री है जिसका नाम शालिनी है।
श्री सुरेश लूणिया-केशरीचन्दजी साहब के चतुर्थ पुत्र हैं । आप भी जयपुर ही में जवाहरात के कार्य में संलग्न है तथा रामबाग का शोरूम सफलतापूर्वक संचालित कर रहे हैं । आपकी धर्मपत्नी इन्दुमति सुमुखी, सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत महिला है। आपकी दो सुन्दर कन्यायें हैं जिनका नाम स्वाती एवं सुरभी है।
श्री केशरीचन्दजी की ज्येष्ठ पुत्री कमल का विवाह श्रीविजयमलजी सांड के साथ हुआ जो कि वर्तमान में बिडला संस्थान में चीफ, इक्सजीक्यूटिव हैं।
द्वितीय पुत्री पन्नाबाई का विवाह जयपुर के प्रसिद्ध राजजौहरी काशीनाथजी के घराने में श्रीविजयसिंहजी सकलेचा से सम्पन्न हुआ। आप जवाहरात का ही व्यापार करते हैं।
___ तृतीय पुत्री मंजु का विवाह कलकत्ता के उद्योगपति परिवार के श्री अरविन्दबाबू पाटोदिया से सम्पन्न हुआ है।
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श्री केजरीचन्दजी लूणिया
धर्मशीला श्रीमती रेखादेवो लूणिया
(धर्मपत्नी श्री केशरीचन्दजी लूणिया) सेवाभावी, प्रसन्नमना, क्षमामूर्ति, सहनशीलता की देवी मेरी पूज्य माताजी श्रीमती रेखादेवी लूनिया के बारे में जब भी कभी सोचती हूँ तो ऐसा लगता है हमने पूर्व जन्म में शायद बहुत ही अच्छे कार्य किये होंगे जो इतनी अच्छी माँ मिली है-वो लाखों में एक हैं। हमेशा ही खुशमिजाज और सन्तोषी स्वभाव रहा है। आपका जन्म जयपुर की प्रसिद्ध बैंकर्स परिवार में श्री बीजराजजी जोरावर मलजी बांठिया के यहाँ हुआ।
नये विचारों की प्रगतिशील महिला के रूप में आप तेरापंथ महिला मंडल की अध्यक्षा के रूप में रहीं । करीब १२ वर्षों तक आपके नेतृत्व में मंडल ने बहुत विकास किया । कई वर्षों तक लायनेस क्लब जयपुर की भी सक्रिय सदस्य के रूप में कार्य किया। आपकी चार भतीजियाँ भी दीक्षा ली हुई हैं जो कि साध्वी श्रीकमलूजी, सूरज कुंवरजी, पानकंवरजी, रायकंवरजी है। हम सात बहन-भाइयों में तथा चार बहुओं में से शायद ही कभी किसी को डांटा हो अपितु जरा सी किसी को तकलीफ होने पर हमेशा ही पूरे सहयोग से दूर किया है ।
मेरी ममतामयी माँ इतनी शांतमना और गम्भीर है कि मेरे पास उनकी प्रशंसा हेतु शब्द नहीं हैं भगवान से यही प्रार्थना करती हूँ आपकी छत्रछाया हम बच्चों को हमेशा मिलती रहे आशीर्वाद बना रहे ।
सरलमनाश्री पूनमचन्दजी लूनिया ___ स्वर्गीय श्रीपूनमचन्दजी लूणिया सेठ गुलाबचन्दजी लूणिया की सबसे छोटी सन्तान थे । आपका जन्म वि. स. १६७२ ज्येष्ठ पूर्णिमा तथा स्वर्गवास १७ जून सन् १९७६ में हुआ। बचपन में ही आपका रुझान धार्मिक क्रियाकलापों की तरफ रहा, धर्मगुरुओं से धर्म के विषय में चर्चाएँ करना आपकी विशेष रुचि थी, और इसी के फलस्वरूप तेरापंथ साधुसमाज ने 'पण्डित" के नाम से प्रख्यात थे ।
आपका चरित्र निर्मल जल के समान पवित्र था तथा आपने अपना समस्त जीवन सादगीपूर्ण तरीके से बिना छलकपट के बिताया। परिवार के सब सदस्यों के प्रति आपका एक समान व्यवहार व
गी। आप अपने-पराये की भावना से परे थे। आप माता-पिता के अत्यन्त आज्ञाकारी पुत्र थे। पूजनीय प्रवर्तिनोजी महाराजसाहब से भी आपका अगाढ़ स्नेह था।
आपकी दो शादियाँ हुईं। पहली पत्नी श्रीमती लाधुबाई का युवावस्था में ही देहान्त हो गया जिनसे एक पुत्री प्रेम बांठियां है जिसका विवाह जयपुर के ही प्रतिष्ठित जौहरी श्रीप्रकाशचन्दजी बांठिया के साथ सम्पन्न हुआ। दूसरी पत्नी श्रीमती कमलाबाई से आपके चार सन्तान हुई तीन पुत्रियाँ व एक पुत्र । परिवार के प्रति आपने अपनी पूर्ण जिम्मेदारी निभायी तथा बच्चों में बचपन से ही अच्छे संस्कार डाले जिसके फलस्वरूप आपकी सभी सन्तानों ने अच्छी शिक्षायें प्राप्त की और समाज में अपना नाम उज्ज्वल रखा । आपकी दूसरी पुत्री श्रीमती पुष्पा पारीख ने भौतिक शास्त्र में एम.एस. सो. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया है तथा वर्तमान में लेक्चरार हैं । आपकी तीसरी पुत्री कु० प्रभा ने बी. ए. के पश्चात कामर्शियल आर्ट में डिप्लोमा प्राप्त किया। आपकी चौथी पुत्री कुमारी पदमा ने मनोविज्ञान में ही एम. ए. किया उसके पश्चात् मनोविज्ञान में एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की । वर्तमान में वह पी. एच-डी. कर रही है। आपके पुत्र पुष्पेन्द्र कुमार एम. काम. कर रहे हैं तथा साथ ही जवाहरात का व्यवसाय कर रहे हैं।
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श्रीधीगढ़मलजीशाह (प्रधान मंत्री मुलतान राज्य)
श्री नुमा शाह मुनिया
की तादा
लनिया वंशावली
श्री गौरमल जी
श्री सूगा शाह को सन् 186 ई० में
जैनाचार्य श्री दादा गुरु जिनदत्त मूरी ने श्रीसवालशन बनाया वसूनिया गीत्र प्रदान किया
श्री गणेशमलजी श्रीचौथमल जी)
दादा गुरु वन्दन दादा गुरु जिनदत्त सूरी सूर्य सदृश साकार । जिनके शुचि वरदान से विकसा लूणिया परिवार । पीगरशाह मुलतान के प्रधानमन्त्री विष्यात । लूणाशाह सुपुत्र के पूजनीय थे तात । लूणाशाह के सर्पदंश का विष दादा ने दूर किया। तब दादा से श्रीगरशाह ने लूणिया गोत्र स्वीकार किया सज्जन श्री सौरभ सुमन इसी वंश की ज्योति । दादा गुरू श्री चरण सौपि का अमल धवल नव मेति। खरतरगच्छ महान है धर्म ध्वजा का स्तंभ । प्रवर्तिनी आगम प्रखर नम्र विनम्र निरदंभ । शुभ दिवस यह शुभ घड़ी अभिनन्दन शतबार । सूर्य चन्द्र युग आयु तक जिओ धर्म आधार ।
रावचंद जी (महताब देवी)
श्री तेजकरणी
41510.1073
56.1880 1610.1977
1721940
श्रीचन्दजीवेताला (किस्तूरी बाई
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केसरीचंद जी
रेखा देवी
पनमचंद जी
मला बाई
प्रवर्तिनीधीसज्जनश्रीजी
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1941
3/15.10.17
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197354
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परिवार परिचय (२)
गोलेच्छा परिवार का परिचय
विजयकुमार गोलेच्छा
[ ससुराल पक्ष परिचय ]
गोलेच्छा वंश की उत्पत्ति
चन्देरी नगरी में खरहत्थसिंह राठौड राज्य करते थे । खरहत्थसिंह के चार पुत्र थे—अम्बेदेव, मिम्बदेव, भैंसासिंह और आसफल ।
एक बार यवन सेना ने इनके प्रदेश को लूटा । खरहत्थसिंह को ज्ञात होते ही उसने पुत्रों सहित सेना लेकर यवन सेना का पीछा किया । घमासान युद्ध हुआ । यवन सेना सब कुछ छोड़कर पलायन कर गईं। इस युद्ध में विजय तो हुई, पर चारों पुत्र गम्भीर रूप से घायल हो गये । दैवयोग से महान प्रभावक युगप्रधान श्री जिनदत्त सूरि का उस प्रदेश अर्थात् चन्देरी में पधारना हुआ । राजा ने उनके महाप्रभाव की बात सुनी और उनकी शरण में पहुँचे, अपनी विपत्ति - पुत्रों की घायल मरणासन्न अवस्था कही । गुरुदेव ने वासक्षेप व जल अभिमन्त्रित कर दिया जिसके प्रयोग से वे शीघ्र स्वस्थ हो गये । राजा की श्रद्धा दादा गुरु में दृढ़ हो गई । प्रतिबोध पाकर राजा सपरिवार जैन बन गया । उनके साथ अनेक अन्य क्षत्रिय आदि भी जैन बने वि० सं० १९९५ में ।
राजा के तृतीय पुत्र भैंसा सिंह के द्वितीय पुत्र का नाम गेलोजी था । उनके पुत्र का नाम था वच्छराज । जनता इनको गेलवच्छा के नाम से सम्बोधित करती थीं। तब ये गेलवच्छा कहलाये और वही शब्द अपभ्रंश होते-होते गुलेच्छा या गोलेच्छा कहलाता है ।
आदरास्पद श्रीयुत रत्नचन्दजी गोलेच्छा- आपने खींचन फलौदी से गुलाबी नगरी जयपुर की ओर प्रस्थान किया । परिवार सहित आप जयपुर में ही बस गये । आपके दो पुत्र थे । बड़े पुत्र का नाम श्री नथमलजी था और छोटे पुत्र का नाम श्री जवाहरमल जी ।
मानव बन कर आये हो मानव ही बनकर चलना, तपःपूत हो तप के आँगन में है दिन रात तुम्हें पिघलना । जीवन वही कि जिसकी लो धरती को नभ से बाँधे, बैठो मेरे पास सुनो तुम मंगल दीपक सा जलना ॥ विश्वविख्यात गुलाबी नगरी जयपुर के गुलाबी रत्न
दीवान सेठ श्री नथमलजी गोलेछा का परिचय
आप बचपन से ही बड़े भाग्यशाली तथा प्रखर एवं तेजस्वी थे । आपकी कार्यकुशलता को देखकर जयपुर के महाराजा भी आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । अपको अपनी रियासत का दीवान बना दिया। आपके छोटे भाई को खजांची बनाया ।
आपको दीवान साहब के नाम से प्रसिद्धि मिली । बच्चे-बच्चे के मुख पर श्री नथमलजी दीवान का नाम था । शौहरत तो कदम चूम रही थी । सेठ नथमलजी का कटला व सेठ नथमलजी का चौक आज भी आपके नाम से जाने जाते हैं ।
दीवान पद पर रहते हुए भी आपकी धर्म के प्रति गहरी आस्था थी । आप साधु-सन्तों के नियमित रूप से दर्शन का लाभ लेते थे तथा धर्म की दलाली करते थे । ठाकुर, राजपूत एवं अन्य जाति के लोगों को मांस-मदिरा का त्याग करवाते थे । और उन लोगों को जैन सन्तों के दर्शन करवाते थे ।
इस विशाल धरती पर तमाम लोगों के चरित्र ऐसे मिल जायेंगे जिन्होंने दूसरों के भले के लिये अपने आपको समर्पित कर रखा है। इस तरह के व्यक्तियों का जीवन चन्दन के वृक्ष की तरह होता है
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खण्ड १/१४
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खण्ड १ | जीवन ज्योति जो आज के दूषित वातावरण में रहते हुए भी अपने दान, त्याग और धर्माचरण जैसी शीतल सुगन्धित भावनाओं को नहीं छोड़ते।
जयपुर निवासी सेठ दीवान श्री नथमलजी गोलेछा का जीवन चन्दन की तरह था, जिसमें धर्मानुराग, त्याग, दान भावना को शीतल सुगन्ध समाई हुई थी। वे अपने राज्य कार्य भार के तमाम जंजालों में उलझे रहकर भी दूसरों के कल्याण हेतु हर तरह का सहयोग देते रहते थे। जैन समाज के वे जाने-माने समाज सेवकों में से एक थे । तुम मित्र जन की ज्योति प्रीति की शक्ति प्रखर, तुम मन, बुद्धि, कर्मों का समन्वय करते थे सत्वर । तुम मरुत मान थे ज्योतित पंखों की उड़ान भर, ले जाते थे आत्मा की आकांक्षाओं को ऊपर ।
एक समय की बात है कि आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब के गुरु भाई ने अभिग्रह ले रखा था कि अमुक बात होने पर ही अभिग्रह खोलूंगा और कई दिनों तक उनका अभिग्रह फला नहीं तब आपने अपनी मूंछ का बाल तोड़कर दे दिया और उनका अभिग्रह फल गया। ऐसी बातें बहुत कम सुनने को मिलती हैं । आपके पाँच पुत्र और एक पुत्री थी।
__आपकी पुत्री का नाम उमराव बाई था। (भुवा सा उमराव वाई) । आप बचपन से ही बड़े लाड़-प्यार में पली; शान्त, सरल स्वभाव की थी । सौभाग्य रेखा तो आपको बचपन से ही रही । आपका विवाह कोटा के नगर सुप्रसिद्ध सेठ दीवान रायबहादुर श्रेष्ठिवर्य श्री केसरी सिंहजी बाफना के साथ हआ था। आप मूर्तिपूजक थे । धर्म में आपकी गहरी आस्था थी।
सेठ श्री सौभाग्यमलजी आपके तृतीय पुत्र थे-आप इतने भाग्यशाली थे जिन्हें दीवानश्री नथमलजी जैसे पिता मिले । आपका विवाह जोधपुर दीवान की सुपुत्री से हुआ। आपकी धर्म में बडी रुचि थी, साथ में दानवीर थे । आप अष्टमी चौदस को रात्रि भोजन व हरी के सौगन्ध रखते थे । आपके तीन पुत्र थे । बड़े पुत्र का नाम श्री कल्याणमलजी, दूसरे पुत्र का नाम श्री सरदारमलजी तथा तीसरे पुत्र का नाम श्री राजमलजी था। श्री सरदारमलजी अपने ताऊजी के यहाँ गोद चले गये थे।
श्री कल्याणमलजी गोलेच्छा दीप्त ओज बल, तप बल आज करें हम धारण, शुद्धमना हम करें मनों से शोक निवारण । तुम चिर सहिष्णु हम सहन कर सके धीर शांत बन, पूर्ण बनें हम सौम्य, सत्य पथ करें आप से धारण ।
___आपका बाल्यकाल का ज्यादातर समय कोटा में आपकी बुआ सा. के पास व्यतीत हुआ था। आपकी बुआ के सन्तान न होने के कारण आप पर उनका अत्यधिक स्नेह था। आपका विवाह प्रसिद्ध जैन तेरापंथ समाज के वरिष्ठ श्रावक श्री गुलाबचन्दजी साहब लूणिया जौहरी की सुपुत्री सज्जनकुमारी के साथ हुआ, जो दीक्षा लेकर अब सज्जनश्रीजी महाराज साहब के नाम से विख्यात हैं।
आपने निःसन्तान होने के कारण अपने छोटे भाई श्री राजमलजी के पुत्र विजयकुमार को पुत्र समान माना तथा आपको अपने पौत्र अजयकुमार पुत्र श्री विजयकुमार गोलेछा एवं पुत्रियाँ वन्दना तथा नमीता से असीमप्रेमथा । आपके छोटे भाई श्री राजमलजी ने आपके साथ रहकर आजीवन आपकी सेवा की।
___शादी के बाद आप कुछ वर्ष तक अपनी धर्मपत्नी के साथ अपनी बुआ सा के यहाँ कोटा रहे । वहीं से आपकी धर्मपत्नी को वैराग्य भावना आ गयी और उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने आपसे दीक्षा की आज्ञा माँगी और आपने उनका धर्म के प्रति लगाव देखकर आज्ञा प्रदान की।
आपने अपनी पत्नी की दीक्षा के अवसर पर अपने निवास स्थान गृह (देरासर) में भगवान ऋषभदेव की भव्य प्रतिमा की स्थापना करवाई।
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चरितनायिका के जीवन को नया मोड़ देने वाला बाफना परिवार
[कोटा के बाफना परिवार का संक्षिप्त परिचय ]
पूज्येश्वर बड़े दादा गुरुदेव ने प्रसिद्ध राजा भोज के वंशजों पवार क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित कर उन्हें सम्यक्त्वधारी बनाया एवं ओसवाल जाति में गौरवशाली बाफना वंश की स्थापना की।
इस वंश का इतिहास बड़ा समुज्ज्वल है। सबसे प्राचीन इतिहास जैसलमेर के अमर सागर नामक सरोवर एवं उद्यान में लगे हुए एक शिलालेख से मिलता है जो सेठ हिम्मतरायजी बाफना ने लगाया था।
उनके वंश में देवराज जी बाफना, उनके पुत्र गुमानन्दजी बाफना थे। इनके पाँच पुत्र थेबहादुरमलजी, सवाईराम जी, मगनीरामजी, जोरावरमलजी और प्रतापचन्द्र जी । सर्वप्रथम सेठ बहादुरमलजी जैसलमेर से कोटा आये और चम्बल तट पर कुनाड़ी ग्राम में दुकान करके व्यापार करना आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में व्यापार उन्नति के शिखर पर चढ़ गया। आपने करोड़ों की सम्पत्ति उपाजित की । जैसलमेर से अपने लघु भ्राताओं को भी बुला लिया । सब भाइयों ने मिलकर ३५० दुकानें भारतवर्ष के विभिन्न नगरों में स्थापित की और विदेशों-चीन, जापान आदि में भी दुकानें खोलकर वहाँ भी व्यापार करने लगे।
__ पाँचों भाई अलग-अलग होकर व्यापार करने लगे । सुविधा के लिए सेठ बहादुरमलजी ने कोटे में स्थायी निवास करके वहाँ अपना हैड क्वाटर्स बनाया।
सेठ बहादुरमल जी तत्कालीन गवर्नमेंट की देवली एजेंसी के व कई रियासतों के खजांची (टजरर) थे। आपको कोटा राज्य की ओर से चाँदी की छड़ी, अडानी, छत्र, म्याना, पालकी, तामझाम, हाथी-घोड़ा मय सोने के साज के, और कई पट्टे परवाने मिले थे। बूदी से रायमल और टोंक राज्य से खुर्रा गाँव जागीर में प्राप्त हुए थे।
आपकी धार्मिक प्रवृत्ति का और देवगुरु के प्रति महान् श्रद्धा का तो इसी से अनुमान लगाया जा सकता है, कि जहाँ-जहाँ दूकानें थीं वहाँ-वहाँ मन्दिर देरासर बनाये थे और सारा प्रबन्ध दूकान की ओर से होता था, जो आज भी कई स्थानों पर दृष्टिगोचर हो रहा है । सेठ बहादुरमल जी साहब की भावना श्री शत्र जय का संघ निकालने की थी जो पूर्ण न हो सकी और उनके स्वर्गवास के बाद सुयोग्य दत्तक पुत्र श्री दानमल जी साहब ने संघ निकालकर अपने स्वर्गीय पिता की अभिलाषा पूर्ण की। श्री बहादुरमल जी का स्वर्गवास वि० सं० १८६० में हो गया।
__ श्री दानमल जी साहब ने वि० सं० १८९१ में श्री शत्रुजय का विशाल संघ निकाला । इस संघ में वृहत् खरतरगच्छीय श्री मज्जिनमहेन्द्रसूरिजी महाराज आदि १००० साधु-साध्वी एवं यति आदि
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
पूज्य वर्ग था। संघ में सारे ३० हजार व्यक्ति थे । इस संघ की रक्षा के कोटा, बूंदी, टोंक, जैसलमेर व इन्दौर राज्यों ने स्वयं के व्यय से जिनमें १५०० अश्वारोही, ४००० पैदल, ४ तोपें, हाथी, नगारे, निशान, छड़ीदार, चोपदार आदि थे ।
लिए अँग्रेज सरकार, उदयपुर, अपनी-अपनी सेनायें भेजी थीं,
. यह संघ मार्ग में आने वाले जैन मन्दिरों, दादाबाड़ियों एवं धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार कराता हुआ स्वधर्मीवात्सल्य प्रभावना आदि करता हुआ क्रमशः तीन मास में श्री सिद्धाचलजी पहुँचा था । इसके उपलक्ष में ओसवाल समाज ने आपको संघवीपद पर अधिष्ठित किया । जैसलमेर महारावल ने लोद्रवा ग्राम जागीर में प्रदान किया । इस संघ में २० लाख रुपयों का सद्व्यय करके महान पुण्य और अमर कीर्ति प्राप्ति की । आपने कितने ही मन्दिरों और दादाबाड़ियों का निर्माण भी कराया जो आज भी आपकी पुण्य गाथा का मूक गौरवगान कर रहे हैं ।
इन्हीं के प्रपौत्र स्वनाम धन्य श्री केशरीसिंह जी साहब थे । रतलाम एवं कोटा दोनों ही स्थानों पर आपका अधिकार था। सेठ चांदमल जी साहब बाफना ने निःसन्तान होने के कारण आपको ही अपना उत्तराधिकारी बना दिया था । रतलाम के उद्यापन महोत्सव का वर्णन पुण्य जीवन में कर दिया है । सेठ केशरीसिंहजी साहब को रतलाम नरेश की ओर से राज्यभूषण, इण्डिया गवर्नमेंट की ओर से सन् १९१२ में राय साहब, सन् १९१६ में रायबहादुर तथा सन् १९२५ में दीवान बहादुर की सम्मानीय उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं ।
ये बड़े ही धर्मनिष्ठ, भद्र प्रकृति, निरभिमानी, दानवीर और उदार महानुभाव थे । इतनी सम्पत्ति के स्वामी और कई उपाधियों से विभूषित होने पर भी आप में अभिमान का अंश भी न था । आप बड़े ही विनम्र स्वभाव वाले दयालु व्यक्ति थे । इनके तीन पुत्र हैं - श्री बुद्धिसिंह जी बाफना कोटे में रहते हैं । जैसलमेर तीर्थ के ट्रस्टी हैं । धर्मप्राण सुशिक्षित विनम्र स्वभाव के हैं। श्री पवित्रकुमार सिंह जी व अशोक कुमार सिंह जी दिल्ली में रहते हैं । दोनों ही व्यापार व्यवहारकुशल धर्मनिष्ठ हैं । धार्मिक कार्यों में अग्रणी रहते हैं ।
सेठानी श्रीमती गुलाब सुन्दरी बाफना धर्मप्राण, देवगुरु की परम भक्त आदर्श श्राविका रत्न है । लाखों रुपयों का धार्मिक कार्यों में सद्व्यय करती हैं । पूज्या श्री सज्जन श्रीजी म.सा. को दीक्षा दिलवाने में आपका पूर्ण सहयोग रहा है । यद्यपि सेठ सा. श्रीमान् कल्याणमलजी सा० सज्जनकुंवरबाई को उनके आग्रह के अनुसार दीक्षा की आज्ञा दे चुके थे तथापि उनके अनेक आग्रह थे । यथा-अमुक के पास अमुक जगह तथा अमुक समय में ही दूँगा, आदि-आदि। उस समय सेठ श्रीमान् केशरीसिंहजी सा. एवं सेठानी सा० श्री गुलाबसुन्दरीजी बाफना ने कल्याणमल जी सा० को स्पष्ट कह दिया कि तुम्हारा काम तो मात्र आज्ञा देने का था सो दे दी । अब शेष बातों के लिए सोचने की जिम्मेदारी आपको नहीं देनी है । उसके लिए हम लोग काफी हैं । इसके पश्चात् कल्याणमल जी सा. कुछ बोल न सके, चूंकि उन्होंने सेठ सा. व सेठानी सा. को सदा से ही माता-पिता के समान सन्मान दिया है । इस प्रकार श्रीमान् एवं श्रीमती बाफना जी के पूर्ण सहयोग से श्री सज्जनबाई की दीक्षा सानन्द सम्पन्न हुई । सर्वप्रथम मूर्तिपूजक धर्म की सम्प्राप्ति भी आपको (श्री सज्जनकंवर बाई को ) यहीं से अर्थात् बाफना परिवार से ही सम्प्राप्त हुई !
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EEN
व्यक्तित्व-परिमल
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व्यक्तित्व-परिमल
अनुभव-संस्मरण एक संस्कृत कवि ने कहा है :
हे पथिक ! कुमुद वन की सुषमा और सौरभ का वर्णन तुम क्यों करते हो ? उसका वर्णन तो वहां फूलों पर सतत मंडराते, रसपान करते हुए भ्रमर स्वयं ही मस्त गुंजारव के मिष निरन्तर करते ही रहते हैं। हाँ, तुम तो सिर्फ उनकी गुंजन की भाषा सुनो, समझो."
"किसी व्यक्तित्व के विषय में जानना समझना हो तो उसके मित्र, परिचित, सम्बन्धी और सेवा में रहने वाले निकट व्यक्तियों की बात सुनो, वे ही उसके व्यक्तित्व का यथार्थ स्वरूप बतायेंगे और वही उसका विश्वसनीय यथार्थ परिचय होगा।
पूज्य प्रवतिनी सज्जनश्री जी महाराज के अन्तरंग जीवन का अनुभव की आंखों से देखा यथार्थ और स्मतियों की स्याही से लिखा सच्चा चित्र यहाँ प्रस्तुत है । उनके अत्यन्त निकट आत्मीय भाव से सतत सामीप्य साधने वाले मनिजन, शिष्याएँ तथा श्रावक वर्ग की अपनी शब्दावली में....
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व्यक्तित्व-परिमल
साध्वी हो, तो ऐसी
महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
विदूषी प्रवर्तिनी श्रीसज्जनधीजी का अभिनन्दन-कार्यक्रम जानकर प्रसन्नता हुई । इस अभिनन्दन से मेरे मन की साध पूरी हुई है। यह अभिनन्दन योग्य व्यक्तित्व के ज्योतिर्मय महादीप से उन दीयों को संस्पर्शित करने का प्रयत्न है, जो बुझे हैं, किन्तु जलने के प्रति आस्था रखते हैं।
मैं कई बार सोचता हैं कि हमारे देश में सुयोग्य पुरुषों के, साधुओं के, आचार्यों के, अभिनन्दन समारोह तो हर महीने आयोजित किये जाते हैं, किन्तु सुयोग्य महिलाओं के, साध्वियों के, प्रवर्तिनियों के भी अभिनन्दन-समारोह हों, तो अच्छा रहे । मेरा मानना है कि नारी अथवा साध्वी का सम्मान वास्तव में उस महनीयता का सम्मान है, जिसके कारण मनुष्य और धर्म अपना अस्तित्व पाते हैं और जिनके बलबूते पर संसार में अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं ।
हमारा देश और हमारी संस्कृति पुरुष प्रधान है । इस नीति ने न केवल आम नारी को, अपितु साध्वी को भी दमित किया है। मेरे मन में नारी-दमन के प्रति आदर-भाव नहीं है।
जिन लोगों ने नारी को पतितकारी बतलाया है, उन्होंने वात्सल्य, करुणा जैसे आदर्श गुणों को वहन करने वाले व्यक्तित्व का अपमान किया है । नारी किसी को पतित नहीं करती, वरन् पुरुष स्वयँ पतित होता है। उसे निमित्त-दोष कोई भले ही दे दें, पर नारी का व्यक्तित्व तमसावृत नहीं है। वह तो सद्गुणों की दीपशिखा है।
नारी का सौन्दर्य केवल उसके शरीर में ही नहीं, किन्तु उसकी नैसर्गिक चित्तवृत्तियों में है। उसके सहज भाव उसके शरीर से भी अधिक कोमल और सुकुमार है। उसके कण्ठ से भी अधिक मधुर उसका स्निग्ध व्यवहार है । वह करुणा की प्रतिमूर्ति, सेवा की अनुरक्ति, सहिण्णुता की सजीव प्रतिकृति तथा ममता की जीती जागती आकृति है । वह शक्ति है, जिसकी कृपा पर मानवता का भव्य प्रासाद प्रतिष्ठित है । नारी अपने ही बलबूते पर मातृत्व के महिमा मण्डित सर्वोच्च सिंहासन पर अभिषिक्त एवं विराजमान है।
वह स्वर्ग से भी अधिक गरीयसी एवं महीयसी इसलिए नहीं मानी गयी है कि नर-मात्र की जननी तथा नररत्न प्रसविनी है, अपितु नारी में निहित सहज' उदात्त गुणों को त्यागकर मानव-समाज की कल्पना करना नितान्त असम्भव है । उन समस्त महनीय गुणों के अभाव में जो समाज बनेगा। उसे समाज शब्द से अभिहित करना उस शब्द के साथ बड़ा भारी अन्याय होगा। वस्तुतः उसे असुरसमूह या पशुओं का झुण्ड कहा जा सकता है।
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खण्ड १ । व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
यह सर्वथा सत्य है कि नारी शारीरिक बल में पुरुष से घटकर है, पर यह ध्यान रखना चाहिये कि शारीरिक बल ही सब कुछ नहीं है । यह निर्विवाद सर्वसम्मत है कि शारीरिक बल से नैतिक बल कहीं ज्यादा बढ़ा-चढ़ा है । शारीरिक बल तो पशुबल है, जो सर्वथा निन्दित और गहित है। ये नैतिक बल ही है, जिसके चलते मनुष्य में देवत्व की प्रतिष्ठा होती है । समस्त नैतिक बलों की अधिष्ठात्री नारी ही है ।
मेरी समझ से नारी को यदि अबसर मिले तो वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मात्र पुरुष की समता ही नहीं कर सकती, बल्कि जीवन के कुछ महत्वपूर्ण उपयोगी क्षेत्रों में पुरुष से बढ़कर अपने को सिद्ध कर सकती है । यह केवल कपोल कल्पना नहीं है। इतिहास में ऐसी बहुत-सी नारियाँ हो चुकी हैं जिन्होंने अवसर पाकर गौरव के उच्च शिखर पर अपने को आसीन किया है। दूर अतीत को छोड़ भी दें, तो राजनीति में श्रीमती इन्दिरा गाँधी, काव्य में महादेवी वर्मा आदि किस माने में पुरुष से घटकर थीं। धार्मिक क्षेत्र में मदर टेरेसा का नाम लिया जा सकता है । साध्वी जगत् में मैं जिन-जिन से प्रभावित हआ, उनमें विचक्षणश्रीजी और सज्जनश्रीजी का नाम मुख्य है। ये दोनों आचार्य पदधारी न रहो हों, पर उनका व्यक्तित्व मुझे किसी पहुँचे हुए आचार्य से भी बढ़कर लगा है।
प्रवतिनीश्री सज्जनश्रीजी नारीत्व की ज्योतिर्मयता को संवहन करने वाली दीपिका हैं । उनका जीवन प्रकाशवाही है । वे कम बोलती हैं । पर जो बोलती हैं, वह उनकी ज्योतिर्मयता की जम्हाई होती है। उनके बोल उसे बहुत भाते हैं, जो स्वयं ज्योतिर्मय होने के लिए उत्कण्ठित है । वे मितभाषी साध्वी हैं। इसलिए वहाँ होठों के स्वर उतने अच्छे नहीं लगेंगे, जितने उनके मौन के स्वर । मुझे तो बहत सुहाया उनका वह रूप, जिसमें भाषा का लेन-देन कम है । मेरी समझ से यह गुण अहिंसा-महाव्रत का पालन करने के लिए एक अनिवार्य शर्त है ।
साध्वीश्री के गेहए मिट्टी के दीये में जगमगाती है उजली दिव्यता । वे सही अर्थों में साध्वी हैं। उनमें कषाय नहीं है, अत. वे पशुता की सीमा से परे हैं । कषाय और पशुता दोनों में मैत्री है । कषाय वह है, जो व्यक्ति को कसता है और पशु वह है जो पाश में बँधा है। मनुष्य मनन करता है पाश-मूक्ति के बारे में । इसलिए मनुष्य मननशील-जन्तु है । साधुई जीवन पशु और मनुष्य से ऊपर खिला कमल है। विवेच्य साध्वी के साथ यह साधुई उपमा पूरी तरह फबती है ।
साध्वी श्री सज्जनश्रीजी वात्सत्य और सेवा की तो प्रतिमूर्ति हैं । मैंने उनके जीवन-चक्र में घटित हुई कुछेक घटनाओं को सुना है अपनी नन्हीं-बड़ी साध्वियों के गुणानुरागी मुख से । उन्होंने अपनी गुरुवर्या की जबरदस्त सेवा-सुश्रुषा की । गुरु-भगिनियों के प्रति उनका आत्मीय व्यवहार तो मैंने भी प्रत्यक्ष निहारा है । एक भेद-विज्ञानी साधिका हुईं-साध्वीश्री विचक्षणश्री। उनके साथ कितना मधुर सम्बन्ध, अपनापन और वैयावृत्यझंकृत व्यवहार था उनका मैंने वह सब उस समय देखा है, जब मैं उनकी सज्जनता से अपरिचित था।
प्रवर्तिनीजी की विनयशीलता की खरतरता-तेजस्विता ने भी मुझे प्रभावित किया। प्रवतिनीजैसा उच्च पद प्राप्त होने के उपरान्त भी अपनी गुरु-बहिनों के साथ इतना नम्र और झका हआ व्यवहार कम महत्वपूर्ण नहीं है । विद्वत्ता के टोले हर कोई खड़ा कर सकता है, किन्तु ऋजुता/सरलता की सहज प्रवाहवती धारा हर किसी के दिल से उद्भूत नहीं हो सकती। उनमें संगम है दोनों का गंगा यमुना का, विद्वत्ता ऋजुता का । बिना ऋजुता का ज्ञान व्यक्ति के लिए अहंकार का कारण बनता है। च कि ऋजुता उनकी परछाई है, अतः उनका निरभिमानी होना स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। .
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प्रतिनी सज्जनश्रीजी महाराज के निकटस्थ आत्मीय जनों के अनुभव/संस्मरण एवं प्रेरक प्रसंग
। साध्वीश्री हेमप्रज्ञाश्रीजी म. (सुशिष्या स्व० साध्वी विचक्षणश्रीजी म०)
प्रभावशाली व्यक्तित्व अनेक होते हैं, किन्तु कुछ व्यक्ति अहंकार की प्रेरणा से जगत में अपना प्रभाव स्थापित करते हैं। और कुछ व्यक्तियों का जीवन ही इतना सरल और सहज होता है कि दुनियाँ उनसे स्वयं प्रभावित होती है। सरलता और सहजता जिनके जीवन में विशेष रूप से प्रतिबिम्बित होती है-वे हैं प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा.।
जब अन्तरंग में सरलता होती है तब व्यवहार में सहजता होती है, जब अन्तरंग में अहंकार होता है तब व्यवहार में कृत्रिमता होती है। बहुत सी बार नम्रता का बाना धारण कर अहंकार उपस्थित हो जाता है। किन्तु जिनके अन्तःकरण में सरलता होती है उनके व्यवहार में नम्रता और सहजता स्वयमेव होती है।
प्रवतिनीश्रीजी की विशेषता है कि सर्वोच्च पदासीन होने पर भी उनके प्रत्येक व्यवहार में सरलता और निरभिमानता झलकती है ।
एक बार मध्याह्न का समय था। प्रवर्तिनीश्रीजी पाट पर विराजमान थीं। मैं एक ग्रन्थ लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुई और निवेदन किया-पूज्याश्री ! यह विषय समझ में नहीं आ रहा। उन्होंने तुरन्त अपने हाथ की पुस्तक रखकर ग्रन्थ ले लिया और समझाना प्रारम्भ कर दिया। मेरी दृष्टि कभी ग्रन्थ में केन्द्रित हो जाती थी तो कभी उनकी मुखाकृति पर। पाँच मिनिट ही व्यतीत हुए थे कि उन्होंने अपनी दृष्टि ग्रन्थ से हटाई और क्षण भर चुप रहकर कहा- अरे ! तुम खड़ी रहोगी ? बैठ जाओ ! मुझे असमंजस में देखकर उन्होंने पुनः सहजता से कहा-अच्छा ! नीचे बैठने पर ग्रन्थ नहीं देख पाओगी तो कोई बात नहीं इसी पाट पर बैठ जाओ।
मैं संकुचित हो उठी । सर्वोच्च पदासीन, साध्वी वर्ग की संचालिका, प्रवर्तिनो पदविभूषिता साध्वी श्रीजी एक छोटी सी सामान्य सी साध्वी को अपने पाट पर बैठने के लिए कहे। मैं आश्चर्यमुग्ध थी। उन्होंने विषय समझा दिया । मैं ग्रन्थ लेकर अपने स्थान पर जा बैठी। आँखें ग्रन्थ पर टिकी थीं
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खण्ड १ | ध्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
पर मन में विचारों का प्रवाह उमड़ रहा था-सोच रही थी-साधना का फल क्या है ? स्वाध्याय की परिणति क्या है ? सरलता, निरभिमानता ।
यद्यपि साधक को साधना का उद्देश्य कषायविमुक्ति होना है । कषायमुक्ति के लिए वह विषयत्याग, इंन्द्रियसंयम, कठोर ब्रह्मचर्य पालन करता है किन्तु फिर भी कई बार अहंकार से पराजित हो जाता है और अपनी साधना को ही अहंकार का कारण बना लेता है। स्वगुणों का भान ही कभी-कभी अभिमान उत्पन्न कर देता है । क्योंकि शक्ति प्राप्त होना बड़ी बात है। कहा गया है ज्ञान का अजीर्ण अहं, तप का अजीर्ण क्रोध, क्रिया का अजीर्ण दूसरों के प्रति तिरस्कार के रूप में प्रकट होता है । अतः साधना के साथ सरलता मणिकांचन संयोग है।
प्रवर्तिनी श्रीजी का जीवन क्षमा, वात्सल्य, अप्रमत्तता आदि अनेक गुणों से परिपूर्ण है । साधक जीवन की साधना की गहराइयों को समझना सहज नहीं है। साधक का व्यक्तित्व सर्वाङ्ग रूप से लिपिबद्ध करना प्रायः असम्भव है । पुष्प ने कितनी वाधाएँ और काँटों की पीड़ा सहन की है यह तो वही जान सकता है किन्तु जगत तो उसके सुवासित सौन्दर्य को देखकर ही मुग्ध होता है। उसी प्रकार विशिष्ट गुणों से पूर्ण व्यक्तित्व कितनी साधना के पश्चात् प्रकट हुआ है --यह तो उसी का अनुभव है किन्तु हम उसके जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को गुणों से परिपूर्ण बना सकते हैं । प्रतिनीधी जी का विशिष्ट व्यक्तित्व हमारे लिए मार्गदर्शक है। सदा-सदा रहे-यही मंगलभावना है। D साध्वीश्री मंजुलाजी
वयोवृद्धा पूज्या प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्रीजी महाराज जैन समाज की प्रभावक साध्वियों में से एक हैं । आपके व्यक्तित्व निर्माण के घटकों में विनय ने अहं भूमिका निभाई है। विद्वत्ता का होना सहज है किंतु विद्वत्ता के साथ विनय और निरभिमानता का होना बहुत ही दुर्लभ है।
चार साल पहले की बात है । संयोग से हमारा चातुर्मास भी जयपुर में था और साध्वीवर्या श्री सज्जन श्रीजी महाराज भी वहीं विराजमान थीं। साध्वीश्रीजी मेरे लिए हर दृष्टि से मातृ स्थानीय हैं । वयः-स्थविर, शास्त्र-स्थविर और प्रव्रज्या-स्थविर तीनों दृष्टियों से स्थविर होते हुए भी आपकी विनम्रता, शालीनता और सहृदयता देखकर हम गद्गद् थे।
__ एक बार किसी समारोह में हम पास-पास बैठे थे। साध्वीश्री ने बड़े ही आत्मीयता भाव से हमारे नवोदित संघ की स्थिति के बारे में पूछा । मुझे बड़ा अच्छा लगा। माँ की ममता, पिता का प्यार और सम्बन्धियों का सा स्नेह सभी कुछ आप में नजर आया। कुछ दिन बाद हम कुछ साध्वियाँ उस आत्मीय भाव से प्रेरित होकर साध्वीश्रीजी के स्थान उपाश्रय में पहुंचीं। साध्वीश्रीजी ने हमें देखते ही पट्ट से उठकर आगवानी की और अस्वस्थता की हालत में भी पट्ट छोड़कर नीचे विराजमान हुईं। जबकि हम देखते हैं बड़े बड़े साधनारत आचार्य भी पट्ट का मोह नहीं छोड़ पाते।
बहुत से समारोह इसीलिए गड़बड़ा जाते हैं कि कौन आचार्य ऊँचे पट्ट पर बैठे और कौन नीचे आसन पर । एक तरफ भगवान महावीर ने विनय को धर्म का मूल बताया है और दूसरी तरफ हमारे मनस्वी आचार्य व वर्चस्व शील मुनिवर आसन के अहंकार में बड़े से बड़े धर्मलाभ को ठुकरा देते हैं। कुछ आचार्य व संत तो राजनेताओं को अपने सामने जमीन पर बैठाकर गवित हो जाते हैं। जबकि मुनि की गरिमा विनम्रता में है, अकड़ाई में नहीं । वह विनयता साध्वी श्री सज्जन श्रीजी में देखने को मिलो । साध्यो यो को इसो विनय भावना ने उन्हें बहुत बड़ा बना दिया है।
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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जो व्यक्ति औरों को महत्व देता है उसे अपने आप महत्व मिल जाता है । जो व्यक्ति दूसरों का उचित मूल्यांकन करना जानता है वह दुनियाँ की नजरों में अपने आप बड़ा आँका जाता है । औरों को हीन, दीन और लघु समझने वाला खुद ही लघुत्व को प्राप्त होता है ।
आज के युग में साध्वीश्री का जीवन एक महान आदर्श है । अनेक विशेषताओं का संगम आपका जीवन है । फिर भी आपको अभिमान बढ़ नहीं पाया है ।
ऐसी सर्वगुणसम्पन्न प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्रीजी के दीर्घ साधना काल की कामना करते हुए मैं आपश्री के सर्वगुणसम्पन्न व्यक्तित्व की अभिवन्दना करती हूँ ।
[D] श्री हीराचन्दजी बैद, जयपुर
आज हम संयममार्ग पर आरूढ़ एक महान् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में विचार करने को तत्पर हुए हैं। यह और भी विशेषता की बात है यह व्यक्तित्व नारी समुदाय से है । अब से ८० वर्ष पूर्व लूनिया परिवार में जन्म लेकर तथा सम्पन्न गोलेछा परिवार में परिणीत होकर ३४ वर्ष की अल्प आयु में संयम मार्ग पर आरूढ़ होने का साहस करने वाली इस नारी जाति के आदर्श ने जैन समाज के साथ ही जयपुर नगर को गौरवान्वित किया है ।
आपका जीवन : ज्ञान एवं भक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय
आप आगम ग्रन्थों की महान जानकार हैं ही इसी से आपश्री ' आगम ज्योति' पद से विभूषित है | साथ ही आपने कई ग्रन्थों की रचना की है । महत्व की बात तो यह है कि ज्ञान की इस महान परापर पहुँचने पर भी सरलता - विनम्रता सौम्यता - मृदुता मानो एक साथ आपके जीवन में सन्निहित हो गई है । उदार भावना की तो जो झलक आपमें आई है वह अनुमोदनीय है । मेरे जीवन में कुछ प्रसंग आये हैं जब उनकी उदार भावना ने नतमस्तक कर दिया है और मैं समर्पित हो गया हूँ उनकी इस महानता के प्रति ।
एक वक्त जब मैं जयपुर तपागच्छ संघ का संघ मन्त्री था तब दो भाद्रपद के कारण दो पर्युषण हुए - इधर चातुर्मास का कोई योग नहीं था । पूज्य प्रवर्तिनी जी का चातुर्मास जयपुर में था । हमने बड़ी झिझक के साथ आत्मानन्द सभा भवन में पधार कर पर्युषण में व्याख्यान देने हेतु निवेदन किया । ऐसी परिस्थिति में विचार-विमर्श कर जबाव देने की प्रथा बनी हुई है । पर हमें बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ जब आपने फरमाया कि इसमें क्या पूछना सोचना है मेरा सद्भाग्य है जो मुझे भगवान महावीर की जीवन गाथा एक ही वर्ष में दो बार बाचने का अवसर मिला है। आपने तो मुझे आमन्त्रित कर मेरे पर उपकार किया है मुझे इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए आपको। कैसी सरलता, कैसी उदारता, ऐसा ही एक और प्रसंग मेरे संघ मन्त्रित्व काल में आया। जयपुर के बांठिया परिवार की एक बहिन आपश्री के पास संयम ग्रहण करने वाली थी । उस वक्त जयपुर में पूज्य मुनिराज श्री विशालविजय जी (अब जैनाचार्य विजय विशालसेन सूरि जी महाराज सा.) विराजते थे । आपने बड़ी उदारता और भावना से इस दीक्षा का विधि-विज्ञान कराने हेतु मुनि प्रवर से प्रार्थना की। मुनिप्रवर बहुत संकोच में थे एक तो समुदाय भेद, दूसरे इससे पूर्व कभी इस तरह की दीक्षा का प्रसंग व विधि विधान उनके हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ था । पूज्य साध्वीजी म. सा. ने जिनकी मेरे पर बड़ी कृपा रही है मुझे कहा कि कैसे भी तुम्हें मुनिप्रवर को इस कार्य हेतु तैयार करना है । हम सब महावीर के सिपाही हैं । मुनिप्रवर की जयपुर में मौजूदगी हो और खण्ड १/१५
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खण्ड १ | जीवन-ज्योति दीक्षा प्रसंग उनकी निश्रा में न हो यह बात हम सबके लिए शोभनीय नहीं रहेगी । और अन्त में मुनि श्री को उनकी भावना समझनी पड़ी और अति भक्ति व शालीनता से दीक्षा सम्पन्न हुई और आपश्री विद्वान शिष्या प्रियदर्शना श्रीजी संयममार्ग पर आरूढ़ हुईं।
__ अभी-अभी का एक प्रसंग और बना है । जयपुर के निकट जोबनेर में राष्ट्रसंत आचार्य पदमसागर सरीश्वर जी के शिष्य पन्यास धरणेन्द्रसागरजी म. की निश्रा में मन्दिरजी के प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन था । इस क्षेत्र में कभी अपने साधु-साध्वियों का विचरण भी नहीं हुआ था। मैंने प्रवतिनी जी से निवेदन किया आप अपनी शिष्याओं को इस महोत्सव में जोबनेर भिजवाने की कृपा करें। मेरा निवेदन उनकी पुरानी यादों में समा गया। उन्होंने फरमाया-जोबनेर मेरे जीवन की निकट कुल की भूमि है । मैं जरूर तुम्हारे निवेदन को ध्यान में रखकर शिष्याओं को भेजूंगी और भेजा। उनके पधारने से महोत्सव की शान बढ़ गई तथा उनके उपदेश से वहाँ का समाज काफी लाभान्वित हुआ।
ये कुछ प्रसंग हैं जो यह दर्शाते हैं कि वे केवल विशेष समुदाय के साथ बँधी हुई नहीं है अपितु महावीर के नाम व काम के लिए सदैव समर्पित हैं ।
यही वजह है आज जयपुर में सब ही समुदायों में उनके प्रति अटूट आस्था है बहुमान है। उनकी एक और घटना में प्रस्तुत करूंगा।
गुरुवर्या साध्वीश्रीजी म. सा. ने आज से करीब ६५ वर्ष पूर्व महिलाओं की खासकर विधवा व परित्यक्ता बहनों के शिक्षा हेतु जैन श्राविकाश्रम नाम से एक संस्था की स्थापना की। पर उस काल में समाज उनकी भावना को नहीं समझ सका और थोड़े ही समय में वह संस्था बालिकाओं के स्कूल रूप में परिणत हो गयी । यही स्कूल आज वीर बालिका शिक्षण संस्थान के रूप में प्राथमिक से स्नातक की शिक्षा का नारी जागरण का केन्द्र बन गया है । और करीब ३५०० बहनें वहाँ शिक्षण प्राप्त कर रही हैं । इस संस्था के साथ तो प्रारम्भ से ही आपका लगाव रहा और संस्था के उत्थान व विकास के लिये आप सदैव ही प्रेरणा देती रहीं। पर आपने संयम मार्ग ग्रहण कर भी विद्या अध्ययन के लिए भी इस संस्था को चुना और हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की प्रथमा, विशारद व साहित्यरत्न की कक्षाओं का अभ्यास भी यहाँ किया तथा परीक्षायें भी यहाँ से दीं । वीर बालिका शिक्षण संस्थान अपने ऐसे गरिमायुक्त विद्यार्थी को पाकर स्वयं गौरवान्वित हो रहा है । और अपने एक अंग को आज जैन शासन के श्रमणी समुदाय के मदान व उच्च प्रवर्तिनी पद पर आरूढ पाकर फला नहीं समाता । एक बात और उन्होंने इस संस्था में केवल शिक्षा ही नहीं पाई अपितु अन्य छात्राओं को शिक्षा प्रदान करने में शिक्षिका की भूमिका भी निभाई। इस संस्था को आपसे पूर्ण अतिप्रियता मिली है। उनका आशीर्वाद ही इस संस्था के उन्नत व विकासशील बनने में सहायक बना है।
ऐसी महान विभूति की सेवाओं को याद करने, चिरस्थायी बनाने व प्रेरणा प्राप्त करने के लिए उनके ८०वें वर्ष पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है वह संस्तुत्य है, अनुमोदनीय है।
ऐसे महान अप्रतिम प्रतिमा के धनी जैन शासन की विदुषी आर्या को शतः शतः नमन । शतः शतः वन्दन । 0 श्रीराम अमरचन्द जी लूणिया
(अध्यक्ष : श्री जैन श्वे० खरतरगच्छ श्री संघ, अजमेर) राजस्थान के ऐतिहासिक नगर जयपुर के लूणिया वंश की अनुपम देन, जैन श्वेताम्बर मूर्ति
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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पूजक समाज को एक महान प्रबुद्ध व्यक्तित्व के रूप में, प्रवर्तिनी पूज्या सज्जन श्री जी म० सा० की है । जिस किसी ने आपका पावन सान्निध्य दर्शन, वंदन कर प्राप्त किया वह मृदुस्मित मुस्कान के साथ आत्म कल्याणी उपदेश एवं मांगलिक से धन्य हो गया ।
प्रतिपल जापपरायणा संयमनिष्ठ अप्रमत्ता प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी महाराज की आप परम प्रिय शिष्या रही हैं । आपके अनुशासन में शिक्षित-दीक्षित, एवं सेवारत विदुषी शिष्यावर्ग भी खरतरगच्छ संघ की अनुपम धरोहर के रूप में जिनशासन प्रभावना में विशाल योगदान दे रही हैं, यह सर्वविदित ही है ।
भारत कोकिला, समन्वय - साधिका समताधारी स्व० प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी म० सा० आपकी विशाल प्रतिभा को आँकते हुए आपको "अध्यात्म रस निमग्ना" पद से तो अलंकृत किया ही था । किन्तु आपको प्रवर्तिनी पद देने की भी अपने पत्रों में भावना व्यक्त की थी। दिल्ली में मैंने सन् १६८० में अनुयोगाचार्य पूज्य श्री कान्तिसागर जी म० सा० को स्वं प्रवर्तिनी जी महाराज की पत्रावली बताई तथा आपको प्रवर्तिनी पद देकर उक्त भावना को मूर्तरूप देने की विनती की, आपने उसी समय मुझे आश्वस्त किया कि ठीक है, यह होना श्रेष्ठ रहेगा । अखिल भारतीय श्वेताम्बर जैन खरतरगच्छ महासंघ के प्रयत्नों से सन् १९८२ में पूज्यवर के आचार्य पद विभूषित होने के पश्चात् जयपुर में पुनः महासंघ द्वारा चर्चा की गई तथा पूज्या सज्जन श्रीजी म. सा. को प्रवर्तिनी पद देने का मुहूर्त शीघ्र निकालने का निर्णय लिया गया। श्री खरतरगच्छ श्रीसंघ जोधपुर की इस महान् कार्य में अत्यधिक रुचि थी, अतः मिति मिगसर वदी ६ सम्वत् २०३६ को पूज्य आचार्य श्री १००१ श्री कान्तिसागर सूरीश्वर जी म. सा. की पावन निश्रा में आपको प्रवर्तिनी पद से जोधपुर में समारोहपूर्वक अलंकृत किया
गया।
आप जैन दर्शन की मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र में भी अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं । सन् १९८२ में चातुर्मास में जब पर्युषण पर्वाराधना को लेकर खरतरगच्छ संघ विषम परिस्थिति में पड़ गया था उस समय महासंघ के अध्यक्ष श्री जवाहरलाल जी सा० राक्यान, महामंत्री श्री दौलतसिंह जी सा० जैन एवं राजस्थान क्षेत्र उपाध्यक्ष (लेखक) के साथ आचार्य भगवन्त श्री कान्तिसागर सूरीश्वर जी म सा के पास जोधपुर विनती करने गये कि इस प्रकरण को सुलझाने का प्रयत्न किया जावे । आचार्यश्री ने उसी समय श्री केशरियानाथ जी के मंदिर के पास उपाश्रय से पूज्या श्री सज्जन श्री जी म० सा० को बुलाया तथा आपसे गूढ़ विचार विमर्श करके समस्या का समाधानसूचक हल निकाला । आपके आदेशानुसार अध्यक्ष महोदय आचार्य श्री उदयसागर सूरीश्वर जी म० सा० के पास स्वीकृत पधारे, इस सर्वमान्य निर्णय ने समस्त खरतरगच्छ को सुसंगठित होकर एवं एकता बनाये रखकर पर्युषण पर्व मनाने का सुयोग प्रदान किया । अतः अखिल भारतीय खरतरगच्छ महासंघ ऐसी महान विदुषी साध्वीजी का सदैव ऋणी रहेगा ।
अजमेर संघ को १६८० में आपश्री का चातुर्मास कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अजमेर चातुर्मास के सुअवसर पर ही परम पूज्य बालब्रह्मचारी आर्या श्री सम्यग्दर्शना श्री जी म. सा. ने मासखमण की दीर्घ तपस्या छोटी उम्र में सम्पूर्ण की । इस महान् तपस्या के उपलक्ष में अठाई महोत्सव कराने का लाभ श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघ (पंजीकृत) अजमेर ने लिया । तथा पूज्या महाराज श्री सज्जन श्रीजी म० सा० की पावन निश्रा में समारोह व शान्ति स्नात्र पूजन आदि सुसम्पन्न हुए ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति अजमेर खरतरगच्छ श्री संघ भी आपका महान उपकार कभी नहीं भूल सकता है । अप्रेल १९८१ में यहाँ के इतिहास में सर्वप्रथम भागवती दीक्षा हुई । आपके ही स्नेहपूर्ण शिक्षण, प्रशिक्षण एवं मातृवत् स्नेह ने श्री संघवी मानमलजी सुराणा की आत्मजा कुमारी मन्जु सुराणा बी. ए. को वैराग्य भावना से अभिभूत कर दिया तथा परम पूज्य शासन प्रभावक मुनिराज १०८ श्री कैलाशसागर जी म. सा. की पावन निश्रा में पूज्य विजयेन्द्र श्री जी म. सा० आदि की उपस्थित में विशाल समारोह (दौलतबाग) में आयोजित कराके कुमारी मन्जु सुराणा को भागवती दीक्षा आपके द्वारा प्रदान की गई, तथा आर्या मुदितप्रज्ञा श्रीजी नामकरण किया गया। उपरोक्त आयोजन श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघ (पंजीकृत) अजमेर के तत्वाधान में श्री मानमलजी सुराणा के सह्योग से सुसम्पन्न हुआ।
अजमेर संघ का परम सौभाग्य रहा कि इस वर्ष दूरदर्शी घोर तपस्विनी पूज्य श्री शशिप्रभा श्री म. सा. के दो वर्ष के वर्षीतप के पारणे का सुअवसर प्राप्त हुआ।
इसी वर्ष आप उच्च रक्तचाप से ग्रस्त हो गई तथा व्याख्यान में ही आपकी वाणी पर हल्का पक्षाघात भी हुआ जिससे एकदम चिन्ता व्याप्त हो गयी और भागदौड़ मच गई, जयपुर से वैद्यराज सुशीलकुमार जी को लेकर श्रद्धय श्री राजरूप जी सा. टाँक पधारे और आपका निदान कराके उचित पथ्य एवं औषधोपचार निर्देश दिया । परम पूज्य प्रत्यक्ष प्रभाविक दादा गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से आपने शनैः शनै स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया तथा जोधपुर की ओर प्रस्थान किया।
__इस प्रथम आघात के समय व सन् १९८८ के जयपुर में हुए दीर्घ रक्तस्राव की भयंकर त्रपसदी से जब सारा जयपुर श्री संघ व अजमेर श्री संघ चिन्ता में डूब गया था तब आपने असीम धैर्य व साहस से जब पीड़ा को झेलते हुए डाक्टरों के खून चढ़ाने के तीव्र आग्रह को अपने स्पष्ट रूप से मना कर दिया और देव के भरोसे निमग्न रहीं । शासन देव की कृपा से आपने यह भीषण रोगावस्था भी सकुशल पार की और अभी भी इस वृद्ध अवस्था में भी आप सतत् लेखन-पाठन-धर्मक्रिया आदि से शिष्य परिवार को अनुशासित करती रहती हैं । आप अभी “देवचन्द्र बालावबोध' ग्रन्थ का विशद लेखन कार्य सम्पन्न कर
चुकी हैं।
अपने दर्शनों को आये भक्त परिवारों को आप मांगलिक व धर्म-देशना से दिनभर विराजे रहकर, बिना आराम किए, लाभान्वित करती रहती है तथा अपनी गुरुवर्या पूज्य प्रवर्तिनी म० सा० स्व श्री ज्ञान श्री जी म. सा. के बताये समन्वय प्रेम, समता के उपदेशों की जन-जन पर निरन्तर वर्षा करती रहती हैं।
अजमेर खरतरगच्छ श्री संघ आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए शासन देव से प्रार्थना करता है कि ऐसे पूज्य भव्यात्मा को स्वस्थ एवं दीर्घायु करें ताकि वे अपनी प्रतिभा से जैनधर्म का ध्वज उच्च शिखर पर पहुँचावें।
श्री अरुणकुमार जैन शास्त्री, व्याकरणाचार्य जहाँ साधु-महात्माओं का संग है, वह स्थान ही साक्षात तीर्थ होता है। जयपुर में दादाबाडी भी एक ऐसा ही जीवन्त तीर्थ है । इस सत्संग की सूत्रधात्री, आधारस्तम्भ प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज हैं। उनकी सौम्यमूर्ति दर्शनीय है, उनका आचरण ग्रहणीय है, उनके हाथ में प्रतिसमय पुस्तक दिखती है, व्यर्थ के विकल्पनाओं में स्वयं को उलझाती नहीं, निरन्तर पठन-पाठन ही उनका कार्य रहा है ।
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पू. प्रवर्तिनीजी म. का दादागुरुदेव के प्रति समपर्ण
पू. गुरुदेव आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरीश्वर जी म.सा. से निर्देश ग्रहण कर रहे
पू. प्रवर्तिनी जी एवं शिष्या मण्डल (जोधपुर चातुर्मासः वि. सं. 2039)
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पू. मुनिश्री मणिप्रभसागर जी म. सा. से द्रव्यानुयोग पर चर्चा कर रही पूज्य प्रवर्तिनी जी म..
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लूनिया परिवार के साथ प्रवर्तिनी श्रीजी
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________________ खण्ड 1 / व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण जीवन के क्षणिक राग द्वषों से बहुत दूर उनका सरल, सौम्य जीवन है। उनका दर्शन ही सुखद है, तो उन जैसा जीवन सुखद क्यों न होगा ? __एक दिन की बात है मैं वहाँ सौम्यगुणाश्री महाराज तथा शुभदर्शनाश्री महाराज को न्याय का विषय समझा रहा था। जहाँ मैं बैठा था, वहाँ धूप आ रही थी, वह धूप साधारणतया तापदायक थी ही, पर विषय समझाते समय उस ओर ध्यान जाता नहीं था। उसी समय महाराज सा० किसी कारणवश बाहर आयीं, उन्होंने मुझे देखा, तो तुरन्त आकर कहा "मास्टरजी को धूप में क्यों बैठने दिया ? धूप तेज है, छाया में आसन बिछाओ।" जीवन में कई घटनायें छोटी छोटी होती हैं, पर उनसे हृदय का अवबोध होता है / मुझे महाराज सा० के हृदय की विशालता व करुणा का ज्ञान उस छोटी सी घटना से हुआ। उस घटना से हृदय आज भी उनके समक्ष झुकता है। हमारे हृदय का खुद-ब-खुद उनके सामने नम्र होना ही उनके माहात्म्य की महिमा है / "महात्माओं का हृदय विशाल होता है" इस नीतिवाक्य का साक्षात् जीवन्त उदाहरण महाराज मा० स्वयं हैं। ऐसे महात्मा सभी को लाभान्वित करें इस भावना के साथ उनके दीर्घायुषी जीवन की कामना करता है। व्यक्तित्व के विविध उज्ज्वल पक्ष 0 कमारी बेला भण्डारी भारतीय धरा पर ऐसी अनेक महान विभूतियाँ हुई हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान, त्याग एवं तपोमय जीवन से देश के नाम को सदैव आलोकित किया है। ऐसी ही चन्द महान विभूतियों की पंक्ति में आगम निष्णात, अज्ञान-तिमिर तरणि, आशु कवयित्री, शान्तिप्रिय, त्यागी-तपस्वी, तत्व-दृष्टा, महाप्रतिभा सम्पन्न सज्जनश्रीजी महाराज साहब का नाम निःसन्देह अंकित किया जायेगा। इन्होंने अपने त्याग, तप, ज्ञान एवं चारित्र बल से जैन-जैनेतर समाज का अवर्णनीय उपकार किया है। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के प्रयत्न को अर्पित कर दिया। बौद्धिक पक्ष ___ इनमें बौद्धिक सूझबूझ के साथ मस्तिष्क का सार्थकतापूर्ण उपयोग करने की अनुपम विशेषता है। यही असाधारण विशेषता इन्हें अन्य-अन्य विभूतियों से भिन्न श्रेणी में रखती है। इनमें किसी भी विषय की दार्शनिक व्याख्या करने के तौर तरीके अन्य पद्धतियों से भिन्न हैं। आध्यात्मिक पक्ष इनके व्यक्तित्व की आध्यात्मिक गहनता का सही ढंग से अन्दाज लगाना अत्यन्त कठिन है / यह विविवाद सत्य है कि इन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान बनाया है। इनकी आध्यात्मिक शक्ति अन्य चमत्कारिक शक्तियों से भिन्न है। ये सदैव चमत्कारों से दूर रही हैं। वास्तव में लोग आध्यात्मिक चमत्कार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं / वे गुरुतर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होने में असमर्थ हैं। किन्तु उनका आध्यात्मिक जीवन बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय है।
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________________ 118 खण्ड 1 | जीवन ज्योति प्रवचन पक्ष : ___ इनके विचार गूढ़ एवं गहरे अवश्य हैं परन्तु वे सरल एवं सुग्राह्य भी हैं। इनके प्रवचन सार्वभौमिक शास्त्रीय सत्यों पर आधारित, मधुर एवं सारगर्भित हैं जो श्रोताओं के मन, मस्तिष्क एवं हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। इनकी वाणी, इनके बोल एवं इनके कथन में आध्यात्मिक गहराइयों व अनुभूतियों का अद्भुत संगम है। इन्होंने अनेक कृतियों का सृजन किया है जिनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : पूज्य जीवन ज्योति, श्रमण सर्वस्व, श्री कल्पसूत्र की आधुनिक हिन्दी व्याख्या, द्वादश पर्व व्याख्या हिन्दी व्याख्या, अध्यात्मबोध अपर नाम देशनासार संस्कृत का हिन्दी अनुवाद, चैत्यवन्दन कुलिक आदि। इसके अतिरिक्त इन्होंने अनेक भजनावलियाँ भी बनाई हैं जो लोगों के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को शान्तिमय एवं सुखदायी बना रही हैं / विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य हैं-कुसमांजली, पुष्पाञ्जली, गीताञ्जली तथा सज्जन विनोद / एकाग्र भाब पक्ष : एकाग्र भाव पक्ष इनके जीवन का एक अनूठा एवं अद्वितीय पक्ष है। इनके अध्ययन पठन, पाठन, मनन एवं ध्यान में एकाग्रता की पराकाष्ठा है। इनको पढ़ाने की शक्ति असीम है। इनके पढ़ाने के तरीके में नवीनता के साथ तारतम्यता भी जबरदस्त है। यही नहीं आप ज्ञानपिपासु के मन और मस्तिष्क पर एक विशिष्ट छाप छोड़ जाती हैं। मूल में तो इनका जीवन ही एक निश्चल प्रवाहमान धारा के अनुरूप है। ये प्रत्येक जिज्ञासु की प्यास बुझाने का समान अवसर देती हैं। जिज्ञासु अपनी क्षमता के अनुसार अपना पात्र भरकर ले जाते हैं। सेवाभाव पक्ष :-- __ इनके व्यक्तित्व का सेवा भाव पक्ष भी अति प्रबल है / ये दलित एवं गिरे हुए लोगों को उठाने का प्रयास करती हैं। ये साधु-सन्तों की सेवा में भी सदैव तत्पर रहती हैं। प्रवर्तिनी महोदया ज्ञानश्रीजी महाराज साहब की सेवा में 22 वर्षावास जयपुर में करना यह इनके सेवा भाव पक्ष का एक ज्वलन्त उदाहरण है। ये किसी भी जीव के दुःख से द्रवित ही नहीं होती अपितु हर सम्भव उसके दुःख को दूर करने का प्रयास करती हैं। तप रुचि : इन्होंने अपने जीवन में “तपस्या" को भी एक विशिष्ट स्थान दिया है। इनका यह अटूट विश्वास है कि तपस्या हमारे स्वस्थ शरीर, मन एवं आध्यात्मिक शक्ति की संजीवनी बूटी है और तपस्या के द्वारा ही बँधे हुए कर्मों को आन्दोलित और प्रक्षालित किया जा सकता है। इन्होंने अब तक के जीवन में उपधान, नवपद ओली, विंशतिस्थानक तप, अट्ठाई, मासक्षमण तप तथा कई तेले चोले किये हैं और अब भी आप कोई न कोई तप करती रहती हैं। इनके उपर्युक्त वणित विलक्षण गुणों और असाधारण विशेषताओं से प्रभावित होकर कई बहिनों ने संसार के दावानल से मुख मोड़कर इनके पावन चरणों में स्थान पा लिया है, और अनेक बहिनों में इनके पावन चरणों में स्थान पाने के लिये आध्यात्मिक रूप से चाह है। जिस प्रकार एक मूर्तिकार अपनी कल्पना, बुद्धि, शक्ति से पत्थर को मानों सजीव पूर्ति का एक रूप दे देता है, उसी प्रकार इन्होंने भी शिष्याओं के जीवन को बदल दिया जिसके परिणामस्वरूप वे इनकी आध्यात्मिक ज्योति को देश के कोनेकोने में फैला रही हैं।
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________________ खण्ड 1 | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण 116 आज के आणविक युग में सम्पूर्ण मानव जाति संहार के कगार पर खड़ी है। एक ओर विश्वशक्तियाँ आपसी टकराव के कारण मानव जाति के अस्तित्व को समाप्त करने में लगी हुई हैं तो दूसरी ओर साम्प्रदायिकता की भावना, जातिवाद की भावना मानव जाति को जकड़ रही है। यदि हमें संसार के ऐसे सन्ताप और नैराश्य के वातावरण से अपने आपको बनाना है तो "गुरुवर्या सज्जनश्रीजी महाराज साहब" के बहुमुखी व्यक्तित्व से अनुकरणीय बातें ग्रहण कर उन पर चलना होगा ताकि हम सभी अपने जीवन को मंगलमय, आनन्दमय एवं शांतिमय बना सकें। अनुकरणीय बातें : 1. धैर्य, सहनशीलता, संयम एवं अहिंसात्मक भाव पर मनन एवं आचरण करना। 2. साम्प्रदायिकता की भावना का त्याग कर विशाल दृष्टिकोण अपनाना, जिससे समाज एवं राष्ट्र को बिखराव की स्थिति से बचाया जा सके। 3. असहाय, दुःखी और कमजोर वर्ग के लोगों के उत्थान में सहायक बनना। 4. स्वाध्याय, चिन्तन एवं मनन के लिए कुछ समय का प्रावधान करना। 5. प्रसन्न चित्त रहने का नियमित प्रयास करना / 6. अपशब्दों के प्रयोग पर नियन्त्रण करने का प्रयास करना / 7. क्रोध, ईर्ष्या, एवं अहंभाव का त्याग करने की आदत डालने का प्रयास करना। 8. पर-निंदा के वाद-विवाद से दूर रहने का प्रयास करना / 6. जीवन की प्रत्येक क्रिया संयम से करने का प्रयास करना। 10. विनय, विवेक एवं क्षमा को जीवन की आधारशिला बनाने का प्रयास करना। हम "गुरुवर्या श्री सज्जनत्रीजी महाराज साहब' के द्वारा बताये गये नियमों एवं आदर्शों पर किंचित् मात्र भी आचरण करें तो निश्चित रूप से अपना इहलोक और परलोक उज्ज्वल बना सकते हैं। 0 श्रीमती गुलाबसुन्दरी जो बाफना ___ परमादरणीया पूज्या प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब के ८२वें वर्ष प्रवेश के प्रसंग पर मैं पूज्य गुरुवर्याश्री का हृदय से अभिनन्दन करती हूँ। मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे इनका सम्पर्क मिला, क्योंकि गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में मुझे इनकी भुआसास बनने का अवसर प्राप्त हुआ / प्रथम सम्पर्क से आज तक का अनुभव है कि इनकी प्रकृति में कभी विकृति नहीं देखी / जो गुण मैंने देखे वे गुण इनके जीवन के सहज स्वाभाविक हैं। जीवन में कभी कृत्रिमता नहीं देखी / कई लोगों को देखती हूँ तो लगता है कि उनके जीवन में दोहरापन है, कथनीकरनी में अन्तर है, अन्दर-बाहर भेद है, जीवन और जिह्वा में फर्क है / किन्तु मैंने पू. सज्जनश्रीजी म. सा. को गृहस्थ जीवन भी देखा व साधक जीवन में भी देख रही हूँ किन्तु इनके जीवन में कभी दुराव, छुपाव नहीं देखा। जितनी बार सान्निध्य प्राप्त हुआ, जब-जब भी दर्शन किये, तब ही पू. गुरुवर्या श्री के जीवन में आत्मा के सहज स्वाभाविक ग णों के दर्शन किये / पूज्या श्री के दर्शन से ऐसे ही भाव आते, अहसास होता
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________________ 120 खण्ड 1 | जीवन ज्योति है कि जीवन हो तो ऐसा हो, जो कि सबके बीच रहते भी सबसे न्यारे, सबसे परे, अनासक्त योगिनी बन सदा स्वयं में मग्न, लक्ष्य साधना के लिए कटिबद्ध, अध्ययन अध्यापन में तल्लीन रहती है। इनके प्रति मेरी श्रद्धा समान बनी रही। कभी भी श्रद्धा में रुकावट नहीं आयी। जिसका मुख्य कारण यही है कि इनके जीवन में बनावट नहीं है, सजावट नहीं है, किसी के प्रति खेद नहीं व भेद नहीं है, रोष नहीं है, आक्रोश नहीं है, छलरहित हैं, मलरहित हैं, कभी भी इनमें माया, कपट, मान उत्तेजना नहीं देखी। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित भाव था, हृदय के अगाध आस्था थी, गुरुआज्ञा में गुरुसेवा में सदा र रहती थीं। गुरु शिष्य के व्यवहार को देखकर कई साध्वीजी महाराज व पू. उपयोगश्रीजी महाराज साहब कहा करती थीं कि शिष्या बने तो सज्जनश्रीजी जैसी। जिससे ऐसी शिष्या को पाकर ग रु परम शान्ति का अनुभव करें अन्यथा शिष्या न बने व पू. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. तो अपनी शिष्याओं को कई बार सम्बोधन करती थीं कि बड़ों के प्रति सदा आदर का भाव रखती हैं तो छोटों के प्रति भी कम आदर नहीं है / सभी के साथ आत्मीयता का व्यवहार करती हैं / सभी के प्रति वात्सल्य उमड़ता है / करुणा की साक्षात् देवी हैं। दीन-दुःखी के प्रति कभी हीनता के भाव नहीं देखे, उन्हें, सहानुभूति के साथ गले लगाती हैं / पटित से अधिक अपटित को महत्व देती हैं / अमीर से अधिक गरीब को स्थान देती हैं। सागर की गहराई का थाह पाना मुश्किल है उसी तरह पू. ग रुर्या श्री के गुणों के अथाह सागर को शब्दों में बाँधना मेरे लिए दुष्कर है / गुरुदेव से हार्दिक प्रार्थना करती हूँ कि पू. गुरुवर्या श्री दीर्घायु बन शासनोन्नति करती हुई हम जैसे संसार में भ्रमित, दोषों से ग्रसित प्राणियों को पथ प्रदर्शन कर शाश्वत सुख को प्राप्त करें। 0 श्रीबुद्धिसिंह, श्रीपवित्रकुमार, श्रीअशोककुमार, बाफना पूज्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब से मेरा परिचय मेरे शैशवकाल से ही है / मेरे मामा श्रीसोभागमलजी साहब गोलेच्छा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीकल्याणमल साहब गोलेच्छा से आपका विवाह हुआ था और आप सदैव अपनी बुआ के यानि मेरे घर आती रहीं और मेरे बाल्यकाल में इनका मुझे भरपूर स्नेह मिला जो मेरी स्नेहमयी भाभज रही जिसकी स्मृतियाँ आज भी मेरे हृदय में अंकित है। गृहस्थ जीवन में भी आप सदेव गम्भीर और सौम्य थीं। मैंने एक क्षण भी आपको उच्छखल होते नहीं देखा और सदैव वाणी पर संयम बनाये रखा / मेरी आयु ज्यों-ज्यों बढ़ती गई और जब भी आपसे मिलता आपकी शालीनता से उत्तरोत्तर प्रभावित होता रहा / मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि आपके गृहस्थ जीवन में ही आप में साधुत्व के लक्षण प्रकट होते रहे हैं। ___ आपका जीवन सदैव निस्पृह और मर्यादित रहा है। दीक्षा तो ऐसे मर्यादित जीवन की अनिवार्यता है / दीक्षा के पश्चात् भी आप सर्वथा प्रचार और प्रसार से दूर रहीं और मान और प्रतिष्ठा के अहं को आपने कभी भी अपने व्यक्तित्व को स्पर्श नहीं करने दिया। एक बात विशेष रूप से अभिव्यक्त करना चाहूंगा कि आप तेरापंथ परिवार में जन्मी, स्थानकवासी परिवार में आपका विवाह हुआ और मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में आपने दीक्षा ग्रहण की। अतः आपमें सम्पूर्ण श्वेताम्बर जैन समाज का त्रिवेणी संगम है और ऐसी उदारता है जिसमें वैचारिक भेद कभी उत्पन्न ही नहीं होते।
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________________ खण्ड 1 | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण 121 यश और कीर्ति की भावना से परे साधना में लीन महाराज साहब सज्जनश्रीजी का जीवन दीर्घायु हो और सम्पूर्ण जैन समाज को निरन्तर अपने आदर्श से प्रभावित करती रहें, ऐसी मेरी मंगल कामना है। Cश्री थानमल आंचलिया, गंगाशहर (बीकानेर) मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम विदुषी गुरुवर्या सज्जनश्रीजी महाराज की ८१वीं वर्षगाँठ के पावन अवसर पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है / महाराज सा० का जन्म लूनिया परिवार में हुआ और हमारे परिवार को यह परम सौभाग्य मिला है कि-लूनिया परिवार के साथ पिछली तीन पीढ़ियों से प्रगाढ़ सम्बन्ध रहे हैं। मेरे पिताजी श्रीहीरालालजी आंचलिया थली प्रदेश के जाने-माने तत्वज्ञ विद्वान थे। उनका सम्बन्ध जयपुर नगर के श्रीमान गुलाबचन्दजी लूनिया के साथ इसी आधार पर बना था कि श्रीमान लूनियाजी भी जैन दर्शन के जाने-माने तत्वज्ञ श्रावक रहे हैं। इन दोनों ही भक्त श्रावकों ने जैन तत्वों की अनेक पुस्तकें प्रकाशित करायीं और अधिक से अधिक लोगों के हाथों में बिना कोई मूल्य लिए पहुँचाई। तीन पीढ़ी पहले का ये सम्बन्ध निरन्तर चलता गया और मेरी पुत्री सौ० रत्ना का विवाह श्रीमान केसरीचन्दजी लूनिया के सुपुत्र श्रीपुखराजजी लूनिया के साथ जब हुआ तो दोनों परिवारों में अटूट सम्बन्ध स्थापित हो गये / इस प्रकार दोनों परिवारों ने तेरापंथ संघ के पाँचवे आचार्य पूजनीय मघवागणी से लेकर वर्तमान आचार्य श्री तुलसी गणी तक निरन्तर सेवा का लाभ उठाया है तथा निरन्तर लाभ ले रहे हैं। पूजनीया सज्जनश्रीजी महाराज सा. अत्यन्त सरल हृदया एवं दयालु प्रकृति की हैं। आपके दर्शन मात्र से मन में सात्विक प्रेरणा जाग उठती है। यह एक शुभ संयोग है कि आपश्री ने जैन शासन के तेरापंथ सम्प्रदाय में जन्म लिया / और आपका विवाह स्थानकवासी सम्प्रदाय के गोलेछा परिवार में हुआ किन्तु तत्वों की खोज करते-करते आपने अपना वैराग्य जीवन खरतरगच्छ संघ की आर्यारत्न बनकर प्रारम्भ किया / जीवन के महत्वपूर्ण वर्षों में आपने मात्र अध्यात्म की ओर ही ध्यान बनाए रखा / किसी साम्प्रदायिक संकीर्णता को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। इस प्रकार जैन शासन की तीन पवित्र धाराओं का संगम आपश्री के पास हुआ है / जैन समाज का सौभाग्य है कि वह आपका अभिनन्दन कर रहा है वस्तुतः आपका अभिनन्दन त्रिवेणी संगम की उपासना है, जैन एकता का अभिनन्दन है और जैन संस्कृति के लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अवसर है / आपश्री के चरणों में मेरा कोटि-कोटि अभिनन्दन / / 0 श्रीमती रत्ना लूणिया हम अभिनन्दन कर रहे हैं:-पुण्यशीला, करुणामूर्ति, आगम ज्योति, संयम, साधना और दर्शन की प्रतिमा, गुरुवर्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज का। जिस प्रकार आने वाली घटनाओं का संकेत बहुत पहले ही समय हमें दे देता है, उसी प्रकार महाराज साहब के दिव्य जीवन का आलोक उनके जन्म के साथ ही फैलने लगा था / समय के उन संकेतों को उस समय सम्भवतः कोई पकड़ नहीं पाया हो, किन्तु जब होनहार प्रतिभा के कोमल पत्रों की स्निग्धता का स्पर्श माता-पिता की दृष्टि ने किया तो वे समझ गये कि उनकी लाड़ली बेटी कोई असाधारण प्रतिभा है। बात अस्सी बरस पहले की है / जयपुर नगर के स्वनामधन्य सेठ श्री गुलाबचन्दजी लूणिया खण्ड 1/16
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________________ 122 खण्ड 1 | जीवन ज्योति एवं मातुश्री महताब बाई के आँगन में पुनीत आत्मा का जन्म हुआ। पिता अत्यन्त ज्ञानवान, धर्मनिष्ठ, तत्वज्ञ, दार्शनिक एवं समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे तो माता भी अत्यन्त सरल-सहज, पति की अनुगामिनी थी। दोनों ही बारह व्रतधारी श्रावक-श्राविका थे। माता-पिता की छाया में पुत्री को लाड़-प्यार के साथ-साथ धार्मिक संस्कार भी स्वतः ही मिलने लगे। जीवन-निर्माण में नियमित शिक्षा पिताश्री से मिलती थी। पिताश्री आपको पुत्री न मानकर पुत्र ही मानते थे और अपनी धार्मिक गतिविधियों में सदा साथ रखते थे। इस प्रकार धर्म के प्रति निष्ठा का बीज वपन महराजश्री के हृदय में बाल्यकाल से ही हो गया था। साध्वियों के व्याख्यान सुनने तथा उपाश्रय में जाकर नियमित रूप से सामायिक आदि करने की ललक उनमें निरन्तर बनी रहती थी। यहाँ तक कि शाला में पढ़ते-पढ़ते ज्यों ही थोड़ा अवकाश मिलता, वे दौड़कर पास वाले धर्मस्थान में चली जातीं और साधु-साध्वियों का दर्शन लाभ कर लौट आतीं। इधर धार्मिक संस्कार और तत्वों की जानकारी बढ़ती गयो तो उधर सहज ही आपका मन विराग की की ओर झकने लगा। माता-पिता के लिए यह एक चिन्ता का विषय था। एक प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न परिवार की बेटी ऐश्वर्य को ठुकराने की बात सोचे, यह उन्हें उचित नहीं लगा, अतः उन्होंने छोटी उम्र (12 वर्ष) में ही आपका विवाह श्रीमान कल्याणमलजी गोलेछा के साथ कर दिया। किन्तु, उस पारिवारिक जीवन में आपका मन कहाँ रमने वाला था? जिसे आत्मलक्षी बनना हो उसे सांसारिक सुखों के प्रति क्या आकर्षण हो सकता है ? वैराग्य हो जिसकी नियति हो उसे ऐश्वर्य के बन्धन कब तक बाँध कर रख सकते हैं ? विदुषीवर्या ने तो छोटी सी अवस्था में ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, अतः घर, परिवार, संसार के सारे वैभव को छोड़कर आपने जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ में जैन भगवती दीक्षा ग्रहण कर ली और गुरुवर्या ज्ञानश्री जी के सान्निध्य में अपनी सयमसाधना प्रारम्भ कर दी। महाराज साहब ने अपने 48 वर्षों के संयमी जीवन में कठोर साधना, उत्कृष्ट तपश्चर्या, ज्ञान और दर्शन की आराधना, सूत्रों और आगम का पठन-पाठन एवं ग्रन्थ-प्रणयन आदि अनेक महान कार्य सम्पन्न किये हैं / आपकी विलक्षण प्रतिभा एवं अद्भुत स्मरण-शक्ति ऐसी थी कि प्रारम्भ के दिनों में भक्तामर स्तोत्र को थोड़े ही समय में पूर्ण कण्ठस्थ कर आपने अपनी गुरुवर्या को सुना दिया था और उनके हृदय में परम शिष्या के रूप में स्थान पा लिया था। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी, राजस्थानी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं पर महाराज साहब का समान अधिकार है। आगम, द्रव्यानुयोग आदि गहन तात्विक विषयों की आप पुर्ण ज्ञाता हैं / तप, साधना एवं दर्शन के गूढ़ गम्भीर विषयों में रमण करती हुई आप मधुर सरस एवं काव्यमय व्यक्तित्व की धनी हैं। भावमयी, ममतामयी महाराज साहब का करुणास्रोत और भक्ति-स्रोत सरस कविताओं के रूप में प्रवाहित होता रहता है। ___ आपने अनेक भावपूर्ण गीतिकाओं का सृजन किया है / जब स्वयं गाती हैं तो भक्ति की अजस्त्र धारा स्वतः ही फूट पड़ती है। श्रोताओं का मन आत्मविभोर हो भक्ति और संगीत के एक अनोखे संसार में रमण करने लगता है। परम विदुषी, आगमज्ञा तथा धर्मसंघ के शाषस्थ पद पर आसीन गुरुवर्या की सरलता और सहजता देखते ही बनती है। मैंने आपके हृदय की निर्मलता, वाणी की स्पष्टता और व्यवहार की मृदुता के निकट से दर्शन किये हैं। अपनी अनुवर्तिनी शिष्याओं, थावक-श्राविकाओं तथा अन्य लोगों के प्रति आपका वात्सल्यपूर्ण एवं आत्मीय व्यवहार स्वतः ही एक आकर्षण उत्पन्न करता है / अनुशासन में आप
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________________ खण्ड 1 : व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण 123 कठोर हैं, किन्तु ममत्व और स्नेह की मृदुता भी इतनी है कि आपका अनुशासन सबको सहज ही स्वीकार्य हो जाता है। महाराज श्री के सान्निध्य का लाभ मुझे प्रायः मिलता रहता है / ज्ञान-विज्ञान स्वस्थ मनोरंजन रोचक वार्ता, आधुनिक प्रगति, राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य आदि सभी विषयों पर आप निबांध चर्चा कर सकती हैं। पुरानी बातें हो, दर्शन की ग्रन्थियाँ हों या फिर अवसणिणी उत्सर्पिणी काल-गणना की उलझी पहेलियाँ हों, आप इतने सरल एवं रोचक ढंग से समझाती हैं कि बालकों तक की समझ में आ जाता है / उनसे किसी भी विषय का कोई भी प्रश्न किया जाये तत्काल समाधान मिल जाता है। प्रवतिनी श्रीजी ने मुझे बताया कि वे लगभग 5000 पुस्तकें विभिन्न विषयों की पढ़ चुकी हैं। पुस्तकें पढ़ने, गीतिकायें गाने तथा धार्मिक कार्यों में पूरी लगन के साथ भाग लेने के गुण आपको अपने पिताश्री से विरासत में मिले हैं। . __आपकी सास-मां भी सुदृढ़ धार्मिक विचारों की थी, उनको भी आप पुस्तकें पढ़ कर सुनाया करती थों। अपनी दिनचर्या के विषय में आपने बताया कि आप एक ही नींद सोती हैं। तथा प्रातः जल्दी उठ जाती हैं / गहरी नींद नहीं लेती / अहर्निश ज्ञान-ध्यान को अराधना करती रहती हैं। लुणिया परिवार धन्य है जिसमें आप जैसी पुनीत आत्मा ने जन्म लिया। मेरे लिए भी अत्यन्त गौरव की बात है कि मुझे उसी भाग्यशाली परिवार की बहू होने का सौभाग्य मिला / आर्यारत्न हमारी संसार पक्ष में भुआ-सा हैं / मैं बाबा-सा श्रीगुलाबचन्दजी-सा० के दर्शन नहीं कर पायी किन्तु आपके व्यक्तित्व में उनकी छवि के दर्शन कर स्वतः ही आत्मगौरव होने लगता है / मैं सोचती हूँ लूणिया परिवार में मेरे प्रवेश की भूमिका सम्भवतः समय ने बहुत पहले ही बांध दी थी। महाराज साहब सज्जनश्रीजी के लूणिया परिवार का परिचय मुझे अपनी किशोरावस्था में ही हो गया था। मेरे दादाजी श्रीहीरालालजी आँचलिया और मेरे दादा-श्वसुरजी श्रीगुलाबचन्दजी सा० की बातें मेरे पिताश्री प्रायः परिवार में किया करते थे और मैं दत्तचित्त हो उन्हें सुना करती थी। दोनों परिवारों के बीच यह मैत्री मेरे बाबा-सा हीरालाल जी आंचलिया और सेठ श्रीगुलाब चन्दजी लूणिया के बीच बहुत पहले ही हो गयी थी। श्रीमान लूणिया जी जैन तत्वों के जानकार. लेखक, कवि और ग्रन्थकार थे तो श्रीमान आंचलियाजी तत्वों में गहरी रुचि रखने वाले, ग्रन्थों को प्रकाशित कर उनको घर-घर में पहुँचाने वाले धर्मानुरागी श्रावक थे। दोनों भक्त श्रावकों की वह मैत्री अनेक दशकों तक चलती रही। वे ही धार्मिक स्नेह-सम्बन्ध प्रगाढ़ मैत्री में बदल गये और क्रमशः तीसरी पीढ़ी में आकर पारिवारिक सम्बन्ध बन गये। इस मैत्री सम्बन्ध के बारे में तेरापंथ धर्म संघ के युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने अपने विचार यों प्रकट किये हैं : ___ हीरालालजी प्रथम श्रावक हुए हैं जिन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का शुद्धिकरण करवाया, उन्हें छपवाया और धर्म चेतना हेतु निःशुल्क वितरण करवाया / इसी प्रकार तेरापंथ सम्प्रदाय में सेठ श्री गुलाब चन्दजी लूणिया प्रथम श्रावक थे जिन्होंने अनेक स्तवन, गीतिकाएँ, भजन, स्तुति एवं तात्विक ढालें स्वयं लिखीं और उन्हें स्वर-बद्ध, तालबद्ध कर स्वयं ही अपने सुमधुर कंठ से गायीं तथा अनेक पुस्तकें प्रकाशित
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________________ 124 खण्ड 1 | जीवन ज्योति की और वितरित की / वे भक्त श्रावक गायक थे। दोनों ही भक्त श्रावकों का मैत्री सम्बन्ध अनुकरणीय है। यह एक शुभ संयोग है कि श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया के पौत्र पुखराज और श्रीहीरालालजी आंचलिया की पौत्री रत्ना का वैवाहिक सम्बन्ध हुआ / मित्रता की अविरल धारा तीसरी पीढ़ी में आकर भी अबाधगति से प्रवहमान है।" उन दिनों धार्मिक शिक्षा प्रायः मौखिक ही हुआ करती थीं। धर्मज्ञान की जो पुस्तकें थी उनमें भी अशुद्धियाँ बहुत होती थीं। बाबासा को यह कमी बहुत अवरती थी, वे शुद्ध भाषा की पुस्तकें प्रकाशित कर उनका प्रचार करने को लालायित रहते थे। क्रमशः उन्होंने प्रकाशन कार्य प्रारम्भ कर दिया और इसी सिलसिले में उनका परिचय जयपुर निवासी सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया से हुआ। जैन धर्म, जैन तत्वज्ञान, जैन सिद्धान्त, आचार-व्यवहार, सूत्र-आगम आदि का आपको विशद् ज्ञान था। कभी आंचलिया जी जयपुर आते तो कभी आप गंगाशहर चले जाते / दोनों मित्रों में धर्म-चर्चा होती तो पुस्तकों का प्रकाशन भी होता रहता / सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया की निम्नांकित पुस्तकों के प्रकाशक सेठ श्रीहीरालाल जी आंचलिया थे :1. नव पदार्थ निर्णय शिशु हित शिक्षा 2. श्रावक धर्म विचार श्रावक आराधना 3. प्रश्नोत्तर तत्व बोध सुगुणावली 4. भिक्षु यश रसायन दोनों मित्र अलग-अलग शहरों के निवासी थे, दोनों परिवार भिन्न थे किन्तु दोनों को वृत्ति एक हो थी, अतः उनका सम्बन्ध मित्रता के रूप में आजीवन बना रहा और उन धार्मिक संस्कारों की छाप परिवार के सदस्यों पर पड़ती चली गयी / लूणिया परिवार में महाराज साहब श्रीसज्जनश्रीजी ने ज्ञान और वैराग्य की ज्योति जगायी तो आंचलिया परिवार में श्री हीरालालजी के सुपुत्र श्रीसुमतिचन्दजी तथा पुत्रवधु श्रीमती सुदर्शनाजी ने एक साथ (सजोडे) तेरापंथ धर्मसंघ में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर संयम और तप के कीर्तिमान स्थापित किये / दूसरे पुत्र मोहनलालजी (उन्होंने) ने भी अपने भरे-पुरे परिवार को छोड़कर अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण कर ली है / इस प्रकार ज्ञान का आलोक दोनों ही परिवारों में पूरी प्रखरता से फैला है। - प्रवर्तिनीधीजी का अभिनन्दन मानव मूल्यों का अभिनन्दन है, उस ज्ञान-ज्योति और संयमसाधना का अभिनन्दन है / इस मंगलमय अवसर पर मैं हृदय की समस्त शुभभावनाओं के साथ आपश्री के चरणों में शतशः अभिवन्दन करती हूँ तथा कामना करती हूं कि आपका वात्सल्यपूर्ण वरदहस्त सदैव हमारे सिर पर बना रहे / आप चिरायु हों, संयम और तप की साधना करती हुई जैन-जगत एवं प्राणिमात्र को सही दिशा प्रदान करती रहें / 00
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________________ / साध्वी सुयशाश्रीजी म. (सुशिष्या श्री विचक्षणश्रीजी म. सा.) 'सद्गुरु की कृपा पाकर नर बनता महान् / दिल में भक्ति मानस में, दीपित हो सदज्ञान / शिष्य बीज सम जगत में, है गुरु माली समान / प्रज्ञा जल के योग से, बनता है इन्सान / मनुष्य के जीवन में सद्गुरु की प्राप्ति होना एक महान् उपलब्धि है / 'गुरु' एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है जो मनुष्य को नर से नारायण और आत्मा को परमात्मा बना देती हैं। गुरु ऐसे श्रेष्ठ कलाकार होते हैं जो एक अनगढ़ ठोकरें खाते हुए जीवन रूपी प्रस्तर को अपने सत् प्रयासों द्वारा जनता में पूजनीय और वन्दनीय बना जाते हैं। अध्यात्मरस निमग्ना, शासन प्रभाविका, आशु कवयित्री प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का जीवन एक सच्चे गुरु का कलाकारमय जीवन है / आप सदैव आध्यात्मिक साधना में तल्लीन रहती हैं। आप अपनी शिष्याओं सहित स्वाध्याय करती रहती हैं / मुझे आपके सानिध्य में रहने का जब-जब भी अवसर मिला प्रायः आपको मौन या स्वाध्याय में लीन देखा / पढ़ने पढ़ाने में आप इतने अधिक दत्तचित्त हो जाते हैं कि आपको पता ही नहीं चलता कौन आया और कौन गया। आप अपनी छोटी-छोटी शिष्याओं से व्याख्यान भी दिलवाते रहते हैं / और उन्हें अलग-अलग चौमासा करने के लिए भेजते रहते हैं / जिससे वे जिनशासन की सेवा करती हुई आगे बढ़ती रहे / वस्तुतः आपका जीवन शान्त, सौम्य, मधुर-मुस्कान, ज्ञान की गम्भीरता, विचारों की गरिमा, मृदुलवाणी, स्वभाव में सरलता, विनम्रता, कोमलता से भरपूर (सम्पूर्ण) हैं / आपके प्रवचनों में समन्वय सरलता, और हृदय को स्पर्श करने को क्षमता है, ओज है, समधुर मिठास है जो भी श्रोतागण आपका प्रवचन सुन लेता है वह आत्म विभोर हो उठता है / पूज्य चन्द्रकलाश्रीजी म. सा. मुझे बता रहे थे कि आपने प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. की रुग्णावस्था में काफी लम्बे समय तक तन-मन से लग्नपूर्वक गुरुभक्ति व सेवा की। यह दूसरों के लिए अनुकरणीय व आदर्श रूप है। आप गुरुवर्या प्रवर्तिनी श्री विचक्षणधीजी म. सा. जैसी महान् साध्वी के सान्निध्य में काफी समय तक रहे / जैसे संग में रहो वैसा रंग लग जाता है। क्योंकि जो गुण गुरुवर्या श्री के जीवन में विद्यमान थे वही सम्पूर्ण गुण आपके जीवन में भी हैं। मुझ जैसी अल्पमति पर सदैव कृपा बनाये रखे इसी शुभकामना के साथ / 125
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
- साध्वीश्री जयश्री जी म०
प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब के अलौकिक गौरवपूर्ण, गरिमामय, विराट् व्यक्तित्व का यथातथ्य रूप में चित्रण करने का प्रयास, अनन्त आकाश को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लेने और सागर को गागर में भर लेने के सदृश हास्यास्पद प्रयास है । फिर भी गुरुभक्ति भाव से भावित होकर इस परिप्रेक्ष्य में मंद बुद्धि का यह प्रयास है ।
सादगी, सरलता, सहिष्णुता, सज्जनता, स्नेहशीलता, सहृदयता, समता की प्रतिमूर्ति प्रवर्तिनी सज्जन श्रीजी महाराज साहब का व्यक्तित्व असाधारण, प्रेरक, गुणग्राही व्यक्तित्व है। इन्होंने समस्त दर्शनों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया है । यद्यपि इनमें अनेक उत्तमोत्तम गुण हैं लेकिन उन गुणों में वादित्व (शास्त्रार्थ करने में प्रवीण), गमकत्व (दसरे विद्वानों की रचनाओं को समझने समझाने में समर्थ), वाग्मीत्व (अपने वचन चातुर्य से दूसरों को वश में करना), कवित्व (काव्य एवं साहित्य की रचना करने वाले) ये चार प्रमुख गुण हैं।
इनका सम्पूर्ण जीवन जप-तप-स्वाध्याय से परिपूर्ण है । इन्होंने अपने जप-तप-ज्ञान-ध्यान द्वारा जैन जैनेतर समाज को आलोकित किया है । एकाग्रता, समय की नियमितता, और अनुशासन की दृढ़ता के पक्के हैं । यद्यपि कोई भी व्यक्ति किसी एक क्षेत्र में वर्चस्व प्राप्त कर लेता है, तो उसे महान् की संज्ञा दे दी जाती है। लेकिन जो जीवन के सभी क्षेत्रों में धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि सभी क्षेत्रों में वर्चस्व प्राप्त करता है, उसे यदि हम “महामानव' की उपाधि भी दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । इसी 'महामानव' उपाधि का ज्वलन्त उदाहरण प्रवतिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब का अनोखा, अनूठा व्यक्तित्व है । आपके सद्गुणों का एक सरल रेखांकन इस प्रकार है।
सरलता और सहिष्णुता का भाव--सरलता और सहिष्णुता ही इनका कवच है। जो मन में सो वाणी में और जो वाचा में सो कर्म में । गुरुवर्या श्री जीवन में सहजरूप में हैं।
वात्सल्यपूर्ण भाव-इनकी दृष्टि में कोई छोटा बड़ा नहीं, ये सभी ज्ञान-पिपासुओं को बिना किसी भेदभाव के ज्ञान प्रदान करती हैं तथा अपने स्नेह को वात्सल्यपूर्ण भाव से सभी जिज्ञासुओं पर समान रूप से उड़ेलती हैं।
वैयावच्चभाव-सेवाभाव पक्ष इनके जीवन का अभिन्न अंग है। ये अपने सभी कार्यों को छोड़ कर पहले सेवा के कार्य को महत्व देती हैं। इनका हृदय किसी भी दुखी व्यक्ति को देखकर द्रवित हो जाता है और उसका दुःख दूर करने का हर संभव प्रयास करती हैं। इनके वैयावच्चगुण की कीर्ति चारों ओर फैली है । इन्होंने अपनी गुरुआणी की तन मन से प्रसन्न मुद्रा से, अप्रमत्त भाव से दर्घिकाल तक सेवा की।
भाषण शैली-आपकी भाषण शैली चमत्कारपूर्ण है । भाषा हमेशा हित, मित और प्रिय रही है ।
इनकी सरल, मार्मिक अन्तस्तलस्पर्शी अमृतमयी वाणी और संसार की असारता के उपदेश से प्रभावित होकर कई बहिनों ने संसार के दावानल से मुख मोड़कर इनके पावन चरणों में स्थान पाया है। मुझे भी इनकी चरण रज बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ अर्थात् इनका सान्निध्य मुझे एक वसीयत के रूप में मिला है। मैं यह ऋण संभवतया इस जीवन में तो किसी भी रूप में चुकाने में अक्षम हूँ। इनके सान्निध्य में मैंने जो ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया है, उसे मैं जीवन की महान् उपलब्धि समझती हूं।
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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आयोश्री प्रज्ञाश्रीजी० म०
(सुशिष्या प्रवतिनीश्री जिनश्री म० सा०) प्रथम दर्शन के क्षणों में ही परमपूज्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म० सा० के अपूर्व व्यक्तित्व से मन इतना प्रभावित व प्रफुल्लित हो गया था कि जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति से परे है।
सम्मेतशिखर तीर्थ में जब अपश्री का नाम सुना, तब से मन में तीव्र उत्कंठा थी कि कब आप श्री के दर्शन का अपूर्व लाभ प्राप्त हो । वह स्वर्ण अवसर आ ही गया और कलकत्ता-चातुर्मास आपश्री के साथ होना तय हुआ । आपके ज्ञान ध्यान की बातें सुनी ही थीं। जब सभी १५ ठाणों का चातुर्मास साथ में होगा यह निर्णय हुआ तो मन बाँसों उछलने लगा और आनन्द से भरा मन उन सुनहरी घड़ियों की तीव्रता से प्रतीक्षा करने लगा । समय अपनी गति से बीतता गया और शीघ्र ही वह शुभ क्षण आ गया। कलकत्ता दादाबाड़ी में आपश्री के प्रथम बार दर्शन करके कृत्य-कृत्य हुई।
आप श्री के सान्निध्य का मेरा निजी अनुभव सिर्फ ६ माह का है । प्रारम्भ में तो लगता था कि मैं अल्प बुद्धि के कारण इस अल्प समय में कुछ भी नहीं पा सकूगी । परन्तु बाद में प्रतीत हुआ कि अल्प समय में मेरी अल्पमति ने जितना भी अनुभव प्राप्त किया है वह गहन गम्भीर है, मौलिक है, अलौकिक है । स्वाध्याय व आत्म चिन्तन ही आपश्री के प्राण हैं। आपश्री अपनी शिष्याओं व प्रशिष्याओं तथा आत्मीयजनों को भी स्वाध्याय, ध्यान और आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करती रहती हैं।
___ आपश्री के अनेक गुणों में से मेरे जीवन पर जिसकी अमिट छाप पड़ी है वह है आपश्री की तीव्र ज्ञान पिपासा । तब मेरी उम्र १८ वर्ष की थी। किन्तु मैंने जब आपश्री की करीब ५५-६० वर्ष की उम्र में भी इतनी तीव्र ज्ञान पिपासा देखी; मेरा मन मुझे ही कोसने लगा। सोचने लगी कि देखो आपश्री की कैसी ज्ञान पिपासा है ? इधर मैं ऐसी हूं कि समय प्रमाद में ही बीत रहा है । बस उन्हीं दिनों से मेरे मन में आपका वही गुण आदर्श रूप बन गया और मैं भी यत्किचित् ही क्यों न हो अध्ययन में तन्मय होने का प्रयत्न करने लगी । आपश्री अध्ययन में इतनी तल्लीन रहती थीं कि भूख प्यास भी भूल जाती।
वात्सल्य भावना आपके रोम-रोम में भरी है । आप इतनी मधुरता से पुकारतीं कि वह मधुर आवाज आज तक भी विस्मृत नहीं हुई।
__ आपश्री के अल्प संपर्क से मेरे हृदय में यह भावना दृढ़ हो गई कि आपश्री कितनी महान् हैं। ज्ञान ध्यान में रमा कैसा मस्त जीवन है । जीवन में संयम की खप, मुख में नवकार का जप और आभ्यन्तर तप आपश्री का मुख्य ध्येय है।
आपश्री का आत्मबल, ज्ञानबल, चारित्रबल, तपोबल व मनोबल अपूर्व है।
परमपूज्या प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी म.सा० से मेरी नम्र प्रार्थना यही है कि आपश्री मुझे सदा शुभाशीष प्रदान करती रहें। जिससे मेरा मन संयम, तप व कर्तव्य के मार्ग से कभी विमुख न हो और मैं मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख होकर शुद्ध संयम जीवन का पालन करती रहूँ। D प. शांतिचन्द जी जैन, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, जैन सिद्धान्त शास्त्री, अजमेर (राज.)
__भगवान महावीर स्वामी ने उत्तम मानव जीवन को दुर्लभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में फरमाया है
"चत्तारि परमंगाणी, दुल्लहाणिय जन्तुणो । माणुसत्तं, सुई सद्धा संजमम्मिय वीरियं" ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
प्रभु महावीर के इस उपदेश को चरित्रनायिका प. पूज्या प्रवर्तिनीजी श्री सज्जन श्री जी म. सा. ने अपने आदर्श जीवन में चरितार्थ किया है । कहते हुए गर्व होता है कि आपने उपरोक्त चारों ही दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं। इनमें आदर्श मानवता के गुण हैं। आप में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक् तप चारों ही महान गुण विद्यमान हैं ।
प्रवर्तिनी जी जहाँ जैन आगमों के ज्ञाता हैं और इन आगमों का तल स्पर्शीज्ञान है वहीं आगमों के अनुसार धार्मिक क्रियाओं की आराधना में भी पूर्ण संलग्न रहने वाली महान विदुषी आर्या हैं । आपका आदर्श जीवन सभी आर्याओं के लिये और सभी श्रावक-श्राविका आदि साधकों के लिये अनुकरणीय है ।
आपने अपने जीवन में उपधान, नवपद ओली, विंशतिस्थानक तप ओली, कल्याणक तप, पखवासा तप, पंचमी सोलिया तप, दश पच्चखाण तप तेले, चौले, अठाई, मासखमण तप किये हैं । इस प्रकार आपका जीवन अहिंसा, संयम, तप मय रहा है । इसलिये शास्त्र के कथनानुसार मानवों के साथ-साथ देवताओं के भी आप वंदनीय हैं । आपके ऐसे धर्ममय व्यक्तित्व की हम जितनी प्रशंसा करें उतनी कम है ।
आपकी रचनायें
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बचपन में ही आपने धार्मिक संस्कारों के कारण प्रभु के स्तवन आदि की रचना आरम्भ कर थी । संयम धारण करने के बाद आपने ज्ञानार्जन किया और अनेक काव्य पुस्तकें लिखी यथासज्जन विनोद, कुमुमांजलि, पुष्पांजलि, गीतांजली, वीरगुण गुच्छक, आदि । इसी प्रकार आपने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद भी किया जैसे कल्पसूत्र का आधुनिक हिन्दी में अनुवाद, व श्री देवचन्द्र गणिवर्य के रचित " अध्यात्म प्रबोध अपर नाम देशनासार" संस्कृत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद, दादा गुरुदेव श्री जिनदत्त सूरि जी रचित चैत्य वंदन कुलक का हिन्दी अनुवाद, आदि ग्रन्थों का हिन्दी में सरल अनुवाद करके हिन्दी जानने वाले लोगों के ज्ञान प्राप्ति के लिए अनुवाद ग्रन्थ प्रकाशित कर धर्म की महान प्रभावना की है और सम्यक् ज्ञान का प्रचार किया है ।
अभिनन्दन के शुभ अवसर पर हम आपके दीर्घ जीवन की और पूर्ण स्वस्थता और अधिकाधिक धर्म प्रभावना की शुभ कामनायें करते हैं ।
0 साध्वी तत्त्वदर्शना श्रीजी म.
पू. गुरुवर्या श्रीजी के जीवन के विषय में क्या लिखूँ और क्या नहीं लिखूँ ? इनके जीवन में दूसरों को बढ़ती हुई प्रगति देख ईर्ष्या नहीं देखी। प्रतिकूल प्रसंगों में इन्हें क्रोधित होते नहीं देखा । हजारों भक्तों की भीड़ होते हुए भी भक्त बनाने का लोभ नहीं देखा, आगम ज्ञान होते हुए भी अभिमान नहीं देखा सबके बीच रहते हुए कभी माया करते नहीं देखा, शिष्या परिवार होते हुए भी शिष्याओं में आसक्ति नहीं देखी। यदि इनके जीवन को एक शब्द में ही कह दूँ जलकमलवत् जीवन जीती हैं तो कोई अतिशोयक्ति नहीं होगी ।
बड़ों के साथ नम्रता का व्यवहार छोटों के साथ भी आदर सत्कार का व्यवहार करती हैं । विद्वानों का सम्मान करती हैं । तो कम पढ़ लिखे को कम महत्व नहीं देती । दुःखी व्यक्ति को अधिक हृदय लगाती हैं। आने जाने वालों से या निकट रहने वालों से कम ही बातें करती है किन्तु दुःखी व्यक्ति से पहले बोलती हैं । सामान्य लोगों से ध्यान मग्न हो बातचीत करती हैं। पुस्तक पढ़ने में इतनी एकाग्रता कि चार व्यक्ति ढोल भी बजा दें तो पता नहीं चलता तो कोई आकर वन्दना करे या उन्हें धीरे से कुछ
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खण्ड १ | व्यक्तित्व परिमल : संस्मरण
१२६ कहे तो उनका ध्यान उस ओर होना बहुत ही मुश्किल है। अस्वस्थ अवस्था में भी पढ़ने-पढ़ाने का क्रम नहीं
ट्टा । इस अवस्था में भी स्वयं का कार्य स्वयं करती हैं। कभी किसी से उपालम्भ की भाषा में नहीं बोलती हैं। इन सब गुणों से युक्त गुरुवर्या श्री को देखते हए १-२ वर्ष नहीं १० वर्ष हो गये निकटता से देखते हए, किन्तु कहीं भी जीवन के गुणों में बनावटीपन नहीं देखा। सहज स्वाभाविक गुणों को ही देखा है व देख रही हैं। गुरुदेव से प्रार्थना करती हूँ कि चिरायु बन शासन-सेवा में रहती हुई गुरुवर्याश्री अपने गुणों की सौरभ दिग-दिगन्तों में फैलाती रहें व इनके जीवन के गुणों का मेरे जीवन में भी विकास हो। इसी शुभेच्छा के सथ ।"
0 साध्वी सुदर्शनाश्रीजी म.
(सुशिष्या स्व० साध्वी श्री विचक्षणश्रीजी म० सा०) धर्म-साधना के क्षेत्र में पुरुषों की तरह नारी वर्ग ने अपनी धीरता, वीरता, तितिक्षा, कष्टसहिष्णुता और पुरुषार्थ-पराक्रम का विशिष्ट परिचय दिया है। जैनशासन-परम्परा में अनेक तपःपूता साधिकाओं का जीवन हमारे लिए आदर्श और प्रेरणास्रोत है।
आगमज्ञा, आशुकवयित्री, प्रखरवक्त्री प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी म.सा. का जीवन त्याग वृत्ति, सरलता आदि अनुकरणीय है। उच्च कोटि की विद्वत्ता एवं निर्मल चारित्र ही आपकी योग्यता का परिचायक है । महान विभूति का जीवन अद्भुत है । आपकी भव्य तेजस्विता और शान्तिमयी मुद्रा देखकर मस्तक झुक जाता है।
__ मैंने आपको अति निकटता से देखा है-जब आप परमपूज्या समतामूर्ति प्रवर्तिनी गुरुवर्याश्री विचक्षणश्रीजी महाराज साहब से कुछ समाधान या विचार-विमर्श करना होता तो आप एक विनीत शिष्या की तरह उनके चरण-कमलों के समीप ही बैठती थीं। ऐसा विनय गुण का महान् आदर्श और कहाँ देखने को मिलेगा?
आपकी अति पवित्र ८२वीं जन्मतिथि पर मैं अपनी मंगल-भावना व्यक्त करती हूँ कि आपश्री .. स्वास्थ्य लाभ कर एवं दीर्घजीवी होकर समाज को और हम सबको अपने चिन्तन, मनन, लेखन, प्रवचन से अहर्निश लाभान्वित करती रहें।
0 साध्वी विनीताश्रीजी स० सा०
(सुशिष्या स्व० साध्वी विचक्षणश्रीजी म० सा०) सज्जन सज्जनता धरी, करे सज्जन काम ।
सौरभ चिहुँ दिशि विस्तरी, जिनका सज्जन नाम ।। अनादिकालीन संसार में जीवात्माएँ कर्मावरित हो नानाविध दुःखानुभव करती है पर प्रबल पुरुषार्थी आत्माएँ सम्यग्ज्ञान-दर्शन व चारित्र की आराधना-साधना से अष्टकर्म विजेता बन मोक्षगामी बनती हैं।
कई आत्माएँ अष्टकर्मों में से कुछेक कर्मों का क्षयोपशम कर कुछ विशेष योग्यता प्राप्त कर लेती है । सातावेदनीय कर्म के उदय से साता प्राप्त कर नैरोग्ययुक्त होती हैं तो कोई ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रतिभासम्पन्न होती हैं इस प्रकार कई पुण्यात्माएँ कर्मों के दलोपशम से कुछ विशिष्टता युक्त होती हैं।
प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. भी ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से जीवन में कुछ विशिष्टता प्राप्त हैं अर्थात बुद्धिवैभव-संपन्न हैं ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
मैं सं. १९९६ में प० पू० प्र० जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी म. सा० के कर कमलों में दीक्षित हो सं० १९६८ में इन्हीं गुरुवर्या के साथ जयपुर आई उस समय मैंने देखा कि आप प्रतिदिन गुरुवर्या के साथ भी धार्मिक चर्चा किया करते थे। यों इनका पूर्व परिचय था ही । सं० १९८२ में पू. प्र. अध्यात्मनिष्ठा सुवर्णश्रीजी म. सा. के साथ गुरुवर्याश्री ने चातुर्मास किया था, आप दोनों विशिष्ट रूप से पठन-पाठन लेखन-अध्ययन व धर्म-चर्चा करते थे। एक दिन का प्रसंग है कि प्रेरणास्पद बातें करते अनायास ही प्र. विचक्षणश्रीजी म. सा. के मुख कमल से सज्जन बाई की जगह सज्जनश्रीजी संबोधित हो गया, कहा कि सज्जनश्रीजी ! देखो यह सूत्र कितना बढ़िया है, यह स्तवन सुन्दर भावार्थ युक्त है इसे भी लिखकर याद कर लेना। आपके हस्ताक्षर मोती के दाने से सुन्दर होने से प्रायः लेखन कार्य गुरुवर्याश्री आपसे ही करवाते थे। तब सज्जनबाई ने कहा कि महाराजश्री ! अभी मेरे अन्तराय कर्मों का अन्त कहाँ, जो मैं सज्जनश्री बन पर हाँ आपश्री की इस अमृतमय भविष्यवाणी की मैं शुकन गांठ बाँधती हूँ कि मैं शीघ्र ही आपश्री की भविष्यवाणी को सफल कर संयमित जीवन स्वीकार कर सज्जनश्री बनूं ।
यह किसे विदित था कि गुरुवर्याश्री के मुख कमल से निसृत वाणी निकट भविष्य में ही सिद्ध हो जायेगी। किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी महापुरुष की वाचा किसी-किसी के लिए वरदान रूप सिद्ध होती है वैसे ही यह बात विदुषी सज्जनबाई के लिए चरितार्थ हुई।
पू० विद्वद्वर्य मणिसागर जी म. सा. के निश्रा में सं० १६६८ के आसोज माह में जयपुर में उप., धान तप हुआ तो उस समय आपने भी सजोड़े उपधान तप किया, संसार कारागार से मुक्त होने
हेतु आपकी वैराग्य भावना उत्तेजित हो उठी, अब एक क्षण भी इस कारागार में रहना असह्य हो गया, अथक परिश्रम किया । "श्रम सफलता की कुंजी है" आपके श्रम सफल होने के आसार नजर आने लगे । पू. साधुजी म. सा. व साध्वीजी म. सा. ने कल्याणमलजी को उद्बोधित किया कि सज्जनबाई की इतनी तीव्रतम भावना पर रोक लगाकर आप अंतराय के भागी क्यों बन रहे हैं ? इन्हें आज्ञा प्रदान कर अनन्त पुण्योपार्जन करिये । त्यागी वर्ग के प्रेरणाप्रद उपदेश ने श्री कल्याणमलजी का हृदय परिवर्तन कर दिया । उन्होंने गद्गद् हो शीघ्र ही १९६६ के वैसाख मास में आज्ञा पत्र लिख दिया-आज्ञा प्राप्ति के साथ सज्जनबाई का मन मयूर नाच उठा, शुभस्य शीघ्रम्, इस उक्ति को अपनाकर शीघ्र ही मुहूर्त निकलवाया । वैरागन सज्जनबाई की उत्कृष्ट चारित्र भावना के प्रभाव से आषाढ़ शुक्ला दूज का मुहूर्त आया । दीक्षोत्सव की तैयारियाँ धूम-धाम से होने लगीं मानो गुलाबी नगरी में चारों ओर चारित्र की धूम मच रही है। आपकी दीक्षा की तैयारियाँ देख चौथीबाई कोचर भी भावावेग में आ गई और परिवार की आज्ञा प्राप्त कर आपके साथ ही संयम लेने को उद्यत हुई । प. पू. मणिसागरजी म. सा. एवं त्यागमूर्ति ज्ञानश्रीजी म. सा. व उपयोगश्रीजी म. सा. के कर-कमलों से आप दोनों की दीक्षा सानंद संपन्न हुई । आपका नाम सज्जनश्रीजी व चौथीबाई का विबुधश्रीजी घोषित किया।
__ आप प्रवजित हो ज्ञान-साधना में सततोद्यमी रहीं, पू. प्र. ज्ञानश्रीजी म. सा. से आगमों का (जैनागमों का) वांचन किया, अपनी अनवरत ज्ञानोपासना से संसार के चोटी के विद्वानों की कोटि में आपने विशिष्ट स्थान पा लिया, अद्यावधिपर्यंत संयम आराधना सह गुरुजनों की सेवा में सतर्क प्रहरीवत सदैव सावधान रहने के साथ-साथ सरस्वत्युपासना में अनवरत संलग्न रहे मानो आप साक्षात् सरस्वतीसुता हैं।
आपकी बौद्धिक सूक्ष्मता ने किसी भी विषय को अछूता नहीं रखा है। आप गहन से गहन विषय का प्रतिपादन-स्पष्टीकरण इतनी सरलता से करते हैं कि श्रोता उसे हृदयंगम कर हर्ष-विभोर बन जाते हैं एवं प्रश्नकर्ता अपना सही समाधान पा प्रसन्नचित हो लौटते हैं।
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खण्ड १ । व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
बृद्धावस्था होते हुए भी आप आठों याम साधना संलग्न व ज्ञानमग्न रहते हैं। जब देखो तब कभी कुछ चिंतन, कभी कुछ लेखन, कभी कुछ रचनाएँ तो कभी उपदेश, प्रेरणा व मार्गदर्शन देते हुए अप्रमत्त भावों में विचरण कर रहे हैं । आपका विचरण क्षेत्र भी विस्तृत रहा । गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान, बंगाल, कलकत्ता, लखनऊ आदि क्षेत्रों में विचरण कर जैन जैनेतर जनता को अपनी ज्ञान गंगा में स्नान कराके पावन कर दिया, जैनशासन की अनुपम प्रभावना के साथ-साथ कई भव्यात्माओं को प्रतिबोध दे दीक्षित किया जो आपके पावन सान्निध्य में ज्ञानाराधना, संयम साधना, व चारित्रोपासना में सतत संलग्न हैं एवं भिन्न स्थानों में चातुर्मास कर जिनशासन की महती प्रभावना कर रही हैं।
आपकी पूर्ण योग्यता के कारण प. प. प्र. जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी म. सा. ने अपना उत्तराधिकारी (प्रवर्तिनी पद के लिए) आपको उपयुक्त घोषित किया। सं० २०४२ के मिगसर कृष्णा ६ को जोधपुर में प्रवर्तिनी पद से विभूषित कर प. पू. प्र. पुण्यश्रीजी म. सा. की पदपरम्परा में प. पू. आचार्यप्रवर जिनकांतिसागर सूरीश्वर जी म. सा. ने चतुर्विध संघ के समक्ष प. पू. स्व. प्र. विचक्षणश्रीजी म. सा. की पद धारिणी बनाया।
गुरुदेव से प्रार्थना है कि आपको वैराग्य दान प्रदान के साथ दीर्घायु करें, यावच्चन्द्र दिवाकरो जिन शासन सेवा में तत्पर रह साहित्य समृद्धि को बृद्धिंगत करते हुए सरस्वतीसुता नाम सार्थक करें इसी शुभ कामना के साथ नमित हूं!
0 साध्वी कनकप्रभाजी म. सा.
(सुशिष्या पू० श्री सज्जनश्री जी म. सा.) स्वभाव में सरलता, व्यवहार में नम्रता, वाणी में मधुरता, मुख पर सौम्यता, नयनों में तेजस्विता. हृदय में पवित्रता, स्वभाव में सहजता पू० गुरुवर्याश्री का जीवन उक्त उपमाओं से परिपूर्ण है। गुरुवर्याश्री के जीवन को कहीं से भी झांककर देखो उसी तरह दिखाई देगा जिस तरह गंगा नदी का पानी किसी भी छोर से पिओ मीठा ही होगा। मिश्री को किसी भी कोने से चखो मीठी हो होगी । गुलाब .. के फूल को कहीं से भी किसी भी पत्ती को सूघों एक सी खुशबू होगी। इनके जीवन के गुणों को शब्दों में बाँधना उतना ही दुष्कर है जितना पानी में पड़ते प्रतिबिम्ब चन्द्रमा को पकड़ने का, फिर भी अपनी अल्पबुद्धि से उनके सभी गुणों को सीमित शब्दों में अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही हूँ।
. स्वभाव में सरलता-आपका स्वभाव अत्यन्त सरल है। कपट, माया, छल का नामोनिशान नहीं है जैसे अन्दर हैं वैसे ही बाहर हैं । आपके स्वभाव की सबसे बड़ी विशेषता है अन्तर और बाह्य की एकरूपता।
वाणी में मधुरता-जैसे अमृत देवताओं की सम्पत्ति है उसी प्रकार मधुर वाणी मानव की निज सम्पत्ति है। मृदुवाणी आकर्षण कला का मुख्य केन्द्र है। यद्यपि सौन्दर्य भी सभी के लिये आकर्षण का केन्द्र है किन्तु चेहरे पर चाहे जितना सौन्दर्य हो यदि वाणी में मधुरता नहीं है, वाणी में सौन्दर्यता नहीं है तो चेहरे का सौन्दर्य फीका है । प्रकृति ने मयूर को असीम सौन्दर्य दिया ऐसा लगता है कि चित्रकार ने अपनी सारी कला को वहीं लगा दिया किन्तु वाणी का सौन्दर्य नहीं दे पाया। शरीर का सौन्दर्य होते हुये भी वाणी के सौन्दर्य के अभाव में मयूर किसी भी कवियों की काव्य भूमि में स्थान नहीं ले पाया। जबकि कोयल आकृति के सौन्दर्य के अभाव में भी वाणी की सौन्दर्यता के कारण कवियों की काव्यभूमि में अमर हो गयी, चेहरे के सौन्दर्य का महत्व नहीं है।
मधुरता का महत्व-पू. गुरुवर्याधी की वाणी में कोयल की तरह मिठास है । जब कभी भी किसी
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
से बात करती हैं धीरे व मधुर आवाज से । महाराजश्री के जीवन में वाणी के गुण पूर्ण रूप से विद्यमान है। आवश्यकतानुसार बोलती हैं, गर्वरहित बात करती हैं, कभी भी तुच्छ शब्दों का प्रयोग नहीं करती हर समय उच्च भाषा का व्यवहार करती हैं। तथ्य सत्ययुक्त बोलती है, तोल कर बोलती है सीमित शब्दों में बात को पूरी कर देती हैं, सदा सत्य बोलती हैं । गुरुवर्याश्री की वाणी में मधुरता होने के कारण छोटे-बड़े सभी खुल जाते हैं, किसी को संकोच या भय नहीं होता है।।
व्यवहार में नम्रता-आपके जीवन की विशेषताएँ हैं कि विद्वत्ता होते हुए भी अहम् अहंकार का अर्जन नहीं है । बड़े व छोटों के साथ, पठित अपठित के साथ अमीर-गरीब आदि सभी के साथ नम्र व्यवहार करती है। बड़ों के सामने सदा झुकी ही रहती हैं कभी भी बड़ों का अपमान नहीं किया । बड़े कैसी भी आज्ञा दें उस आज्ञा को तहत्ति कर उसी समय स्वीकार करती हैं । इनके नम्र व्यवहार से हर व्यक्ति प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। गुजराती कहावत है नमे जो सहुने गमे अपनी नम्रता के कारण ही सभी के लिये आकर्षण केन्द्र बने हुए हैं।
हृदय में पवित्रता-आपका हृदय पूर्णरूप से पवित्र है, क्रोध, मान, माया, लोभ की गन्दगी इनके हृदय को किंचित् भी स्पर्श नहीं कर पायी, सदा समता अमानी अमायी निर्लोभिता आदि गुणों की सुगन्ध से हृदय में पवित्रता के लिये हुये हैं।
मुख पर सौम्यता-चेहरा सदा फूलों की तरह मुस्कराता रहता है। किन्हीं क्षणों में देखें किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में देखें लेकिन चेहरे की सौम्यता का लोप नहीं होता है।
. आपश्री के बारे में क्या लिखू क्या नहीं लिखू ? इतने गुण हैं उसकी लेखनी करने में मेरी कलम भी असमर्थ है। जब अभिनन्दन ग्रन्थ के विषय में बात चली तो मन मयूर नाच उठा और अन्तर् से आवाज आई कि हाँ ऐसी महान् विभूति का अभिनन्दन ग्रन्थ अवश्य निकलना चाहिए। वो बीज वृक्ष के रूप में साकार हुआ। वह दिन आज धन्य बना। मैंने आपश्री के बारे में कुछ लिखना चाहा लिखा, कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं ध्यान न दें। आपश्री का आयुष्य दिनों-दिन बढ़ता जाये। अपने संयम-जीवन को पवित्र बनाती जाये। जुग-जुग जिओ शासन की सेवा करती रहो..." ।
हमारे ऊपर आपश्री का वरद हस्त सदा रहे यही गुरुदेव से प्रार्थना है। जब तक सूरज-चाँद रहेगा गुरुवर्याश्री का नाम रहेगा। इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ"""" ।
व्यक्ति, व्यक्ति को नहीं देखता उसकी सरलता को देखता है। व्यक्ति, व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता उसके गुणों से प्रभावित होता है। व्यक्ति, व्यक्ति से आकर्षित नहीं होता उसकी वाणी से आकर्षित होता है । व्यक्ति, व्यक्ति का अभिनन्दन नहीं करता है उसके व्यक्तित्व का अभिनन्दन करता है।
0 साध्वी शुभदर्शनाजी म. सा. (सुशिष्या परमपूज्या प्रवतिनी साध्वी श्री सज्जनश्रीजी म. सा.) बीज की ओट में वट वृक्ष का अस्तित्व छिपा है, तथा सीप में चमचमाते मोतियों का हार रहता है। बादलों की ओट में शीतल लहरों का सागर छिपा है, उसी प्रकार पुरुषों में महापुरुषों का व्यक्तित्व छिपा रहता है। यह व्यक्तित्व जब निमित्त पाकर उभरता है तो समाज उसकी महत्ता का मूल्यांकन करता है।
ऐसे ही महापुरुषों की श्रृंखला में अपने आपको जोड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सद्ज्ञान सरिता, अनन्त ज्ञान मंजूषा, आगमवेत्ता आशुकवयित्री मम जीवन, उपकारिणी प्रवर्तिनी महोदया "यथा नाम तथागुण" पूज्य सज्जनश्रीजी म. सा. ।
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आपश्री ने अपने अद्भुत ज्ञान एवं सरलता, सहजता, सहिष्णुता, सौम्यता, नम्रता, विनय इत्यादि गुणों से अल्प समय में ही सभी को प्रभावित कर दिया। सेवा एवं समर्पण भाव तो आपके जीवन में कूट-कूट कर भरे हुए हैं, अत्यधिक विद्वत्ता होने के पश्चात भी अहं तो आपसे हमेशा कोसों दूर भागता है। विद्वत्ता अहंता को जन्म देती है, इस कहावत को आपने असत्य सिद्ध कर दिया। जो भी आपके सम्पर्क में एक बार आ गया वह आपश्री की विद्वत्ता एवं सरलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका, प्रथम दर्शन ही सबकी श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है।
जब आपश्री का गढ़ सिवाणा में पदार्पण हुआ, प्रथम दर्शन से ही मन प्रभावित हए बिना नहीं रह सका। अनिमेष दृष्टि से सौम्य आकृति को देखती ही रह गयी। आप जैसी दिव्य विभूति एवं समतामूर्ति के दर्शन पाकर हृदय गद्गद् हो उठा। आपश्री के चरणों में प्रवजित होने का संकल्प कर लिया। दृढ़ संकल्प को साकार रूप देकर आपश्री ने मुझे अनुग्रहीत किया। मैं आपश्री के उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकती हूँ।
वस्तुतः आपश्री में एक ऐसी संजीवनी शक्ति है, प्रण व स्वत्व का बल है । वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति समाज, संघ एवं राष्ट्र के प्राण हो सकते हैं उनमें एक प्राणवान सज्जनश्रीजी साधिका भी हैं।
आप भौतिक कीति से तो क्या यशःकीर्ति के व्यामोह से भी कोसों दूर रही हैं। और वस्तुतः जैसा कि मैंने उन्हें पाया है, आप समुद्र से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर बरसने वाले बादल के अदृश्य नहीं हैं । आपको लेना तो किसी से नहीं है केवल देना ही देना आता है। देना भी कैसा ? ओढर दानी अर्थात् जो चाहे, जितना चाहे, जब चाहे, ले ले । लेने वाले योग्य हों उसका पात्र सीधा हो उनका ज्ञान रूपी महामेघ तो प्रति पल अनवरत् बरसता ही रहता है। उनके ज्ञान की महिमा का तो मैं क्या वर्णन करूं?
आपश्री का सम्पूर्ण समय पठन-पाठन-अध्ययन अध्यापन में ही व्यतीत होता है, प्रतिपल, प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी ध्यान स्वाध्याय एवं आत्म-चिन्तन में ही तल्लीन रहती हैं।
जिन्दगी के हर क्षण को आपने खेल की तरह खेला। सुख-दुःख में सदैव मुस्कराते रहे, ऐसी है महान अनन्त गुण भण्डार मेरी गुरुवर्या । आपश्री के चरणों में पुनः-पुनः शत-शत अनन्तशः भावेन कर बद्ध नतमस्तकेन वन्दन ।
नाम सज्जनश्री काम सज्जनता है कलिमल दूर विवर्जित है । सज्जन गुरु चरणों में नमन जिनका जीवन गुणों से पूरित है।
0 आर्या शीलगुणाश्री जी० म०
(सुशिष्या पू० श्री सज्जनश्रीजी म० सा०) महापुरुषों के जीवन के क्रिया-कलापों का महत्व उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। समाज तथा धर्म की व्यवस्थाओं की सीमाओं से रहकर व्यक्तित्व का सर्वतोन्मुखी विकास जो कि सर्वजनमान्य हो कोई ही कर पाता है। जिन्होंने अपनी महानता, दिव्यता और भव्यता से जन-जन के अन्तर्मानस को अभिनव आलोक से आलोकित किया है । जो समाज की विकृति को नष्ट कर उसे संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करते रहे हैं। उनके विचार आचार में अभिनव क्रान्ति का प्राण संचार करते रहे हैं । उनका अध्यवसाय अत्यन्त तीव्र होता है। जिससे दुर्गम पथ भी सुगम बन जाता है । पथ के शूल भी
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
फूल बन जाते हैं । विपत्ति भो सम्पत्ति बन जाती है। इन्हीं महापुरुषों की श्रेणी में है पू० गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा० का भी व्यक्तित्व । जिनका संयमी जीवन समाज व शासन सेवा कार्य में पूर्णरूप से तत्पर है।
आपश्री अत्यन्त शान्त सरल स्वभाव वाली है । दार्शनिक मुखमण्डल पर चमकती दमकती हई निश्चल स्मित रेखा, उत्फुल्ल नीलकमल के समान मुस्कराती हुई स्नेह स्निग्ध निर्मल आँखें, स्वर्ण कमल पत्र के समान दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट, कर्मयोग की प्रतिकृति के सदृश वे बाहर से जितनी सुन्दर व नयनाभिराम हैं उससे भी अधिक अन्दर से मनोभिराम हैं। उनकी मन्जुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारकता की भव्य आभा झलकती है । आपकी उदार आँखों के भीतर से कमल के समान सरल सहज स्नेह सुधारस छलकता है । जब भी देखिए वार्तालाप में सरस शालीनता के दर्शन होते हैं। हृदय की संवेदनशीलता एवं उदारता दर्शक के मन और मस्तिष्क को एक साथ प्रभावित करती है। कुछ क्षण में ही जीवन की महान दूरी को समाप्त कर एकता के सहज सूत्र में बांध देती है।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का सान्निध्य प्राप्त हुआ। आपश्री के जीवन में अनेक गण विद्यमान हैं। आपश्री के लिए "स्वयं तरन्-तारयितु क्षमः परम्' उक्ति चरितार्थ होती है। स्वयं संसार सागर से तिरने वाली हैं और प्रत्येक प्राणी को भी संसार सागर से तिराने वाली है । जब आपश्री गढ़ सिवाणा पधारीं । मैंने आपश्री के प्रथम बार ही दर्शन किये थे। लेकिन आपश्री का आदर्श जीवन, सरल स्वभाव व वात्सल्य भरे व्यवहार से मैं इतनी अधिक प्रभावित हई कि मैं अपनी लेखनी द्वारा अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। और दर्शन करने से लगा मानो मैंने आज साक्षात् भगवान के दर्शन किये हों । ओली पर्व का समय निकट आ रहा था। श्री संघ की विनती को स्वीकार कर आपश्री ने ओलो करवायी। मुझे आपश्री के प्रतिदिन दर्शन व प्रवचन श्रवण का सुयोग बराबर मिलता रहा, कुछ दिन पश्चात् आपश्री मिठोडावास पधार गई । वहाँ भी मैं बराबर जाती रही।
सिवाणा श्री संघ की आग्रहभरी विनती को स्वीकार कर आपश्री ने चातुर्मास सिवाणा में ही किया। मुझे चार महीने आपश्री की सानिध्यता प्राप्त हुई और सत्प्रेरणा मिलती रही जिससे मेरी भावना
और दृढ़ बन गयी । और मैंने आपश्री की शीतल छाया में रहकर यावज्जीवन व्यतीत करने का निर्णय कर लिया। आपश्री की भी कृपादृष्टि सदा इतनी बरसती रही कि मेरी दिनानुदिन भावना दृढ़तर होती गयी । और संयम-पथ पर अग्रसर होने के लिए उद्यत हो गयी।
आपधी के जीवन में एक-एक विशेषता ऐसी भरी है कि जितना भी लिखें अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपश्री में विद्वत्ता के साथ-साथ त्याग, तप का भी विशेष गुणहै । आपश्री ने मासक्षमण, ओलीजी विंशतिस्थानक, वर्षीतप आदि अनेक तपस्याएँ करके अपने संयमी जीवन को पवित्र बनाया और बना रही हैं। आपश्री अपनी शिष्याओं को भी हमेशा प्रेरणा देती रहती हैं कि जीवन में जब तक त्याग, तप नहीं आयेगा तब तक आत्म-शुद्धि भी नहीं होगी । तप के साथ-साथ वैयावृत्य की भावना भी विशेष है । अपनी पू. गुरुवर्या श्री ज्ञानश्री जी म. सा. की सेवा में २२ वर्ष तक एक ही स्थान पर जयपुर में रहकर सेवा की। साथ ही आवश्यकता होने पर सभी पूज्यवर्याओं की सेवा के लिए सदा तत्पर रहती हैं।
गच्छ प्रवर्तिनी जैसे महान पद पर आसीन होते हुए भी जीवन में इतनी सरलता है कि कभी कभी तो विचार आता है आपश्री इतनी विद्वान योग्य श्रमणी होते हुए भी छोटे बड़ों के प्रति सदा समान
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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भाव रहता है । आपश्री की निश्रा में १२ दीक्षाएँ हुई हैं । सभी शिष्याएँ परम विदुषी हैं। साथ ही अन्य वैराग्यवती बहिनें भी आपश्री की सान्निध्यता में हैं।
पू. गुरुवर्याश्री की कृपादृष्टि मुझ पर सदा रही है। आपका वात्सल्य मझे अनन्त मिला है और मिल रहा है । मैं तो हर क्षण सोचती हूँ कि मेरे जीवन का हर पल, हर क्षण आपश्री की शुभ निश्रा में ही व्यतीत हो । आपश्री चिरायु होकर समाज सेवा व अपनी पार्श्ववर्तिनी शिष्याओं को प्रतिक्षण शुभाशीर्वाद प्रदान करती रहें।
आर्या दिव्यदर्शनाश्री
(सुशिष्या परम पूज्या श्रीसज्जनश्रीजी म० सा०) गुरुवर्याश्री हो तो ऐसी हो जिनके देखने मात्र से वैराग्य की भावना जागृत हो गयी। आप श्री की आकृति में हमेशा सरलता, सहजता, सौम्यता, सहिष्णुता टपकती रहती है। आप विनम्रता की साक्षात् मूर्ति हैं । अहंकार उनके आसपास नहीं रहता। वे ज्ञानी है पर ज्ञान का अहंकार नहीं । वे त्यागी हैं पर त्याग का घमंड नहीं। उनके कण-कण में वात्सल्य हैं। आपके प्रवचनों में सबसे बड़ी विशेषता है, कि वे आगम के गूढ़ गम्भीर रहस्यों को सरल और सुगम रीति से प्रस्तुत करती हैं जिससे श्रोतागण ऊबते नहीं हैं । आप हमेशा हम सभी को अध्ययन की प्रेरणा देती रहती हैं कि "कुछ आगम का ज्ञान सीखो, इसके बिना जीवन में शून्यता है ।" शून्य की कीमत संख्या के बिना कुछ नहीं है । जहाँ संख्या लगी शून्य की कीमत बढ़ी । जितनी गहराई में जाओगे उतने ही रत्न मिलेंगे। जितना चिन्तन के द्वारा मंथन करोगे उतना ही मक्खन मिलेगा। आप हमेशा त्याग-तप व संयम के ऊपर जोर देती हैं । आपकी बनाई हुई कविता की पंक्ति याद आ रहीं हैं।
"तप संयम रमणता
ये ही तो श्रमणता" आपका कहना है । संयम में निष्ठ बनो । आप हमेशा शिक्षा की पावन प्रेरणा देती रहती हैं। आपके पद चिन्हों पर हमेशा चलें । इसी आशीर्वाद की आकांक्षा के साथ पू० गुरुवर्या श्री के स्वास्थ्य की कामना करती हुई श्री चरणों में कोटि-कोटि अभिनन्दन ।
C साध्वीश्री सुलोचनाश्रीजी म. भयंकर भीष्म दारुण संसार में से भव्यात्माओं के जीवन पाषाण में कुशल कारीगरी कर संयम प्रतिमा का सर्जन करने वाले अजोड़ महापुरुषों एवं संतों की पंक्ति में महामनीषी वात्सल्य मूर्ति परम पूज्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज सा. भी सहज ही आते हैं।
आपश्री विरल व्यक्तित्व के धनी और उदग्र चारित्रिक गुणों से विभूषित अपूर्व आध्यात्मिक मूर्ति हैं । आपश्री के व्यक्तित्व में जटिल संयोगों का चमत्कारिक सामंजस्य सही में विस्मयजनक है ।
वृद्धावस्था होने के बावजूद भी जरा प्रमाद नहीं । आपका हृदय बच्चों का सा सुकोमल, युवकों सा दृढ़-प्रतिज्ञ है। आपश्री विनय, नम्रता, शान्ति एवं वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति हैं। आपश्री के प्रथम दर्शन से ही व्यक्ति चुम्बक-आकर्षित होकर खिंचे चले आते हैं।
आपश्री के सम्पर्क से मैंने यह अनुभव किया है कि आप अविच्छिन्न रूप दीपमालिका का एक प्रकाश पुञ्ज हैं। जंगम, दीप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की ज्योति में स्वयं को जगमगा रहे हैं । अतएव आपकी वाणी और लेखनी में धर्म नीति, तप, त्याग, उदारता तितिक्षा आदि सद्गुणों को प्रबुद्ध करने
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खण्ड १ / जीवन ज्योति वाले तत्वों का बाहुल्य है । आपकी रचनायें स्वान्तः सुखाय न होकर परोपकार के उदात अभिप्राय से अनुप्राणित हैं।
मैं देव गुरु से मंगल कामना करती हूँ कि आपश्री शतायु बनें, चिरायु बनें तथा स्वस्थ रहकर जिनशासन गच्छ का अमृत पूर्ण गौरव बनाये रखें।
अनन्त ज्ञान के ज्योति पुन्ज हो, तमसावृत जो दूर करें । ऐसी महान प्रवर्तिनी श्री को, वन्दन हम शत बार करें ।
- आर्या विद्य तप्रभाश्री, एम० ए०
(सुशिष्या प्रवितनी श्रीविचक्षणजी म०) सत्य, संयम की साधना हेतु सुगन्धित सुमन के हार नहीं अपितु तलवार की धार को पारकर स्वयं के जीवन को सुयश की सुगन्ध से सुवासित करने वाली सरस्वतीतुल्या, सतत साहित्योपासना में संलग्न, सन्मति-सम्पन्ना, श्र तशील वारिधि तथा निष्ठा, निस्वार्थ, निर्दम्भ निर्मल भावों से गुरु चरणों में तन मन से समर्पित, यथा नाम तथा गुणधारी पूज्येश्वरी.....
गुलाबी नगरी के उपाश्रय में गुलाब तुल्य स्व गुणों से जन-मन को सुगन्ध देने वाली, अखंड ज्ञान यज्ञ से जुड़ी, दुनियाँ की अटपटी-खटपटों से बहुत बहुत दूर
. प्रशमरसनिमग्ना, जपरुचिसम्पन्ना पू० प्र० श्रीज्ञानश्रीजी म. सा० के चरणों में समर्पण भाव से विराजित नामानुसार सज्जनता जिनमें पायी गई है-ऐसे महान् व्यक्तित्व के दर्शनों का सौभाग्य मुझे मिला-(आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व) मुकुलित पुष्प के रूप में विद्यमान बाल साध्वी पू० श्रीशशिप्रभा श्रीजी म.सा. के माध्यम से।
आपश्री आशु-कवयित्री, आगमज्ञा होने के साथ-साथ अहंकार, अभिमान से बहुत दूर....... अतः मात्र गुरुजनों की ही नहीं अपितु निकटवर्ती समस्त संयमी आत्माओं की सेवा हेतु सतत् सक्रिय रहती। वय-सम्पन्ना होने पर भी बालकों की सी सक्रियता, स्फूर्ति तथा युवा-सा उत्साह, उमंग, उल्लास आप में देखा गया।
कवि ने सत्य कहा हैसम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दं"..........
शक्तिसम्पन्न व्यक्ति यदि सुज्ञ है तो कभी अधिक ध्वनि नहीं करता । कुमारसंभवम् में कवि कालिदास ने कहा है
"शक्तौ क्षमा"-महान् व्यक्ति का लक्षण है शक्ति के साथ क्षमा होना । आपके पास अनेकानेक शक्तियाँ हैं तथा उन्हें पचाने के साथ-साथ उनका सदुपयोग भी है। विद्या के साथ विनय, विनम्रता, स्वाध्याय के साथ सेवा, सरलता तथा विद्वत्ता के साथ लघुता आपके जीवन में स्वर्ण सुहागे का काम करती है।
अध्ययन के साथ आपकी अध्यापन रुचि भी दर्शनीय है-आप जब भी पढ़ने जाइये-पढ़ाने को तैयार-कभी नहीं कहेंगे अभी क्यों आये—अभी नहीं बाद में आना, ये भी कोई समय है पढ़ने का, देखते नहीं मैं क्या कर रही हूँ । बस ली पुस्तक और उल्लसित रूप से अध्यापन प्रारम्भ । कितनी सरलता, सहजता।
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
१३० आपके सद् सहस्र-सहस्र, सद्गुण-पुष्पों को यदि धागे में गूथना प्रारम्भ करू तो एक विस्तृत हार का निर्माण हो जावे । इस पुष्पवाटिका में से मैं भी आत्महिताय दो चार पुष्प पा जाऊँ तो स्वयं के जीवन को धन्य मानूंगी।
0 श्रीसौम्यगुणाश्री म०
(बालशिष्या पूज्याश्री सज्जनश्री म०) भ० महावीर ने “समयं गोयम मा पमायए" का उपदेश दिया, गौतम ने इसका पालन कर स्वकल्याण किया, गुण गरिमायुक्त इस सूत्र को भ. के शासन में जुड़ने वाली पूज्या प्रवर्तिनी महोदया ने धारण कर विश्व में आदर्श उपस्थित किया । क्या कभी इस उक्ति की ओर हमारी दृष्टि गई ? क्या हमने कभी नजर दौड़ाई ? यदि चिन्तन, मनन करते हुए हम अपना स्वयं निरीक्षण करें तो ज्ञात होता है कि भगवान् के शब्दों से सर्वथा प्रतिकूल है हमारा जीवन । भाव से प्रमादी तो अनन्तकाल से बने हुए हैं चू कि आज तक आत्मा की ओर तो हमारा कोई लक्ष्य ही नहीं रहा, और कभी लक्ष्य बना भी तो वह अत्यल्प समय के लिए । किन्तु आज मानव द्रव्य से भी प्रमादी बन गया । इस वैज्ञानिक, मशीनरी युग में प्रत्येक कार्य मशीनों, यन्त्रों एवं भृत्यों द्वारा होने लगा है । तथापि इस उक्ति को चरितार्थ करने वाली खरतरगच्छ की एक संयमधारिणी, शासन संघ की शोभावधिनी, जन-जन की कल्याणकारिणी; साध्वीवृन्द की प्रवर्तिनी हैं पू. गुरुवर्या श्रीसज्जनश्रीजी म. सा.।
पू. गुरुवर्याश्री का जीवन प्रतिक्षण, प्रतिपल अप्रमत्तता में ही व्यतीत होता है। शरीर की आवश्यक क्रियाओं के अतिरिक्त शायद ही उनके जीवन में कभी ऐसा समय आया हो, जब प्रमाद में ही अधिक समय व्यतीत हुआ हो । सहिष्णुता, निर्मलता, सहजता, सहृदयता, भावुकता, नम्रता आदि गुण तो फिर भी यत्किचित् किसी में दृष्टिगोचर हो सकते हैं किन्तु अप्रमत्तता का गुण तो विरल व्यक्ति में ही अवलोकन करने को मिलता है।
निम्नांकित कतिपय विन्दुओं द्वारा उनके अप्रमत्त जीवन की थोड़ी सी झलक अपनी लेखनी द्वारा ., आलेखित करती हूँ।
१-"जिन क्षणों में गुरुवर्या श्री शास्त्रवाचन अथवा पुस्तक पढ़ने में दत्तचित्त होती है, उन क्षणों में समीपस्थ व्यक्ति क्या वार्तालाप कर रहे हैं ? उस ओर गुरुवर्याश्री का यत्किचित् भी ध्यान नहीं जाता।"
२-"वे अपना कार्य कभी भी जहाँ तक है करवाना नहीं चाहती, स्वयं ही उस कार्य को करने के लिए अभ्युत्थित हो जाती हैं। इससे इनका स्वावलम्बी जीवन स्पष्ट परिलक्षित होता है।" ।
३-"आप कभी भी गुरुवर्याश्री को देखिये, परखिये, जानिये, किसी न किसी कार्य में लीन ही मिलेंगी।"
उपर्युक्त सभी कथ्य अनुभवसिद्ध हैं । ऐसी एक नहीं, अनेक विशेषताएँ पूज्याश्री में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं, जिन्हें मैंने न तो किसी अन्य में देखी हैं और न सुनी हैं।
उनके अप्रमत्तजीवन का एक संस्मरण मेरे मानस में उभर कर आ रहा है, जिसे लेखनी लिखने के लिए आतुर हो रही है।
___ एक बार गुरुवर्याश्री सिवानाग्राम से विहार कर पिंक सिटी जयपुर की ओर पधार रही थीं। मैं भी साथ थी। विचरण करते-करते हम सब जोधपुर से पहले “कुन्डी" ग्राम में पहुंचे । उस दिन
खण्ड १/१८
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खण्ड १ | जीवन ज्योति विहार काफी लम्बा हो चुका था और गरुवर्याश्री की उम्र भी लगभग ७६ वर्ष की थी। कुण्डी ग्राम में एक विद्यालय के अन्दर रुके । जिस कक्ष में हम रुके थे उसके अत्यन्त समीप में ही पुस्तकालय था। गुरुवर्याश्री जैसे ही विद्यालय में पधारी, वैसे ही उस पुस्तकालय में चली गईं और प्रोफेसर की अनुमति से पुस्तक ली, और वहीं खड़ी-खड़ी पढ़ने में लीन हो गई। इधर दर्शनाचार्य पू. शशिप्रभाजी म. सा. ने यन्त्र-तत्र देखा । कहीं भी गुरुवर्याश्री नहीं । चिन्ता हो गई, किन्तु किंचित् समयानन्तर जब साध्वी शशिप्रभाश्री म. सा. ने पुस्तकालय में गुरुवर्याश्री को पुस्तक पढ़ते देखा, तब बोली "आप विहार कर पधारी हैं अतः कुछ आराम कर लीजिए, बाद में पुस्तक पढ़ियेगा।" तब "पुस्तक पढ़ना ही हमारा आराम है" गुरुवर्याश्री ने कहा । मैं भी समीप ही खड़ी थी।
यह वाक्य सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी उम्र तो अभी इतनी अल्प है फिर भी आते ही आसन बिछाकर सीधे सोती हूँ किन्तु गुरुवर्याश्री को देखो।
वास्तव में इस वाक्य ने “कि पुस्तक पढ़ना ही हमारा आराम है” मेरा जीवन भी आंशिक रूप में परिवर्तित कर दिया।
इससे अनुभव कर सकते हैं कि गुरुवर्याश्री का जीवन कितना अप्रमत्त है । वास्तव में गुरुवर्याश्री ने “समयं गोयम ! मा पमायए" की गुण गरिमायुक्त उक्ति को चरितार्थ किया है।
कृपा से परिपूर्ण आपश्री का वरदहस्त सदा सर्वदा मेरे सिर पर रहे, जिससे मेरे कदम उत्तरोत्तर · · उन्नति की ओर अग्रसर होते रहें और मैं अपने लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त कर सकू। इन्हीं शुभ अभ्यर्थनाओं के साथ
युग-युग तक करती रहो धरा पर जिनवाणी का विमल उद्योत और बहा दो मम मानस में
आध्यात्मिकता का नूतन स्रोत ।
Cश्री आर. एम. कोठारी, आर. ए. एस. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी की शिष्या पू. श्रीसम्यग्दर्शनाजी के दर्शन मुझे उनके जोधपुर प्रवास में पू. श्री विद्य त्प्रभाश्रीजी के संग भैरुबाग मन्दिर में हए। साध्वीजी श्री सम्यग्दर्शनाजी को देखा तो पाया कि निरन्तर पठन-पाठन उनका मुख्य व्यसन है तथा उनकी विद्वत्ता, विनम्रता, जनकल्याण की भावना व सदाशयता ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। उनसे ही जानकारी मिली कि उनकी दो बहिनें भी साध्वी-जीवन बिता रही हैं । जिनकी शिष्या गुणों की खान हो--उनकी गुरुवर्या कैसी होगी ? जानने की जिज्ञासा बढ़ी।
मुझे शीघ्र ही उनकी गुरुवर्या पूज्या प्रवर्तिनीजी का जयपुर चातुर्मास में एवं तत्पश्चात् सन् १६८२ में जोधपुर प्रवास में सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके सान्निध्य का लाभ मेरे लिए मंगल विधायक सिद्ध हुआ।
पूज्या प्रतिनीजी की छवि में प्रशस्त ललाट, अलौकिक तेज पुज, शान्त स्वरूप, दीर्घ नयन, शरीर में देवभाव का प्रभाव, मुखमण्डल में सर्वजीवों को अभय करने वाली अपूर्व शोभा है।
____ आशीर्वाद देने के लिए उठे आपके दाहिने हाथ में गुरु पर्वत के बायीं ओर से अन्दर की ओर आने वाली रेखा (साइड रिंग), गुरु पर्वत पर क्रास का चिन्ह, पर्वतों पर चार वृत, बुध एवं सूर्य पर्वत को
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
१३६
घेरती हुई रेखा जो हृदय रेखा से समागम करने जैसी है (मिली नहीं है-कान्जाइन्ड) तथा शनि पर्वत पर शाखाओं के रूप में बँटती है, जीवन रेखा एवं मस्तिष्क रेखा का एक दूसरे से मिलने की ओर अग्रसरता अन्तर्ज्ञान (इन्ट्यूशन) रेखा की विद्यमानता आपको जनसमूह को विपत्तियों से उद्धार करने वाला उद्धारक, सामाजिक चेतना जगाने एवं उसका सफल नेतृत्व करने के लिए ही पृथ्वी पर जन्म लेने का प्रयोजन साबित करता है। (Saviour to protect masses from disaster)
__आपकी शिष्याओं पू. शशिप्रभाश्रीजी, प्रियदर्शनाश्रीजी, दिव्यदर्शनाश्रीजी, सम्यग्दर्शनाश्रीजी आदि को देखकर स्पष्ट भान होता है कि पारस पत्थर तो लोहे को सोने में परिवर्तन कर देता है मगर पूज्या प्रवर्तिनीजी ने तो उनके सान्निध्य में रहने वाली समस्त साध्वियों को ही 'पारस' में परिवर्तित कर दिया है।
आपकी सरलता, विनम्रता और मौन साधना को निहार कर श्रीसूत्रकृतांग की यह सूक्ति स्मरण हो जाती है
सारद सलिलं व सुद्ध हियया, विहग इव विप्पमुक्का,
वसुन्धरा इव सव्व फासविसहा ॥-२-२-३८ साध्वीजी का जीवन शरदकालीन नदी के समान निर्मल है। वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुखों को समभाव से सहन करने वाले हैं।
पूज्या प्रवर्तिनीजी के जीवन की निर्मलता के विषय में श्री बनारसीदास की यह पंक्तियाँ भी स्मरण हो जाती हैं
जैसे निसि बासर कमल रहे पंक ही में,
पंकज कहावे पै न फंसे दिग पंक है, भवपंक में, कमलवत इनका जीवन है।
पूज्या प्रवर्तिनीजी का जैन आगम साहित्य (मूल, नियुक्ति, चूणि, भाष्य) का सतत् अध्ययन एवं साहित्य सृजन, विश्वशान्ति, प्राणीकल्याण एवं मानवोत्थान के लिए है।
___ अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था एवं शरीर रुग्ण होते हए भी आप श्रीसंघ को श्रीवीतराग देव के पथ पर ले जाने, धार्मिक एवं मानव के नैतिक उत्थान के लिए सतत् प्रयत्नशील है।
जयपुर श्रीसंघ का अहोभाग्य है कि उन्हें पूज्या प्रवर्तिनीजी के अभिनन्दन का अवसर मिला है। पूज्या प्रवर्तिनीजी का गुणानुवाद-धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहरों से विभूषित इस महान मनीषी का ही गुणानुवाद नहीं है यह जैनधर्म, जैन सांस्कृतिक जागरण, धार्मिक प्रवृतियों, सम्यक्त्व, साहित्यिक विकासोन्नयन एवं जैन ऐक्य के गुणानुवाद का प्रसंग है।
जिनशासन देव ऐसे शान्तमूर्ति, गम्भीरता के प्रतीक, आत्मीयता की खान, पीयूषवाणीदाता को चिरायु बनावें । पूज्या प्रवर्तिनीश्री को कोटि-कोटि वन्दन, शत-शत अभिनन्दन ।
0 श्रीमती स्नेहलता चौरड़िया आगममर्मज्ञा परमपूज्य गुरुवर्या आशुकवयित्री प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जनश्रीजी म. सा. जिनकी कीर्ति का डंका सम्पूर्ण भारत देश में बज रहा है। आपश्री के उत्तम श्रेष्ठ गुणों की महत्ता का वखाण प्रत्येक व्यक्ति अपने मुखारबिन्द से किये बिना नहीं रह सकता है ।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति मेरा परिचय पू. गुरुवर्या श्री से आज का नहीं है । जब मैं आठ-नौ वर्ष की थी तब से ही आपश्री की सान्निध्यता का सुअवसर प्राप्त हुआ था, आपश्री के साथ रहने से मुझे भी कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ। पदयात्रा में आपश्री के साथ खूब रही। वे दिन मुझे याद आ रहे हैं । मुझमें इतनी समझ नहीं थी, नादान बालिका थी। मुझसे कोई गलती भी हो जाती लेकिन गुरुवर्याश्री वात्सल्यपूर्वक मुझे समझाते और उस गलती को कभी गलती नहीं समझते थे।
आपश्री का उज्ज्वल, संयमी जीवन जन-जन को आकर्षित करता है । सरलता, सहजता और विद्वत्ता से प्रभावित होकर अनेक मुमुक्षु व बालिकाओं ने अपने आपको धन्य माना है।
पू. गुरुवर्याश्री दीर्घायु होकर समाज की एवं स्वयं की उन्नति करती रहें और हमें सदा सन्मार्ग बताती रहें इन्हीं शुभकामना एवं भावनाओं के साथ हार्दिक अभिनन्दन ।
0 डा० विजयचन्द जैन लखनऊ ये बात सन् १९७२-७३ की है जब मेरे आठ वर्षीय पुत्र संजय उर्फ गुड्डू को कुत्ते ने काट लिया था । उन दिनों महाराज जी लखनऊ चौमासा करने आई हुई थीं। उन्हें मैंने अपने पुत्र को कुत्ते काटने वाली बात बताई जिस पर उन्होंने मेरे पुत्र को धर्म आदि सुनाया और असीम स्नेह व आशीर्वाद दिया। तदुपरान्त वो कलकला चली गयीं। तभी मैंने बच्चे को कुत्ते काटने का असर खत्म करने वाली चौदह सुइयाँ * लगवाई तथा उसकी बूस्टर भी दी। इसके दो साल बाद मैं कलकत्ते गया वहाँ जाकर मैंने महाराज जी का पता लगाया। इसी बीच मेरे पुत्र गुड्डू की हालत अचानक खराब हो गई। उसमें कुत्ता काटने के उपरान्त हुए लक्षण दिखाई देने लगे । मैं फौरन महाराजजी के पास गया और बच्चे का हाल बताया। वो तुरन्त ही दस किलोमीटर चलकर मेरे बच्चे के पास आई और उसे धर्म सुनाया। उसके बाद दूसरे दिन पुनः आने को कहकर चली गयीं। इस बीच उसी रात बच्चे की हालत ज्यादा खराब हो गई और दूसरे दिन सबेरे पाँच बजे मेरे पुत्र का देहान्त हो गया। उधर उसका देहान्त हुआ और उसी समय महाराज जी का फोन आया । इससे पहले कि मैं उन्हें गुड्डू के देहान्त की बात बताता उन्होंने स्वयं ही पूछा कि अब हमारी वहाँ आने की आवश्यकता है क्या? ये सुनकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उन्हें स्वतः ही कैसे आभास हो गया कि अब उनके आने की आवश्यकता नहीं रही। इस घटना से मुझे महसूस हुभा कि उनका दिव्यज्ञान कितना प्रबल है और यह घटना महाराज जी के प्रबल आत्मज्ञान को प्रमाणित करतो है जिसे मैं आज तक नहीं भूल सका।
- श्रीमती लक्ष्मी भन्साली संसार में ऐसे कम ही महाव्यक्तित्व होते हैं, जिनके दर्शन से स्व-दर्शन की प्रेरणा मिलती है।
मुझे याद है कि आगमज्योति, आशुकवयित्री परम श्रद्ध या गुरुवर्याश्री अपनी शिष्या मण्डली के साथ वि० सं० २०३७ में सिवाना चातुर्मास हेतु पधारी । तब मुझे प्रथम बार आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, साथ ही उनके वैराग्य से परिपूर्ण मृदु, ओजस्वी प्रवचनामृत का पान करने का भी अद्वितीय संयोग सम्प्राप्त हुआ, फलस्वरूप संसार से उद्विग्नता जागृत हो गई और मानस-भू में वैराग्य अंकुर का उद्भव हो गया। और तत्क्षण मैंने मन में संकल्प कर लिया कि मुझे यावज्जीवन के लिए इन समतामूर्ति गुरुवर्याश्री के चरणों में आश्रय लेना है, क्योंकि सच्ची आत्मिक शान्ति इनके चरणों में प्राप्त होगी। शान्ति वही दे सकता है जिसने शान्ति प्राप्त कर ली हो।
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खण्ड १ ! व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
१४१ पू० गुरुवर्याश्री को जब भी मैंने देखा, जिस समय में देखा, जहाँ भी देखा, उन्हें समता की भावनाओं से ओतप्रोत ही देखा।
क्रोध के प्रसंग में भी समतामूर्ति गुरुवर्याधी को कभी उत्तेजित होते नहीं देखा, इतनी समता, शान्ति शायद ही कहीं देखने को मिलती है, जैसे गुरुवर्याश्री में। हर समय शान्त, सरल, सौम्य गुरुवर्या श्री के निश्रा की शरण भव-भव में प्राप्त हो।
उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व से ग्रंथित यह अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है । अत्यधिक प्रसन्नता है, किन्तु मैं अकिंचन, अल्पज्ञ, तुच्छ बालिका किन शब्द के द्वारा आपके महान गुणों को अभिव्यक्त करूं। क्योंकि महान व्यक्ति के जीवन चरित्र को पूर्ण रूप में तो केवल"श्रद्धा, सभक्ति, सविनय आपके सद्गुणों का अभिनन्दन एवं दीर्घायु की शुभकामना करती हुई चरणों में शतः-शतः कोटि-कोटि वन्दन।
0 श्रीमती शान्ता गोलेच्छा __ इस धरातल पर कुछेक विभूतियाँ ऐसी हैं, जो स्वयं का उद्धार करने के साथ-साथ अन्यों का उद्धार करने में भी समर्थ हैं। कुछेक ऐसी विभूतियाँ होती हैं जो अपने पुरुषार्थ से संयमी जीवन के सम्पर्क में आने वाले प्राणियों का उद्धार करने में सशक्त होती हैं । ऐसी त्याग, तप, चारित्रमय आत्माओं का जीवन विराट, व्यापक और विशाल होता है। उनके हृदय में प्रत्येक व्यक्ति के प्रति करुणा की भावना भरी होती है। ऐसी ही एक विभूति है “यथानाम तथागुण" धारिका प्रवर्तिनी गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब ।।
आपश्री से मेरा परिचय ३० वर्ष से है। जब मैं छोटी थी, जब से माता-पिता के धर्मनिष्ठ संस्कारों से संस्कारित होने के कारण मुझे भी धर्म सीखने की प्रेरणा मिलती रही। अतः एक दिन मैं उनकी प्रेरणा से प्रेरित होकर जयपुर में विराजित प्रवर्तिनी महोदयाश्री प. ज्ञानश्रीजी म. सा. की विदुषी शिष्या पूज्यवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा. के पास धर्म सीखने गई। जैसे ही महाराज की सरल सौम्याकृति देखी कि मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी।
वैसे मुझे महाराज के पास आना-जाना कम ही पसन्द था, किन्तु महाराजश्री के वात्सल्यमय मृदु-मधुर व्यवहार से मन सहज उनकी ओर आकर्षित हो गया । और आने-जाने का क्रम प्रतिदिन प्रारम्भ हो गया।
जब मैं गुरुवर्याश्री को धार्मिक पाठ सुनाती तो कई बार उच्चारण की अशुद्धता करने पर भी बड़े प्रेम से समझाती थीं। पुनः फिर उसे बड़े प्रेम से शुद्ध करवाती थी। इस अर्से में मैंने कभी उनको क्रोध करते हुए नहीं देखा। और न कभी उन्होंने ऐसा ही कहा कि “कितनी बार तुमको शुद्ध बताया फिर भी अशुद्ध बोलती हो।"
ऐसी समतामूर्ति के संयोग से मेरी भी धर्म में रुचि जागृत हो गई। उनके इस वात्सल्यमय व्यवहार के कारण मेरा आकर्षण गुरुवर्याश्री की ओर दिनानुदिन बढ़ता गया और अल्प समय में ही मैंने पंचप्रतिक्रमण आदि अनेक वीजें सीख लीं।
इस प्रकार मुझ जैसी अज्ञानबाला को धर्म में जोड़ने का श्रेय-श्रद्ध या गरुवर्याश्री को ही है। अतः उनका मुझ पर अनन्त-अनन्त उपकार है। उस उपकार से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। गुरुवर्या श्री की कृपा मुझ पर सदा से है और सदा रहेगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। तथा मैं अपने इष्ट देव से
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१४२
खण्ड १ | जीवन ज्योति यही प्रार्थना करती हूँ कि आपकी कृपा दिनानुदिन बढ़ती जाये। आपका वरदहस्त मेरे मानस को सदा उजागर करता रहे व दीर्घ समय तक आपकी शीतल छाया, सम्यक्निश्रा हमें प्राप्त होती रहे।
0 श्री सोहनराज भंसाली, जोधपुर श्री सज्जनश्री जी महाराज का जैसा नाम है, वैसी ही वे गुणनिधान हैं । “यथा नाम तथा गुण" यह लोकोक्ति आपके जीवन में यथार्थ चरितार्थ होती है । सचमुच में आप सरलता, शालीनता, सौजन्यता एवं सेवापरायणता की जीवन्त मूर्ति ही हैं।
कठोर श्रम, निरंतर अध्ययन, कुशाग्रबुद्धि एवं सीखने और जानने की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण आपने जैनसाध्वी समुदाय में आगमज्ञाता के रूप में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया । आपके आगमज्ञान से प्रभावित होकर जैन समाज ने आपको "आगम ज्योति" की उपाधि से अलंकृत किया जो सर्वथा योग्य ही है। वर्तमान में खरतरगच्छ में ही क्या समग्र जैन समाज के साध्वी मंडल में आपके समान आगम साहित्य की ज्ञाता शायद ही कोई साध्वी होगी ऐसा कह दूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यों तो वर्तमान में नई पीढ़ी की साध्वी समुदाय में अनेक, एम. ए., पी.-एच. डी. (डॉक्टरेट) आदि विश्वविद्यालयों की उच्च डिग्रियाँ प्राप्त विदुषी साध्वियाँ हैं। परन्तु जैन आगम साहित्य जैसा उच्च और गहन अध्ययन आपका है वैसा इन डिग्रीधारी साध्वियों में नहीं है, यह एक तथ्य है। ज्ञान और चरित्र का संगम
महाराजश्री एक उच्च कोटि की आगमज्ञा होते हुए भी आपके जीवन व्यवहार में संयम धर्म की मर्यादाओं की पालना एवं धर्म क्रियाओं के आचरण में कोई कमी या ढिलाई नहीं है। इसका अर्थ आप यह भी न लगायें कि आप एक दकियानूसी, कट्टर रुढिवादी हैं और आँख मूदकर पुराने विचारों का समर्थन या पोषण करती हैं । यद्यपि आप पुरानी पीढ़ी की आर्या हैं तथापि आपके विचार आधुनिक हैं। यही कारण है कि आप अपने प्रवचनों में "माइक" का प्रयोग कई दशकों पूर्व से ही करती आ रही हैं जो आपकी प्रगतिशीलता का द्योतक है।
मुझे यहाँ परम अध्यात्मयोगी द्रव्यानुयोग के महान ज्ञाता श्रीमद् देवचन्द्र जी की वे पंक्तियाँ स्मरण आती हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को उद्बोधन या सिखावन देते हुए कही थी।
"पग प्रमाण सोडि ताणज्यो, श्री संघनी हो तमे धरज्यो आन ।
बहिज्यो सूरिजीनी आज्ञा, सूत्र शास्त्र हो तुमे धरज्यो ज्ञान ।। इन पंक्तियों में श्रीमद् ने कहा, गुरु की आज्ञा में वफादार रहते हुए भी, श्री संघ की आज्ञा को मानते हुए भी, सूत्र शास्त्र में बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए भी "पग प्रमाण सोडि ताणज्यो" अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सामने रखना, उस पर चिन्तन मनन करना, उस पर ध्यान देना।
महाराजश्री श्रीमद् की इन पंक्तियों का मर्म और गूढ़ रहस्य को समझ कर उसी के अनुरूप चलने का प्रयास करती हैं जो सर्वथा अनुकरणीय एवं अभिनन्दनीय है । निसन्देह आप में नए और पुराने विचारों का संगम है, आप नूतन और पुरातन आयाम के सामंजस्य एवं समन्वय की एक जोड़ने वाली कड़ी है, सेतु है।
____ सन् १९८२ में जोधपुर चातुर्मास के बाद विहार कर आपका जयपुर की ओर आने का निश्चय हुआ। उस समय आपके रुग्ण एवं वृद्धावस्था के कारण आपके समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया कि आप से
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खण्ड १ / व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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पाद विहार नहीं हो सकेगा। अतः विहार में ठेला या कुर्सी का प्रयोग कर लें । परन्तु आपने इसे स्वीकार नहीं किया। आपने कहा, जितना चल सकूगी धीरे-धीरे चलूगी, लम्बा विहार नहीं हो सकेगा तो थोड़ाथोड़ा करूंगी। दिन अधिक लगेंगे तो कोई बात नहीं। जब तक शरीर साथ देता है, पैदल ही चलने की भावना है। यह है आपकी संयम पालने की उत्कृष्टता।
आगम ज्ञान के साथ-साथ आपका ऐतिहासिक ज्ञान भी उत्तम है । "ओसवाल वंश अनुसंधान के आलोक में" पुस्तक की पांडुलिपि जब मैंने आपको अवलोकनार्थ दी तब आपने उसे पूरी रुचि, लगन एवं तत्परता से पढ़ा । मुझे कई उपयोगी सुझाव दिए । कुछ भूलों का परिमार्जन भी कराया। तक्षशिला के बारे में आपने मेरी शंका का तर्क युवत ढंग से समाधान किया । मैंने पूछा कि तक्षशिला में ५०० जिन चैत्य थे ऐसा जैन साहित्य में पढ़ने को मिलता है, क्या यह ठीक है ? ५०० जिन चैत्य वाले नगर में जैनों की आबादी लाखों में रही होगी। आपने बताया कि पुराने समय में कई प्रदेशों में ऐसी परम्परा थी कि जैन लोग अपने घरों के मुख्य द्वार के ऊपर पद्मासन आकार के तीर्थंकर की मूर्ति अंकित कराते थे जैसा कि आज भी कई वाहन व घरों के द्वार के ऊपर गणेश की मूर्ति रहती है । इसके अतिरिक्त कई जैन घरों में घर देरासर होते थे। आज भी कुछ संभ्रात घरों में घर देरासर (मन्दिर) देखने को मिलते हैं । इस प्रकार आपने दूसरी भी कई शंकाओं का समाधान किया । जो आपका इतिहास ज्ञान का परिचायक है।
ज्ञान और चारित्र का जैसा सुमेल एवं समन्वय आपके जीवन में देखने को मिलता है वैसा तालमेल और एकरूपता बहुत कम देखने को मिलेगी। अपनी गुरुवर्या स्वर्गीय प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी एवं स्व. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी के निकट संपर्क में रहने से उनके विशिष्ट गुणों की अमिट छाप आपने जीवन में स्पष्ट परिलक्षित होती है।
अन्त में मेरा सज्जनश्री जी महाराज को शत शत वन्दन । उनके ज्ञान और चारित्र का कोटि कोटि अभिनन्दन ।
०० सज्जन सज्जन है अहो सज्जनता की खान । सज्जन सब मिलकर करें सज्जन का बहुमान ।
डॉ. निजामउद्दीन [हिन्दी विभागाध्यक्ष, इस्लामिया कॉलिज, श्रीनगर (काश्मीर)]
वजूदे-जन से है तस्वीरे-कायनात में रंग इसी के साज से है जिंदगी का सोजे-दरूँ शरफ में बढ़कर सुरैया से मुश्ते-खाक इसकी कि हर शरफ है उसी दुर्ज का दुरे मक मकालमाते-अफलातू' न लिख सकी लेकिन उसी के शोले से टूटा शरारे-अफलातू
-डा० मुहम्मद इकबाल डा० मुहम्मद इकबाल ने ठीक कहा है कि सृष्टि की शोभाश्री नारी के अस्तित्व के कारण है । शालीनता में उसकी श्रेष्ठता की बराबरी कौन कर सकता है। भले ही नारी ने अफलातून के समान उच्चकोटि के ग्रन्थों का प्रणयन न किया हो, लेकिन अफलातून को उत्प्रेरणा देने वाली नारियाँ ही तो हैं।
. जैन-धर्म में नारी की पवित्रता तथा शालीनता की दृष्टि से उच्च स्थान है। वह महापुरुषों की जननी तथा उन्हें महान बनाने की प्रेरक शक्ति भी रही है। यहाँ नारी व्रत, नियम का अनुपालन कर मोक्ष
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खण्ड १ | जीवन ज्योति की अधिकारिणी बनती हैं। भगवान महावीर के युग में स्वयं उनके समवशरण में आर्यिकाओं का समुल्लेख मिलता है । श्रमणधर्म में नारी-सम्मान की, उसके उच्च स्थान की महिमान्वित गाथाएँ विराजमान हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में कहा है
ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशील-संयमोपेताः । निजवशतिलकभूताः श्रु तसत्यसमन्विता नार्यः ।। सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तन विनयेन च ।
विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ॥ (१२, ५७-५८) अर्थात् श्रु त, सत्य से समन्वित और शम-शील, संयम से युक्त नारियाँ धन्य हैं वे अपने सतीत्व महत्व, पावनाचरण, विनयशीलता तथा विवेकशीलता द्वारा संसार को सुशोभित करती हैं।
जैनधर्म में नारी को नानाविधगुणसम्पन्न माना गया है। उसके सभी रूपों-माता, पुत्री, बहन, पत्नी का समाज में बहुमान है । वह न दासी है, न परतन्त्र, न भोग्या है न पदार्थ । उसका अपना सम्मानपूर्ण स्थान है समाज में । वह साध्वी बनकर पुरुषों को बोध देती है, सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। राजीमती ने रथनेमि को प्रबोध देकर उसकी कामभावना को परिष्कृत किया था। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में उनका आख्यान प्रसिद्ध है।
परम साध्वो 'प्रवर्तिनी' 'आगमज्योति' सज्जनश्री जी म० (जन्म सं. १९६५ बैशाखपूर्णिमा) का व्यक्तित्व भी प्रेरणादायक है । उन्होंने अपने तपःपूत प्रवचनों द्वारा अनेक लोगों को महावीर वाणी का कल्याणमय निर्झर प्रवाहित कर अध्यात्म ज्ञान से सूखे दिलों को हराभरा बनाया, उनमें तत्वज्ञान के बीज बोये। वह एक श्रेष्ठ लेखिका हैं, प्रतिभापूर्ण कवयित्री हैं। उनकी उर्वरा लेखनी से 'पुण्य जीवनज्योति', 'श्रमण सर्वस्व' तथा 'कुसुमांजलि' की रचना हुई, साथ ही उन्होंने कुछ पुस्तकों का हिन्दी-रूपातंर भी प्रस्तुत किया जैसे 'अध्यात्म प्रबोध' तथा 'व्रतारोप विधि'। उन्होंने 'कल्पसूत्र' की व्याख्या भी की है और 'द्वादश पर्व व्याख्यान' की रचना भी उनकी लेखनी से प्रसूत हुई है । उससे विदित होता है कि साध्वी सज्जनश्री जी म. लेखनकला में कितनी सिद्धहस्त हैं और साथ ही एक रससिद्ध कवयित्री हैं जो आगमोपदेश के द्वारा जनमानस को अभिप्रेरित तथा प्रभावित करती हैं।
वह एक तपःपूत व्यक्तित्व की धनी हैं । उनके तप की पावनता दूसरों का मल हरती है, उन्हें भी पावन बनाती है। उन्होंने कल्याणतप, पंचमी सोलियातप, पखवासातप के अतिरिक्त नवपद ओली, विंशतिस्थानक तप ओली आदि भी किये । जहाँ इतनी तप-साधना उनमें है वहाँ स्वाध्याय की तल्लीनता भी देखने योग्य है । इस प्रकार तप और स्वाध्याय की दिव्याभा से उनका व्यक्तित्व अभिमण्डित है। साथ ही उनके व्यक्तित्व की उदारता भी दर्शनीय है। उसमें एक माता का ममत्व है, वात्सल्य है, करुणा है, स्नेह है, प्यार की ज्योति है । ऐसे विविध गुणों के तारों से जगमगाता उनका व्यक्तित्व सर्वहितकारी न होगा तो क्या होगा! पति, परिवार के बन्धनों की शृंखलाओं को विच्छिन्न करने वाली, महावीरउपदेष्टित मार्ग के बटोही बनकर जन-जन के मन-कलुष को धोने का प्रयास किया। राग-विराग से विमुख साध्वी सज्जनजी म. ने आगम-वाणी को जन-जन तक पहुँचाकर अहिंसा, मैत्री, समता, संयम, अनेकान्त, अपरिग्रह का अविरल प्रचार-प्रसार में योग दिया, आत्मकल्याण के साथ पर-कल्याण भी किया । आगम-ज्ञान-दीप को जीभ देहरी पर रखकर अपनाअन्तर्जगत् भी आलोकित किया और बाह्यजगत् भी--लोगों का मन भी आलोकित किया, तभी तो उनका कल्याण-क्षेत्र राजस्थान तक सीमित न रहकर
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
१४५ गुजरात, सौराष्ट्र, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश तक फैला दिखाई देता है । जाहिर है उनमें एक अनुपम वाग्मिता है, भाषण देने की मधुर कला है । वह खरतरगच्छ संघ की ज्योति हैं जिनसे कितनी ही साध्वियाँ प्रकाश ग्रहण कर रहीं हैं और अपने मन की तामसता दूर कर रही हैं। 'भक्तामर स्तोत्र' में ऐसी ही श्रेष्ठ माताओं, स्त्रियों, नारियों की प्रशंसा की गई है । नारी की महिमा में सूर्य का तेज, चाँद की शीतलता, धरती की सहनशीलता तथा उर्वरता सभी का समीकरण है । मानतुंगाचार्य ने ठीक ही कहा है
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ।
-भक्तामरस्तोत्र, २२ आगमज्योति परम तपस्वी साध्वी श्रीसज्जनश्रीजी म. को शतशः नमन, उनका शतशः अभिनन्दन।
श्रीमती ज्ञानदेवी बेगानी सरलता, सादगी, सहिष्णुता, समता की प्रतिमूर्ति श्रद्धय प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब का व्यक्तित्व एक विलक्षण व्यक्तित्व है। मेरा परिचय गुरुवर्याश्री से लगभग २५-३० वर्ष पुराना है। मेरा प्रथम सम्पर्क तब हुआ जब मैं पाकिस्तान से जयपुर आयी। उस समय मेरे जीवन में चहुँ ओर निराशा ही निराशा थी, क्योंकि पाकिस्तान के झगड़े में मेरे कई निकटवर्ती संबंधियों का निधन हो गया था । जब मुझे ऐसे पावन निर्मल गुरु से मिलने का संयोग प्राप्त हुआ तो मेरे शोकसंतप्त, अंधकारमय जीवन में प्रकाश की लहर आयी । इन्होंने मुझे धर्म की ओर प्रेरित किया अर्थात् मज्ञ में धर्म के ससंस्कार डाले फिर इन संस्कारों से मेरी भावना उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। मैं जब भी इनके दर्शनार्थ आती हैं तो इनके मस्कराते हए चेहरे को देखकर, इनकी सरलता और समता भाव को देखकर हर क्षण यही विचार करती हूँ कि हे प्रभु मुझे भी ऐसी सरलता और समता प्राप्त हो । इनका एक विशेष गुण यह है कि जब भी कोई व्यक्ति किसी समस्या के समाधान के लिए या कोई सुझाव लेकर आता है तो ये उसकी बात को बड़े ही ध्यान से आदरभाव से सुनती ही नहीं अपितु उसकी समस्या का समाधान करती है और उसे उचित सुझाव भी देती हैं।
इनका समग्र जीवन समाजोत्थान तथा शिक्षा के विस्तार और विकास के लिए समर्पित है। इनकी उदारता और प्रेम छोटे बच्चे से लेकर बड़े व्यक्ति के दिल को भी स्पर्श कर जाता है। इनका व्यक्तित्व महान फल और छाया से युक्त वृक्ष के समतुल्य है, जिसकी शीतल छाया में हर व्यक्ति अपने जीवन का उचित ढंग से निर्माण कर सकता है।
श्री कपूरचन्दजी श्रीमाल, हैदराबाद चार पाँच वर्ष पू. गुरुवर्याश्री का विचरण बंगाल, बिहार, यू. पी. क्षेत्र में रहा और दो वर्ष का विचरण गुजरात में भी रहा । ६७ वर्ष की उम्र में आपश्री ने पालीताणा की नव्वाणु यात्रा की जहाँ मुझे, यदा-कदा आपश्री के सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ।
__ आपके जीवन की एक विशेषता है कि एक सम्प्रदाय में दीक्षित होकर भी सम्प्रदाय से बंधी नहीं उसका मुख्य कारण है कि सन्त वृत्ति जीवन में साकार हो गयी। खण्ड १/१९
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
मैं गुरुदेव से अन्तशः प्रार्थना करता हूँ कि आप शतायु, दीर्घायु, चिरायु बन शासन सेवा में संलग्न रहती हुई सन्तप्त प्राणियों को मार्ग प्रदर्शित करती रहें । इसी शुभेच्छा के साथ चरणों में कोटिकोटि वन्दन अभिनन्दन ।
0 श्रीमती उर्मिला श्रीवास्तव (प्रधानाध्यापिका : श्री वीरबालिका उ. मा. विद्यालय, जयपुर)
ज्ञान-सूर्य, तप की स्वर्ण-रश्मियों से, करती जो जन-जन को आलोकित शुचिता प्रेम दया और करुणा से, करती जो सबको आप्लावित । आज करें हम उनका अभिनन्दन, मन की श्रद्धा-भाव समर्पित । आपथी के चरणों की करें वन्दना,
करें जन्म जन्म के पुण्य अर्जित । विधाता की इस रंग-बिरंगी कौतुक-पूर्ण सृष्टि में हजारों जन्म व मरण के कारक बनते रहते हैं। यही इस सृष्टि का विधान है, किन्तु कुछ अलौकिक व्यक्तित्व अपनी प्रतिभा, साधना, संयम, सेवा एवं त्याग के बल पर इस काल चक्र के बन्धन को भी निर्बन्ध करने में समक्ष होते हैं। इन्हीं आत्मशक्ति पुञ्ज साधनाशील व्यक्तियों के सम्मुख संसार नतमस्तक हो जाता है। प्रवर्तिनी पद विभूषिता परम पूज्या साध्वी सज्जनश्रीजी महाराज के सम्पर्क, सम्वाद एवं आशीर्वचनों से लाभान्वित व्यक्तियों की भी यही स्थिति है। एक बार आपका आशीष एवं मार्गदर्शन प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति श्रद्धावनत होकर बार-बार दर्शनों के लिए लालायित रहता है।
___ मुझे भी महाराजश्री के आशीर्वचनों का सद्लाभ प्राप्त करने का अवसर संयोग से प्राप्त हुआ। उत्तरप्रदेश के एक भाग से शिक्षा प्राप्त करके जयपुर के श्री वीरबालिका उ. मा. विद्यालय में सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ। यह जैन विद्यालय सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय गतिविधियों के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध था। कुछ दिनों पश्चात विद्यालय में साध्वी सज्जनश्रीजी महाराज साहब का शुभागमन हुआ। आपकी तेजस्वी मुद्रा जहाँ आपके गहन दार्शनिक तत्वज्ञान की गरिमा को प्रकट कर रही थी वहीं श्वेतवस्त्रों से आवृत सुस्मित हास्य आपकी करुणा एवं वात्सल्यपूर्ण हृदय की महानतम विशेषताओं को उजागर कर रहा था। बच्चों के सम्मुख आपने बोधगम्य भाषा एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग करते हुए तीन "व" विद्या, विनय व विवेक को धारण करने की प्रेरणा दी। साथ ही सदाचरण की ओर प्रेरित करते हुए आपने सूत्र रूप में सात "स" के पालन करने का आग्रह किया जो इस प्रकार है-सत्य, सहयोग, सहानुभूति, सद्भाव, सादगी, समता एवं संयम । जीवन के सार-तत्व को इतनी सरलता एवं प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त करने की क्षमता अदभुत है । यह क्षमता आपके गहन चिन्तन-मनन एवं सजगता को परिचायक है। जीवन के इन शाश्वत मूल्यों पर अपना सम्पूर्ण अधिकार रखने वाली आर्या के प्रति सबका मस्तक श्रद्धा से झुक गया। निश्चय ही गुरुवर्या का यह सन्देश छात्राओं एवं अध्यापिकाओं के जीवन का लक्ष्य बना रहेगा।
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खण्ड १ | व्यक्तित्व - परिमल : संस्मरण
केवल इतना ही नहीं इस संस्था से महाराज साहब का सम्बन्ध अनेक कड़ियों से जुड़ा है । हमारी भूतपूर्व प्रधानाध्यापिका श्रीमती प्रकाशवती सिन्हा आपकी सहयोगी एवं शैक्षिक निर्देशिका रहीं । इनके साथ आपका अत्यन्त आत्मीय भाव हम सबने अनुभव किया । अनेक बार आप दोनों के बीच हासपरिहास की वार्ता भी हमारे लिये प्रेरणासूत्र बन जाती थी। एक बार की घटना है नेहरू जयन्ती का आयोजन विद्यालय में किया गया था। प्रधानाध्यापिकाजी ने नेहरूजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस पर महाराज साहब ने परिहास करते हुए उनसे पूछा कि आप नेहरूजी पर इतनी आस्था रखती हैं, किन्तु आज तक कितने नेहरू बनाये हैं ? यद्यपि यह एक परिहास था । किन्तु शिक्षक वर्ग के लिये यह एक दायित्व है कि वह बालकबालिकाओं को केवल पुस्तकीय ज्ञान ही न प्रदान करें वरन् उनमें राष्ट्र व समाज के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण व सेवा की भावना भी पैदा करें । आध्यात्मिक क्षेत्र की साधिका एवं वैराग्य पथ की अनुगामिनी की ऐसी विराट चेतना निश्चय ही अभिनन्दनीय है । एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने संसार का परित्याग किया, इसकी माया - ममता - छल-कपट व ईर्ष्या-द्व ेष को तिलाञ्जली दी किन्तु विश्व कल्याण व मानव सेवा से मुख नहीं मोड़ा। आज ऐसे अलौकिक व्यक्तित्व का अभिनन्दन करते हुए हम अपने आपको कृतार्थ व अनुग्रहीत कर रहे हैं ।
श्री विमलकुमार चौरड़िया, भानपुरा (म. प्र. )
पूज्याश्री का नाम तो उनके द्रव्यानुयोग के विशेष ज्ञान के कारण वर्षों से सुन रखा है किन्तु उनके सान्निध्य का अवसर सन् १९७५ में पूज्यश्री सम्यानन्दजी एवं पूज्यश्री जयानन्दजी म. सा. की निश्रा में जयपुर में हुए उपधान तप के समय हुआ । मेरे पुण्य का उदय था कि मुझे पूज्य श्री जयानन्दजी म. सा. की निश्रा में उपधान करने का अवसर मिला ।
उपधान की क्रियाओं को करने के बाद बचने वाले समय का सदुपयोग करने के लिए जैन धर्म मूल, द्रव्यानुयोग का ज्ञान प्राप्त करने हेतु हमने पूज्याश्री सज्जन श्रीजी म. सा. से आग्रह किया । पूज्याश्री ने बड़े प्रेम व सरलता से हमें स्वीकृति दी एवं नियमित रूप से हमें - नवतत्व, नय, निक्षेप, स्याद्वाद आदि का ज्ञान दिया ।
व्याख्याता कई प्रकार के होते हैं जिनकी अपनी अपनी शैली होती है । साधारणतः उन्हें तीन प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है ।
प्रथम प्रकार के व्याख्याता ऐसे होते हैं जो घण्टों तक धाराप्रवाह बोलते हैं किन्तु व्याख्यान के पश्चात् श्रोताओं से पूछा जाय कि उनने व्याख्यान से क्या समझा तो वे कह देते हैं कि सुना तो बहुत पल्ले कुछ नहीं पड़ा ।
दूसरे प्रकार के व्याख्याता वक्तृत्व कला के नियमों को ध्यान में रखकर चलने वाले, वाणी के साथ विचारों का सामंजस्य रखते हैं, कवित्व से भरपूर आकर्षक एवं मन मोहक शैली के व्याख्यान देते हैं किन्तु उनकी कथनी करनी में भेद के कारण, उनके तप तेज के अभाव के कारण उनका व्याख्यान प्रभावशाली नहीं हो पाता है ।
तीसरे प्रकार के व्याख्याता की भाषा - संस्कारित अलंकारों से युक्त स्वर-उदात्त व स्पष्ट ध्वनि युक्त; शब्द - शिष्ट एवं उदार, वाक्य महान अर्थ वाले विसंगति रहित, असंदिग्ध बोध देने वाला, हृदय को छूने वाला, शब्दों, पदों एवं वाक्यों में संगति, प्रत्येक शब्द, प्रकरण, प्रस्ताव - देश, काल, श्रोता
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
आदि को दृष्टिगत रखते हुए वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला, मर्यादित पर निंदा व स्व-प्रशंसा से रहित तथा व्याख्यान अमर्म भेदी शुद्ध धर्म का उपदेशक, व्याकरण शुद्ध, विभ्रमादि मुक्त, सरस, क्रमद्ध, युक्तियुक्त आदि आदि गुणों से युक्त रहता है । ऐसा व्याख्या सर्वोत्कृष्ट होता है । ऐसा व्याख्यान ही दे सकते हैं जिनकी वाणी के साथ आचार भी शास्त्रसम्मत हो, तप का तेज हो । पूज्या सज्जन श्रीजी महाराज में तीसरे प्रकार के वक्ता के अनेक गुण हैं ।
पूज्याश्री सज्जन श्रीजी म. सा. के जीवन में विचार वाणी एवं आचरण की एकता है । आपने जैन शासन की महती प्रभावना की । प्रवचन के द्वारा शास्त्रों का ज्ञान दिया, धर्मोपदेश देकर धर्म से स्खलित होने वालों को स्थिर किया, धर्माचरण करने वालों के विचारों को पुष्ट कर आगे बढ़ाया और भव्यजीवों को उपदेश देकर धर्म की ओर प्रेरित किया ।
आपने सच्चे अर्थों में अपने गुरुवर्या ज्ञानश्रीजी म. सा. से शास्त्रों का ज्ञान लेकर उनका मनन चिन्तन कर अपने दूसरे गुरुवर्य श्री उपयोग श्रीजी म.सा के नामानुसार अपने उपयोग को प्रशस्त मार्ग पर लगाकर स्वयं का जीवन तो सार्थक किया ही समाज को भी सन्मार्ग पर लगाया है ।
इसे मैं अपनी प्रबल पुण्याई कहूँगा कि मुझे भी इस निमित्त से पूज्याश्री के गुणानुवाद का अवसर मिला । पूज्याश्री का गुणानुवाद निश्चय ही अशुभ कर्मों को क्षय कर भविष्य उज्ज्वल करेगा ।
कोटा
[] श्री अशोक बाफना,
जैन श्वे. समाज में सुप्रसिद्ध कोटा रतलाम राज्य के निवासी दीवान बहादुर स्व. श्री केशरी सिंहजी सा. बाफना दीवान नथमलजी सा. के जामाता थे । सौभाग्यवती सेठानी उवरावकुंवरबाई सा. का अपने भतीजे पर वात्सल्य भाव होने से विवाह भी आपकी इच्छानुसार किया और विवाहोपरान्त अपने ही पास रखा तथा आपके नववधू सज्जनकुमारी को अपने ही समुदाय के विधि विधान सिखाने की व्यवस्था की । आज्ञाकारिणी नववधू ने आज्ञानुसार सब विधि विधान दर्शन विधि, सामायिक विधि आदि शीघ्र ही सीख लीं । तेरापन्थी सम्प्रदाय और स्थानकवासी मूर्तिपूजा के विरोधी हैं ।
सज्जन कुंवर के मस्तिष्क में हलचल रहती थी। वि. सं. १९७८ में कोटा में पू. श्रीमती प्रवतिनी ज्ञानश्रीजी म. सा. उपयोग श्रीजी म. सा. का चातुर्मास होने से सीखने जाने का प्रसंग था । मूर्तिपूजा विषयक शंका का निराकरण भी वहीं हुआ ।
"
स्वयं ने ही शास्त्र वाचन कर वास्तविकता ज्ञात कर ली और मूर्तिपूजा पर श्रद्धा दृढ़ हो गई । श्री उमराव कुंवर सेठानी सा. का देहान्त हो जाने पर भी उस परिवार से सम्पर्क बराबर बना रहा क्योंकि सेठ सा. की तृतीय धर्मपत्नी श्रीमती गुलाब सुन्दरी जी का भी गोलेच्छा परिवार पर पूर्व सेठानी सा. जैसा ही प्रभाव था । पूरा परिवार उनका आदर करता था ।
दीक्षा के अवसर पर स्वयं सेठ सा. श्री केशरीसिंह सा. सपरिवार पधारे और स्वयं के प्रभाव से दीक्षा जयपुर में ही करवायी । श्री कल्याणमलजी सा. से नथमलजी के कटले में मन्दिर व दादाबाड़ी के लिए जमीन प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी म. सा. व श्रीमती गुलाबसुन्दरीबाई सा. ने सत्प्रेरण देकर श्री खरतरगच्छ संघ को भेंट कर रजिस्ट्री करवाई ।
आज भी कोटा का बाफना परिवार आपके प्रति पूर्ण श्रद्धाशील है ।
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खण्ड १ | व्यकतित्व-परिमल : संस्मरण
C श्री सोहनलालजी बुरड, ब्यावर जिनागम वेत्ती परमविदूषी आर्यारत्न स्वपरोपकारक विविध विषयों पर साहित्य की सर्जना करने वाली, तप और संयम में निरन्तर निरत रहने वाली प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म. का जिसने नामकरण किया, मालूम होता है कि वह अवश्य भविष्यवेत्ता रहा होगा । अन्यथा क्या कारण है कि उनके जीवन व्यवहार में यथानाम तथागुण की लोकोक्ति पूर्णरूप से चरितार्थ होती है। वास्तव में श्रद्धय साध्वीजी का सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक नर-नारी के प्रति अत्यन्त सौजन्यपूर्ण, मधुर एवं वात्सल्यमय व्यवहार होता है। यद्यपि आप अल्पभाषिणी हैं, निरर्थक बातें करना आपकी प्रकृति के विरुद्ध है, फिर भी जीवनोपयोगी धार्मिक आध्यात्मिक चर्चा में रस लेती हैं। आपके साथ ऐसी चर्चा करने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
साहित्य पठन की ओर आपकी कितनी तीव्र रुचि है, यह प्रदर्शित करने के लिये एक उदाहरण जो मुझ से सम्बन्धित है, उपस्थित कर देना पर्याप्त होगा।
साध्वीजी महाराज ब्यावर नगर में पधारे। नगर में जब कोई आत्म-साधक सन्त या सती पधारते हैं तो उनके सत्समागम का लाभ उठाने को मेरा मन उत्सुक हो उठता है। मैं आपकी सेवा में भी उपस्थित हुआ। उन दिनों अहमदाबाद से मेरे पास “आत्मज्ञान अने साधनापथ" नामक गुजराती पुस्तक आई हुई थी। आपको दिखाई। आपने लेकर सरसरी तौर पर उसे देखा। पन्ने उलट-पलट कर कुछ पृष्ठ पढ़े और फर्माया कि यह पुस्तक तो मुझे भी पढ़नी है। मेरी भावना थी कि पहले मैं पढ़ लूं फिर आपको दूं। मगर आप इतनी उत्सुक थीं कि आपने सुझाव दिया दिन-दिन में मैं पढूंगी, शाम को आप ले जाकर अध्ययन करते रहना। ऐसा ही किया गया। शाम को जाता, पुस्तक पाट पर रक्खी तैयार मिलती।
ऐसी है आपकी स्वाध्यायवृत्ति, गुणग्राहकता । वास्तव में आपका समग्र जीवन सरलता, सज्जनता, नम्रता और समाधि से परिमण्डित है।
देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत । ते ज्ञानीना चरणमा हो वंदन अगणीत ॥ मेरा शत-शत बन्दन! .
] श्री केशरीचन्दजी पारख लगभग १५-२० वर्ष पूर्व की यह स्मृति है। मैं परम तारक, चरम तीर्थंकर श्री सम्मेत शिखर अधिष्ठाता श्री पार्श्वनाथ प्रभु एवं अधिष्ठायक देव श्री भोमीयाजी महाराज के दर्शन, वन्दन, पूजन हेतु सम्मेत शिखर की यात्रा पर गया हआ था। उन दिनों शांत स्वभावी. मदभाषी प. प. साध्वीजीश्री सज्जनश्री म. सा. भी अपने शिष्या समदाय के साथ वहीं विराजित थीं। मैं तलहटी में जिन मन्दिर में पूजा कर रहा था। पूजा, चैन्यवन्दन आदि करके निवृत्त हुआ था, उसी समय प. पू. साध्वीजी का भी जिन मन्दिर के प्रांगण में आगमन हुआ।
___मेरा यह उनके दर्शन करने का पहला अवसर था। मैंने विनीत भाव से उन्हें वहीं मन्दिर के प्रांगण में खमासमणा सहित वंदन किया।
उन्होंने मुझे एक ओर ले जाकर नम्र वचनों में समझाया-जिन मन्दिर के प्रांगण में, वीतराग प्रभु के सम्मुख, साधु-साध्वी को वन्दन नहीं करना चाहिए । इसमें तीर्थंकर देव की आशातना होती है।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति
बहुत ही शांत वचनों व नम्र भाव से सारी बातें समझाई ।
मैं उनकी शांतमूर्ति व नम्रता के भावों को आज भी स्मरण करता हूँ तो नतमस्तक हो जाता हूँ उनके शांत स्वभाव की अभिव्यक्ति पर। आज के युग में प्रायः यह देखने में आता है कि लोग जिन मन्दिर के प्रांगण में ही एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं व कई लोग व्यावसायिक या गृह सम्बन्धी चर्चाएँ भी करते हैं। हमें उपरोक्त दृष्टांत से इस विषय पर गम्भीरता से सोचना चाहिए ।
- उत्तमचन्द बडेर
(मन्त्री-श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ सघ, जयपुर) अत्यन्त आनन्द का विषय है कि आगम ज्योति आशु कवयित्री प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म० सा० का दीक्षा स्वर्ण जयन्ती अवसर पर अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। श्वे० मूर्तिपूजक संघ में श्रमणी का यह अभिनन्दन ग्रन्थ सर्वप्रथम है । इससे पूर्व किसी भी साध्वीजी महाराज का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है व खरतरगच्छीय श्रमण-श्रमणी परम्परा में तो सर्वप्रथम ही अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है जो प्रथम बार का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करवाने का लूणियां परिवार जयपुर को व अभिनन्दन समारोह मनाने का जयपुर संघ को सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। वास्तव में पूज्या प्रवर्तिनी श्री सार्वजनिक अभिनन्दन के योग्य हैं।
पूज्या प्रवर्तिनीश्री के जीवन को निकटता व लम्बे समय से देखने को मिला। उनके समग्र जीवन में एकरूपता है।
क्योंकि जयपुर श्री संघ का सौभाग्य रहा कि सदा साधु भगवन्त व साध्वीजी म. सा. का सुसंयोग मिलता रहा-पू० प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी म. सा. (जो प्रवर्तिनी श्री की दादागुरुणीजी हैं) ने अपने जीवन के साधना काल के अन्तिम क्षण जयपुर में ही बिताये व पुण्यश्रीजी म. सा. की शिष्या व प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. की गुरुवर्याश्री प्रतिनीधी ज्ञानश्रीजी म. सा. भी अपनी शारीरिक परिस्थिति के कारण वर्षों जयपुर में विराजी। पू. ज्ञानश्रीजी म. सा. व पू. उपयोगश्रीजी म. सा. से प्रभावित हो युवावस्था में संसार के मोह-माया परिजाल के चक्रव्यूह से निकलकर संयम जीवन स्वीकार कर सर्वस्व गुरु चरणों में समर्पित किया। दीक्षित हो आपश्री गुरु सेवा में संलग्न हो गयीं, समाज सेवा में तत्पर रहती हुईं गुरु सेवा में २२ चातुर्मास जयपुर में किये।
लम्बे समय तक एक स्थान पर रहते हये कभी भी आप परेशान नहीं हुई सदा एक भावों में अपने कर्तव्य पथ पर डटी रहीं। कभी किसी के लिये अश्रद्धा का कारण नहीं बनीं । वर्षों तक एक स्थान पर रहना और लोगों की श्रद्धा को घटाना नहीं बल्कि निरन्तर बढ़ाना ये इनकी जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता रही है।
आपश्री का मार्गदर्शन जयपुर संघ को सदा मिलता रहा । आपकी ही प्रेरणा से शिवजीराम भवन का निर्माण हुआ था पुनः आपकी ही प्रेरणा से पुनर्निमाण का कार्य प्रारम्भ हुआ व्याख्यान हॉल का नूतन रूप से निर्माण हो रहा है। आपकी ही की सत्प्रेरणा से नायला हवेली भी खाली करवा उपाश्रय का रूप दिया गया।
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खण्ड १ | व्यक्तित्व - परिमल : संस्मरण
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आप के जीवन का सहज स्वाभाविक गुण है अध्ययन व अध्यापन । साधक जीवन की क्रियाओं के पश्चात् जीवन का प्रतिक्षण अध्ययन व अध्यापन में व्यतीत होता है । खरतरगच्छ साध्वी समाज में आगमज्ञान में आपका गौरवपूर्ण स्थान है ।
मैं गुरुदेव से प्रार्थना करता हूँ कि आप दीर्घायु बन प्राणिमात्र को मार्गदर्शन देती हुई अपने शुद्धत्व सिद्धत्व को प्राप्त करें । इन्हीं शुभकामनाओं के साथ चरणों में कोटि-कोटि वन्दन अभिनन्दनअभिनन्दन !
D श्री भँवरलाल नाहटा,
कलकत्ता
प. पू. प्रवर्तिनीश्री जी सज्जन श्रीजी महाराज खरतरगच्छ की एक महान विदुषी और प्रभावशाली आर्या रत्न हैं । यों तो आपके दर्शन अनेकशः हुए किन्तु आपके कलकत्ता चातुर्मास में सत्संग का मुझे अच्छा लाभ मिला । आपके प्रभावशाली प्रवचन आत्मलक्षी, तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण और ओजस्वी होते थे । आचारांगसूत्र जैसे प्राचीनतम आगम की अध्यात्म रस भरी व्याख्या बड़े-बड़े वक्ताओं के चटपटे व्याख्यानों से मुमुक्षुओं को अधिक प्रिय लगती, भले श्रोताओं की भीड़ कम हो । काकाजी ( श्री अगर चंदजी नाहटा ) के आदेश से मैंने विविध तीर्थ कल्प का अनुवाद पर्यूषण के बाद आरंभ किया, यह ग्रंथ संस्कृत प्राकृत गद्य-पद्य मिश्रित था । प्रतिदिन अनुवाद करता और पूज्य महाराज सा० को दिखा देता । भाषा ज्ञान के अभाव में अटकी हुई गाड़ी को वे अपने विशाल ज्ञान से आगे चला देते । इस तरह से दीपावली से पूर्व संपूर्ण अनुवाद हो गया । आपके बिना साहाय्य के मेरे जैसा अल्पज्ञ स्वल्प समय में कभी अनुवाद नहीं कर पाता । मेरे स्वर्गीय मित्र शिवशंकर शास्त्री आपसे मिलते ही रहते थे । उन्होंने एक निबंध लिखा जो पूरा तो उनका स्वर्गवास हो जाने से न हो सका पर उस पर मेरे नाम से नोट लिखा मिला कि पूज्य सज्जनश्रीजी म० सा० को दिखा दें | वे कहा करते थे कि सज्जन श्रीजी महाराज में गजब का पौरुष और वाणी में अमोघता है ।
साधुओं की कमी से खरतरगच्छ में विदुषी साध्वियों से ही गच्छ रूपी रथ का संचालन होता है । जैन कोकिला शासन स्तंभ श्री विचक्षणश्री जी महाराज द्वारा दीर्घ दृष्टि पूर्वक प्रवर्तिनी पद का चयन आपकी योग्य प्रतिभा का एक सशक्त प्रमाण पत्र है । आप शतायु हों और सुदीर्घ शासन प्रभावन करते रहें, स्वस्थ रहें ऐसी गुरुदेव से प्रार्थना करता हूँ ।"
धनरूपमल नागोरी (एम. ए., बी. एड. साहित्यरत्न; न्याय - मध्यमा)
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कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि एक परम विदुषी साध्वीजी से ऐसा घनिष्टतम सम्पर्क होगा कि जिसकी सुवास जीवन भर बनी रहेगी । लेकिन ऐसा हुआ । जन्म जन्मान्तर के संस्कारों से अथवा तो संयोगों या पुण्योदय से वे क्षण आये कि सम्पर्क हुआ और आज भी बना हुआ है। तीस इकतीस वर्ष पूर्व जो सुवास दी, वह आज तो द्विगुणित हो गई ।
आप सहज भाव से पूछेंगे कि वह सुवास कहाँ है ? तो उत्तर है - वह सुवास है साध्वी श्री सज्जन श्रीजी म० साहब । आज उनके गुणों रूपी पराग से सारा जैन समाज सुवासित हो रहा है । आपके ज्ञान गंगा का नीर सदैव बहा और बह रहा है। इतना ही नहीं वह ज्ञान गंगा कई ग्रन्थों के रूप में प्रवाहित हुई है। श्री कल्पसूत्र जी, श्री भगवतीसूत्रजी, प्रतिष्ठा कल्प आदि कई ऐसे
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खण्ड १ | जीवन ज्योति ग्रन्थ हैं जिनमें से ज्ञान की सुवास निरन्तर आ रही है और अनेकों सुन्दर कृतियाँ हैं जिनकी सुवास हम ले रहे हैं।
जप, तप, संयम तीनों का त्रिमेल आप में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। संयममय जीवन में जप एवं तप न हो तो जीवन खोखला होता है । जप तप बिना ऐसे जीवन का कोई अर्थ नहीं । लेकिन आपने जीवन में जप-तप को पूरा स्थान दिया। इससे संयममय जीवन सुवासित हो गया । नवकार मंत्र की आप परम आराधिका बनकर अपने संयमित जीवन को उजागर कर रही है।
स्वशिष्याओं के अतिरिक्त, समस्त साध्वी वृन्द में आपके प्रति एक निष्ठा, श्रद्धा एवं अनुराग है। जो कोई भी सम्पर्क में आता है, उसके हृदय में आप अपनी सरलता एवं स्वाभाविक स्नेह से स्थान बना लेती हैं।
आपका ज्ञान एवं प्रतिभा बहुमुखी है । ज्योतिष में आपकी अच्छी गति है । प्रतिष्ठा आदि के मुहर्त तो आपने कई बार दिये । शकुन में भी गति है । हस्तरेखा, सामुद्रिक में भी आपकी रुचि रही। संगीत के क्षेत्र में भी कम नहीं । कई राग-रागनियों का आपको बोध है । पूजनादि पढ़ाने का एवं ताल स्वर का अच्छा ज्ञान है, जो कई बार अनुभव में आया । स्वयम् के बनाये हुए स्तवन, गीत, भजन आदि बहत भावपूर्ण हैं । उनमें प्राचीनता एवं अर्वाचीनता के दर्शन स्पष्ट होते हैं।
__शासन देव से यही कामना है कि आप हमारे बीच में युग-युग तक रहकर सत्पथ का मार्गदर्शन करती रहें । आप अपनी सुवास से हमें युग-युग तक सुवासित करती रहें।
0 श्री महावीर जैन श्वेताम्बर मन्दिर
0 श्री मुलतान जैन श्वेताम्बर सभा, जयपुर __ "सर्व-जीव-हिताय" व्यक्तित्व की धनी प्रवर्तिनी महोदया का सम्पूर्ण जीवन आध्यात्मिकता के सुरभित वातावरण में समाज के प्रति जहाँ समर्पित रहा है, वहाँ आपने सदैव अपने को अध्ययन और लेखन की पावनता से स्वयं को जोड़े रखा है।
आपकी रचनाओं ने हमेशा समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। सबसे महत्वपूर्ण बात आपके जीवन की एक ही है कि जीवन में साधुत्व के जो अपेक्षित सात्विक गुण होने चाहिए, उन अपेक्षाओं में आप पूर्ण रूप से खरी उतरी हैं, इसलिए आपकी छवि सम्पूर्ण समाज में निर्मल, सस्लता, सहृदयता एवं एकाकी चिन्तक के रूप में सर्व विदित है।
जिनेश्वर भगवंत से प्रार्थना है कि आप शतायु हों और समाज की सतत् प्रेरणा का स्रोत बनी रहें।
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साहित्य-समीक्षा
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- श्री भगवती ब्याख्या प्रज्ञप्ति स्तुति -
રિડી સ્ત્રીવિચિત जय जम । विश्लोद्धारिणि । भगवति जय हे जयव्ययप्रप्ति ।। परिसतिसारस्वत स्तोत्रम् नन्दतु नन्दन हे श्रुत सरिने । सत्त्वबोध अभिव्यक्ति : ॥ स्थायी
(गईल विक्रीतिवृतम्)
व्यासानन्तलोकनिकरैरासमस्ता स्थिरा, श्रुतहान रत्नाकर जय हे! भणधर सुगुरु प्रशीत ।। या सध्या गुरुनिर्गुरोरपि गुरूदेव स्तु या वन्यते । स्याबाद माझ्भय मान मरोवर : न्यायशास्त्र नवत! ९" | देवानामपिदेवा वितरता वाग्देवता देवता,
स्वान्त:हिप यतः स्तवमुलं यस्याःसमन्नोवरः। प्रश्नोत्तर वररत्नमालिके { शालिके अद्भुत ज्ञान: ।
वहीश्री प्रथा प्रतिमहिमा सन्तचिहिया, अनेकान्त प्रज्वल प्रतिभे। जय ! प्रपोज्ञानविज्ञान ॥ २॥ | मैं, मध्यहिता जगत्रयहितासर्वज्ञायाहिता। विवि भकि। गम प्रमितिनीतिमयि आगमललितललाम !
| श्रीजीलीचरमा गुणनुपरमा जायेतयस्मारमा,
विद्यैवावहिनीपति करीबी स्तुवेतामहम विश्ववन्यविभुवीरवदननिःसृत निझर अभिराम। ॥ २॥
कणे वरकभूिमिततनुः कर्णेशकबरी, आत्मानन्द निधायिनि दायिनि । सदैव ज्ञानोपयोग । हीस्वाहातपदा समस्त विपांवेली पदंसम्पदाम् । __ अन्य व्यक्ति तव प्रसाद करने, रलत्रय अभेग ॥५॥
संसावितरिणी विजयने विद्यावदाने सुने।
यस्याःसा पदवी सदाशिवपुरे देवावतमी कृता ॥३॥ सुपुण्ययि सुवर्णशलिोन दिल्यप्रभावनि। मात । सर्वाधारविचारिणी प्रतरिका निवाला, 'सज्जन' मन अति पावन कारिण। करती हम प्रतिपात ४५ जीएणनेणुवरक्का निभाःखादि वितावित
सा बाएी प्रam Rगुणगा न्याय प्रवीmsमल, पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज की सुन्दर शास्त्रीय लिपि के सुन्दर चित्र | अयस्तरलारणी निपुणा जैत्री पुनानुgan ये स्वच्छ, सुघड़ हस्ताक्षर चरित्रगत उदात्त गुणों को स्वतः व्यजित करते हैं।
सुन्दर हस्ताक्षर का पत्र, प्रकट करता समग्र चरित्र
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खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण
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0 श्री मदनलाल शर्मा जयपुर
(ग्रन्थ के सम्पादक सदस्य) झाँकता हूँ पल्लवावृत शाख के लघु द्वार से । ब्रह्माण्ड दिखता है मुझे इस धरा के द्वार से ।। पृथ्वी पर बैठा हुआ मैं स्वर्ग को अवलोकता हूँ। मिलता क्या स्वर्ग और भूलोक में यह सोचता हूँ। लोकमत जिनका हृदय से कर रहा है आज वन्दन । मानवी हो या कि मानव स्वर्ग का वह दूत पावन । मृत्तिका घट में भरे जो आत्मा के शील गुण ।
है वहीं निर्गुण प्रभु का अंश प्राणी में सगुण ।। जहाँ सात्त्विक वृत्तियों का प्रसार प्रभाव हो । स्नेह, प्रेम, अप्रमाद, अहिंसा एवं ज्ञानार्जन का प्रवाह जहाँ निरन्तर प्रवाहित हो । जहाँ चिन्तन ही चिन्तन हो तथा चिंता से मुक्ति का वातावरण हो स्वर्ग वहीं है, वहीं है, वहीं है । और, .
ऐसा व्यक्तित्व जो आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत हो । विनय एवं करुणा से जिसका हृदय परिपूर्ण हो । जो निर्लिप्त भाव से प्रकृतिस्थ हो कमलवत् संसार में रहकर संसार को ज्ञान सौरभ प्रदान कर रहा हो वही पुरुष या प्राणी अलौकिक है, स्तुत्य है, वन्दनीय है ? निर्गुणवादी कबीर ने भी ऐसे ही व्यक्तित्व को ईश्वर से अधिक महत्वपूर्ण मानकर कहा है
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की गोविन्द दियो बताय ॥ ऐसे ही वातावरण और ऐसे ही व्यक्तित्व का सौभाग्य से साहचर्य प्राप्त हुआ। प्रवर्तिनी सज्जनश्री . जी म. सा. और उनकी शिष्या साध्वीवृन्द का ! वातावरण और व्यक्तित्व दोनों ही ने मेरे हृदय को अत्यन्त प्रभावित किया। प्रेरणा और क्रियाशीलता का ऐसा सामंजस्य यदा कदा ही देखने को मिलता है। उपाश्रय में जाते ही लगा कि “पवित्रता" शुभ्रवस्त्रावृता हो इन सौम्यगुणा साध्वी शरीरों में साकार रूप मे उतर आई है। सरलता और ज्ञानपिपासा तथा धर्मलाभ हेतु निरन्तर साधना यहाँ चह
ओर दृष्टिगत होती है। साध्वी एवं श्रावक मंडल अपने केन्द्र प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी के चारों ओर चिंतनार्थ, साधनार्थ एवं विचार विमर्शार्थ छाया रहता है ?
प्रवर्तिनी आगमज्ञा सज्जनश्री का ज्ञान असीम है। अस्तु उनके द्वारा किया गया समाधान हृदयस्पर्शी होता है। जैनदर्शन हो या कि सनातन मान्यतायें सभी पर आपका समान अधिकार है । अनेक आगम ग्रंथों का कई बार पारायण कर आप "आगमज्ञा" कहलाई हैं । देववाणी (संस्कृत) पर तो आपका पूर्ण अधिकार है। हिन्दी, गुजराती, प्राकृत, अंग्रेजी, राजस्थानी भाषा पर भी आपका अधिकार है। भावनामय जीवन है अतः जीवन में काव्यमयता का प्राधान्य है । आपने कई सरल गीतकाओं की रचना की है एवं अनेक दुरूह ग्रन्थों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है।
आपश्री की पट्ट शिष्या साध्वी श्री शशिप्रभाजी की धर्मशीलता, धर्म-संलग्नता एवं ज्ञान-सम्बोध, किसी भी कार्य के करने में जीवन्त क्रियाशीलता को देखकर ही पूजनोया गुरुवर्या सज्जनश्रीजी के
खण्ड १/२०
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खण्ड १ | जीवन ज्योति व्यक्तित्व प्रभाव का सही आकलन हो जाता है। गुरु जाना भी जाता है अपने शिष्यों के द्वारा ' इस 'अभिनन्दन ग्रन्थ' सम्पादन के कार्य हेतु मेरा इनसे कई बार मिलना हुआ। विचार-विमर्श हुआ, तर्कवितर्क हुआ तथा मैंने पाया कि गुरुवर्यानुरूप ही आप अपने कर्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहने वाली कर्मठ वैरागिनी हैं । शशिप्रभाजी एवं प्रवर्तिनीश्रीजी की स्नेह पोषिता अन्य शिष्यायें इस साधना उपवन का सुरभित सौरभ हैं । महिलाओं में जागृति एवं चेतना का यह पावन आश्रम है।।
___ जहाँ सज्जनश्रीजी अपने मृदुल स्नेह एवं कठोर अनुशासन का समन्वय कर स्वर्ण का कुन्दन बनाती हैं । इस पंचभूत शरीर में त्याग, तपस्या, करुणा का अमृत भरती हैं। धन्य हैं ऐसी गुरुवर्या एवं धन्य हैं उनकी साध्वीवृन्द जो इक्कसवीं सदी में प्रवेशातुर निपट भौतिक उपलब्धि में अनुरक्त संसार के समक्ष अपरिग्रह, इन्द्रियनिग्रह एवं अध्यात्म की पताका लिये चुनौती देता दृढ़ता से महावीर वाणी में आस्था लिये खड़ा है।
अनेक रोगों से जर्जरित, विषयाक्रांत समाज के समक्ष ८१ वर्षीया प्रवर्तिनी जी आत्म-साधना का प्रभाव लिये स्वस्थ, प्रसन्न, अप्रमत्त भाव से 'स्फूर्त्य चेतना सी' लगती है जिनका 'चेतन' जरा द्वारा, रोग द्वारा, एषणाओं द्वारा पराजित नहीं किया जा सका; प्रत्युत इन्होंने ही अपना दास बनाकर रख दिया। पूर्ण सम्पन्न परिवाज में जन्मी, सम्पन्न परिवार में ही विवाहित हुई किन्तु सम्पन्नता के व्यमोह को स्वीकार नहीं कर सकी। बाल्यकाल से ही पिताश्री सेठ गुलाबचन्द जी की धर्म निष्ठा एवं तत्व निष्ठा ने आपके मेधावी कुशाग्र मन मस्तिष्क को प्रभावित कर लिया था। वही प्रभाव निरन्तर मन को प्रेरित करता रहा और एक दिन गार्हस्थ्य और मोह बन्धनों को भटकर कर आप जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ में दीक्षित हो गईं। जैसे भगवान महावीर और भगवान बुद्ध बुद्धत्व को प्राप्त करने की दिशा में दृढ़चित्त हो अग्रसर हुए थे । मोह भंग होते ही मोहावृत संसार से परे हो गये थे। फिर मुड़कर पीछे नहीं देखा । संसार के प्रत्येक प्राणी में ऐसा वैराग्य भाव कई बार उत्पन्न होता है किन्तु इस भाव को प्राणी जकड़ कर पकड़ नहीं पाता जो पकड़ता है वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लेता है, वह बुद्ध हो जाता है। ऐसे ही पथ की अनुगामिनी है।
सैंतालीस वर्षों की अनवरत चली आ रही साधना यात्रा ने आपको पूर्णरूपेण आत्मकेन्द्रित बना दिया है। आपके सान्निध्य में जो भी आता है वह कुछ न कुछ अलौकिक भाव ही पाता है। जीवन के “वास्तविक उद्देश्य" का भाव । शरीर सुख से परे "आत्म-सुख" का भाव । अपरिग्रह, अस्तेय एवं अचौर्य का भाव । विश्व बन्धुत्व का भाव ?
सम्प्रदाय एवं धार्मिक संकुलता से दूर आप जैन एवं जैनेतर समाज की मार्गदर्शिका हैं।
ऐसी विदुषीवर्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी का "अभिनन्दन समारोह" हो रहा है तथा इस अवसर पर "अभिनन्दन ग्रंथ" का भी प्रकाशन हो रहा है । अतः ऐसे पावन कार्य संपादन करने वाले जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ तथा लूणिया परिवार के साधुवाद का भी मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जिन्होंने वन्दनीय का अभिनन्दन कर निस्संदेह प्रशसनीय एवं स्तुत्य कार्य किया है।
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साहित्य-समीक्षा
प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का
अदभुत-अनुवाद-कौशल
-गणी मणिप्रभसागरजी
विद्वानों ने शब्द को 'ब्रह्म' की उपमा दी है। 'शब्द' ब्रह्म है, इसका मतलब है, 'शब्द' अनन्त शक्तिसम्पन्न, अनन्त अर्थ और पर्याय वाला एक महत्तत्व है। जिस प्रकार एक छोटे से बीज में विराट वक्ष की अनेक, अगणित पत्तियाँ व असंख्य बीजों की सत्ता छिपी रहती है, उसी प्रकार इस छोटे से 'शब्द' अक्षर में अगणित अर्थों का रहस्य छुपा रहता है।
जैनाचार्यों ने सूत्र को 'सत्त' अर्थात् सुप्त कहा है, जिसके भीतर अगणित अर्थ और रहस्य छपे हों, ज्ञान की अनेकानेक किरणें जिसके भीतर सुप्त-गुप्त हों, और जिसे वाचक, व्याख्याता अपनी सम्यक प्रज्ञा से जागृत करता है, उस रहस्यपुञ्ज शब्द को सूत्र या ‘सुत्त' कहा गया है ।।
सूत्र का अर्थ समझना कठिन है, इसके लिए शास्त्र का तलस्पर्शीज्ञान तो चाहिए ही, व्याकरण और भाषा-शास्त्र पर अधिकार भी होना चाहिए और साथ ही आगम, परम्परा, इतिहास और दर्शन का भी गम्भीर ज्ञान होना चाहिए।
'शब्द' देश-काल-परिस्थिति के परिवेश में अपना अर्थ बदलता रहता है, अपना रूप-स्वरूप परिवर्तित करता रहता है । यदि हमें उसके इस परिवर्तन की परम्परा और परिवेश का ज्ञान नहीं है तो हम शब्द का सम्यगअर्थबोध नहीं कर सकते । ब्रह्म की भाँति शब्द अनेक रूप, अनेक अर्थ वाला है, अतः व्याख्याता को शब्द समग्र रूप का ज्ञान/परिज्ञान होना आवश्यक है, तभी वह शब्द के रूप में सुप्त अर्थ रूप ज्ञान ज्योति को प्रकाशित कर सकता है। . .
भोजन करते समय किसी ने अपने सेवक से कहा-'सैन्धवमानय ! सैन्ध वलाओ!' मूर्ख सेवक ने सिन्धु देश में जन्मा घोड़ा लाकर खड़ा कर दिया, क्योंकि 'सैन्धव' नाम घोड़े का भी है। स्वामी ने कहा-मूर्ख ! अभी तो मैं भोजन करने बैठा हूँ, भोजन में नमक नहीं है, इसलिए सैन्धव नमक लाने को कहा और तूने घोड़ा लाकर खड़ा कर दिया।
तो शब्द का अर्थ-बोध करने के लिए देश-काल-परम्परा-दर्शन और मनोभावों का परिज्ञान होना भी आवश्यक है। 'शब्द' ब्रह्म को वही पहचान सकता है, वही व्याख्यात कर सकता है, जिसका अध्ययन और निरीक्षण चतुर्मुखी हो, जो बहुश्र त बहुअधीत हो । अन्यथा शब्द के अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।
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पासुत्तसमं सुत्तं अत्येणाबोहियं न तं जाणे
-बृह० भा ३१.
( १५५ )
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन
नई रचना/सर्जना करना एक स्वतन्त्र कला है, इसमें जन्मजात प्रतिभा की प्रधानता है, किन्तु अनुवाद करना एक कठिन कला है। इसमें शब्द शास्त्र का गम्भीर ज्ञान, आगम-इतिहास आदि विषयों का परिपूर्ण परिशीलन होना बहुत ही आवश्यक है। नवसर्जना से भी अनुवाद करना कठिन है। वास्तव में कुशल और सफल अनुवादक वही हो सकता है, जिसके ज्ञान की चतुःसीमा विस्तृत हो और अनुभव परिपक्व हो।
अनुवादक सिर्फ ट्रांसलेटर मात्र नहीं होता, वह शब्दों का व्याख्याकार भी होता है। शब्दों अर्थ और व्यंजन का गम्भीर ज्ञाता और उद्घाटक होता है, तभी वह अनुवाद्य ग्रन्थ के साथ के साथ सम्पूर्ण न्याय कर सकता है। साथ ही अनुवादक अनाग्रहवादी, तटस्थ विचारक और सम्यग्बोधि होना चाहिए । वह शब्दों में सुप्त अर्थ को अपनी मान्यता व धारणा का रंग नहीं देता, किन्तु शब्दों के सन्दर्भ को समझकर उसके पूर्वापर की परम्परा को ग्रहण कर उसका वास्तविक रूप निखारता है/उघाड़ता है। अनुवादक की बुद्धि और भाषा रंगीन बोतल नहीं होना चाहिए, जिसमें रखी प्रत्येक वस्तु बोतल के रंग में ही दीखने लगे, किन्तु उसकी बुद्धि और वाणी तो शुभ्र श्वेत शीशी होती है, जो वस्तु के असली रूप को दर्शाती है । यही अनुवादक की कुशलता-नीति निष्ठता और सम्यग्सम्बुद्धता है।
प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज के बौद्धिक व्यक्तित्व में यह विरल विशेषता है कि वे एक सृजनधर्मी कवयित्री हैं। काव्यकला उनको जन्मजात गुण के रूप में प्राप्त है। उनकी भक्ति-उपदेशवैराग्य प्रधान रचनाएँ बहुत ही ललित और जीवन्त प्रेरणा भरी हैं। उनका स्वर भी मधुर है, जो सोने में सुगन्ध कहा जा सकता है। वे संस्कृत-प्राकृत आदि भाषा की मर्मज्ञा हैं और न्याय-दर्शन आदि शास्त्रों की विदुषी हैं । किन्तु इसके साथ ही उनकी एक अन्य दुर्लभ विशेषता है, और वह है, अनुवाद-कुशलता।
प्रवर्तिनीश्रीजी की प्रज्ञा इतनी जागरूक है कि विषय को एक ही बार में गहराई से पकड़ लेती हैं और पदानुसारी बुद्धि की तरह एक ही शब्द को आधार बनाकर उसके पूर्वापर सन्दर्भ को सम्यग्रूप से ग्रहण कर लेती हैं । उन्होंने नई रचनाओं के साथ ही कई सुन्दर व उत्कृप्ट अनुवाद भी किये हैं, जो सम्पूर्ण जैन समाज में अध्यात्म-पिपासु पाठक वर्ग में समाहृत हुए हैं, उनके अनुवाद चाव से पढ़े जाते हैं और पाठक उनमें मूल ग्रन्थ का सा रसास्वाद पाकर बार-बार पढ़ता है । उसमें रस-विभोर हो जाता है। (१) अध्यात्म प्रबोध : देशनासार
प्रवर्तिनीश्रीजी द्वारा अनूदित रचनाओं में से कुछ रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं, जैसे अध्यात्म प्रबोधदेशनासार तथा द्रव्य-प्रकाश । ये दोनों ही ग्रन्थ खरतरगच्छ के विश्र त विद्वान प्रसिद्ध अध्यात्मवादी श्रीमद् देवचन्द्रजी की रचनाएँ हैं। श्रीमद् देवचन्द्रजी का जन्म बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम में लूणिया गोत्र में ही हुआ । उन पर पं० बनारसीदासजी आदि की अध्यात्मवादी रचनाओं का विशेष प्रभाव पड़ा। और उस युग में अध्यात्मप्रधान रचनाओं की विशेष आवश्यकता अनुभव कर उन्होंने अपनी लेखिनी उठाई और अनेक गम्भीर अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों की सर्जना की । उनकी भाषा में सहजता और अध्यात्म रसिकता की स्पष्ट झलक है । देशनासार, एक प्राकृत गाथा बद्ध ग्रन्थ है, इसमें मुख्यतः आत्मा, सम्यग्दर्शन, कर्म आदि गंभीर आध्यात्मिक विषयों की चर्चा है । लेखक ने स्वानुभव के आधार पर इन विषयों की बड़ी सुगम और हृदयस्पर्शी विवेचना की है। अध्यात्मविषयक यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है और अब तक अप्रकाशित ही थी। प्रसिद्ध विद्वान श्री अगरचन्द जी नाहटा ने इस कृति का अनुसन्धान किया और विदुषी
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प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का अद्भुत-अनुवाद-कौशल
१५७ आर्यारत्न श्री सज्जनश्रीजी महाराज ने इसकी स्वोपज्ञवृत्ति के आधार पर वि. सं. २०२५-२७ के मध्य इसका सुन्दर भावपूर्ण अनुवाद किया है । यह अनुवाद, अनुवाद ही नहीं, बहुत ही सुन्दर भावोद्घाटिनी व्याख्यायुक्त है । विदुषी आर्या श्रीजी ने अपने ज्ञान रस को शब्दों की कटोरियों में इस प्रकार परोसा है कि अध्यात्म रस का भूखा पाठक आनन्दपूर्वक पीता रहे, पीता रहे, तृप्ति का अनुभव करता रहे । अध्यात्मप्रधान विषय होकर भी विवेचन बहुत ही सरल और सर्वांग हैं। बीच-बीच में अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भ देकर आपने विवेचन को अधिक प्रामाणिक और परिपूर्ण बना दिया, यह आपकी बहुश्रु तता का स्पष्ट प्रमाण है । देशनासार-वास्तव में देशना (जिनप्रवचन) का सार है, नवनीत है।
(२) द्रव्य प्रकाश-- अध्यात्मवेत्ता श्रीमद् देवचन्द्र जी गणि की यह रचना द्रव्यानुयोग पर आधारित है । ब्रजभाषा में दोहा, सवैया, चौपाई, कुन्डलिया, चन्द्रायणा, कवित्त आदि छन्दों में निबद्ध है । यह ग्रन्थ तीन अधिकारों में विभक्त है, प्रथम अधिकार में षद्रव्य का विवेचन है, द्वितीय अधिकार में कर्म प्रकृतियों का तथा तृतीय अधिकार नय, निक्षेप, स्याद्वाद तथा षड्दर्शन की समीक्षा करते हुए जैनदर्शन की तर्क-युक्तिसंगत विवेचना है।
मूल काव्य ब्रजभाषा में होने से शब्दों को समझ पाना तो सरल है, किन्तु विषय बहुत गंभीर है । बिना जैनदर्शन व अन्य दर्शनों के अध्ययन के इस ग्रन्थ का विवेचन तो क्या, हार्द समझना भी कठिन है। इस विवेचन की स्पष्टता और सरलता से यह पता चलता है कि पूज्य प्रवर्तिनी श्री जी का ज्ञान सिर्फ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है, वह ज्ञान आत्मसात् हो चुका है, उनके हृदय के कण-कण में रम चुका है। इसलिए विवेचन करते हुए बड़ी सहज शब्दावली में बहुत ही सरलतापूर्वक वे उसके हार्द को अभिव्यक्ति देने में समर्थ हुई हैं।
इस छोटे से विवेचन में जैनदर्शन का सम्पूर्ण सार समा गया है। जो विषय हजारों पृष्ठों में लिखा जाता है, वह विषय विवेचन के सिर्फ ७०-७५ पृष्ठों में समा गया है । इसे ही हम 'सिंधु बिन्दु समाये' की कुशलता कह सकते हैं।
इन दोनों अनुवादों पर से पूज्य आर्या श्री जी की अध्यात्म एवं दर्शन विषय में गहरी पैठ और उसकी हृदयंगमता की स्पष्ट प्रतीति होती है।
शब्दों की सरलता और यथार्थ उपयोग उनके भाषाज्ञान का भी प्रमाण है । एक जैन साध्वी द्वारा किया गया यह विवेचन वास्तव में गौरव का विषय है और साध्वी समुदाय के वैदुष्य का ज्वलन्त प्रमाण है।
(३) कल्पसूत्र-भाषानुवाद :-“कल्पसूत्र" श्वेताम्बर जैन समाज की "रामायण" मानी जाती है । सम्पूर्ण जैन समाज में साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चतुर्विध तीर्थ में इस शास्त्र का सबसे अधिक पठन, पाठन, वाचन, श्रवण होता है। इस शास्त्र की सबसे अधिक व्याख्याएँ/अनुवाद छपे हैं । विविध प्रकार की साज-सज्जा से स्वर्ण-रोप्य चित्रमय, बड़े अक्षरों में सुनहले अक्षरों में छपे हुए इस शास्त्र की विविध प्रकार की प्रतियाँ देखकर सहज ही अनुमान होता है कि युग-युग से इस शास्त्र का सर्वाधिक महत्व रहा है । जिन प्रतिमा की भाँति ही यह शास्त्रराज भी जनता की श्रद्धाअर्चा का विषय बना हुआ है।
पर्युषण पर्व के दिनों में तो जैन मन्दिर-उपाश्रय-स्थानक आदि धर्म सभाओं में कल्पसूत्र का वाचन करना, एक प्राचीन परम्परा रही है, और आज भी इसका सजगता व उत्साहपूर्वक पालन होता है।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन
___ "कल्प" शब्द का एक अर्थ है, “आचार"। नियम व समाचारी सम्बन्धी मर्यादाएँ, जैसे स्थविर कल्प, जिनकल्प आदि । तथा “कल्प" शब्द का एक अर्थ है-इच्छित वस्तु प्रदान करने वाली दिव्य शक्ति, जैसे कल्पवृक्ष, कल्पद्र म ।
कल्पसूत्र-अपने दोनों ही अर्थों में सार्थक है। यह कल्पवृक्ष की भाँति दिव्य है । इच्छित फलमोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है, तो श्रमण जीवन की आचार-मर्यादा का दिग्दर्शन भी कराता है तथा साथ ही महापुरुषों, तीर्थंकर भगवन्तों के पवित्र चरित्र का वर्णन कर सभी वांछित फल प्रदान करने वाला शास्त्र है । संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-गुजराती-हिन्दी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में शताधिक संस्करण छप चुके हैं, फिर भी बराबर इसकी माँग रहती है। जनता की मांग व युग की आवश्यकता को देखकर कलकत्ता के श्री जिनदत्त सूरि सेवा संघ, तथा स्थानीय धर्मप्रेमियों की प्रार्थना पर पूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. ने वि० सं० २००६ में इसका सरल हिन्दी अनुवाद विवेचन तैयार किया था। यह विवेचन-अनुवाद खरतरगच्छीय उपाध्याय श्री लक्ष्मीबल्लभ गणि कृत कल्पद्र मकलिका के आधार पर किया गया है। उसकी कृति का यह एक स्वतन्त्र अनुवाद है।
जैसा कि प्रारम्भ में मैंने कहा है-अनुवाद करना, मौलिक रचना से भी कठिन है, इसमें मूल ग्रन्थकार (शास्त्रकार) की भावना, उनका उद्देश्य और तत्कालीन समाज में प्रचलित शब्दों के अर्थ को समझना बहुत ही महत्व का है।
दो हजार वर्ष पुराने शास्त्र का अनुवाद करते समय दो हजार वर्ष पुरानी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, इतिहास, लोकाचार और दार्शनिक मान्यताओं का यदि ज्ञान नहीं है तो अनुवादक मूल शास्त्र के साथ न्याय नहीं कर सकता। अनुवादक विशेषज्ञ और कुशलप्रज्ञ होना चाहिए। यह सब विशेषता प्रवर्तिनीश्रीजी कृत अनुवाद पढ़ते समय स्वयं सजीव देखी जाती हैं। अनुवाद पढ़ते समय मूल शास्त्र पढ़ने का आनन्द अनुभव होता है । कहीं ऊब, ऊलझन नहीं, दुर्गमता नहीं और दुर्बोधता भी नहीं। ऐसा लगता है, नंदनवन की सीधी सपाट स्निग्ध धरती पर विचरण कर रहे हैं।
__ कल्पसूत्र जैसे विशाल शास्त्र का अनुवाद अनुवादक की दृढ़ इच्छा शक्ति, निष्ठा, तन्मयता और एक कार्य में जुटकर उसे पूर्ण कर देने की प्रबल आत्मशक्ति का द्योतक है।।
___इसकी भाषा प्राञ्जल है । मूल पाठ का भावग्राही अनुवाद इतना सरल है कि फिर उसकी परिभाषा बताने की, व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं लगती। चूंकि यह शास्त्र प्रवचन का विषय है । इसलिए इसकी भाषा को सहज जनबोध्य रखना अनुवादक की समयज्ञता और जनरुचि का आदर करना ही माना जायेगा।
भारत की एक प्राचीन परम्परा जहाँ स्त्री को वेद पढ़ने के अधिकार से ही वंचित रखती है और आज भी कुछ परम्पराएँ स्त्री को शास्त्र-पढ़ने के अधिकार देना नहीं चाहतीं । ऐसी स्थिति में एक विदुषी साध्वी (नारी) इतने महत्वपूर्ण शास्त्र की इतनी सुन्दर विवेचना, और व्याख्या करती है, यह भारतीय संस्कृति के गौरव में चार चांद लगाने वाला विषय है । जैन परम्परा की समत्व भावना का यह स्पष्ट उद्घोष है, और इस परम्परा की उदारता, गरिमा का अखण्ड मण्डन है, जो युग-युग तक शोभास्पद बना रहेगा।
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आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना
-डॉ0 नरेन्द्र भानावत
(जयपुर) काव्य और अध्यात्म का गहरा सम्बन्ध रहा है। दोनों का उद्देश्य रस-दशा की प्राप्ति है। . रस-दशा वह दशा है, जहाँ तमस और रजस गुण तिरोहित हो जाते हैं और सात्त्विक गुणों का उद्रेक होता है । यह दशा हृदय की मुक्त अवस्था है, जहाँ सुख-दुःख से परे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है। काव्यशास्त्रियों ने रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा है और अध्यात्म साधक तो ब्रह्मलीन अवस्था में रहता ही है। जब अध्यात्म साधक अपनी अनुभूति को शब्द का रूप देता है तब जो काव्य का सृजन होता है, उसका आनन्द हृदय की मुक्त दशा का आनन्द ही है। यहाँ न राग रहता है, न द्वेष । आर्यारत्न सज्जनश्रीजी इस काव्य-पथ की अध्यात्म साधिका हैं।
हिन्दी साहित्य में भक्ति काव्य का विशेष महत्व है। अपने आराध्य के प्रति निश्छल समर्पण और विनम्र आत्म-निवेदन भक्ति-चेतना का मूल तत्त्व है। भक्ति-काव्य को समृद्ध करने में पुरुष-भक्त के साथ-साथ स्त्री भक्त कवयित्रियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। निर्गुणधारा की कवयित्रियों में दयाबाई, सहजोबाई, रूपादे, उमाबाई, सरूपाबाई, गबरीबाई आदि प्रसिद्ध हैं तो सगुणधारा की कवयित्रियों में कृष्ण भक्ति शाखा के अन्तर्गत मीराबाई, सोढ़ानाथी, छत्रकवरीबाई, सम्मानबाई, सौभाग्यकुवरी आदि के नाम हमारे सामने आते हैं तो राम-भक्ति शाखा के अन्तर्गत प्रतापकुंवरी, रत्नकंवरी और चन्द्रकलाबाई के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। डिंगल परम्परा की कवयित्रियों में झीमा चारणी, पद्मा चारिणी, चम्पादे रानी आदि प्रसिद्ध हैं ।
कृष्ण और राम को आराध्य बनाकर अपने भाव-पुष्प समर्पित करने वाली कवयित्रियों के समानान्तर ही वीतराग प्रभु ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, श्रमण भगवान महावीर आदि तीर्थंकरों एवं सामान्य रूप से जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में अपनी भक्ति-वन्दना निवेदित करने वाली साध्वी परम्परा की कई कवयित्रियाँ हुई हैं। उनमें गुण-समृद्धि, महत्तरा, विनयचूला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्यासिद्धि, हरकुबाई, हुलासाजी, सरूपाबाई, जड़ादजी, आर्या पार्वताजी, भूरसुन्दरीजी, रत्नकुंवरी आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इसी परम्परा में आर्यारत्न सज्जनश्रीजी का विशेष स्थान है।
___ आर्या सज्जनश्रीजी बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैं। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषाओं पर आपका अच्छा अधिकार है। आगम एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थों का आपने गहरा अध्ययन किया है और उनकी व्याख्या-विवेचना में भी अच्छी सफलता प्राप्त की है। आप हृदय से कोमल, स्वभाव
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन
से मधुर हैं। आपकी कोमल और माधुर्य भावना कविता के स्वरों में फूट पड़ी है । 'ज्ञान पुष्पांजलि', 'श्री जैन गीतांजलि', 'सज्जन-विनोद' आदि नाम से आपकी कविताओं के लघु संकलन प्रकाशित हैं। आपकी समस्त रचनाओं का एक प्रतिनिधि संग्रह प्रकाशनाधीन है।
आपकी कविताएँ प्रधानतया मुक्तक रूप में हैं। इन्हें पद या गीत कहना अधिक उपयुक्त होगा। इन मुक्तकों के दो प्रधान भेद किये जा सकते हैं। स्तुतिपरक मुक्तक तथा वैराग्यप्रधान उपदेशात्मक मुक्तक । स्तुतिपरक मुक्तक के दो प्रकार हैं-एक जिनस्तुति या तीर्थंकर-भक्ति और दूसरा गुरु-स्तुति या गुरु भक्ति । जिन-स्तुति में सामान्य रूप से उन जिनेन्द्र भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति व्यक्त की गयी है, जिन्होंने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर अखण्ड आनन्द स्वरूप मुक्ति प्राप्त कर ली है। जो अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल-पराक्रम के धारक हैं, जो क्षमासागर, करुणासागर
और परम दयालु हैं। जिनका सत्संग और सान्निध्य अपार शांति, असीम सुख और दिव्य आनन्द प्रदान करता है। वे जिनेन्द्र भगवान् जिन्होंने लोक-कल्याण के लिए तीर्थ की स्थापना कर धर्म-चक्र प्रवर्तन किया है, वे "तीर्थंकर" कहलाते हैं। ऐसे तीर्थकर २४ माने गये हैं। इनकी स्तुति और महिमा में लिखे मये स्तवन "चौबीसी" नाम से प्रसिद्ध हैं। देवचन्द्रसूरि, यशोविजय, आनन्दघन जैसे अध्यात्म-महापुरुषों की 'चौबीसी संज्ञक' रचनाएँ अत्यन्त लोकप्रिय हैं। साध्वी सज्जनश्रीजी ने भी २४ तीर्थंकरों की स्तुति में 'चौबीसी' लिखी है। इसमें आपके हृदय की विनय और समर्पण भावना अभिव्यक्त हुई है। कवयित्री इनके दर्शन, पूजन और मिलन के लिये उत्कंठित है :
“वीर प्रभु दर्शन दो बिन दर्शन दुःख पाऊँ... (स्थायी) मुझ को दर्शन लगता प्यारा, जिससे दुःख जाता है सारा,
नित उठ मन्दिर जाऊँ..." ||१॥ मोहन मुख के दर्शन जिस दिन, भगवन् होते नहीं हैं उस दिन,
दिन भर मैं पछताऊँ....." ॥२॥ जिस दिन दर्शन करती तेरा, जीवन धन्य मानती मेरा,
अनुपम सुख को पाऊँ.....।।३।। प्रतिदिन दर्शन होवे मुझको, सदा करूं मैं वन्दन तुझको,
___"सज्जन" तव यश गाऊँ"" ॥४॥ तीर्थकर स्तुति में कवयित्री ने भगवान् महावीर, पार्श्वनाथ एवं नेमिनाथ के प्रति विशेष पद लिखे हैं। महावीर जयन्ती एवं महावीर निर्वाण दिवस (दीपावली) के प्रसंग पर भी कई गीत लिखे हैं, जिनमें महावीर की जीवन-साधना से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने का आह्वान है। नाम-स्मरण पर बल देते हुए कवयित्री कहती है
"वीर-वीर मन रट ले, प्रभु वीर हरें सब पीर,
जिनका नाम है महावीर, उनका आभारी जग सारा ।।१।। उनके तेजस्वी प्रभामण्डल को देखकर कवयित्री उस पर मुग्ध हैं :
जब से देखी है अदा, उस प्यारे की, सूरत आँखों में बसी, दुनिया के उजारे की ॥१॥ है दिल में तमन्ना फखत, 'सज्जन' को इतनी, सूरत दिखला दे कोई, जीवन के सहारे की ॥२॥
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आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना
कवयित्री वीर प्रभु के चरणों में सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत है :
एक बार जो नाथ निहालू, प्रेमाश्र नीर से चरण पखालू,
तन-मन-धन सब अर्पण कर दूं, प्रभु तब पद-पूजन में ॥१॥ कवयित्री पार्श्वनाथ से अनुनय-विनय करती है कि वे उसकी नैया को पार उतार दें। वह उनके दर्शन के लिए उत्कंठित है। उनका दर्शन चन्द्रमा की तरह शीतल और सूर्य की तरह अन्धकार को हटाने वाला है
तुम दर्शन है शरद् चन्द्रिका, शीतलता का झरना, रोग, शोक संताप मिटावे, जरा, जन्म और मरना । तुम दर्शन है ज्ञान दिवाकर, तिमिर हटावे मन का,
हो उद्योत ज्योति इक झलके, मिले सुफल जीवन का ॥१॥ कवयित्री पार्श्वनाथ के सौन्दर्य पर मुग्ध है :
मन मोहनगारा, पार्श्व जिनन्द लागे प्यारा, सांवरी सूरत लागे प्यारी, निरख मन मोद अपारा,
मन"""॥१॥ मस्तक मुकुट कर्ण कुण्डल द्वय, गल बिच मौक्तिक हारा,
मन "॥२॥ चिन्ताचूरन वांछापूरण, चिन्तामणि विरुद तुम्हारा,
मन"""॥३॥ नेमिनाथ के प्रति राजुल के माध्यम से कवयित्री ने अपने जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध जोड़ा है। पशुओं के क्रन्दन से पसीज कर नेमिनाथ तोरण मे लोट पड़ते हैं और संन्यस्त हो आत्म-साधना में लग जाते हैं। राजुल विरह-व्यथित हो उठती है
सखी ! सुन तू बात हमारी, विरहा जियरा जलाय,
जाऊँ मैं भी संग पिया के, उन बिन कुछ न सुहाय । वर्षा ऋतु में यह वियोग असह्य बन जाता है। जलधारा तीर-सी चुभती है। पपैया का पीऊपीऊ का स्वर हृदय को विदीर्ण करता है। कोयल की कुहू कुहू हृदय में हूक उठाती है। वह सखी से अनुनय-विनय करती है :
मुझे नेमि पिया से मिला दो सखी........ । नयन युगल यह प्यासे दरश के, इन्हें दर्शन नीर पिलादे सखी ।।१।। मैं दुखियारी पिया के विरह में, मरती हूँ मुझको जिला दे सखी ॥२॥ हाथ जोड़ तेरे पैंया पड़त हूँ, मेरे प्रियतम को दिखला दे सखी ॥३॥
कैसे मनाऊँ मैं रूठे पिया को, कोई ऐसी रीति सिखादे सखी ॥४॥ कवयित्री के लिये नेमिनाथ ही मन-मन्दिर के देव हैं। वह उन्हें उपालम्भ भी देती है। राजुल के माध्यम से विरहानुभूति का जो वर्णन है, वह कवयित्री की आध्यात्मिक भावलीनता का प्रतीक है ।
कवयित्री अपनी लघुता, कर्म-मलिनता और अपने आराध्य को महानता एवं वीतरागता का वर्णन कर अपनी शरण में लेने के लिये उनसे आत्म-निवेदन करती है :-- खण्ड १/२१
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खण्ड १ | जीवन-ज्योति : कृतित्व दर्शन तू शिववासी, मैं जगवासी अन्तर बहुतेरा रे, तेरे और मेरे बीच में, अन्तर बहुतेरा रे।
कैसे"..""॥१॥ वीतराग तू मैं हूँ सरागी कर्मों ने घेरा रे, मुझको तो प्रभु अशुभ कर्मों ने घेरा रे ।
कैसे....."२॥ सुख सिन्धु भगवान तुम्ही हो, मिटा दो फेरा रे, भव-भव का प्रभु जल्दी मिटा दो फेरा रे।
कैसे..."॥३॥ स्तुतिपरक मुक्तकों में कवयित्री ने तीर्थंकरों के अतिरिक्त अपने दादा गुरुओं श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि, श्री जिनचन्द्रसूरि आदि के प्रति अपनी गुरु-भक्ति व्यक्त करते हुए उनके तपस्वी, संयमी जीवन और धर्म प्रभावक व्यक्तित्व की अभिवन्दना की है। उनकी पूजा-अर्चना में कवयित्री भक्ति को केसर, शुभ भाव का चन्दन, निर्मल मति का कपूर, स्नेह के फूल चढ़ाती है। श्रद्धा के अक्षत, शुद्ध मनोबल के श्रीफल और सद्ज्ञान रूपी दीपक की जोत से उनकी पूजा करती है। यह भाव-पूजा कितनी भव्य और दिव्य बन पड़ी है।
गुरुदेव तुम्हारे पूजन को, एक तेरा पुजारी आया है, पद कमलों के प्रक्षालन को, नयनों में वारी लाया है....(स्थायी) तब अचल भक्तिमय केशर है, शुभ भाव का चन्दन शीतल यह, निर्मल मति का कपूर मिला, तेरे चरणों पे चढ़ाया है.....॥ १॥ ये स्नेह भरे वर सुमन प्रभो, अंजलि में ले आया ले लो, और अशुभ विचार की धूप जला, सुविचार सुगन्ध फैलाया है"॥ २ ॥ सद्ज्ञान ज्योतिमय दीपक है, जिससे निज पर का भेद दिखा, श्रद्धा के उज्ज्वल अक्षत ले, सुन्दर स्वस्तिक यह रचाया है"""।। ३ ॥ तप संयम शील क्षमा मृदुता के नैवैद्य बने हैं रुचि कर ये,
विशुद्ध मनोबल श्रीफल ले, वांछित फल पाने आया है".""॥ ४ ॥
दादा गुरुओं के अतिरिक्त अपने गुरु श्री हरिसागरजी म. सा०, पूज्य आचार्यश्री आनन्दसागरजी मसा०, श्रीकवीन्द्रसागर जी मसा०, श्रीसुखसागरजी म. सा., श्रीकांतिसागरजी म.सा०, श्रीउदयसागर जी म.सा०, श्री मणिप्रभसागरजी म.सा० आदि के प्रति भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये हैं। इन मुक्तकों में कवयित्री की गुरुभक्ति और विनय-भावना प्रकट हुई है । आर्या सज्जनश्रीजी ने अपनी गुरुणी ज्ञानश्रीजी, उपयोगश्रीजी, स्वर्णश्रीजी, पुण्यश्रीजी एवं जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी का गुणानुवाद भी किया है।
स्तुतिपरक मुक्तकों के अतिरिक्त जो उपदेशात्मक मुक्तक लिखे गये हैं, उनमें शरीर की नश्वरता, जग की अनित्यता का चित्रण करते हुए चंचल मन पर नियंत्रण करने, मोह रूपी निद्रा से जागने, क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषायों पर विजय प्राप्त कर क्षमा, विनय, सरलता और संतोष धारण करने की प्रेरणा दी गयी है । इन मुक्तकों में सुमति-कुमति का मानवीकरण कर चिदानन्द को सचेत किया गया है कि वह कुमति का साथ छोड़कर सुमति को अपनाये । सुमति के वरण से ही नये समाज की और संसार की
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आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना रचना संभव है । कवयित्री के मन में जो नये संसार को रचने की भावना है, वह संसार ऐसा है, जिसमें अपने-पराये का भेद नहीं, जहाँ दुःख, ईर्ष्या और तृष्णा नहीं, सभी से मैत्री और प्रेम है
एक नया संसार बसाऊँ, एक नया संसार."(स्थायी) भेद न हो जहाँ अपने पर का, कौन पराया कौन है घर का,
हो समान व्यवहार, बसाऊँ""""॥ १॥ दुःख का जहाँ लेश न हो, ईर्ष्या तृष्णा क्लेश न हो,
हों सुखी सभी नरनार, बसाऊँ ॥२॥ सभी जनों से मित्रता हो, नहीं किसी से शत्रुता हो,
हो सबमें प्रेम प्रचार, बसाऊँ..."।। ३ ।। आनन्दमय जीवन हो सारा, ज्ञानोपयोग का हो उजियारा,
___ "सज्जन" मन के विचार, बसाऊँ ।। ४ ।। यह सही है कि कवयित्री का मन प्रभुभक्ति और गुरुभक्ति में ही अधिक रमा है। तथापि भक्ति के मूल में निहित सामाजिक चेतना से वह बेखबर नहीं है । भक्ति और पूजा के नाम पर व्याप्त आडम्बर, नामवरी, पद, प्रतिष्ठा उसे स्वीकार्य नहीं । पूजा के नाम पर क्रियाकांड होता रहे औरप्रभु-भक्ति के माध्यम से यदि गरीबों के प्रति प्रेम नहीं उमड़ता, अपने-पराये का भेद नहीं मिटता, मन का राग-द्वेष कम नहीं होता, देहासक्ति मिटती नहीं तो वह भक्ति और पूजा किस काम की ?
दर्शन करें पूजन करें बारह व्रतधारी बनें। पर गरीब जन का खून चूसना, नहीं गया पर नहीं गया."॥ १॥ लाखों रुपये दान करते, दानी बने हैं कर्ण से। पर अपने नाम का मोह हृदय से, नहीं गया पर नहीं गया".."।। २ ।। धन-माल व परिवार सब सुख भोग तज साध बने । पर अपने-पर का भेद भाव तो, नहीं गया पर नहीं गया....."॥३॥ पोसह सामायिक नित करें, तपस्या भी करती खूब हैं । पर विकथा करना धर्मस्थान में, नहीं गया पर नहीं गया ॥ ४ ॥ विद्वान बन वक्ता बने, धर्मोपदेशक बन गये, अपने मन से रागद्वेष का भाव जरा भी, नहीं गया पर नहीं गया ।। ५। स्वाध्याय जप और ध्यान करते, अध्यात्म योगी बन गये, पर “सज्जन" कहे निज देहाध्यास तो, नहीं गया पर नहीं गया ।। ६ ।।
इन भक्तिपरक रचनाओं में कवयित्री ने ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग को विशेष महत्व दिया है :
१. शुभ उपयोग महा प्रतिक्षण बरतू', जीवन सफल बनाओ रे ।
"सज्जन" मननी ऐ अभिलाषा, शिवसुख भोगी बन जाओ रे । २ शुभ उपयोग में रमण करूं नित, “सज्जन" मांगे जिनन्द । ३. दर्शन ज्ञान चरणनी साधना रे, “सज्जन" करसे भव पार !
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन मुक्तकों के अतिरिक्त कवयित्री ने 'कथा गीतिकाएँ' नाम से जो रचनाएँ लिखी हैं, उनमें गीतों के रूप में कथा कही गयी है । उन कथाओं में राजकुमारी प्रभंजना, महारानी सीता, सती शिरोमणि अंजना, सती मगायती, सती मदनरेखा, सती ऋषिदत्ता आदि का आख्यान गाया गया है। इनमें नारी के सतीत्व, शौर्य, शील, तप, संयम, कष्ट-सहिष्णुता, पतिव्रत धर्म, त्याग, समर्पण जैसे उदात्त जीवन मूल्यों को उजागर किया गया है। यहाँ नारी अबला बनकर नहीं, सबला बनकर, शक्ति बनकर प्रकट हुई है । नारी दैहिक शृंगार की आलम्बन नहीं, आत्मिक शृंगार की माधुर्यमयी मूर्ति और उत्सर्गमयी स्फूर्ति है।
यथाप्रसंग कवयित्री ने नव पद आराधना, तपस्या, अक्षय तृतीया, नन्दीश्वरद्वीप, पयुर्षण आदि के सम्बन्ध में भी गीत लिखे हैं । इन गीतों में संबद्ध विषय के महत्व और आराधना-विधि को स्पष्ट किया गया है।
कवयित्री के भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों में सहजता, सरलता और सहृदयता की रक्षा हई है। कवयित्री की भाषा सरल और बोधगम्य है । उसमें राजस्थानी और गुजराती का मिश्रित स्वाद है। भावों को अनुभूति के स्तर पर व्यक्त किया गया है। कारीगरी और कलाबाजी से कवियत्री दूर रही है। अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए यथाप्रसंग सादृश्यमूलक अलंकारों का विशेष प्रयोग हुआ है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं:
रूपक
प्रभु दर्शनरवि जब उदय हुआ, महामोह-तिमिर का विलय हुआ। होली रूपक
ज्ञान की गुलाल उड़ाकर, प्रभुजी की पूजा रचाओ। भक्ति भावना के जल से भरकर, सुमन पिचकारी चलाओ। ध्यान-वह्नि प्रज्वलित कर मन में, षोडश कषाय जलाओ । नोकषाय और मोहनीत्रिकसह, मोह को मार भगाओ।
शुद्ध समकित प्रकटावो। ऐसी होरी मनाओ, सखी नित प्रभ गुण गावो ।।
उपमा
जो एक रूप और एक रस बनकर, प्राणेश्वर ! तब पद-पंकज में । मधुकर सा मोहित सदा रहा, उस मन को नाथ सताया क्यों ?
तन मन से थे एक रूप ही, जैसे दूध और पानी, क्षण भर भी नहीं दूर थे रहते, समझी आज विरानी।
उत्प्रेक्षा
मरकट ज्यों रहता है उछलता, कूदत डाली-डाली, पकड़-पकड़ कर रखने पर, भग जाता दे ताली रे।
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आर्या सज्जन श्रीजी की काव्य-साधना.
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आर्या सज्जनश्री की काव्य - साधना का महत्वपूर्ण पक्ष है उसका संगीत तत्व | काव्य सर्जना का उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन न होकर अपने कथ्य को सहज, बोधगम्य और लोकभोग्य बनाना है । इसी उद्देश्य से कवयित्री ने पारम्परिक मात्रिक, और वार्णिक छन्दों का उपयोग न कर लोक जिह्वा पर तैरने वाली राग-रागिनियों का प्रयोग किया है । कतिपय राग शास्त्रीय राग हैं - यथा - भैरवी, मांड, सोरठ, आसावरी आदि । कतिपय राग लोक गीतात्मक राग हैं, जिनकी तर्ज है:
पंथडो निहालूं रे, तावड़ो धीमी पड़ जा । नखराली ऐ मूमल, हालोनी झट,
केसरिया कामणगारो आदि ।
अधिकांश रागें और तजें फिल्मी हैं यथाः - "आजा मेरी बरबाद, नगरी नगरी द्वारे द्वारे, राजा की आयेगी बारात, मन डोले मेरा तन डोले, जादूगर सैंया छोड़ मेरी बहिया, जब तुम ही चले परदेस, बिगड़ी बनाने वाले, सारी-सारी रात तेरी याद, जिया बेकरार आदि ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कवयित्री सज्जनश्री की काव्यसाधना में उनका आध्यात्मिक अनुभव समाया हुआ है । भावुक भक्त और लोक संगीतकार के रूप में आप अपनी काव्य-स्थली में प्रतिठित प्रतीत होती हैं । नारी को कोमलता, मधुरता, भावुकता और विह्वलता का करुण सौन्दर्य और मन को दिव्य आलोक से मंडित करने वाला माधुर्य पाठक को और श्रोता को एक साथ अभिभूत करता चलता है । कवयित्री अपनी भक्ति सुरभि जन-जन को सदा बांटती रहे यही मंगल कामना है ।
--सी, २३५ - ए, त्रयानन्द मार्ग,
तिलकनगर, जयपुर -४
- सज्जन वाणी
१. ईर्ष्यादि दुर्गुण अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों के मूल कारण हैं । जब तक ये दुर्गुण नहीं निकलते हैं तब तक औषधियाँ कुछ नहीं कर सकती ।
२. बड़े-बड़े डाक्टरों का अभिमत है कि मानसिक असन्तुलन समस्त व्याधियों का प्रमुख कारण है ।
३. मनुष्य जैसा सोचता है, चिन्तन करता है, उसी के अनुरूप वह बनता है अतः सोच और चिन्तन विशुद्ध, आदर्शमय होने आवश्यक हैं । इसके लिए उत्तम महापुरुषों, सन्त महर्षियों द्वारा रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए ।
४. कहा जाता है कि ज्ञान सीखने पर ही आता है किन्तु यह बात एकान्त नहीं । क्योंकि अन्तर् स्फुरण भी एक वास्तविक कारण है । यह नहीं हो तो मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता ।
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एक सफल अनुवाद-करयित्री : आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री म०
-साहित्यश्री डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम० ए० (स्वर्णपदक प्राप्त), पी-एच० डी०, डी० लिट०
एक भाषा में उपलब्ध पाठ सामग्री को दूसरी भाषा की समतुल्य पाठ सामग्री में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया और परिणति-विशेष अनुवाद है। रूपान्तरण की इस प्रकृष्ट प्रक्रिया में अनुवाद-कर्ता को उस अनुभव के दौर से गुजरना होता है जिस अनुभवों के पड़ावों से होकर स्रष्टा-लेखक की लेखनयात्रा सम्पन्न हुई होती है । अपने इस महनीय प्रयत्न में अनुवादक को लेखक की मानसिक पर्तों को चीरतेविश्लेषित करते हए गहरे और गहरे पैठना होता है । साथ ही उसे सम्पूर्ण मनो प्रक्रिया को पुनः सृजित करना होता है । अनुवाद दो प्रकार से किया जाता है-एक तो जो है, उसे ज्यू का त्यूँ रूप देना; दूसरा वह, जो मूल पाठ है उसमें समाहित 'साहित्य रस' को धूमिल-मलिन न करते हुए उसकी अर्थवत्ता-प्राणवत्ता को रूपायित-शब्दायित करना होता है। अनुवाद समतुल्यता की साधना है। इस समतुल्यता की सिद्धि जितनी अधिक होगी अनुवाद उतना ही सुष्ठु और सफल होगा। यह अपने में तथ्यपूर्ण है कि शब्दों की अर्थच्छायाओं, अर्थच्छवियों तथा अभिव्यक्ति की वक्रताओं/श्लिष्टताओं के एवं वाक्य-रचना-वैभिन्न्य के अनेक बाधा-बन्धनों के कारण हम जिसकी उपलब्धि अनुवाद में कर पाते हैं वह अन्ततोगत्वा सन्निकटन (Approxination) ही होता है । यह सन्निकटन आदर्श तो हो सकता है, यथार्थ कदापि नहीं ।
आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री महाराज एक विदुषी साधिका हैं । आपका व्यक्तित्ववक्तृत्व कला से अभिमण्डित है। आप गीतार्थ, आगमज्ञ और परमशान्त उज्ज्वल चरित्रवान हैं। आप लेखिका हैं और हैं एक कवयित्री । आपश्री हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, राजस्थानी आदि भाषाओं की प्रखर पण्डिता हैं । आपने पुण्य-जीवन-ज्योति, सज्जन विनोद, कुसुमांजली, गीताञ्जली, पुष्पाञ्जली आदि का प्रणयन किया है । श्रीमद् देवचन्द्रजी कृत देशनासार एवं कल्पसूत्र लक्ष्मीवल्लभी टीका का अनुवाद किया है । श्री जिनकुशलसूरि विरचित 'श्री चैत्यवन्दन कुलक-वृत्ति' का हिन्दी अनुवाद भी आपश्री की सशक्त लेखनी से हुआ है। प्राकृत भाषा में लिखित 'श्री चैत्यवन्दन कुलक-वृत्ति' नामक कृति में जैन श्रावक-श्राविकाओं के कर्तव्य, आचार-विचत्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । अनुवादिका साध्वीश्री इस कृति की अनूठी पाठ-सामग्री से, उनके स्वरूप से जुड़ी हुई हैं। उनकी भाषा में तरलता, सुकुमारता, श्लिष्टता और मार्दव भाव समाहित है । मूल कृति शास्त्र है, बौद्धिक और विचारात्मक है
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एक सफल अनुवाद -करियत्री आर्यारत्न प्रवर्तिनीश्री सज्जन श्री म०
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लेकिन साध्वीजी ने चौबीस कथाओं का समायोजन कर अनुवाद रचना को जीवन्त रुचिवन्त बना दिया है । महान कवियों की रचनाओं की हर युग में नये-नये अर्थ और नई-नई व्याख्ताएँ होती हैं । अनुवादिका इस कृति के मूल लेखक के मन्तव्य को भली-भाँति आत्मसात् करके उसमें साधारण से साधारण शब्दों at भी अपने अभिनव प्रयोग-कौशल से एक असाधारण अर्थ और चमक देने में सफल सिद्ध हुई हैं । काव्य, कथा और शास्त्र का अद्भुत संगम लिए यह कृति अनुवाद की समतुल्यता के गुण से अभिमण्डित है । मूलकृति के नियतार्थ और निश्चयार्थ सीमा को अनुवादिका ने अपने अनुवाद - कौशल से उसकी काव्य भाषा की अक्षमता को विस्तीर्ण और असीम बना दिया है। साध्वीश्री के इस कौशल का एक नमूनानिदर्शन दृष्टव्य है-
'खीरं दहि नवणीयं घयं तहा तिल्लमेव गुड़मज्जं, महु मंस चेव तहा उग्गहिमगंच विगइओ ।
क्षीर-दूध, दही, नवनीत मक्खन, घृत, तेल, गुड़, शक्कर, मद्य, मधु, माँस, हिमग - पक्वान्न ये दस उग्र विकृति मानी जाती हैं। इनमें से चार- मद्य, माँस, मधु और नवनीत तो सर्वथा ही अभक्ष्य हैं । शेष छह - दूध, दही, घृत, तेल, मिठाई, पक्वान्न अर्थात् तली हुई खाद्य सामग्री - मोदक, बर्फी आदि मिष्ठान्न, मालपूये, पूरी, कचौरी, बड़े-पूवे, बड़े पकौड़ी, समोसे, कोफ्ते तथा तले हुए पापड़, पपड़ी, सलेवड़ेपीले खीचे, दालमोठ, चिउड़ा, चने की दाल, मूँग, उड़द तले हुए छोले चने, मूँगफली, बादाम, पिस्ते, काजू इत्यादि भी पक्वान्न माने जाते हैं । उत्कृष्ट से तो तनी हुई रोटी, पराँवठे, चिलड़े-घारड़े- उल्टे आदि भी पक्वान्न ही की गिनती में हैं ।" (पृष्ठ १२१ )
उक्त नमूने से स्पष्ट है कि उपरि-विवेचित अनुवाद के दूसरे प्रकार का व्यवहार साध्वीश्री ने इस अनुवाद कृति में सफलता के साथ किया है जिससे मूल कृति में निहित 'साहित्य रस' भी नष्टविनष्ट नहीं हुआ है अपितु सन्त अनुवादिका ने अपने अनुभव और अभिज्ञान का भी भरपूर उपयोग और लाभ उठाते हुए उसमें अभिव्यञ्जित अर्थच्छायाओं - अर्थच्छवियों को मूर्त रूप दिया है । इस प्रकार भाषा की संप्रेषणीयता, अर्थमत्तता और रोचकता का समाहार विवेच्य अनुवाद कृति में हुआ है । (अनुवाद की उक्त प्रवृत्तियों से अनुप्राणित विवेच्य कृति परिप्रेक्ष्य में आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री महाराज एक सफल अनुवादिका प्रमाणित होती हैं। शुभम् !
मंगल कलश
३६४, सर्वोदयनगर,
आगरा रोड, अलीगढ़
२०२००१ ( उ० प्र०)
- सज्जन वाणी
१. आवेश, आवेग, उत्तेजना, आक्रोश मनुष्य की चिन्तन प्रणाली को नष्ट कर देते हैं ।
२. छिपा हुआ आक्रोश, दुर्भावना, डाह, निन्दा, चुगली, आदि के रूप में प्रकट होकर स्वयं को जलाते ही हैं, साथ रहने वाले व्यक्ति भी सुखी नहीं रहते ।
३. ईर्ष्या, द्व ेष, आदि दुर्गुणों से ग्रसित मनुष्य स्वयं को तो दुःखी करते ही हैं, दूसरों के लिए भी सिरदर्द बन जाते हैं ।
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एक श्रेष्ठ जीवन चरित "पुण्य जीवन ज्योति”-अवगाहन
--महावीर प्रसाद अग्रवाल
(व्याख्याता : हिन्दी
एम. एस. जैन वरिष्ठ उ० मा० विद्यालय, जयपुर) जिनकी कीर्ति का कल गान हम निरन्तर अपने पूज्य गुरुजनों, श्रद्धेय परिजनों, सहमार्गी साथियों और सुविख्यात सामाजिकों से सुना करते हैं तथा जिनके दर्शन, स्पर्शन एवं सेवा का सौभाग्य हमें नहीं मिला है, उनके विषय में साधिकार कुछ लिखना कठिन कार्य है, एक ऐसी चुनौती है जिसे स्वीकार करने का साहस विरले ही नर-रत्न कर पाते हैं । खरतरगच्छ सम्प्रदाय की महत्तरा साध्वीरत्न स्व. श्रीमती पुण्यश्री जी महाराज साहब की जीवन कथा का आलेखन भी एक ऐसा ही दुसाध्य कार्य था, जिसे सम्पन्न करने का सुयोग मिला उनकी प्रशिष्या साध्वी श्रेष्ठ श्रीमती सज्जनश्रीजी महाराज साहब को ।
पूज्य पुण्यश्रीजी महाराज साहब परम त्यागी, चारित्रनिष्ठ, निरभिमानी, करुणासिक्त, धीर-प्रशान्त, प्रभावशालिनी, विदुषी साध्वीरत्न थीं। वे आत्मविकास की उस श्रेणी पर पहुँची हुई साध्वी श्रेष्ठा थीं जहाँ आत्मज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गण विशद बनने की भूमिका पर होते हैं। उनमें शास्त्रोक्त वे सभी गुण विद्यमान थे, जो साधक जीवन के लिए अनिवार्य माने जाते हैं। परोपकार की पुनीत सौरभ से सुवासित उनका जीवन चरित्र प्रत्येक के लिए आदरणीय, अनुकरणीय और आचरणीय है । लेखिका ने अपने लेखन कौशल से अमर प्रेरणा की स्रोत, पुण्य जीवन ज्योति साध्वी पुण्यश्रीजी म. सा. के व्यक्तित्व की न केवल प्रभावी प्रस्तुति की है वरन् खरतरगच्छ सम्प्रदाय के १५० वर्षों के इतिहास का भी उल्लेख किया है । इसमें सम्प्रदाय की २०० से भी अधिक साध्वीरत्नों तथा ५० से भी अधिक साधकों के उज्ज्वल जीवन चरित्रों को मणिकांचन सम जड़ दिया है । इससे इस पुस्तक की उपयोगिता एक ऐतिहासिक ग्रन्थ के सदृश बढ़ गई है। इससे वैराग्य-पथ के पथिकों को त्याग, समर्पण, सेवा और अपूर्व आत्मबल मिल सकेगा।
ग्रन्थ लेखन की प्रेरणा लेखिका को अपने संस्कारों और वातावरण से मिली । लेखिका के पिता प्रसिद्ध तेरहपंथी साहित्यसेवी श्री गुलाब चन्द जी लूनिया अपनी सुयोग्य पुत्री से चरित्रनायिका की खुले दिल से प्रशंसा किया करते थे। उनका कहना था कि "हमने उनके जैसी प्रभावशालिनी शास्त्रज्ञा एवं मधुर भाषिणी अन्य साध्वी नहीं देखी।" उनकी सवा सौ से भी अधिक साध्वी शिष्याएं थीं । उनके समय में खरतरगच्छ सम्प्रदाय को जो श्रीवृद्धि हुई, वह चरित्रनायिका के दिव्य गुणों की ओर ही संकेत करती है । यशःसौरभ ही संबल बना, पूज्य गुरुवर्याओं से निरन्तर उनके विषय में सुनने को मिलता ही था, जिज्ञासा बढ़ने लगी । ज्ञात हुआ कि चरित्रनायिका की प्रमुख शिष्या तथा लेखिका की गुरुवर्या
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पुण्य जीवन ज्योति-पुण्य जीवन ज्योति अवगाहन
१६६ सुवर्णश्रीजी महाराज साहिबा की प्रेरणा से जोधपुर के कवि पं० नित्यानन्द शास्त्री ने इस चरित्र को महाकाव्य के रूप में संस्कृत भाषा में लिखा था, पर यह काव्य अपूर्ण था । सुयोग से इसके अनुवाद की प्रति भी उपलब्ध हो गयी, पर उसकी भाषा ठीक नहीं थी। अतः लेखिका ने दो वर्ष के अथक परिश्रम से असम्बद्धता तथा अपूर्णता को दूर कर आधुनिक शैली में राष्ट्रभाषा हिन्दी में इसका आलेखन किया।
ग्रन्थ का आरम्भ "दिव्य विभूतियों की महत्ता' से होता है जिसमें चरित्रनायिका के महत्व का उल्लेख है। "जैन धर्म में महिलाओं का स्थान" एक विचारात्मक लेख है, जिसमें जैनधर्म की समानता के आदर्श का वर्णन है। चरित्रनायिका का पावन चरित्र ३६ शीर्षकों में विभाजित हैं, जिनमें उनके जन्म और बाल्यकाल, विवाह, वज्रपात, सत्संगति का प्रभाव, वैराग्य का उद्भव, दीक्षा महोत्सव, पवित्र जीवन के पथ पर, विविध स्थानों पर चातुर्मास, दीक्षाओं की धूम, महाप्रस्थान और चरित्रनायिका के कुछ विशिष्ट गुणों का उल्लेख है । लेखिका ने चरित्रनायिका के जीवन का अंकन केवल सुने या पढ़े हुए तथ्यों के आधार पर ही नहीं किया है, वरन् उसे अपने साधु जीवन की अनुभव सौरभ से भी सुवासित कर दिया है । लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों के कारण वर्णन मौलिक, सम्प्रेषणीय और प्रभावोत्पादक बन गये हैं।
लेखिका का विश्वास है कि विश्वशान्ति आध्यात्मिक जागृति के बिना असंभव है। केवल भौतिक उन्नति से ही सुख-शान्ति की आशा रखना मगमरीचिका है । आध्यात्मिक विश्वासों के बिना मानव की पशुता विकसित होकर अनर्थ की परम्पराओं को बढ़ाती है।
उत्तम साहित्य सरिता में अवगाहन करने से पाठक के हृदय में आशा, विश्वास और उल्लास की उमियाँ उछलने लगती हैं, निराशा, सन्देह और विषाद दूर भाग जाते हैं। उत्साह का समुद्र उमड़ जाता है, आलस्य नष्ट होकर स्कूति आ जातो है । अध्ययनशील व्यक्ति गौरवपूर्ण विचारशक्ति युक्त हो जाता है। उसमें सत्संकल्प जाग्रत रहता है । वह सदैव आत्मसम्मान को प्रधानता देता है। कभी ऐसा आचरण नहीं करता जिसे उसे अपमानित होना पड़े। .."उसका चरित्र पूर्ण उत्कर्ष को पहुँच जाता है । वह मानव से ऊँचा उठकर देव (महामानव) बन जाता है। मातृभूमि के प्रति कर्तव्यबोध का वर्णन करती हुई लेखिका कहती है-“जन्म भूमि या स्वदेश के प्रति जीव मात्र को सहज आकर्षण होता है । जहाँ मनुष्य जन्म लेता है, जहाँ की मृत्तिका में खेल-कूद कर बड़ा होता है, जहाँ के अन्न-जल से उसके चरित्र का पोषण होता है, उस स्थान के प्रति एक प्रकार का ममत्व भाव होता ही है। मातृभूमि का ऋण चुकाना प्रत्येक का कर्तव्य है । इसमें किसी को सन्देह करने का कोई कारण नहीं । यह विषय निर्विवाद है।"
__एकता के महत्व का उपदेश करते हुए लेखिका ने कहा है-"एक ही धर्म के अनुयायियों में मनोमालिन्य होना, धर्म को कलंकित करना है । भगवान तीर्थंकर देवों का धर्म कषाय रहते आराधन नहीं किया जा सकता । धर्म रूपी हर्म्य में प्रवेश करने का प्रथम द्वार सम्यक्त्व है । आपने सुना होगा कि
तक आत्मा में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप कषाय का भूत रहता है और गलत मान्यताएँ रहती हैं, तब तक सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकती। श्रावक का पद तो सम्यक्त्वी से भी ऊँचा होता है । समयक्त्वी भी एक वर्ष से अधिक कषाय को रखे तो सम्यक्त्व भ्रष्ट हो जाता है । श्रावक तो कषाय रख ही नहीं सकता। यदि रखता है तो श्रावक धर्म से पतित होता है।"
खण्ड-१/२२
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खण्ड १ | जीवनज्योति : व्यक्ति दर्शन संगीत कला के प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा है-“सचमुच, संगीत में कुछ ऐसा अद्भुत प्रभाव होता है कि मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी सुध-बुध बिसरा कर तन्मय हो जाते हैं।"
मृत्यु की भयानकता तथा उसकी शाश्वतता का उल्लेख अग्रांकित शब्दों में बहुत ही हृदयस्पर्शी बन गया है :
"मृत्यु ! ओह ! कितना भीषण शब्द है । शब्द की भीषणता से ही अर्थ की भीषणता का विचार अत्यन्त भयावह है।"
ग्रन्थ में मार्मिक स्थलों के विवरणों का भी प्रसंगानुसार समावेश हुआ है । लेखिका ने अपने अनुभव तथा चिन्तन से ऐसे स्थलों की प्रेषणीयता को और भी बढ़ा दिया है । लेखिका ने संस्कृत, प्राकृत तथा अन्य भाषाओं के उद्धरणों द्वारा अपने विवरण को अधिक प्रभावशाली तथा प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया है।
"पुण्य जीवन ज्योति" जैन-धर्म और दर्शन का सागर है जिसे लेखिका ने इस ग्रन्थ-सागर में उँडेल दिया है। प्रसंगानुसार जैन धर्म के अनेक पवित्र स्थलों तथा पूजा, अर्चना विधियों, पर्यों व उत्सवों का विस्तार से वर्णन किया गया है । अनेक रंगीन-चित्रों के संकलन से ग्रन्थ की उपादेयता और भी बढ़ गई है।
संक्षेप में "पूण्य जीवन ज्योति" जैन साधिका साध्वी का एक पावन इतिहास, जैन सिद्धान्तों, आदर्शों, मान्यताओं, पर्वो और त्योहारों का परिचय ग्रन्थ और परम साध्वी पुण्यशालिनी स्व. पुण्यश्री जी महाराज का पावन चरित्र है ।
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महावीर जय"
[तर्ज-वीणावादिनी वर दे वीर महावीर की जय हो जय हो 555-जय हो 55।
सुर नर वन्दित जग अभिनन्दित, विश्व ज्योति जय हो"॥स्थायी।। मातृ कुक्षि में अचल हुये जब मातृ दुःख वश नियम लिया तब, ।
पितरौ जीवित व्रत न धरूं अब, मातृभक्त ! जय हो ॥१॥ सुरपति मन में संशय आया, सिंहासन अंगुष्ठ दबाया,
___ जन्मोत्सव में मेरु कपाया, अतुलबली ! जय हो""।। २ ॥ शेशव में आमलकी क्रीड़ा, हारा सुर पाया अति वीड़ा,
मेटी सब की मानस पीड़ा, अपराजित ! जय हो- ॥३॥ भ्रातृ प्रेम वश वर्ष द्वय तुम, रहे वाम पर संयम मय तुम, उच्चादर्श प्रदर्शित करतुम, धन्य बने ! जय हो-॥४॥
-प्रतिनी सज्जनश्रीजी म० रचित
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व्यक्तित्व दर्शन
एक बहु आयामी समग्र व्यक्तित्व प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज
-आर्या शशिप्रभाश्रीजी (दर्शनाचार्य)
विश्व वाटिका अनेक सुविकसित पुष्पों से आकीर्ण है। भिन्नाकृति के वे सुन्दर पुष्प अपनी मधुर सौरभ विकोण कर कण-कण को सुरभित बना रहे हैं। जिसका पान कर मानव-मन रूपी मधुकर पूर्णतः आप्यायित हो रहा है।
ऐसी ही मृदु मधुर सौरभ से परिव्याप्त एक अवर्णनीय वाटिका है परम श्रद्धया गुरुवर्या प्र. श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का जीवन । जिसमें अनेकानेक सुगन्धित गुणपुष्प पूर्णतः सुविकसित है, जिसकी मादक गन्ध मानवरूपी भ्रमरगण को आकर्षित करने में सर्वथा सक्षम है। चूंकि उन पुष्पों में सहज सुगन्ध का वर्षण है, सुन्दरता का उन्मुक्त दर्शन है व चुम्बकीय शक्ति का आकर्षण है। इसीलिए मानव मधुकर सहज, सरल, निःशंक व निःसंकोच रूप से उन पुष्पों के प्रति आकर्षित हो जाते हैं।
यद्यपि पूज्या प्रवर्तिनी महोदया की जीवन वाटिका के उन सम्पूर्ण गुण पुष्पों का आलेखन करना मुझ जैसी सामान्य मन्द बुद्धि के बाहर है तथापि लेखनी आकर्षित कर रही है निम्नांकित कतिपय गुण पुष्पों का वर्णन करने हेतु। (१) विनय-संयमी
जीवन में जिन सद्गुणों की अनिवार्य आवश्यकता है उनमें
विनय एक प्रमुख गुण है। प्रभु महावीर ने भी "बिणय
0 जिसमें नारी सुलभ मृदुता, विनय को धर्म का मूल कहा वत्सलता, सेवा, समर्पण
मूलो धम्मो" की उक्ति से
और सरलता के दर्शन होते हैं तो नर
है। साधना पथ के पथिक के लिए विनय का प्रतिपक्षी स्वभावी साहस, संकल्पशीलता,
अभिमान काले सर्पवत् महान् भयंकर है जिस साधक को इस दूरदर्शिता और विवेक प्रवणता भी
सर्प ने डंस लिया वह साधना की मधुर सुधा का पान नहीं । परिलक्षित है........
कर सकता। अहंकार और साधना एक ही स्थान पर वैसे ।
ही नहीं रह सकते जैसे अन्धकार और प्रकाश । वैनयिक ---------
गुण प्राप्त करने से पूर्व अभिमान के विष बृक्ष को जड़मूल से उखाड़ कर फेंकना होगा।
श्रद्धया गुरुवर्याश्री नम्र ही नहीं अति विनम्र हैं । आपश्री 'पुण्य श्रमणी मंडल' की प्रवर्तिनी है, अनेक उपाधियों से विभूषित हैं तथा आगमज्ञान की सतत् प्रवहमान स्रोतस्विनी हैं । तथापि विनय की प्रतिमूर्ति है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार "इंगियागार सम्पन्ना" महान् प्रज्ञावती है। गुरुजनों एवं
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खण्ड १ | जीवन-ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन
पूज्यजनों के मात्र इंगित आकार को समझकर तत्क्षण कार्य करने की क्षमता सम्पन्न हैं। आपश्री के जीवन में विनय का सर्वोपरि स्थान है चूँकि विनीत साधक ही सिद्धि के सोपान पर चढ़ सकता है। एक विनय गुण के आ जाने पर अन्य गुण तो उसके अनुगामी बनकर स्वतः आ जाते हैं।
आपश्री में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान है। इसीलिए न चाहते हुये भी माता-पिता को इच्छा को प्रधानता देकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया व समय की परिपक्वता व अन्तरायोदय नष्ट होने पर बाल्यकालीन आपकी उस आन्तरिक संयम भावना को साकार रूप देने का सौभाग्य भी मिला।
आपश्री के संयमी जीवन को लगभग अर्द्ध शतक पूर्ण होने जा रहा है। इस दीर्घकालीन संयमी जीवन में आपने अपने गुरुजनों की आज्ञा की कभी यत्किचित् भी उपेक्षा नहीं की। पूज्यजनों की आज्ञा के प्रति आप त्रियोग से पूर्णतः समर्पित थीं व आज भी हैं। मुझे याद है कि पालीताना चातुर्मास के पश्चात् गुजरात की प्रायः यात्रा सम्पूर्ण कर एक बार तीर्थाधिराज के दर्शन हेतु पुनः पालीताना आये थे तथा शारीरिक अस्वस्थता के कारण कुछ दिन वहाँ स्थिरता की पश्चात् अत्यधिक गर्मी के कारण द्वितीय चातुर्मास भी वहीं करने की मनःस्थिति बना चुके थे, किन्तु जैसे ही भूतपूर्व प्र. महोदया स्व. श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. को जब ज्ञात हुआ तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता से लिखा कि आप पालीताना तो चातुर्मास कर ही चुकी हैं जामनगर वालों की कई वर्षों से विनती है अतः इस बार आप वहीं चातुर्मास करें। शासन प्रभावना का अच्छा लाभ मिलेगा। भयंकर गर्मी थी फिर भी बिना किसी ननुनच के आपश्री ने आदेश स्वीकार कर जामनगर की ओर प्रस्थान कर दिया। मैं देखती ही रह गईं। पूज्याश्री जेठ मास की इतनी भयंकर गर्मी में कैसे विहार करेंगी ? साथ ही यह भी देखा कि पूज्या प्र. श्री के आदेश को मानकर आप कितनी अधिक प्रसन्न थीं। चूँकि आपने अपने जीवन में सदा बड़ों का विनय किया है व उनकी प्रत्येक आज्ञा को हर परिस्थिति में हर सम्भव मानने को प्रतिक्षण प्रतिपल तैयार रही हैं। ऐसे एक नहीं अनेक संस्मरण हैं आपश्री के जीवन के जिन्हें मैंने प्रत्यक्ष देखे हैं ।
पूज्यजनों के विनय में तो आपश्री ने कभी उपेक्षा की ही नहीं पर छोटों के प्रति या गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं के प्रति भी कभी किसी प्रकार का असद् व्यवहार नहीं किया व अन्य किसी को करते देखतीं तो बड़े ही स्नेहयुक्त शब्दों में आगम की स्मृति दिलाती हुई समझाती हैं-'न साहूणं आसायणाए न साहूणीणं आसायणाए न सावयाणं आसायणाए न सावियाणं आसायणाए। यही कारण है कि संयमी जीवन का अधिकांश समय गुरुवर्याश्री की सेवा में आपश्री ने जयपुर में ही व्यतीत किया व वर्तमान में भी जयपुर संघ के अत्याग्रह से ५ वर्ष से तो 'स्थिरवास' रूप में विराज रही हैं। तथापि आपश्री जयपुर श्री संघ की अट श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई हैं।
(२) सरलता की प्रतिमूर्ति-प्रभु महावीर ने सरलता को साधना का प्राण कहा है। चाहे वह गृहस्थ साधक हो या संसार-त्यागी। दोनों के लिए सरलता, निर्दम्भता, निष्कपटता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है । कहा भी है-“सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्म चिट्ठई । जो ऋजुभूत है, सरल है वही धर्म साधना कर सकता है और सिद्धि के अन्तिम सोपान को भी वही साधक प्राप्त कर सकता है।
पूज्यवर्या श्री का नख से शिख तक सम्पूर्ण जीवन सरल निर्दम्भ व निष्कपट है । आपश्री का आन्तरिक व बाह्य जीवन सर्वथा सरल है-वाणी में सरलता, विचारों में सरलता, यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से सरलता परिलक्षित होती है । न कहीं दुराव है, न कहीं छिपाव । आपश्री सदायही कहती हैं कि सरल बने बिना सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । यथा-भयंकर विषधर को भी बिल में जाने के लिए सरल बनना पड़ता है । वैसे ही साधक को भी मुक्ति में जाने के लिए निष्कपट, पर निर्दम्भ, सीधा,
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एक बहुआयामी समग्र व्यक्तित्व
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सरल बनना पड़ता है । मुमुक्षु साधक के लिए आवश्यकता है चरित्र की, चातुर्य की नहीं, सम्यक्आचार की जरूरत है समलंकृत वाणी की नहीं, कार्य करने वाले की आवश्यकता है न कि विवरण देने वाले की किन्तु कहीं-कहीं साधक के जीवन में भी बहुरूपियापन देखने को मिलता है जो उसकी साधना में विक्ष ेप उत्पन्न करने वाला है । जिससे सिद्धि तो अतिदूर है ही पर मानवता की सोपान भी कोसों दूर रह जाती है । पर पूज्य श्री इनसे सर्वथा अछूती हैं, बहुत दूर हैं। आपश्री का जीवन तो "जहाँ अन्तो तहा बाहि" अर्थात् जैसा अन्दर है वैसा ही बाहर है, कथनी करणी के अनुरूप है । उपयुक्त बात छोटों की भी सहज ही स्वीकार कर लेती हैं | अपनी बात मानने व मनवाने में यत्किचित् भी हठाग्रह नहीं है । आज आप इतने बड़े पद पर आसीन हैं फिर भी वही सरलता, वही सौम्यता है । उसमें किंचित् मात्र भी अल्पता नहीं आई वृद्धिंगत ही है अहम्रहित सरल जीवन ही अर्हम् पद को प्राप्त कर सकता है ।
(३) सहिष्णुता की सरिता-साधकजीवन स्वर्ण व चन्दन के समान होता है । यथा सोने को ज्योंज्यों आग में तपाया जाता है त्यों-त्यों अधिक शुद्ध व चमकदार बनता है । चन्दन को जितना अधिक घिसा जाय उतनी ही अधिक महक आती है । वैसे ही साधक के जीवन में जितने अधिक कष्ट आते हैं उतना ही उसमें और अधिक निखार आता है । और अधिक उज्ज्वल व प्रशस्त बनता है उसका जीवन |
प्रत्येक मानव के जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग सदा आते ही रहते हैं । पूज्याश्री ने भी अपने जीवन में अनेक बार ऐसे कटु मधुर अनुभव किये पर उनमें सदा तटस्थ रही हैं ।
मैंने अपने दीर्घकालीन संयमी जीवन के संयोग में आपश्री को कभी प्रतिकूल प्रसंगों में कभी भी अप्रसन्न होते नहीं देखा और न ही कभी यशकीर्ति, प्रशंसा आदि अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्नता या गर्व करते देखा ऐसे समय में आप सदा मध्यस्थ रहती हैं। मैं कभी पूछ लेती "पूज्या श्री आपको प्रतिकूलता में भी कभी नाराज होते या गुस्सा होते नहीं देखा, और न कभी अनुकूलता में चेहरे पर मुस्कराहट ।" मेरे प्रश्न का आप बड़ा ही गंभीर उत्तर देतो - "यह जीवन तो सुख-दुःखमय है और संसार फिल्म हॉल के समान है, जहाँ प्रायः ऐसे प्रसंग आते ही रहते हैं उन प्रसंगों में क्या हँसना, क्या रोना, क्या प्रसन्न होना क्या अप्रसन्न होना । इन प्रसंगों में साधक को बहना नहीं है अपितु ज्ञाता द्रष्टा बनकर हर स्थिति को निरपेक्ष भाव से देखना है । जीवन व्यवहार में कभी किसी से मन-मुटाव कहा सुनी हो जाये तो इस उक्ति से " कहना नहीं सहना सीखो" से मन को समझाना है - इस सर्वोत्कृष्ट सूत्र को जीवन के प्रत्येक व्यवहार में उतारना है ।" वास्तव में पूज्याश्री की न केवल जिह्वा ही अपितु जीवन भी बोलता है । अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में तो आपश्री पूर्णतः तटस्थ हैं ही किन्तु भयंकर शारीरिक वेदना में भी पूर्णतः समता के दर्शन होते हैं आपश्री के जीवन में । २ वर्ष पूर्व ब्लड की उल्टियाँ व दस्त लगने पर आपश्री की उस अपूर्व समता के हम लोगों ने व जयपुरवालों ने प्रत्यक्ष दर्शन किये। जड़-चेतन के भेद को आपश्री ने न केवल जिह्वा से समझा है अपितु प्रसंग आने पर जीवन में पूर्णतः उतारा भी है।
इस प्रकार सहिष्णुता की पराकाष्ठा है आपश्री का यशस्वी तेजस्वी जीवन ।
(४) दया हृदया- 'दया धर्मस्य जननी' अर्थात् दया धर्म की जननी है, माँ है । जिस प्रकार के बिना जीवन शून्यवत् - सा महसूस होता है, उसी प्रकार दया के बिना मानव मात्र आकृति से मानव है प्रकृति से नहीं । जीवन में मानवता लाने के लिए दया देवी की पूजा करना, रोम-रोम में उसको स्थान देना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है फिर साधक का तो यह अनिवार्य आवश्यक गुण है । प्रति
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन क्षण प्रतिपल उसके हृदय में करुणा का स्रोत छलकता रहे, रोम-रोम से अनुकम्पा के भाव निरन्तर प्रवाहित होते रहें । चूँकि दया साधना का नवनीत है, मन का माधुर्य है, उसकी सरस जलधारा से साधक का हृदय उर्वर बनता है और सद्गुणों के कल्पवृक्ष फलते-फूलते हैं । किसी ने कहा भी है
___'सन्त हृदय नवनीत समाना", पर मैंने देखा सन्तजीवन नवनीत अर्थात् मक्खन से भी विलक्षण होता है । नवनीत-स्वताप से द्रवित होता है जबकि सन्त जीवन पर-दुःख से-परताप से द्रवित होता है।
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि....सन्त स्वकष्टों को सहन करने में वज्र से भी कठोन बन जाता है, भयंकर विपत्तियों में भी मुस्कराता रहता है किन्तु दूसरों के दुःखों को देखकर पुष्प से भी कोमल बन जाता है, मोम के समान उसका हृदय अत्यधिक द्रवित हो जाता है ।
___ हमारी करुणामयी गुरुवर्याश्री का हृदय भी करुणारस से छलकता हुआ सरोवर है जिसमें प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, अनुकम्पा के भाव भरे हुए हैं। उनके कष्टों को देखकर आपका हृदय अत्यन्त द्रवित हो उठता है । तथा तत्क्षण उनके दुःख को दूर करने के लिए तत्पर हो जाती हैं । अपनेपराये के भेद से रहित आपके हृदय में मानव मात्र के प्रति वात्सल्य का स्रोत निरन्तर प्रवाहित रहता है - जिसमें निमज्जित हो मानव मन अत्यन्त आह्लादित हो जाता है । असमर्थ दीन-प्राणियों को सहायता - दिलवा-कर उनके दुःखों को दूर करने का निरन्तर सफल प्रयास करती रहती हैं।
(५) मधुर व्याख्यात-आपश्री की प्रवचन शैली अनूठी, अजोड़ व अनुपम है । पार्वत्य कंदरा से निर्गत कल-कल निनाद करती जलधारा की तरह आपके मुख से निसृत अमृत वाणी का प्रवाह श्रोताओं को पूर्णतया अपने में बहा ले जाने में सक्षम है । आपश्री की वाणी में अनूठा जादू व विचित्र चमत्कार है। आपश्री गंभीर से गंभीर विषय का जिस समय प्रतिपादन करने लगती हैं तो श्रोता मंत्रमुग्ध से भावविभोर हो आपाद मस्तक उस भाव गंगा में डूब जाते हैं तथा एक मन एक रस होकर तादात्म्य की अनुभूति करने लगते हैं।
आपश्री के प्रवचन आगमिक विषयों पर होते हैं। जिनमें नैतिकता, बौद्धिकता, विद्वत्ता, प्रभावोत्पादकता व हृदयस्पर्शिता के सहज दर्शन होते हैं ।
वस्तुतः आपश्री के प्रकाण्ड पाण्डित्य व विद्वत्ता की सौरभ जो चारों ओर प्रसृत हो चुकी है वह जन-जन के मानस को अनुप्राणित व अनुप्रेरित कर रही है।।
(६) कार्यक्षमता-आपश्री की कार्य क्षमता प्रत्येक क्षेत्र में दर्शनीय व अनुकरणीय है। आम लोग सभी क्षेत्रों में सम्पूर्ण कार्यों में निपुण नहीं होते। कई पढ़ने में आगे हैं तो कई तपस्या में, कई घरेलू कार्यों में तो कई अन्य-अन्य कार्यों में।
पर आपश्री की कार्यक्षमता अजोड़ है, अद्वितीय है । कोई कार्य ऐसा नहीं है कि जिसमें आप विशेषज्ञ नहीं । यद्यपि आप रईस माता-पिता की सुपुत्री व जयपुर के दीवान खानदान की बहू हैं । अतः उस समय अर्थात् आपके गृहस्थ जीवन में शायद ही कभी पैदल चलने का अवसर आया होगा। और न ही कभी दीक्षा लेने से पूर्व किसी प्रकार के विचार आये कि कैसे पैदल चलूगी इतने बड़े घराने की बहू हूँ तो कैसे घर-घर जाकर आहार-पानी आदि लाऊँगी । किन्तु फिर भी दीक्षा लेते हो सर्वकार्य आपश्री इतनी दक्षता से व इतनी रुचिपूर्वक करती थीं कि देखने वालों को आश्चर्यमिश्रित आभास होता कि वस्तुतः आप सभी कार्यों में कितनी माहिर हैं । न कोई संकोच है न कहीं शर्म-प्रत्येक कार्य
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एक बहु आयामी समग्र व्यक्तित्व
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को सहजतया पूर्ण कर लेती हैं । इसीलिए आपश्री की गुरु बहिनें व गुरुवर्या श्री फरमाया करती थींकि शिष्या हो तो सज्जनश्रीजी जैसी हो जो अकेली ही अनेकों कार्य सँभाल लेती हैं। कोई कार्य इनसे अछूता नहीं, सभी में पूर्णरूपेण पारंगत हैं।
(७) सेवापरायणता - सेवा-शुश्र षा का गुण हर कोई में सहज सम्भव नहीं है और न ही हर प्राणी इसके मूल्य को आंक सकता है । मानव स्वयं के हृदय में उद्भूत चंचल मनोवृत्तियों का बलिदान करके ही इस अद्भुत गुण को सम्प्राप्त कर सकता है । सामान्य मंदबुद्धि मानव-सेवा के अप्रमेय मूल्य का मूल्यांकन नहीं कर सकता और सहज प्राप्त गुण से कोसों दूर रह जाता है । चूँकि वह समझता है,सेवा करना छोटों का कार्य है, पढ़े-लिखे व्याख्यान वाचस्पति व रईसों का कार्य नहीं है।।
किन्तु आप जैसी प्रज्ञावती इसके अनुपम गुण से सर्वथा परिचित हैं, इसीलिए सैकड़ों अन्य कार्यों को गौण समझकर सेवा को प्रथम स्थान देती हैं। मैंने स्वयं ने प्रत्यक्ष देखा है कि पूज्येश्वरी ने अपने पूज्यजनों की व गुरुवर्याश्री की सेवा कितनी दत्तचित्त से की है। अपने गुरु की सेवा तो प्रायः प्रत्येक शिष्य करता ही है किन्तु आप अन्य पूज्यजनों की सेवा भी निरपेक्ष भाव से बड़ी रुचिपूर्वक करती हैं। चूँकि आपने कभी किसी को अन्य समझा ही नहीं। मैं सबकी हूँ व सब मेरे हैं अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है आपश्री का विशाल हृदय । पूज्यजनों के प्रति पूज्यभाव तो रोम-रोम में भरा है पर छोटों के प्रति वात्सल्य का निर्झर भी सदा ही झरता रहता है।
आपश्री के महान् पुण्योदय से व परम सौभाग्य से प्रायः सदा आपको बड़ों की निश्रा सम्प्राप्त होती रही जिससे आपको दोहरे लाभ का सहज ही सौभाग्य प्राप्त हो जाता। प्रथम तो उन पूज्यवाओं को आत्मीयतापूर्ण कृपा दृष्टि को अविरल वृष्टि व उनकी सेवा का अप्रतिम अद्भुत लाभ । आपश्री को आपकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमता से सहज ही सुलभ हो जाता है व अब भी यथाक्षमता सदा तैयार रहती हैं।
(८) प्रभावशालिता-आपश्री का यशस्वी, तेजस्वी व्यक्तित्व अद्भुत प्रभावशाली है जो गहराई में सागर से भी अधिक गम्भीर व ऊँचाई में हिमगिरि से भी अधिक उत्तुंग है। ऐसे व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अपने विचरण काल में आपश्री जहाँ भी पधारी, जिनके भी मध्य रहीं या जिस किसी से भी सम्पर्क रहा अथवा किसी से भी सम्बन्ध बना वह आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य व विद्वत्ता के साथ-साथ सहज सरलता, सौजन्यता, सौम्यता, उदारता, विशालता आदि गुणों की सौरभ से सुरभित हुए बिना नहीं रहे। आपश्री से किसी ने कभी कोई अशान्ति या परेशानी का अनुभव नहीं किया अपितु उसे मदा शान्ति, प्रसन्नता व आनन्दातिरेक की अनुभूति होती रही है। आपश्री के अधिकांश चातुर्मास जयपुर में ही हुए हैं व वर्तमान में भी शारीरिक अस्वस्थता के कारण ५ वर्ष से जयपुर में ही विराज रही हैं फिर भी किसी को आपश्री से कोई शिकायत नहीं है अपितु हर व्यक्ति हर समाज पर आपके दिव्य अद्भुत, सरल, सुन्दर व्यक्तित्व की अमिट छाप सदा के लिए विद्यमान है । ऐसा अद्भुत प्रभावशाली जीवन है आपश्रीजी का जिससे भी प्रभावित होकर अनेक बालिकाओं ने युवावस्था में पाँव रखने से पूर्व ही आपश्री का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया जो आज त्याग, तप, संयम की आराधना के साथ-साथ अपने अध्ययन में संलग्न है ।
(8) अध्ययन-मानव जीवन के उत्थान व निर्माण में अध्ययन अर्थात् शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । किन्तु वह अध्ययन शास्त्रानुकूल सम्यग् अध्ययन होना चाहिए। जिससे बुद्धि परिष्कृत व परिमार्जित होती है।
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन
खान से निकले हुए रत्न के समान मनुष्य की वृत्तियाँ जन्म से तो असंस्कृत व अपरिमार्जित ही होती हैं किन्तु जब उस रत्न को तराशा जाता है अर्थात् कांट-छांट सफाई की जाती है तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं उसकी चमक मानव-मन को सहज ही आकर्षित कर लेती है तथा मूल्य में कई गुना वृद्धि हो जाती है ।
तथैव-रत्न के समान है। मानव वृत्तियों का संस्कार, सुधार व परिष्कार भी अति आवश्यक है। वह हो सकता है मात्र सम्यग् अध्ययन से। उसी से उसके अन्तःकरण की शुद्धि होती है, विचार निर्मल और उच्च बनते हैं तथा योग्यायोग्य कार्य का निर्णय करने की विवेक शक्ति उत्पन्न होती है।
अध्ययनशील व्यक्ति की दुर्भावनाएँ सहज ही नष्ट हो जाती हैं तथा उसके हृदय में स्नेह, सदविवेक सहानुभूति, विनम्रता, शिष्टता, उदारता आदि अनेक सद्गुणों का आविर्भाव हो जाता है। अध्ययनरत सभी की दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है और उसका सर्वत्र सम्मान होने लगता है ।
__ श्रद्ध या गुरुवर्या श्री की बचपन से ही अध्ययन की ओर अत्यधिक रुचि थी। स्कूल की पढ़ाई भी बहुत ही दत्तचित्त होकर करती थीं । पुस्तक तो सदा से आपकी जीवन साथी बनकर रही है। कोई पुस्तक हाथ में आ जाये उसे बड़ी ही एकाग्रता से आप पढ़ती हैं। फिर तो आपका ध्यान बँटता नहीं है। आपकी माँ साहब भी कहा करती थी कि 'सज्जनबाई' को पुस्तक मिल गई तो मानो सब कुछ मिल गया।
आज हम भी यही अनुभव करते हैं । आपश्री का अधिकाधिक समय अध्ययन-अध्यापन में ही व्यतीत होता है । आपके जीवन का यह एक विशिष्ट गुण है या यों कहूँ पिताश्री से विरासत में मिले हुए दृढ़ संस्कार हैं। पिताश्री के माध्यम से ही शास्त्राध्ययन की रुचि भी अल्पावस्था में ही जागृत हो चुकी थी। चूँकि शास्त्रों में विविध विषयों का ज्ञानकोश संचित रहता है। उसमें गहन शास्त्रीय ज्ञान के अतिरिक्त नैतिक शिक्षायें, धार्मिक उपदेश और आदर्श कथाएँ भी प्रचुर परिमाण में प्राप्त होती हैं जिनका अमिट प्रभाव पाठक के हृदय पट पर टंकोत्कीर्णवत् हो जाता है। आप्त महापुरुषों के वाक्य धीरे-धीरे उसके जीवन में व्यावहारिक रूप धारण करके उसकी उत्कर्षता में असाधारण वृद्धि करते हैं । इतना सब जानती हुई आप सदा आगम शास्त्रों का अध्ययन-स्वाध्याय करती रहती हैं जिससे आपश्री का जीवन उत्कर्षता की चरम सीमा पर पहुंचने का मार्ग प्राप्त कर चुका है । शास्त्रावलोकन तो आपश्री के जीवन की अनिवार्य खुराक है ही किन्तु सद्साहित्य व इतर साहित्य भी आपसे खूब पढ़ा व खूब मथा है । फलतः भूगोल, खगोल, इतिहास आदि की प्रायः सम्पूर्ण जानकारी आपश्री को है जिसकी चर्चा समय-समय पर हम लोगों व अन्यों के बीच भी होती रहती है। इतना ही नहीं आप देश-विदेश की संस्कृति से व वहाँ के आचार-विचार से भी पूर्णतः परिचित हैं । इस विषय की बातें जब हम व अन्य लोग सुनते हैं तो दंग रह जाते हैं कि आपश्री इतना सब कैसे जानती हैं ? क्योंकि प्रतिपादन शैली से ऐसा आभास होता है मानो आपने विदेश की यात्रा की है अथवा लगता है सब कुछ प्रत्यक्ष देखा हो । यह सब आपके सतत अध्ययन व तीव्र प्रज्ञा का ही सुफल है ।
लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि महाराजश्री का दिमाग तो अजायबघर की भाँति है । अथवा कोई कहता है ये तो चलती-फिरती सुन्दर व्यवस्थित लाइब्रेरी हैं । वस्तुतः इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं पूर्णतः वास्तविकता है।
वर्तमान में यद्यपि शरीर से आपश्री अस्वस्थ हैं, इन्द्रियों की क्षमता भी अल्प हो गई है पर पढ़ने के व्यसन में कोई कमी नहीं आई है, भले लेटे-लेटे पढ़ पर पढ़ती अवश्य हैं ।
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एक बहु-आयामो समग्र व्यक्तित्व
१७७ अध्ययन के विषय में कहाँ तक लिखू ? जैसा प्रत्यक्ष देख रही हूँ वैसा वर्णन करती चलू तो एक ग्रन्थ निर्मित हो जाये।
(१०) अध्यापन--अध्ययन करना जितना सहज है, अध्यापन करना उतना ही कठिन । क्योंकि व्यक्ति अपनी बुद्धि से किसी भी तरह अर्थात् येन-केन-प्रकारेण विषय को स्पष्ट कर लेता है और समझकर दिमाग में बैठा लेता है पर उसी विषय को जब अन्य को समझाना होता है तो उसके लिए अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। अध्ययन करने वाला स्वयं के लिए स्वयं की इच्छाओं का त्याग करता है जबकि अध्यापन कराने वाले को पर के लिए अर्थात् दूसरों के लिए अपनी स्वयं की इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है। दूसरों को पढ़ाते समय स्वयं के सन्तुलन को बनाये रखना व अध्ययनार्थी पर प्रेमपूर्वक अनुशासन करते हुए शिक्षा देना कोई सामान्य बात नहीं है । प्रकाण्ड विद्वान भी समय पर उपयुक्त भाव भाषा के अभाव में योग्य धैर्य न रख पाने से अपना सन्तुलन खो बैठते हैं।।
पर श्रद्धया गुरुवर्या श्री अपने तीव्र एवं योग्य अध्ययन के साथ-साथ अध्यापन कार्य में भी पूर्णतः निपुण हैं । आपश्री की वाणी में कहीं कोई दर्प नहीं । अनुशासन की सत्ता नहीं, व्यवहार में बड़प्पन की झलक नहीं । सामान्य बोलचाल की भाषा में अनेकों उदाहरणों से विषय को स्पष्ट कर विद्यार्थी को सन्तुष्ट करने की आपश्री में अद्भुत शक्ति है ।
___ अध्ययनार्थी को संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, व्यावहारिक व क्लासीकल शिक्षा से लेकर आगमिक ज्ञान पर्यन्त सम्पूर्ण अध्ययन कराने के लिए सदा तैयार रहती हैं। यद्यपि आपश्री ने किसी प्रकार की कोई परीक्षा देकर डिग्रियाँ प्राप्त नहीं की हैं तथापि योग्यता इतनी अधिक है कि प्रथमा से लेकर शास्त्री, आचार्य, एम. ए., एम. फिल. आदि परीक्षाओं के छात्र-छात्राओं व साधु-साध्वियों को आपने पढ़ाया है व वर्तमान में भी पढ़ा रही हैं तथा उनकी शंकाओं का बहुत ही सुन्दर ढंग से समाधान करती हैं। अन्य गच्छ की श्रमणीवृन्द भी शास्त्र वाचन हेतु निःसंकोच आपश्री के पास आती रहती हैं और आपश्री भी उदार हृदय से उन्हें वांचना प्रदान करती हैं। आप श्र तःस्थविरा व पर्याय-स्थविरा तो थी ही पर अब वयःस्थविरा की श्रेणी में भी पूर्णतः प्रवेश कर चुकी हैं, और शरीर पर रुग्णता ने आधिपत्य स्थापित कर लिया है अतः शारीरिक क्षमता अल्प हो गई है। फिर भी अध्यापन रुचि ज्यों की त्यों बनी हुई है। यह हमारा परम सौभाग्य है।
(११) तप के प्रति अनन्य श्रद्धा-तप श्रमण-जीवन का अनन्य आभूषण है। शास्त्रों में अहिंसा संयम तप को उत्कृष्ट धर्म मंगल कहते हुए तप के महात्म्य को निर्विकल्प स्वीकार किया है। साधना में रत्नत्रय अर्थात् सभ्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की आराधना के साथ ही सम्यक्तप का समावेश साधक की साधना में चार चाँद लगा देता है। इन चारों की सम्यग् साधना से ही साधक अविलम्ब आत्मदर्शन अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति कर सकता है।
___श्रद्धे या पूज्याश्री इस तथ्य को पूर्णतः हृदयंगम कर चुकी हैं। इसलिए आपश्री के उद्गार आपकी कृति के माध्यम से स्पष्टः व्यक्त हो रहे हैं-'तप संयम रमणता""ये ही तो हैं श्रमणता"..'
____ आपश्री के जीवन में त्याग तप, संयम की त्रिवेणी निरन्तर प्रवाहमान है जो आपकी दैनिक क्रियाओं में व उपदेशों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। आपश्री ने अपने ४७ वर्ष के दीर्घकालीन संयमी जीवन में व उससे पूर्व गार्हस्थ्य जीवन में अनेक प्रकार की तपस्यायें की। यथा-वर्षी तप, उपधान, मासक्षमण, नवपद, बीसस्थानक आदि । प्रायः देखा जाता है- तपस्वियों की प्रकृति अक्सर उग्र हो
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खण्ड १ | जीवन ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन जाती है पर आप इसकी अपवाद हैं। आपके शान्त स्वभाव का तो क्या वर्णन करू वह तो अवर्णनीय है । आपश्री की गुरु बहिनें फरमाया करती थीं कि 'सज्जन श्रीजी वास्तव में सज्जन ही हैं।'
तप, त्याग व संयम निष्ठता के लिए आपश्री हमें सदा प्रेरित करती रहती हैं। चूँकि तप, संयम की रमणता में ही श्रमणत्व निहित है । मुझे तो जन्मदातृ माँ से भी अधिक आपश्री का असीम वात्सल्य सम्प्राप्त हुआ है। चूँकि मात्र १० वर्ष की अल्पायु में ही मुझे आपश्री के चरणों के सन्निकट रहने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था । तब मैं सर्वथा मिट्टी के लौंदे के समान थी । कुम्भकारसम पूज्याश्री ने वर्तमान में मुझे कुम्भ का रूप प्रदान कर महान् उपकार किया है जिससे न केवल इस भव में अपितु भवभव में भी मैं उस उपकार से उऋण नहीं हो सकती ।
उपसंहार - वस्तुतः पूज्या प्रवर्तिनी महोदया श्रद्ध ेया, गुरुवर्याश्री का जीवन त्याग, तप, शील, संयम, उदारता, सरलता, नम्रता, शिष्टता आदि अनेक गुणों से ओतप्रोत है । आपश्री में शास्त्रोक्त, वे सभी गुण विद्यमान हैं जो साधक-जीवन के लिए अनिवार्य माने जाते हैं । अतः आत्मविकास की सर्वोच्च श्रेणी पर जहाँ आपकी निर्मल साधना से रत्नत्रय की आराधना पूर्णतः शुद्ध बने इसी शुभ भावना से आरूढ़ होने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील हैं ।
ऐसे महान् व्यक्तित्व की धनी श्रद्धया पूज्याश्री के लिए जितना लिखा जाये, अल्प है । किन्तु मन्दमति मुझ अल्पज्ञा में इतनी शक्ति कहाँ है जो आपके उन सर्वोच्च सम्पूर्ण गुणों को इस जड़ लेखनी से आबद्ध कर सकूँ । ये तो श्रेष्ठ पुष्प नहीं, मात्र उनकी अल्प पंखुड़ियों को संग्रहीत करने का असफल प्रयास किया है जिसे पढ़कर पाठक उपर्युक्त आपश्री के उदात्त गुणों को स्व में लाने का यथा साध्य प्रयास करेंगे ।
इन्हीं शुभभावनाओं के साथ
'अद्भुत तुम्हारी साधना, अनुपम तुम्हारा ज्ञान । नामानुरूप गुणधारिका, हो कोटि-कोटि प्रणाम । खरतरगच्छ की शान हो, खरतरगच्छ की प्राण । सज्जन गुरुवर्या विश्व में, अमर आपका नाम ।'
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खण्ड २
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सन्देश-शुभकामनाएं
* हमालय का केन्द्र है-हदय । हद
चेतना के हिमालय का केन्द्र है-हदय । हदय के उत्स से जब श्रद्धा-भक्ति-भावना का निर्झर प्रवाहित होता है तो उसमे एक अद्भुत सम्प्रेषण शीलता होती है, और होती है समग्र को आत्मसात् करने की जलीय तरलता, मिलन सारिता । भावनाओ के इस निर्झर का पात्रानुसार नाम
7 कुछ भी दे दें, जैसे
बड़ों के हदय से जब लघु के प्रति भाव लहरे तरंगित होती है तो वे स्नेह, वत्सलता और आशीर्वचन का रूप धारण करती हैं तो सावश्रद्धा रखने वालो की तरफ से उच्चारित कोमल भावनाएं, शुभकामना या वन्दना का परिवेष पहन लेती है । श्रद्धेय के प्रति विनम्र कृतज्ञ भाव से
शब्दावलियांअभिनन्दन का रूप ले लेती है । पूज्य प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी का सौजन्य सरभित स्नेह-शीतल व्यक्तित्व सभी के लिए वरेण्य रहा है । गुरुजनों का आशीर्वचन, सद्भावी सज्जनों की शुभ-कामनाएं और श्रद्धाशील भक्त-मानस की वन्दनाजलियाँ अभिनन्दनात्मक भावाभिव्यक्ति हमें जो प्राप्त हुई है उसी से यह अनुमित है कि यह मधुर-मिलनशील निर्मल व्यक्तित्व सबके लिए कितना आदरास्पद और भावनाभावित रहा है ।
-'सरस'
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१
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आशीर्वचन शुभकामनाएँ
[पूज्य आचार्यों, मुनिवरों एवं श्रमणी मण्डल द्वारा]
आचार्य श्री जिनउदयसागर आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी महाराज
सूरि जी म.
- प्रवर्तिनी महोदया साध्वी श्री जी म० से मेरा खरतरगच्छीय आगममनीषी वयोवृद्ध पर्याय ,
सम्पर्क साधनाकाल के प्रथम वर्ष से ही हो चुका स्थविर प्रवर्तिनी जी श्री सज्जनश्री म० सा०
है । जब मैं शान्त तपोमूर्ति आचार्य श्री विजयसमुद्र का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर आपने शासन के ।
सूरीश्वर जी म. के साथ बीकानेर में था। आपका रत्न को सही समय पर यथास्थान पर प्रतिष्ठित . कर जो सेवा का लाभ उठाया, हमें भारी प्रसन्नता
पत्र पाते ही वह सारी पुरानी स्मृतियाँ पुनः ताजा हुई और "क्या कर नहीं सकती महिला" इस उदा
हो गईं। इनकी प्रवचन शैली में वाणी की माधुर्यता हरण से मार्गदर्शन प्राप्त कर, नारी समाज
के साथ-साथ ज्ञान की गहनता एवं जीवन का अनु
भव झलकता है। यह महाराज श्री जी की अप्रभक्त आत्मकल्याण के लिये अग्रसर बने यही शुभभावना।
ज्ञान-साधना का ही परिचायक कहा जा सकता __ प्रवर्तिनीश्री जी का जीवन ज्ञान-दर्शन-चारित्र
है। जहाँ जीवन में एक ओर ज्ञान-तप-सेवा एवं रत्नत्रय की आराधना में संलग्न है और आप
साधना का तेज परिलक्षित होता है तो दूसरी ओर सतत इस पथ पर शुभ भावपूर्वक बढ़ती रहें,
विनय-विनम्रता तथा स्वल्प सीमित अर्थ गर्भित यही शुभेच्छा है।
शब्दों वाली वाणी भी जीवन की पूर्णता को अभिव्यक्त करती है। इस प्रकार अनेक सद्गुणों से अलंकृत प्रेरणादायी जीवन को शब्दबद्ध करना असम्भव है क्योंकि कुछ न कुछ छूट जाने की सम्भावना रहती है। फिर भी छपने वाला अभिनन्दन ग्रन्थ, ग्रन्थ ही नहीं अपितु उनके जीवन की जीवन्त स्मृतियों को अजर-अमर बनाने वाला होगा। ऐसी मेरी हार्दिक शुभकामना है।
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खण्ड
२/१
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ आचार्यश्री आनन्दऋषिजी म. सा. आचार्यश्री तुलसी जी म०
न+अरि -- नारी, अर्थात् जिसका कोई शत्रु साधु जीवन की सफलता के चारे दरवाजे हैंनहीं। यह नारी शब्द का शाब्दिक अर्थ है परन्तु क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव । इन दरवाजों में इसका भावार्थ बहुत व्यापक है। समय-समय पर प्रवेश होने के बाद ही साधना के आनन्द का अनुनारी ने पुरुषों को उभारा है । अपरिहार्य समय पर भव होता है । जैनशासन में दीक्षित होने वाले उसे जगाया है, चेताया है। कर्तव्य से पराङ मुख साधु-साध्वियाँ भगवान महावीर के इस प्रेरणा को मार्ग पर लायी है। इसीलिये भगवान् महावीर वाक्य को आधार बनाकर ही अपने जीवन की यात्रा ने नारी को समानाधिकार अपने चतुर्विध संघ में प्रारम्भ करते हैं । देकर उस समय की विषमता समाप्त की जिस समय
मूर्तिपूजक परम्परा में दीक्षित वयोवृद्धा साध्वी नारी को हीन दृष्टि से देखा जा रहा था।
सज्जनश्री जी से हमारा पुराना परिचय है । जयपुर हमारे समाज में भी चन्दनबाला की परम्परा को
के तेरापंथी श्रावक गुलाबचन्द जा लूणिया की पुत्री चलाने वाली याकिनी महत्तरा सरीखी साध्वियाँ हुईं
होने के कारण भी उनका तेरापंथ धर्मसंघ के साथ हैं। जिन्होंने आचार्य हरिभद्रसूरि सरीखे व्यक्तियों को
निकटता का सम्बन्ध है। साध्वीजी की सहज और जैनधर्म में दीक्षित कर अद्भुत कार्य किया था।
निश्छल मनोवृत्ति उनकी साधना की गहराई को उसी परम्परा की शृंखला की एक कड़ी परम
कड़ा परम उजागर करने वाली है। उनके सम्मान में 'अभिविदुषी प्रवतिनी श्री सज्जनश्री जी म० सा० हैं। नन्दन ग्रन्थ' की समायोजना साध्वी समाज की उनका संक्षिप्त परिचय देखने से ज्ञात हुआ कि गुणवत्ता के मूल्यांकन की योजना है । जैनशासन उन्होंने एक सम्पन्न एवं संस्कारी कुल में जन्म लिया, की प्रभावना में साध्वियों का उल्लेखनीय योगदान छती-रिद्धि को त्यागकर मोक्षप्रदायिनी दीक्षा ग्रहण रहा है। अभिनन्दन ग्रंथ में ऐसी घटनाओं, संस्मकी और ज्ञान-ध्यान में अपनी शक्ति लगा दी एवं रणों का आकलन भी हो, जो साध्वी समाज की अनेक प्रान्तों में विचरण कर स्व-पर का कल्याण अर्हताओं को अभिव्यक्ति देने वाला हो । किया। ये समन्वयवादी हैं। कवित्व शक्ति उनकी जन्मजात प्रतिभा है। उनके द्वारा विरचित काव्य आज भी उनकी यशःकीर्ति को बढ़ा रहा है। ऐसी गुणग्राही साध्वी जी का अभिनन्दन ग्रन्थ जन-जन का प्रेरणादायक बने । यही मेरी शुभकामना है।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
उपाध्याय श्री अमरमुनिजी मं० सा०
महत्तरा प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्री जी मात्र शब्दों में ही सज्जन श्री नहीं है अपितु निर्मल पुण्य भावों में भी सज्जनी हैं । उनके अन्तर् और बाह्य दोनों जीवन धाराओं का कुछ ऐसा दिव्य संगम है कि गंगायमुना के संगम के रूप में तीर्थराज प्रयाग की लोक जीवन में जो पुण्य स्थिति है, वह मन-मस्तिष्क की भाव-स्मृति में सहसा उद्भासित हो उठती है ।
सौम्य, औदार्य आदि सद्गुणों की पावन गंगा हैं साध्वी रत्नश्री सज्जन श्री जी । इधर-उधर के द्वन्द्वों से मुक्त रहकर स्वच्छ गुच्छ पवित्र भावधारा में प्रवाहित रहता है उनका आदर्श संयमी जीवन । वे कथ्य में नहीं तथ्य में विश्वास रखती हैं । जो कहना सो करना, और जो करना सो कहना,
इस
आचार्य श्री विजय यशोदेव सूरिजी म०
भगवान् महावीर का शासन २१००० वर्ष तक अविच्छिन्न चलने वाला है । उसमें साध्वीजी महाराज का स्व-पर-कल्याण करने में बड़ा भारी योग दान रहा है । फिर भी साध्वीजी की साधना-शक्ति और प्रभाव के बारे में विशिष्ट प्रकार का इतिहास लिखा नहीं गया है । यह बात वर्तमान के सभी सुधी विद्वानों को अखरती है, इसीलिये यद्यपि आजकल थोड़े-थोड़े प्रयत्न विविध व्यक्तियों द्वारा हो रहे हैं लेकिन जोरदार और व्यापक प्रयत्न हुआ नहीं है। जो करने की अनिवार्य आवश्यकता समझता हूँ। ऐसी परिस्थिति में आप लोगों ने साध्वी जी का जीवन प्रकाशित करने के लिये जो प्रयत्न उठाया, इसकी सराहना करता हूँ । आपका कार्य
सफलता को प्राप्त करे ।
केन्द्रबिन्दु पर समवस्थित है, उनके जीवन का ज्योतिबिन्दु |
प्रवर्तिनी श्री जी के द्वारा आत्मकल्याण के साथ जन-कल्याण के जो महत्त्वपूर्ण कार्य यथाप्रसंग होते रहे हैं, उनका एक चिरजीवी आदर्श इतिहास है । यह एक ऐसा इतिहास है, जो वर्तमान और भविष्य के साधक एवं साधिकाओं के लिए मार्गदर्शन का पुनीत कार्य करता रहेगा ।
मैं हृदय से प्रवर्तिनी श्री जी के अभिनन्दन का स्वागत करता हूँ । वे स्वतः ही अभिनन्दनीय हैं फिर भी भक्तजनों का कर्तव्य है कि वे जन-जन के प्रति - बोध के लिए प्रवर्तिनी श्री जी के दिव्य जीवन की प्रभा अभिनन्दन ग्रन्थ के रूप में भी प्रकाशमान करके, पुण्यार्जन करें । O
आर्यारत्न प्रवर्तिनी साध्वी जी श्री सज्जन श्री जी का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने वाला है। तदर्थ आपको धन्यवाद है ।
आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वर जी म०
विदुषी प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्री जी म० सा० के अभिनन्दन समारोह के साथ ही अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित किया जा रहा है, जानकर मुझे सन्नता हुई ।
जैन - शासन की उनके द्वारा की गई प्रभावना एवं सेवा अनुमोदनीय है । अभिनन्दन समारोह की सफलता के लिये मेरी हार्दिक शुभकामना है ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ 'संत का सत्कार होना चाहिए'
0 संघ प्रमुख चन्दन मुनि परम विदुषी प्रतिनी साध्वीमतल्लिका नहीं नफरत स्थान पाती हैं वहाँ, सज्जनश्री जी को मैं बाल्यकाल से जानता हूँ। प्रेममय संसार होना चाहिए ॥३।। उनके पिता स्वनामधन्य श्री गुलाबचन्द जी लूनिया है सभी अपने न कोई गैर है, जयपर के तत्त्वज्ञ श्रावकों में अग्रगण्य थे। वे कवि विश्व ही परिवार होना चाहिए ॥४॥ एवं समधर गायक भी थे। उनकी प्रिय पुत्री, श्री ज्योति 'चन्दन' जले पावन प्रेम की. केसरी चन्द जी की सहोदरा साध्वी सज्जन श्री से खुला दिल दरबार होना चाहिए ॥५।। मेरा चिर-परिचय रहा है । इस वैशाखी पूर्णिमा पर महोदया सज्जनश्री के जीवन उपवन में अनेक उनका अभिनन्दन समारोह मनाया जा रहा है, यह सुगुण पुष्प महक रहे हैं पर एक अनुकरणीय असाजानकर प्रसन्नता हई। क्योंकि गुणीजनों का अभि- धारण गुण से मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ वह है उनकी नन्दन होना चाहिए । वास्तव में वह अभिनन्दन उपशान्त वृत्ति । जिसे अकृत्रिमता, सहजता, सरलता उनका नहीं, उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व का होता आदि अनेक रूपों में देखा जा सकता है । नाना नामों है। गौतम कुलक में कहा गया है 'रिसी य देवाय से पुकारा जा सकता है। वाचकमुख्य उमास्वाति सम विमत्ता।' ऋषि देव तुल्य माने गये गये हैं। प्रशमरति प्रकरण में मार्मिक उल्लेख करते हैंइसी विषय पर लिखा मेरा एक गीत सप्रेम स्वी- सम्यग्दृष्टिर्जाती यान तपोबल युतो यनुपशान्तः ।
तं लभते न गुणं यं प्रशमगुणमुपासितो लभते ॥२७।। कार करें
जो साधक सम्यग्दृष्टि है, ध्यान तपोबल युक्त है सन्त का सत्कार होना चाहिए।
फिर भी यदि अनुपशान्त है तो वह उस गुण को--उस देव सा व्यवहार होना चाहिए।
अध्यात्म की ऊँचाई को नहीं छू सकता जिसे उपसन्त को पूजो, न पूजो पंथ को।
शान्त वृत्ति की उपासना करने वाला छू सकता है। सत्य ही आधार होना चाहिए ।।१।।
अतः इस अभिनन्दन समारोह के सभी संयोजक सन्त वो ही सन्त, जो निर्ग्रन्थ हो,
बन्धु, विशेषतः शशिप्रभाजी आदि विनीत आर्यावृन्द शान्तमन निर्भार होना चाहिए ॥२॥ भी नवतेरापंथ धर्म संघ की ओर से इस मांगलिक
प्रसंग पर शत-शत बधाइयाँ स्वीकार करें। 0 गणी मणिप्रभसागर जी प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज जैन श्रमणी के सच्चे श्रेष्ठ स्वरूप की प्रतीक हैं। उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी है कि जिस आयाम पर भी विचार करता हूँ, मन उनके प्रति श्रद्धा और आदर से विनत हो जाता है । ज्ञानार्जन और धर्म-प्रचार, काव्य रचना और साहित्य सर्जना जिन भक्तिधर्माराधना और समाज-संघटना सभी क्षेत्रों में उनका देय महिमायुक्त है । मैंने तो उनके सान्निध्य में बैठकर कई बार ज्ञानार्जन किया है, तत्त्वचर्चा की है। उनकी मधुर और विनम्र बोली से, वत्सलतामयी ज्ञान ज्योति से ऐसा लगता है यह प्राचीन भारत की गुरुणी माता है। जिसमें एक साथ गुरुत्व और मातृत्व साकार हुआ है।
खरतरगच्छ की श्रमणी परम्परा को आपने गौरव मण्डित किया है। आपका अभिनन्दन श्रमणी वर्ग का, श्रेष्ठ साधिका और ज्ञान उपासिका का अभिनन्दन है । मैं उनके प्रति आशीर्वचन तो दे नहीं सकता, क्योंकि वे मेरी विद्यागुरुणी रही हैं। उनके ज्ञानज्योति मण्डित जीवनतत्व के आरोग्य एवं दीर्घायुष्प की कामना करते हुए उनका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ 0 मुनिश्री नगराज जी, डी. लिट् प्रवर्तक श्री महेन्द्रमुनिजी 'कमल'
यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि जैन श्वेता- भारतवर्ष ऋषि, मुनि और सन्तों का देश है। म्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर विरल विदुषी प्रवतिनी जैन, बौद्ध और वैदिक धर्मधाराओं को अखण्ड श्री सज्जनथी जी महाराज साहब का अभिनन्दन बनाये रखने में भारत के ऋषि हमेशा एक रहे हैं। करने जा रहा है और इस प्रसंग पर एक अभिनदन संसार से आँखें मूंदकर गिरि-कन्दराओं में साधना ग्रन्थ का प्रकाशन करने जा रहा है, जिसके प्रका- कर उन्होंने जो पाया उसे जनहित में लुटाया। शन का भार धर्मप्रेमी श्री केसरीचन्दजी लूणिया व संसार से उपरत हो जाने के बाद भी उन्होंने अपने श्रीमती झमकूदेवी लूणिया आदि समस्त लूणिया
स्व-पर-कल्याण व्रत को, साँस के पिछवाड़े छिपी परिवार ने उठाया है । अस्तु, यह एक शुभ काय है। मृत्यु की तरह स्मृति का अमृतबिन्दु माना है जनऔर इसमें सहभागी होने वाले सभा बन्धु पुण्य- जन की मंगल कामना को। स्व-कल्याण कामना में पात्र हैं।
तो हर किसी को आकर्षण हो सकता है मगर जो प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जनश्री जी ने भारतीय सच्चा सन्त-मन लेकर संयम/प्रवज्या ग्रहण करते हैं इतिहास की धारा में एक नया अध्याय जोड़ा है। वे पर-पीड़ा को स्वपीडा मानते हैं। पर-कल्याण, वेद, उपनिषद, आगम, त्रिपिटक, मनुस्मृति, महा. पर-मंगल और पर-अभ्युदय होता देखते हैं तभी भारत. रामायण आदि संस्कृत के सभा आधार उनका निर्मल सन्त-मन मुस्कराता है। ग्रन्थ पुरुष प्रणीत हैं । नारी-उपेक्षा की इस
श्वेताम्बर जैनधर्म धारा की महाप्रज्ञा महाचिरन्तन शृंखला को अपने वैदुष्य से तोड़ने वाली
सती प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री महाराज श्वेताम्बर नारियों में ये अग्रणी मानी जा सकती हैं। उनकी
जैन खरतरगच्छ की महिला सन्तों में दया, प्रेम, ग्रन्थ रचनाएँ परम मौलिक एवं पुरुष विद्वानों को
करुणा और परोपकार की जीवंत महिला सन्तरत्न भी चुनौती देने वाली हैं।
हैं। ये अपने लिए वज्र के समान होने के साथ प्रवर्तिनी श्री के विषय में क्या लिखू, उनकी
___ अंतर् में खोई, भीगी डूबी आत्मरमणता हैं । अपनी गौरव-गाथा को शब्दों में बाँध पाना भी किसी
पीडा, अपनी असाता को कर्मोदय क्रीडांगण मानतो के द्वारा शक्य नहीं है। ऐसी विरल प्रतिभा
हैं। पिछले अनेक वर्षों से रोग आक्रामी हो आया साध्वीश्री के अभिनन्दन में मैं भी अपना तुच्छ
है, उसे परम समता से झेलती/जीती है। कई वर्ष अर्घ्य चढ़ाता हूँ।
से रोगाक्रमण इन पर प्रभावी है। पर उसे भुलाकर साहित्य सृजन इत्यादि लोक-मंगल के कार्यों का यज्ञ अक्षुण्ण चलाया हुआ है। ____जो साधक-साधिका अपने मन को सन्त बना लेते हैं वे ही साधक परपीड़ा, पर-मंगल में रत रह पाते हैं। उनके लिए स्व-उपसर्ग कर्म क्रीड़ा से अधिक कुछ नहीं होते। ___ महाप्रज्ञा साध्वीमना प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी के अभिनंदन ग्रन्थ के प्रकाशन कार्य के लिए सम्बन्धित श्रद्धानिष्ठ गृहस्थों को शताधिक्र साधुवाद देता हूँ-जिन्होंने महासती जी के जीवन व्यक्तित्व को
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभ कामनाएँ उजागर करने का शुभ संकल्प किया है। इसके साथ 0 मुनिश्री रूपचन्द जी महाराज ही पत्राचार के माध्यम से उत्साही एवं श्रमनिष्ठ
(दिल्ली) आर्या शशिप्रभाश्री जी एवं विदुषी आर्या सम्यग्- प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. सा. के अभिदर्शनाश्री जी की सराहना किये बगैर नहीं रह
नन्दन का समाचार जानकर अतीव प्रसन्नता हुई। सकता-जिन्होंने श्वेताम्बर जैन खरतरगच्छ की
साध्वीश्री जी से मेरा निकट परिचय राजगिरी तपःपूत साध्वीरत्न के जीवन कार्यों से समग्र जैन
पावापुरी चातुर्मास में हुआ। समाज को सुपरिचित कराने के लिए अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करवाकर एक समारोह में उसका
हम मुनिगण श्वेताम्बर कोठी, राजगिरी में लोकार्पण कराने का महान् संकल्प किया है।
ठहरे हुए थे । चातुर्मास का प्रारम्भ हुआ नहीं था।
साध्वीश्री का राजगिरी आगमन हुआ। वे हमारे उक्त अभिनंदन ग्रन्थ का प्रकाशन निश्चय ही स्थान पर पधारी । वरिष्ठ साध्वी को सामने देखएक सच्चा सन्त सम्मान साबित होगा। साध्वी कर वार्तालाप के लिए मैंने अपना आसन जमीन रत्न की निर्मल असांप्रदायिक व्यापक दृष्टि का पर बिछाने के लिए कहा। तभी साध्वीश्री ने कहायह ग्रन्थ परिचायक भी सिद्ध होगा। जैनदर्शन से यह कैसे हो सकता है ? आपको पट्ट पर ही विरासम्बन्धित निबन्धों का संयोजन भी इसमें किया जना होगा। मैंने बहत कहा-आप वरिष्ठ हैं, आगगया है । उसमें विविध विद्वानों के लेखों का एक मज्ञा हैं, आपका सम्मान चारित्र और श्रु त का जगह उपलब्ध होना भी विशिष्ट महत्वपूर्ण कार्य सम्मान है। किन्त साध्वीश्री ने मेरी एक भी नहीं है। इससे अभिनंदन ग्रन्थ व्यक्तिपरक न रहकर सुनी । तुरन्त अपना आसन बिछाकर वे सामने समष्टिपरक होगा।
विराज गईं। आपकी अकृत्रिम नम्रता के प्रति मैं
मन ही मन नत-मस्तक था । एक बार पुनः साध्वी शशिप्रभाश्री के इस महनीय कार्य की मैं मनतः अभिवृद्धि और प्रभावी
भगवान महावीर के पच्चीसवें निर्वाण समारोह होने की शुभकामना करता हूँ।
में आपको सदा प्रचारलिप्सा में दूर मौन भाव से शासन की सेवा में रत पाया । एक विनय-शीलसम्पन्न, सहज-शान्त तथा मौन सेवारत साध्वीश्री का सम्मान पूरे साध्वी समाज का सम्मान है । श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ इसके लिए बधाई
का पात्र है। ॐ मुनिश्री कैलाशसागर जी म०
0 श्री कुशलमुनिजी महाराज
विदुषी साध्वीरत्न श्री सज्जनश्री जी का रत्नों की गुलाबी नगरी जयपुर में जन्म प्राप्त अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, जानकर प्रस- कर भौतिक रत्नों में न लुभाते हुए, आपने आध्यात्रता हुई।
त्मिक पंच रत्न अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं
परिग्रह को अपनी पारखी नजरों से परखकर अपने साध्वीश्री का स्वास्थ्य स्वस्थ रह। दाघायु बन जातो शासन सेवा करें, गुरुदेव से प्रार्थना व शुभाशीर्वाद
दीक्षा ग्रहण करके, इस अमूल्य मानव-जीवन के - महत्व को समझकर, साधना के मार्ग पर चलकर
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खण्ड : २ आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
साधक के गुणों को विकसित किया । उन्हीं के उप- जो आगमप्रज्ञ हैं, द्रव्यानुयोग जिनका प्रिय देश, उन्हीं का आचरण जन-मन को प्रभावित ही विषय है। अपनी असाधारण ज्ञान-प्रतिभा द्वारा नहीं करता अपितु अन्तर् विकास की भावना भी द्रव्यानुयोग जैसे कठिन ग्रन्थों का भी बाल जीवों के उत्पन्न करता है। ये सभी गुण सज्जनश्री जी में लिये सुलभ भाषा में अनुवाद किया । विद्यमान हैं।
ऐसी महान विदुपी प्रवर्तिनी पद से विभूषित इनका जीवन इनके नाम के अनुरूप ही है। स्वनामधन्या साध्वीजी सज्जनश्री जी का अभिनन्दन आगम, द्रव्यानुयोग, संस्कृत जैसे कठिन विषयों की विशेषांक प्रगट करके जयपूर जैन संघ बहमान कर पूर्णतया ज्ञाता होने के साथ ही गम्भीरता, सरलता, रहा है, इस की हमें परम खुशी है। स्पष्ट वक्ता आदि अनेक गुणों से मंडित उनका
___ जिनेश्वर प्रभु से प्रार्थना है कि साध्वीजी चिरायु जीवन पुष्प की सौरभ के समान आज भी जन
हों और जैन संघ एवं खरतरगच्छ की सेवा करतेमानस में छाया हुआ है।
करते अपनी आत्मा का भाव-मंगल करें। ___ कहा भी है जो साधु-साध्वी निर्दोष मार्ग पर चलते हैं तथा निष्काम होकर दूसरे मनुष्यों को भी उस सत्य मार्ग पर चलाते हैं वे खुद तो भवसागर से तरते हैं साथ ही दूगरे प्राणियों को भी 0 प्रतिनी श्री जिनश्रीजी म. सा० भवसागर से तारने में समर्थ होते हैं। ऐसे सन्तों को समाज भुला नहीं सकता है।
वयोवृद्धा, साध्वी श्रेष्ठा, ज्ञानध्यानमग्ना, ऐसी ही प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी का जो प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म.सा. ! मैं साशीर्वादपूर्वक "अभिनन्दन ग्रन्थ" प्रकाशित हो रहा है, वह संघ के लिखना चाहती हूँ कि आपका जो गौरवग्रन्थ निकल लिए बड़े ही हर्ष का विषय है।
रहा है, वह अत्यन्त समुचित आयोजन इसलिए है कि यह गौरव केवल आपका नहीं समग्र जैन साध्वी समाज का है । जैन-शासन का है । आपने जिस ढंग
से जप-तप युक्त ऊँचे आध्यात्मिक जीवन को अप10 श्रीजयानन्दजी मुनि
नाया है, जिस एकाग्रवृति से ज्ञान साधना की है
और विशाल श्रावक समाज में विशाल धर्मप्रेरणा (सुशिष्य गणिश्री बुद्धिमुनि जी)
जगायी है वह अनूठी है। भूरि-भूरि प्रशंसायोग्य
है । अतः मैं आपको अंतःकरणपूर्वक शाबासी देती जिन्होंने राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर हई आपका अभिनन्दन करती हूँ तथा ऐसी हार्दिक में जन्म लेकर इस धर्मभूमि से धर्मसंस्कार ग्रहण शुभभावना व्यक्त करती हूँ कि आप प्रगति पथ पर करके युवावय में संसार के भौतिक सुखों को तिलां- दीर्घकाल तक अक्षुण्णरूप से आगे बढ़ती रहो। ० जलि देकर प्रभु महावीर स्वामीजी के मार्ग को अंगीकार किया।
जो साधनसम्पन्न परिवार के थे फिर भो जिन्होंने ज्ञानभित वैराग्य द्वारा चारित्रमार्ग अंगीकार करके अपने परिवार, जैन-समाज एवं खरतरगच्छ को गौरवशील किया।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ D साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी प्रवर्तिनी श्री जी के सम्बन्ध में एक महान
दार्शनिक आचार्य का दिव्य उद्गार स्मृति-पटल पर जैन श्रमणी का जीवन त्याग-तपस्या-संयम-सेवा अवतरित हो रहा है "वसन्तवल्ले कहित चरन्त । की चतुर्मुखी ज्योति है, वह पवित्रता और प्रशम अर्थात् महान संयमी सन्त-जीवन वह है जो ऋतुरस की स्रोतस्विनी है । युग-युग से मानव को जीवन राज बसन्त के समान लोकहित का निर्माण करते को ऊर्ध्वगामिता का सन्देश सुनाती आई है श्रमणी! हैं। सत्कर्म के दिव्यपुष्प उनके द्वारा आरोपित किए
श्वेताम्बर मतिपजक परम्परा में खरतरगच्छ हए ऐसे खिलते हैं, महकते हैं कि सष्टि का रूप कुछ परम्परा की प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का और का और हो जाता है । मानव के मन का कणजीवन भी संयम की दीर्घ साधना का जीवन्त इति- कण खिल उठता है, इस प्रकार के बसन्त के आविहास है। तेरापंथ परम्परा के साथ उनका बहुत ही र्भाव में । सज्जनश्री जी साधना के क्षेत्र की ऐसी नजदीकी पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। आपके ही बसन्त हैं । सौजन्य और सरलता से हम सभी सुपरिचित हैं।
साधुजीवन सहज रूप से स्वयं ही एक अभिऐसी समत्व साधिका विदुषी श्रमणी का अभिनन्दन
नन्दन है । फिर प्रवर्तिनी श्री जी जैसे निर्मल, जैनत्व की गरिमा को अवश्य मंडित करेगा।
निश्छल एवं सहज उदात्त साधु-जीवन का तो कहना ही क्या ? मुझे प्रसन्नता है प्रवर्तिनीश्री जी के
सम्बन्ध में एक विराट समादरणीय अभिनन्दन ग्रन्थ - आचार्य श्री चन्दनाजो
प्रकाशित किया जा रहा है । मैं उक्त प्रकाशन रूप
सत्कार्य में संलग्न सुयोग्य साध्वीजनों का, साथ ही - (वीरायतन)
भावनाशील भक्त उपासकों का भी हृदय से अभिसाध्वी रत्न सौम्यमूर्ति प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री नन्दन करती हूँ। सत्कर्म किसी के भी द्वारा हो वह जी की मधुर-स्मृति मन-मस्तिष्क पर सहसा सर्वतोभावेन सदैव अभिनन्दनीय है। ज्योतिर्मय हो उठी है । उनके मिलन का काल काफी लम्बी यात्रा कर चुका है फिर भी ऐसा लगता है कि वे अभी-अभी मिली हैं और उनके मिलन की सुगंध आस-पास के वातावरण में आज भी महक
0 आर्या धर्मश्री रतिश्री म० सा० रही है।
प्रवर्तिनी श्री जी का जीवन एक ऐसे मंगलदीप का जीवन है, जो दीप से दीप प्रज्वलित होते रहने परम विदूषी आगमज्योति प्रवतिनी श्री सज्जनकी सक्ति को फलितार्थ करता है । उनके द्वारा श्री जी म. खरतरगच्छ की ही नहीं अपितु जैन अनेक भव्य आत्माओं का जीवन निम्न धरातल से समाज की विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न साध्वी हैं। वे ऊपर उठकर सदाचार एवं संयम के एक-से-एक आगममर्मज्ञा हैं, समता-सरलता की साक्षात देवी ऊँचे शिखरों पर पहुँचता रहा है।
हैं। आपका अनुपम व्यक्तित्व जैन अजैन सभी के लिए महासती जी ज्ञान एवं कर्म की मिलनमूर्ति हैं। श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है । आपकी जन-कल्याण ज्ञान और तदनुरूप कर्म के क्षेत्र में जो इन्होंने मय वाणी सभी के दिलों में गुजित है। आपकी अनेकानेक स्थानों में बीजारोपण किये हैं, वे अंकुरित व्याख्यान शैली सरलतम है, कठिन से कठिन आगम ही नहीं अपितु सुचारु रूप से पल्लवित, पुष्पित वाणी को सुगमता से समझाकर श्रोता को सन्तुष्ट होते हुए अन्ततः फलित स्थिति में भी पहुंचे हैं। कर देती हैं । आपके व्याख्यान मनोरंजन के लिए
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ नहीं होते, अपितु आत्म-परिवर्तन के लिए से मानव मन में दिव्य तेज ओज का संचार करती होते हैं।
रही है । चाहे क्रान्ति हो या शान्ति हो, भ्रान्ति के
के चक्कर में न उलझ कर दोनों परिस्थितियों में ___शुरू से स्वाध्याय का गुण जीवन का दूसर।
- शानदार दायित्व निभाती है। वह ममतामयी माँ अंग बना हुआ है। इस अवस्था में स्वाध्याय करने
है, सहज स्नेह बिखेरती भगिनी है, श्रद्धा स्निग्ध व कराने का क्रम नहीं छोड़ा, ये इनकी अप्रमत्तता
कन्या है तो सर्वस्व समर्पित सह-र्मिणी भी है । का द्योतक है।
भारतीय साहित्य में नारी नारायणी के रूप में सदा जीवन में तप और त्याग की रुचि भी अनु- प्रतिष्ठित रही है। करणीय है । आप व्याख्यात्री के साथ-साथ एक
___नारी की इस गुणवत्ता को कुशल प्रहरी की सफल लेखिका व आशुकवयित्री भी हैं। भाँति संरक्षित रखने में पूर्ण प्रयत्नशील विदुषी
गुरुदेव से प्रार्थना है कि सुसाध्वीजी पूर्ण श्रेष्ठा सज्जनश्री जी म० सा० के व्यक्तित्व एवं स्वस्थ रहकर जैन धर्म की विजयध्वजा फहराती कृतित्व को उजागर करने हेतु अभिनंदन समारोह हुई जन-जन के लिए दीपक की तरह उपयोगी व ग्रन्थ प्रकाशन का आयोजन प्रसन्नतादायी व बनें।
प्रशंसनीय है। साध्वी-रत्न, प्रवर्तिनी महोदया आशु कवयित्री, सफल लेखिका व आगमों की गंभीर ज्ञाता
हैं। जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण, काव्य, - साध्वी श्री मनोहरश्री
आगम आदि ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन कर स्व(छत्तीसगढ़ रत्न शिरोमणि)
जीवन को महकाया है एवं कई भव्य आत्माओं को
चमकाया है । जो सर्वदा निस्पृह, निरपेक्ष भाव से वीतराग तीर्थंकरों का यह वज्राघोष रहा है साधना के पथ पर अप्रमत्तता से बढती हई अपने कि आध्यात्मिक समुत्कर्ष जितना पुरुष कर सकता जीवन पप्प को ज्ञानादि सदगुणों के सौरभ व संयमहै उतना ही नारी भी कर सकती है। चतुविध संघ शील-सेवा-सद्भावना के विरल सौन्दर्य से मंडित में दो संघ नारी सम्बन्धित हैं, वे संघ के आधार कर पुण्य उपवन में सुरभि और सुषमा का विस्तार हैं । अपने आप में ऐसी मिशाल हैं जो अन्यत्र ढूढ़ने कर रही हैं। जिनमें ज्ञान की ललक है, दर्शन की पर भी नहीं मिल सकती। नारी वह शक्ति है, चन्द्र
दमक है, चरित्र की चमक है। शान्त, सरल, गुणकान्त मणि है जिसकी शीतल रश्मियों के आलोक गम्भीर प्रकृतिसम्पन्ना प्रवर्तिनी श्री सज्जनजीश्री म० में पुरुष न केवल पथ खोजता है अपितु दिव्य
वस्तुतः समाज की गौरव हैं। अभिनंदन की पात्र हैं। शक्तियों को जाग्रत कर जन से जिन पद तक पहुँचता अभिनंदन की इस बेला में मेरी भव्य भावना है कि है।
वे चिरंजीवी बनें एवं उनके जीवन सुमन की लुभाब्राह्मी सुन्दरी ने बाहुबली को जगाया, राजी- वनी महक का विस्तार कर सबको प्रेरित करने मति ने रथनेमी को प्रबोध दिया, कमलावती ने वाला यह अभिनंदन ग्रन्थ त्याग, श्र त, संयम, शील इषुकार को संबोधि दी, याकिनी महत्तरा ने हरि- की गौरव-गाथा बने । यही हार्दिक शुभकामना है। भद्र को सत्य मार्ग सुझाया, रत्नावली ने तुलसी को संत तुलसी बनाया । ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण
卐 हैं । उद्बोधिनी शक्ति नारी अपनी मृदुता, उदारता खण्ड २/२
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएं
श्री निर्मलाश्री जी म. सा० आदि अनेक विशिष्टताओं से युक्त है जीवन जिनका
वे हैं प्रवर्तिनी पू० श्री सज्जनश्री जी मसा० । हार्दिक प्रसन्नता का विषय है पूज्यवर्या प्रवर्तिनी पूज्या प्रवर्तिनी सा० का जीवनवृक्ष अनेकानेक श्री सज्जनश्रीजी म.सा० के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती गुणों रूपी फलों से आपूरित है। यह बात निश्चित उपलक्ष में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। है कि साधक की साधना जितनी बलवती होती
मेरा परम सौभाग्य रहा कि मुझे बचपन से ही जाती है-उसमें उतनी ही सरलता बढ़ती चली पूज्य गुरुवर्याश्री के दर्शनों का लाभ मिलता रहा जाती है। उसके व्यवहार में निश्छलता सहज होती
और अब तो चरणों में रहने का भी सौभाग्य प्राप्त है। सांसारिक क्षेत्र में ज्ञान के साथ अभिमान, पद हुआ।
के साथ मद उभरता है लेकिन साधना क्षेत्र में आपका स्वभाव अत्यन्त सरल विनम्र है । हम ज्ञान के साथ सरलता बढ़ती है। जब कभी भी जाते तो सरलता-वात्सल्यता के साथ हृदय में आल्हाद भर जाता है, अनुमोदना भाव बातचीत करतीं। मने अपने जीवनकाल में कभी उभरने लगता है-पूज्या प्रवर्तिनी जी के जीवन उत्तेजित नहीं होते देखा । आरम्भ से अभी तक वैभव को देखक र । प्रवर्तिनी पद और कितनी सहउनके जीवन में कभी कृत्रिमता नहीं देखी। किसी में जता, आत्मज्ञान में सर्वोपरि स्थान पर कितनी भेदभाव करते नहीं देखा । माया, कपट, छल करते सरलता, जीवन का वृद्धत्व पर कितनी अप्रमत्तता। नहीं देखा । सदा स्वाध्याय करना व कराना इसी अभिनन्दन है उनका, अभिवन्दन है उनकामें तल्लीनता देखी। तप, त्याग, संयमनिष्ठ बनने जो जीवन के एक-एक पल को सतर्कता से जी रहे की सभी को प्रेरणा देती रहती हैं कि संयम, तप, हैं। प्रार्थना है प्रभु से-वे शतायु हों और हमारी त्याग के बिना जीवन का कोई महत्व नहीं है। कितने पथपशिका बनी रहें। भी पढ़ लो, दुनिया से कितनी भी प्रसिद्धि पा लो, लोगों को कितना भी रिझालो परन्तु जब तक आत्मा को नहीं रिझाओगे तब तक कुछ नहीं है ।
श्री अविचलश्री जी म० गुरुदेव से मैं पूज्य गुरुवर्याश्री की शतायु
(सुशिष्या प० पू० प्र० विचक्षणश्री जी म० सा०) दीर्घायु की कामना करती हुई पुनः गुरुवर्याश्री से यही आशीर्वाद चाहती हूँ कि आपकी तरह सरल, केवल खरतरगच्छ संघ के लिए ही नहीं परन्तु सहिष्ण बन जीवन को समुज्ज्वल बना मोक्ष लक्ष्य समस्त जैन संघ-समाज के लिए गौरव की बात है को प्राप्त करू । इसी शुभेच्छा के साथ चरणों में कि प० पू० जैन कोकिला प्र० स्व० विचक्षणश्री जी कोटि-कोटि अभिनन्दन-अभिवन्दन ।
म० सा० की पट्ट धारिणी, आशु कवयित्री, आगम
मर्मज्ञा प्र० सज्जनश्री सा० का अभिनन्दन होने जा साध्वी श्री मणिप्रभाश्री जी म.सा. रहा है । यह उनके व्यक्तित्व का परिचायक है अतः
विशेष कुछ न लिखकर शासनदेव व गुरुदेव से (सुशिष्या स्व० साध्वी विचक्षणश्री म०सा०)
प्रार्थना है कि इन्हें दीर्घायु करें जिससे चिरकाल नाम के साथ गुण का अद्भुत संयोग, ज्ञान के तक जिनशासन की प्रभावना करते रहें एवं अनेकासाथ सरलता का सुयोग, पद के साथ वात्सल्य का नेक भक्तात्माओं को वीतराग वाणी का अमृत पान योग, अप्रमत्तता से समय का उपयोग, विद्वत्ता के कराकर संयममार्गी व मोक्षगामी बनावें । इसी साथ कवित्व का प्रयोग, ज्ञान दान में पूर्ण मनोयोग शुभकामना के साथ ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
अचलगच्छीय साध्वीश्री ज्योतिष्प्रभाजी म० यिल महापुरुषना गुणो गाइ शकाय, सागरना बिन्दु,
अकाशना तारा, रेतीना कणीया, गणवा जेम अशक्य विश्वनी अन्दर गुरुभगवन्तों विश्वना जीवोना छे तेम मारी बुद्धया अमना गणेनु मूल्य करबु अशक्य हितने माटे जीवन जीवनारा होय छे । मानवना छ । अवा आगमप्रज्ञ गरुभगवन्त श्री जी ने कोटी.... काडे बाधेलु घडियाल मानवने काम आवे छे । घरमां कोटी वंदन""वंदन""वंदन। रहेलु घडियाल घरना माणसोने काम आवे छे, शेरीमा रहेलु घडियाल शेरीना माणसोने काम आवे . विचक्षण ज्योति, छ । परन्तु टावर बधाने काम आवे छे । तेम गुरु भग
साध्वी श्री चन्द्रप्रभाश्री वन्तो विश्वनां तमाम जीवोना हितने माटे टावरनी
___ वर्तमान युग की जाज्वल्यमान व्यक्तित्व एवं जेम पोताना जीवन ने जीवीने दुनियानां तमाम दैदीप्यमान कृतित्व की देवी, वात्सल्यवारिधि, जीवोनु भलु करनारा होय छे, महान प्रताप
अप्रतिम प्रतिभा की धनी, अनुपम साधिका, शाली, प्रतिभासंपन्ना, अजोड वक्ता, नाम तेवा गुणोने
परम श्रद्धया प्र० म० श्री सज्जनश्रीजी म० को प्राप्त करणारा प० पू. आगमप्रज्ञ सज्जनश्री
वन्दन। जी म. सा. ना गुणोनु हुँ शु वर्णन करू ! जेमना
भगवान् महावीर के पद जिनके अणु-अणु में जीवनमा सज्जनता रगेरगमा भरेली छे, प्रमालता, व्याप्त हैं. ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती के प्रति एकाग्र अमीदृष्टि, वाल्सल्यता, परार्थरसिकता, मंत्रीभाव, साधना, गुरुदेव एवं गुरुवर्या श्री के प्रति समर्पित निस्पृहता आदी अनेक गुणों ऐमने जे वरेला छे, ज्ञान भावना, सहनशीलता की महाकाव्य, स्नेह सहानुभूति पिपासु तो एवा छे के जेमना सान्निध्यमा जे आवे की सारस्वत गंगा, सहज स्फूर्त अध्यात्म धारा तो व्यक्ति ज जाणी शके ।।
प्रवाहिका, अनन्त दैविक गुणों की खान पूज्य प्रवर्तिनी ह, जामनगरमां चातुर्मास हती. त्यारे मने अनु- साध्वीजी श्री सज्जनश्रीजी म.सा. के जीवन से भव थयो । ए जणावता आनन्द थाय छे के आवा मैं अन्तस्तल तक प्रभावित हूँ। गुणियल गुरुना गुणों लखवानो अवसर मल्यो । युग की इस महान् मनीषी का अभिनन्दन पुज्य श्रीजीनो स्व-पर-दर्शननो बोध अपूर्व कोटीनो यथार्थतः इस अनुपम गरिमामय गुणों का ही अभिछे अमेणो घणा आगमग्रन्थोनु वांचन मनन परिशीलन नन्दन है। चिन्तन अने अनुप्रेक्षा करेली छे । अमे बन्ने ठाणा इस पुनीत अवसर पर मैं श्रद्ध या गुरुवर्याश्री अमनी पासे सुयगडांग सुत्रनी टीका वांचवा जता। के सचरणों में अभिनन्दन-अभिवन्दन के समकित त्यारे अमेनी समजाववानी कला अनुभवी अजब पुष्प समर्पित करती हूं। कोटीनी के आपणने हृदय मां बसी ज जाय, बीजी 0 साध्वी श्री मुदितप्रज्ञाश्री पर पुस्तक हाथमा लेवानी जरूर ज न पड़े। ज्यारे
____संसार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया जईय त्यारे अप्रमत्त दशा ऐवी के पुस्तक हाथमां
है कि “सन्त भारत की आत्मा है, भारतीय इतिज होए, गमे ते समये गया होईए पण क्यारे अमेना
हास के निर्माण में वे नींव की ईंट के रूप में रहे मुखमांथी नकारनो नाम ज नथी ।
हैं। जिस प्रकार प्रत्येक पर्वत पर मणियाँ नहीं वात्सल्यथी भरपूर अमेनु हृदय ने जोईने गुरु- होतीं, हर हाथी के मस्तक में मुक्ता नहीं होती, हर समर्पण भाव उमेराया विना रहे ज नहीं । पोताना जंगल में चन्दन के वृक्ष नहीं होते उसी प्रकार प्रत्येक विशाल शिष्या वृन्दमा पण अमेने अधिक व्हालथी स्थान पर सज्जन पुरुष नहीं होते। महापुरुष अपने अभ्यास करावता, आ नानकडी जीभथी आवा गुण- व्यक्तित्व के कारण महान् बनते हैं । व्यक्तित्व
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ आचार-विचार की दो धातुओं से बनता है । जिसमें
साध्वी मधुस्मिताश्री आचार की ऊँचाई व विचार की गहराई होती हैं (प. पू. शासनज्योति मनोहर श्री जी म. सा. की शिष्या) वही जीवन महान होता है।
___ मैं अपने आपको भाग्यशालिनी मानती हूँ कि विवेक-विलासी, संसार से उदासी, शिव मुझे आगमज्ञाता, परम विदुषी, आशु कवयित्री, रमणी की प्यासी, तत्त्व ज्ञान की उल्लासी पूज्य- परमपूज्या प्रतिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. की गुणवर्या श्री का जीवन भी लाखों में एक है । मानों गरिमा का वर्णन करने का अवसर प्राप्त हआ है।
में जैसे पानी की नन्हीं सी बूद में कोई चमत्कार नहीं वैराग्य उन्हें पूर्व जन्म की विरासत के रूप में
होता है, परन्तु वही नन्हीं बूद जब कमलिनी के मिला है।
पत्तों का संसर्ग पा लेती है तो वह अनमोल मोती गणों की गुरुता के कारण व्यक्ति की महत्ता की आभा को प्राप्त कर लेती है। उसी प्रकार मैं बहती है। धीरे-धीरे आपश्री विनय-विवक- अपने आपको धन्य मानती हैं। स्वाध्याय-ज्ञान-ध्यान-तप जप से अभ्युदय के शिखर परमपूज्य सज्जनश्री जी म. सा. स्वनामधन्या पर पहुँचने लगी।
तो हैं ही साथ में आपका जीवन तप, त्याग, संयम तथा ___ आपश्री अप्रमत्तता के साथ अध्ययन में सदा परोपकारमय है। आपने अपने ज्योतिर्मय जीवन संलग्न रहती हैं। वर्तमान में ८० की उम्र है, की खुशबू चारों तरफ फैला दी है। जो भी आपके स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं है फिर भी स्वाध्याय पक्ष सम्पर्क में आता है, आकर्षित हुए बिना नहीं रहता । कमजोर नहीं है। अध्ययन-अध्यापन में सदा आगे आपकी बुद्धि-पटुता भी गजब की है। एक ही रहती हैं। आपश्री का चिन्तन गहरा है, विश्ले- सामायिक के अन्दर भक्तामर स्तोत्र को कंठस्थ कर षण शक्ति अद्भुत है। ज्ञानी हैं, पर ज्ञान का लिया। अहंकार नहीं है। विनय-विवेक से समन्वित उनका में अपने आपको बहुत ही भाग्यशालिनी मानती जीवन दर्शन प्रेरक है।
हूँ कि मुझे आपश्री का सान्निध्य प्राप्त हुआ। दीक्षा
से पूर्व गृहस्थ-जीवन में चार वर्ष तक मुझे आपका आपश्री के जीवन में सरलता अजब गजब की
सान्निध्य, ओजस्वपूर्ण वाणी, वात्सल्यता तथा आपका है। कैसा भी प्रश्न उपस्थित हो जाय बिना किसी निर्देश बराबर मिलता रहा। संयम ग्रहण करने के तनाव व आक्रोश के उलझन को सुलझन का रूप दे पश्चात अभी मैंने प्रथम
पश्चात् अभी मैंने प्रथम बार जयपुर में आपश्री के देती हैं।
दर्शन कर अपना अहोभाग्य समझा। थोड़े समय के ____ आपश्री की विशेषताओं को देखकर सभी पूज्य
संयोग ने तथा आपकी स्नेहमयी वाणी ने मेरे जीवन वर्याओं के मुंह से यही उद्गार निकलते "शिष्या बने
__ को मोह लिया। समयाभाव तथा आगे की परितो ऐसी जो स्वयं भी सुखी उनसे दूसरे भी सुखी ।" अरे, स्थितियों को देखते हुए हमें इच्छा न होते हुए भी कोई तो सज्जन बनो। नीति में भी कहा है कि जयपुर से प्रस्थान करना पड़ा । विहार करते समय
' आपके मुर्ख रूपी कमल से यही शब्द स्फुटित हए कि "भक्त चित्त में रहे प्रभु वह नर धन्य है।
ऋजु परिणामी बनो, शासन की सेवा करो, जीवन प्रभुचित्त में रहे भक्त वह नर धन्योत्तम धन्य है।"
को उन्नत बनाओ। इस पावन बेला में मेरे अन्तर् हृदय में जो भाव आपकी जीवन गत गुण गरिमा के लिए कितना उमड़ रहे हैं उन्हें आपश्री "सुदामा के तन्दुल" की क्या लिखू। आपकी सर्वोन्नत प्रतिभा का आलेखन तरह अवश्य स्वीकार करें।
करने में यह कलम सक्षम नहीं है । अन्त में शासन
देवी तथा गुरुदेव से यही मंगल कामना करती हूं ● कि आप दीर्घायु बनें।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ विभिन्न आम्नाय-प्रतिनिधि प्रमुख सदग हस्थों जैनसंघों,
संस्थाओं एवं श्रध्दालु श्रावकों की
शुभकामना-वन्दना
- श्री विमलचन्दजी सुराना (जयपुर) श्री उमरावमलजी चौरडिया (जयपुर)
श्रमणत्व का सार है कषायों की निवृत्ति । इस जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ के आर्यारत्न अर्थ में पूज्याश्री का जीवन वास्तव में श्रमणी जीवन प्रवतिनी श्री सज्जनश्री जी महाराज साहब का है । ज्ञान के भंडार होने पर भी अहं का लेशमात्र अभिनन्दन करने का निश्चय किया है, यह परम भी नहीं । आप सरलता की प्रतिमूर्ति हैं। उनके सौभाग्य की बात है। गुणानुमोदन के लिए लिखा गया यह 'ग्रन्थ' हमारी
अभिनन्दनीय का अभिनन्दन करने का तो राग-द्वेष की सारी ग्रन्थियों को तोड़ने वाला बने,
हमारा सामर्थ्य कहाँ है ? निश्चय ही उनके उदात्त यही आपश्री के प्रति वास्तविक श्रद्धांजलि होगी।
तत्वज्ञानमय विचार, हृदयंगम कराने की अप्रतिम प्रतिभा, शान्त, सेवाभावी एवं निरभिमानी व्यक्तित्व
जन-जन का प्रेरणास्रोत बन समाज को एक 0 श्री हरिश्चन्द्र जी बड़ेर (जयपुर) नया दिशा-दर्शन देता रहेगा। इसी भावना के साथ
श्रीचरणों में भावांजलि एवं ग्रन्थ के लिए शुभमहासती परम पूज्या श्रद्धय सज्जनश्रीजी कामनायें। म. सा. उत्कृष्ट कोटि की साधिका हैं।
श्री जवाहरलालजी मुणोत (बम्बई) ., श्रद्धय महासती जी का जीवन महान् है । मैं इन महान् साधनाशील महासती जी के लिये जिनेश्वर
(भू० पू० अध्यक्ष-अ० भा० श्वे० स्थानकवासी भगवान् से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप स्वस्थ
जैन कान्फ्रेंस, दिल्ली) एवं दीर्घ जीवन जीयें, प्रकाश से महाप्रकाश की जैन समाज की एक परम दैदीप्यमान महासती ओर इतने अग्रसर हो जायें कि इसी भव में मक्ति श्रमणी आर्यारत्न प्रवतिनीजी श्री सज्जनश्री के महान अधिकारी बनें और जिनशासन की जी महाराज साहब का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रस्तुत अधिकाधिक सेवा करें और आपके अनमोल मार्ग- किया जा रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। दर्शन के माध्यम से अनेक आत्माएँ भवी बनें।
रूढ़ और स्थूल रूप से जैनधर्म ने, समस्त
धार्मिक संगठन को चार बहुत स्पष्ट भागों में 'जीवन चरित महापुरुषों के,
विभाजित कर डाला-श्रमण और श्रमणी तथा हमें नसीहत करते हैं।
श्रावक और श्राविका । भगवान् महावीर के क्रान्तिहम भी अपना अपना जीवन, कारी और अत्यन्त दूरदर्शी नियोजन का आधार स्वच्छ-रम्य कर सकते हैं।' देखिए, सुस्पष्ट है । इस प्राचीन और अर्वाचीन धर्म
में ही पुरुष और स्त्री को केवल आलंकारिक रूप में नहीं बल्कि समस्त अधिकारों के साथ बराबरबराबर स्थान निर्धारित किया गया है ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ जैन धर्म परम्परा अतीव भाग्यशाली है कि श्री हजारीमलजी बांठिया (कानपुर) इस समाज में, समय-समय पर अत्यन्त तेजस्वी, तपःपूत और कठोर आध्यात्मिक साधना से सफली
परम पूज्या साध्वी जी श्री सज्जनश्री जी म० भूत आर्यारत्न प्रवर्तिनीजी जैसी महान श्रमणी का सा० की वाणी तो ऐसी ज्ञानमयी जादू की वाणी है आविर्भाव हुआ है। परन्तु इनका अभिनन्दन तो जी चाहता है प्रतिदिन वह कान में गूंजती रहे और ऐसा अवसर है जब हमें बिना झिझक, फिर से मैं श्रवण करता रहूँ । ऐसी महान विदुषी का अभिचतुर्विध संघ को पुनर्स्थापित करने का सही और नन्दन कर आपने सचमुच ही जैनधर्म की गौरवमयी श्रमसाध्य प्रयास करना चाहिए। जहाँ दसरे चर्चा परम्परा को आगे बढ़ाया हैं । वे खरतरगच्छ में अथवा धार्मिक संघों में, स्त्री को आध्यात्मिक परम्परा की अवश्य हैं किन्तु सभी समाज के लिए समाज की समानता स्थिति देने के लिये नये आन्दो- पूजनीय एवं अभिनन्दनीय हैं। संत किसी बाड़े लन करने पड़ते हैं-वहीं यह कैसी विडम्बना है
में नहीं बँधते हैं । वे तो समस्त जगत् का उद्धार कि जो अपने संघीय प्रारम्भ से ही स्त्री स्वरूप को करने के लिए इस धरा पर अवतरित होते हैं, ऐसी सम्पूर्ण समान अधिकार देता है, उस जैनधर्मीय आगमज्ञा गुरूवर्या के चरणों में शतशः नमनसंघ को आज श्रमणी और श्राविका को उसके अभिनन्दन । असली अधिकार पर पुनर्स्थापित करने के लिए नये प्रयत्न करने पड़ रहे हैं। मेरे जैसे अकिंचन श्रावक की यही अभिलाषा है
0 श्री राजेन्द्रकुमारजी श्रीमाल कि अभिनन्दन का यह अनुपम अवसर इस महान
(श्री कुशलसंस्थान, जयपुर) कार्य के शुभारम्भ का सही श्रीगणेश करने में सफल हो।
वैराग्यमूर्ति, जनकल्याणकारी, मृदुभाषी, सरल स्वभावी, अज्ञानतिमिरनाशक, गुणनिधि प० पू०
प्रवतिनी श्री सज्जनश्री जी म० सा० के अभिनन्दन 0 श्री जी० आर० भण्डारी
ग्रन्थ प्रकाशित होने के समाचार जानकर हृदय
आनन्द से पुलकित हो उठा व प्रसन्नता का पारावार यह कहते हुए मुझे गर्व है कि साध्वीजी का न रहा। सम्पूर्ण जीवन प्राणी मात्र के आत्म-कल्लाण के लिए
प० पू० प्रवर्तिनी के जीवन का मुख्य लक्ष्य विद्योसमर्पित है । जैन समाज को ऐसी विदुषी साध्वी पर
पासना एवं सरस्वती साधना है। हम सान्निध्य एवं गर्व तो है ही साथ ही जैन समाज सदैव साध्वीजी
सम्पर्क में रहकर अपने आपको बड़ा गौरवशाली का ऋणी रहेगा।
एवं भाग्यशाली समझते हैं। आपश्री शतायु हों, मेरा विश्वास है कि प० पू० साध्वी जी श्री जनकल्याण हेतु ज्ञान बांटती रहें, तथा आपका शशिप्रभाश्री जी म. सा० "जैन दर्शनाचार्य के लिखा हुआ साहित्य प्रकाशित हो जिससे हमें नवीन सान्निध्य में प्रकाशित इस अभिनन्दन ग्रन्थ में जागृति, चेतना व मार्गदर्शन मिले-इन्हीं मंगल निश्चित ही साध्वीजी के संस्मरणों की अमूल्य भावनाओं से प्रेरित मेरा अभिनन्दन स्वीकार करें। निधि का समावेश रहेगा । मैं आपके प्रयासों एवं अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता चाहता हूं।
0 स्वभावी
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
1 विधावारिधि डॉ महेन्द्रसागर प्रचंडिया 0 डॉ० महावीरसरनजी जैन (जबलपुर)
डी० लिट० (निदेशक : जैन शोध अकादमी
आपने पूज्य साध्वी समुदाय के प्रवर्तिनी पद पर आगरा रोड, अलीगढ) प्रतिष्ठित साध्वीरत्ना सज्जनश्रीजी म. सा० के
अभिनन्दन ग्रन्थ की जो योजना बनाई है वह सुयह जानकर परम प्रसन्नता हई कि संधी समाज विचारित है । मैं अभिनन्दन ग्रन्थ की पूर्णता एवं परम वंद्य आगमप्रज्ञा प्रवर्तिनी सज्जनश्री महाराज ।
उसके शीघ्र प्रकाशन की तथा अभिनन्दन समारोह की वंदना में एक अभिनव अभिनन्दन-ग्रन्थराज प्रकट की सफलता की हादिक शुभकामनाएँ व्यक्त करता किया जा रहा है । अभिनन्दन-ग्रंथ में विदुषी हूँ। प्रतिभाशाली, तपस्वी, साधक एवं धर्मपरायण साधिका का जिनमार्ग और जिनवाणी विषयक व्यक्तित्वों का अभिनन्दन करना कृतज्ञ समाज का समूचा अवदान मूल्यांकित किया जाएगा, फलस्वरूप धर्म है । मैं उनकी संयम-यात्रा की प्रगति की भी ज्ञान-गौमती के पवित्र प्रवाह में अवगाहन करने का मंगलकामना करता हूँ। सुयोग प्राप्त होगा। सुधी साधिका परम पूजनीया सज्जनश्रीजी
0 श्री दौलतसिंह जी जैन महाराज के सुख-साता की मंगल - कामना करता हुआ, यह आत्म-भाव उनके शत-सहस्र वर्षीय जीवन (मंत्री-श्री अखिल भारतीय जैन खरतरगच्छ की भव्य भावना भाता है।
महासंघ, दिल्ली) शत-शत वंदना सहित !!
0 यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि श्री जैन श्वेता
म्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर आगमज्ञा विदुषीवर्या - श्री चन्दनमल चाँद
प्रतिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा० का अभिनन्दन (सम्पादक : जैनजगत : बम्बई ग्रन्थ प्रकाशित कर रहा है। प्रवर्तिनीश्रीजी जैन प्रधानमंत्री : भारत जैन महामंडल) आगम व साहित्य की प्रखर ज्ञाता व प्रवचनकार हैं।
- आपने अनेक ग्रन्थों की रचना कर साहित्य का व्यक्तिशः प्रवर्तिनी श्री जी से मेरा सम्पर्क मञ भण्डार भरा है । तप द्वारा कर्मों का क्षय करते हुए याद नहीं है किन्तु कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी होते हैं जो आप आत्म-कल्याण लोक-कल्याण के मार्ग पर दूर बैठे भी अपनी सुगन्ध से आकृष्ट करते हैं। अग्रसर हैं। भारत के अनेक भागों में विचरण व आप ऐसी ही विदुषी, कवयित्री, लेखिका. अनेक चातुर्मास करके, आपने जिनेन्द्रदेव के सन्देश को भाषाओं की ज्ञाता और ज्ञान के अहंकार से रहित जनसाधारण तक पहुंचाया है। हैं । लगभग ४६ वर्षों के दीक्षा पर्याय में आपने आपको प्रवतिनी पद प्रदान कर समाज ने अपने अपनी संयम-साधना के साथ लेखनी एवं वाणी से को गौरवान्वित महसस किया है, शरीर के अस्वस्थ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान होते हुए भी आप धर्म-प्रचार-प्रसार का अनुकरणीय दिया है । स्वभाव से आप शान्त, सेवाभावी, मधुर- कार्य कर रही हैं । जिनेश्वरदेव से प्रार्थना है कि भाषी एवम् अध्ययनशील हैं । आपके अभिनन्दन आपको दीर्घायु प्रदान कर शासन की सेवा का अवसमारोह के अवसर पर मेरी भावभरी हादिक सर प्रदान करें। शुभकामनाएँ।
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पूर्व
खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ श्री इन्द्रचन्द्रजी मालू
स्थान बना लिया था और जैन कोकिला विरुद से ध्यक्ष
सम्मानित हुई थीं। एवं
पुज्य प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जनश्रीजी श्री अमृतराज बागरेचा महाराज साहिबा के अभिनन्दन समारोह के उपलक्ष
पूर्व उपाध्यक्ष में हम भी अपने श्रद्धा सुमन से उनके सज्जनतापूर्ण (श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ जोधपुर) शालीन व्यक्तित्व के लिए हार्दिक अभिनन्दन करते
जयपुर के अति प्रतिष्ठित कुटम्ब की पुत्रवधु हुए उनके अच्छे स्वास्थ एवं दीर्घायु की श्री दादाजिसे वैभवता एवं सम्पन्नता का तनिक भी अभाव गुरु स प्राथना करत है। नहीं । ऐसे सुखद वातावरण से संयम के कठोर पथ पर अग्रसर होने की तीव्र लालसा एवं दृढ़ संकल्प
अनुमोदना से प्रेरित होकर तरुण अवस्था में ही आपने दीक्षा 0 जनरल मैनेजर : सेठ आणंदजी ग्रहण कर महान कल्याणकारी कार्य किया।
__ कल्याणजी पेढ़ी अहमदाबाद ___ आपने अपने आत्म कल्याण हेतु कठिन तपस्यायें भी की हैं परन्तु इसके साथ ही आपकी लोक-कल्याण
उपरोक्त अभिनन्दन ग्रन्थ आपनी संस्था तरफ .. एवं पर-सेवा करने की प्रवृत्ति भी अथक रूप से थी प्रकाशित करवानी योजना परत्वे खूब-खूब
सक्रिय है । अतः दूसरों की आत्मा को आनन्द देना धन्यवाद । ही आपके जीवन की सरस घारा रही है।
सेठ आणंदजी पेढीना प्रमुखश्री तथा ट्रस्टीआपका त्यागपूर्ण जीवन आपकी सर्वोपरि उप
मंडल आ प्रकाशननी अनुमोदना करीये छीये । _ लब्धि है और इसी कारण धार्मिक सहिष्णुता-समन्वय, अनुशासन, उदारता, नम्रता से आप सर्वोच्च
जीवाणा खरतरगच्छ संघ पद प्रवर्तिनी का गौरवान्वित कर रही हैं तथा प्रवतिनीश्रीजी सर्वथा अभिनन्दन के योग्य साध्वी समुदाय के लिए अनुकरणीय उदाहरण भी हैं। सज्जनश्री म. सा० विदुषी होते हुए भी अहम् उपस्थित कर रही हैं।
अहंकार से घिरी हुई नहीं है। संयम साधना के __ आपके इन्हीं महान गुणों से ओत-प्रोत व्यक्ति क्षेत्र में साध्वी जी की अप्रमत्तता अनुकरणीय व को निखारने हेतु सूर्य नगरी-जोधपूर को, वि० सं० अनुमोदनीय है। २०३६ में आपके भव्य चातुर्मास में, आपको प्रवतिनी अपनी प्रभावपूर्ण वाणी द्वारा जन-जन को पद पर ससम्मान प्रतिष्ठित करने के आयोजन करने जाग्रत किया। जीवाणा श्री संघ पर उनका अनन्य का मंगलमय अवसर प्राप्त हुआ । अतः जोधपुर उपकार है । गुरुदेव से हार्दिक प्रार्थना है कि साध्वी समुदाय के लिए यह ऐतिहासिक आयोजन आपके जी को सुदीर्घ आरोग्यमय बनायें। गौरव के साथ चिरस्मरणीय रहेगा। इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखित करना उचित रहेगा कि स्व०
॥ श्रीसंघ झुंझनू प्रवर्तिनी पूज्या श्री विलक्षणश्रीजी महाराज प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब साहिबा की वृहद् दीक्षा का आयोजन करने का ने झुंझनु नगर में अपनी गुरुवर्या श्री उपयोगश्री जी भी पूर्व में जोधपुर समाज को स्वर्णिम अवसर प्राप्त महाराज साहब के सान्निध्य में सं० २००६ में विराहो चुका है जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में अपना विशिष्ट जित रहकर चातुर्मास सम्पन्न किया। चातुर्मास
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ अवधि में आपश्री की प्रेरणा से अनेक प्रकार की साहिबा जैन शासन नभ की एक ज्योतिर्मय तपस्या, वरघोडा पूजा, जागरण, स्वामिवात्सल्य तारिका है। आदि हुए । स्थानीय जैन एवं अजैन समाज आपकी आपके विद्वत्तापूर्ण वक्तव्य, विनयपूर्ण शांत सेवाप्रतिभाशाली प्रखर वक्तृत्व कला से लाभान्वित भाव, निरभिमान स्वल्प मधुर भाषण नियमित चर्या हुआ।
अनुकरणीय है। आपश्री का झुंझनु समाज से अत्यन्त स्नेह जैनशासन की आपने बहुत सेवा की है तथा रहा है।
जैन आगमों की ज्ञाता हैं। आपने बहुत से आगम ___ २० मई १९८६ को सम्पन्न होने वाले आपके तथा शास्त्रों का गहन अध्ययन करके, जन-साधारण अभिनन्दन समारोह अवसर पर झुंझनु श्री संघ शुभ के समझने योग्य भाषा में जो अनुवाद किये हैं उनसे कामनायें प्रेषित करता है तथा आपके दीर्घ जीवन समाज को इस सम्बन्ध में बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ है की श्री गुरुदेव जी महाराज से प्रार्थना करता है। तथा समाज को बहुत बल मिला है ।
0 ऐसी श्रेष्ठ विदूषी पूजनीय आर्या प्रवर्तिनी 0 मीसरीलालजी लोढा
श्री सज्जनश्रीजी महाराज का जितना भी गुणगान (अध्यक्ष-श्री महाकौशल जैन श्वे० मूर्तिपूजक संघ) किया जाये उतना ही कम है। इस सम्बन्ध में जो
जयपूर श्री संघ परम सौभाग्यशाली है जिसे अभिनन्दन समारोह प्रवर्तिनी श्री जी महाराज के “आगम ज्योति" उपाधिधारिणी, विदूषीवर्या शान्त, सम्मान में जयपुर में आयोजित किया जा रहा है, सरल, स्वभावा प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म० सा० वह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है। का अभिनन्दन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है इस पुनीत अवसर पर अपनी शुभ-कामनाओं साथ ही इस विराट अवसर पर जैन शासन की को प्रेषित करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। दिव्य ज्योतिर्मय तारिका, क्षमाशील, विनय और आशा है श्री गुरुदेव की कृपा से यह उत्सव सानन्द नम्रता की साकार जंगम मूर्ति, सौम्य सरलता सफल होगा। की प्रतीक गुरुवर्या प्रवर्तिनी पू० श्री सज्जनश्रीजी म० सा० के अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन का भी सुखद प्रसंग उपलब्ध हुआ है। हम इस शुभ अवसर के लिए आपको हार्दिक बधाई देते हैं।
D श्री हस्तीमलजी मुणोत, सिकन्दराबाद साथ ही पूज्यवर्या साध्वीरत्न प्रवर्तिनी श्री (कार्याध्यक्ष : अ. भा. श्वे. स्थानकवासी सज्जनश्रीजी म. सा० के स्वास्थ्य लाभ की आकांक्षा
जैन कान्फ्रेंस, दिल्ली) करते हुए उनके दीर्घायु होने की मंगल कामना
प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज का अभिनन्दन करते हैं।
एक सच्ची श्रमणी का अभिनन्दन है। जिनकी साधना
में-ज्ञान, साधना, वैयावृत्य और धर्मप्रचार के जवाहरलालजी राक्यान
चार स्तंभ लगे हैं । आपका हृदय बहुत ही उदार, (भू० पू० अध्यक्ष : खरतरगच्छ महासंघ) विनम्र और पाप-भीरु है। आपका अभिनन्दन आप “आगम ज्योति" उपाधि धारिणी पूज्य- कर हमें सचमुच प्रमोदभाव का आनन्द अनुभव वर्या प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जनजी महाराज होता है।
खण्ड २/३
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श्री कालूरामजी बाफना ( उपाध्यक्ष- --श्री अखिल भारतीय खरतरगच्छ महासंघ, बालाघाट )
तीर्थंकर महावीर के दर्शन के प्रचार / प्रसार के साथ-साथ आत्मकल्याण में संलग्न साध्वियों में प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्री जी म. सा. का नाम अग्रगण्य है ।
आपश्री का विनयी, शांत, निरभिमानी एवं मधुरभाषी स्वभाव आपके द्वारा आगम-ज्ञान का गहन अध्ययन एवं उसे दिनचर्या में उतारना दर्शाता है ।
वात्सल्य, करुणा, क्षमा की मूर्ति प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहिबा का अभिनन्दन वस्तुतः आपश्री के तप, त्याग एवं संयम का गुणानुवाद है । सं. २०४६ की वैशाख पूर्णिमा को जैन
श्वे० खरतरगच्छ संघ जयपुर द्वारा आयोजित अभिनन्दन समारोह भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित दर्शन के प्रति आस्था प्रकट करने का सशक्त माध्यम है । अतः श्री जैन श्वे० खरतर गच्छ संघ जयपुर साधुवाद का पात्र है ।
शासन देव से प्रार्थना है कि महान परोपकारी प्र. श्री सज्जन श्रीजी म. सा. को उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान करें जिससे जिन- शासन की अधिक-से-अधिक सेवा हो सके । प. पू. महाराज साहिबा एवं साध्वी समुदाय के चरणों में शत्-शत् वन्दन !
[ सोहनलाल जी पारसान
( भूतपूर्व जोइन्ट सेक्रेटरी : श्री जैन श्वेताम्बर मण्डल तीर्थ पावापुरी)
प्रातःस्मरणीया पूजनीया साध्वी श्री सज्जन श्री जी महाराज का अभिनन्दन समारोह जयपुर शहर में होने जा रहा है । यह सुनकर हृदय प्रफुल्लित हो उठा है । आज अनायास ही स्मरण हो आए वे दिन जब साध्वीश्री का चातुर्मास शासन नायक तीर्थंकर भगवान महावीर के २५०० वें
खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
निर्वाणोत्सव पर उनकी निर्वाण स्थली पावापुरी में सम्पन्न हुआ था । धन्य हो गया था वह दिन । क्योंकि करीबन १०० वर्षों से उधर किसी भी साध्वी जी का चातुर्मास हुआ ही नहीं था । आप पावन चरित्रा हैं, शास्त्र मर्मज्ञा हैं । आपका वहाँ आगमन न केवल वहाँ उपस्थित विशाल जनसमूह के लिए बल्कि जैनेतर समाज के लिए भी बड़े ही आनन्द के प्रभाव से प्रकृति भी मानो फूली नहीं समा रही एवं उल्लास का कारण बना था । आपके सचरित्र थी । यह मात्र कथन नहीं, हकीकत है । उस वर्ष फसल बहुत अच्छी हुई । बेचारे गरीब कृषक आज भी सज्जन श्री जी महाराज को स्मरण कर यह आकांक्षा करते हैं कि उनके पावन चरण पुनः पावापुरी में पड़ और वह धरती हरी-भरी बने ।
श्रीजी महाराज के पुनीत चरणों में मेरा शत-शत ऐसी शासन प्रभाविका महिमामयी श्री सज्जन
वन्दन !
0
श्री लालचन्द जी बैराठी ( अध्यक्ष, श्रीमाल सभा, जयपुर )
" आगम ज्योति' उपाधिधारिणी पूज्यवर्या प्रवर्तिनी महोदय श्रीमती सज्जन श्रीजी महाराज साहिबा जैन शासन नभ की एक दिव्य ज्योतिर्मय तारिका हैं । आप यथानाम तथागुण से ओत प्रोत हैं। आपका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सर्वथा अनुपम और अद्वितीय है । आप न केवल (जयपुर) राजस्थान की अपितु सम्पूर्ण जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ जैन समाज की शान हैं। भारत के सभी क्षेत्रों में आपके सरल स्वभाव व कठिन साधना की छाप है । आप जैन साहित्य की लेखिका के रूप में विशेष रूप से कलम की धनी हैं साधना व अध्ययन ही आपका मुख्य आधार है ।
हम अपनी ओर से एवं श्रीमाल सभा जयपुर की ओर से पूज्या गुरुवर्याश्री की सुदीर्घ जीवन की मंगल कामना के साथ आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
शिखरचन्द्रजो पालावत ( अध्यक्ष श्री जैन श्वे. तपागच्छ संघ ) आज भी हम बड़े गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि जैनसमाज में भारत की पावनभूमि में श्वेताम्बर समाज की चाहे वो तपः गच्छ की हों चाहे खरतरगच्छ की अथवा किसी अन्य गच्छ की, साध्वियाँ अपनी कीर्ति सारे भारतवर्ष में फैला रही हैं
परम पूज्या, आर्यरत्ना- प्रवर्तिनी "श्री सज्जन श्री जी महाराज" सम्पूर्ण जैन समाज की एक शान हैं, निधि हैं ।
आपने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल मध्य प्रदेश, गुजरात, सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में विचरण कर भगवान महावीर की वाणी को अपने प्रतिभाशाली प्रवचनों से जन-जन तक पहुँचाने का महान कार्य किया है । आपके द्वारा शासनोन्नति के अनेक स्मरणीय ऐतिहासिक कार्य हुए हैं ।
आपश्री युग-युगान्तर तक जैन समाज को दिशाबोध प्रदान करती रहें ।
साध्वीश्री के चरणों में शत-शत नमन !
श्री गुमानमल जी चोरड़िया ( अध्यक्ष : श्री वर्धमान स्मारक सेवा समिति जयपुर एवं पशुक्रूरता निवारण समिति, जयपुर )
महासती श्री सज्जन श्रीजी महाराज सा० को अपने पितृपक्ष से ही उच्च संस्कार प्राप्त हुए एवं वही संस्कार संत-सतियों के सान्निध्य में विकसित होते रहे । आपका जन्म विक्रम सं० १६६५ वैशाख पूर्णिमा का है । जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्रमा पूर्ण विकसित होकर अपनी प्रभा फैलाता है, उसी प्रकार प्रवर्तिनीश्रीजी ने अपने संयम की, तप की चारित्र की प्रभा चतुविध संघ में फैलाई है । जिस प्रकार पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी पूर्ण शीतलता फैलाता है, उसी प्रकार महाराज सा० प्रवर्तिनी
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श्रीजी ने अपनी शीतलता का सबको अनुभव कराया है | आपके सान्निध्य में आज चतुविध संघ पूर्ण प्रमुदित है । आपने १६६६ आषाढ़ सुदी २ को दीवान नथमल जी के कटले में दीक्षा ग्रहण की। आपकी दीक्षा में मैं भी उपस्थित था, वह दृश्य बड़ा ही प्रमोदकारी था । आपने दीक्षपरान्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अभीष्ट प्रगति की । आप में तप की भी विशेष अभिरुचि रही एवं तप के साथ-साथ सेवा परायणता का गुण आपके व्यक्तित्व को चार चाँद लगा रहा है । आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक कल्याण में भी आप अग्रसर रहीं, इसी कारण आपने राजस्थान के साथसाथ उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, गुजरात, सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में विचरण करके भगवान महावीर की वाणी का नगर नगर एवं ग्रामग्राम में संदेश गुंजाया । वर्तमान में अस्वस्थता के कारण आपका यहाँ विराजना हो रहा है, यह जयपुर संघ के लिए अत्यन्त सौभाग्य की बात है ।
वीर प्रभु से यही प्रार्थना है कि आपकी साधना निरन्तर बढ़ती रहे, चतुविध संघ पर आपका वरदहस्त रहे एवं "तिन्नाण तारयाणं" की तरह आप स्वयं तिरें एवं साधकों को भी तारें ।
इन्हीं शुभ कामनाओं सहित आप श्रीजी के चरणारविन्दों में शत-शत वंदन |
स्व० डॉ० उम्मेदमल मुनोत
( मुख्य संरक्षक : श्री वर्धमान श्वेताम्बर जैन सभा लखनऊ ज्ञान प्रसारिणी सभा, लखनऊ
श्री जौहरी वाग दादाबाड़ी संघ लखनऊ
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि विदुषीवर्या श्री सज्जन श्रीजी महाराज साहब का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। इस ग्रन्थ में जैन
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ दर्शन से सम्बन्धित विशिष्ट निबन्धों का भी संग्रह आपश्री का जीवन सदैव मानव कल्याण के होगा जो प्रशंसनीय पहल है।
प्रति सदा संलग्न एवं तत्पर रहा । आपकी आवाज मेरी दृष्टि में यह ग्रन्थ उन परम्पराओं को में ओजस्विता एवं वाणी में मधुरता रूपी अमृत आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाते हुए पूरे समाज पाया जाता है जिसका आस्वादन प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही नहीं, समूचे मानव-समाज के लिए भी द्वारा किया जा रहा है । आप त्याग वैराग्य, समता, उपयोगी बने, यही कामना है ।
सहिष्णुता, सरलता, सहजता की प्रतिमूर्ति हैं। श्री सम्पादक जी को इस दुर्गम पथ पर सफ- आप आगमों की ज्ञाता हैं एवं प्रत्येक विषय का लतापूर्वक चलते रहने की हार्दिक शुभकामनाएँ। प्रतिपादन एवं विवेचन बहुत ही सुन्दर ढंग से करती
. हैं । आपश्री का ज्ञान गूढ, गहन एवं गम्भीर है।
पुनः अन्तस्भावेन करबद्ध नतमस्तकेन परम 0 श्री सुशीलकुमारजी छजलानी
पवित्र पादारविन्दों की कोटिशः वन्दना करते हुए (संघ मन्त्री,
यही इष्टदेव से प्रार्थन करते हैं कि आपश्री शतायु श्री जैन श्वे० तपागच्छ संघ, जयपुर ।)
दीर्घायु बनें एवं समय-समय पर हम सभी को
सतर्क सावधान सचेत जाग्रत करती रहें। 0 परम विदुषी परमादरणीया, प्रवर्तिनी जी, श्री सज्जनश्रीजी महाराज के अभिनन्दन ग्रन्थ प्रका
श्री त्रिलोकचन्दजी गोलेच्छा शन का प्रयास प्रशंसनीय एवं स्तुत्य है।
(मंत्री : श्री जैन युवा परिषद्, जयपुर) पूज्य प्रवतिनी श्री के दर्शन एवं उपदेश श्रवण भगवान महावीर के बताये 'विश्ववात्सल्य' के आत्मबोध की गहरी अनुभूति जागृत करते हैं। मार्ग का अनुसरण करते हुए सेवा, त्याग, तप व आपकी अद्वितीय सरलता, विनय एवं गहन अध्ययन संयम के मार्ग का प्रचार करते हुए प्रवर्तिनी श्री समाज की अनमोल निधि हैं।
सज्जनश्रीजी म. सा० ने भारत के साध्वी समाज प्रतिनी जी की गहन साधना एवं अध्ययन का
में विशेष स्थान प्राप्त किया है। आधार, उपदेश के माध्यम से, हम भविकों को
आपके ८१ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर प्रकाआत्मबोध जागृत करने के लिए मिलता रहे । आप
शित 'ग्रन्थ' द्वारा 'श्री जैन युवा परिषद्' जयपुर दीर्घायु हों एवं जैन शासन की सेवा में रत रहें यही
शासन की सेवा में रत रहें यदी आपका अभिनन्दन करती है व वीतराग प्रभ से शासन देव से प्रार्थना है। तपागच्छ संघ, जयपूर
आपके दीर्घ आयु की मंगलकामना करती है । हम की ओर से एवं मेरी ओर से इस पुनीत अवसर पर
इस अवसर पर मानवसेवा के लिए व जैन धर्म इसके आयोजकों को उनके प्रयास में सफलता की के प्रचार के लिए पुनः समर्पित होने का संकल्प लेते हृदय से कामना करता हूँ एवं बधाई देता हूँ। 0 है।
0 जैन श्वे० श्रीसंघ 0 श्री संघ, ब्यावर
___टांटोटी (राज.) श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ ब्यावर पू० महाराज श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का द्वारा प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जनश्रीजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, जानकर सा. का भाव भीना अभिनन्दन करते हुए अत्यन्त अत्यन्त प्रसन्नता हुई । आपश्री कलियुग में भी सतयुग हर्ष हो रहा है।
की साक्षात् मूर्ति तुल्य हैं । आपश्री सरलता, नम्रता,
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
विद्वत्ता, सेवापरायणता आदि सभी क्षेत्रों में अग्रिम जिनके यहाँ २२ वर्षावास हो चुके हैं। जयपुर सदैव पंक्ति में बैठने वाली हैं । बचपन से लेकर आज तक सन्तों की भूमि रही है। बड़े-बड़े सन्त-सतियों का आपश्री स्वाध्यायरसिक रही हैं। अध्ययन और आगमन व उनका वरदहस्त सदा हमें मिला है। अध्यापन आपके जीवन के सच्चे साथी हैं। स्वास्थ्य ऐसे में महान साध्वीरत्न श्री सज्जनश्रीजी म० का अनुकूल न होते हुए भी अप्रमत्तता के साथ आप श्री अभिनन्दन वन्दन करने हम जा रहे हैं, वह अपने स्वाध्याय में सजग रहती हैं। हम यही शुभकामना आप में एक गौरवशाली आत्मा, उनके त्यागमयी व करते हैं कि वर्षों तक आपश्री अमर रहें और स्व-पर संयममयी जीवन का अभिनन्दन है । वे सदैव समाज का कल्याण करती हुई अपनी साधना को सफल को नया चिन्तन, नई रोशनी हमें देती रहें, इस पुनीत बनायें।
अवसर पर हमारी यही मंगल भावना है । महान माध्वीरत्न के पावन चरणों में हमारा शत-शत
वन्दन है, अभिनन्दन है। श्री सरदारमल जी चौपड़ा (संघ मन्त्री : वर्धमान स्थानकवासी जैन
0 श्री यशपालजी नाहटा श्रावक संघ, जयपुर)
(मंत्री : श्री जैन नवयुवक मण्डल, जयपुर) जयपर सदा से ही पुण्यभूमि रही है। इसी यह हर्ष का विषय है कि आर्यारत्न प्रतिनी भूमि की रत्न, गौरवशाली प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री आगमज्ञा श्री सज्जनश्रीजी म. सा० के अभिजी म० सा० का जीवन स्वणिम प्रभात की तरह नन्दन के शुभ अवसर पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का उज्ज्वल और चमकते नक्षत्र के समान ज्योतिर्मय प्रकाशन किया जा रहा है। रहता है । आपश्री शान्त, निर्मल, स्वभावी व गम्भी- जैनजगत की आप वह ज्योतिर्मय पुन्ज हैं रता से साधना-पथ की ओर सदा अग्रसर रहने वाली जिसने अपनी विद्वत्ता एवं ज्ञान के प्रकाश से न महान साध्वी हैं । आपके जीवन का कण-कण क्षण- केवल जैनसमुदाय को ही आलोकित किया है बल्कि क्षण साधनामय, तपोमय पथ पर अग्रसर होता इससे भी कहीं ऊपर उठकर सामान्य जन-जन को रहा है। आप प्रकृति से विनम्र, शान्त, निर्मल भगवान महावीर की वाणी से आप्लावित किया स्वभाव, मधुरभाषी हैं। आप जीवन के प्रत्येक क्षण है। एक ओर जिनका सदैव ज्ञानार्जन, लेखन-पठन, को सही मायने में जी रही हैं। आपश्री का ज्ञान वैयावृत्य, लोक हित एवं अनेक ग्रन्थों की रचना हमें प्रवचनों से स्पष्ट झलकता है । आपका चिन्तन, आदि में बीता हो, दूसरी ओर उसमें नम्रता, मनन, आगम ज्ञान निश्चय ही संघ और समाज को शालीनता, करुणा, समता आदि गुणों का होना नई प्रेरणा, नया चिन्तन, नया रास्ता दिखाते रहे निश्चय ही उन्हें महान बनाता है । ऐसी साध्वी को
शत-शत वन्दन। तपस्या का प्रश्न हो या ज्ञान का अथवा सेवा
ऐसी महान साध्वी का अभिनन्दन अवश्य ही का हर क्षेत्र में उनकी उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हमारा कर्तव्य है, इस अवसर पर प्रकाशित यह रही हैं। आपके चरण जहाँ भी गये उस क्षेत्र को अभिनन्दन ग्रन्थ जन-जन के लिए प्रेरणादायी बने, सदा नई उपलब्धियाँ रही हैं । संयम साधना के यही हमारी शुभकामनाएँ हैं। कठोर पथ पर ये आज भी अग्रसर हैं। शारीरिक अस्वस्थता होते हुए भी उनका जीवन सदैव धर्ममय, कर्ममय रहता है। जयपुर का सौभाग्य है
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ श्री विनयकुमारजी लूनिया (जयपुर) से सरल, विनम्र, मिलनसार एवं निरभिमानी हैं ।
आपमें प्रत्येक साध्वी को निभाने की क्षमता है। साध्वी श्री सज्जनश्रीजी महाराज एक प्रखर आप एक कुशल व्याख्यात्री भी हैं। आपकी चिन्तक, प्रभावी व्याख्याता, प्रबल संगठक और वाणी में मधुरता तथा ओजस्विता कूट-कूट कर विशिष्ट साधना सम्पन्न सती हैं। जैन धर्म त्याग- भरी है। आपकी वाणी में साधना का ओज है। प्रधान धर्म है। भोग से योग की ओर, राग से आप एक सुलझी हुई साधिका एवं विचारिका हैं । विराग की ओर बढ़ने की यह पवित्र प्रेरणा देता है। यही कारण है कि आप जो बात कहती हैं सीधी, यही कारण है जैनधर्म में सन्त-सतियों का जीवन सरल और अन्तर्मन को छु लेने वाली होती है। त्याग और तप का जीता-जागता उदाहरण है । जब हमारा अहोभाग्य है इस पुनीत अवसर पर हमें भी भी मैं कभी भुआसा महाराज के दर्शन करता हूँ, श्रद्धा के दो शब्द लिखने का अवसर मिला। इस आत्मविभोर हो उठता हूँ। और मन करता है मौके पर मेरा भाव भरा अभिनन्दन है, दीर्घायु की सान्निध्य में बैठा ही रहूँ, इस अभिनन्दन ग्रन्थ के कामना है। विमोचन के सुअवसर पर मैं भी अपनी तरफ से श्रद्धा के फूल समर्पित करता हुआ यही कामना
10 श्रीमती रेखा लूनिया करता हूँ कि आपका आशीर्वाद हमें युगों-युगों तक
जीवन तो सभी जीते हैं, पर जीने की कला मिलता रहे।
विरले व्यक्तियों में ही मिलती है। जीवन जीने की
एक शैली है, तरीका है । जो अपने आपको खपाता श्री निहालचन्द सोनी
है वही महान् बनता है । (मदनगंज)
परम विदुषी, साधना सम्पन्न मेरे बड़े ननदबाई जिन शासन के नन्दन वन में,
साध्वी श्री सज्जनश्री जी एक ऐसी ही विशिष्ट महक रहे ज्यों चन्दन ।
साध्वी हैं जिनका जीवन अगरबत्ती की तरह सुगश्रमणी प्रवरा सज्जनश्री जी, न्धित है, जो स्वयं कष्ट सहकर भी आजीवन परोपलो शत-शत अभिनन्दन ।।। कार में जुटी हुई हैं। आप एक ओजस्वी और
0 तेजस्वी साधिका हैं। आपने अपनी निर्मल वाणी
से जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार 0 श्री सुरेश लूनिया
किया है। (जयपुर)
___ मैंने जब भी कभी महासतिजी के दर्शन किये रत्नगर्भा वसुन्धरा ने समय-समय पर अनमोल हमेशा ही मुस्कराते देखा। कभी भी उनके चेहरे रत्न प्रदान किये हैं। उन्हीं रत्नों में एक अनमोल पर क्रोध या तनाव, झुंझलाहट की रेखायें नहीं रत्न दै-मेरे भआसा महाराज साध्वी श्री सज्जन पाई। अपनी शिष्याओं से भी वात्सल्य से ओतश्रीजी महाराज का नाम बड़ी निष्ठा और गर्व से प्रोत व्यवहार देखा। आपकी प्रवचन कला बहुत लिया जा सकता है।
ही अनूठी व चित्ताकर्षक है। आपके व्याख्यानों में आप हमेशा एक महान साधिका के रूप में यह विशेषता रही है कि उनमें गहरा चितन, मनन हमारे समक्ष परिलक्षित होती रही है। प्रतिष्ठा और अपने अनुभवों एवं सत्य का उत्कृष्ट बल है और ज्ञान का आप में किंचित् मात्र भी अभिमान वाणी में मधुरता के साथ ही आप सदा समन्वयानहीं है। सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी आप स्वभाव त्मक भाषा का प्रयोग करती हैं। ....
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
साध्वियों ने जिनशासन की गरिमा में सदा ही चार चाँद लगाये हैं। उन्हीं साध्वीरत्नों में साध्वी श्री सज्जन श्रीजी महाराज का नाम बड़े गौरव से लिया जा सकता है । आपका सरल उदार स्वभाव एवं धर्मपरायणता तथा आत्मसाधना आपके अद्भुत व्यक्तित्व को निखारने में सदा सहायक रही है ।
गुणियों के गुणानुवाद करने से कर्मों की भी निर्जरा होती है । मैं अपनी अनन्त श्रद्धा महासती जी के चरणों में समर्पित करती हूँ कि वे युग-युग तक धर्म की प्रबल प्रभावना करती रहे और आपका यशस्वी जीवन सभी के लिये प्रेरणास्पद रहे । आपश्री का अभिनन्दन हमारे लिये गौरवास्पद बात है ।
श्री चिरंजीलालजी रेड
मुझे यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि परमविदुषी प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी म. सा. की ८वीं वर्षगांठ के पावन अवसर पर एक सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करने वाला अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है । अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से देश के हर क्ष ेत्र व धर्म के लोगों पर उनके चरित्रवान जीवन का गहरा प्रभाव पड़ेगा । इस शुभ अवसर पर हम सब मिलकर आपका सादर अभिनन्दन करते हुए आपके शतायु होने की कामना करते हैं ।
O
श्रीमती पन्ना सुकलेचा
परम विदुषी साध्वीरत्न श्री सज्जनश्री जी महाराज एक पहुँची हुई साधिका हैं और खरतर - गच्छ धर्म संघ की वर्तमान में प्रवर्तिनी है । उनके गौरवमय जीवन को जब मैं निहारती हैं तो मेरा मन बांसों उछलने लगता है ।
मुझे गौरव है हमारे परिवार में ऐसी विदुषी साध्वी है जिन्होंने हमारे कुल गौरव में चार चाँद
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लगाये हैं । उनकी ८वीं जन्म जयन्ती पर यह अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है । जिससे उनकी महिमा और गरिमा स्वतः सिद्ध होती है । मैं भी इस सुनहरे अवसर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ ।
सुश्री शालिनी लूनिया
जैनधर्म के खरतरगच्छ संघ की विदुषी प्रवतिनी श्री सज्जन श्रीजी म० सा० एक अलौकिक प्रतिभा की दिव्य ज्योतिर्मय तारिका हैं ।
आप खरतरगच्छ संघ की एक ओजस्वी साध्वी हैं | आपका जीवन अनन्त आकाश से भी अधिक विशाल है । मैं ऐसी परम विदुषी भुवासा म० सा० को नतमस्तक हो शत-शत अभिनन्दन करती हूँ व इस मंगल अवसर पर यह कामना करती हूँ कि आप युग-युग तक स्वस्थ व प्रसन्न रहकर जैनधर्म की ज्योति को अक्षुण्ण बनाये रखें ।
सुश्री सायर लूनिया
साध्वी सज्जन श्रीजी म० सा० विदुषी प्रवतिनी । लूनिया परिवार की बेटी और गोलेच्छा परिवार की बहू | आप अलौकिक गुणों से, कठिन साधना से सतत् अध्ययन अध्यापन से, इस प्रकार महिमा मंडित हुई कि स्वनामधन्या होने के साथ-साथ दोनों परिवारों का नाम भी उज्ज्वल कर दिया। हमें गर्व है कि हमारे परिवार में से एक ऐसी विभूति ने जन्म लिया जिन्होंने जिनशासन सेवा के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। आपकी कीर्ति तो ध्रुव नक्षत्र के समान खरतरगच्छ संघ की विदुषी आगमज्ञा प्रवर्तिनी के नाम से स्वतः दीप्तिमयी है ।
प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी म. सा० साधनामय जीवन के ४७ वसन्त पूर्ण किये हैं । त्याग और तपस्या के इस भव्य गरिमामय व्यक्तित्व का आज लूनिया परिवार शत-शत अभिनन्दन करता है ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ - श्री मानकचन्दजी लूनिया किसी भी धर्म संघ, किसी भी नारीकल्याण संस्था
से पीछे नहीं है। प्रवर्तिनी जी का पथ तलवार सज्जनश्री महाराज आपका
की धार पर चलने के समान है । पुरुष शत शत है अभिनन्दन। संघों का आचार्यों द्वारा संचालन इतना खतरों नतमस्तक हो श्री चरणों में
भरा नहीं जितना कि नारी संघों का संचालन करत ह हम वन्दन ॥ करना और इस कसौटी पर कठोर अनुशासन अनआगमवेत्ता-जिनवरचेता
गामिनी प्रतिनी सज्जनश्रीजी म. सा० सौ टंक आप विनय की प्रतिमा। खरी उतरी हैं। मेरा मन यहीं आजानुनतमस्तक जैन धर्म की जागृत प्रतिभा,
हो श्रद्धावनत हो जाता है। गुरुवर्या विचक्षणश्री अतुलनीय है गरिमा ॥ जी म. सा. के स्वर्गवास के उपरांत जैन श्वे. सहज सरल समता की देवी,
खरतर-गच्छ संघ प्रवर्तिनी जी की संचालन संगठन अभिनन्दन स्वीकार करो। पतिशासबारे निरन्तर तिमीला हम अनजान अभिज्ञ प्राणि हैं,
यह उपलब्धि किन्हीं शाब्दिक प्रशंसा से प्रशंसनीय हो मुक्तिमार्ग में हाथ धरो॥ सकती है ? शब्द असमर्थ हैं अस्तु भावांजलि अर्पित शत शत वन्दन, शत अभिनन्दन,
कर ही आपश्री का अभिनन्दन हो सकता है। कोटि नमन चरणों में ।
प्रवतिनो श्री के अनेक गुणों में अद्वितीय गुण है बसो सदा जन-जन अन्तर में,
है आपश्री की “विनम्रता” “सहजता" “सरलता"।
वाणी में नयनों में । प्रवर्तिनी आर्या श्री सज्जनश्रीजी के प्रति मेरे
___ "अमृत रस से भरे फलों का, मन में जो असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई है उसका
वृक्ष सदा झुक जाता है। कारण यह नहीं है कि वे मेरी बुआजी हैं। इस
धरतो का प्राणी उससे हो,
छाया पाता, जीवन पाता है । श्रद्धा का कारण यह भी नहीं है कि वे जैन श्वे० खरतरगच्छ संघ के उच्च पद पर पदासीन हैं । यह ऐसे अमृत भरे कल्पवृक्ष सी हो हैं प्रवर्तिनी श्री भी इस श्रद्धा का कारण नहीं है कि वे आगमज्ञा हैं, जी ! विनम्र-सहज-सरल, आज तक मैंने किसी शास्त्रज्ञ हैं, भाषाविद हैं, कवयित्री हैं तापसी हैं ? श्रावक से, किसी शिष्या से, किसी खरतरगच्छ नहीं ! मेरे आत्मज्ञ मन में प्रवर्तिनी विदुषीवर्या धर्मावलम्बी से प्रवर्तिनी जी के अहंकार, असहज सज्जनश्रीजी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होने का एक व्यवहार, क्रोध, आवेश के बारे में कभी कुछ नहीं मात्र कारण है उनका "नारी" होना ? नारी होकर सुना प्रत्युत सबने आपश्री को सहज सरल विनम्र भी उन्होंने साधना, तपस्या, ज्ञानाराधना, संयम के शांतमना ही कहकर बखाना तो क्या “खल्कए पथ पर चलकर जो नारी की गरिमा को बढ़ाया आवाज नक्काराए खुदा" नहीं है ? आपश्री निसंदेह है वह निस्सन्देह पूजनीय है। “नारी नरक की खान" अभिनन्दन की अधिकारिणी हैं। अधिकारिणी हैं उक्ति को वे एक चुनौती हैं उस क्रांतिकारी वैज्ञानिक अपनी तपस्या से, साधना से, ज्ञान से और अधिगेलीलियो की तरह जिसने यह सिद्ध कर दिया था कारिणी हैं अपने पिता श्री-मेरे दादाजी श्री कि सूर्य, पृथ्वी के चारों ओर नहीं घूमता वरन् गुलाबचन्द जी से विरासत में मिले धार्मिक गुणों पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। नारी को प्रभामंडित करने से ।। उत्थान, नारी चेतना, नारी जागरण, नारी कल की बुआजी और आज की प्रवर्तिनी श्री अनुशासन में वे आज भारत के किसी भी सम्प्रदाय, जी, आपके चरणों में मेरा नतमस्तक प्रणाम। 0
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
[ श्रीमती प्रेमलता गोलेछा एवं गोलेछा परिवार, जयपुर (भू. पू. कोषाध्यक्ष : श्री अ. भा. साधुमार्गी जैन महिला समिति )
शांत सरल स्वभाव, लोक कल्याणी, तपस्विनी, ज्ञान मूर्ति, विदुषी, आर्यारत्न, प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी महाराज साहब, ( पूजनीय ताई जी म. सा.) के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना ।
अनुपम व्यक्तित्व की धनी, मानव-मानव से सहज प्रेम करने वाली, ज्ञानज्योति, धर्मप्राण, धर्मवती, आपके गुणों की महिमा जितनी गाई जाये उतनी ही कम है । आपने जयपुर रियासत के दीवान सेठ नथमलजी गोलेछा की पौत्रवधु बनकर ससुराल का नाम रोशन किया । इतना महान त्याग आप जैसी पुण्यात्मा नारी ही कर सकती है । आज तीनों समाज में आपकी महिमा का गुणगान किया जाता है ।
तीनों ही समाजों में स्थानकवासी की बहु बनकर, तेरापंथ की लड़की, मन्दिरमार्गी समाज दीक्षा ग्रहण करके तीनों ही समाजों को गौरवान्वित किया है।
आपने आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोककल्याण का भी पूरा ध्यान रखा । आपने जैन समाज में गौरवान्वित होती हुई एक मिसाल दिखाई है । म. सा. आपने अपने शुद्धाचार और शांतिपूर्ण जीवन द्वारा मानवता का मार्ग दर्शन किया है। अहिंसा, सत्य, महान साधनापथ पर बढ़ते चले जाने का सन्देश दिया है ।
आपकी प्रेरणाओं को जीवन में उतारकर हम अपना कर्ममय मार्ग निरन्तर गतिशील रखने का प्रयत्न करेंगे । जिस प्रकार कि डॉक्टर मरीज को स्फूर्ति के लिए टॉनिक देता है उसी तरह आपके टॉनिक रूपी उपदेशों को ग्रहण करने से आत्मा में ज्ञानरूप स्फूर्ति का संचार होता है ।
खण्ड २/४
इन्हीं मंगल श्र ेष्ठमय,
कल्याणकारी शुभकाम
नाओं के साथ हम आपका अभिनन्दन करते हैं कि आपका स्वास्थ्य सदैव सुन्दर, स्वस्थ रहे, आप दीर्घायु हों और मधुर वाणी से समाज को निरन्तर लाभान्वित करती रहें ।
" इन्हीं मंगल कामनाओं से
कर रहे हम वन्दन शत-शत वन्दन करते हुए
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हम कर रहे आपका अभिनन्दन ।"
श्रीमती कमलादेवी लूनिया
( धर्मपत्नी स्व० श्री पूनमचन्द जी लूनिया ) पूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्री जी महाराज सा. का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है ऐसी जानकारी मिलने पर मन अत्यन्त ही आनन्द से भर गया क्योंकि किसी के भी व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से जानने के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ एक ऐसा माध्यम होता है जिसमें भिन्न-भिन्न समुदायों के व्यक्तियों जानकारियों का संकलन प्राप्त होता है । यह अभिद्वारा व्यक्ति विशेष के जीवन व व्यक्तित्व की सही नन्दन ग्रन्थ पूजनीय महाराज साहब के व्यक्तित्व को भली-भाँति उजागर करने का सफल प्रयास है । इसके लिए मेरी ओर से हार्दिक शुभकामना है ।
श्रीमती कमल सांड
(पुत्री स्व० श्री केशरीचन्द जी लुनिया ) साध्वी रत्न श्री सज्जन श्री जी महाराज एक सुलझी हुई साधिका हैं, विचारिका हैं । यही कारण है कि वे जो बात कहती हैं, सीधी सरल और अन्त - र्मन को छू लेने वाली होती है ।
गुणियों का अभिनन्दन करना हमारी अपनी पुरानी परम्परा रही है । यह बहुत ही प्रसन्नता की बात है कि सज्जन श्री महाराज के अभिनन्दन में
एक
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । इस माध्यम दर्शन और साधना के बारे में प्रेरणास्पद जानकारी से मुझे भी कुछ श्रद्धा सुमन समर्पित करने का प्रदान करेगा। सुनहरा अवसर मिला है । हम अपनी अनन्त आस्था श्री प्रकाश बाँठिया एवं परिवार के सुमन समर्पित कर अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रहे हैं।
जयपुर श्री सुशीलकुमार जी बाँठिया, जयपुर
अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है लूनिया परिवार
के द्वारा प. पू. गुरुवर्या श्री का अभिनन्दन ग्रन्थ आगमज्योति, आशुकवयित्री पूज्यवर्या प्रवर्तिनी प्रकाशित हो रहा है । महोदया श्री सज्जनश्री जी म. सा. का अभिनन्दन आपश्री का सम्पर्क मुझे बचपन से ही प्राप्त ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है । जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुआ। जब से मैंने आपश्री के जीवन को देखा, हुई । पू० गुरुवर्याश्री का प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं परखा, जाना, सुना और उसमें मुझे अनेक ऐसी गरिमामय उत्कृष्ट जीवन की सौरभ चिहुँ दिशि में विशेषताएँ मिली जो अन्य लोगों में बहुत अल्प महक रही है। आप संयम के प्रत्येक क्षेत्र में मात्रा में दृष्टिगत होती है यथा-अध्ययन और निपुणता लिये हुए प्रत्येक क्षण आत्म-साधना के अध्यापन, सेवा और समर्पणशीलता, सरलता, प्रति अर्पित हैं।
सहजता, वात्सल्य और प्रेम । ऐसी महान आत्मा पू. गुरुवर्याश्री के गुणों को लिपिबद्ध करने में दीर्घकाल तक चिरायु बन शासन सेवा में अभिवद्धि मैं अपनी बुद्धि से स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहा करे । और हम सब पर आपकी कृपा दृष्टि हैं। पू. गुरुवर्या श्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदन अविच्छिन्न सतत् रूप से प्रवाहमान होती रहे। । अभिनन्दन प्रेषित करता हुआ जिनशासनदेव से
व 0 श्री प्रेमचन्दजी धांधिया, जयपुर गुरुदेव से प्रार्थना करता हूँ, पू. गुरुवर्याश्री के
सौम्यस्वभावी, स्वाध्यायप्रेमी, आगमज्ञ, पू० स्वास्थ्य के लिए।
प्रवतिनी श्री सज्जनश्री जी म. सा. के अभिजिनशासन की ज्योति बनकर सदा चमकती रहें नन्दन ग्रन्थ के प्रकाशित होने का समाचार पढ़कर इसी शुभेच्छा के साथ बांठिया परिवार की ओर से
हार्दिक प्रसन्नता हुई। यह ग्रन्थ सुन्दर, आकर्षक व हार्दिक अभिनन्दन !
समाजोपयोगी हो, यही मेरी हार्दिक भावना है ।। 0 श्री हेमराजजी ललवानी
। श्री जोगराज भैरूलाल भंसाली
(गढ़ सिवाना) मुझे जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि पू. आगममर्मज्ञा आशुकवयित्री पू. गुरुवर्या श्री सज्जनश्री जी प. पू. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. सा. के म. सा. के ८२ वें जन्म दिवस पर उनका सार्वजनिक दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुअवसर पर भंसाली अभिनन्दन करने का निर्णय लिया गया है। यह परिवार का शत्-शत् अभिनन्दन ! अत्यन्त हर्ष का विषय है कि इस अवसर पर हम मुझे आपथी के दर्शनों का प्रथम सौभाग्य उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ उन्हें समर्पित सिवाना नगर में प्राप्त हआ। आपश्री का जीवन करने जा रहे हैं।
प्रत्येक दृष्टि से - सेवा पक्ष की दृष्टि से, अध्ययन ___ मैं आशा करता हूँ कि आपश्री को समर्पित पक्ष की दृष्टि से, सरलता सहजता की दृष्टि से, किया जाने वाला अभिनन्दन ग्रन्थ आपके जीवन देख तो सर्व गुणों से समन्वित है । आपकी प्रवचन
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ शैली भी अद्भुत है जिससे प्रभावित होकर मेरी सांसारिक पक्ष में पूज्या साध्वीजी म. सा. बहिन कु. लक्ष्मी ने अपना जीवन आपके चरणों में मेरी ताईजी हैं। आप गृहस्थ में रहते हुए भी कभी समर्पित करने का संकल्प किया है । वर्तमान में वह सांसारिक भाव में लिप्त नहीं रहीं। साधु-साध्वियों गुरुवर्याश्री के निश्रा में अध्ययन रत है।
के प्रवचनों से प्रेरणा पाकर स्व और पर का भेद ऐसी अद्भुत, अनुपम, अद्वितीय, ओजस्वी समझ कर आपने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की आत्मा शतसहस्र वर्षों तक शासनोन्नति करती हुई और आत्मकल्याण के साथ-साथ जिनशासन की हमें भी शीतल व सुखद छायाप्रदान करती रहें। प्रभावना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। साथ
7 ही उनके ८२वें वर्ष में पदार्पण पर मैं अपनी ओर से श्री भंवरलाल पुखराज
यही शुभकामना करती हूँ कि समाज को वर्षों-वर्षों
तक आपका सान्निध्य मिलता रहे, तथा आपश्री - श्री शान्तिलाल, सुरेशकुमार हमें कल्याण मार्ग की ओर सतत् गमन की प्रेरणा (धरणेन्द्र पदमावती टेक्सटाइल्स अहमदाबाद) प्रदान करती रहें । यही हमारी शुभकामना है। ___ ज्ञान की जगमगाती ज्योति श्री सज्जनश्री जी पुनः अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के लिए साध्वी के दर्शन का अहोभाग्य हमें पहली बार शेरगढ में सं० श्रा शाशप्रभाजी म० सा० को बहुत-बहुत साधुवाद । २०४० में हुआ। आपका दर्शन होने मात्र होने से ही
Cश्री राकेश जैन संघ में आपके प्रति मन भर गया । आपका स्वभाव, भक्तिभाव, प्रेरणा, मधुरवाणी से संघ में हर्ष छा जब मैं महाराज के मुखमण्डल से प्रभावित हो, गया । आपकी प्रेरणा से संघ में धर्म जागृति हुई। बातचीत की उत्सुकता को ले दादावाडी में स्थित संघ की विनती स्वीकार कर आपके समुदाय के दो साध्वीजी श्रीशशिप्रभाश्री जी महाराज से परिचय चौमासा भी हमारे यहाँ हुए । आप गुणों की खान हुआ, मेरे हर प्रश्न पूछने पर उन्होंने प्रत्युत्तर में मुझे हैं। दया के सागर हैं । स्वाध्याय के विराट धनी हैं। सन्तुष्ट किया व मेरी श्रद्धा पूज्य गुरुवर्या श्री प्रति हम लूणिया परिवार के हैं। आपने लूणिया गोत्र का और दृढ़तर हो गयी और मन ही मन उनके गुणों गर्व बढ़ाया है। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती अभिनन्दन की प्रशंसा करने लगा कि साध्वी जी महाराज समारोह के शुभ अवसर पर हम आपकी मंगल सबके साथ रहती हुई भी बाहर की प्रकृति से कामना करते हैं।
अलग है। दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के अभिनन्दन समारोह के जब भी दर्शन हेतु जाता हूँ हाथ में पुस्तक लिए उपलक्ष्य में समस्त लूणिया परिवार का कोटि- हुए ही देखता हूँ। चेहरे पर कभी मलीनता नहीं कोटि वंदन।
देखी, सदा स्वाभाविक मुस्कराता चेहरा रहता है । D थोड़े दिन के सम्पर्क से यही अनुभव किया कि
शारीरिक अस्वस्थता होते हुए भी अन्यों को पढ़ाती 10 श्रीमती निर्मला संखवाल. दिल्ली
यह जानकर हृदय श्रद्धा विभोर हो गया कि महान विभूति सज्जनश्रीजी महाराज की दीक्षा, आगमज्योति मधुर व्याख्यात्री संघश्रेष्ठा पूज्या जन्म, जयन्ती के उपलक्ष में, हृदय से हार्दिक अभिसाध्वी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. के दीक्षा स्वर्ण नंदन करता हूँ, गुरुदेव के चरणों में मेरी अनुनय जयन्ती के उपलक्ष्य में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रका- प्रार्थना है कि पू० गुरुवर्या श्रीदीघायु, चिरायु बन शन हो रहा है।
___ अनेक भव्य जीवों के लिए मार्ग दर्शक बनें।
रहती हैं।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ उनके स्वस्थ स्वास्थ्य की मंगल कामना करता । श्री भगवानचन्दजी छाजेड हुआ मुझ पतित पर सदा कृपा दृष्टि रहे यही श्री
एवं समस्त परिवार चरणों में विनम्र प्रार्थना है।
परम पूज्या प्रतिनी महोदया गुरुवर्या श्रीसज्जन पृ० गुरुवर्याश्री का मुझ पर असीम उपकार है। श्रीजी महाराज साहब के ८२ वर्ष प्रवेश के प्रसंग उस उपकार से कृतघ्न न बनू । कृतज्ञ बन मोक्ष को ।
पर समस्त छाजेड़ परिवार आपका हार्दिक अभिप्राप्त करू । यही गुरुवर्याश्री के चरणों में मेरी :
नन्दन करता है। अभ्यर्थना है।
मेरा अहोभाग्य है कि आपश्री के दर्शनों का ६. श्री मोहनचन्दजी गोलेच्छा, उटकमण्ड लाभ मुझे सिवाना नगर में प्राप्त हुआ। मार्गदर्शन
से ही मेरा मन आपकी ओर श्रद्धान्वित हो गया। पूज्यवर्या, आगम मर्मज्ञा, प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्री
जब मैंने आपका त्याग, तप, संयम से परिपूर्ण प्रवमसा० का लूनिया परिवार की ओर से अभिनन्दन
चन सुना तभी से मेरा मन धर्म की ओर उन्मुख ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, जानकर अत्यन्त प्रसन्नता
हुआ । धर्म क्या है ? धर्म क्यों करते हैं ? धर्म से
क्या लाभ होता है ? इत्यादि जानकारी मुझे आपके नरुवर्याश्री जैन समाज की निधि हैं, आप यथा सम्पर्क से प्राप्त हुई । इससे पूर्व मैं कुछ भी नहीं नाम तथागुण से ओत-प्रोत हैं। आपकी भद्र प्रकृति
जानता था । आपके आध्यात्मिक प्रवचन से न केवल सभी को प्रभावित करती है । आप खरतरगच्छ को मेरा ही मन अपितु मेरी भतीजी जो पूज्याश्री के शान है।
सान्निध्य में अध्ययनरत है, ने तो अपना सर्वस्व ही आप ज्ञान, ध्यान, तप, जप की उत्कृष्ट साधिका गुरुवर्याश्री के चरणों में समर्पित कर दिया। इस हैं । आप में करुणा की भावना कूट-कूट कर भरी प्रकार आपके अद्भुत व अनुपम प्रवचन से एक दो हुई है। शरण में आये प्रत्येक प्राणी को जिनवाणी ही नहीं हजारों व्यक्ति धर्म की ओर अग्रसर हुए। का अमत पान कराती हैं। इनकी वाणी जनकल्याणी, मैं गुरुदेव से अभ्यर्थना करता हूँ कि ऐसी महान् हितकारिणी है। पु० महाराज के व्यक्तित्व से प्रभा- आत्मा दीर्घायु चिरायु बनें। समस्त छाजेड़ परिवार वित होकर ही मेरी बहिन किरण ने १० वर्ष की उम्र पर आपकी कृपादृष्टि अनवरत रूप से सतत प्रवामें ही उन्हें गुरु के रूप में चुनकर संयम हेतु जीवन हित होती रहे। समर्पित कर दिया । ३२ वर्ष से संयमी जीवन व्यतीत श्रीमती इन्दुबाला संखवाल. दिल्ली करती हुई, शासनसेवा व गुरुवर्या की सेवा में रत
यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हुआ है जो वर्तमान में पू० शशिप्रभाश्रीजी म.सा० के
कि साध्वी श्री सज्जनश्री जी म. सा० की ८२ वीं नाम से प्रख्यात हैं।
वर्षगांठ के उपलक्ष्य पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का यह अभिनन्दन ग्रन्थ जिस दिव्य प्रतिभा मूति के प्रकाशन होने जा रहा है। पूज्य म. सा. मेरी चरणों में समर्पित होगा । वास्तव में वे गुलाब सी ताईजी हैं और मेरा बचपन उनके वात्सल्यरूपी मोहकता लिये हुए हैं । व्यक्तित्व निस्सन्देह निखरा प्यार-दुलार के साथ उन्हीं की गोद में बीता था। हुआ है, निशंक बिखरा हुआ है।
वीर प्रभु से मैं यही मंगल कामना करती हूँ ___ मैं भी व अपने परिवार की ओर से भावाभि- कि आपके जीवन से प्रेरणा पाकर हम भी अपने नंदन श्रद्धाभिनंदन उन पावन परम पवित्र श्रीचरणों मानवजीवन को सार्थक करें। साध्वी श्री शशिप्रभा में समर्पित करता हुआ गुरूदेव से प्रार्थना करता हूँ जी म० को अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन करने के लिए कि इन्हें स्वस्थ स्वास्थ्य प्रदान करें।
आभार प्रकट करती हूँ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
॥ श्री हुक्मीचन्दजी लूणिया, ब्यावर मैं इनके गुणों के प्रति विनयावनत हूँ। आप संसार में अनेक व्यक्ति हैं। किन्तु हर व्यक्ति
- जैन समाज की प्रकाश स्तम्भ हैं और वर्षों अपने
" प्रकाश से सबको आलोकित करेंगी। अभिनन्दन के काबिल नहीं होते हैं परन्तु पूज्या ' प्रवर्तिनी श्री पूर्ण रूप से अभिनन्दन के योग्य हैं। इसी शृंखला में 'पुण्य जीवन ज्योति', 'श्रमण ___ आपमें साधकीय जीवन के गुण पूर्ण रूप से सर्वस्व', 'श्री कल्पसूत्र' आदि अनेक रचनायें प्रकाविद्यमान है। हम सुनते हैं कि सन्त निर्विकल्प होना शित की हैं। चाहिये, निस्पृह, निर्लेष होना चाहिये। ये ही सन्त पं० कन्हैयालालजी दक, उदयपुर के गुण पूज्य महाराज श्री के जीवन में मैंने निकटता
जिस महान् आत्मा के गुणानुवाद करने के लिए से देखा।
. यह अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है, पूज्या श्री के ब्यावर चातुर्मास में मैंने प्रथम ही
वे प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी विशुद्ध सामयिक अनुभव किया, वो किसी भी बाह्य प्रवृत्ति में भाग
चारित्र की धारिका हैं, उनका ज्ञान, दर्शन व नहीं लेती, आने-जाने वालों से उन्हें कभी भी व्यर्थ
चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति करते रहने का का आलाप करते हुए नहीं देखा, कभी किसी से
निरन्तर लक्ष्य रहा है। उनकी गुण-गरिमा का जोश से बात करते नहीं देखा।
अभिनन्दन करना संयम, तप तथा त्याग का अभि. यदि दर्शक पाँच दिन में आये, चाहे दस दिन
नन्दन करता है। में, चाहे महीने में आये कभी भी उपालम्भ की भाषा में उलाहना देते हुए नहीं देखा, सदा स्वयं
इस प्रकार के शुद्ध संयम का पालन करके के स्वाध्याय में, साधना में समय सम्पूर्ण करना
जीवन को धन्य व सार्थक बनाने वाली साधिका को इसी लक्ष्य के साथ समय का सदुपयोग करती हैं। शत-शत वन्दन ।
गुरुदेव से मैं हार्दिक प्रार्थना करता हूँ कि पूज्या श्री मूलचन्दजी, मिश्रीमल छगनमल भंसाली श्री चिरायु, दीर्घायु बन समान गच्छ का अभ्युत्थान जैन जगत की अनुपम ज्योति, आगम मर्मज्ञा, कर प्राणी मात्र को मोक्ष का अधिकारी बनावें । _ शासन प्रभाविका महामना प्रवर्तिनी पदासीन परम
श्रद्धया पूज्या श्री सज्जनश्री जी म. सा. के विशिष्ट 0 श्री राजेन्द्र नाहटा, भोपाल व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जयपुर श्रीसंघ ने अनोखे बह अनुभवी, सरल स्वभावी-यशस्वी- पूज्याश्री के संयमी जीवन की स्वर्ण जयन्ती के उपतपस्वी, चहुँमुखी व्यक्तित्व की धनी, साहित्यप्रेमी
लक्ष्य में 'अभिनन्दन ग्रन्थ' प्रकाशित करने का जो एवं धार्मिक शिक्षण में जिज्ञासू, सेवा परायणा,
निर्णय लिया है वह अत्युत्तम, प्रशंसनीय व अनुआगमज्योति, परम पूजनीय प्रवर्तिनी महोदया करणीय है। श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब के दर्शन अनेक
सुश्री सुरंजी प्रसंगों पर हुए । गत अनेक वर्षों से श्री खरतरगच्छ भगवान महावीर का संदेश है-गुणों के विकास महासंघ के कार्यक्रमों के सन्दर्भ में मार्ग-दर्शन एवं के लिए सूत्र है- "गुणीजनों की चर्चा, गुणीजनों की प्रेरणा की स्रोत रही हैं। आपश्री ने खरतरगच्छ वाणी का श्रवण, गुणीजनों के गुणों का वर्णन और की गतिविधियों, संगठन उद्देश्यों में विशेष रुचि गुणीजनों के गुणों का तहेदिल से गुणगान ।" अनेकाली है।
नेक गुणों की स्वामिनी प्रवर्तिनी पू. श्री सज्जनश्रीजी बहुत समीप से मैं उनकी कार्य प्रणाली एवं म. सा. के गुणों के अभिनन्दन के लिये अभिनन्दन मधुर भाषा से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ। ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है।
। सस
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभ कामनाएँ जीवन में गणों का विकास होना ही जीवन की 0 श्री विजयकुमारजी कक्कड़, सरवाड़ सार्थकता है। ऐसे व्यक्तित्व को ही दुनिया नमन करती है। वन्दन करते हुए आशीर्वाद चाहती हूँ पृथ्वी पर आदि अनादि से समय-समय पर कि मुझ में भी इन गुणों का विकास हो । __ महान् विभूतियाँ हुई हैं, जिन्होंने अपने अनूठे
• व्यक्तित्व द्वारा दुनियाँ को ज्ञान रूपी प्रकाश से 0 श्रीमती मेमबाई सुराणा
दैदीप्यमान किया है।
___ आज के युग में ऐसी ही एक महान विभूति है, पिछले ३२ वर्षों में मैंने प्रवर्तिनीश्रीजी के अनेक जिसकी रग-रग में चन्द्रमा के समान शीतलता, नभ बार दर्शन किये। करीब ५ वर्ष निरन्तर उनके के समान विशालता, करुणा, दया, वात्सल्यता कूटजयपूर वर्षावास में तो उन्हें निकट से देखने का कूट कर भरी है। ऐसे व्यक्तित्व की धनी समता खूब अवसर मिला।
मूर्ति, आगम वेत्ती, मधुर वृक्त्री, आशुकवयित्री __ मैंने देखा है-प्रवर्तिनीश्रीजी प्रारम्भ से ही पूज्य गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी म. सा. हैं । सेवा और सहनशीलता की प्रतिमूति है। गुरुसेवा ऐसी पूज्य गुरुवर्याश्री ने अपने जीवन को पूर्ण में वे सदा तत्पर रही हैं। किसी के जीवन में सेवा
रूप से जिनशासन के प्रति समर्पित कर दिया है । गुण अधिक और किसी के जीवन में स्वाध्याय
म स्वाध्याय हमेशा पठन, पाठन एवं स्वाध्याय में अपने आपको अधिक होता है किन्तु प्रवर्तिनीजी ने सेवा और
तल्लीन रखकर, आगम व शास्त्रों का गूढ़ अध्ययन स्वाध्याय दोनों ही क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में स्थान
कर सांसारिक प्राणियों को उनका सार बताना लिया।
आपके जीवन का प्रमुख ध्येय रहा है । ___ सरल और सहज व्यक्तित्व से परिपूर्ण प्रवर्तिनी
ऐसी महान विभूति के अभिनन्दन समारोह पर जी का आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहज
उनके चरणों में शत-शत वन्दन करता हुआ अपने वात्सल्य भाव रहता है।
___ इष्ट देव से उनकी सहस्रायु होने की प्रार्थना __सन्तों का जीवन वृहस्पतिपुत्र भी वर्णन करने करता हैं। में समर्थ नहीं तो मैं सामान्य श्राविका तो कह ही क्या सकती हूँ। मात्र श्रद्धा के दो शब्द आपश्री के चरणों में समर्पित करती हुई अपने इष्ट देव से श्री भीखमचन्दजी कोचर, खडगपुर आपकी दीर्घायु की शुभकामना करती हूँ।
मेरे हृदय के उद्गार हैं कि गुरुवर्याश्री की हे ज्ञानज्योतिपुंज गुरुवर,
जितनी प्रशंसा की जावे वह कम है। मेरे परिवार सहज हो तुम सरल हो। को उज्ज्वल बना दिया। नरकवासी को मोक्ष का जिनशासन की इस बगिया के,
द्वार बता दिया। ऐसी महान विभूति कोकिल कंठी पुष्प एक तुम विरल हो। ज्ञान दृष्टि रखने वाली पुण्य आत्मा को बार-बार नाम सज्जन, हृदय सज्जन,
वन्दना करता हूँ। धन्य हैं उनके माता-पिता को गुणों के भण्डार हो। जो ऐसा दुर्लभ रत्न समाज को भेंट दिया। ऐसी क्या कहूँ गुण आपरा,
महान विभूति के दर्शन मात्र से कई भवों के कर्म वन्दन हजार बार हो। नष्ट हो जाते हैं।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ । श्री सिरहमल नवलखा,
श्री गजेन्द्रकुमार जी भंसाली, उदयपुर श्रीमती प्रेमलता नवलखा, जयपुर श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर
आगम ज्योति प्रवर्तिनी आर्यारत्न पूज्य श्री भाग्यशाली है जिसे ऐसी पूज्यवर्याश्री जी का सज्जनश्री महाराज साहिबा का हम अभिनन्दन अभिनन्दन करने का सुयोग मिल रहा है। समारोह मनाने जा रहे हैं। आप जैसी कला संपन्न, ऐसा अभिनन्दन वस्तुतः राष्ट्र, समाज एवं परम विदुषी, स्वल्प मधुरभाषी, अध्ययनशील एवं खरतरगच्छ संघ के लिए नयी चेतना का अभिनन्दन गहन गम्भीर तात्विक एवं आध्यात्मिकता से ओत- है ? ऐसे शुभ कार्यों के संयोजकों को मैं साधुवाद प्रोत साध्वी जी हमारे समाज में बिरली ही हैं। देता हूँ। और इस महोत्सव की हीरकोज्ज्वल आपको शत-शत नमन ।
सफलता के लिए हार्दिक मंगलभावना प्रेषित करता ऐसी गण गरिमा एवं सयम तप त्याग से ओत- हूँ। पूज्यवर्याश्री जी को शुभकामनाएँ देकर रस्म प्रोत प्रवर्तिनीजी के अभिनन्दन का सौभाग्य हमें अदायगी करना धृष्टता होगी, संस्कृति के इस
संवाहक को मैं अपना प्रणाम अर्पित करता हूँ। प्राप्त हो रहा है, वस्तुतः यह हमारा ही परम अहोभाग्य है। इस शुभ अवसर पर हम आपके प्रति पूर्ण श्रद्धा से नतमस्तक हैं, एवं आपके यशस्वी
श्री मानमलजी सुराणा, जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन भी सार्थक
एवं सम्पूर्ण परिवार बनाने का संकल्प लेते हैं।
अजमेर (राज.) - श्री दुलीचन्दजी टांक (जयपुर) अत्यन्त हार्दिक प्रसन्नता है कि प. श्रद्धया परम पूज्या गुरुवर्या, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री प्रवा
पती श्रीमती प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. सा० के ५२वें जी म. सा. के विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक
जन्म जयन्ती महोत्सव पर उ. भा. श्री जैन खरतदिखाने जैसा है। आपश्री आशकवयित्री आगमज्ञा, रगच्छ संघ, वैशाख शुक्ला पूर्णिमा वि० सं० २०४६ ज्योतिष, ध्यान आदि विषयों की मर्मज्ञा तो हैं ही तदनुसार शनिवार दि० २० मई १९८६ को जयपर साथ ही अत्यन्त शांत एवं सरल स्वभावी हैं।
__नगर में अभिनन्दन समारोह समायोजित कर रहा __ जयपूर संघ का अपूर्व सौभाग्य है कि आपश्री अनेक उपकार हैं । आपका आदर्श जीवन हम सबके
है। चतुर्विध संघ पर प. पूजनीया प्रवर्तिनी जी के के दर्शन वंदन का लाभ सतत मिल रहा है। लिये धर्म आराधना हेतु परम प्रेरणास्पद है। इस हम श्रावक तो मात्र उनके गुणों की अनुमोदना ही
सुअवसर पर प. पू. प्रवर्तिनी श्री के चरण कमलों कर सकते हैं । शासन देव से प्रार्थना है कि आपश्री
में नत मस्तक होकर सविनय वंदना अर्ज करता दीर्घायु होकर संघ की सम्भाल करती रहें।
हूँ और शासन देव से प्रार्थना करता हूँ कि
आप चिराय और स्वस्थ रहकर इसी प्रकार 0 श्री बलवन्तराजजी भन्साली जैन शासन की सेवा एवं प्रभावना करती रहें एवं अभिनन्दन समारोह के इस अवसर पर पूज्य आपकी आदर्श विदुषी शिष्याएँ भी आपके आदर्श प्रवर्तिनी जी म. सा. के वैदुष्य और संयम-तप- जीवन का अनुकरण करें और आत्मकल्याण व त्यागपूर्ण गुणगरिमा का अभिनन्दन करते हुए मैं लोककल्याण द्वारा जैन शासन की शोभा बढ़ाती आपके सुस्वास्थ्य तथा दीर्घायु की कामना करता रहें ।
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ
॥ श्री कन्हैयालालजी लोढा
आपके जीवन में झाँका जावे तो आपकी शासन महासती श्री सज्जनश्रीजी अपने नाम के सेवा, धर्म के प्रति गहरो निष्ठा ही दृष्टिगोचर होती अनुरूप ही सज्जनता की प्रतिमा है। तप, त्याग, है, तथा आध्यात्मिकता एवं सत्य, अहिंसा का अद्सेवा, सदाचरण, संयम आपके जीवन का मूल मंत्र भुत समन्वय प्रतीत होता है। है । आप प्रकृति से सरल, मन से उदार हैं । आप आपश्रीजी का जीवन, कमल की भाँति, राग-द्वेष, मोह के जीतने के लिए सतत प्रयत्नशील पर्वतशिखर पर चढ़ने वाले यात्री की भाँति सदा रहती हैं, चाहे जैसी प्रतिकूल परिस्थिति हो आपकी निर्लिप्त, सतत जाग्रत और उच्चतम ध्येय के प्रति शान्ति अक्ष ण्ण रहती है। आप दिखावा, भीड़- केन्द्रित तथा गतिशील रहता है। भाड से दूर रहने वाले हैं। आप सरलता, नम्रता जिस प्रकार मौन उषा, अपने कर में सुन्दर करुणा की साक्षात मूर्ति ही हैं। आपका व्यक्तित्व पुष्पमाला से सजी सुनहरी लाली लेकर पृथ्वी का प्रभावक व प्रेरणादायक है । आप दीर्घायु हों, शासन अभिषेक करने आती है, ठीक उसी प्रकार आपश्री की सेवा करते रहें, यही शुभ भावना है। 0 जी अपने स्वर्ण कुम्भ से सत्य, अहिंसा का शीतल डॉ० सू०प्र० वर्मा दल्ली राजहरा/म०प्र०) अमृत पान कराती रहती हैं। आपके जीवन की
' शतायुता की मंगल कामना करते हैं। प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज का तपोमय जीवनरूपी स्वर्ण, उत्कृष्ट साधना की प्रचण्ड भट्टी
श्री मोहनजी सोनी (कवि एवं गीतकार) में तपकर, विशुद्ध, कुन्दन बना है। आप अदम्य
दानीगेट, उज्जैन। इच्छाशक्ति, अतुलनीय प्रभुभक्ति, औदार्य, आत्मचिन्तन, तपस्विता, तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता, दूरगामी
परमपिता परमात्मा जब अपना कोई सन्देश कल्पनाशक्ति से सम्पन्न नीति प्रीति परमार्थ के
हम पृथ्वीवासियों तक पहुँचाना चाहता है तो वह
महान् सन्तों के द्वारा पहुँचाता है। ऐसी ही पूज्यप्रकाश ज की प्रतीक, परहिताकांक्षी, सरलता की
वर्या, प्रवर्तिनी महोदया, प्रातःस्मरणीया, वन्दनीया, प्रतिमूर्ति, सौम्य सौजन्य, संकल्प की दृढ़ता, संतुलित
चिन्तनशीला, विदुषोवर्या, कवयित्री, संगीतसारिका, दिनचर्या एवं मधुर वातावरण की प्रणेता आदि गणों से सम्पन्न हैं । आप में, तर्क की सूक्ष्मता,
विनयवती, निरभिमानी, मधुर भाषिणी, वात्सल्यविषय प्रतिपादन की क्षमता, विचारों की स्पष्टता,
हृदया और सर्वभूतेषु मैत्री की कल्याणमयी भावना भावों की कोमलता, व्यवहार की सरलता, दुखियों
से ओतप्रोत तथा सरलता की प्रतिमूर्ति श्रीसज्जन
श्री महाराज साहब को वीर प्रभु की सन्देश वाहिका के प्रति सहानुभूति आदि गुण इतने स्वाभाविक रूप
के रूप में पाकर, सम्पूर्ण जैन और जैनेतर समाज में हैं कि आपके सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति सहज
अपने भाग्य की सराहना करता है । विलक्षणता की ही आकृष्ट हो जाता है।
प्रतिमूर्ति, मूर्तिमंत अध्यात्मज्ञान गंगा, सात्विक आपके उद्बोधन से यह परिलक्षित होता है, मनीषी और हम सबकी पूज्या, आपको कोटिशः कि “आज का मानव अज्ञान से परेशान नहीं, वह वन्दन एवम अभिनन्दन । तो गलत ज्ञान से परेशान है।"
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ । सज्जनां श्रीमुपास्महे ।।
अन्यान्यागमेषु अपि समादरा कृतपरिचया चैवं
विधाया अस्या महाभागाया अभिनन्दनग्रन्थे मयापि पं० चण्डीप्रसादाचार्यो दाधिमथ: (पूर्व प्रिंसीपल
दिव्यास्तुतिः प्रेष्यते । __ महाराजा संस्कृत महाविद्यालयः, जयपुरम्)
अधिगच्छति शास्त्रार्थः स्मरति श्रद्धधाति च । अर्थः संस्पृश्य हत्तन्त्रीं याभिसंभाषणे स्वरान् ।।
यत्कृपालेशतस्तस्मै नमोऽस्तु गुरवे सदा ।। व्यक्तवर्णपदां शुद्धां तां वन्दे सज्जनास्पदाम् ॥१॥ इहलोके तथान्यत्र चतुर्वर्गफलान्विताम् । संदिशन्तीं हितां नीति नयान्तीं च विनीतताम् ।।२।।
श्री कुमारपाल वि० शाह वारयन्तीमधः पातान् प्रेरयन्तों शिवां मतिम् । मैने गंभीरतापूर्वक अनुभव दिया है कि पू० अर्पयन्ती परां विद्यां तर्पयन्तीं स्वभाषणैः ॥३॥ प्रवतिनी सज्जनश्रीजी महाराज निरन्तर स्वा
" ध्याय में डूबी रहती हैं। जैनागम एवं अन्य दर्शन मातरं सर्वजनानां सज्जनां श्रीमुपास्महे ।।
... के गहन अध्ययन चिन्तन-मनन से आपका सम्पूर्ण कस्तां न पूजयेद् देवीं यस्याः संततभाषणे ।।४।।
' जीवन ही स्वाध्यायमय हो गया है। समय-समय विद्यारत्नानि विद्यन्ते विश्रु तानि चतुर्दश....
पर आपश्री के दर्शन व विचार विनिमय का अयि जैनागमबद्ध परिकरा विद्वांसो भक्ताश्च ! प्रसंग आता है। आपश्री इतने सरल शब्दों में धर्म ___ महामान्यानां सुविदितयशसा सुगृहीतनाम- के मर्म को समझा देती हैं, इतनी सुन्दरता से गहन धेयानां सज्जनश्रीमहाभागानामभिनन्दनग्रन्थः तत्वों का विवेचन कर देती हैं कि सुखद आश्चर्य प्रकाश्यते--इतिश्रावं श्रावं नितान्तं प्रमोमुदीति होता है । शत-शत वन्दन । मामकीनाचित्तवृत्तिः । विदितप्रभावा सज्जनश्री महाभागा सर्वत्र प्रथते । पण्डितानां सर्वदैवानया
[] श्री मोतीलालजी ललवाणी, सीवानागढ़ समादरः कृत इति अस्माभिः समवलोकितम् । अस्या महाभागाया अध्यापनप्रसंगे ननम् आसां व्यवहार मुझे ज्ञात हुआ कि जयपुर संघ प्रवर्तिनीश्री जातेन वयं नितान्तं प्रभाविताः । अस्या महाभागाया सज्जनश्रीजी म. सा. के जन्म तिथि बैसाख पूर्णिमा बहुश्र तत्वं समवलोक्य कस्य चेतो न प्रसीदते । के दिन उनका अभिनन्दन करने जा रहा है । परम अस्या महाविभूतेस्तेजपुजं समवलोक्य न केवलं श्रद्धय प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी महाराज का सर्वे जैनाचार्या एव प्रभाविताः, अपितु साहित्य- जीवन वैशिष्ट्य भी एक व्यक्तित्व सम्पदा है । इस शास्त्रमर्मज्ञ आशुकविः श्रीहरिशास्त्री अपि मुक्त सम्पदा के लिए कहा जा सकता है कि वह अब कण्ठेन प्राशंसत्
सामाजिक धरोहर है। वेशोऽतिभव्योऽस्या महाविभूतेः
स्वाध्याय और ध्यान तो आपकी साधना के संस्मारयत्येव मुनीन्द्ररूपम् । मुख्य अंग हैं। प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्री का अभिन केवलं शास्त्रविचक्षणा सा
नन्दन उनकी गुण गरिमा संयम, तप, त्याग, का चारिप्यमप्यस्यार्बुधैः समय॑म् ।। अभिनन्दन है। ऐसे हमारी गुरुवर्या का अभिनंदन
का अनुपम अपूर्व अवसर हमें प्राप्त हो रहा है । शिष्यान्वेषणे च या सदा व्यावृता, तासां यह हमारे लिए गौरव का विषय है। ऐसे गुरुवर्या समुज्ज्वलजीवने समर्पितभावा सदा अस्माभिः के चरण कमल में शत-शत वंदन । समवलोकिता। जैनागमे सर्वथा बद्धादरा अपि खण्ड २/५
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाए - श्री जवाहरलाल लोढा, - श्रीमती शकुन्तला सुराणा जयपुर (सम्पादक : साप्ताहिक श्वेताम्बर जैन, आगरा) पूज्य प्रवर्तिनी "आगम ज्योति" श्री सज्जनश्री
यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि जी म सा. की भव्यता पर मुझे कुछ टूटे-फूटे शब्द जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ जयपुर अपनी प० लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह मेरे लिए गौरव पूज्यनीया आगममर्मज्ञा प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी का विषय है। मैं अपनी लघुता से उनकी गरिमा महाराज के ८१वें जन्म दिवस वैशाख शुक्ला पूर्णिमा व भव्यता का अभिनन्दन करती हूँ। के शुभ दिन आपका अभिनन्दन करने जा रहा है। जिनेश्वर देव से यही कामना है आप स्वस्थ
प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी महाराज का अभि- रहते हुये चिरायु बनें । परस्पर सद्भावना, सहानुनन्दन उनकी गुणगरिमा और त्याग तपस्या का भूति, सच्चे प्रेम का निर्झर बहाती रहें। अभिनन्दन है । हम प० पू० प्रवर्तिनीजी के चरणों में शुभकामनाएँ अर्पित करते हैं और प्रभु से । श्रीमती निर्मला कडावत जयपुर प्रार्थना करते हैं कि दीर्घकाल तक अपने सद्उपदेशों
(एम० काम०, एम० ए०) से भव्य आत्माओं को लाभान्वित करती रहें।
जैन समाज आज जिन अपूर्व प्रतिभाशाली रत्नों ___ अभिनन्दन आयोजक संघ को भी हम धन्यवाद को पाकर संसार में अपना विशिष्ट स्थान बनाये देते हैं, उनके इस सदप्रयास के लिये।
हुये हैं व भविष्य हेतु भी सुरक्षित है । इन्हीं प्रतिभा
' शाली रत्नों में पूज्या गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी ॥ श्रीसौभागमलजी विजयकुमारजी महाराज साहब भी एक हैं जिन्होंने अपनी पीयूष(अध्यक्ष : श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ टोंक) मयीवाणी एवं मुखमंडल पर ज्ञान के दिव्य तेज के
आज के भौतिक युग में जब मानवता व्यथित द्वारा सम्पूर्ण देश के जैन व जैनेतर समाज को है। तब जैन धर्म के सिद्धान्त अत्यधिक, आवश्यक आलोकित किया है। एवं प्रासंगिक हैं । जैन साधु-साध्वियाँ आदर्श के हम सभी का शत-शत अभिनन्दन एवं वन्दन । प्रतीक हैं । साध्वियों की इसी परम्परा में पूजनीय
__ अद्भुत ज्योति, अद्भुत प्रज्ञा, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब का एक
. हो तुम आगम मर्मज्ञा । महत्वपूर्ण स्थान है । उनकी अमूल्य सेवाओं के प्रति
फैल रही है कीति तुम्हारी, हम श्रद्धानत हैं और उनका हृदय से अभिनन्दन
हो हर क्षेत्र में सुयोग्या ।। करते हैं। पूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब
श्रीमती अनिता भण्डारी ने टोंक में भी चातुर्मास किया है और इसके अतिरिक्त टोंक में एक महत्वपूर्ण अवधि तक विराम और आगम मर्मज्ञा, प्रखर व्याख्यात्री, मृदुभाषी, विश्राम भी किया है। हम उनके अमूल्य ज्ञान से सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति श्रद्धेय सज्जन और आदर्श जीवन से अत्यन्त प्रभावित हुए हैं। श्रीजी महाराज साहब के बहमुखी व्यक्तित्व में
हम अपनी पूरी भक्ति और शक्ति से उनका “सादा जीवन और उच्च विचार" के अभिदर्शन अभिनन्दन करते हैं और शासनदेव से प्रार्थना करते होते हैं। हैं कि वे इन्हें दीर्घायु करें।
स्वाध्याय, मनन, चिन्तन का अद्भुत त्रिवेणी - संगम इनके विलक्षण व्यक्तित्व में परिलक्षित होता
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनायें
है । प्रमाद और आलस्य तो उनसे कोसों दूर रहता है, क्योंकि वे हर समय पठन-पाठन और लेखन कार्य 'तल्लीन रहती हैं । इनका प्रमुख गुण यह है कि स्वकल्याण और विकास का ध्यान रखने के साथ - साथ आप जनकल्याण और समाजोत्थान की भावना से भी ओत-प्रोत हैं । अभिनन्दन के अवसर पर मेरा शत शत वन्दन ।
O श्रीमती ताराकुमारी झाड़चूर
शब्दों की एक सीमा होती है उनमें इस असीम अनुपम ज्योतिर्मय व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करना सम्भव नहीं है, तथापि विचारों की तरंगों को रोक नहीं पा रही हूँ। मैं करीब ३८ वर्ष पूर्व जयपुर के झाड़चुर परिवार में आई थी तब पूज्य गुरुवर्या के अलौकिक व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था और शनैःशनैः वह गूढ़ होता गया । वे अत्यन्त सरल एवं करुणहृदयी हैं । इतनी बुद्धिजीवी होकर भी जरा सा भी मान नहीं है, न पद की लालसा है और न ही नाम की आकांक्षा । ऐसी गुरुवर्या के दर्शन एवं स्पर्श से जिस सुख की अनुभूति होती है सम्भवतः उसे ही परमानन्द कहा गया है । मुझे शुरू से ही पुराने स्तवन अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें भावाभिव्यक्ति बहुत ही उत्कृष्ट होती है। गुरुवर्या के कुछ स्तवन भले ही वे फिल्मी गानों की तर्ज पर ही क्यों न हो, अत्यन्त सारगर्भित हैं । गुरुदेव के एक भजन की आखरी पंक्ति में पूज्य गुरुवर्या ने कहां है “दो ज्ञानमय उपयोग ऐसा आत्म को जाने, " कितना आध्यात्मिक भाव एवं कितना सरल कि साधारण व्यक्ति के भी समझ में आ जाए ।
जयपुर श्री संघ पर गुरुवर्याश्री की विशेष कृपा रही है । जब भी प्रमाद में फँस कर धर्म कृत्य छोड़ देते हैं तो पुनः जागृत करती रहती है । कितना ख्याल एवं कितनी आत्मीयता है । ऐसी महान विभूति के चरणों में त्रिकाल वन्दन करते हुए पूज्य गुरुवर्या के आरोग्य तथा दीर्घ जीवन की गुरुदेव से मंगल कामना करती हूँ ।
O
[] श्री जोगेश्वरनाथजी संड
धर्म प्रवर्तिनी पूज्यवर्या प्रवर्तिनी सज्जन श्रीजी म० साहब, आगम ज्योति के इस अभिनन्दन समारोह के लिये मेरी हार्दिक शुभ-कामनायें तथा ऐसी महाप्राण साध्वीजी के सुस्वस्थ होने तथा शतायु होने की मंगल कामना अर्पित करता हूँ । शत-शत
नमन ।
श्रीमती रत्ना ओसवाल
( सहमंत्राणी : अखिल भारतीय महिला समिति, राजनांदगाँव म०प्र० )
अपने आचार-विचार की समतल पृष्ठभूमि पर व्यक्तित्व की परिभाषा बन उभरता है, वही संत है, वही साध्वी है। परम पूज्य प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्रीजी का व्यक्तित्व आचार-विचार की समन्विति से मंडित है । इस मंगल बेला पर उन्हें
शत-शत मेरा वंदन ।
0 श्रीमती भंवरदेवी गोलेच्छा अत्यन्त हर्ष का विषय है कि आगमज्ञा विदुषीवर्या समता मूर्ति सरल स्वभावी सुपुनीत संत महामहिम प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी म० सा० के अभिनन्दन ग्रंथ का प्रवर्तन प्रकाशन होने जा रहा है। वास्तव में यह संत का सम्मान तो है ही उससे अधिक यह उनके कर्मों से जुड़े अन्य सु पुनीतों के सद्ग ुण ग्रहणात्मकता का प्रकाशन भी है । अन्त में मैं इतना ही कहूँगी :
"बंदी गुरुपद पदुम परागा । सुरुचि सुवास सरस अनुरागा ॥ अमिय मूरिमय चूरन चारू । शमन सकल भवरूज परिवारू ॥ गुरुवर्या के चरणों में कोटिशः प्रणाम ।
O
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३६
खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनायें
- श्री उत्तमचन्द डागा
सराहनीय और समीचीन है। पूज्याश्रीजी बहुत ही (संयुक्त मन्त्री)
विदुषी और शस्त्रों की महान् ज्ञाता हैं। आपने जयपुर सदा से पुण्य भूमि रही है । तप. शासन की बड़ी सेवा की है। त्याग की ये भूमि रत्नों की खान है। इसी पुण्यभूमि पूज्याश्रीजी पर हमें गर्व है। आपका बहमान, की जनक जैन समाज की गौरव महासती प्रवर्तिनी आप में रही समाज की सच्ची भक्ति का श्री सज्जनश्रीजी म. एक प्रतिभाशाली, गौरवमयी, द्योतक है। साधनामयी, साध्वीरत्न हैं । आपका सम्पूर्ण जीवन
"उत्तम ना गुण गावंता, साधना के पथ पर निरन्तर गतिशील रहा है।
गुण उपजे निज अंग।" आप जैसी विलक्षण महान उदारमना महासती जी का अभिनन्दन वन्दन वास्तव में आपके संयम
आपश्रीजी के गुणग्राम से हमें भी महान् लाभ पथ का ही अभिनन्दन है । वे हमारी गौरवशाली प्राप्त होगा। परम्परा की सच्ची प्रतीक हैं । हम ऐसी महान साध्वी रत्न का अभिनन्दन कर अपने को निश्चय ही गौरवशाली महसूस करते हैं।
0 श्री लहरसिंह बाफना
विदुषीवर्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. श्री राजेश महमवाल, नवलगढ़ के अभिनन्दन समारोह के शुभ अवसर पर मैं श्री त्याग व संयम के पथ पर इतने बड़े समुदाय को जैन श्वेताम्बर संघ खेतडीनगर की ओर से समारोह लेकर चलने वाली गुरुवर्या प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी की सफलता की शुभकामना करता हैं । और कामना म. का व्यक्तित्व एक अक्षय प्रेरणा का स्रोत रहा करता हूँ कि साध्वीजी के जीवन से समाज के गौरव है। ज्ञान के इस पवित्र स्रोत के किनारे खडा का श्राद्ध क साथ-साथ पवित्र और विद्यावान जीवन प्रत्येक श्रावक आत्मसंस्कारों के लिये नई दीप्ति जीने की प्रेरणा भी मिलेगी। पाता है। साधुत्व जैन समाज की परम्परा व शक्ति रही है और इसी शक्तिमान आभा की नैतिकता का अपना एक दिव्याकाश है जहाँ अनेक प्रकाश
0 श्री एस. मोहनचन्द ढड्ढा 'शक्तियाँ आपकी शक्ति से जगमगा रही है जो
[२६८, लायड्स रोड, रायपेठ, मद्रास भविष्य के लिये संयम की राह में सेतु बन इस परम्परा को अविरल गति व मार्गदर्शन देती भारत की समस्त जैन समाज की साध्वी समूरहेंगी।
दाय में प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का एक वीर-शासन की सेविका, आध्यात्मिक विभूति
अनूठा स्वरूप है। इनकी वाणी व व्यवहार में एवं सात्विक-मनीषा को मेरा कोटिशः कोटिशः
अद्भुत प्रभावकता है । आपका ब्यक्तित्व और
कृतित्व बेजोड़ है । आपकी वाणी और काव्य वन्दन ।
कृतियाँ सभी के लिए प्रेरणाप्रद हैं । ऐसी वन्दनीया
साध्वीश्री जी के चरणों में शत-शत नमन ! शुभ श्री मानमल कोठारी
कामना। पूज्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज साहब के अभिनन्दन समारोह का आयोजन बहुत ही
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खण्ड : आशीर्वचन : शुभकामनाएँ C साध्वी रंभाश्रीजी महाराज आपश्री स्वभाव से पूरी तरह मुनित्व जीवन से
निकट हैं। साधुत्व का लक्षण हैं-समता व अनासक्ति । यह जानकर प्रसन्नता हुई कि भगिनी प्रवर्तिनी
जिनके जीवन में ये दो गुण आत्मसात हो गये, वे श्रीसज्जनश्रीजी महाराज का अभिनन्दन किया जा
निश्चित रूप से निर्ग्रन्थ बन गये । पू. गुरुवर्याश्री रहा है। उनका व्यक्तित्व अपने आप में अनुपम व अनु
को इन्हीं गुणों से परिपूर्ण देखा।
____ मैं अन्तःकरण से हार्दिक अभिनन्दन करता हुआ करणीय है। गुरुदेव से प्रार्थना है कि चिरायु बन जिनशासन
यही शुभकामना करता हूँ कि पूज्या प्रवर्तिनीजी की सेवा संलग्न रहें।
दीर्घायु बन संसार-रसिकों को शासनरसिक
बनायें। श्री ज्ञानचन्दजी लूनावत (मन्त्री : श्री जिनदत्त सूरि सेवा संघ, कलकत्ता)
0 श्री हेमचन्द चौरडिया पूज्यवर्या प्रवर्तिनी महोदया थीसज्जनश्रीजी
(व्यवस्थापक : ज्ञान भंडार,
श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, जयपुर) महाराज साहब के अभिनन्दन समारोह के समाचार जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। आपथी में ऐसे यह मन का व्यापार निरन्तर, अनेकों गुण हैं जिससे मस्तक श्रद्धा से स्वतः ही झक
इससे तो वह छूट सकेगा। जाता है । आपश्री प्रकांड विदुषी हैं। प्रकांड विद्वान
तोड़ेगा ममता के वन्धन, होना बहुत बड़ी बात है किन्तु उससे भी बड़ी बात
कर पायेगा आत्म-नियन्त्रण, है विद्वत्ता का लेश मात्र भी अहंकार न होना।
जिसने मन को जीत लिया-, विद्वत्ता की उच्च स्थिति में पहुँचने के बाद भी अहं
वह जीवन को जीत सकेगा। कार पर विजय पाने वाले व्यक्ति तो नगण्य ही होते
कवि के उपरोक्त विचारों को सार्थक करने हैं । पूज्या प्रवर्तिनीजी इस गण को प्राप्त करने में वाली प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब पूर्ण समर्थ हुई हैं।
का अभिनन्दन करना अपने आप में एक महान पुण्य व्यर्थ की विकथा से दूर रहकर धर्मध्यान व कार्य है । शुक्ल ध्यान में रहना मुनि जीवन का प्रमुख गुण आपके आदर्श चरित्र, सौम्यता, संयम, सरल है। प्रवर्तिनी महोदया सदा ही विकथा से दूर तप- स्वभाव, हृदय की भव्यता एवं विद्वत्ता का अभिस्वाध्याय में लीन रहती है। आपश्री में, ज्ञान एवं नन्दन करके सम्पूर्ण जैन समाज गौरवान्वित चारित्र दोनों का एक साथ समावेश है।
होगा ही, साथ ही साथ जैन समाज के उत्थान में इसके अतिरिक्त विनम्रता, मधुर भाषणता, आपका योगदान सदैव की भांति मिलता रहेगा। सेवाभावना आदि अनेक गुण आप में है । आपश्री आप दीर्घायु हों इसी कामना के साथ । C. केवल विदुषी ही नहीं, वक्तृत्व कला सम्पन्न, सफल लेखिका एवं कवयित्री भी हैं। आपश्री का अभिनन्दन
0 श्रीमती प्रेमदेवी झाड़चूर (जयपुर) करते हमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है।
हार्दिक प्रसन्नता का विषय है कि पू. गुरुवा 1 श्री महताबचन्दजी बाँठिया, बम्बई श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रका- . अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है कि पूज्या शित हो रहा है। प्रवतिनीश्री का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। जिस तरह से माँ अपने बच्चे को अंगुली पकड़
पू. गुरुवर्याश्री जैनाकाश की दिव्यतारिका हैं। कर सही रास्ता बताती है, भटकने नहीं देती है
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खण्ड २ : आशीर्वचन : शुभकामनाएं उसी प्रकार पू. गुरुवर्याश्री ने मुझे सद्मार्ग बताकर ___मैं आपश्री से इतनी प्रभावित हूँ कि यद्यपि मैं मुझ पर अनन्य उपकार किया है।
सांसारिक जीवन में रह रही हूँ लेकिन प्रतिक्षण विचक्षण भवन का निर्माण चल रहा था तब
आपश्री की निराली छवि आँखों के सामने गुरुवर्याश्री की प्रेरणा से ही मैंने व्याख्यान हाल
छायी रहती है और घर के कार्य करती हुई भी बनवाने में सम्पत्ति का सदुपयोग किया।
ध्यान आपश्री की ओर चला जाता है। मैंने अपने
जीवन में ऐसी शान्त सरल छवि कभी किसी की गुरुव-श्री के चरणों में सश्रद्धा, सभक्ति, नहीं देखी । आप युग-युग तक जैन शासन को सविनय प्रार्थना करती हूँ कि जब-जब भी कुमार्ग प्रभावना करती रहें। पर भटकू सदा आप मुझे ज्ञान की ज्योति दिखा सुमार्ग पर ले आये।
- कमलेश भंडारी, जयपुर गुरुदेव से प्रार्थना करती हूँ कि पू० गुरुवर्याश्री दीर्घायु बन संसार-रसिक जीवों को अपने उपदेश मुझे जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि से शासन-रसिक-मोक्ष-रसिक बनायें। इसी शुभ- पू. प्रवर्तिनी गुरुवर्या श्री सज्जनधी जी म० सा० कामना के साथ
के त्याग-तप-संयम का शालीन अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रकाशित हो रहा है ? U विमला झाड़चर, जयपुर
वैसे तो उनका जीवन ही त्याग-तप-संयम से ..."बहमखी प्रतिभा और आपके द्वारा प्रेरित परिपूर्ण है फिर भी लिखित शब्दों के माध्यम से भक्ति ज्ञान से देश परिचित है। आपने अपनी उनके गुणों को एक सूत्र में बाँधने का जो निर्णय उच्चतम साधना एवं ज्ञान के द्वारा देश और विदेश लूणिया परिवार ने लिया है वे बहुत ही भाग्यशाली के सहस्रों मानव प्राणियों का कल्याण किया है। हैं। आपश्री सरल स्वभावी शान्तमूर्ति हैं आपकी अमृत- मैंने गुरुवर्या श्री को बहुत ही निकटता से मयी वाणी और आशीर्वाद में जैसे जादू ही भरा देखा-देखने पर कभी ऐसा न पाया कि उनके
जीवन में प्रमाद है । सदा अप्रमत्तदशा में रहती
हुई स्वयं स्वाध्याय करती हैं व अन्यों को करवाती मेरा स्वयं का अनुभव है कि कभी ज्वर या सिर में दर्द या अन्य कोई व्याधि शरीर में हो जाती है तो आपश्री का वासक्षेप आशीर्वाद मिलते अध्ययन व अध्यापन में सदा मग्न रहती हुई ही शान्ति अनुभव होती है। जब भी मैं उपाश्रय में आत्म गुणों को विकसित करने में अपने जीवन के आती तो आप जैसी शान्ति-मूर्ति के दर्शनों से हर क्षणों को जोड़ा । बाह्य व्यर्थ के कार्यों में आत्मा को अनन्त शान्ति मिलती है। मेरी तो कभी भी अमूल्य क्षणों को नष्ट नहीं करती हैं। प्रतिक्षण यही इच्छा रहती है कि आपश्री के पास गरुदेव से प्रार्थना करती हैं कि आपश्री के ही बैठी रहूँ और अमृतमयी वाणी का पान करती जीवन के आंशिक गुण मेरे जीवन में भी प्रविष्ट रहूं । आपश्री की वाणी में मानों अमृत ही बरसता हों जिससे मेरा जीवन सफल बने व सत्पथ को है बस मन यही चाहता है कि आपश्री बोलती ही प्राप्त कर संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटकर रहें।
सिद्धत्व को प्राप्त करूं।
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काव्यांजलियाँ
00 अदाचन.
सकता
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करते तेरा अभिनन्दन !
-गणी श्री मणिप्रभसागरजी म.
किपिnिgs
सज्जनश्री की काया के मिस, सज्जनता ने धारा अंग। सज्जनता की उपासना चल, रही निरन्तर नित्य अभंग ॥१॥ महावीर प्रभु के शासन का, लिये हुए शुभ वेश धवल । परिणामों की परम धवलिमा, पल-पल बना रही उज्ज्वल ।।२॥ शम-दम संयम सत्य अहिंसा, तत्व साधना के कर स्थिर । तत्पर बनी साधिका सज्जन, पूर्ण समर्पित कर निज सिर ।। ३ ।। उजड़े उखड़े झाड़ मूल जड़, पड़े पान फल-फूल कहीं। बीज सुरक्षित रह जाने पर, मानी जाये भूल नहीं ॥ ४॥ बाह्याभ्यन्तर का जो अन्तर, यही कषाय यही बन्धन । संयम अनल अनिल हो समता, अन्तर बन जाये ईंधन ॥५॥ कथन सरल अति कठिन आचरण, धन्य वही जो करे, तरे। मर मिटने की हिम्मत वाले, प्रलयकाल से नहीं डरे ॥ ६॥ साध्वी सज्जनश्री का करते, सज्जन जन मन अभिनंदन । सज्जनता के श्री चरणों में, त्रिभुवन का शत-शत वंदन ॥७॥ सत्कृत सम्मानित स्तुत नित हित, परहित निरता विरता नित्य । सज्जनश्री की सज्जनता से, रहे प्रकाशित सत् साहित्य ॥ ८ ॥ प्रवर्तिनी प्रवरा आर्याथी, सहृदया सरलात्मा शुचितम । सौम्याकृति अति प्रतिभावाली, साध रही शम दम संयम ॥६॥ तेरा मन नहीं यहाँ पर, अस्थिरता में स्थिर आत्मा । झांक रही आत्मा आत्मा में, मिल जाये गर परमात्मा ।।१०।। 'मणिप्रभ' करता सज्जनश्री का, अभिनंदन स्वीकारा जाय । सबसे शोभित आप, आपसे, शोभित है सारा समुदाय ॥११॥
( ३६ )
S
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हे दिव्य ज्योति ! हे ज्ञान ज्योति !
-शशिकर 'खटका' राजस्थानी
हे ! दिव्य ज्योति, हे ज्ञान ज्योति, हे आगम ज्योति वन्दन है । हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तिनी, अभिनन्दन है अभिनंदन है ।
जन्म लुनिया कुल में लेकर तुमने उसे दीपाया । मेहताब देवी की कुक्षी को उज्ज्वल यहाँ बनाया ! नगर गुलाबी गुलाबचन्दजी थे सब ही के प्यारे ।
श्रीमती मेहताब देवी संग द्वादश व्रत थे धारे । उनके संग संग तुमने जाना जग में बस क्रन्दन है। हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है।
ज्ञानश्रीजी महाराज के चरण शरण तुम आईं। कोई नहीं किसी का जग में सुनी बात मन भाई। छोड़ सभी एक दिन जायेंगे बात मर्म की जानी ।
कर्म काटना होगा जग में बात धर्म की मानी । सुनकर शिक्षा गुरुणी जी की मन में हुआ स्पन्दन है । हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तिनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है ।।
आषाढ़ शुक्ला दूज संवत् निन्यान्वे का आया। मणिसागरजी की निश्रा में वैराग्य वेश अपनाया। आचार्य देव हरिसागरजी से वृहद् दीक्षा ले ली।
त्याग दिया संसार आपने जीवन बनी पहेली। त्याग मयी जीवन ही तुमको लगा यहाँ वन नन्दन है। हे ! सरल स्वभावी पूज्य प्रवर्तनी अभिनन्दन है अभिनन्दन है ।।
श्री सज्जनश्रीजी महाराज ने तन को बहुत तपाया। तेले अठाई मास खमण कर जीवन सफल बनाया। रचना का संसार शशिकर हर पल गाथा कहता ।
स्तवन रचना का स्रोत आपके मन में हर पल बहता। आप बोलते तो जग का जग जाता था मन है। हे ! सरल स्वभावो ना ना ना ॥
( ४० )
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अभिनन्दन
-श्रावक 'श्री छगन' ओ! धर्म प्राण ! ओ तप्त त्राण ! गुण रत्न खांण अभिनन्दन है। ओ! दिप्त भाँण ओ शांत प्राण, वैराग्य खांण शत वन्दन है ।
तुम आगम ज्योति उजागर हो। ज्योतिर्मय गरिमा गागर हो।
कवितव्य हृदय रस सागर हो । ओ ! ज्ञानवान चारित्रवान, दर्शननिधान अभिनन्दन है। ओ! दिप्त भांण, ओ शांत प्राण, वैराग्य खांण शत वन्दन है ।
विनयी हो सौम्य स्वभाव मयी। मधुरिम वाणी अभिमान नहीं ।
परदुःखकातर वात्सल्यमयी ।। ओ! नीतिवान ओ रीतिवान, ओ कीर्तिवान अभिनन्दन है। ओ! दिप्त भांण, ओ शांत प्राण वैराग्य खांण शत वन्दन है ।
है विकथा का लवलेश नहीं । स्व-श्लाघा मन अवशेष नहीं । रति अविरति कुछ शेष नहीं ।
अवमान् मान मन क्लेश नहीं ॥ ओ! त्यागवान, विरागवान, अनुरागवान अभिनन्दन है। ओ! दिप्त भांण ओ शांत प्राण वैराग्य खांण शत वन्दन है ।
हो प्रोढ़ा पर गतिशीला हो । स्वाध्याय ध्यान लवलीना हो ।
तन रुग्ण आत्मबलशीला हो। ओ! धैर्यवान ओ शौर्यवान, गाम्भीर्यवान अभिनन्दन है। ओ ! दिप्त भांण ओ शांत प्राण वैराग्य खांण शत वन्दन है ।।
वन्दन है बारम्बार तुम्हें । शत आयु हो अभिलाष हमें । सज्जन हो सज्जन चरणों में।
"छगन" शीश पुनि-पुनि नमे ॥ ओ! "खरतर" की जागृत ज्योति बार-बार अभिनन्दन है। ओ! दिप्त भांण, और शांत प्राण, वैराग्य खांण शत वन्दन है ।
(
४१
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सबका नम्र प्रणाम
RADHE
-श्री मोहन सोनी,
(दानीगेट, उज्जन) जिनके तप से सुबह सुहानी, और सलोनी शाम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को, सबका नम्र प्रणाम ।।
संवत् उन्नीस सौ पैंसठ, वैशाख पूर्णिमा आई, जयपुर की धरती से रवि की. प्रखर किरन टकराई। श्री गुलाब की फुलवारी में महकी गंध सुहानी,
किसे पता था लिखी जायेगी, तप की नई कहानी । है कृतज्ञ हर जैन, आपने पाया मन निष्काम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को, सबका नम्र प्रणाम ।
श्री ज्ञानश्रीजी की शिष्या का दर्शन हितकारी, सब उपाधियाँ मिलीं आपसे, धन्य हो गईं सारी। आठ दशक के तपश्चर्य की आभा चमक रही है,
जितना किया लोकहित उसकी महिमा महक रही है। किये आपके दर्शन हमने मिला पुण्य परिणाम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को, सबका नम्र प्रणाम ।
सन् बयासी में प्रवर्तिनी पद ने शोभा पाई, त्याग तपस्या संयम देखा धन्य हुई पुरवाई। तीर्थ तीर्थ में जाकर मन से दूर भगाई माया,
वीर प्रभु के विमल स्वरों को जन जन तक पहुँचाया । जहाँ आपके चरण पड़े हैं धन्य हुआ वह ग्राम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को, सबका नम्र प्रणाम ।
तप का अभिनन्दन कर, हमने गौरव प्राप्त किया है, किसी पुण्य के फल से ही, अनुभव पर्याप्त किया है। मन के भावों को शब्दों में, लाये अर्पित करने,
युगों युगों तक मिलें आपके शुभाशीष के झरने । दरस आपका इन आँखों में बना रहे अविराम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को सबका नम्र प्रणाम ।
हमें शक्ति दें आप कि जीवन भक्तिभाव में बीते, हृदय सभी के, सत्य अहिंसा से न कभी हों रीते । जो भटके हैं उन्हें ज्ञान की ज्योति राह दिखलायें,
ध्यान हमारा दुराचरण में कभी अटक ना पाये । जिधर आपकी दृष्टि जाय, हो जाये तीरथ धाम, प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री को सबका नम्र प्रणाम ।
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सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे
-मुनिश्री ललितप्रभसागरजी यस्याः स्वभावमतुलं सरलं गम्भीरं, निधू तकल्मषमनिन्द्यमचिन्त्यरूपम् । सर्वेऽपि साधुपुरुषाः सततं वदन्ति, तां सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे ॥१॥ या स्त्यते सकलशास्त्र-विचार बोधात्, साध्वीजनैः श्रमण-श्रावक सर्वसंधैः । सम्मानिता समभवच्च गुणैरुदारैः, तां सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे ॥२॥ यस्या मुखाब्जममलं परिदर्शनीयं, कान्तं नितान्तमनिशं सुविकासमेति । या ज्योतिरागमनिधेः नितरां विभाति, तां सज्जनश्रियमहं बहुशोभिनन्दे ॥३॥ या वीतरागरुचिरास्तसमस्तदोषा, नारीजगत्सु महनीयतमा विभाति । या विद्यया च वयसा च समुन्नतास्ति, तां सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे ॥४॥ शुभ्राददातरुचिरेण गुणेन यस्याः, लोकत्रयेऽपि गरिमा परिवर्धतेऽद्य । श्री वर्द्ध मानकथितस्य मतस्य नूनः, तां सज्जनश्रियमहं बहुशोऽभिनन्दे ॥५॥ जयतु जयतु नित्यं, ज्ञान विज्ञान सारा, शुभगुणगणभारा, धर्मकर्माक्षितारा।
ललितवरविचारा, सर्वशास्त्राधिकारा, विगतबहुविकारा, सज्जनश्रीरुदारा ॥६॥ पद्य पुष्पम्
-40 ब्रह्मदत्त शर्मा फनोदी सुरम्ये धन्वे वै सिधुपुरीनवासैरपचिता,
सुमन्ये मान्येयं जिनवरकथावाचकवरा, सुगण्या धर्मज्ञे नयपथसुगन्त्रीबुधबुधा,
___ सतां सल्लोकश्री जयजयनिनादैविजयते ॥१॥ जिनेजन्यं ज्ञानं वितरति च नित्यं सुकृतिने,
___ कवैवर्यै वर्या मधुमधुवचोभिःप्रियकरा, जिनेमग्ना साध्वी गुरुजन मुखर्मानितपदा,
सतां सल्लोकश्री जयजय निनादैविजयते ॥२॥ सुशिष्या मर्मज्ञा निगमनिपुणा सत्कविवरा, ___दृढ़ा वीरे भक्तिः करुणहृदया दीनसुखदा, शुभे जैने शास्त्र तव गुणगणज्ञाः बहुजनाः
सतां सल्लोकश्री जयजय निनादैविजयते ॥३॥ वरेण्या शास्त्रज्ञे जिनगुणगणज्ञा शुभमनाः,
सुशीला दैवज्ञा प्रथितलटियाले सिधुपुरे । चिरायुर्जीव्यात्सा शुभशुभ गिरा दत्त वचनम्,
सतां सल्लोकश्री जयजय निनादैविजयते ॥४॥
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गुरुपरम्परा प्रशस्तिः
-श्री भंवरलाल नाहटा, (कलकत्ता) श्री जिनदत्त गुरु नत्वा सूरेश्च कुशल प्रभोः। श्री हेमेन्द्रगणाधीश-तत्पट्टोदयसागरः । सुविहितस्य मार्गस्थ लिख्यतेऽयं प्रशस्तिकाः ॥१॥ द्वितीयोऽनुयोगाचार्य - कान्त्यब्धिसुप्रभावकः ।। ८ ।। गच्छे खरतरे स्वच्छे क्षमाकल्याणपाठको। संघयात्रा सुसंस्थान-सूपधानाधनेकशः। शुद्ध साधु क्रियाधारी विद्वज्जैनशिरोमणिः ॥ २॥ प्रतिष्ठा जिनबिम्बादि कारितानि महोत्सवैः ।। ६ ।। श्रमणार्या सुसंघोऽभूत् परम्परा सुविस्तृता। समायोजिते संघेन जयपुरे हि सदुत्सवै । तपस्वी क्रियापात्राश्च गणाधीश परम्परा ॥ ३॥ आषाढ़ षष्ठी दिवसे सूरिपदो द्वौ सद्गुरौ ।।१०।। सूरिपदप्राप्तो . येनऽजीमगंजपुरेवरे। स्वनामधन्य प्रतापीश्च सन्मुनि मोहनलालजित् । श्री हरिसागराचार्यः जैनधर्मप्रभावकः ॥ ४॥ जिनयशः सूरिपट्ट जिद्धिरत्नसूरयः ।।११।। पट्टोद्धारकस्सद्वक्ता सूरयानन्दसागरः। लब्धि-केशर-बुद्धिञ्च पाठकपन्यासो गणी। वीरपुत्राभिधानेन ख्यातिमाप्तः सुभारते ॥ ५॥ जयानन्द क्रियापात्र प्रवचने वाचस्पतिः ॥१२॥ सुमति सिन्धूपाध्याय पट्टे श्री मणिसागरः। अत्याग्रहेनुपाध्याय संघेनालंकृता पदे । सूरि पदं प्राप्तं येन शास्त्रवादि शिरोमणिः ॥ ६॥ चिरं नन्दन्तु वर्द्धन्तु श्रमणसंघो च भूतले ॥१३॥ सत्काव्य कला प्रतिभा-धारी कवीन्द्रसूरयः। आगमज्ञा सद्विदुषी आश्रिी सज्जनाभिधा । रचितानि यैश्च सत्पूजा स्तवकाव्यान्यनेकशः ।। ७॥ प्रवर्तिनी पदारूढ़ा कवयित्री सल्लेखिका ॥१४।।
भक्त्या भँवरलालेन विरचिता प्रशस्तिका।
_शासनोन्नतिं कुर्वन्तु दीर्घायुषि गुरुत्तमा ॥१५॥ अभिनन्दन स्वीकारो
-सुदीप एवं गौरव लूनिया अभिनन्दन है बुआ दादीजी का, जिनका सज्जनश्री है नाम । सुदीप-गौरव पौत्र आपके, कोटि-कोटि करते प्रणाम ।।
धर्म-ज्ञान संयम-नियम का, पाठ आपने हमें पढ़ाया।
बातों ही बातों में चौबीस तीर्थंकरों का नाम सिखाया । कितना अच्छा लगता है जब, लोग बताते हैं हमको। आप ज्ञान की अतुल राशि हैं, ज्ञान बाँटती है सबको ।
आप विदुषी हैं-प्रवर्तिनी मां ऐसा कहती है।
लेकिन हमको आप भुवाश्री, केवल “ममतामयी" लगती है ।। कोटि-कोटि वन्दन चरणों में, करते हैं शतबार नमन । धन्य हुए हम आज मनाकर, जन्म दिवस पर अभिनन्दन ।।
( ४४ )
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शत शत प्रणतियाँ
-साध्वी श्री शशिप्रभाश्रीजी
श्रद्धा भरी शत-शत प्रणतियाँ, पदकंजों में है हमारी । श्रमणीगण में अग्रणी हैं, अप्रतिम प्रतिभा के धारी ॥ धन्य राजस्थान की अवनी, धन्य-धन्य है आपकी जननी ।
धन वैशाख पूर्णिमा रजनी, जन्म हुआ था आनन्दकारी ॥ किया धन्य तारुण्य ले दीक्षा, सम्यगदर्शन ज्ञान सुशिक्षा। हम भी मांगे ज्ञान की भिक्षा, दे दो हमको हे दातारी ॥ हिन्दी गुर्जर प्राकृत भारती, राजस्थानी संस्कृत विचारती ।
क्षण-क्षण तत्त्वस्वरूप विचारती, संशय सबके दूर निवारी ॥ विनय विवेक साकार बने हैं, जिनके वचन भी स्नेहसने हैं। सन्तसती देखे ही घने हैं, तव रीति है सबसे न्यारी ॥ जब देखो वाचन में निरत हैं, अथवा अध्यापन में रत हैं।
विकथा से तो सदा विरत हैं, कहते हैं यों सब नरनारी"" ॥ काव्यकलामय कृतियाँ ऐसी, सुनते लगती अमृत जैसी। होती जग में विरली वैसी, पण्डितजन कहते सुविचारी"" ॥
आगम ज्योति कहते गुरुजन, करती गद्यपद्य का सर्जन । अमर रहें यशोनाम से सज्जन, जब तक "शशि" सूरज संचारी ॥
अभिनन्दन स्वीकारो
साध्वी प्रियदर्शनाश्री अभिनन्दन स्वीकारो भगवती तुम दर्शन अति सुखकारो ॥ (टेर)॥ भाव सुमन श्रद्धाञ्जलि भरकर, अर्पण करने आई दर पर; कर कृपा अवधारो ॥१॥ क्रोध कषाय मान मद त्यागी, आत्मज्ञान की बन अनुरागी, सम्यग्दर्शन धारो ॥२॥ आगमज्ञान की अद्भुत ज्ञाता, ग्रन्थ अनेकों की निर्माता, बहुमुखी प्रतिमा धारो ॥३॥ उदार हृदया सरल सुप्रज्ञा, विध-विध भाषा की सुविज्ञा, चमको ज्यूं ध्रुव तारो॥४॥ ज्ञान ज्योति मन मंदिर भर दो, आत्मभूमि अति निर्मल करदो; मिथ्या तिमिर निवारो ॥५॥ जनकल्याणी! विश्वविख्याना, करुणामयी ! श्र तज्ञान प्रदाता; गुणगरिमा भण्डारो ॥६॥ "प्रियदर्शना" अभिनन्दन करती, कोटि-कोटि अभिवंदन करती; प्राण जीवन आधारो ॥७॥
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Motherhofe
अज्जा सज्जासिरी अहिणंदणं
- डा. उदयचन्द जैन (उदयपुर)
कुल - परिचया
णच्चा
देवं,
उसह पणमामि सव्वतित्थं,
अहं तेसि णमो सया, संसार - जलहि तारण-समिद्धो । झाण- णाण-तवो रत्ता, सिरि- महावीर - जिगेसरं ||२||
लोगालोग-पगासग- जुत्तं । कम्म-कलंक विणासअहेउं ||१||
ते वे सब्वे मुणिवरा सयलं वंदणीया णिच्चं । जिणचरणं रत्ता मुत्ति-पह गमणसीला य जे || ३ ||
जस्स परम-पसादेण, बुद्धि - णिच्चं पवड्ढए सूरो विव । गोतम - गणहाइरिया उवज्झाय- साहु - अज्ज अज्जिया चंदणसम - सुरहीओ चंदणा-गुण-गुणाणं कया सया । वंदे सज्जण-अज्जं भव्व- राजीव- दिवायरो व्व ॥ ५॥
||४||
सावग-सग्गण्ण- वाह-वय-धारी-संगीतण्ण कवी वि । पिउ - सिरि- गुलाबचंदो, लूणियाकुल- साहग-वरिट्ठो ॥ ६ ॥ सु-सावगा धम्मवई, महताब देवी माउसिरी । सा वि धम्मशीला, तत्तवेत्ता बारह-वय-धारिणी ॥७॥ मायाए वच्छल्लं, पिउ-पीई-भाऊ-सणेह-जुत्त ं ।
हिरामा सातु, सज्जणसिरी सज्जणाणं पिया वि ॥ ८ ॥ गुणसीला अईधीरा, तत्तजिण्णासु धम्मवई वि । ववहार-णाण जुत्ता, सक्कय- पाइय-भास - पवीणा ॥ ॥ अंगल - भासा - हिंदी, गुज्जर- रायट्ठाणी समाधेज्जा । सज्जण - सिरी - महासई सा ॥१०॥
णाणा भासा
भासी, बालत्तणे वि सया, पडिक्कमाइ अहिरुइ-कया । महुर-भासा- भासिणी, धम्म-रहारूढ वाहिणी सया ॥ ११ ॥ ता पाणिग्गणं, जयपुर-सुपसिद्ध गोलेच्छा-परिवारस्स । हमलदीवणस्स तु, कल्लाण-मलेणं सह जाया ||१२||
( ४६ )
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खण्ड २ श्रद्धार्चन : काव्याञ्जलि
पइवज्जा
विक्कम-संवय-णाव-णवसहस्स-एग-आषाढ-सुक्क बीए । सिंहलग्ग-णीसाए सा जिण-पइवज्जा धरिया ॥१३॥ स-सत्तीए भत्तीइ, गुरुमणिसायाराइरिय-महपहुं। विहद-दिक्खा-सिक्खं च हरिसायर-संमुहं धरिया ॥१४।। अज्झप्प-चिंतणीया, सा अज्जा सव्व-गारव-मंडिया । वीरस्स परमभावं णिय-हियय-सम्मत्तजुत्त-कया ॥१५॥ रअ-रअंति जत्थ पमत्ता हियएसु सुरीधरा। होति जस्स लोय-दूलया सुमणेसु मुणीवरा । कित्ति सि परा जग-जणाण सया विहु सय-समया, पव्वजइ जत्थ समुत्थरइ एस इह सज्जणसिरी ।।१६।। चललं छोहत्तणणं पाविअ - धम्म • मग्गं, विसमत्थमोहसायरे कुणेइ के ण भग्गं । एअं तुह हिययरअ-गुणं सुन्दरि-सत्थसारं, सोहा विणिज्जिअ-देहणं पावइ अप्पसारं ।।१७।। ण मुणिज्जइ गिह-सुहाणि मलिइआ ण गणिज्जइभग्गओ, परिजण सुणियरो ण य जाणिज्जइ गंध-मालई वि हु विलग्गओ। आयारियंबर-दिणमणि तुह हिदयोदहि-सदेव-धावंतिहि, रयणत्तय-धम्म-सारणि-विहि-णारीहि हरिसिज्जति हि ॥१८॥ णक्खत्त सु चंदो, रम्म-णिम्मल-दीह-दाह-हरणं जह।। तह सा अज्जा णिच्चं, अज्जागणेसु मणोरमा जाया ॥१९॥ दिक्खा-सिक्खा-भावं, सुरम्म-साहण-रूव-धम्मं धरइ । ण तु पडि-खलण-कारण, ण तु जणाववाययेऊहिं ॥२०॥ णाणा-भासं महुर-भसगं सणण्णाय-कव्वं, कोसागमं सरस-एसगं धारिउं धम्म-सुत्त । णाणा-सत्थं णव-णव-सु-कव्वं सुगुच्छं सुगंधं, सारा-सारं णिय-सुहिययं देइ सु-पहि-अज्जा ॥२१॥ वरं रम्मं झाणं सयल-गुणवंति-बुहगणे, वरं सिक्खा-भत्ति हिय-गहणसज्झे णिवसिआ। वरं कम्माणं खय-करणत्थं वि रआ, सु-संजायं पुण्णं खणणहेउ-पेम्मं पगलिया ॥२२॥ कम्मं कलंक-दलणं रयणं धरेई, संणाण - सण - चरित्त - तवोधणेणं । झाणं पवडढण - स - भाव - ममत्ति - मुरु, सा सज्जणासिरि - सु - सिद्ध - पहम्मि - रमेई ॥२३॥
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४८
खण्ड २ : श्रद्धार्चन : काव्याञ्जलि
गारव-गाहा
णाण-झाण-परायणा, सत्थण्णा संतिभूइ-धम्मसालिणी । गुरुणी सिरि-णाणसिरी, उवजोगसिरी णाणासत्थ-पवीणा ॥२४॥ ण तु पुर-भासा-णाई, लोगिग-भासा-पवीणा सा। जिणागम-तत्तवेया, पुण्ण-तलण्फासी अवि तु सा ॥२५॥ आगम-जोइ-उवाहिं आगम-सु-रस-सरिया कारणाहिं । अलंकरं पाविऊण, सलिल विवव गहीरा जाया ॥२६॥ जिण-सासण णहम्मि सा जोइ-सील-तारगमिव पगासिआ। चंदिम-कलंकजुत्ता, सा तु णिस्कलंकिया भूया ॥२७॥ परमविउसिं होऊण अज्जाए अग्गणी जाया अवि सा । कव्व-सरस धाराए सव्वाणं जणाणं अवि कया ।।२८।। पगई-संत-सहावा, णिरहिमाणो विणयी सेवासीला। हिय मिय-महुर-भासिणी, दत्त-चित्त-अज्झयणसीला वि ।।२६।। आहार-विहार-जुत्ता, णाणा भायेसु पद-गमणसं ला । सवत्थ जिण तत्ताणं, परूवणं सया अहि कया वि ॥३०॥ अण्णाणणासणळं, वत्थु . तत्त - विवोहणटुं वि । धम्म-देसणळं सा, णाण - दीव-पगासं - सया कया ॥३१।। साहणं साहणं चिठे, तत्थ सझं ठेव भवेउ जीवाण। साहणं भोतिगेय य, सज्झ-अज्झप्पगणं उच्चइ ।।३२।। अप्पा सासयं लोए, अप्पा खलु णाण सण-चरण-जुतो। अप्पा विसय-विहीणो, अप्पा सव्व-गण-गणाणं वइहवं तु ॥३३॥ कोहो वा माणो वा, माया वा लोहो-णेव साहगो। अप्पाणं बलं सेयं किं अण्णेण पयोजणं वि ॥३४॥ अप्पाणेव हं गुरू, अप्पाणमेव सुसरि इह लोए । इह भावणं भाविऊण य, गामाण गाम-विहर-सीला ॥३५।। पवासावाससमए, गुरु-गारवाइरिय-चरणपहे वि। णेव पजहिआ धम्म, वक्खाण - पीयूस-विसेसणं ॥३५।। णहं सच्छण्णचंदो पवड्ढए पुण्णिमा पेज्जतं तु ।
सा सज्जण-महासई जिण-सासण-पहावणाइ रआ ॥३६॥ णिज्झरणी पोऊस-धारा
गज्ज-पज्ज-साहणाइ संजमी-जीवण-सु-कया-रयणा वि । सुरम्मा गुण-गहीरा, सुहाकर-सम-अमिय-दत्ता वि ॥३७।।
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खण्ड २ | श्रद्धार्चन : काव्याञ्जलि
४६
पुण्ण-जीवण-जोइं वि, विलिहिऊणं स-णाम-धण्णा-कया। पुण्णं धम्म-धुरि अवि, समण-संघ-इहिवित्त-सुरक्खिया ॥३८।। समण-सव्वस्स-पोत्थी, साहु-जीवणस्स पह-पदरिसिगा वि। आयार-वियारहिं, परिपुण्णा पइट्ठा वि गया॥३६॥ तमोछण्णं लोए तु, समुवागए दिवायरे जायए। पगासगं-अइणिम्मतो, जणमणो-तम-रहिओ होई ।।४०॥ महावीरस्स चरिया, पाइय-णिबद्ध-कप्पसुत्तम्मि अत्थि । तस्स पाइयमुत्तस्स, रट्ठिय-भासा-हिंदी कया ।।४।। ण तु अईसरला-सु-गमा-सुरस-भावाणुजुत्तो अवि । जण-कल्लाण-णिमित्तं, एसा अइ-सेट्ठ-कज्ज कया। ४२॥ वारह-पव-वाक्खाइ दव्वाणुजोगमय-अज्झप्प-पबोहो । वजभासा समलंकिअ-पज्ज-कवित्त-सवइया-दव्व-संगहो ।।४३।। चेइय-वंदण-कुलकं, गुरुदेव-जिणदत्तसूरिणा विरइयं । वयारोव-विहि णामा, हिंदी-भासाए पगासिआ च ॥४४।। बालावबोहणटुं चउवीस-जिण-थवण रट्ठ-भासाए।। कुसुजलि - विणयंजलि-गोयंजलि-वीर-गुण - गुच्छआई ।.४५।।
तव्व-पुण्ण-चरिया
अज्झयणं ण तु केवलं, ण कव्व-धारा अवि वलिट्ठा । णाण-झाण-तव रत्ता, स-पर-कल्लाण-करणळं वि ।।४६।। तुह णिय-जीवण-झाणे, उवहाण-णव-पय-ओली धारिया। विंस - थाणय - तव-ओली - कल्याणय-तव-मण रंजिया ॥४७॥ पखवासा तव-कया वि, अप्प-धम्म-पवड्ढणं णिच्चं । पंचमि-सोलिया-तवो, दस-पच्चक्खाण-तवो सया किया ॥४८॥ जया विहार-अज्जाइ, तया समागया जणा पभूया य । पाउं धम्म - सुहाणं, सच्च - सील - संजम - हेऊहिं ॥४६॥ अहं उदयचंदो अवि, अहिणंदण-वंदणं करोमि कुणसि णिच्चं । धम्मस्स बोहणट्ठ, सद्धावंतो तत्त वियारो ॥५०॥ सत - सतवासं जीवउ, सा सज्जणसिरी महासई। अस्सि-वास पेरतं, का का जीवा ण धण्णा अस्थि ॥५१॥
खण्ड २/७
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वन्दन करें हम..... -आर्या प्रियदर्शनाश्रीजी
प्रकर्ष भाव से मम सिर ऊपर
वरदहस्त रख दो गुरुवर ति तिमिर हटाकर मम मानस का नी नीतियुक्त बने जीवन स्तर .......(१) श्री श्री चरणों का आश्रय पाकर सज् सद्ज्ञानामृत पान करूं ज जन्म जरा मरणादि रूप इस न नश्वर तन का त्याग करू .......(२) श्री श्री को प्राप्त करू तब मेरी ___ मद मोह मान अरु क्रोध की सेना
हारे, जीवन उज्ज्व ल हो .......(३) रा राज मिले अपने घर का
जव गुरु सज्जन में श्रद्धा जागे सा सागर सम गम्भीर है जीवन
हर क्षण निज का ध्यान धरें बड़े-बड़े पडित भी जिनकी गुण गरिमा का ।
गान करे का काम-क्रोध मद लोभ भगे तब ह हृत्तंत्री के तार बजे द दमन किया इन्द्रिय राज पर
यम नियम के साज सजे । सेवागुण अतिउत्तम तुझ में अमर अखंड आनन्ददायी भिन्न स्वरूप जड़ चेतन का है नहीं कभी सुख दुःखदायी न्याय काव्य कोष ज्योतिष की दर्शन की भी ज्ञाता तुम नम्र भाव से तव पद कंज में
वन्दन करें प्रियनेत्री हम। ........(७)
कोटि-कोटि अभिनन्दन! -प्रवर्तक श्री महेन्द्रमुनि 'कमल' अभिनंदन, कोटि-कोटि अभिनंदन त्याग का, वैराग्य का संयम का, शील का सत्य के कृत्य का अहिंसा के शांतिदायी नृत्य का । धर्म का, ध्यान का, साधना की गौरव गरिमा मण्डित पहिचान का। आप सज्जन हो और सरल हो सघन में विरल हो मूर्ति करुणा की, स्नेह धारा हो वरुणा की। मन से सौम्य हृदय से तरल हो अहिंसा संयम, तप और अनेकानेक सदगुणों से तरल हो। धवल परिधान में, अपने ही ध्यान में युग को दिशा बोध देने पंक में फंसी युग नाव खेने अवस्था व्यवस्था की चिंता से दूर बही जा रही हो, चली जा रही हो । आपसे महावीर का, आनंदातिरेक प्रदान करने वाली वाणी सुन-सुनकर भव्य, प्राणी गद्गद् हो रहा है, दुष्प्रवृतियाँ खो रहा है। संप्रदायवाद से दूर, समन्वय भाव से भरपूर महाश्रमणी सज्जन आदरपूर्वक अभिनंदन कोटि-कोटि अभिनंदन ।
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'गुणाष्टक'
-चन्द्रप्रभाश्रीजी
भव्यजन तारिके, विमल गति धारिके,
चन्द्रिके जैन गगनांगणस्य, शुद्ध श्रद्धान्विते, सुदृढ़ सकल्पिके प्रणति तव पाद युग्मे मदीयम् त्यक्त यौवनवये, जनक - पति वैभवे, जैन मार्गानुगामिनी सुधन्या, सरल संभाषिणी विनय नय वासिनी प्रणति तव पादपद्मे मदीयम् दुरितमतिवारिणी सर्वहित कांक्षिणी, तारिणी भव्य भवविशद नौका, कलुषिता नहि कदा वासित मुदा, प्रणति तवपादपद्म मदीयम् आगम श्रुतरता तत्व चिंतनपरा, सदा निष्ठित मति ज्ञान गंगे, खरतरगच्छ सु दिव्य मणिवत् सदा, प्रणति तव पादपद्मे मदीयम् सज्जननाम तव कर्मरिपु रोधनं, बोधनं शुद्ध भावानुभावम्, मातृवात्सल्यरस सतत संचारिणी, प्रणति तव पादपद्मे मदीयम् जन शासन समुन्नति, सदा कांक्षिणी, राजते शशिप्रिया जयसुदिव्या, तत्व सम्यग् शुभभाव दर्शनयुते, प्रणति तव पादपद्मे मदीयम् कामना सतत तव संगति मम इहि गमनवेलाअति दारुणाहि
विप्रलम्भो तव शल्य तुल्यं मम, प्रणति तव पादपद्मे मदीयम् विदुषीवर्यामति कुमति विद्राविणी, ज्ञान उपयोगमयि धर्मशीले । विचक्षण चरणरज, चन्द्र गुण संस्तुता प्रणति तव पादपद्मे मदीयम्
.........।।१।।
.........॥२॥
........।।३॥
.........।।४।।
........11211
........।।६।।
.........॥७॥
.........||5||
शत-शत वन्दन
- विजयकुमार जैन
शत-शत नमन कर रही मृत्तिका शत-शत नमन कर रहा समीर शत-शत नमन कर रहे आज घन शत-शत नमन उदधि कर गंभीर शत-शत नमन कर रही यह क्षिति करते हैं हम सब भी वन्दन जन्म दिवस पावन बेला पर शत-शत वन्दन शत अभिनन्दन ।
नारी के प्रति
- मनु
अपनों ने अवज्ञा
पीडा परायों ने
संस्कृति ने संकट
और विधि ने दी वेदना ।
( ५१ )
नारी तू निर्मल है कलियों सी कोमल है स्नेह प्यार ममता का निर्बाध निर्झर है ।
अम्बर से अन्तर में धरती का धीर लिये
कष्टों से क्रीडा कर पीर कोटि पिये जा |
जीवन की ज्वाला में तप-तप तपस्विनी अविरल आलोकित कर जगती में ज्योति जला ।
स्मृतियाँ जो संजो विस्मृत कर व्यथा को नियन्ता की निर्दय झंझा को 'झुठला दे I
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मणिरत्नों का व्यवसाय प्रधान
गुलाबी शह्र जयपुर सम्वत् १६६५ की वैशाख शुक्ला पूर्णिमा पूर्ण ज्योत्स्ना में थिरकता चन्द्र स्निग्ध चाँदनी में नहायी -सी धरती पुलकित उल्लसित वातावरण ऐसे में
श्रेष्ठीवर्य गुलाबचंदजी लूणिया के वंशोधान में
भार्या महताब देवी की कुक्षि डाल पर एक सुवासित कली खिली
महक - महक गया
धरती का हरित आँचल । पितृगृह की दुलार भरी प्यार भरी
मृदु मुदुल बयार के
मन्द सुगन्ध झोंकों में विकसित होकर दीवान नथमलजी जौहरी के सुपौत्र के साथ
परिणय सूत्र में बंधी | किन्तु मुक्त को बंधन कैसा ?
प्रकाश को अंधकार कैसा ?
हृदय रम न पाया उस भोग विलास भरे कृत्रिम वातावरण में
पुण्यश्लोका सज्जन श्रीजी
- श्रीमती राजकुमारी बेगानी
अतः
खुली श्वांसों के लिए संस्कारों के वातायन से
स्वार्थपरक जगत को झाँका ।
खुल पड़े स्मृति पटल स्मरण हो आया
नव किसलयों का हरे पल्लवों का
सूखे पीत पर्णों में बदलकर
झर जाना उपेक्षित चरणों से कुचलकर निष्ठुर हाथों से झाड़ बुहार कर फेंक दिया जाना ।
काँप उठी वैराग्य ज्योति
जल उठा ज्ञान दीप प्रकाशित हो गया कमल वन बदल गया जीवन दर्शन उठे कदम उस ओर जिस डगर पर चलकर चूक जाता है मृत्यु का छोर मिल जाता है चिंतन तत्व
शाश्वत अमरत्न |
शुद्ध संस्कार प्रेरित
इस भव्य आत्मा ने
पूज्य गुरुवर्या खरतरगच्छ प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी महाराज के
( ५२ )
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खण्ड २ | श्रद्धार्चन : काव्याञ्जलि
श्री चरणों में पहुँच कर धारण कर लिया आर्या का सुवेष नाम हुआ सज्जनश्री। प्रारम्भ हुआ नव्य जीवन सूत्रों का पारायण आगमों का मन्थन छंट गया कषाय निकल पड़ा अमृत। जिसे पान कर लुप्त हुयी विषमता बस छा गयी जीवन में समता ही समता । अब उदारमना साध्वीश्री पद यात्राएँ करती हुयी लगी लुटाने दोनों हाथों से स्व-स्वभाव भूली दिग्भ्रमित आत्माओं को ज्ञान पीयूष सत्यामृत । तप से स्वाध्याय से परिषहों को सहन कर शुभ्र बना आचरण सिंह लगन में दीक्षित सिंह-सा निर्भीक मन दहाड़ उठा, गरज उठा क्षुद्रता पर निकृष्टता पर प्रान्त-प्रान्त में छायी अज्ञान की जड़ता पर। हे शास्त्र मर्मज्ञा साध्वी शिरोमणि, प्रवर्तिनी तुम चलती रही, चलती रही
संयम के कठोर पथ पर सतत अनवरत लिखती रहीं स्वानुभव को समझाती रही जिनवाणी को गाती रही वीतरागियों की पावन गाथाओं को। और आज भी अस्सी वर्ष की इस आयु में भी कहाँ अन्त है उस शौर्य का ? व्याधियों से जूझती हुयी देह आत्मा के भेद को समझती हुयी जल रही हो. धर्म की मशाल-सी । हे पुण्यश्लोका तुम वेद की ऋचाओं-सी मंत्र के वीजाक्षरों-सी सूत्रों की चूलिकाओं-सी अहिंसा की प्रशान्त धुरी-सी संसारविरक्ता खरतरगच्छ की प्रदाता कल्पवृक्ष-सी। हे साधना सौम्या! हम अज्ञानी क्या करेंगे तुम्हारा अभिवन्दन जिस दुर्लभ संयम को स्वयं देव करें नमन मैं तो बस भावभीनी श्रद्धा से तुम्हारे युग्म चरणों में करती कोटि-कोटि वन्दन ।
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सूरज सरीखा व्यक्तित्व : श्रीसज्जन श्रीजी महाराज
सूरज
धरती पर उतर आया है और उसकी किरणें
बिखर गयीं हैं घरों के बन्द / खुले आँगन पर शुष्क और साफ है
किसी पहाड़ी चट्टान की तरह ।
सूरज
दरवाजे पर दस्तक देता है, खिड़की से झाँकता है
और सीढ़ियों से ऊपर चढ़ जाता है । ति/अर्द्ध मीलित आँखों को खोलता है
सोयों को जगाता हैं
हँसता है / हँसाता है
बच्चे हों या जवान या फिर बूढ़े सभी के साथ खेलता है आँख मिचौनी एकदम अनहोनी ।
सूरज कितना विचित्र है
साथ रहता है पर दूर है । मजबूर है ।
नाम
असत् का छोड़ा तुमने साथ, सत्संग को बढ़ाया हाथ । सत्-जन में गुंजाया, सज्जन नाम है तुमने पाया ॥ गुण सौरभ पाई पिता गुलाब से, तत्व-ज्ञान मिला माता महताब से । सुसंस्कारों का हुआ बीज वपन, साकार हुआ उनका सपन ॥ ज्ञान गुरु से पाई गुण गरिमा, उपयोगगुरु की बढ़ाई महिमा |
सत्य सेवा और स्वाध्याय से, धो डाली कलुषित कालिमा ॥
- प्रो० डॉ संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र,
साधक है, तपस्वी है पर, मान अभिमान से नितांत दूर है। मजबूर है ||
आओ जरा अपने को देखें
सूरज की किरणों को गौर से देखें
कूड़ा-करकट को झाड़ें-बुहारें पूज्य को पूजें गुणों का गान करें । समरस का आव्हान करें । आओ सूरज से
नित नए भोर की किरणें माँगें प्रमोद को छोड़ें
अज्ञता के घुप्प अँधेरे से
अपने मुख को मोड़ें बुराइयों को हम न दुहरायें
एक संकल्प लें
स्वयं जगें और दूसरों को जगाएँ ||
सज्जन नाम है तुमने पाया
- साध्वी सुरेखाश्री पुण्य समुदाय की तुम लड़ी, हाथ में पुस्तक रहे हर घड़ी । जिन प्रवचन का करतीं पान, जिन शासन की रखी शान ॥ कर-कमलों जब लेखनि होती, स्वाति बूँद से निकले मोती । विरुद दिया आशु कवयित्री, तत्वज्ञा हो तुम आगम ज्योति ॥ गुरु विचक्षण के पाट पर, हुई तुम प्रवर्तिनी नभ पर रहे चाँद रहो धरा पर तुम
पदासीन ।
ओ सूरज, आसीन ॥
( ५४ )
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तुमको मेरा प्रणाम
शत-शत अभिनन्दन
-० कविता डागा
-सुधाकर श्रीवास्तव 'सुधाकर',
(नवलगढ़ राज०)
चिन्तन, मनन, प्रेम की धारा, उज्ज्वल ज्योति, निर्मल, गंभीरा, नभ की ज्योतिर्मयी तारिका, तुम सफल कवयित्री, सफल लेखिका, करते हम तुझको शत् वन्दन, अभिनन्दन ! तेरा अभिनन्दन ॥
महताब कुंवर की कोख संवारी नाम "गुलाब" किया उजियारा, आत्म-विश्वासी, आत्म - संयमी, तेरी दृढ़ता का हम सब करते हैं वन्दन
अभिनन्दन ! है अभिनन्दन ॥ राजस्थान, बंगाल, गुजरात, में, फैलाया वीर प्रभु का सन्देश प्यारा, उतर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश में भी, बही अहिंसा की शुचि धारा, जैन धर्म फैलाने वाली, वन्दन है शत् शत् वन्दन, अभिनन्दन । है अभिनन्दन ।
शान्त स्वभावी, निर-अभिमानी, सेवाभावी, मधुर है वाणी, अध्यात्म की अप्रतिम प्रतिमा, मेरा सब कुछ है चरणों में अर्पण,
अभिनन्दन है अभिनन्दन ।। "पुण्य जीवन ज्योति" लिखकर, जैन-धर्म का किया प्रचार, तपस्या में रही विचक्षण, तेले, बेले का नहीं पारावार, जिन धर्म की प्रतिभा, सज्जन श्रीजी, "कविता" करती है वन्दन, अभिनन्दन है अभिनन्दन ।
स्वाध्यायशील “सज्जन श्रीजी" तुमको मेरा शत शत प्रणाम ।
उद्देश्य समुज्ज्वल निस्पृह ले, रह रहीं कर्म में नित्य व्यस्त, बस एक चिरन्तन-चिन्तन है,
हो ध्वस्त त्रस्त कटुता निरस्त । मुक्ति पथ जिधर, बढ़ गयीं उधर, खिंच गई रेख उर पर ललाम ।
पथ बाधा तृण के तुल्य तोड़, तड़िता सी तड़प लिए आयीं । साहस असीम भर कर उर में,
बढ़ चलीं दिशा दस कतरायीं। तुम स्वाभिमान की व्रती-वीर, निश्छल, निर्मल, निष्काम-काम ।
"श्रीकल्पसूत्र" "समुदाय-सूत्र", लिखकर प्रबोध अध्यात्म दिया। जिसका आस्वादन कर सबने,
निज-निज जीवन कृतकृत्य किया। व्यक्तित्व तुम्हारा निखर रहा, बनकर जग में आदित्य-धाम ।
स्वाध्यायशील "सज्जनश्रीजी", तुमको मेरा शत्-शत् प्रणाम ।
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अनुपम अद्वितीय -अनुपमा लूनिया
अनुपम, अद्वितीय ॥ आगमज्ञा, विदुषीवर्या, आर्यारत्न प्रवर्तिनीश्रीजी, अनेकानेक उपाधि मण्डिता किन्तु, कितनी सहज-सरल ममतामयी मेरी “दादी-सा"। संयम ही जीवन जिनका ज्ञान ही जिनका पोषण, तप और साधना की भूमि पर किया
जिन्होंने आत्म सुरभित पौध-रोपण चालीस वर्षों से सिंत्रित, सेवित यह पौध आज कल्पवृक्ष बन गया है,
......"॥२॥
: मुक्तक -साध्वी श्री मधुस्मिताश्रीजी
(सुशिष्या शासनज्योति मनोहरश्रीजी) साहस नहीं चन्द्र पकड़ने का, फिर भी मन वाचाल हुआ, कलम हाथ में लेकर मैंने, गुरु चरणों मे नमन किया।
......"॥१॥ पिता गुलाब चंद लूणिया ने गुलाब पुष्प को जन्म दिया महक फैलाकर पूरे विश्व में जन-जन का उद्धार किया। यह जीवन क्षण भंगुर है इतना ही बस तुमने जाना गरु चरणों में किया समर्पण ज्ञान, उपयोग आत्मा को साधा """"॥३॥ यहाँ न कोई अपना मेरा इतना दृढकर तुमने माना महावीर प्रभु शाश्वत हैं अपने कुशल गुरु को मन में धारा रहूँ असंग चाह नहीं कुछ पाया सुख उसमें ही पाया पर के दुःख को अपना करके निज सुख को क्षण में त्यागा आगम वेत्ता आशु कवयित्री वक्तृत्व कला की आप हो धनी श्रमण सर्वस्व प्रकाशन करके संयम पथ की हुई प्रवर्तिनी
॥६॥ मैं मन्दज्ञानी अल्पज्ञ बालिका क्या जानू गुरु गरिमा को सागर सम गंभीर गुणों की अनन्त ज्ञान निधि महिमा को
कि
......"||४॥
....."||५॥
स्नेह, वात्सल्य, समता के सुधौपम फलों से लदा-फंदा अम्बर से धरती तक झुक गया है । इस शीतल छाया तले मैं, तुम, हम सब श्रांत-वलांत संसारी पाते हैं नयी चेतना, स्फूर्त
प्रेरणा, उत्तिष्ठ होने की-जाग्रत होने की, अग्रसर होने की उस पथ की ओर जिधर जाने से मुक्ति का “गुलाब" मिल सके, यह जीवन सार्थक होकर जीवन कहलाने योग्य
॥७॥
बन
सके।
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खण्ड २ : श्रद्धाचन : काव्यञ्जलि
कोट-कोटि वन्दना
-पदमा नूनिया आँखें हैं अनुभवी आपकी
कि बचा कर रखें स्वयं को दर्शाती है जो
भौतिकता के इस समस्त जीवों के प्रति
विकट मोहपाश से स्नेह एवं करुणा का छलकता सागर परिपूर्ण है ये जीवन रस के
और कहती है कि जीवन को करें हर पहलू के संकलन से ।
सादगी से अलंकृत जो जानती हैं
मन करता है मेरा भी प्रतिपल जीवन की वास्तविकता को
सदा रहूँ निकट आपके। और सदैव देती हैं प्रेरणा
तीक्ष्ण बुद्धि व मस्तिष्क आपका सतत् सत्य के मार्ग पर चलने की
भंडार है असीमित ज्ञान का
झरते हैं ज्ञान के पुष्प इच्छा होती है हरपल मेरी
निरन्तर जिससे ! इन्हें नमन करने की।
यदि समेट सकें वाणी की परिपक्वता व मधुरता
एक दो पुष्प भी इनमें से तो देती है यह प्रबल संदेश
अवश्य सफल हो जाये कि क्षण भर भी प्रमाद न करें
यह दुर्लभ मानव जीवन !
ईश्वर से है साथ ही देती है संकेत
एकमात्र कामना मेरी कि जीवन के प्रत्येक क्षण में
करे ऐसी तीक्ष्ण बुद्धि तत्पर रहें कुछ कर जाने को
मुझे भी प्रदान! न खो दें भूल से भी
व्यक्तित्व आपका है मिसाल उस अमूल्य क्षण को
साहस व त्यागमय
जीवन का जो शायद जीवन का मार्ग ही बदल दे
एक उगता सूरज है यह मन करता है हरदम मेरा
अलौकिक आलोक है इन्हें सुनते रहने का।
जिसके चारों ओर। संगति आपकी करती है
जिसे शत-शत आध्यात्मिकता से ओत प्रोत
नमन करने को आज के भटकते युवक वर्ग के
मन करता विचलित हो रहे मानस को
सम्पर्क में आने वाले करती है आगाह
हर इन्सान का २/२
खण्ड
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१८
खण्ड २ : श्रद्धार्चन : काव्यञ्जलि आस्था के मोती
संतों की वाणी पर गजल सुश्री प्रतिभा लूणिया, शेरगढ़ 0 उमा श्रीवास्तव 'उमाश्री' आर्य भूमि में तुमने अवतार लिया
संतों की वाणी पर गर देश चला होता, आर्य संस्कृति से आत्मा का संस्कार किया
बेकसूर न मरते, सबका ही भला होता, आर्य अणगार बन हृदय में तुमने
आतंकवाद और उग्रवाद से असुर नहीं होते, आर्य विचारों का साकार किया ॥१॥ उपदेशों का अमृत गर एक बार चखा होता, जिन शासन की हो तुम शान
खंडित न हो पाती विवेक और बुद्धि, स्वीकार की तुमने महावीर की आन
उपदेशों का चन्दन गर शीश मला होता, संसार में जब तक चांद सूरज हैं
नफरत की नागफनी नहीं उठाती सिर, तब तक हम गायेंगे तेरे गुणगान ॥२॥ नेह के तुलसी चौरे पर गर दीप जला होता, अध्ययन ही जिनके जीवन का प्रथम अंग हैं
मणि से ज्यादा मूल्यवान है संतों के आशीष, सेवा ही जिनके जीवन का दूसरा उपांग हैं
उनके पद चिह्नों पर गर पथिक चला होता। सरलता ही जिनके जीवन में पद-पद पर मिलती है ऐसी अद्भुत गुरुवर्या के पद्धों में मेरी प्रणति है ॥३॥ 'आगमज्ञा' सज्जनश्री अध्ययन ही जिनके जीवन की सहजात वृत्ति है
- प्यारा मूथा, अमरावती अन्य को पढ़ाना ही जिनकी प्रवृत्ति है लेखन काव्य रचना में रत रहती हुई
चर अचर जग में तेरा 'रत्नत्रयी' राज रहे, जिनका मुख्य लक्ष्य संसार निवृत्ति है ॥४॥ छ: दर्शन के मुकाबिल में तू सरताज रहे।
0 'वीर' से देव जहाँ 'हरि' से गुरुराज रहे, पूज्या गुरुवर्या सबसे आली है उस 'प्रवर्तिनी सज्जन' के ही सरताज रहे। . प्रकाशचन्द निर्मलकुमार बांठिया 'ज्योति आगम' की जली, गैर दिये सब मंद हुए,
इक यही रोशनी संसार में जाबांज रहे । पूज्या गुरुवर्या सबसे आली है.........
बज रहा डंका जिनांगन में तुम्हारे बाइस, वो शांत सरल चित्त वाली है।
दस दिशाओं में सदा गजती आवाज रहे । सूरत मोहनगारी है सबका मन हरने वाली है। मीठी मधुरी वाणी है मानो अमृत की प्याली है।।
ज्ञान की आग में तप-तप के बनी तुम कुन्दन, ४५ आगमज्ञान वाली है, प्रवर्तिनी पद की धारी है। पर लगें यश को, बुलंद और भी परवाज रहे। जीवन में जिनके रत्नत्रय की आराधना निराली है। 'ईश' दे उम्र तुम्हें और सलामत रक्खे, जैनशासन की मजबूत डाली है, ..
चहुँ ओर हरियाली है।
। सुज्ञ संसार को संयम पे तेरे. नाज रहे। ज्ञान मंडल में खुशियाली है, मानो आई दीवाली है। पूज्य ! स्वीकारो मेरा भाव भरा दिल का प्यार,
___ 'प्यार' जो कल भी रहा, कल भी रहे, आज रहे ।
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हे ! सज्जन श्रीजी महाराज
पराक्रमसिंह चौधरी कोठियाँ (भीलवाड़ा)
जन जन के मन में ज्ञान ज्योति का तुमने दीप जलाया । सत्य अहिंसा दया धर्म का निश दिन तुमने नीर पिलाया ।
मेरे मन में जो भी हैं वे सारे विकार आप हरो । हे सज्जन श्रीजी महाराज मुझ पर यह उपकार करो । नगर गुलाबी जयपुर में तुमने जन्म लिया था, गलाबचन्द मेहताब देवी का जीवन धन्य किया था,
गोलेछा कल्याणमलजी पति बन कर के आये, पर मोक्ष मार्ग के बढ़ते पाँव रोक नहीं पाये, मन बोला सुख पाना है तो दीक्षा ग्रहण करो । हे ! सज्जनश्रीजी महाराज मुझ पर यह उपकार करो ।
आप विदुषी आगम ज्योति बनकर जग में आई, जिन शासन में प्रवर्तिनी की पावन पदवी पाई सेवाभावी निरभिमानी तुम स्वल्प मधुर भाषी हो, शान्त प्रकृति, स्वाध्यायी सदा मोक्ष अभिलाषी हो,
पापी से नहीं सदा पाप, तुम कहती मत घृणा करो । सज्जन श्रीजी महाराज मुझ पर यह उपकार करो । प्राकृत दर्शन न्याय व्याकरण इनको तुमने जाना, काव्य कोष जैनागम को पढ़कर के पहचाना,
प्रतिभा से सम्पन्न आप थी बनी मधुर व्याख्यानी, 'पुण्य जीवन ज्योति' लिखकर कहलाई महा ज्ञानी, पथ भ्रमित हो रही मानवता इसमें ज्ञान भरो । हे ! सज्जन श्रीजी महाराज मुझ पर यह उपकार करो ।
तपोनिष्ठ सेवा भावी बनकर लोक सुधारा, महावीर की शिक्षा से तुमने परलोक संवारा, अभिनन्दन की बेला में मन मेरा नित नाचे, महावीर बन कर आगम ज्योति मेरे मन में राचे,
अपनी ज्ञान ज्योति को मेरे मन में आज भरो । हे ! सज्जनश्रीजी महाराज मुझ पर यह उपकार करो ।
( ५६
U
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भावधारा
-अजय कुमार गोलेछा, जयपुर प्रकृति नटी ने साज सजाकर अनुपम रूप दिखाया है।
श्री महावीर की अनुकम्पा से यह पावन दिन आया है। करते हैं तन मन से वन्दन, जननी ममतामयी आपका । ___ आराधन अपनी संस्कृति का, अभिनन्दन तव आत्मत्याग का। शोभित है दिन रवि से और निशा रजनीकर से
पंकज शोभित है तड़ाग से जग शोभित महाराज आप से । पूर्णमासी के पूर्णचन्द्र की चन्द्रकला सी उदित हुई
शत वन्दन है अभिनन्दन है ज्ञान ध्यान की रश्मि छवि। पंच महाव्रत धारिका जप-तप संयम है साधना
कोटि-कोटि वन्दन स्वीकारो अन्तर्मन की यही कामना। इन श्रद्धा विश्वास सूत्रों में बँधे हुए, हैं हम आपके सहचर
गोलेछा परिवार में बोये हैं आपने प्रकाश के बीज अमर ।
पुष्पान्जली
-केसरीसिह चौरडिया, कलकता स्वनाम धन्य विद्वान विदुषी गरुवर्या श्री सज्जनश्री जी वन्दन कर मैं धन्य हुआ वयोवृद्ध श्री महासती जी का अभिनन्दन करने को तेरा “खरतरगच्छ जैन" संघ का भाव जगा धन्य यहाँ के श्रावक श्राविकाएं जयपुर नगर का भाग्य जगा गुणगाथा मैं लिखू विनय से तुम हो आगम ज्योति जैन धर्म कुल अवतरण हुई, गुणवान प्रभावी "मोती" जाज्वल्यमान चारित्र आपका चन्दा जैसा शीतल शांत स्वभावी महाप्रभावी पथ प्रदर्शिका भूतल प्रवर्तिनी पद से शोभित है आज हमारी महोदया उनके मन में बसी हुई है प्राणी मात्र के लिये दया उनको नहिं लालच कुछ भी था अपनी ख्याति का फर्ज हमारा भी बनता है सेवा कुछ तो करने का गुणगान करें जितना तेरा हृदय नहीं भरता है दर्शन तेरा मिले नित्य दिल ऐसा करता रहता है मजबूरी है गुरुवर्या हम दूर आपसे बसे हुए फिर भी भवर-केसरी हृदय में, गुरुवर्या जी बसे हुए।
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खण्ड २ श्रद्धार्चन काव्याञ्जलियाँ
अभिनन्दन गीत
- साध्वी सम्यक्दर्शनाश्री जी
(प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म० की शिष्या) (तर्ज-छोड़ गये बालम)
वन्दन है बारम्बार, ओ गुरु तुझ चरणों में मेरा ॥ हरे ।। राजस्थान की पुण्य धरा, जयपुर में जन्म लिया। वैशाखी पूनम का दिन था, सबके मन को हर्ष किया ॥ १॥ माता-पिता परिवार सभी की, बनी प्राणों से प्यारी। लाड़-प्यार से बीता बचपन, पढ़-लिख बनी संस्कारी ।। २ ॥ सांसारिक सुख साधन सारे, छोड दिया जग खेला। अपनी आँखों से सब देखा, इस दुनिया का मेला ॥ ३ ॥ गुरु चरणों का आश्रय लेकर, किया ज्ञान विस्तारा। समता ममता की मूर्ति है, जीवन गंगा धारा ।। ४ ।। प्रवत्तिनी पद अर्पित करके, किया संघ अभिनन्दन । तुझ पावन चरणों में सम्यक्, का है शत-शत वंदन ॥ ५॥
अभिनन्दन करना स्वीकार
- साध्वी सम्यकदर्शनाश्री
हे जिन शासन शृंगार, तुझे हम वन्दन करते हैं । तेरी महिमा अपरम्पार, तुझे हम वन्दन करते हैं । टेर । संयम विभूति समता मूर्ति, विनय विवेक विशाल । श्रमणी श्रेष्ठा बनी है ज्येष्ठा, कोई न तेरी मिशाल ।। प्रखर व्याख्यातृ आशु कवयित्री, आगम मर्मज्ञा जान । स्वाध्यायरत रहती अप्रमत, देती सबको सम्यक् ज्ञान ।। नाम है सज्जन काम है सज्जन, सरल सहज व्यवहार । सौम्याकृति सम्यक् प्रकृति, अभिनन्दन करना स्वीकार ।।
( ६१ )
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खण्ड २ श्रद्धार्चन काव्याञ्जलियाँ
मुक्तक
। साध्वी सम्यक्दर्शनाश्री जी
नीला-नीला कितना सुन्दर लगता है आकाश । छाँव तले उनकी हर मन का मिट जाता संत्रास ॥ गुरुवर्या श्री सज्जनश्रीजी महाराज का भी ऐसाव्यक्तित्व अनूठा जनमानस को देता दिव्य प्रकाश ।।
चेहरा गुरुवर्या का प्रतिपल मुस्काता रहता है । मौन में भी उनके अमृत का झरना बहता है ।। परम पावनी गुरुवर्याश्री की है शीतल छायाभव भव मुझे मिले मेरा मन हरदम ये कहता है ।।
नाम अनुपम रूप अनुपम, अनुपम सारा जीवन । ज्ञान अनुपम ध्यान अनुपम जन्मभूमि का कण-कण ।। पूज्य गुरुवर्याश्री की मैं क्या गुण गरिमा गाऊँतुझसे ही यह बगिया सारी महक रही ज्यों चंदन ॥
दिव्य तेज बिखराता मणि-सा रहता चेहरा तेरा। प्रतिपल पान करू अमृत का मन यह कहता मेरा ।। तेरे चरणों में गुरुवर्या यही प्रार्थना मेरीकरुणामृत बरसाकर मेटो जन्म मरण का फेरा ।।
श्री शशि प्रिय चरणों में मैंने मन की शान्ति पाई। तुमको ही अर्पण करने मैं भाव सुमन भर लाई । युग-युग अमर रहें गुरुवर्या मन की यही पुकारसम्यक्दर्शना ने धर श्रद्धा ये प्रार्थना गाई ॥
( ६२ )
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खण्ड ३
इतिहास
उज्ज्वल पृष्ठ
जैन परम्परा के गरिमामय अतीत के प्रेरक और शिक्षाप्रद मुंह बोलते पृष्ठ
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३. इतिहास के उज्ज्व ल पृष्ठ इतिहास- सागर की तरह महान और विशाल है । वर्तमान एक छोटी सी लहर को भांति अत्यन्त क्षुद्र । तरल ! __ जीवन का सिर्फ एक क्षण, यह प्रथम क्षण वर्तमान है, जिसमें हम जी रहे है ।। वर्तमान दूसरे ही क्षण अतीत हो जाता है । अनागत सत्ता-हीन है । वर्तमान विद्यमान है, और अतीत इतिहास बनकर साक्षात् हमारी स्मृतियों में, धारणाओं में जीवन्त है, इसलिए वर्तमान से भी अधिक विराट, अधिक महान और अधिक अवलोकनीय है- इतिहास !
हजारों, लाखों अनुभूतियों का महाकोश है, अतीत घटनावलियों की अनन्त तरंगो का महासागर है इतिहास । इतिहास को आंख जिसके पास है, वह सक्षम द्रष्टा है । इतिहास का शिक्षक जिसके साथ है, जीवन की परीक्षा में हर चरण पर उत्तीर्ण होने की दृढ़ संभावना उसके साथ है । इतिहास कालचक्र की वह वर्तुलाकृति है, जिसमें समाये हैं-असंख्य अनुभव, अनन्त शिक्षासूत्र । हमारा इतिहास उजली-धुधली, विरल-सरल रेखाओं का एज है । भद्र-अभद्र घटनाओं का विराट ग्रंथ है । हमें एक तटस्थ दृष्टि से देखना है, उसके चित्रों को, स्थितप्रज्ञ होकर सुनना है, उसकी पदचाप को और फिर उसी आधार पर वर्तमान क्षण का मूल्यांकन करना है ।
प्रस्तुत खण्ड में हम पढ़ सकेगे-इतिहास की उन महत्वपूर्ण प्रेरक घटनावलियों को, परिवर्तनों को, जिन्होंने जैत्व को ज्योतिष्मान् बनाया है । मानवता को महिमा प्रदान की है और साधुता को हर सन्दर्भ में श्रृंगारित किया है । आदि युगपुरुष भगवान ऋषभदेव से चरम परम पुरुष भगवान महावीर तक की पुराण-पर्वतों के बीच बहती पुण्य सलिला का दर्शन-स्पर्शन करते हुए, इतिहास रूप साक्ष्य पुरुष की आंखों से देखा उत्तर कालीन इतिवृत्त खरतरगच्छ की उज्ज्वल गरिमा मंडित गाथाओं का अकन प्रस्तुत है, एक संपूर्णता | का स्पर्श लिये हुए....
-'सरस'
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-महोपाध्याय विनयसागरजी (जैनधर्म, दर्शन आदि के विश्रुत विद्वान; प्राकृत भारती अकादमी के निदेशक)
खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय
(जैन परम्परा के नन्दन वन में खरतर गच्छ रूप कल्पवृक्ष का उद्भव एवं विकास का प्रामाणिक इतिवृत्त)
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खरतरगच्छ का उद्भव श्रमण भगवान् महावीर के श्रमणों की विशुद्ध आचार परम्पराओं को पुनरुज्जीवित/सुरक्षित रखने हेतु ही खरतरगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। वस्तुतः जैन सिद्धान्तों के विधान के अनुसार जैन यतियों का मुख्य कर्तव्य केवल आत्म-कल्याण करना है और उसके आराधना-निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्म का सतत पालन करना है। जीवन-यापन के निमित्त जहाँ कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूखा और सो भी शास्त्रोक्त विधि के अनुकूल, भिक्षान्न का उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्ष जन अपने पास चला आवे उसको एकमात्र मोक्षमार्ग का उपदेश करना है। इसके सिवा यति को न गृहस्थजनों का किसी प्रकार का संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकार का किसी को उपदेश ही वक्तव्य है। किसी स्थान में बहुत समय तक नियतवासी न बनकर सदैव परिभ्रमण करते रहना और वसति में न रहकर गाँव के बाहर जीर्ण-शीर्ण देवकुलों के प्रांगणों में एकान्त निवासी होकर किसी तरह का सदैव तप करते रहना ही जैन यति का शास्त्रविहित एकमात्र जीवन-क्रम है।
किन्तु दीर्घकालीन बारम्बार दुष्काल आदि कई कारणों से कुछ मुनिगण शिथिलाचार/सुविधावाद की ओर क्रमशः वेग से बढ़ते गये। इसी के परिणामस्वरूप शिथिलाचार, स्वच्छन्दता के साथ फलता-फूलता चैत्यवास के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसका प्रारम्भिक काल छठी शताब्दी मान सकते हैं । कतिपय आचारनिष्ठ सुविहित साधुओं को छोड़कर इन शिथिलाचारियों/चैत्यवासियों का सर्वत्र बोलबाला हो गया। इनका जीवन शास्त्राचार के विपरीत पूर्णतः विकृत होता जा रहा था। इन लोगों के आचार की कड़ी आलोचना सम्भवतः सर्वप्रथम हमें आचार्य हरिभद्र सूरिकृत सम्बोध प्रकरण में मिलती है। वे अपनी अन्तर्व्यथा को प्रकट करते हुए कहते हैं कि “ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं। पूजा करने का आरम्भ करते हैं। देव द्रव्य का उपभोग करते हैं। जिन मन्दिर और शालाएँ बनवाते हैं ।
१. यति, श्रमण, निर्ग्रन्थ, मुनि, अनगार, भिक्ष क, साधु आदि शब्द पर्यायवाची ही हैं।
खण्ड ३/१
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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
रंग बिरंगे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं। बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं । आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह उपकरण रखते हैं। सचित्त, जल, फल, फूल आदि द्रव्य का उपभोग करते हैं। दिन में दो-तीन बार भोजन करते और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं। ये लोग मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं तथा भभूत देते हैं । ज्यौनारों में मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं । आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी आलोचन - प्रायश्चित्त आदि करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं। अपने होनाचारी मृत गुरुओं की दाहभूमि पर स्तूप बनवाते हैं । स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं । सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने व्यर्थ बकवाद में समय नष्ट करते हैं । चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं का क्रय-विक्रय करते हैं । उच्चाटन करते और वैद्यक, मन्त्र-यन्त्र, गंडा, ताबीज आदि में कुशल होते हैं । ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को रोकते हैं । शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिए आपस में लड़ पड़ते हैं । "
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चैत्यवास का यह चित्र आठवीं शताब्दी का है । इसके पश्चात् तो चैत्यवासियों का आचार उत्तरोत्तर शिथिल होता ही गया और कालान्तर में चैत्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये तथा वे जैनशासन के लिए अभिशाप रूप हो गये । ग्यारहवीं शताब्दी के चैत्यवासियों की हीन स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए मुनि जिनविजयजी' लिखते हैं-
'इनके समय से श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिन मन्दिरों में निवास करते थे । ये यतिजन जैन देव मन्दिर, जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादि में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात् चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे । इसके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे जो जैन-शास्त्रों में वर्णित निर्गन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे । वे एक तरह से मठपति थे ।
'शास्त्रकार शान्त्याचार्य, महाकवि सूराचार्य, मन्त्रवादी वीराचार्य आदि प्रभावशाली, प्रतिष्ठासम्पन्न विद्वदग्रणी चैत्यवासी यतिजन उस जैन समाज के धर्माध्यक्षत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे । जैन समाज के अतिरिक्त आम जनता में और राजदरबार में भी चैत्यवासी यतिजनों का बहुत बड़ा प्रभाव था । जैन धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त, ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगों के विषय में भी ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे । धर्माचार्य के खास कार्यों और व्यवसायों के सिवाय ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे । जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यावहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं यतिजनों के अधीन था और इनकी पाठशालाओं में जैनेतर गणमान्य सेठ साहूकारों एवं उच्चकोटि के राज दरबारी पुरुषों के बच्चे भी बड़ी उत्सुकतापूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे । इस प्रकार राजवर्ग और जनसमाज में इन चैत्यवासी यतिजनों की
१. कथाकोश प्रस्तावना, पृ० ३ ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातों में इनकी धाक जमी हुई थी। पर, इनका यह सब व्यवहार जैन-शास्त्रों की दृष्टि से यतिमार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था।'
चैत्यवास की इस दुर्दशा को देखकर चैत्यवासी यतिजनों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था, परन्तु उसका प्रतीकार करने का साहस विरले ही कर पाते थे। ऐसे साहसी और सच्चे यतियों/सुविहितों में श्री वर्धमानाचार्य का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने ८४ चैत्यस्थानों के अधिकार और वैभव को छोड़कर सच्चे साधु-जीवन को बिताने का संकल्प लिया था। वे चैत्यवासी जीवन को छोड़कर सुविहित अग्रणी उद्योतन सूरि के शिष्य बने और चैत्यवास का समूलोच्छेदन करने के लिए सक्रिय प्रयत्न किये । वे जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि आदि अठारह साधुओं के साथ चैत्यवासियों के गढ़ अनहिलपुर पाटण आये । अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ झेलकर भी वहाँ के राजपुरोहित के माध्यम से वहाँ के तत्कालीन महाराजा दुर्लभराज के सम्पर्क में आये। महाराज दुर्लभराज की अध्यक्षता में ही पंचासरा पार्श्वनाथ मन्दिर में शास्त्रार्थ का आयोजन हुआ। चैत्यवासी प्रमुख आचार्य सूराचार्य आदि के साथ शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ आचार्य वर्धमान की उपस्थिति में आचार्य जिनेश्वर ने किया और उन्होंने प्रतिपादित किया कि वर्तमान चैत्यवासी आचार्यों 'यतियों का आचार पूर्णतः शास्त्रविरुद्ध है । शास्त्र प्रमाणों के सम्मुख चैत्यवासी आचार्यगण निरुत्तर हो गये। आचार्य वर्धमान और जिनेश्वर आदि की चारित्रिक उत्कृष्टता, प्रखर तेजस्विता, स्पष्टवादिता आदि को देखकर महाराज दुर्लभराज प्रभावित हो गये और उन्होंने कहा कि 'आपका मार्ग वास्तव में खरतर है, पूर्णतः सच्चा है।' यह शास्त्रार्थ विक्रम संवत् १०६६ से १०७८ के मध्य हआ था । आचार्य वर्धमान की उपस्थिति में शास्त्रार्थ जिनेश्वरसूरि ने किया था, अतः तभी से इस सुविहित परम्परा में खरतर गच्छ का उद्भव हुआ।
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनेश्वर से उद्भूत आचार-विचार की इस परम्परा को, जहाँ । इस परम्परा के अनुयायी लोग 'सुविहित' नाम प्रदान कर रहे थे, वहाँ उसके लिये एक-दूसरे नामकरण का भी विधान हो रहा था । यह तो स्पष्ट ही है कि तत्कालीन चैत्यवासियों के विपरीत यह एक उग्र, प्रखर और कट्टर सुधारवादी परम्परा थी, जो न केवल चैत्यवासियों से पृथक् थी वरन् उन वसतिवासियों के मार्ग से भी पृथक् थी जो तत्कालीन चैत्यवासी शिथिलता को चुपचाप सहन करते चले आ रहे थे। इसलिए स्वाभाविक था कि यह परम्परा अपनी उग्रता और कट्टरता की विशेषता को लेकर जनता में प्रसिद्ध हो जाती, सम्भवतः इसी आधार पर जनता ने इनको ‘खरतर' कहना प्रारम्भ किया।
इतिहास में ऐसे ही उदाहरण अन्यत्र मिलते हैं । ईसाई समाज में 'प्यूरीटन' नाम की उत्पत्ति इसी प्रकार के उग्र सुधारवाद के वातावरण को लेकर हुई और अपने ही देश में 'उदासी सम्प्रदाय' के नामकरण का आधार भी ऐसा ही प्रतीत होता है । इस प्रकार के नामों का जन्म स्वभावतः उसी समय होता है, जब इन नामों की आधारभूत विशेषता सबसे अधिक आकर्षक, नवीन तथा विरोध-प्राप्त होती है। जिनेश्वराचार्य की विचारधारा के लिये इस प्रकार का युग स्पष्टतः उस समय से प्रारम्भ होता है जब वह चैत्यवासियों के दुर्भेद्य गढ़ "अणहिलपुरपत्तन" में अपने प्रभाव को दिखलाते हैं । खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार “खरतर' विरुद जिनेश्वराचार्य को तत्कालीन राजा दुर्लभराज द्वारा दिया गया था। इस बात को लेकर बहुत निराधार विवाद चला है, परन्तु इसमें विवाद के लिये कोई स्थान नहीं है । राजा ने यह विरुद दिया हो अथवा न दिया हो, आचार्य जिनेश्वर की विचारधारा की वह मूलभूत विशेषता जिसके कारण इस विरुद की कल्पना की जा सकती है, जनता के हृदय पर अवश्य ही अपना प्रभाव
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
जमा चुकी होगी और उसी के फलस्वरूप जनता ने उनका जो नामकरण किया, वह समाज के मस्तिष्क पर अमिट अक्षरों में लिख गया । व्यक्ति चाहे वह चक्रवर्ती राजा ही क्यों न हो समाज-सागर का एक क्षुद्र बुद्-बुद् है, जो अपना क्षणिक अस्तित्व दिखाकर चला जाता है । परन्तु, समाज एक प्रवहमान सरिता है जो अक्ष ण्ण रूप से अपनी युग-युग की सिद्धियों और स्मृतियों को समेटे चलता रहता है। इसलिए समाज के मानस-पटल पर आचार्य जिनेश्वर के सुधारवाद की खरतरता ने जो प्रभाव डाला उसकी स्थायी अभिव्यक्ति होना निश्चित था। चाहे कोई राजा उसको मानता या न मानता, चाहे कोई आचार्य या सम्प्रदाय उसको स्वीकार करता या नहीं करता । किसी विरुद के महत्व को बढ़ाने के लिए राजमान्य होने की आवश्यकता नहीं । वसतिमार्ग को मान्यता किसने दी थी? चैत्यवासी नाम को रखने वाला कौन था ? वर्तमान युग में हवाई जहाज को चीलगाड़ी कहने वाला और मोटर सायकिल को फटफटिया कहने वाला कौन था? इसका उत्तर यही है कि समाज या जनता । अतः इस प्रकार के नामकरणों के मूलकर्ता के विषय में विवाद करना भाषा-विज्ञान के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करना है।
जब यह कहा गया कि दुर्लभराज की राजसभा में "खरतरविरुद" की सृष्टि हुई, तो चाहे राजा ने अपने मुख से उस शब्द का उच्चारण किया हो या न किया हो, यह एक ऐसा सत्य कथन था जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि जिस विशेषता ने जिनेश्वर की विचारधारा को “खरतर विरुद" दिया उसका सर्वप्रथम सफल और सार्थक विस्फोट यहीं हुआ था।
कुछ लोगों ने शंका उठाई है कि दुर्लभराज की अध्यक्षता में आचार्य जिनेश्वर और सूराचार्य का उक्त शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं । इस प्रसंग में प्रभावकचरितकार का मौन रहना भी प्रमाण रूप में रखा जा सकता है, परन्तु प्रथम तो प्रभावकचरितकार से पूर्ववर्ती सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय के प्रबन्धों में तथा उनके भी पूर्ववर्ती आचार्य जिनवल्लभ के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरि प्रणीत गणधर सार्धशतक, गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र आदि काव्यों में इस घटना का स्पष्ट उल्लेख मिलता है और दूसरे प्रभावकचरितकार के लिए इस विषय में मौन धारण करने के लिए एक उपयुक्त कारण भी था।
प्रभावकचरित अनेक प्रभावक चरित्रों के साथ-साथ सूराचार्य के चरित्र का भी वर्णन करता है जो उक्त शास्त्रार्थ में जिनेश्वराचार्य के साथ पराजित हुए बताए जाते हैं, इसलिये यदि सूराचार्य के गौरव को घटाने वाली किसी घटना का इसमें उल्लेख किया जाता तो वह ठीक नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि प्रभावकचरितकार बहुत ही उदारमना होते हुए भी स्वयं एक चैत्यवासी आचार्य थे । अतः सामाजिक शिष्टाचार की दृष्टि से भी उनके द्वारा चैत्यवासी प्रधानाचार्य की पराजय का उल्लेख किया जाना ठीक न होता। साथ ही मुनि जिनविजयजी के शब्दों में "प्रभावकचरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशील अग्रणी थे। ये पंचासरा पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवादप्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवाद में अग्ररूप से भाग लेना असंभवनीय नहीं, परन्तु प्रासंगिक ही मालूम देता है। शास्त्राधार की दृष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था । अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित होकर जिनेश्वर का पक्ष राज सन्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ इस प्रसंग को उक्त रूप में न आलेखित कर अपना मौन भाव ही प्रकट किया हो । अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए।
कुछ लोग अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार इस वाद-विवाद के समय के विषय में भी निरर्थक वाद-विवाद को खड़ा करते हैं । यह चर्चा किस संवत् में हुई थी ? उसके सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं । इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्र ति, गीतार्थथ ति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्यकाल में । वस्तुतः समग्र लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौन धारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की, अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । अतः यह सहज सिद्ध है कि महाराज दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना
___ खरतरगच्छ की उत्पत्ति मूलतः वर्धमानसूरि की अध्यक्षता में हुई थी, अतः इस खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय आचार्य वर्धमानसूरि से ही प्रारम्भ किया जा रहा है।
(१) आचार्य वर्धमानसरि ___ अभोहर देश में जिनचन्द्र नाम के चैत्यवासी आचार्य निवास करते थे और वे चौरासी स्थानों के अधिपति थे। उन्हीं के शिष्य वर्धमान थे। जिनचन्द्राचार्य ने उनको आचार्य पद भी प्रदान कर दिया था। आचार्य वर्द्धमान शास्त्रविरुद्ध चैत्यवासियों के आचार से अत्यन्त खिन्न रहते थे और अन्त में गुरुआज्ञापूर्वक परम्परा को त्यागकर दिल्ली आए और शास्त्र-सम्मत संयमी जीवन पालन करने वाले उद्योतनाचार्य के शिष्य बने । उद्योतनाचार्य ने भी उन्हें योग्य समझकर आचार्य पद से विभूषित किया। इन्हीं के नेतृत्व में आचार्य जिनेश्वर ने अणहिल पत्तन में शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की । खरतरविरुद प्राप्त किया। आचार्य वर्द्धमान ने सूरिमन्त्र की भी विशिष्ट साधना की और यह मन्त्र उनके लिए संस्फुरित हो गया था। अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार आबू पर्वत पर महामन्त्री विमलकारित "विमलवसही" की प्रतिष्ठा भी इन्हीं आचार्य के करकमलों से हुई थी।
आचार्य वर्द्धमान भगवान महावीर की सौधर्मीय परम्परा में अड़तीसवें पाट पर कौटिकगण, चन्द्र कूल, वज्रशाखा एवं खरतरविरुदधारक थे।
इनका शिष्य समुदाय भी विशाल था और वे स्वयं शास्त्रों के प्रौढ़ विद्वान् थे। इनके द्वारा प्रणीत उपदेशपद टीका (रचना सम्वत् १०५५) उपदेशमाला बृहत्वृत्ति, उपमिति भवप्रपंच कथा समुच्चय एवं कुछ स्तोत्र आदि प्राप्त होते हैं।
इनका समय अनुमानतः ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से १०८० तक माना जा सकता है । इनका स्वर्गवास आबू पर्वत पर ही हुआ था। इनके द्वारा विक्रम संवत् १०४६ में प्रतिष्ठित कटिग्राम की प्रतिमा प्राप्त है।
१. कथाकोष प्रस्ता० पृ० ४१ २. अर्वाचीन विन्हीं पट्टावलियों में सं० १०८० का उल्लेख मिलता है तो किसी में १०२४ का, जो श्रवण परम्परा ___ का आधार रखता है। इस परम्परा में भी ६००, ८०० वर्ष के अन्तर में २-४ वर्ष का लेखन फरक रह जाय,
यह स्वाभाविक है । इसे चर्चा का रूप देना निरर्थक ही है ।
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खरतर गच्छ का सक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
(२) जिनेश्वरसूरि प्रभावकचरित के अनुसार ये मूलतः मध्य देश (वर्तमान में उत्तर प्रदेश का मध्य भाग) के निवासी थे । ये कृष्ण नामक ब्राह्मण के पुत्र थे, इनका नाम पहले श्रीधर था और इनके एक भाई था, जिसका नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े प्रतिभाशाली और मेधावी थे तथा वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, षट् दर्शनशास्त्र, स्मृतिशास्त्र आदि का इन दोनों ने विशेष अध्ययन किया था। विद्या पारंगत होकर ये दोनों भाई धारा नगरी आये और वहाँ के जैन धर्मावलम्बी उदारमना सेठ लक्ष्मीपति के यहाँ आश्रय लिया । एकदा आचार्य वर्द्धमान विहार करते हुए धारा नगरी आये। सेठ लक्ष्मीपति ने इन दोनों भाइयों का साक्षात्कार वर्द्धमानाचार्य से करवाया। दोनों भाई आचार्य के तेज और तप से अत्यन्त प्रभावित हुए और आचार्य के पास दोनों भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली । श्रीधर जिनेश्वर बने और श्रीपति बुद्धिसागर । इन दोनों का प्रौढ़ वैदुष्य देखकर आचार्य वर्द्धमान ने इन दोनों को आचार्य पद प्रदान किया, तभी से ये दोनों जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर सूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
अपने गुरु की मनोभिलाषा को पूर्ण करने हेतु अपने गुरु के साथ ही विचरण करते हुए अनहिलपुर पत्तन आये और अपने अगाध पाण्डित्य के कारण राजपुरोहित सोमेश्वर के यहाँ आश्रय लिया । चैत्यवासी आचार्यों को जब भनक पड़ी कि यहाँ सुविहित साधु आये हैं तो उन्होंने इनके निष्कासन के लिए षड्यंत्रपूर्वक अनेक प्रयत्न किए किन्तु वे सब निष्फल हुए । अन्त में महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में इनका सूराचार्य आदि विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ हुआ। चैत्यवासी आचार्य शास्त्र-प्रमाणों के समक्ष निरुत्तर हए। महाराजा दुर्लभराज ने इन्हें खरतरविरुद दिया और इनके निवास स्थान के लिए त्रिपुरुष प्रासाद नामक मुख्य शिव मन्दिर के पास ही कनहट्टी में स्थान दिया। प्रभावकचरित के अनुसार तभी से वसतिवास की परम्परा प्रारम्भ हुई।1
इनके शास्त्रार्थ के बाद चैत्यवासियों का गढ़ ध्वस्त हो गया और वे राज सम्मानित होकर सर्वत्र निःसंकोच होकर सुविहित मार्ग का प्रचार-प्रसार करने लगे।
इनकी बहन ने भी दीक्षा ग्रहण की थी, जिसका दीक्षा नाम कल्याणमति था । आचार्य वर्द्ध मानसूरि ने ही इन्हें श्रेष्ठ प्रवर्तिनी पद दिया था।
- आचार्य जिनेश्वर सूरि का शिष्य समुदाय भी अत्यन्त विशाल था, जिनमें से प्रमुख-प्रमुख थेजिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभ्रद, प्रसन्नचन्द्र, विमल, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि। इनमें से जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर जिनका दूसरा नाम जिनभद्र था तथा हरिभद्र को आचार्य पद एवं धर्मदेव, सुमति, विमल इन तीनों को उपाध्याय पद प्रदान किया था। धर्मदेव उपाध्याय और सहदेव गणि ये दोनों भाई थे। धर्मदेव उपाध्याय के शिष्य हरिसिंह जो भविष्य में आचार्य बने और सहदेव गणि ने पण्डित सोमचन्द्र को दीक्षित किया था, जो भविष्य में युगप्रधान जिनदत्त सूरि बने । सहदेवगणि के शिष्य अशोकचन्द्र थे, वे परवर्तीकाल में आचार्य बने । सुमतिगणि के शिष्य गुणचन्द्रगणि हुए, जो बाद में आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। आचार्य जिनेश्वर ने अपने पाट पर जिनचन्द्रसूरि को स्थापित किया ।
१. प्रभावकचरित के अभयदेवसूरि चरित के अन्तर्गत जिनेश्वरसूरि का चरित ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
आचार्य जिनेश्वर न केवल वाक्चातुर्य और शास्त्रचर्चा के ही आचार्य थे, अपितु लेखनी के भी प्रौढ़ आचार्य थे । आपने प्रमालक्ष स्वोपज्ञवृत्ति सहित, अष्टक प्रकरण टीका, [ रचना संवत् १०८० ] चैत्यवन्दनक [ रचना संवत् १०६६ ], निर्वाण लीलावति कथा [ रचना संवत् १०६२ ], कथा कोष प्रकरण स्वोपज्ञवृत्ति सहित [ रचना संवत् १९०८ ], पंचलिंगी प्रकरण, षट् स्थान प्रकरण आदि दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं कथा साहित्य की रचनाएँ की थीं।
आचार्य जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब और कहाँ हुआ, निश्चित नहीं है, किन्तु आपकी सम्वत् १९०८ में रचित कथाकोष स्वोपज्ञवृत्ति प्राप्त है, अतः इसके बाद ही आपका स्वर्गवास हुआ होगा ।
(३) जिनचन्द्रसूरि
आचार्य जिनेश्वर के पश्चात् उनके पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि हुए। आपके सम्बन्ध में कोई इति वृत्त प्राप्त नहीं है । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि आप बहुश्र तज्ञ गीतार्थं थे । आपने अपने लघु गुरुबन्धु गीतार्थ, विख्यात कीर्तियुक्त, अभयदेवसूरि की अभ्यर्थना से 'संवेगरंगशाला' नामक प्राकृत ग्रन्थ की १०,०५० श्लोक बृहत् परिमाण में संवत् १९२५ में रचना पूर्ग की । यह ग्रन्थ मूल, गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवादकों ने गच्छ - कदाग्रह से इनको तपागच्छ का आचार्य लिखा है, जो नितान्त भ्रामक है, क्योंकि इसकी रचना ११२५ में हुई और तपागच्छ की उत्पत्ति १२८४ में हुई संवेगरंगशाला के अतिरिक्त श्रावकविधि-दिनचर्या, धर्मोपदेश काव्य, क्षपकशिक्षा प्रकरण आदि छोटी-मोटी सात रचनाएँ प्राप्त हैं ।
इनका स्वर्गवास कब हुआ, इस सम्बन्ध में कोई संकेत प्राप्त नहीं है । (४) अभयदेवसूरि
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जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर गच्छनायक के रूप में हमें आचार्य अभयदेवसूरि के दर्शन होते हैं । आपके प्रारम्भिक जीवन वृत्त के सम्बन्ध में हमें केवल प्रभावकचरित में ही किंचित् उल्लेख प्राप्त होते हैं । इसके अनुसार आचार्य जिनेश्वरसूरि सम्वत् १०८० के पश्चात् जाबालिपुर [जालौर ] से विहार करते हुए मालवा प्रदेश [ मध्य भारत ] की तत्कालीन प्रसिद्ध राजधानी धारानगरी पधारे ।
इसी नगरी में श्रेष्ठि महीधर रहते थे । धनदेवी इनकी पत्नी का नाम था और अभयकुमार इनका पुत्र था । आचार्य जिनेश्वर के प्रवचनों से प्रबुद्ध होकर अभयकुमार ने दीक्षा ग्रहण की और दीक्षा नाम इनका हुआ - अभयदेव मुनि । आचार्य जिनेश्वर ने आपकी योग्यता और प्रतिभा देखकर आचार्य पद प्रदान किया और वे आचार्य अभयदेवसूरि के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए । इनका सर्वप्रथम टीका ग्रन्थ ११२० में रचित प्राप्त है । उसमें स्वयं के लिए सूरि शब्द का प्रयोग किया है, अतः यह निश्चित है कि १९२० से पूर्व ही ये आचार्य बन चुके थे ।
श्वेताम्बर जैन साहित्य में जो ग्यारह अंग माने जाते हैं, उनमें से केवल आचारांग सूत्र और सूत्रकृतांग सूत्र पर आचार्य शीलांक द्वारा रचित टीकाएँ प्राप्त थीं । शेष नव अंगों पर कोई विवेचन प्राप्त नहीं था । मूल पाठ भी लेखकों की अशुद्ध परम्परा के कारण अशुद्धतर होते जा रहे थे । वाचना-भेदों की बहुलता मूल आगमों को कूट आगम सिद्ध कर रहे थे, जो कुछ वाचन मनन की प्रणाली थी, वह कूट पाठों की बहुलता से नष्ट होती जा रही थी । ऐसी परिस्थिति देखकर अभयदेवसूरि ने अपनी समयज्ञता का परिचय दिया और अपनी बहुश्र तज्ञता का उपयोग समाज के लिए हो, अतः उन्होंने शेष नव अंगों
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागर जी पर विवेचन लिखना प्रारम्भ किया। इस निर्माण कार्य हेतु वे प्रायः कर ११२० के ११२८ तक अनहिलपुर पाटण में रहे । नव अंगों पर सम्यक् प्रकार से विवेचन लिखा । ११२४ में धोलका रहे और वहाँ पंचाशक पर टीका लिखी। इन टीकाओं का संशोधन सुविहित साधुओं से न कराकर उन्होंने तत्कालीन चैत्यवासियों में प्रमुख आचार्य द्रोणाचार्य से अनुरोध किया कि मेरी लिखी हुई टीकाओं का आप संशोधन कर दें। द्रोणाचार्य ने भी विशाल हृदय का परिचय दिया और प्रतिपक्षी का शिष्य न समझकर एक गीतार्थ का श्लाघ्य, प्रशस्य और सर्वोत्तम कार्य समझकर अभयदेवरचित समग्र टीकाओं का संशोधन कर उस पर प्रामाणिकता की मोहर लगा दी।
टीकाओं की रचना करते समय अहर्निश जागरण और अत्युग्रतप के कारण आचार्य का शरीरव्याधि से ग्रस्त हो गया । व्याधिग्रस्त अवस्था में प्रवास करते हुए खम्भात पधारे और सेढ़ी नदी के किनारे 'जयतिहअणवर' नामक नवीन स्तोत्र के द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की, उसी समय भगवान् पार्श्वनाथ को मूर्ति भूमि से स्वयमेव प्रकट हुई और वही मूर्ति खम्भात में नूतन मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठित की गई । तभी से यह स्थान स्तम्भनक पार्श्वनाथ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।
जिनपालोपाध्याय और सुमतिगणि इस घटना को नवांगी टीकाओं की रचना के पूर्व मानते हैं, जबकि प्रभावकचरितकार टीका रचना के बाद मानते हैं। कुछ भी हो, यह निश्चित है कि स्तम्भनक पार्श्वनाथ तीर्थ की स्थापना आचार्य अभयदेवसूरि के द्वारा हुई थी।
आचार्य अभयदेवसूरि की गणना आप्त टीकाकारों में की जाती है। ये परम गीतार्थ तो थे ही, अपितु प्रौढ़ व्याख्याता भी थे। इनके द्वारा निर्मित पंचाशक टीका, षट्स्थान भाष्य, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, पंच निर्ग्रन्थी प्रकरण, आराधना कुलक, आगम अष्टोत्तरी, नवपद प्रकरण भाष्य, सत्तरी भाष्य, वृहद् वन्दनक भाष्य, निगोद षट्त्रिंशिका, पुद्गल विंशिका एवं कई स्तोत्र प्राप्त हैं जो आपके अगाध वैदुष्य को प्रकट करते हैं।
___ आप केवल जैन आगमों के ही उद्भट विद्वान् नहीं थे अपितु तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्धमान सूरि, हरिभद्र सूरि और देवभद्र सूरि ने आप ही के पास विद्याध्ययन किया था।
आपके प्रमुख शिष्य थे~वमानसूरि, हरिश्चन्द्र सूरि और परमानन्द एवं उपसम्पदा प्राप्त जिनवल्लभ गणि। आचार्य अभयदेव का स्वर्गवास अनुमानतः ११३६ के बाद ही हुआ होगा।
(५) जिनवल्लभसूरि आचार्य अभयदेव सूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरि हुए। स्वप्रणीत ‘अष्टसप्ततिका' अपरनाम 'चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्रशस्ति' के अनुसार वे कूर्चपुर गच्छीय चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। ये मूलतः आशिका (हाँसी) के निवासी थे। बाल्यावस्था में ही इन्हें 'सर्पाकर्षणी और सर्पमोक्षणी दोनों विद्याएँ सिद्ध थीं। अपने गुरु के पास रहकर इन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। एक समय शास्त्रों का अध्ययन करते हुए इन्हें लगा कि हम लोगों का जीवन शास्त्रविहित नहीं है। शास्त्रविहित मार्ग पर चलने से ही कल्याण हो सकता है।
___ जिनेश्वराचार्य ने अपने शिष्य जिनवल्लभ को सैद्धान्तिक आगम ग्रन्थों का अध्ययन करवाने के लिए सुविहिताग्रणी आचार्य अभयदेव के पास भेजा। आचार्य अभयदेव ने भी जिनवल्लभ को योग्य
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ समझकर उदारमना होकर एक चैत्यवासी यति को सहर्ष आगमों की वाचना दी। समस्त आगमों की वाचना प्राप्त कर जिनवल्लभ कृत-कृत्य हो गये। उन्हीं के निकट रहते हुए इन्होंने ज्योतिष शास्त्र का भी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया। विद्याध्ययन के पश्चात् जिनवल्लभ वापस जाने लगे तो आचार्य अभयदेव ने कहा-'वत्स, सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार व्रत है, वह तुम सब समझ चुके, अतः उसके अनुसार आचरण कर सको, वैसा ही प्रयत्न करना।"
जिनवल्लभ ने आचार्य के हार्दिक उद्गारों को शिरोधार्य किया। वहाँ से चलकर प्रयाण करते हुए वे मरुकोट पहुँचे और वहाँ जिनालय में विधि चैत्य के नियमानुसार श्लोक उत्कीर्ण करवाये ।
___ अपने चैत्यवासी गुरु जिनेश्वराचार्य से मिले और उनकी अनुमति प्राप्त कर वे वापस अभयदेवसूरि के पास पहुंचे और उनसे 'उपसम्पदा' ग्रहण की। उस समय इनके साथ इनके गुरुभ्राता जिनशेखर भी थे । आचार्य अभयदेव जिनवल्लभ को प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु वे स्वयं उन्हें अपने पट्ट पर आसीन न कर सके । उन्होंने इस कार्य के लिए प्रसन्नचन्द्राचार्य को संकेत किया-"जब भी अवसर मिले इन्हें आचार्य पद प्रदान कर मेरा पट्टधर घोषित करना।" किन्तु, प्रसन्नचन्द्र भी समय पर इस कार्य को सम्पन्न न कर सके और उन्होंने अपने शिष्य देवभद्राचार्य को इस कार्य के लिए संकेत किया।
जिनवल्लभगणि विहार करते हुए चित्रकुट (चित्तौड़) आये। वहाँ उन्हें रहने को चण्डिका का मठ मिला । गणिजी ने चण्डिका को प्रतिबुद्ध किया। चितौड़ में इनके तप, त्याग, निर्भीकता आदि गुणों से वहाँ इनका प्रभाव छा गया। इनके अनेकों अनुयायी बने । चित्तौड़ में रहते हुए भगवान महावीर के शास्त्रसमर्थित षट्-कल्याणकों की मान्यता को पुनः प्रचारित किया।
___ भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के दो विधि चैत्यों का निर्माण भी उनके उपदेश से हुआ और उन्होंने सं० ११६२ में प्रतिष्ठाएँ भी करवाई।1 धाराधिपति महाराजा नरवर्मा भी इनके भक्त थे और महाराजा नरवर्मा ने चित्तौड़ के महावीर चैत्य के लिए दान भी दिया था।
संवत् ११६७ में आचार्य प्रसन्नचन्द्र के वचनों को स्मरण कर परम गीतार्य देवभद्राचार्य ने इनको चित्तौड़ बुलाया और आषाढ़ सुदी छठ के दिन इनको आचार्य पद प्रदान कर नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि का पट्टधर घोषित किया। बागड़ देश में विहार कर आपने १०,००० अजैनों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया । छः मास के अल्पकाल में ही संवत् ११६७ कार्तिक बदी बारस को आपका चित्तौड़ में ही स्वर्गवास हो गया।
जिन वल्लभसूरि प्राकृत और संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वान् थे । साथ ही वे जैन दर्शन और इतर दर्शनों के भी प्रौढ़ विद्वान थे ही। साहित्य के धुरन्धर विद्वान थे ही। इनकी विद्वत्ता के सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि तो इन्हें महाकवि माघ, कालिदास और वाक्पतिराज से भी बढ़कर मानते हैं।
इनके द्वारा विविध विषयों में निर्मित वर्तमान में ४४ कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें से सैद्धान्तिक विषयों में सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार, आगमिक वस्तुविचारसार, पिण्डविशुद्धि प्रकरण,
१. चित्तौड़ में आज दोनों ही मन्दिर प्राप्त नहीं हैं। महावीर चैत्य की शिलोत्कीर्ण प्रशस्ति अष्ट सप्तति वीर चैत्य प्रशस्ति की प्रतिलिपि प्राप्त है । पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रशस्ति का शिलापट्ट प्रशस्ति भी
प्राप्त हो गई है। खण्ड ३/२
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
औपदेशिक ग्रन्थों में द्वादशकुलक, धर्मशिक्षा प्रकरण, द्वादशकुलक संघपट्टक आदि, काव्य ग्रन्थों में शृंगारशतक, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् आदि एवं स्तोत्र साहित्य प्राप्त है । 1
आचार्य जिनेश्वर ने चैत्यवास के विरुद्ध जो शंखनाद किया था, उसको प्रबल वेग के साथ इन्होंने आगे बढ़ाया । न केवल विरोध ही अपितु उसका वैधानिक मार्ग भी प्रस्थापित किया । यही कारण है कि आचार्य जिनेश्वर से खरतरगच्छ सुविहित पथ के नाम से प्रसिद्ध था, वह जिनवल्लभ के समय में विधि पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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पट्टावलियों के अनुसार इनके स्वदीक्षित शिष्य अधिक न थे। मुख्यतया केवल रामदेवगण का ही नाम प्राप्त होता है, जिनकी दो रचनाएँ प्राप्त हैं- सूक्ष्मार्थविचारसा रोद्धार प्रकरण टिप्पण, षडशीति टिप्पणक । इनके भक्त श्रावकों में नागौर निवासी धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द भी अच्छे विद्वान् थे और इनकी रचित वैराग्यशतक कृति प्राप्त है ।
(६) युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि
जन्म --- ११३२, दीक्षा - ११४१, आचार्य पद ११६६, स्वर्गवास १२११ । सौधर्मीय परम्परा में ४४वें पाठ पर जिनवल्लभसूरि के पट्टधर दादा शब्द से जैन जगत् में विख्यात युगप्रधान जिनदत्तसूरि हुए। ये धोलका के निवासी थे । इनके माता-पिता के नाम थे— हुम्बड़ ज्ञातीय वाछिग एवं बाहड़ देवी । इनका जन्म ११३२ में हुआ था | विदुषी साध्वियों के उपदेशों से प्रतिबुद्ध होकर इन्होंने संवत् १९४१ में धर्मदेव उपाध्याय के पास दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम था- सोमचन्द्र । इनके शिक्षा गुरु थे— सर्वदेवगण, अशोक चन्द्राचार्य और हरिसिंह आचार्य ।
आचार्य जिनवल्लभसूरि के आकस्मिक देहावसान हो जाने से आचार्य देवभद्र ने संवत् १९६६ वैशाख शुदी एकम् को बड़े महोत्सव के साथ आचार्य पद देकर इन्हें जिनवल्लभसूरि के पाट पर स्थापित किया । आचार्य पदारोहण के समय नाम परिवर्तन कर जिनदत्तसूरि नाम रखा ।
आचार्य बनने के पश्चात् जिनदत्तसूरि चैत्यवास को निर्मूल करने में कटिबद्ध हो गये और निर्भीकता एवं प्रखरता के साथ चैत्यवास की मान्यताओं का खण्डन करते हुए सुविहित / विधि पक्ष का प्रबल प्रचार करने लगे। इनकी उत्कृष्ट चारित्रिक सम्पदा और तप त्याग को देखकर बड़े-बड़े चैत्यवासी आचार्य--जयदेवाचार्य, जिनप्रभाचार्य, विमलचन्द्रगणि, मंत्रवादी जयदत्त, गुणचन्द्रगणि, ब्रह्मचन्द्रगणि आदि ने भी चैत्यवास का त्याग कर इनके पास दीक्षा ग्रहण की थी। अजमेर के तत्कालीन नृपति अर्णो राज, त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल आदि भी आपके भक्त थे और आपको उच्च सम्मान देते थे । त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल के साथ आपके चित्र की काळपट्टिका आज भी जैसलमेर ज्ञान भंडार में विद्यमान है । अनेक स्थानों पर विचरण करते हुए अजमेर, त्रिभुवनगिरि आदि स्थानों पर विधिचैत्यों की प्रतिष्ठाएँ कराई थी । लगभग सहस्राधिक साधु-साध्वियों को दीक्षा दी थी । विक्रमपुर आदि स्थानों पर अनेक उपद्रवों को दूरकर एक लाख तीस हजार जैनेतरों को जैन बनाकर ओसवंश को समृद्ध किया था । आपके प्रतिबोधित गौत्रों की संख्या ५२ है ।
महादेवी अम्बिका के द्वारा आपको युगप्रधान पद प्राप्त हुआ था। परम्परागत पट्टावलियों के अनुसार आप बड़े चमत्कारी भी थे । प्रथम अनुयोग / मंत्रग्रन्थ की प्राप्ति भी आपको हुई थी। चौंसठ योगणियों को प्रतिबोध दिया था । ५२ वीर एवं ५ पीर भी आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे ।
१. इनके कृतित्व और व्यक्तित्व का विशेष अध्ययन करने के लिए महोपाध्याय विनयसागर लिखित 'वल्लभ भारती' देखें ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
विक्रम संवत् १२११ आषाढ़ बदी ग्यारस (परम्परा के अनुसार आषाढ़ सुदी ग्यारस) को आपका स्वर्गवास अजमेर में हुआ था । आज भी आपके चमत्कार सर्वत्र देखे व सुने जाते हैं, और आज भी आप भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं।
आपके द्वारा निर्मित कोई बड़ी कृतियां तो प्राप्त नहीं है । गणधर सार्द्ध शतक, सन्देह दोलावली, उपदेश कुलक आदि छोटी-मोटी २७ कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें से चर्चरी, उपदेश रसायन और काल स्वरूप कुलक अपभ्रंश भाषा की रचनाएँ हैं, जो हिन्दी के आदि काल में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
(७) मणिधारी जिनचन्द्रसरि जन्म-११६७, दीक्षा-१२०३. आचार्य पद १२०५, गच्छनायक-१२११, स्वर्गवास–१२२३.
मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के माता-पिता सेठ रासल और देल्हण देवी थे । ये जैसलमेर के निकट विक्रमपुर के निवासी थे। इनका जन्म विक्रम संवत् ११६७ भादवा सुदी आठम को हुआ था। ये जन्म से ही विलक्षण, अनेक शुभलक्षणों से युक्त, प्रतिभावान एवं संस्कारयुक्त थे। माता-पिता के साथ आचार्य जिनदत्तसूरि के दर्शनार्थ अजमेर पहुँचे और आचार्य की देशना से प्रतिबुद्ध होकर अजमेर में ही संवत १२०३ फाल्गुन सुदी नवमी को आचार्य से ही दीक्षा ग्रहण की । गणनायक जिनदत्तसूरि ने इनकी विशिष्ट प्रतिभा और योग्यता को देखकर इनके जन्म स्थान विक्रमपुर में ही संवत् १२०५ में वैशाख सुदी छठ के दिन इन्हें आचार्य पद प्रदान किया और नामकरण किया जिनचन्द्रसूरि । सम्भवतः जैन समाज में यह प्रथम ही उदाहरण होगा जबकि अत्यल्प ६ वर्ष की अवस्था में कोई व्यक्ति आचार्य बना हो । गणनायक जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास होने पर संवत् १२११ में ये गच्छनायक बने ।
___ संवत् १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ मन्दिर के शिखर की प्रतिष्ठा की । इसके बाद हेमदेवी नाम की आर्या को प्रवर्तिनी पद दिया। संवत् १२१७ में मथुरा में नरपति आदि आठ ममक्षओं को दीक्षा दी । इसी वर्ष में क्षेमन्धर सेठ को प्रतिबोध दिया और वैशाख शुक्ला दसमी को मरुकोट में चन्द्रप्रभ स्वामी के विधि चैत्य में कलश एवं ध्वज दंड की प्रतिष्ठा की। संवत् १२१८ में ऋषभदत्त आदि पांच साधु एवं जगश्री आदि तीन साध्वियों को दीक्षित किया । १२३१ में सागरपाट में पार्श्वनाथ विधि चैत्य में देवकुलिका की प्रतिष्ठा की । वहाँ से अजमेर पधार कर श्री जिनदत्तसूरि के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की। तत्पश्चात बब्बेरक ग्राम में गुणभद्रगणि आदि पाँच शिष्यों को दीक्षित किया । आशिका नगरी में नागदत्त मुनि को वाचनाचार्य पद दिया । महावन में अजितनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा की। इन्द्रपुर में गुणचन्द्रगणि के पितामह लाल श्रावक द्वारा बनाए हुए शान्तिनाथ विधि चैत्य में दंड, कलश और ध्वजा प्रतिष्ठित की । तगलाग्राम में अजितनाथ विधि चैत्य की प्रतिष्ठा की। संवत् १२२२ में वादली नगर में पार्श्वनाथ मन्दिर में दंड, कलश, ध्वजा आदि की प्रतिष्ठा कर, अम्बिका शिखर पर स्वर्ण कलश की स्थापना करवाई । नरपालपुर में एक अभिमानी ज्योतिषी को ज्योतिष शास्त्र में पराजित किया।
वहाँ से आचार्य जिनचन्द्र रुद्रपल्ली आये । रुद्रपल्ली में वहाँ राज्य सभा में पदमचन्द्राचार्य के साथ तमोवाद पर शास्त्रार्थ हुआ और इस शास्त्र चर्चा में जिनचन्द्रसूरि ने बिजय प्राप्त की। इस विजय के कारण ही वहाँ के आचार्य श्री के भक्त जयतिहट्ट के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विहार करते हुए चौरसिन्दानक ग्राम के पास श्रीसंघ के साथ आचार्य ने पड़ाव डाला । वहाँ पर लूटपाट करते हुए म्लेच्छों के भय से संघ आकुल-व्याकुल हो गया । आचार्य ने अपने तपोबल से संघ का यह कष्ट दूर किया । म्लेच्छ सैनिक पास होकर निकल गए । वे संघ के पड़ाव को न देख सके।
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
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आचार्य विचरण करते हुए दिल्ली के निकट पहुँचे। दिल्ली के मुख्य-मुख्य श्रावक अपने परिवारों के साथ बड़े आडम्बर से आचार्य के दर्शन के लिए वहाँ जाने लगे। दिल्ली के तत्कालीन महाराजा मदनपाल (अनंगपाल, जो कि पृथ्वीराज चौहान के नाना थे) भी आचार्य के दर्शन के लिए आचार्य की सेवा में पहुँचे । संकेत और स्वयं की अनिच्छा होते हुए भी दिल्लीनरेश और प्रमुख श्रेष्ठियों के अत्याग्रह को आचार्य टाल न सके, और दिल्ली आए तथा १२२३ का चातुमास दिल्ली में ही किया। दिल्ली में ही अपने अनन्य भक्त कुलचन्द्र को एक यंत्र पट्ट दिया, जिसकी उपासना से वह समृद्धिशाली सेठ बन गए। एकदा दिल्ली के बाहर जंगल में दो मिथ्यादृष्टि देवियों को मांस के लिए लड़ते हुए देखा। करुणा हृदय सूरिजी ने अधिगाली नामक देवी को प्रतिबोध देकर मांस बलि का त्याग करवाया और पार्श्वनाथ विधि चैत्य के दक्षिण स्तम्भ में रहने के लिए आवास प्रदान किया।
विक्रम संवत् १२२३ भादवा बदी चौदस के दिन इनका स्वर्गवास हुआ। शरीर त्यागते समय आचार्यश्री ने अपने पार्श्ववर्ती लोगों से कहा था “नगर से जितनी दूर हमारा दाह संस्कार किया जाएगा, नगर की आबादी उतनी ही दूर तक बढ़ेगी।" इनका दाह-संस्कार महरोली में किया गया, जहाँ आज भी इनका स्तूप विद्यमान है और चमत्कारों का केन्द्र है । जहाँ आज भी जैन, अजैन सभी उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने हेतु उनके समाधि स्थल के दर्शन करते हैं।
कहा जाता है कि आपके भालस्थल पर मणि थी, अतः आप मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के नाम से ही जैन समाज में दूसरे दादा के नाम से विख्यात हुए।
आपने भी अनेक अजैनों को प्रतिबोध देकर महत्तियाण जाति की स्थापना कर जैन समाज की वृद्धि की थी।
इनके द्वारा रचित कोई विशिष्ट और विशाल कृति प्राप्त नहीं है। केवल लघुकायिक दो कृतियाँ प्राप्त हैं -व्यवस्था शिक्षा कुलक एवं पार्श्वनाथ स्तोत्र । इनके पठनार्थ कागज पर लिखी हुई प्राचीनतम "ध्वन्यालोकलोचन" की प्रति जो जैसलमेर ज्ञान भण्डार की थी, वह आज राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है। जिसमें इनके लिए विशेषण दिया गया है-"प्रतिवादिकरटिक रट विकटरद............."विज्ञातसकल-शास्त्रार्थ ।"
खरतरगच्छ एवं इसकी अन्य सभी शाखाओं की आचार्य परम्परा में चतुर्थ पाट पर जिनचन्द्र सूरि नाम रखने की प्रथा प्रारम्भ से ही प्राप्त होती है। कई विद्वानों के मतानुसार यह प्रथा संवेगरंगशालाकार जिनचन्द्रसूरि से प्रारम्भ हुई, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि यह चतुर्थ नाम की परम्परा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि से ही प्रारम्भ हुई है।
(८) युगप्रवरागम जिनपतिसरि जन्म-विक्रम संवत् १२१०, दीक्षा-१२१७, आचार्य पद १२२३, स्वर्गवास १२७७ । __ मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के पाट पर षट्त्रिंशद्वादविजेता युगप्रवरागम जिनपतिसूरि हुए। मरुस्थल के विक्रमपुर निवासी माल्हू गोत्रीय श्रेष्ठि यशोवर्धन की भार्या सूहव देवी की कुक्षि से विक्रम संवत् १२१० चैत्र बदी आठम के दिन आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम नरपति था। विक्रम संवत् १२१७ फाल्गुन सुदी दसवीं के दिन मथुरा में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान की थी। जिनचन्द्र सूरि के स्वर्गवास के पश्चात् उन्हीं के निदेशानुसार विक्रम संवत् १२२३ कार्तिक सुदी तेरस को दिल्ली में ही बड़े महोत्सव के साथ इनको आचार्य पद प्रदान किया गया था। स्वर्गीय युगप्रधान जिनदत्तसूरि जी के वयोवृद्ध शिष्य जयदेवाचार्य के तत्वावधान में यह महोत्सव सम्पन्न हुआ और इनका
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ नाम परिवर्तन कर जिनपतिसूरि घोषित किया गया। इसी महोत्सव के समय जिनभद्र को आचार्य पद प्रदान किया गया। साथ ही आपने पदमचन्द्र और पूर्णचन्द्र को दीक्षा प्रदान की।
___ विक्रम संवत् १२२४ में आचार्य जिनपति सूरि ने विक्रमपुर में गुणधर आदि छः को दीक्षा प्रदान की और जिनप्रिय मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया। संवत् १२२५ में पुष्करणी नगर में पत्नी सहित जिनसागर एवं जिनपाल आदि आठ को दीक्षा प्रदान की। वहाँ से विहार कर विक्रमपुर में आये और जिनदेवगणि को दीक्षा दी। संवत् १२२७ में उच्चा नगरी में धर्मसागर आदि सात को दीक्षित किया। जिनहित मुनि को वाचनाचार्य पद दिया। वहां से मरुकोट आये। मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और उनकी बहिन अलितश्री को संयम व्रत प्रदान किया। १२२८ में सागरपाड़ा आये, वहां पर सेनापति आम्बड़ तथा सेठ साढ़ल के बनवाये हुए अजितनाथ तथा शान्तिनाथ मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से बब्बेरक गाँव पधारे, वहाँ आशिका नगर के श्री संघ के साथ आशिका के महाराजा भीमसिंह भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ बब्बेरक आये । महाराजा के आग्रह से आचार्य श्री आशिका नगरी पधारे, आशिका नगरी में ही महाप्रमाणिक दिगम्बर आचार्य के साथ वाद-विवाद हुआ और इस चर्चा में जिनपतिसूरि को विजय प्राप्त हुई।
सूरिजी वहाँ से १२२६ में धनपाली पहुँचे और वहाँ पर सम्भवनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना और शिखर की प्रतिष्ठा की। सागरपाट में पण्डित मणिभद्र के पट्ट पर विनयभद्र को वाचनाचार्य का पद दिया। १२३० में स्थिरदेव आदि तीन साधु और अभयपति आदि चार साध्वियों को दीक्षा प्रदान की। १२३२ फाल्गुन सुदी दसमी को विक्रमपुर में भांडागारिक गुणचन्द्र गणि के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की। वहाँ से पुनः विहार कर आशिका नगरी पधारे, बड़े महोत्सव के साथ नगर प्रवेश हुआ, उस समय आचार्यश्री के साथ ८० साधु थे। ज्येष्ठ सुदी तीज के दिन बड़े विधि विधान के साथ पार्श्वनाथ मन्दिर के शिखर पर ध्वजाकलश आरोपित किया। आशिका में ही धर्मसागर गणि और धर्मरुचिगणिनी को संयमी बनाया। १२३३ आषाढ़ माह में कन्यानयन के विधि चैत्यालय में आचार्यश्री के चाचा साह मानदेव कारित भगवान महावीर की प्रतिमा स्थापित की। व्याघ्र-पुर में पार्श्वदेवगणि को दीक्षा प्रदान की। संवत् १२३४ में फलवधिका नगरी के विधिचैत्य में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा स्थापित की । इसी वर्ष जिनमत गणि को उपाध्याय पद और गुणश्री साध्वी को महत्तरा पद दिया और सर्वदेवाचार्य और जयदेवी नाम की साध्वी को दीक्षा दी। संवत् १२३५ में आचार्यश्री का चार्तुमास अजमेर में हुआ। इसी वर्ष दादा जिनदत्तसूरि के प्राचीन स्तूप का जीर्णोद्धार हुआ। देवप्रभ और उसकी माता चरणमति को दीक्षा प्रदान की। अजमेर में ही संवत् १२३६ में सेठ पासट द्वारा बनवाई हुई महावीर मूर्ति की स्थापना की, अम्बिका शिखर की भी प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से सागरपाड़ा में आकर अम्बिका शिखर की स्थापना करवाई। संवत् १२३७ में बब्बेरक गाँव में जिनदत्त को वाचनाचार्य पद दिया। संवत् १२३८ में पुनः आशिका पधारे और दो बड़ी जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।
आचार्य जिनपति सूरि १२३६ में फलवधिका (फलोदी-मेड़ता रोड) पधारे । उनके प्रभाव को सहन न कर वहाँ का निवासी उपगेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य मात्सर्य एवं ईर्ष्यावश अपलाप करने लगा। आचार्यश्री के बिहार कर अजमेर पहुँचने के पश्चात् वहाँ के दोनों के भक्तदलों में संघर्ष होने लगा और इस संघर्ष का नतीजा हुआ अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान की राज्यसभा में शास्त्रार्थ । महाराजा पृथ्वीराज ने शास्त्रार्थ की तिथि कार्तिक शुक्ला दसवीं निश्चित की और निश्चित समय पर महाराजा पृथ्वीराज नरानयन पर दिग्विजय कर वापस लौटे। कार्तिक सुदी दसवीं के दिन आचार्य
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी जिनपति सूरि श्री जिनमतोपाध्याय, पण्डित श्री स्थिरचन्द्र, वाचनाचार्य मानचन्द्र आदि मुनिवृन्द के साथ राज्यसभा में पहुँचे । इधर पद्मप्रभ आचार्य भी भाट-बटुकों के साथ सभा में पहुँचे। महाराजा पृथ्वीराज ने सिंहासन पर बैठने के पश्चात् प्रधानमन्त्री कैमास को आज्ञा दी कि पण्डित वागीश्वर, जनार्दन गौड़ और विद्यापति आदि राजपण्डितों के समक्ष इन दोनों का शास्त्रार्थ होने दो। शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। पद्मप्रभ को व्याकरण, साहित्य, दर्शन, कुन्दशास्त्रों का पूर्णज्ञान न होने के कारण वह राजपण्डितों के समक्ष पराजित सा होने लगा, मरता क्या न करता, आखिर पद्मप्रभ ने इन्द्रजाल और अन्त में मल्लयुद्ध के लिये आह्वान किया। जिनपतिसूरि के अनन्य भक्त सेठ रामदेव के साथ शास्त्रार्थ के बदले राज्यसभा में मल्लयुद्ध भी हुआ। अन्त में तिरस्कृत एवं अपमानित होकर राजकीय पुरुषों ने उसका गला पकड़कर उसे राज्यसभा के बाहर निकाला।।
आचार्यश्री के असाधारण ज्ञान को देखकर राजपंडितों ने जिनपतिसूरि को विजयी घोषित किया। और महाराजा पृथ्वीराज आचार्यश्री के सौम्य और शान्त मुद्रा तथा अगाध पांडित्य को देखकर अत्यन्त प्रमुदित हुए और जयपत्र बड़े महोत्सव के साथ हाथी के हौदे पर रखकर आचार्यश्री के पास भिजवाया गया। महाराजा पृथ्वीराज स्वयं जयपत्र देने के लिए उपाश्रय पधारे थे । (इस शास्त्रार्थ का विशेष अध्ययन करने के लिए देखें :-जिनपालोपाध्याय प्रणीत गुर्वावलि, पृष्ठ २५ से ३४ ।)
सूरिजी महाराज अजमेर से विहार कर १२४० में विक्रमपुर आये, वहाँ चौदह मुनियों के साथ - छः मास तक गणि योग तप किया । संवत् १२४१ में फलौदी पधारे, वहाँ जिननाग आदि पाँच साधुओं एव
धर्मश्री आदि दो साध्वियों को दीक्षा प्रदान की। फलवधि में ही संवत् १२४२ माघ सुदी पूर्णिमा के दिन जिनमतोपाध्याय का स्वर्गवास हुआ । संवत् १२४३ का चार्तुमास खेड नगर किया, वहाँ से अजमेर पधारे। संवत १२४४ में अनहिलपर पाटण का निवासी अभयकुमार नामक श्रावक महाराजा भीमसिंह और उनके प्रधानमन्त्री जगदेव से 'खरतरसंघ' के नाम से तीर्थयात्रा संघ निकालने का आदेश प्राप्त कर अजमेर आचार्य श्री के पास पहुँचा । अजमेरवासी श्री संघ की प्रार्थना स्वीकार कर आचार्यश्री ने तीर्थ यात्रा हेतु प्रस्थान किया। इधर आचार्य श्री के दो शिष्य जिनपाल गणि और धर्मशील गणि जो त्रिभवनगिरि में यशोभद्राचार्य के पास न्यायदर्शन शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे, वे भी आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त कर शीलसागर और सोमदेव को साथ लेकर त्रिभुवनगिरि के श्रीसंघ के साथ संघ में सम्मिलित हुए । यात्रा का आमंत्रण प्राप्त कर विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलौदी, दिल्ली, बागड़ और माण्डव्यपुर आदि नगरों के संघ भी इस यात्रा संघ में आकर सम्मिलित हुए। संघ प्रयाण करता हुआ चन्द्रावती नगरी पहुँचा, वहाँ पूर्णिमा गच्छ के प्रामाणिक आचार्य अकलंकसूरि पाँच आचार्यों के साथ आये और आचार्य जिनपतिसूरि के साथ उनका मिलन हुआ । आचार्य अकलंक की आचार्य जिनपति के साथ जिनपति नाम को लेकर व्याकरणिक दृष्टि से चर्चा हुई और आचार्य जिनपति के असाधारण वैदुष्य से आचार्य अकलंक प्रभावित हुए । साथ ही साधु तीर्थ यात्रा में संघ के साथ जायें या नहीं आदि अनेक शास्त्रीय विषयों पर भी चर्चा हुई । अन्त में अत्यन्त प्रसन्न होकर आचार्य अकलंक ने कहा-'खरतराचार्य, आप वास्तव में वादलब्धि सम्पन्न हैं।'
वहाँ से संघ के साथ आचार्यश्री चन्द्रावती नगरी पहुँचे । वहाँ पौर्णमासिक गच्छावलम्बी श्री तिलकसूरि के साथ नैयायिक दृष्टि से अनेक विषयों पर चर्चा हुई। इस पण्डित गोष्ठी से आचार्य तिलकप्रभ अत्यन्त प्रमुदित हुए और आचार्य जिनपति की अधिकाधिक प्रशंसा करने लगे। - इसके बाद संघ वहाँ से चलकर आशापल्ली पहुँचा। वहाँ वादी-देवाचार्य की पोषधशाला में विराजमान प्रद्म म्नाचार्य से सेठ क्षेमन्धर का वार्तालाप हुआ। वार्ता के मध्य सेठ क्षेमन्धर को पित
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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परम्परागत मार्ग छोड़कर खरतरगच्छ स्वीकार करने के विषय में प्रद्म ुम्नाचार्य ने सेठ को उपालम्भ देते हुए खरतरगच्छ की मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ अपशब्द कहे और खरतराचार्य जिनपतिसूरि के साथ आयतन - अनायतन सम्बन्धी विषय को लेकर शास्त्रार्थ के लिए तैयारी भी दिखाई । आचार्य जिनपति ने तीर्थ यात्रार्थं संघ की त्वरा देखकर वापसी में शास्त्रार्थ का आह्वान स्वीकार किया। वहाँ से संघ के साथ प्रस्थान कर आचार्यश्री ने खम्भात गिरनार आदि तीर्थों की यात्राएँ कीं। आगे मार्ग की गड़बड़ी के कारण संघ शत्रुंजय तीर्थ न जा सका ।
जब संघ वापस लौटकर आशापल्ली पहुँचा और वहाँ पूर्व निर्णयानुसार आचार्य जिनपति का प्रद्म ुम्नाचार्य के साथ आयतन - अनायतन विषयक शास्त्रार्थ बड़ी गम्भीरता के साथ हुआ । शास्त्र प्रमाणों के सामने प्रद्म नाचार्य टिक न सके और आचार्य जिनपति ने विजय प्राप्त की । इस सम्बन्ध में प्रद्म ुम चार्य रचित 'वादस्थल' ग्रन्थ और उसके उत्तर के रूप में जिनपतिसूरि द्वारा रचित 'प्रबोधोदय वादस्थल' ग्रन्थ देखना चाहिए ।
म्ना
इस विजय से आचार्य जिनपति की गुजरात में कीर्ति पताका फहराने लगी ।
दण्डनायक अभय का षड्यन्त्र भी विफल हुआ ।
वहाँ से संघ के साथ आचार्य श्री अनहिलपुर पाटण पहुँचे, वहाँ पर जिनपतिसूरि ने अपने गच्छ के ४० आचार्यों को एकत्रित कर उनको सम्मानित किया । इसके बाद आचार्य श्री संघ के साथ लवणखेटक ( वर्तमान में बालोतरा के पास खेड़) गए । वहाँ पर पूर्णदेवगण आदि तीन को वाचनाचार्य पदवी प्रदान की। इसके बाद पुष्करणी नगरी में जाकर संवत् १२४५ फाल्गुन माह में सूर प्रभ आदि 2 साधुओं और संयमश्री आदि तीनों को दीक्षित किया। संवत् १२४६ में श्रीपत्तन में महावीर प्रतिमा की स्थापना की । संवत् १२४७ और १२४८ में लवणखेड़ा में रहकर मुनि जिनहित को उपाध्याय पद दिया । संवत् १२४६ में पुनः पुष्करिणी आकर मलयचन्द्र को दीक्षा दी । संवत् १२५० में विक्रमपुर पधारकर पदमप्रभ को आचार्य पद दिया और नाम परिवर्तित कर सर्वदेवसूरि नाम रखा । सम्वत् १२५१ में माण्डव्य पुर पधारे।
वहाँ से अजमेर पाटण होकर भीमपल्ली ( भीलड़ी ) आए । कुहियप ग्राम में जिऩपालगणि को वाचनाचार्य पद दिया । लवण खेड़ा के राणा श्री केल्हण का विशेष आग्रह होने पर पुनः लवणखेड़ा जाकर "दक्षिणावर्त आरात्रिकावतारणत्व" बड़ी धूमधाम से बनाया । संवत् १२५२ में पाटण आकर विनयानन्द को दीक्षित किया । संवत् १२५३ में नेमिचन्द्र भण्डारी को प्रतिबोध दिया। मुसलमानों द्वारा पाटण नगर का विध्वंस होने पर ढाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया । १२५४ में धारानगरी में जाकर शान्तिनाथ देव के मन्दिर में विधिमार्ग को प्रचलित किया । और वहीं महावीर नाम के दिगम्बर को तर्क सम्बन्धी परिष्कारों से अतिरंजित किया। वहीं पर रत्नश्री को दीक्षित किया, जो भविष्य में प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ हुई । नागद्रह में चातुर्मास किया । संवत् १२५६ चैत्र वदी पंचमी के दिन लवणखेट में नेमिचन्द्र आदि चार को संयमी बनाया । संवत् १२५८ चैत्रवदी पांचम को लवणखेड़ा के शान्तिनाथ मन्दिर में विधि पूर्वक मूर्ति स्थापना तथा शिखर प्रतिष्ठा भी करवाई । वहीं पर चैत्रवदी दूज के दिन वीरप्रभ तथा देवकीर्ति को भागवती दीक्षा दी ।
१२६० आषाढ़ वदी छठ के दिन इन दोनों को बड़ी दीक्षा प्रदान की । यही वीरप्रभ भविष्य में आचार्य के पट्टधर जिनेश्वरसूरि बने। इसी दिन सुमति गणि और पूर्णभद्र गणि को संयमी बनाया और आनन्दश्री नाम की साध्वी को महत्तरा पद दिया । तदनन्तर जैसलमेर के देवमन्दिर में फाल्गुन सुदी दूज को पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना की । संवत् १२६३ में फाल्गुन बदी चौथ को लवणखेड़ा में
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा की स्थापना की। इसी स्थान पर नरचन्द्र आदि तीन और विवेकश्री आदि चार को संयम ब्रत प्रधान किया और धर्मदेवी को प्रवर्तिनी पद से अलंकृत किया । संवत् १२६५ में लवणखेड़ा में ही मुनिचन्द्र, मानचन्द्र, सुन्दरमति और आशमति को मुनिव्रत में दीक्षित किया । संवत् १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव आदि तीन को संयमी बनाया, गुणशील को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा प्रदान की। संवत् १२६६ में जाबालीपुर (जालौर) में महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा को विधि-चैत्यालय में बड़े समारोह के साथ स्थापित किया । जिनपाल गणि को उपाध्याय पद और धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरा पद देकर प्रभावती नामकरण किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्र आदि तीन पुरुषों को व चन्द्रश्री आदि स्त्रियों को दीक्षा प्रदान की और वहाँ से विक्रमपुर की ओर विहार कर गए।
संवत् १२७० में बागड़ श्रीसंघ के अत्याग्रह से बागड़ देश पधारे। संवत् १२७१ में वृहद्वार पधारे। वहाँ के श्री आशराज राणक और ठाकुर विजयसिंह आदि ने आचार्यश्री का स्वागत किया । वहाँ आपने अपने उपदेशों से मिथ्याक्रिया को बन्द करवाया। सं० १२७३ में वृहद्द्वार में ही लोक प्रसिद्ध गंगा दशहरा पर्व पर गंगा स्नान करने के लिए अनेक राणाओं के साथ नगरकोट के महाराजाधिराज पृथ्वीचन्द्र भी आए थे। उनके साथ काश्मीरी पंडित मनोदानन्द को अपने पांडित्व का अभिमान था और उसने शास्त्रार्थ के लिए जिनपतिसूरि को प्रेरित किया । जिनपतिसूरि स्वयं न जाकर उन्होंने अपने शिष्य जिनपालोपाध्याय को धमरुचि गणि, वीरभद्र गणि, सुमति गणि और ठाकुर विजयसिंह आदि के साथ शास्त्रार्थ हेतु भेजा। महाराजाधिराज पृथ्वीचन्द्र की सभा में पंडित मनोदानन्द के साथ जिनपालोपाध्याय का शास्त्रार्थ हुआ। 'जैन षड् दर्शनों से बहिभूत है' इस पर शास्त्रार्थ हुआ । उपाध्याय की तार्किकता के समक्ष पंडित मनोदानन्द निरुत्तर हो गया । अपने पंडित की पराजय को देखकर महाराजा पृथ्वीचन्द्र को अन्तर्दुःख तो अवश्य हुआ, किन्तु जयपत्र उपाध्यायजी को ही समर्पित करना पड़ा । इस उपलक्ष में संवत् १२७२ जेठ बदी तेरस के दिन श्रावक समाज द्वारा एक बहुत बड़ा जयोत्सव मनाया गया।
संवत् १२७४ में भावदेवमुनि को दीक्षा दी और दारिद्ररक गाँव में चातुर्मास किया । संवत् १२७५ में जेठ सुदी बारस के दिन जालोर में भुवनश्री आदि तीन महिलाओं को और विमलचन्द्र आदि दो पुरुषों को साधुदीक्षा प्रदान की । संवत् १२७७ में आचार्यश्री पालणपुर पधारे । वहीं पर आचार्य महाराज के नाभि के नीचे स्थान पर एक गाँठ पैदा हुई और साथ ही संग्रहणी रोग भी पैदा हो गया। अपना अन्तिम समय निकट जानकर अपने पाट पर वीरप्रभ गणि को स्थापित करने का निर्देश भी किया। संघ के साथ क्षमायाचना करते हए समाधिपूर्वक आचार्यश्री का स्वर्गवास हआ। संवत् १२७७ आषाढ शुक्ला दसवीं के दिन पालणपुर में ही आचार्यश्री का दाहसंस्कार किया गया । इस अवसर पर जिनहितोपाध्याय भी जालौर से आ गए थे और उन्होंने शोक विह्वल होकर दिवंगत आचार्य के गुण-गरिमा की १६ श्लोकों में अपनी अन्तर्व्यथा को प्रकट किया।
आचार्य जिनपतिसूरि शास्त्रचर्चा में वादीगज केशरी तो थे ही, साथ ही असाधारण प्रतिभा के धनी भी । इनके द्वारा निर्मित संघपट्टक वृहद्वृत्ति, प्रबोधोवादस्थल एवं १३-१४ स्तोत्र प्राप्त हैं।
(६) जिनेश्वर सूरि (द्वितीय) जन्म-संवत् १२४५, दीक्षा-१२५८, आचार्य पद १२७८, स्वर्गवास १३३१ ।
आचार्य जिनपतिसूरि के पाट पर द्वितीय जिनेश्वरसूरि हुए। ये मरुकोट निवासी भण्डारी नेमिचन्द्र के पुत्र थे। इनकी माता का नाम लक्ष्मणी था। संवत् १२४५ मिगसर सुदी ग्यारस को इनका
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
जन्म हुआ था। अम्बिका देवी के स्वप्नानुसार इनका जन्म नाम अम्बड़ रखा गया था । गच्छनायक जिनपतिसूरि के सदुपदेश से वैराग्यवासित होकर आचार्यश्री के करकमलों से संवत् १२५८ चैत्र बदी दूज खेड़ नगर में शान्तिनाथ भगवान के विधि चैत्यालय में दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दीक्षा नाम वीरप्रभ रखा गया था।
जिनपालोपाध्याय का जो शास्त्रार्थ पण्डित मनोदानन्द के साथ हुआ था उस समय वीरप्रभ गणि भी जिनपालोपाध्याय के साथ थे । आचार्य जिनपतिसूरि ने अपने सांध्य बेला के समय वीरप्रभ गणि को आचार्य पद पर स्थापित करने का संकेत किया था। तदनुसार ही संवत् १२७८ माघ सुदी छठ के दिन जालौर नगर में जिनहितोपाध्याय, जिनपालोपाध्याय आदि की उपस्थिति में आचार्य सर्वदेवसूरि ने संघ की सहमति के साथ इनको आचार्य पद पर स्थापित किया था। आचार्य पदारोहण के समय इनका नाम परिवर्तित कर जिनेश्वरसूरि रखा गया था।
संवत् १२८१ में श्री जिनेश्वरसुरि ने ठाकुर अश्वराज और सेठ राल्हा के सहयोग से उज्जयन्त, शत्रुञ्जय और स्तम्भनक आदि प्रमुख तीर्थों की यात्राएँ कीं। खम्भात में वादी यमदण्ड नामक दिगम्बर विद्वान से मिलन एवं वार्तालाप हुआ। खम्भात में आचार्यश्री का प्रवेश महोत्सव प्रसिद्ध महामन्त्री श्री वस्तुपाल ने ही करवाया था। संवत् १२६१ वैशाख सुदी दसवीं के दिन जालौर में अनेक साधु-साध्वी बनाये । जेठ वदी दूज रविवार के दिन विजयदेव को आचार्य पद से अलंकृत किया । संवत् १२९४ में संघहित को उपाध्याय पद दिया। संवत् १२६६ फाल्गुन बदी पंचमी को पालणपुर में प्रबोधमूर्ति को दीक्षा प्रदान की। ज्येष्ठ सुदी दशमी को पालणपुर में ही शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा करवाई, जिसे पाटण में स्थापित की गई। १२९७ में पालणपुर में अनेकों को दीक्षा प्रदान की। १२६८ वैशाख माह में जालौर में महं० कुलधर ने जिनचैत्य पर स्वर्णमय दण्ड ध्वज का आरोपण किया। संबत् १२९६ प्रथम आश्विन मास की दूज के दिन महामन्त्री कुलधर ने आचार्यश्री से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद महामन्त्री कुलधर का नाम कुलतिलक मुनि रखा गया था।
संवत् १३०४ वैशाख सुदी चौदस के दिन जिनेश्वरसूरि जी ने विजयवर्द्धन गणि को आचार्य पद प्रदान किया और इनका नाम जिनचन्द्राचार्य रखा। इसी दिन विवेकसमुद्र आदि अनेकों को दीक्षा प्रदान की। संवत् १३०५ आषाढ़ सुदी दसभी के दिन पालणपुर में अनेक तीर्थंकर प्रतिमाओं और नन्दीश्वर पट्ट की प्रतिष्ठा की।
जिनेश्वरसूरिजी ने संवत् १३०६ जेठ सुदी तेरस के दिन श्री मालनगर में अनेक तीर्थंकर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।
जैन शासन और खरतरगच्छ की प्रभावना करते हुए आचार्य जिनेश्वर संवत् १३३१ में जालोर पधारे और यह चातुर्मास जालौर में ही किया। चातुर्मास के मध्य में ही शारीरिक अस्वस्थता के कारण अपना अन्तिम समय निकट जानकर अपने करकमलों से ही संघ के समक्ष वाचनाचार्य प्रबोधमूर्ति गणि को संवत् १३३१ आश्विन बदी पंचमी को अपने पद पर स्थापित कर जिनप्रबोधसूरि नामकरण किया
१. इस समय की प्रतिष्ठित दो मूर्तिर्या-घोघा के जिनालय में और दो धातु मूर्तियाँ चिन्तामणि मन्दिर भूमिगृह,
बीकानेर में विद्यमान हैं। और, दो प्रतिमाएँ आषाढ़ सुदी तेरस की प्रतिष्ठित चिन्तामणि मन्दिर भूमिगृह
बीकानेर में विद्यमान हैं। खण्ड ३/३
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागर जी और पालणपुर में स्थित जिनरत्नाचार्य को संदेश भिजवाया कि चातुर्मास के पश्चात् इनका आचार्य पद स्थापना महोत्सव बड़े आडम्बर के साथ करना । पश्चात् आचार्यश्री ने अनशन ग्रहण किया और आश्विन बदी छठ की रात्रि को इनका स्वर्गवास हुआ ।
आचार्य जिनेश्वर शासन प्रभावक और उद्भट विद्वान् थे। इनके द्वारा निर्मित विशेष साहित्य तो प्राप्त नहीं है, किन्तु श्रावक धर्मविधि प्रकरण एवं बारह स्तोत्र प्राप्त हैं ।
इनके शासनकाल में अनेकों दिग्गज विद्वान् और साहित्य-निर्माता हुए, उनमें से कतिपय विद्वानों के नाम एवं उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख इस प्रकार है
(१) सर्वराज गणि-गणधर-सार्धशतक एवं पंचलिंगी लघु वृत्ति (२) पूर्णकलश गणि-प्राकृत द्वयाश्रय काव्य टीका (३) चन्द्रतिलकोपाध्याय-अभयकुमार चरित (४) सूरप्रभाचार्य-कालस्वरूप कुलक वृत्ति (५) जिनरत्नसूरि-निर्वाण लीलावती सार (६) लक्ष्मीतिलकोपाध्याय-प्रत्येकबुद्ध चरित्र, श्रावकधर्म-वृहदवृत्ति आदि (७) अभयतिलकोपाध्याय-संस्कृत द्व याश्रय काव्य वृत्ति, न्यायालंकार टिप्पण, पानी वादस्थल ___आदि (८) प्रबोधचन्द्रसूरि-संदेहदोलावलि बृहद्वत्ति (९) धर्मातिलक गणि-लघु अजितशान्तिस्तव वृत्ति
(१०) जिनप्रबोधसूरि जम–१२८५, दीक्षा-१२६६, आचार्य पद-१३३१, स्वर्गवास-- १३४१ ।
द्वितीय जिनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर आचार्य जिनप्रबोधसूरि हुए। आपका जन्म थारापद्र नगर में संवत् १२८५ श्रावण सुदी छठ को हुआ था। आपके पिता खीवड़ गोत्रीय श्रीचन्द्र थे और माता सिरिया देवी । संवत् १२६६ फाल्गुन बदी पांचम को पालणपुर में आचार्य जिनेश्वरसूरि के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की थी। प्रतिभासम्पन्न देखकर आचार्यश्री ने संवत् १३३० वैशाख बदी छठ को जालौर में आपको वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। आप में गच्छनायक की योग्यता देखकर जिनेश्वरसूरि ने ही अपने करकमलों से संक्षेप विधि-विधान के साथ संवत् १३३१ आश्विन बदी पंचमी को अपने पद पर स्थापित किया था।
आचार्य जिनेश्वर के निर्देशानुसार पदस्थापना हेतु चातुर्मास समाप्त होने पर जिनरत्नाचार्य जालौर आए । इस प्रसंग पर श्री चन्द्रतिलकोपाध्याय, श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय प्रमुख साधु-साध्वी वृन्द भी जालौर आया। संघ द्वारा विशाल महोत्सव किया गया और संवत् १३३१ फाल्गुन बदी अष्टमी के दिन विस्तृत विधि विधान के साथ वयोवृद्ध जिनरत्नाचार्य ने जिनप्रबोधसूरि की पद स्थापना की।
आपके शासनकाल में जो समय-समय पर अनेकानेक प्रतिष्ठाएँ, दीक्षाएँ, पदस्थापना एवं विशिष्ट कृत्य हुए उनको तालिका इस प्रकार हैं
. प्रतिष्ठायें-संवत् १३३२ जेठ बदी एकम को जालौर में, जेठ बदी छठ और नवमी को स्वर्णगिरि पर, संवत् १३३४ वैशाख बदी पांचम को भीमपल्ली में, संवत् १३३५ फाल्गुन वदी पांचम व फाल्गुन सुदी पांचम को चित्तौड़ में, संवत् १३३६ वैशाख बदी छठ को बरडिया में, सं० १३३७ जेठ बदी पांचम को बीजापुर में और सं० १३४० वैशाख सुदी तीज को जैसलमेर में ।
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संघयात्रा
संवत् १३३३ में सेठ विमलचन्द्र के पुत्र सेठ क्षेमसिंह और सेठ बाहड़ ने आचार्यश्री की उपस्थिति में विशाल तीर्थ यात्रा संघ निकाला था। यात्रा संघ में आचार्यश्री के साथ जिनरत्नाचार्य, लक्ष्मीतिलकोपाध्याय, विमलप्रज्ञोपाध्याय, वाचक पद्मदेव गणि आदि २७ साधु एवं प्रवर्तिनी ज्ञानमाला, प्र० कुशलश्री, प्रवर्तिनी कल्याणऋद्धि आदि २१ साध्वियों का समूह भी सम्मिलित था। यह तीर्थयात्रा संघ चैत्र बदी पांचम के दिन जालौर से रवाना होकर श्रीमाल, पालणपुर, तारंगा, बीजापुर, खम्भात, शत्रुञ्जय तीर्थ, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा करता हुआ सकुशल एवं सानन्द वापस जालौर पहुंचा था। संवत् १३३५ में जव आचार्य श्री चित्तौड़ आए थे, तो उनका प्रवेश महोत्सव बड़े आडम्बर के साथ हुआ था और वहाँ के प्रतिष्ठा आदि समस्त महोत्सवों में चित्तौड़ के महाराज कुमार अरिसिंह जी भी उपस्थित थे । संवत् १३३७ वैशाख बदी नवमी के दिन आचार्यश्री का बीजापुर में प्रवेश महोत्सव भी अनुपमेय हुआ था । उस समय बीजापुर के महाराजाधिराज सारंगदेव, महामात्य मल्लदेव, मन्त्री बुद्धिसागर आदि की उपस्थिति में ही प्रतिष्ठा महोत्सव आदि विशिष्ट कृत्य सम्पन्न हुए थे, जो अभूतपूर्व थे । १३३६ में विधि मार्ग अनुयायी संघों के साथ आचार्यश्री ने आबू की यात्रा की । तत्पश्चात् समियाणा के महाराजा श्री सोम के अत्याग्रह को स्वीकार कर वहाँ चातुर्मास किया। और चातुर्मास पश्चात् जैसलमेर के नरेश कर्णदेव के अत्याग्रह पर १३४० की फाल्गुन चौमासी जैसलमेर की थी । जैसलमेर से विहार कर आचार्यश्री जालौर आए, वहीं उनके शरीर में भयंकर दाह ज्वर उत्पन्न हुआ और अपने ही करकमलों से जिनप्रबोधसूरि जी ने संवत् १३४१ वैशाख सुदी तीज के दिन अपने पाट पर जिनचन्द्रसूरि को स्थापित किया और वैशाख सुदी अष्टमी के दिन इस पार्थिव देह को त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गए।
खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि के अनुसार आपके द्वारा निर्मित वृत्तप्रबोध, पंजिका प्रबोध एवं बौद्धाधिकार विवरण आदि ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु वर्तमान में उनमें से कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तदपि आचार्य बनने के पूर्व संवत् १३२८ में रचित कातन्त्र दुर्गपदप्रबोध टीका अवश्य प्राप्त है। आपके शासनकाल में विवेकसमुद्रोपाध्याय आदि अनेकों गीतार्थ विद्वान् थे ।
(११) कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि आचार्य जिनप्रबोधसूरि के पाट पर कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि हुए। आपका जन्म संवत् १३२४ मिगसर सुदी चौथ के दिन सिवाणा में हुआ था। सिवाणा के मन्त्री देवराज आपके पिता थे और आपकी माता थी कोमल देवी । इनका जन्म नाम खम्भराय था । जिनकुशलसूरि के पिता मंत्री जिल्हागर खम्भराय के भाई थे अतः जिनकुशलसूरि जी के ये चाचा होते थे। संवत् १३३२ ज्येष्ठ सुदी तीज को स्वर्णगिरि से जिनप्रबोधसूरि ने इनको दीक्षा प्रदान कर क्षेमकीर्ति नामकरण किया था। जिनप्रबोधसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में क्षेमकीर्ति को आचार्य/गणनायक पद के अनुरूप समझकर संवत् १३४१ वैशाख सुदी तीज के दिन बड़े समारोहपूर्वक अपने ही हाथों से अपने पाट पर स्थापित कर जिनचन्द्रसूरि नाम रखा।
इसके बाद जिनचन्द्रसूरि ने संवत् १३४२ वैशाख सुदी १० के दिन जालौर के महावीर चैत्य में २क्षल्लक और ३ क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी। उसी दिन वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गणि को उपाध्याय पद, सर्वराज गणि को वाचनाचार्य पद और बुद्धिसमृद्धि गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया । इसी वर्ष ज्येष्ठ बदी ६ को सेठ क्षेमसिंह निर्मापित २७ अंगुल प्रमाण वाली रत्नजटित अजितनाथ प्रतिमा एवं अन्य श्रेष्ठी
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
वर्ग निर्मापित अनेक प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की थी। यह प्रतिष्ठा महोत्सव जालौर के महाराजा सामंत सिंह के नेतृत्व में हुआ था । ज्येष्ठ बदी ११ के दिन वाचनाचार्य देवमूर्तिगणि को उपाध्याय पद दिया।
संवत् १३४४ मिगसर सुदी १० को जालौर में पंडित स्थिरकीर्ति गणि को आचार्य पद देकर उनका नया नाम दिवाकराचार्य रखा । संवत् १३४५ आषाढ़ सुदी ३ के दिन २ दीक्षाएँ दीं। वैशाख बदी एकम् को २ साधु और २ साध्वियों को दीक्षित किया तथा इसी दिन राजदर्शन गणि को वाचनाचार्य पद से विभूषित किया।
संवत् १३५२ में जिनचन्द्रसूरि की आज्ञा से वाचनाचार्य राजशेखर गणि ने बड़गाँव के ठाकुर रत्नपाल सेठ चाहड़, सेठ मूलदेव आदि श्रावक संघों के साथ पूर्व देश के तीर्थों की तीर्थयात्रा की।
___इसी वर्ष आचार्यश्री ने भीमपल्ली से सेठ धनपाल के पुत्र सेठ भडसिंह तथा सामल श्रावक के द्वारा निकाले हुए श्रीसंघ के साथ तीर्थयात्रा के लिए प्रयाण किया। शंखेश्वर, श्रीपत्तन आदि तीर्थों की यात्रा की। इस वर्ष का चातुर्मास बीजापुर किया संवत् १३५३ मिगसर बदी पांचम को २ साधुओं को दीक्षा दी।
इसके बाद संघ की प्रार्थना से जिनचन्द्रसूरि जालौर आये। जालौर के सेठ सलखण के पुत्र सीहा तथा माण्डव्यपुर के सेठ झांझण के पुत्र मोहन ने तीर्थयात्रा संघ निकाला। इस संघ में आचार्यश्री सम्मिलित हुए । जालोर से आबू तक की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न कर वापस जालौर आये । संवत् १३५४ ज्येष्ठ बदी १० को जालौर में दीक्षा एवं मालारोपण महोत्सव हुआ, ६ साधुओं और १ साध्वी को दीक्षा दी। इसी वर्ष अषाढ़ सुदी २ को सिरियाणक गाँव में महावीर मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर संवत्. १३५५ में महावीर प्रतिमा की स्थापना करवाई । यह महोत्सव सेठ भाण्डा के पुत्र जोधा ने किया।
____ संवत् १३५६ में जैसलमेर महाराजाधिराज जैत्रसिंह की प्रार्थना से मिगसर बदी ४ को जैसलमेर पधारे । आचार्यश्री की अगवानी करने के लिए स्वयं महाराजा ४ कोस सम्मुख आये थे। प्रवेश महोत्सव दर्शनीय व संस्मरणीय था । संवत् १३५७ में २ को दीक्षित किया । संवत् १३५८ माघ सुदी १० को पार्श्वनाथ विधि चैत्य में अनेक प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। संवत् १३५६ में फाल्गुन सुदी ११ को एकादशी के दिन बाडमेर पधारे । संवत् १३६० माघ वदी दशमी को मालाधारणादि महोत्सव हुआ। वहाँ से सिवाणा पधारे । संवत् १३६१ वैशाख बदी ६ के दिन अनेक स्थानों से आये हुए सवा लाख मनुष्यों की उपस्थिति में अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी अवसर पर पंडित लक्ष्मीनिवास गणि और हेमभूषण गणि को वाचनाचार्य पद दिया।
एक बार पूज्यश्री संघ के साथ पुनः संवत् १३७५ वैशाख बदी ८ के दिन नागौर पधारे । मंत्रीदलीय कुलभूषण ठाकुर अचलसिंह श्रावक ने बादशाह कुतुबुद्दीन सुल्तान से सर्वत्र निर्विरोध यात्रा के लिए फरमान प्राप्त किया। जगह-जगह निमन्त्रण-पत्र भिजवाये गये। चारों तरफ के यात्रार्थी श्रीसंघ नागौर आये । शुभमुहूर्त में आचार्य जिनचन्द्रसूरि की अध्यक्षता में यात्रोत्सव प्रारम्भ हुआ। वहाँ से संघ नरभट्ट पहुंचा। वहाँ दादा जिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित नवफना पार्श्वनाथ के दर्शन किये । वहाँ से बागड़ देश होते हुए कन्यानयन पधारे । यहाँ पर भी दादा जिनदत्तसूरि स्थापित महावीर स्वामी को नमन किया। वह से संघ प्रयाण करता हुआ हस्तिनापुर पहुँचा। वहाँ महोत्सव मनाया गया। वहाँ से संघ चलता हुआ दिल्ली के पास तिलपथ नामक स्थान पर पहुंचा। यहाँ के निवासी द्रमकपुरीयाचार्य ने मात्सर्यवश बादशाह कुतुबुद्दीन के सामने झूठी शिकायत की । बादशाह ने संघ का प्रयाण रोक दिया। संघनायक जिनचन्द्रसूरि
१. इसी समय की प्रतिष्ठित महावीर पंचतीर्थी, बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर (भूमिगृह) में विद्यमान है।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ को बुलाया । आचार्यश्री के तेजस्वी मुखमण्डल को देखकर वह प्रसन्न हुआ और संघ यात्रा को चालू रखने का आदेश दिया । द्रमकपुरीयाचार्य को झूठी शिकायत के कारण कैद कर लिया। आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने सेठ तेजपाल, साह खेतसिंह, ठाकुर अचलसिंह और ठक्कर फेरु को बादशाह के पास भेजकर उस आचार्य को कैद से मुक्त कराया । वहाँ से प्रयाण करते हुए खंडासराय स्थान पर पहुँचे। चातुर्मास निकट आ जाने से चातुर्मास वहीं किया। संघ के अग्रगण्यों अचलसिंह आदि के अनुरोध पर चातुर्मास में ही मथुरा तीर्थ की यात्रा की । वहाँ से वापस लौटकर खंडासराय में ही चातुर्मास पूर्ण किया । चातुर्मास में जिनचन्द्रसूरिजी महाराज के स्तूप की दो बार बड़े विस्तार से यात्रा की ।
___ अकस्मात् ही आचार्यश्री के शरीर में कम्परोग उत्पन्न हुआ। अपने ध्यान-बल से अपना अन्तिम समय निकट जानकर राजेन्द्रचन्द्राचार्य के नाम पत्र लिखकर ठाकुर विजयसिंह के हाथ भिजवाया। इस पत्र में निर्देश दिया गया था कि मेरे पट्ट पर वा० कुशल कीर्ति गणि का अभिषेक करना । इधर मेडता नगर के राणा मालदेवजी का अनुरोधपूर्ण आमन्त्रण पाकर वहाँ से मेडता नगर के लिए विहार किया । मेडता पधारने पर राणा मालदेव ने बड़े ठाठ-बाट से प्रवेशोत्सव कराया। वहाँ से कोसाणा पधारे । संवत् १३७६ आषाढ़ सुदी के दिन ६५ वर्ष की उम्र में जिनचन्द्रसूरिजी ने इस विनाशशील पंचभौतिक शरीर को त्यागकर स्वर्ग में देवताओं का आतिथ्य स्वीकार किया। विधि-विधान के साथ आपका वहाँ दाह-संस्कार किया गया। तत्पश्चात् मंत्रीश्वर देवराज के पौत्र मंत्री माणकचन्द्र के पुत्र मंत्री मुन्धराज श्रावक ने चिता स्थान की जगह आचार्यश्री की चरणपादुका सहित एक सुन्दर स्तुप बनवाया।
(१२) दादा श्री जिनकुशलसूरि प्रत्यक्ष प्रभावी युगप्रधान तीसरे या छोटे दादाजी के नाम से विख्यात जिनकुशलसूरि एक असाधारण महापुरुष थे। आपका जन्म सिवाणा में संवत् १३३७ मिगसर बदी तीज के दिन हुआ था। छाजेड़ गोत्रीय मन्त्री देवराज आपके पितामह थे और जेसल/जिल्हागर आपके पिता थे । आपका जन्म नाम कर्मण था । कलिकालकेवली जिनचन्द्रसूरि, जो कि संसार पक्ष में आपके चाचा होते थे, के उपदेश से प्रतिबोध पाकर उन्हीं के करकमलों से संवत् १३४५ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन गढ़ सिवाणा में अर्थात् अपनी जन्मभूमि में ही दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षित होने पर नाम रखा गया था कुशलकीर्ति । तत्कालीन गच्छ के वयोवृद्ध गीतार्थ विवेकसमुद्र के पास समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। १३७५ माघ सुदी बारस को बड़े महोत्सव के साथ जिनचन्द्रसूरि ने कुशलकीर्ति गणि को नागौर में वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। गच्छनायक जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके निर्देशानुसार ही राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने संवत् १३७७ ज्येष्ठ वदी ग्यारस के दिन अणहिलपुर पाटन में महामहोत्सव के साथ अनेक देशों के संघ के समक्ष वाचनाचार्य कुशलकीर्ति को आचार्य पद पर स्थापित किया और इनका नामकरण किया जिनकुशलसूरि । इस उत्सव का सारा आयोजन पाटण के सेठ तेजपाल रुद्रपाल ने किया था।
संवत् १३७८ का चार्तुमास भीमपल्ली में किया। वहाँ हेमभूषण गणि को उपाध्याय पद और मुनिचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद दिया और अनेकों को दीक्षा दी। विवेकसमुद्रोपाध्याय का सांध्यकाल निकट जानकर पुनः पाटण आये और उन्हें विधिपूर्वक अनशन करवाया । संवत् १३७८ ज्येष्ठ शुक्ला दूज को उनका स्वर्गवास हुआ । आषाढ़ शुक्ला तेरस के दिन पाटण में ही उनके स्तूप की प्रतिष्ठा करवाई । विवेक-समुद्रोपाध्याय ने ही तत्कालीन गणनायक कलिकालकेवली जिनचन्द्रसूरि, दिवाकराचार्य, राजशेखराचार्य, वाचनाचार्य राजदर्शन गणि, वाचनाचार्य, सर्वराज गणि आदि अनेक मुनिगणों को आगम, व्याकरण, न्याय आदि शास्त्रों का अभ्यास करवाया था।
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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
दिल्ली निवासी श्रीमालकुलोत्पन्न सेठ रयपति ने सम्राट गयासुद्दीन तुगलक से तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त किया कि “जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सेठ रयपति श्रावक का संघ शत्रु जय, गिरनार आदि तीर्थयात्रा के निमित्त जहाँ-जहाँ जाये वहाँ-वहां इसे सभी प्रान्तीय सरकारें आवश्यक मदद दें । और, संघ की यात्रा में बाधा पहुंचाने वाले लोगों को दण्ड दिया जाये ।” फरमान प्राप्त करने के पश्चात् संघयात्रा के लिए सेठ रयपति ने आचार्यश्री से अनुमति चाही ।
आचार्यश्री से तीर्थयात्रा का आदेश प्राप्त कर सेठ रयपति ने वैशाख वदी सातम को विशाल संघ के साथ दिल्ली से प्रस्थान किया। संघ कन्यानयन, नरभट, फलौदी होता हुआ पाटण पहुँचा । वहाँ सूरिजी से संघ में साथ पधारने की प्रार्थना की । जिनकुशलसूरिजी भी अपने विशाल साधु समुदाय के साथ संघ यात्रा में सम्मिलित हुए । संघ आषाढ़ बदी छठ को शत्रु जय पहुँचा । वहाँ दो दीक्षाएँ हुईं । सप्तमी के दिन समवसरण, जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि गुरुओं की प्रतिष्ठाएँ करवाईं आषाढ बदी नवमी के दिन व्रतग्रहण समारोह हुआ और उसी दिन सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया । यह विशाल यात्री संघ शत्रु जय से प्रस्थान कर आपाढ़ सुदी चौदस को गिरनार पहुंचा । यात्रा सम्पन्न कर सूरिजी पाटण पधार गये और संघ वहाँ वापस दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गया ।
संवत् १३८१ वैसाख बदी पाँचम को पाटण के शांतिनाथ विधि चैत्य में सूरिजी की अध्यक्षता में विराट प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ । इसमें अगणित जिनप्रतिमाएं जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अम्बिका आदि मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । वैशाख बदी छठ के दिन जयधर्मगणि को उपाध्याय पद दिया ।
भीमपल्ली के श्रावक वीरदेव ने सम्राट गयासुद्दीन से तीर्थयात्रा का आदेश प्राप्त कर सूरिजी Safar में जेठ बदी पाँचम को भीमपल्ली संघ निकाला । यह विराट संघ वायड, सेरीसा, सरखेज, आसापल्ली, खम्भात होता हुआ शत्रु जय पहुँचा । वहाँ आदिनाथ मन्दिर के विधिचैत्य में नवनिर्मित चतुर्विंशति जिनालय एवं देव कुलिकाओं पर कलश व ध्वज आदि का आरोपण हुआ । तीर्थं यात्रा सानन्द सम्पन्न कर संघ वापस लौटाता हुआ सेरीसा, शंखेश्बर, पाडल होते हुए श्रावण सुदी ग्यारस को भीमपल्ली पहुंचा ।
संवत् १३८२ वैशाख सुदी पांचम को भीनमाल में श्रावक वीरदेव ने महामहोत्सव किया जिसमें अनेक संघों की उपस्थिति में विनयप्रभ आदि अनेक साधु-साध्वियों को आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की । वहाँ से सूरिजी साचोर, लाटहृद होकर बाड़मेर पधारे। वहीं जिनदत्तसूरि रचित 'चैत्यवंदन कुलक' पर विस्तृत टीका की रचना आपने की। संवत् १३८३ पोष सुदि पूनम को अनेकों को दीक्षाएँ दीं। वहाँ से लवणखेटक होकर समियाणा होते हुए जालौर पधारे। फाल्गुन बदी नवमी को विविध उत्सव हुए और अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा एवं अनेकों को दीक्षित किया ।
जिनकुशल सूरिजी ने अपने जीवनकाल में ५० हजार नये जैन बनाए। शासन की महती प्रभावना की । आपकी रचित दो कृतियाँ प्राप्त हैं- चैत्यवंदनकुलक टीका और जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्तति एवं संस्कृत भाषा में नव स्तोत्र प्राप्त हैं ।
९. इस समय की प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ पंचतीर्थी बीकानेर सुपार्श्वनाथ मन्दिर में विद्यमान है ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
जिस प्रकार अपने जीवनकाल में जनसंघ के लिये ये परोपकारी थे वैसे ही स्वर्गवास के पश्चात् भी आज भी भक्तों के मनोवांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के सदृश हैं, हाजरा हजूर हैं । आज सारे भारत वर्ष में आपके जितने चरण, मूर्तियाँ व दादाबाडियाँ हैं, अन्य किसी की नहीं । आपकी शिष्य परम्परा भी विशाल रही है । आपके शिष्य विनयप्रभ हुए । विनयप्रभ के पौत्र शिष्य क्षेमकीर्ति हुए। इन्हीं के नाम से क्षेमकीर्ति उपशाखा निकली । इस शाखा में सैकड़ों प्रौढ़ विद्वान हुए, इनमें से उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय गुणविनय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस शाखा में अंतिम यति श्यामलालजी के शिष्य विजयचन्द्र हुए जो बीकानेर की गद्दी पर जिनविजयेन्द्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । अब यह परम्परा लुप्त हो गई है।
आपके शासनकाल में अनेकों दिग्गज विद्वान हुए, जिनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं :
षडावश्यक बालावबोधकार, तरुणप्रभसूरि, लब्धिनिधान उपाध्याय, कवि पद्म, ठक्कर फेरू, धर्मकलश, सारमूर्ति, समधरू, राजशेखराचार्य, दिवाकराचार्य, गौतमरासकार विनयप्रभ आदि ।
(१३) जिनपद्मसरि युगप्रधान दादा जिनकुशलसूरिजी के पट्टधर जिनपद्मसूरि हुए । इनके पिता का नाम अम्बदेव या आम्बाशाह था । कहाँ के निवासी थे, माता का क्या नाम था, जन्म किस संवत् में हुआ? कोई उल्लेख नहीं मिलता है । १३८४ माघ सुदी पाँचम को देवराजपुर में जिनकुशलसूरिजी ने आपको दीक्षा प्रदान कर पद्ममूर्ति नाम रखा था। इस प्रसंग में पदममूर्ति के लिए 'क्ष ल्लक' शब्द का प्रयोग किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ८-१० वर्ष की बाल्यावस्था में ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री के पास ही रहकर समस्त शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन किया था।
जिनकुशलसूरिजी का स्वर्गवास हो जाने पर और उनके आदेशानुसार संवत् १३६० ज्येष्ठ सुदी छठ सोमवार को देवराजपुर (देरावर) के आदिनाथ विधि चैत्य में वड़े विधि-विधान एवं महोत्सव के साथ तरुणप्रभाचार्य ने इनको आचार्य पद पर बिठाया और जिनपद्मसूरि नाम घोषित किया। इस प्रसंग पर महोपाध्याय जयधर्म, महोपाध्याय लब्धिनिधान. आदि तीस साधु और अनेकों साध्वियाँ उपस्थित थीं इस पाट महोत्सव का आयोजन सेठ हरिपाल ने किया था। इसी समय जिनपद्मसूरि ने अनेक मुनियों को भागवती दीक्षा दी । इसी समय अमृतचन्द्र गणि को वाचनाचार्य पद दिया।
जिनपदमसूरि के सम्बन्ध में यह जनश्रु ति प्रसिद्ध है कि एक बार जब वे विवेकसमुद्रोपाध्याय आदि मुनियों के साथ बाड़मेर गए हुए थे तो वहाँ लघुद्वार वाले मन्दिर में विशालकाय भगवान महावीर की मूर्ति देखकर बाल्यस्वभाव से प्रेरित होकर ये शब्द कहे :---
"बूहा णंढा वसही वड्डी अन्दरि किउं करि माणी ।" अर्थात् इतने छोटे द्वार वाले मन्दिर के अन्दर इतनी विशाल मूर्ति कैसे लाई गई ? इससे कितने ही श्रावकों को असन्तोष व अरुचि भी पैदा हुई, किन्तु शीघ्र ही श्री विवेकसमुद्रोपाध्यायजी ने उसका समाधान कर दिया।
इसके बाद आप जब गुजरात के लिये विहार कर रहे थे, उस समय मार्ग में सरस्वती नदी के किनारे ठहरे। तब एकान्त में यह चिन्ता हुई कि "कल गुजरात पहुँच कर पत्तनीय संघ के सम्मुख धर्मदेशना देनी है और मैं बालक हूँ, कैसे धर्मदेशना दे सकूँगा?" तो सरस्वती नदी के किनारे ठहरने के कारण सरस्वती ने सन्तुष्ट होकर वरदान दिया और आपने प्रातःकाल पाटण पहुँचकर "अर्हन्तो भगवन्त
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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
इन्द्रमहिता" इत्यादि शार्दूलविक्रीडित छन्दोबद्ध नवीन काव्य का निर्माण कर उसका ऐसा सुन्दर प्रवचन पत्तनीय संघ के सम्मुख किया कि सब आश्चर्यचकित हो गये और आपको "बालधवलकुचल सरस्वती" इस उपाधि से सुशोभित किया । सोमकुञ्जर कृत पट्टावली के अनुसार यह विरुद इन्हें पाटण से प्राप्त हुआ था ।
गया था ।
संवत् १४०० वैशाख शुक्ला दशमी के दिन लघु अवस्था में ही आपका स्वर्गवास हो
(१४) जिनलब्धिसूरि
आचार्य जिनपद्मसूरि के पट्टधर जिनलब्धिसूरि हुए । तरुणप्रभाचार्य कृत जिनलब्धिसूरि बहत्तरी के अनुसार आपका जीवनवृत्त इस प्रकार है :
जैसलमेर निवासी नौलखा गोत्रीय धणसीह के ये पुत्र थे, इनकी माता का नाम खेताही था । संवत् १३६० मिगसर सुदी बारस के दिन अपने ननिहाल सांचोर में इनका जन्म हुआ था । जन्म नाम लखनसिंह था । कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि से प्रतिबोध पाकर संवत् १३७० माघ सुदी ग्यारस को अणहिलपुर पाटण में जिनचन्द्रसूरि के करकमलों से ही दीक्षा ग्रहण की । दीक्षावस्था का नाम था लब्धिनिधान । मुनिचन्द्र गणि, राजेन्द्रचन्द्राचार्य, तरुणप्रभाचार्य एवं जिनकुशलसूर के पास गहन अध्ययन कर स्वशास्त्र और परशास्त्र के परम निष्णात बने थे। संवत् १३८८ मिगसर सुदि ग्यारस के दिन देरावर में जिनकुशलसूरिजी ने इन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया था ।
संवत् १४०६ आश्विन सुदी बारस के दिन नागौर में आपका स्वर्गवास हो गया । श्री संघ ने आपके अग्नि संस्कार स्थान पर स्तूप का निर्माण करवाकर इनके चरणों की प्रतिष्ठा करवाई थी । आपकी निर्मित कृतियों में चैत्यवंदनकुलकवृत्ति पर टिप्पण एवं कई जिनस्तोत्र प्राप्त हैं ।
(१५) जिनचन्द्र सूरि
जिनलब्धिसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए। इनका जन्म कुसुमाण गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम केल्हा था और माता का नाम सरस्वती था । जन्म नाम था पातालकुमार । संवत् १३८० आषाढ़ बदी छठ के दिन बड़े महोत्सव के साथ शत्रुंजय तीर्थ पर दादा जिनकुशलसूरिजी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की थी। आपका मुनि अवस्था का नाम था यशोभद्र । अमृतचन्द्र गणि के पास आपने विद्याध्ययन किया था | अन्तिम समय में जिनलब्धिसूरि ने इनको पाट पर बिठाने का संकेत किया था । तदनुसार ही तरुणप्रभाचार्य ने संवत् १४०६ माघ सुदी दशमी को जैसलमेर में आपको गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया । गच्छनायक बनने पर आपका नामकरण किया गया जिनचन्द्रसूरि । आचार्य पद का महोत्सव सेठ हाथीशाह ने किया था । संवत् १४१४ आषाढ़ बदी तेरस के दिन आपका स्वर्गवास हुआ । वहीं कृपाराम में आपका स्तूप बनवाया गया ।
(१६) जिनोदयसरि
जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनोदयसूरि आरूढ़ हुए। आपका जन्म संवत् १३७५ में पालनपुर निवासी मालू गोत्रीय शाह रुद्रपाल की पत्नी धर्मपत्नी धारलदेवी की कुक्षि से हुआ था । जन्म नाम समर
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
था। संवत् १३८२ भीमपल्ली के महावीर चैत्य में पिता रुद्रपाल द्वारा कृत उत्सव से बहिन कील्ह के साथ आचार्य प्रबर जिनकुशलसूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा नाम था सोमप्रभ । संवत् १४०६ जैसलमेर में जिनचन्द्रसूरि ने इनको वाचनाचार्य पद प्रदान किया था। संवत् १४१५ जेठ बदी तेरस को खम्भात में अजितनाथ विधि चैत्य में लूणिया गोत्रीय शाह जेसल अथवा संघवी रत्ना एवं पूनी कृत नन्दी महोत्सव द्वारा तरुणप्रभाचार्य ने आपको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया और जिनोदयसूरि नाम रखा। इसी वर्ष आपने खम्भात में अजितनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई और इसी वर्ष शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। पाँच स्थानों पर पांच बड़ी प्रतिष्ठायें की। आपने २४ शिष्य और १४ शिष्याओं को दीक्षित किया एवं अनेकों को संघवी, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा आदि पदों से अलंकृत किया। इस प्रकार पंचपर्व दिन (पाँचों तिथि) उपवास करने वाले, बारह ग्रामों में अमारिघोषणा कराने वाले तथा अट्ठाइस साधुओं के परिवार के साथ अनेक देशों में विहार करने वाले आचार्यश्री का संवत् १४३२ भाद्रपद बदी एकादशी को पाटणनगर में स्वर्गवास हुआ ।
इनके विषय में इन्हीं के शिष्य मेरुनंदनगणि ने संवत् १४३१ में अयोध्या में विराजमान लोकहिताचार्य को एक विज्ञप्ति पत्र भेजा। यह विज्ञप्ति पत्र बड़ा ही महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक दस्तावेज के रूपमें है। इसमें अपने गुरु जिनोदयसूरि की यात्रा का विस्तृत वर्णन दिया है।
आपके द्वारा रचित त्रिविक्रमरास (संवत् १४१५) और शाश्वत जिनस्तव प्राप्त हैं । आपके समय के विद्वानों में ज्ञानकलश, मेरुनंदन, विजयतिलक आदि एवं गुणसमृद्धि महत्तरा प्रमुख हैं । आज भी आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेकों मूर्तियाँ अनेकों स्थलों पर प्राप्त हैं।
(१७) जिनराजसरि इनके जन्म संवत् स्थान आदि के सम्बन्ध में कोई उत्लेख प्राप्त नहीं है। जिन राजसूरिरास के अनुसार इनके पिता का नाम तेजपाल मिलता है । जिनोदयसूरि का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् लोकहिताचार्य ने संवत् १४३३ फाल्गुन बदी छठ के दिन आचार्य पद प्रदान कर जिनराजसूरि नाम रखा और जिनोदयसूरि का पट्टधर घोषित किया । पट्टाभिषेक पदमहोत्सव सा० कडुआ धरना ने किया था। इस पद महोत्सव के समय विनयप्रभोपाध्याय भी उपस्थित थे । आप सवालाख श्लोक प्रमाण न्यायग्रन्थों के अध्येता थे। आपने अपने करकमलों से सुवर्णप्रभ, भुवन रत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने संवत् १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। संवत् १४६१ में देवकुलपाटक (देलवाडा) में आपका स्वर्गवास हुआ था। भक्तिवश आराधनार्थ देलवाडा के सा. नान्हक श्रावक ने आपकी मूर्ति बनाकर उनके पट्टधर श्रीजिनवर्धनसूरि से प्रतिष्ठा करवाई थी, जो आज भी देलवाडा में विद्यमान है। आपके करकमलों से प्रतिष्ठित मूर्तियाँ आज भी अनेक नगरों में बड़ी संख्या में प्राप्त हैं । आपके द्वारा रचित शान्तिस्तव और शत्रुजय विनती दो लघु कृतियाँ प्राप्त हैं।
आपके शिष्यों में उद्भट विद्वान् जयसागरोपाध्याय हुए हैं। ये दरडागोत्रीय थे और १४६० के पूर्व ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। इन्हीं के भाई ने आबू तीर्थ पर खरतरवसही का निर्माण करवाया था। इनके द्वारा मौलिक, टीकाग्रन्थ, स्तुति स्तोत्र आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। जिनमें से विज्ञप्ति त्रिवेणी, पर्वरत्नावली, पृथ्वीचन्द्र चरित्र और जिनकुशलसूरि छन्द आदि उल्लेखनीय हैं। खण्ड ३/४
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
(१८) जिनभद्रसूरि आचार्यप्रवर जिनराजसूरि के पट्ट पर सागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्धनसूरि को स्थापित किया था। किन्तु, उन पर देवी प्रकोप हो गया था अतः १४ वर्ष पश्चात् गच्छ की उन्नति के निमित्त जिनराजसूरि के पट्ट पर संवत् १४७५ में जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया। जिनवर्धनसरि से खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा का उद्गम हुआ । अतः उनके सम्बन्ध में पिप्पलक शाखा के परिचय में लिखा जाएगा।
जिनभद्रसूरि का परिचय इस प्रकार है :
मेवाड़ देश के देउलपुर नगर में छाजेड़ गोत्रीय श्रेष्ठी धीणि। रहते थे। उनकी पत्नी का नाम खेतलदेवी था। खेतलदेवी की कुक्षि से इनका जन्म संवत् १४४६ चैत्र शुक्ला (बदी) छठ को हुआ। आपका जन्म नाम राभणकुमार था। किन्हीं पट्टावलियों में इनका गोत्र छाजेड़ के स्थान पर भंसाली प्राप्त होता है। संवत् १४६१ में जिनराजसूरि के उपदेश से प्रतिबोध पाकर आपने दीक्षा ग्रहण की। मुनि अवस्था का नाम रखा गया कीर्तिसागर । वाचनाचार्य शीलचन्द्रगणि के पास रहकर इन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया। संवत् १४७५ माघ सुदी पूनम को सागरचन्द्राचार्य ने कीर्तिसागर को आचार्य पद देकर जिनभद्रसूरि नाम रखा और जिन राजसूरि का पट्टधर घोषित किया। आचार्य पद का महोत्सव नाल्हिग शाह ने किया था।
उपाध्याय क्षमाकल्याण रचित पट्टावली के अनुसार पद स्थापना के समय सात भकारों का उल्लेख मिलता है :-१. भाणसोल नगर, २. भाणसालीक गोत्र, ३. भादो नाम, ४. भरणी नक्षत्र, ५. भद्राकरण, ६. भट्टारक पद, ७. भद्रसूरि नाम ।
आचार्य बनने के पश्चात् आपने अपने जीवनकाल में दो विशिष्ट कार्य किये। १. जिन मन्दिरों का निर्माण और प्रचुर प्रमाण में अर्थात् सहस्राधिक जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा । २. ज्ञान भंडारों की स्थापना।
आबू, गिरनार तीर्थों पर तो प्रतिष्ठाएँ करवाई ही, साथ ही जैसलमेर में सहस्राधिक जिन मूर्तियों का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठा करवाई। यही कारण है कि जैसलमेर तीर्थ स्वरूप को प्राप्त हो गया।
मुगलों के द्वारा ज्ञान भंडारों की होली को देखकर हजारों शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवाकर आपने देवगिरि, नागौर, जालौर, पाटण, माण्डवगड, आशापल्ली, करणावती, खम्भात और जैसलमेर आदि में ज्ञान भंडारों की स्थापना करवाई। सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से संवत् १४६२ से १४६७ के मध्य जैसलमेर ज्ञान भडार की स्थापना करवाई। सैकड़ों प्राचीनतम ताडपत्रीय ग्रन्थों और उनकी प्रतिलिपियाँ करवाकर इस ज्ञान भंडार को समृद्ध किया। प्रतिलिपियों का संशोधन स्वयं भी करते थे और अपने विद्वत् साधुमण्डल से भी करवाते थे। जैसलमेर का ज्ञान भंडार प्राचीनतम एवं दुर्लभ ताडपत्रीय ग्रन्थों के कारण भारत भर में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । इस 'जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार' में ऐसी-ऐसी अप्राप्य एवं दुर्लभ सैकड़ों कृतियाँ हैं जो अन्यत्र अप्राप्त हैं। जैसलमेर को छोड़कर आपके द्वारा स्थापित सात ज्ञान भंडारों का अता-पता ही नहीं है। हाँ, उनके द्वारा लिखापित सैकड़ों कृतियाँ आज भी पाटण और खम्भात के ज्ञान भंडारों से प्राप्त होती हैं। जैसलमेर के इस ज्ञान भंडार के लिए
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ जैन समाज ही नहीं अपितु सारा साहित्य संसार भी आपका चिरकृतज्ञ है । आपके द्वारा प्रतिष्ठित, लेखांकित शताधिक मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं ।
भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नसूरि को आपने ही आचार्य पद से विभूषित किया था। कीर्तिरत्न सूरि ही नाकोड़ा तीर्थ के संस्थापक एवं प्रतिष्ठापक थे और इन्हीं से कीतिरत्नसूरि शाखा के नाम से एक उपशाखा प्रारम्भ हुई थी। इसी शाखा में प्रसिद्धतम आचार्य जिनकृपाचन्द्रसूरि जी हुए। जयसागरजी को उपाध्याय पद भी आपने ही प्रदान किया था।
जैसलमेर नरेश राउल वैरीसिंह और त्र्यंबकदास जैसे आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। जयसागरोपाध्याय ने संवत् १४८४ में नगरकोट (कांगडा) की यात्रा के स्वरूप 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक महत्वपूर्ण विज्ञप्ति पत्र आपही को भेजा था। संवत् १४६४ और १५०६ में जैसलमेर में संभवनाथ एवं चन्द्रप्रभ मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी। श्री जिनभद्रसूरि शाखा में अनेक दिग्गज विद्वान हुए हैं। आज भी आपकी शाखा में कुछ यति विद्यमान हैं। खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय भट्टारकीय, आचार्यांय, भावहर्षीय एवं जिनरंगसूरि आदि शाखाओं के आप ही पूर्व पुरुष हैं।
संवत १५१४ मिगसर बदी नवमी के दिन कुम्भलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ था। नाकोड़ा शान्तिनाथ मन्दिर में आपकी प्राचीन मूर्ति विद्यमान है । और, कलकत्ता आदि अनेक दादाबाडियों में आपके चरण आज भी पूजित होते हैं।
___ (१६) जिनचन्द्रसूरि महाप्रभावक युगप्रवर आचार्य जिनभद्रसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए । इनका जन्म संवत् १४८७ में जैसलमेर में हुआ था। इनके पिता का नाम चम्म गोत्रीय शाह वच्छराज था और माता का नाम था वाल्हादेवी। सोमकुंजरकृत गुर्वावली में साहूसाखा गोत्रीय बतलाया है और माता का नाम स्याणी लिखा है। आपका जन्म नाम करणा था। १४९२ में आपने दीक्षा ग्रहण की थी और दीक्षा नाम था कनकध्वज । संवत् १५१५ जेठ बदी दूज के दिन कुम्भलमेरु निवासी कुकड़ चौपड़ा गोत्रीय शाह समरसिंहकृत नन्दी महोत्सव में श्री कीर्तिरत्नसूरि ने आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम रखा था । संवत् १५३७ में जैसलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ था।
(२०) जिनसमुद्रसूरि ये बाड़मेर निवासी पारस गोत्रीय देकोशाह के पुत्र थे। देवलदेवी इनकी माता का नाम था। संवत् १५०६ में इनका जन्म हुआ और संवत् १५२१ में दीक्षा ग्रहण की । दीक्षानन्दी महोत्सव पुञ्जपुर में मण्डन दुर्ग के निवासी श्रीमालवंशीय सोनपाल ने किया था। दीक्षा नाम कुलवर्धन था। संवत् १५३३ माघ सुदी त्रयोदशी के दिवस जैसलमेर में, संघपति श्रीमालवंशीय सोनपालकृत नंदिमहोत्सव में श्रीजिनचन्द्रसरिजी ने अपने हाथ से पद स्थापना की थी। ये पंच नदी के सोमयक्ष आदि के साधक थे। संवत् १५३६ में जैसलमेर के अष्टापद प्रासाद में आपने प्रतिष्ठा की थी। परम पवित्र चारित्र के पालक आचार्यश्री का संवत् १५५५ मिगसर बदी १४ (१५५४ माघ) को अहमदाबाद में देवलोक हुआ।
आपके शासनकाल में अनेक प्रौढ़ विद्वान् हुए हैं, जिन्होंने साहित्य सर्जना कर साहित्य के भंडार को समृद्ध किया। इनमें से कुछ मुख्य-मुख्य विद्वानों के नाम इस प्रकार हैं-वाग्भटालंकार, वृत्तरत्नाकर,
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खरतरगच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी शीलोपदेशमाला, षष्टि शतक आदि १७ ग्रन्थों के बालावबोधकार, मेरूसुन्दरोपाध्याय, क्षेमराजोपाध्याय, षष्टिशतक टीकाकार तपोरत्न गणि, पुष्पमाला वृत्तिकार, साधु सोम उपाध्याय, हर्षराज, धर्मदेव, मुनिसोम; लक्ष्मीसेन आदि ।
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(२१) जिनहंससूरि
इनके पश्चात् गच्छनायक श्रीजिन हंससूरिजी हुए । सेत्रावा नामक ग्राम में चोपडा गोत्रीय साह मेघराज इनके पिता और श्री जिनसमुद्रसूरि जी की बहिन कमलादेवी माता थी । संवत् १५२४ में इनका जन्म हुआ था । आपका जन्म नाम धनराज और धर्मरंग दीक्षा का नाम था । संवत् १५३५ में विक्रमपुर में दीक्षा ली थी । संवत् १५५५ में अहमदाबाद नगर में आपकी आचार्य पद पर स्थापना हुई । तदनन्तर संवत् १५५६ ज्येष्ठ सुदी नवमी के दिन रोहणी नक्षत्र में श्रीबीकानेर नगर में बोहिथरा गोत्रीय करमसी मंत्री ने फीरोजी लाख रुपया व्यय करके पुनः आपका पद महोत्सव किया और उसी समय शान्तिसागराचार्य ने आपको सूरिमन्त्र प्रदान किया । वहीं नमिनाथ चैत्य में बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई । तदनन्तर एक बार आगरा निवासी संघवी डूंगरसी, मेघराज, पोमदत्त प्रमुख संघ के आग्रहपूर्वक बुलाने पर आप आगरा नगर आये । उस समय बादशाह के भेजे हुए हाथी, घोड़े, पालकी, बाजे, छत्र, चंवर आदि के आडम्बर से आपका प्रवेशोत्सव कराया गया। जिसमें गुरुभक्ति, संघशक्ति आदि कार्य में दो लाख रुपये खर्च किये थे । चुगलखोरों की सूचना के अनुसार बादशाह ने आपको बुलाकर धवलपुर में रक्षित कर चमत्कार दिखाने को कहा। तब आचार्य ने दैविक शक्ति से बादशाह का मनोरंजन करके पाँच सौ बन्दीजनों (कैदियों) को छुड़वाया और अभय घोषणा कराकर उपाश्रय में पधार आये । तब सारे संघ को बड़ा हर्ष हुआ । तदनन्तर अतिशय सौभाग्यधारी, तीनों नगरों में तीन प्रतिष्ठाकारी तथा अनेक संघपति - प्रमुखपद स्थापक श्रीगुरुदेव पाटन नगर में तीन दिन अनशन करके संवत् १५८२ में स्वर्गवासी हुए । संवत् १५८७ में जिनमाणिक्यसूरि द्वारा प्रतिष्ठित आपके चरण जैसलमेर पार्श्वनाथ जिनालय में विद्यमान हैं ।
(२२) जिनमाणिक्यसूरि
श्री जिनहंससूरिजी ने अपने पट्ट पर श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी को स्थापित किया । इनका जन्म संवत् १५४६ में कूकड चोपड़ा गोत्रीय शाह राजलदेव की धर्मपत्नी रयणादेवी की कोख से हुआ था । इनका जन्म नाम सारंग था । संवत् १५६० बीकानेर में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में आपने आचार्य श्रीजिनहंस रि के पास दीक्षा ग्रहण की । इनकी विद्वत्ता और योग्यता देखकर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि ने स्वयं १५८२ (माघ शुक्ला ५) भाद्रपद बदी त्रयोदशी को पाटण में बालाहिक गोत्रीय शाह देवराज कृत नन्दि महोत्सव पूर्वक आचार्य पद प्रदान करके पट्ट पर स्थापित किया था। आपने गुर्जर, पूर्वदेश, सिंध और मारवाड़ आदि देशों में विहार किया ।
एक प्राचीन पट्टावली के अनुसार आपने एक ही दिन में ६४ साधुओं को दीक्षा दी । १२ मुनियों को उपाध्याय पद से विभूषित किया । अन्तिम समय में देराउर यात्रा में भी आपके साथ २४ शिष्य थे ।
(२३) अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि
युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि के पिता रीहडगोत्रीय साह श्रीवंत थे, जो तिमरी नगर के निकटस्थ as गाँव में रहते थे । माता श्रीसिरियादेवी की कुक्षि से संवत् १५६८ में आपका जन्म हुआ और
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
संवत् १६०४ में केवल ६ वर्ष की अवस्था में ही, पूर्व-पवित्र संस्कारों के द्वारा तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने के कारण दीक्षा ग्रहण करली । आपके दीक्षा गुरु श्रीजिनमाणिक्य सूरिजी थे। आपका पुर्व नाम सुलतान कुमार था और दीक्षानाम था सुमतिधीर । आचार्य जिनमाणिक्यसूरि का देराउर से जैसलमेर आते हुए मार्ग में ही स्वर्गवास हो गया था। अतः संवत् १६१२ भाद्रपद शुक्ला ६ गुरुवार को जैसलमेर नगर में राउल मालदेव द्वारा कारित नन्दिमहोत्सवपूर्वक आपको आचार्य पद प्रदान कर, जिनचन्द्रसूरि नाम प्रख्यात कर श्री जिनमाणिक्यसूरि का पट्टधर (गच्छनायक) घोषित किया गया। यह काम बेगड़गच्छ (खरतरगच्छ की ही एक शाखा) के आचार्य श्रीगुणप्रभसूरिजी के हाथों से हुआ । उसी दिन रात्रि में श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी ने प्रकट होकर समवसरण पुस्तक और जिनआम्नाय सहित सूरिमन्त्र पत्र श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को दिखाया । आपका चित्त संवेग वासना से वासित था। गच्छ में शिथिलाचार देख कर आप सब परिग्रह का त्याग करने मन्त्री संग्रामसिंह तथा मन्त्रीपुत्र कर्मचन्द्र के आग्रह से बीकानेर पधारे । वहाँ का प्राचीन उपाश्रय शिथिलाचारी यतियों द्वारा रोका हुआ देखकर मन्त्री ने अपनी अश्वशाला में ही आपका चातुर्मास कराया और बड़ी भक्ति प्रदर्शित की । वह स्थान आजकल रांगडी चौक में बड़ा उपाथय के नाम से प्रसिद्ध है।।
___ गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को देखकर आप सहम गये। जिस आत्म-सिद्धि के उद्देश्य से चारित्र-धर्म का वेश ग्रहण किया गया; उस आदर्श का यथावत् पालन न करना लोकवंचना ही नहीं, अपितु आत्मवञ्चना भी है । गच्छ का उद्धार करने के लिये गच्छनायक को क्रिया उद्धार करना अनिवार्य है-इत्यादि विचारों के साथ ही आपके हृदय में क्रियोद्धार की प्रबल भावना उत्पन्न हुई । तदनुसार संवत् १६१४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को आपने क्रियोद्धार किया। उसी दिवस प्रथम शिष्य रीहडगोत्रीय पं० सकलचन्द्र गणि की दीक्षा हुई । बीकानेर चातुर्मास के पश्चात् संवत् १६१५ का चातुर्मास महेवा नगर में किया और श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्भासी तपाराधन किया। तप-जप के प्रभाव से आप में योग शक्तियाँ विकसित होने लगीं।
संवत् १६४७ का चातुर्मास पाटण कर अहमदाबाद होते हुए खम्भात पधारे ।
इसी समय तत्कालीन सम्राट अकबर के आमन्त्रण से आप खम्भात से विहार कर संवत् १६४८ फाल्गुन शुक्ला द्वादशी के दिवस महोपाध्याय जयसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचक रत्ननिधान और पं० गुणविनय प्रभृति ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहौर में सम्राट से मिले । स्वकीय उपदेशों से सम्राट को प्रभावित कर आपने तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिये आषाढ़ी अष्टाह्निका एवं स्तम्भतीर्थीय जलचर रक्षक आदि कई फरमान प्राप्त किये ।
__ एक बार नौरंग खान द्वारा द्वारिका के मन्दिरों के विनाश की वार्ता सुनी तो जैन तीर्थों और मन्दिरों की रक्षा के हेतु सम्राट् से विज्ञप्ति की गई । सम्राट् ने तत्काल फरमान लिखवाकर अपनी मुद्रा लगा के मन्त्रीश्वर को समर्पित कर दिया, जिसमें लिखा था कि “आज से शत्रुजय आदि समस्त जैन तीर्थ मन्त्री कर्मचन्द्र के अधीन हैं।" गुजरात के सूबेदार आजम खान को तीर्थ रक्षा के लिए सख्त हुक्म भेजा जिससे शत्रुजय तीर्थ पर म्लेच्छोपद्रव का निवारण हुआ।
एक बार कश्मीर विजय के निमित्त जाते हुए सम्राट ने सूरि महाराज को बुलाकर आशीर्वाद प्राप्त किया और आषाढ़ शुक्ला ६ से पूर्णिमा तक बारह सूबों में जीवों को अभयदान देने के लिए १२ फरमान लिख भेजे । इसके अनुकरण में अन्य सभी राजाओं ने भी अपने-अपने राज्यों में १० दिन, १५ दिन, २० दिन, २५ दिन, महीना, दो महीना तक जीवों के अभयदान की घोषणा कराई।
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
सम्राट ने अपने कश्मीर प्रवास में धर्मगोष्ठी व जीवदया प्रचार के लिए वाचक महिमराज को भेजने की प्रार्थना की । मन्त्रीश्वर और श्रावक वर्ग साथ में थे ही, अतः सूरिजी ने लाभ जानकर मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा आदि के साथ वाचक महिमराजजी को भी भेजा। मिती श्रावण शुक्ला १३ को प्रथम प्रयाण राजा रामदास की बाडी में हुआ। उस समय सम्राट, सलीम तथा राजा, महाराजा और विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई, जिसमें सूरिजी को भी अपनी शिष्य-मण्डली सहित निमन्त्रित किया । इस सभा में समयसुन्दरजी ने “राजानो ददते सौख्यं" वाक्य के १०२२४०७ अर्थ वाला 'अष्टलक्षी' ग्रन्थ पढकर सुनाया। सम्राट ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित करके प्रमाणीभूत घोषित किया।
कश्मीर विजय के पश्चात् आपके सामयिक अनन्त चमत्कारों, विशुद्ध गुणों और वैदुष्य को देखकर सम्राट अकबर अत्यन्त प्रभावित हुए और बड़े महोत्सव के साथ संवत् १६४६ फाल्गुन बदी दशमी के दिन आने हाथों से जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद से अलंकृत किया। इसी दिन महिमराज को आचार्य पद देकर जिनसिंहसरि नाम रखा और जयसोम एवं रत्ननिधान को उपाध्याय पद तथा पं० गुणविनय व समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से सुशोभित किया। युगप्रधान गुरु के नाम पर इस महोत्सव में महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने एक करोड़ रुपये व्यय किये थे । सम्राट ने लाहौर में तो अमारी उद्घोषणा की ही, पर सूरिजी के उपदेश से समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षपर्यन्त अभयदान देने का फरमान जारी किया था। सम्राट अकबर के आग्रह पर सूरिजी ने संवत् १६५२ में पंच नदी की साधना कर पाँचों पीरों को वश में किया था।
संवत् १६६७ का अहमदाबाद और १६६८ का चातुर्मास पाटण में किया। इस समय एक ऐसी घटना हई जिससे सूरिजी को वृद्धावस्था में भी सत्वर विहार कर आगरा आना पड़ा। बात यह थी कि एक समय सम्राट अहाँगीर ने जब सिद्धिचन्द्र नामक व्यक्ति को अन्तःपुर में दूषित कार्य करते देखकर, कंपित होकर समग्र जैन साधुओं को कैद करने तथा राज्य सीमा से बाहर करने का हुक्म निकाल दिया था, तब जैनशासन की रक्षा के निमित्त आचार्यश्री ने वृद्धावस्था में भी आगरा पधारकर सम्राट जहाँगीर (जो उनको अपना गुरु मानता था) को समझाकर इस हुक्म को रद्द करवाया।
संवत् १६६६ का चातुर्मास आगरा में किया। इस चातुर्मास में सूरिजी का सम्राट जहाँगीर से अच्छा सम्पर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित कर 'सवाई युगप्रधान भट्टारक' नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। चातुर्मास के पश्चात् विहार कर मेड़ता होते हुए बिलाड़ा पधारे और संवत १६७० का चातुर्मास वहीं किया। पयुर्षण के पश्चात् सूरिजी के शरीर में व्याधि उत्पन्न हई। इन्होंने अपना अन्तिम समय निकट जानकर अनशन ग्रहण किया और आश्विन बदी दूज के दिन इस नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गये । दाह संस्कार के समय इनकी मुख-वस्त्रिका नहीं जली । अग्नि-संस्कार के स्थान पर स्तूप बनाकर आपके चरणों की प्रतिष्ठा की गई।
महान प्रभावक होने से आप जैन समाज में चौथे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हए। आपकी चरणपादुका, मूर्तियाँ जैसलमेर, बीकानेर, मुलतान, खंभात, शत्रुजय आदि अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित हई। सरत, पाटण, अहमदाबाद, भरोंच, भाइखला आदि गुजरात में अनेक जगह आपकी स्वर्ग-तिथि दादा दूज" कहलाती है और दादाबाड़ियों में मेला भरता है।
सूरिजी के विशाल साधु-साध्वी समुदाय था। उन्होंने ४४ नन्दि में दीक्षा दी थी, जिससे २००० साधुओं के समुदाय का अनुमान किया जा सकता है। इनके स्वयं के ६५ शिष्य थे । प्रशिष्य समय
मह
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ सुन्दरजी जैसों के ४४ शिष्य थे। और, इनके आज्ञानुवर्ती साधु सारे भारत में विचरते थे। उस समय खरतरगच्छ की और भी कई शाखाएँ थीं जिनके आचार्य व साधु समुदाय सर्वत्र विचरता था । साध्वियों की संख्या साधुओं से अधिक होती है अतः समूचे खरतरगच्छ के साधुओं की संख्या उस समय पाँच हजार से कम नहीं होगी।
__ आप स्वयं गीतार्थ विद्वान् थे, आपका शिष्य समुदाय भी असाधारण वैदुष्य का धारक था । आपके धर्म साम्राज्य में अद्वितीय प्रतिभासम्पन्न श्रमणों ने जो साहित्य सेवा की है वह वस्तुतः अभूतपूर्व है। तत्कालीन प्रमुख-प्रमुख विद्वानों के नाम इस प्रकार है :-महोपाध्याय धनराज, महोपाध्याय पुण्यसागर, उपाध्याय साधुकीर्ति, उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय ज्ञानविमल, उपाध्याय हीरकलश, उपाध्याय सूरचन्द्र, उपाध्याय समयसुन्दर, उपाध्याय गुणविनय, उपाध्याय कुशललाभ, उपाध्याय सहजकीर्ति, पद्मराज, कनकसोम, चारित्रसिंह आदि ।
(२४) जिनसिंहसूरि आचार्य जिनसिंहसूरि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे और साथ ही थे एक असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् । इनका जन्म विक्रम संवत् १६२५ के मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को खेतासर ग्राम निवासी चोपड़ा गोत्रीय शाह चांपसी की धर्मपत्नी श्रीचाम्पलदेवी की रत्नकुक्षि से हुआ था। आपका जन्म-नाम मानसिंह था। संवत् १६२३ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि खेतासर पधारे थे, तब आचार्यश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर एवं वैराग्य वासित होकर आठ वर्ष की अल्पायु में ही आपने आचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षावस्था का नाम महिम राज रखा गया था। आचार्यश्री ने संवत् १६४० माघ शुक्ला ५ को जैसलमेर में आपको वाचक पद प्रदान किया था। "जिनचन्द्रसूरि अकबर प्रतिबोध रास" के अनुसार सम्राट अकबर के आमन्त्रण को स्वीकार कर सूरिजी ने वाचक महिम राज को गणि समय- .. सून्दर आदि ६ साधुओं के साथ अपने से पूर्व ही लाहौर भेजा था । वहाँ सम्राट आपसे मिलकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ था। सम्राट के पुत्र शाहजादा सलीम (जहाँगीर) सुरत्राण के एक पुत्री मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुई थी; जो अत्यन्त अनिष्टकारी थी। इस अनिष्ट का परिहार करने के लिए सम्राट की इच्छानुसार संवत् १६४८ चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को महिमराजजी ने अष्टोत्तरी शान्तिस्नान करवाया, जिसमें लगभग एक लाख रुपया व्यय हुआ था और जिसकी पूजा की पूर्णाहुति (आरती) के समय शाहजादा ने १००००/- रुपये चढ़ाये थे।
कश्मीर विजय-यात्रा के समय सम्राट की इच्छा को मान देते हुए आचार्यश्री ने वाचक महिमराज को हर्षविशाल आदि मुनियों के साथ कश्मीर भेजा था। उस प्रवास में वाचक महिमराज की अवर्णनीय उत्कृष्ट साधुता और प्रासंगिक एवं मार्मिक चर्चाओं से अकबर अत्यधिक प्रभावित हुआ था। उसी का फल था कि वाचकजी की अभिलाषानुसार गजनी, गोलकुण्डा और काबुल पर्यन्त अमारि (अभयदान) उद्घोषणा करवाई और मार्ग में आगत अनेक स्थानों (सरोवर) के जलचर जीवों की रक्षा करवाई। कश्मीर विजय के पश्चात् भी नगर में सम्राट् को उपदेश देकर आठ दिन की अमारी उद्घोषणा कराई थी।
वाचकजी के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर सम्राट अकबर ने आचार्यश्री को निवेदन कर बड़े ही उत्सव के साथ आपको संवत् १६४६ फाल्गुन कृष्णा दशमी के दिन आचार्यश्री के ही कर-कमलों
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
से आचार्य पद प्रदान करवाकर जिनसिंहसूरि नाम रखवाया। सूरचन्द्र कृत रास के अनुसार इस पद महोत्सव पर टांक गोत्रीय श्रीमाल राजपाल ने १८०० घोड़े दान किये थे ।
सम्राट् जहाँगीर भी आपकी प्रतिभा से काफी प्रभावित था । यही कारण है कि अपने पिता का अनुकरण कर सम्राट जहाँगीर ने आपको युगप्रधान पद प्रदान किया था।
संवत् १६७४ में आपके गुणों से आकर्षित होकर आपका सहवास एवं धर्मबोध प्राप्त करने के लिए सम्राट जहाँगीर ने शाही स्वागत के साथ अपने पास बुलाया था । आचार्यश्री भी बीकानेर से बिहार कर मेड़ता आये थे। दुर्भाग्यवश वहीं संबत् १६७४ पौष शुक्ला त्रयोदशी को आपका स्वर्गवास हो गया।
संवत् १६७१ में लवेरा में वाचनाचार्य समयसुन्दर को उपाध्याय पद से विभूषित किया था।
आपकी चरण-पादुकाएँ बीकानेर रेलदादाजी और नाहटों की गवाड़ में ऋषभदेवजी के मंदिर में विद्यमान है।
(२५) जिनराजसूरि आप बीकानेर निवासी बोहिथरा गोत्रीय श्रेष्ठी धर्मसी के पुत्र थे । इनकी माता का नाम धारलदे था । संवत् १६४७ वैशाख सुदी ७ बुधवार, छत्रयोग, श्रवण नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। इनका जन्म नाम खेतसी था। संवत् १६५६ मिगसर सुदी ३ को इन्होंने आचार्य जिनसिंहसरि के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम राजसिंह रखा गया, किन्तु बृहद् दीक्षा के पश्चात् इनका नाम राजसमुद्र रखा गया था । बृहद् दीक्षा यु० श्रीजिनचन्द्रसूरि ने दी थी। आसाउल में उपाध्याय पद स्वयं युगप्रधानजी ने संवत् १६६८ में दिया था। जैसलमेर में राउल भीमसिंहजी के सन्मुख आपने तपागच्छीय सोम विजयजी को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। आचार्य जिनसिंहसूरि के स्वर्गवास होने पर ये संवत् १६७४ फाल्गुन
। मेड़ता में गणनायक आचार्य बने । इनका पट्ट-महोत्सव मेड़ता निवासी चोपडा गोत्रीय संघवी आराकरण ने किया था । पूर्णिमा पक्षीय श्रीहेमाचार्य ने सूरिमन्त्र प्रदान किया था। अहमदाबाद निवासी संघपति सोमजी कारित शत्रुजय की खरतरवसही में संवत् १६७५ वैशाख शुक्ला १३ शुक्रवार को ७०० मूर्तियों की इन्हीं ने प्रतिष्ठा की थी। जैसलमेर निवासी भणशाली गोत्रीय संघपति थाहरू कारित जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ लौद्रवाजी की प्रतिष्ठा भी संवत् १६७५ मार्गशीर्ष शुक्ला १२ को इन्हीं ने की थी। और इनकी ही निश्रा में संघपति थाहरू ने शत्रुजय का संघ निकाला था। भाणवड पार्श्वनाथ तीर्थ के संस्थापक भी ये ही थे । आपने संवत् १६७७ ज्येष्ठ बदी ५ को चोपडा आसकरण कारापित शान्तिनाथ आदि मन्दिरों की प्रतिष्ठा की थी। और, बीकानेर, अहमदाबाद आदि जगरों में ऋषभदेव आदि मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी की थी। कहा जाता है कि अम्बिकादेवी आपको प्रत्यक्ष थी और देवी की सहायता से ही गांगाणी तीर्थ में प्रकटित मूर्तियों के लेख आपने बाँचे थे । आपकी प्रतिष्ठापित सैकड़ों मूर्तियाँ आज भी उपलब्ध हैं।
संवत् १६८६ मार्गशीर्ष कृष्णा ४ रविवार को आगरे में सम्राट शाहजहाँ से आप मिले थे और वहाँ वाद-विवाद में ब्राह्मण विद्वानों को पराजित किया था एवं स्वदर्शनी लोगों के विहार का जहाँ कहीं प्रतिषेध था वह खुलवाकर शासन की उन्नति की थी। राजा गजसिंह जी, सूरसिंह जी, असरफखान, आलम दीवान आदि आपके प्रशंसक थे।
शूक्ला सप्तमी
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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संवत् १६७८ में फाल्गुन बदी सप्तमी को रंगविजय को दीक्षा दी थी और उपाध्याय पद भी दिया था । भविष्य में इन्हीं से जिनरंगसूरि शाखा का उद्गम हुआ । संवत् १७०० में चातुर्मास हेतु पाटण पधारे और जिनरत्नसूरि को अपने पट्ट पर स्थापित किया । इसी वर्ष आषाढ़ नवमी को पाटण में ही आपका स्वर्गवास हुआ ।
आप उच्च कोटि के साहित्यकार थे । नैषध काव्य पर ३६ हजार श्लोक परिमित 'जैन राजी' नाम की टीका की एवं स्थानांग सूत्र विषम पदार्थ वृत्ति की रचना की थी । 'शालिभद्र चौपाई' आपकी प्रसिद्धतम कृति है जिसकी अनेकों सचित्र प्रतियाँ प्राप्त होती हैं। छोटी-मोटी कृतियाँ एवं संख्याबद्ध स्तवन आदि अनेकों प्राप्त हैं जिनका संग्रह जिनराजसूरि कृति कुसुमांजली के नाम से प्रकाशित हो चुका है ।
(२६) जिनरत्नसूरि
आचार्य श्रीजिनराजसूरि के पट्ट पर आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि विराजे । आप सैरुणा ग्राम निवासी लूणीया गोत्रीय साह तिलोकसी के पुत्र थे । आपकी माता का नाम तारादेवी था । आपका जन्म सम्वत् १६७० में हुआ था । आपका जन्म नाम रूपचंद था । निर्मल वैराग्य के कारण आपने अपनी माता और भाई रतनसी के साथ सम्वत् १६८४ वैशाख सुदी ३ में दीक्षा ग्रहण की थी। आपको जोधपुर में आचार्यश्री से वासक्षेप की पुड़िया मंगाकर उपाध्याय साधुसुन्दर ने दीक्षा प्रदान की थी। भणसाली गोत्रीय मंत्री सहसकरण के पुत्र मंत्री जसवन्त ने दीक्षोत्सव किया था। दीक्षा के पश्चात् इन्होने यावज्जीव कढ़ाई विग का त्याग कर दिया था । भट्टारक श्री जिनराजसूरिजी ने बड़ी दीक्षा देकर "रत्नमोम” नाम प्रसिद्ध किया ।
आपके गुणों से योग्यता का निर्णय कर जिनराजसूरिजी ने अहमदाबाद बुलाकर आपको उपाध्याय पद प्रदान किया । इस समय जयमाल, तेजसी ने बहुत-सा द्रव्य व्यय कर उत्सव किया । सम्बत् १७०० आषाढ़ शुक्ला नवमी को पाटण में आचार्य श्रीजिनराजसूरि ने स्वहस्त से ही सूरिमंत्र प्रदान कर अपना पट्टधर घोषित किया। पाटण से विहार कर जिनरत्नसूरिजी पाहणपुर पधारे । वहाँ संघ ने हर्षित हो उत्सव किया । वहाँ से स्वर्णगिरि के संघ के आग्रह से वहाँ पधारे । श्रेष्ठि पीथा ने प्रवेशोत्सव किया । वहाँ से मरुधर में विहार करते हुए संघ के आग्रह से बीकानेर पधारे । नथमल बेणे ने बहुत सा द्रव्य व्यय करके प्रवेशोत्सव किया । वहाँ से उग्र विहार करते हुए सम्वत् १७०१ का वीरमपुर में संघाग्रह चातुर्मास किया ।
चातुर्मास समाप्त होते ही सम्वत् १७०३ में बाड़मेर आये । संघ के आग्रह से चातुर्मास किया । वहाँ से विहार कर सम्वत् १७०३ का चातुर्मास कोटड़ा ने किया । चातुर्मास समाप्त होने पर वहाँ से जैसलमेर के श्रावकों के आग्रह से जैसलमेर आये । साह गोपा ने प्रवेशोत्सव किया। संघ के आग्रह से सम्वत् १७०४ से १७०७ तक के चार चातुर्मास आपने जैसलमेर ही किये। वहाँ से आगरा आये । मानसिंह ने बेगम की आज्ञा प्राप्त कर सूरिजी का प्रवेशोत्सव बड़े समारोह से किया । सम्वत् १७०८ से १७११ चार चातुर्मास आगरा में ही किये । आप शुद्ध क्रिया चारित्र के अभ्यासी थे । आपने अनेक नगरों में विहार करके जैन सिद्धान्तों वा प्रचार प्रसार किया और सम्वत् १७११ श्रावण कृष्णा सप्तमी के दिन आगरा में आप देवलोक पधारे । अन्त्येष्टि त्रिया के स्थान पर श्रीसंघ ने स्तूप निर्माण करवाया था।
खण्ड ३/५
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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
(२७) जिनचन्द्रसूरि जिनरत्नसूरि के पट्ट पर जिनचन्द्रस रि आसीन हुए । आपका बीकानेर निवासी गणधर चोपड़ा गोत्रीय साह सहसकिरण की पत्नी सुपियारदेवी की कुक्षि से सम्वत् १६६३ में जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम हेमराज था । सम्वत् १७०५ मिगसर सुदी बारस को जैसलमेर में आपकी दीक्षा हुई और आपका नाम रखा गया हर्षलाभ । सम्वत् १७११ में जिनरत्नसूरि का स्वर्गबास होने पर उनकी आज्ञानुसार भादवा बदी सप्तमी के दिन राजनगर में नाहटा गोत्रीय साह जयमल्ल तेजसी की माता कस्तुरबाई कृत महोत्सव द्वारा आपकी पद स्थापना हुई । गच्छवासी यतिजनों में प्रविष्ट होती शिथिलता को दूर करने के लिए आपने सम्वत् १७१८ मिती आसोज सुदी दशमी को बीकानेर में व्यवस्था पत्र लागू किया, जिससे शैथिल्य का परिहार हुआ। .
आपने अपने शासनकाल में अनेकों को दीक्षाएँ दी और अनेक स्थानों में विचरण करते हए संवत् १७६२ में सूरत पधारे । संवत् १७६३ में आपका सूरत में ही स्वर्गवास हुआ।
(२८) जिनसुखसूरि ___ आचार्य जिनचन्द्र के बाद श्रीजिनसुखसूरि पट्ट पर विराजे । ये फोगपत्तन निवासी साहलेचा बोहरा गोत्रीय साह रूपसी के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरूपा था। इनका जन्म संवत् १७३६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को हुआ था। संवत् १७५१ वी माघ सुदी पंचमी को आपने पुण्यपालसर ग्राम में दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम सुखकीर्ति था । दीक्षा नंदि सूची के अनुसार आपकी दीक्षा संवत् १७५२ फाल्गुन बदी पांचम को बीकानेर में कीर्तिनन्दि में हुई थी। सूरत निवासी चौपड़ा गोत्रीय पारख सामीदास ने ग्यारह हजार रुपये व्यय करके संवत् १७६३ आषाढ़ सुदी एकादशी के दिन आपका पट्ट महोत्सव किया था।
सूरि पदप्राप्ति के अनन्तर कुछ वर्ष गुजरात में विचरे और प्रचुर परिमाण में दीक्षाएँ संवत् १७६५, १७६६, १७६७, १७६८ में क्रमशः खंभात, पाटण और पालनपुरादि में अनेक बार हुई । संवत् १७७० में साचोर, राडधरा, सिणधरी, जालौर, थोभ, पाटोधी आदि में बहुत सी दीक्षाएँ हुई । संवत् १७७१ से १७७३ तक जैसलमेर, पोकरण में तथा १७७४ से १७७९ उदरामपुर, बीकानेर, धड़सीसर, नवहर तक अनेक नन्दियों में बहुत-सी दीक्षाएँ हुई। संवत् १७७३ में नवहर में मिगसर ३ को इन्द्रपालसर के सेठिया भीमराज को दीक्षा देकर भक्तिक्षम नाम से प्रसिद्ध किया।
. फिर एक समय घोघाबिन्दर में नक्खण्डा पार्श्वनाथ की यात्रा करके आचार्य श्रीजिनसुखसरि संघ के साथ स्तम्भतीर्थ जाने के लिए नाव में बैठे। देवगति से ज्यों ही नाव समुद्र के बीच में पहँची कि उसके नीचे की लड़की टूट गई। ऐसी अवस्था में नाव को जल से भरती देखकर आचार्यश्री ने अपने इष्टदेव की आराधना की। तब श्रीजिनकुशलसूरि की सहायता से एकाएक उसी समय एक नवीन नौका दिखाई दी। उसके द्वारा वे समद्र को पार कर सके। फिर वह नौका वहीं अदृश्य हो गई।
___इस प्रकार श्री शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करने वाले, सब शास्त्रों के पारगामी तथा शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को परास्त करने वाले आचार्य श्रीजिनसुखसूरि तीन दिन का अनशन पूर्ण कर संवत १७८० ज्येष्ठ कृष्णा दशमी को श्रीरिणी नगर में स्वर्ग सिधारे । उस समय देवों ने अदृश्य रूप में बाजे बजाये, जिनके घोष को सुनकर उस नगर के राजा तथा सारी प्रजा चकित हो गई थी। अन्त्येष्टि क्रिया के स्थान पर श्रीसंघ ने एक स्तूप बनाया था, जिसकी प्रतिष्ठा माघ शुक्ला षष्ठी को जिनभक्तिसूरि ने की थी।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
आपकी रचित जैसलमेर चैत्य परिपाटी एवं सवत् १७६७ में पाटण में रचित जैसलमेरी श्रावकों के प्रश्नों के उत्तरमय सिद्धान्तीय विचार ग्रन्थ प्राप्त हैं।
(२६) जिनभक्तिसूरि जिनसुखसूरि के पट्ट पर श्रीजिनभक्तिसूरि आसीन हुए । इनके पिता धष्ठि गोत्रीय हरिचन्द्र थे, जो इन्द्रपालसर नामक ग्राम के निवासी थे। इनकी माता थी हरसुखदेवी । संवत् १७७० ज्येष्ठ सुदी तृतीया को आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम आपका भीमराज था। और, संवत् १७७६ माघ शुक्ला सप्तमी को दीक्षा ग्रहण के बाद आपका दीक्षा नाम भक्तिक्षेम रखा गया था। संवत् १७०० ज्येष्ठ बदी तृतीया के दिन रिणीपुर में श्रीसंघकृत महोत्सव करके गुरुदेव ने अपने हाथ से इन्हें पट्ट पर बैठाया था। तदनन्तर आपने अनेक देशों में विचरण किया।
संवत् १८०४ ज्येष्ठ सुदी चौथ को माण्डवी बन्दर में आपका स्वर्गवास हुआ । जिस स्थान पर आपका दाह संस्कार किया गया था उस अग्नि-संस्कार की भूमि में उस रात्रि को देवों ने दीपमाला की । संवत् १८५२ में जैसलमेर स्थित अमृत धर्मशाला में वाचक क्षमाकल्याणजी ने आपके चरण स्थापित किये।
३०. जिनलाभसूरि आचार्य जिनभक्ति सूरि के पश्चात् उनके पट्ट पर जिनलाभसूरि आरूढ़ हुए। ये बीकानेर निवासी बोहिथरा गोत्रीय साह पंचायन दास के पुत्र थे, पद्मादेवी इनकी माता थी। आपका जन्म संवत् १७८४ श्रावण सुदी पंचम को बापेऊ ग्राम में हुआ था। जन्म नाम लाल चन्द्र था। इन्होंने संवत् १७६६ ज्येष्ठ सुदी छठ को जैसलमेर में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम लक्ष्मीलाभ रखा गया । जिनभक्तिसरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् १८०४ ज्येष्ठ सुदी पंचम को माण्डवी बंदर में आपकी पद स्थापना हुई। इस अवसर पर आपका नाम जिनलाभसूरि रखा गया। पद स्थापना महोत्सव छाजहड गोत्रीय साह भोजराज ने किया।
इस प्रकार परम सौजन्य, सौभाग्यशाली, महाउपकारी, अनेक सद्गुणों से सुशोभित, पादविहारी, जिनलाभसूरि ने संवत् १८३४ आश्विन बदी दशमी के दिन बूढ़ानगर में देवगति प्राप्त की। आपकी रचनाओं में आत्मप्रबोध प्रकाशित है तथा दो चौबीसियाँ व स्तवन आदि प्राप्त हैं । आपके शासनकाल में कई प्रमुख विद्वान थे । इनमें से महोपाध्याय रामविजय (रूपचन्द्र गणि) शिवचन्द्रोपाध्याय, महोपाध्याय क्षमाकल्याण आदि प्रमुख हैं।
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चार दादा गुरुओं का संक्षिप्त जीवन-परिचय
पिता
(१) युगप्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरि (३) प्रकट प्रभावी दावा श्री जिनकुशलसूरि जन्म संवत्
११३२ जन्म सम्वत्
१३३७ जन्म गाँव
धुंधुका (गुजरात) जन्म गाँव
गढ़ सिवाणा जन्म नाम
सुलतान जन्म नाम
करमण पिता वाछिग सा० मंत्री
जेसल माता
वाहडदेवी माता
जयतश्री गोत्र हुंबड गोत्र
छाजेड़ दीक्षा सम्वत्
११४१ दीक्षा सम्वत्
१३४७ गुरु नाम
श्री जिनवल्लभसूरि
गुरु नाम श्री कलिकाल के वली जिनचन्द्रसूरि आचार्यपद सम्वत्
११६६ आचार्यपद सम्वत्
१३७७ स्वर्गवास आषाढ़ शुक्ला ११, सम्वत् १२११ स्वर्गवास फाल्गुण कृष्णा अमावस्या, सं. १३८६ स्वर्ग-भूमि
अजमेर स्वर्गभूमि
देराउर (२) श्री मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि
(४) अकबर प्रतिबोधक दादा श्री जिनचन्द्रसूरि जन्म सम्वत्
१५६५ जन्म गाँव
खेतसर जन्म नाम
जन्म नाम
सोमचन्द्र पिता रासल पिता
जेल्हागर माता देल्हण दे माता
श्रियादेवी गोत्र महतीयाण गोत्र
रिहड दीक्षा सम्वत् १२०३ दीक्षा सम्वत्
१६०४ गुरु नाम श्री जिनदत्तसूरि गुरु नाम
श्री जिनमाणिक्यसूरि आचार्यपद सम्वत् १२०५ आचार्यपद सम्वत्
१६१२ स्वर्गवास भादवा कृष्णा १४, सम्वत् १२२३ स्वर्गवास - आसोज कृष्णा २, सम्वत् १६७० स्वर्ग-भूमि दिल्ली स्वर्गभूमि
बालाड़ा (दादा गुरुदेव : धुनपति टुकलिया से सादर)
. ११६७ जन्म सम्वत् जैसलमेर जन्म गाँव
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--दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री (प्र. सज्जन श्री जी म० की सुशिष्या, आगम एवं दर्शनशास्त्र की विदुषी :
प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ की मुख्य सम्पादिका)
क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक
अनादि काल से इस जगत में परिवर्तन होता है। यहाँ सभी पदार्थ, कार्यव्यवस्थाएँ भले ही वे व्यक्तिगत हों या सार्वजनिक हों, वैयक्तिक हों या सामाजिक हों, अथवा राजनैतिक हों या धार्मिक, उनमें परिवर्तन होता ही रहता है । आत्मा से लेकर जड़ पदार्थों में उत्थान-पतन ह्रास विकासादि की क्रिया निरन्तर गतिशील रहती है । अनादिकालीन सनातन शाश्वत स्वभाव सभी पदार्थों-द्रव्यों का कभी परित्याग नहीं करता। जगत की यह स्वाभाविक स्थिति है। किन्तु यहाँ क्रान्ति सभी द्रव्यों में, भले वे जड़ हो या चेतन चलती रहती हैं ।
क्रान्ति शब्द की व्युत्पत्ति और भावार्थ-भ्वादि गणीय “क्रमु" पादविक्षपे धातु से स्त्रियांक्तित्" सूत्र से क्तिन् प्रत्यय लगाकर क्रान्ति शब्द की निष्पत्ति होती है जिसका सामान्य अर्थ होता है घूमना, चलना, भ्रमण करना, स्थानान्तरण करना, प्रगति करना। और इस क्रमु के उपसर्ग लगाने से तो भिन्नभिन्न प्रकार के रूप बनकर अर्थ भी अनेक प्रकार के हो जाते हैं । जैसे उत्क्रान्त, विक्रान्त, उत्क्रम, पराक्रम, अपक्रम, अनुक्रम, आक्रमण, संक्रमण, परिक्रमण-प्रतिक्रमण आदि अनेक शब्द हैं, जो पृथक-पृथक अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। धातु के मूल अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । क्रान्ति कई प्रकार की होती है । यथा-भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, वैयक्तिक, राजनैतिक, धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक इत्यादि । वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना क्रान्ति है।
भौतिक-पंचभूत, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, इन पाँच तत्वों में दो प्रकार की क्रान्ति होती है। प्रथम स्वभाव से, दूसरी मनुष्य द्वारा प्रायोगिक । जैसा कि आज वैज्ञानिक कर रहे हैं और इन तत्वों में मनुष्यादि के लिए विभिन्न सुख-सुविधाएँ प्रदान करने वाले अन्नादि का निर्माण भोज्यवस्तुएँ, औषधियाँ, पीने के पदार्थ, नवीन प्रकार के सुख देने वाली, मनोरंजन करने वाली अनेक विधाएँ टेलीफोन, टेलीविजन, सिनेमा, नाटक, रेल, मोटर, वायुयान, अन्तरिक्षयान आदि का सृजन । यहाँ तक कि यन्त्र मानव रोबोट, टेस्ट ट्यूब में मानव शिशु बनाने तक में सफलता प्राप्त करली है । और मनुष्य के विचारों तक में
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क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक : दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री
परिवर्तन कर देने वाली औषधियों और इन्जेक्शनों का निर्माण कर लिया है। जीव तथा जड़, स्थावर जंगम सभी को नष्ट कर देने वाले अनेक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण भी इस भौतिक क्रान्ति की देन है।
स्वाभाविक भौतिक क्रान्ति-अतिकृषि, वज्रपात, तूफान, भूकम्प आदि से होती है। किन्तु इससे उतनी क्रान्ति नहीं होती जितनी कि मनुष्य ने विज्ञान द्वारा करने की योजनाएँ बनायी हैं । क्योंकि उन अस्त्रों से जगत् प्रलय होने में एक मिनट भी नहीं लगेगा।
सामाजिक क्रान्ति-संसार में निवास करने वाले भाँति-भाँति के रंगरूपधारी मनुष्यादि देश
परिस्थितियों के अनुसार अपना समाज-एक समूह बनाकर उसके रहन,सहन, आचार, व्यवहार आदि की एक आचार संहिता रचकर उसके अनुसार जीवन-यापन करते हैं। जिस व्यक्ति से आचार संहिता का पूर्ण पालन नहीं होता, वह नियम भंग करके स्वेच्छाधारी बना मनुष्य केवल अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने लग जाता है। तब सामाजिक क्रान्ति होती है। कभी-कभी तो यह क्रान्ति उन्नति का कारण न बनकर मनुष्य जाति को अवनति के गहरे गर्त में ढकेल देती है। जिससे मनुष्य का जीवन अत्यन्त अशान्त और दुखमय बन जाता है। आज का मनुष्य तो नैतिक और धार्मिक नियमों का भंग करना ही क्रान्ति मान बैठा है।
आर्थिक क्रान्ति-जब अर्थ का एक स्थान या व्यक्ति में पुजीकरण होने लगता है, जनता दीन, दरिद्र, अभावग्रस्त बन जाती है तो आर्थिक क्रान्ति होती है। प्रायः यह क्रान्ति कभी-कभी तो मनुष्यों की हत्या या व्यक्ति की, स्वतन्त्रता का अपहरण कर उसे किसी व्यवस्थापक-शक्तिशाली के सर्वथा अधीन रहने को बाध्य कर देती है।
पारिवारिक क्रान्ति-परिवार का मुखिया या कोई सदस्य जब परिवार के प्रति अपना उत्तरदायित्व भूलकर स्वयं की सुख-सुविधा का ही ध्यान रखता है या अनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की ओर उन्मुख होकर वैसा आचरण करने लग जाता है तो परिवार के सदस्य उससे पराङ मुख हो जाते हैं। और व्यक्ति स्वयं भी अकेला पड़ जाता है। परिवार में भी विघटन होकर छिन्न-भिन्न होने लगता है। ऐसे कठिन समय में परिवार का कोई बुद्धिमान, सदाचारी, विवेकी, विनयी व्यक्ति अपने मधुर व्यवहार द्वारा विघटन को रोककर परिवार के पुनर्गठन द्वारा सुव्यवस्थित बनाकर, वास्तविक क्रान्ति -उत्क्रान्ति कर लेता है अन्यथा परिवार भंग हो जाते हैं । और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सुख खोजने वाले व्यक्ति अधिक परतन्त्र और परिवार से कटकर रहने के कारण स्वयं को अकेला सा अनुभव करते हुए दिमागी टेन्शन में रहने के कारण रोगों से ग्रस्त हो, दुःखी जीवन बिताने को बाध्य हो जाते हैं।
वैयक्तिक क्रान्ति-व्यक्ति जब अपने जीवन में से समस्त दोषों विकारों, व्यसनों को निष्क्रान्त कर देता है, उत्तम विचारों, सद्गुणों और सत्कर्मों की ओर अग्रसर होता है तो वह व्यक्तिगत क्रान्ति होती है। वर्षों के ही नहीं अनन्तकाल से परिचित सेवित कोधादि कषाय, इन्द्रियजनित सुख सामग्रियों, मन को भाने वाले सभी पदार्थों का परित्याग करना, सभी प्रकार के व्यसनों का क्षणमात्र में त्याग कर देना वीर आत्माओं के लिए सामान्य कार्य है। ऐसों के इतिहास से भारतीय इतिहास के पत्र स्वर्णाक्षरों से भरे हैं।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
राजनैतिक क्रान्ति-अत्याचारी शासक के विरुद्ध जनता विद्रोह कर उसे सत्ता से विहीन कर देती है। या उसे कारागार में डाल देती है। अथवा सशस्त्र क्रान्ति करे तो दोनों ओर से कई व्यक्ति मारे जाते हैं। जो अधिक बलवान् हो वह सत्ता हस्तगत कर शासक बन जाता है । सशस्त्र न हो तो बहुमत के अनुसार सत्ता मिल जाती है। और वही शासक बन जाता है।
धार्मिक क्रान्ति-धर्म के दो तत्व हैं। १. दर्शन २. आचार । दार्शनिक क्रान्ति जगत के और जगत में विद्यमान स्थावर जंगम जीवों एवं पंचभूत आदि के उत्पत्ति, रक्षा और प्रलय के विषय को लेकर वैचारिक क्रान्ति आदिकाल से होती रही है और वर्तमान में भी कई दार्शनिक हैं जो इस सम्बन्ध में अपनेअपने चिन्तन प्रस्तुत करते हैं । संसार में दार्शनिकों की प्राचीन अथवा अर्वाचीन मान्यताएँ, जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों और तर्को की कसौटी पर खरी उतरती हो, अकाट्य प्रमाणों और तर्क द्वारा सिद्ध हो, जिनका वचन युक्तिपूर्ण हो वे ही दार्शनिक संसार में अमर बनते हैं। और बुद्धिमान व्यक्ति उन्हीं के वचनों पर विश्वास करके आत्मबल की साधना से अपना जीवन सफल कर लेते हैं। दूसरी आचार सम्बन्धी क्रान्ति तत्कालीन शिथिलाचार के विरुद्ध होती रही है। और अतीत से वह जगत के विभिन्न सम्प्रदायों में होती रही है। और वर्तमान में भी यह प्रायः होती रहती है। कई बार तो क्रान्ति के नाम पर मूल दार्शनिक मान्यताओं और आगमिक सत्यों को भी स्वपूजाकांक्षीजन नकार जाते हैं। और 'मेरा तो सच्चा' की धुन में सर्वज्ञ निरूपित सिद्धान्तों को भी तथा तीर्थंकर भगवन्त द्वारा आचरित कार्यों को भी पाप कहकर जैनशासन के प्रति घोर अनीति करते भयभीत तक नहीं होते, जैन इतिहास में वे निह्नब कहलाते हैं।
शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति होती रही है। समय-समय पर होने वाले क्रियोद्धार इसके साक्षी हैं। काल के प्रभाव से चतुर्विध संघ में आचार, आहार, विहार व्यवहार सम्बन्धी शिथिलता आती रहती है। युगान्तरकारी पुरुष वे ही कहलाये जो स्वयं संयम-तप के कठोर पथ पर चलते हुए जनता के सामने प्रत्यक्ष आदर्श उपस्थित करके उसे अपनी ओर उन्मुख किया तथा साथ ही विद्वत्ता के बल पर अपने आचार-विचार और आगमिक ज्ञान सूत्र सिद्धान्तों की बातों को बड़े-बड़े नृपतियों व शासकों के सामने अन्य दार्शनिकों से वाद-विवाद करके सिद्ध किया और विविध प्रकार के विरुद प्राप्त किये।
खरतर विरुद भी एक ऐसा ही विरुद है जिसे श्री उद्योतनसूरि के प्रशिष्य और श्री वर्द्धमानसरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि ने प्राप्त किया था। श्री वर्धमान जिनेश्वरसुरि के समय अणहिलपुर पाटन के नृपति दुर्लभराज भीम पर चैत्यवासी साध्वाभासों का बड़ा प्रभाव था। उन्होंने राजा से यह आज्ञा पत्र ले रखा था कि पाटण में हमारे अतिरिक्त कोई भी जैन साधु प्रवेश नहीं करेगा । चैत्यवासी जैन मन्दिर में रहते थे। और साध्वाचार के विपरीत उनके आचरण थे । सामान्य नीतिवान गृहस्थ से भी पतित अवस्था तक उनका पतन हो चुका था । यहाँ तक कि वेश्यागमन, मद्यपान, ध तरमण आदि व्यसनों तक के सेवन में आकण्ठ मग्न हो गये थे । पवित्र जैन देरासर और उपाश्रय उनकी रासलीलाओं के क्रीड़ागण बने चुके थे । देवद्रव्य का भक्षण करना उनका भोगों में दुरुपयोग करना तो साधारण बात थी । मात्र अपने मन्त्र-तन्त्र और विद्याबल से उन्होंने बड़े-बड़े नृपों पर अपना प्रभाव जमा रखा था। पतित अवस्था की पराकाष्ठा यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि मुनिवेशधारी रत्नाकर सूरि को नगर के उपवन में घूमने गये हुए एक मन्त्री ने वेश्या के साथ भ्रमण करते, पान का बीड़ा मुख में दबाये, इत्र पुष्पमाला आदि धारण किये हुए देखा और वाहन से उतरकर मन्त्री ने उन्हें सविधि वन्दन किया। जिससे उनकी आत्मा काँप
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क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक : दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री
उठी और वैसे जीवन से भारी ग्लानि हो गई । वे श्री शत्रुञ्जय तीर्थाधिराज पर चले गये । पुनः सर्वविरति धारण कर घोर तपस्या द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित्त किया। ऐसी अनेक घटनाओं से मध्यकालीन इतिहास भरा पड़ा है।
___एक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व--महान् शासन प्रभावक जिनेश्वर सूरि १०,११वीं शताब्दी के प्रकाण्ड विद्वान, बिशुद्ध संयमी आबू पर्वत पर विमल मंत्रीकारित विमल वसही में प्रतिष्ठा कराने वाले श्री वद्धं मान सूरि के शिष्य थे। जिन्होंने इन चैत्यवासियों के प्रति जिहाद बोला चैत्यवासियों की धज्जियाँ उड़ा देने वाले संघ पट्टक ग्रन्थ के कर्ता श्री जिनवल्लभसूरि आपके ही चतुर्थ पट्टधर हुए हैं। गुरुजी भी तथा अनेक गुरुभाई बुद्धिसागर सूरि आदि साथ ही थे। उत्कृष्ट चारित्रपालन करने वाला यह साधुसमूह उस समय सारे जैन समाज में सुविहित पक्ष नाम से सुविख्यात था । इन्हीं जिनेश्वरसरि के व्यक्तित्व की विद्वत्ता, संयमदृढ़ता और वाक कुशलता ने पाटण की राजसभास्थित सुप्रसिद्ध चैत्यवासी सूराचार्य के साथ वाद-विवाद में विजय माला धारणा करायी। सुप्रसिद्ध-विद्वान श्रीजिनविजयश्री ने इसी प्रसंग को लेकर लिखा है
___"शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों के उक्त व्यवहार में परस्पर बड़ा असामञ्जस्य देखकर और श्रमण भगवान महावीर उपदिष्ट श्रमणधर्म की इस प्रकार प्रचलित दशा से उद्विग्न होकर श्री जिनेश्वरसूरि ने इसके प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग प्रचारक तथा मुनिजनों का गण स्थापित किया और इन चैत्यवासियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरू किया। चौलुवय नृपति दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ कर उसमें विजय प्राप्त की। उनकी शिष्य सन्तति बहुत बड़ी और अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में फैली हुई थी। उसमें बड़े-बड़े विद्वान क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्याय आदि समर्थ साधु पुरुष हुए। नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि, संवेगरंगशाला आदि ग्रन्थों के प्रणेता श्री जिनचन्द्रसूरि, आदिनाथ चरित्र रचयिता श्री वर्द्धमान सूरि, पार्श्वनाथ चरित्र एवं महावीर चरित्र के कर्ता गुणचन्द्र गणि (अपरनाम देवचन्द्रसूरि) संघ पट्टकादि अनेक ग्रन्थों के प्रणेता श्री जिनवल्लभसूरि इत्यादि अनेकानेक बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान और शास्त्रकार जो उस समय उत्पन्न हुए वे इन्हीं जिनेश्वरसूरि के शिष्यों-प्रशिष्यों में थे।
चैत्यवासियों के गढ़ पाटण (गुजरात) की राजसभा में शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने और राजा द्वारा "आखरे-सच्चे हैं" कहने पर खरतर कहलाने लगे। और इन श्री जिनेश्वरसूरि का नाम मात्र पाटन में ही नहीं अपितु समस्त गुजरात, मारवाड़, मेवाड, मालव, पंजाब, सिन्ध आदि देशों में विख्यात हो गया। इस कार्य से अनेक चैत्यवासी आचार्य उपाध्याय और यति गणी आदि ने चैत्यवास का त्यागकर सुविहित मार्ग का अवलम्बन ले कठोर संयम का पालन करने में तत्पर बने। इनमें से कितने ही आपके शिष्य बने ? कितने ही आचार्यों ने अपने गच्छ गुरुपरम्परा में रहकर क्रियोद्धार किया। हजारों ही नहीं लाखों व्यक्तियों ने आपके व आपकी शिष्य परम्परा का त्याग, तप, संयम, और प्रभावशाली उपदेशों से चमत्कारी वासक्षेप से प्रभावित होकर जैनत्व धारण किया । मांस, मदिरा, शिकार आदि व्यसनों का त्यागकर
ओसवाल जाति में, श्रीमाल जाति में, सम्मिलित हो गये । वद्धं मान सूरि से लेकर शताब्दियों तक इस पट्ट परम्परा के आचार्यों ने जो जैन जाति में वृद्धि की वह जैन शासन को एक अनुपम और अभूतपूर्व
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
देन है । इतिहास तो इसका साक्षी है ही पर जीती, जागती, ओसवाल, श्रीमाल आदि कई जातियाँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । चैत्यवास उन्मूलन के साथ मन्दिर की व्यवस्थाओं, पूजा पद्धतियों में भी शास्त्रानुकूल परिवर्तन हुए । विधिचैत्य बने जिनमें रोशनियाँ दण्डिया रास आदि तथा रात्रि जागरण निषिद्ध किये गये । तरुणी स्त्रियों को प्रभु की पूजा निषिद्ध की गई । संध्या की आरती होने के तुरन्त बाद जैन मन्दिरों के द्वार 'मंगल' (बन्द) कर दिये जाते थे । मन्दिर की चौरासी आशातनाएँ न हों, इसका कठोरता से पालन होने लगा । सचमुच उस समय जैन शासन को, संघ को, जिन-प्रासादों को, पतन के गहरे गर्त से उद्धार करने और सनातन विशुद्ध श्रमण संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठित करने का भागीरथ कार्य स्वनामधन्य आचार्य जिनेश्वरसूरि ने किया, जो जैन इतिहास के स्वर्णक्षरों में अंकित है। इस परम्परा के अनेक बहुश्र त, कवि शासन प्रभावक, ग्रन्थकार साधु-साध्वी और गृहस्थ विद्वान विश्वविख्यात हो चुके हैं ।
इनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत छोटे से लेख में देने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । अतः इस परम्परा में सुप्रसिद्ध महान आचार्यों का, युग प्रवर्तक महान् आत्माओं का परिचय इस प्रकार है । सुविहित खरतरगच्छ के महान आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि थे। इनका परिचय ऊपर
आ चुका है । ये साहित्यकार भी थे । इन्हीं के पट्टधर श्री अभयदेवसूरि थे। जिन्होंने श्री स्तम्भनक पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट की तथा नवांगी टीकाकार के नाम से जगविख्यात हैं । इन्हीं की पंचाशक वृत्ति, उववाईसूत्र वृत्ति, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, षट्स्थान, भाष्य, आगम अष्टोतरी, जयतिहुअण स्तोत्र आदि अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं । इन्हीं के गुरुभ्राता श्री जिनचन्द्रसूरि थे । इनकी रचनाएँ (संवेगरंगशाला श्रावक विधि आदि अनेक हैं। इनके पद पर (श्री अभयदेवसूरि की आज्ञा से) श्री देवभद्रसरि ने चित्तौड़ में श्री जिनवल्लभरि को पद पर आचार्य बनाया। इन्होंने बागड़ देश में विचरण कर १०,००० अजैनों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। इन्होंने पिण्डविशुद्धि, षडशीति चतुर्थ कर्म-ग्रन्थ, संघपट्टक, सूक्ष्मार्थ विचार-सार आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। धारा नगरी के नृपति श्री नरवर्म को अपनी लोकोत्तर प्रतिमा से चमत्कृत किया।
इनके पट्टधर "बड़े दादाजी" के नाम से सुविख्यात जिनदत्तसूरि ने एक लाख तीस हजार अजैनों को जैन बनाया। अम्बिकादेवी ने युग-प्रधान पद दिया। सात राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। बावन वीर तथा चौंसठ योगनियाँ एवं भैरव आपके आज्ञाकारी भक्त थे। इनके विषय में नाहटा बन्धु लिखित चरित्र देखना चाहिये । गुरुदेव ने कई ग्रन्थों का सृजन किया है, जिनमें गणधर सार्द्ध शतक, उपदेश रसायन सम्यक्त्व ब्रतारोपण विधि (चैत्यवन्दन कुलक) गणधर, सप्तति, चर्चरी आदि प्रमुख हैं।
मणिधारी दादा के नाम से प्रसिद्ध श्री जिनचन्द्र सूरि इनके पट्टधर थे। जिन्होंने महत्तयाण जाति को जैन बनाया । महान सम्राट इन्द्रप्रस्थ के तोमरराज मदनपाल (अनंगपाल) को प्रभावित किया था । क्योंकि इस समय अनंगपाल दिल्ली के राजा थे, ऐसा इतिहासप्रसिद्ध है । (जैन साधु प्रायः पर्यायवाची शब्दों का या प्रचलित नाम की अपेक्षा उसका संस्कृत रूप ही अपनी रचनाओं में प्रयुक्त करते थे।) यह राजा आपका परमभक्त था ।
___अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की राज्यसभा में तथा अन्यत्र ३६ बार विजय प्राप्त करने वाले श्री जिनपतिसूरि भी महान विद्वान और प्रतिभाशाली युगवर आचार्य थे। इन्होंने संघ पट्टक वृति समाचारी आदि अनेक ग्रन्थों का सृजन किया। इनके पट्ट पर श्री जिनेश्वरसूरि द्वितीय विराजमान हुए । अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा और कई भव्यात्माओं की भागवती दीक्षा आपके कर-कमलों मे खण्ड ३/६
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क्रान्ति के विविध रूप तथा धार्मिक क्रान्तिकारक दर्शनाचार्य साध्वी शशिप्रभाश्री
सम्पन्न हुई । आपने "श्रावक धर्मविधि" नामक ग्रन्थ की रचना की । आपके पट्टधर जिनप्रबोधसूरि थे । इन्होंने "कातन्त्र व्याकरण" पर "दुर्गपदप्रबोध" नामक वृत्ति का निर्माण किया ।
आपके पट्टाधीश 'कलिकाल केवली विरुदधारक, अनेक राजाओं के प्रतिबोधक कुतुबुद्दीन बादशाह को प्रभावित करने वाले सुविहित नामधेय जिनचन्द्र हुए । इन्होंने कई दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, संघ यात्राएँ आदि धर्मकार्य करवाये । इनके समय के खरतरगच्छ सभी प्रकार से उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान था । ये मारवाड़, गुजरात, सिन्धु, पंजाब, सपादलक्ष, मरुस्थल, वागड़ (हरियाणा), दिल्ली, मथुरा, हस्तिनापुर आदि प्रदेशों में विचरे । इनके विषय में श्री जिनकुशलसूरि जो इन्हीं के पट्टधर थे लिखते हैं कि ये..........
द्धिये सरि गोयम स्वाई गुणेहिं वयरसामि गुरु । सीलेण थुलिभद्दो पभावणाए सुहत्थि ||
अर्थात् - वे ( कलिकाल केवली जिनवन्द्रसूरि ) लब्धियों से गौतम स्वामीरूप, विद्वत्ता आदि में स्वामी, शील में स्थूलिभद्र और शासन प्रभावना में आर्य सुहस्ति सुरि ( सम्राट सम्प्रतिराजा के गुरु ) जैसे थे ।
इनका जन्म स्थान समियाणा ( सिवाणा ) गोत्र छाजेड़ था । आठ वर्ष की बाल्यवय में मुनि बने थे । जन्म वि. सं. १३२४, दीक्षा १३३२ और आचार्य पद १३४१ में हुआ था । १६ वर्ष की किशोरावस्था में इतने विद्वान और सर्वगुण युक्त थे कि संघ की सर्वसम्मति से गुरु श्री प्रबोधसूरि ने इन्हें गच्छाधीश बना दिया था । अत्यन्त प्रभावशाली युगप्रधान आचार्य थे। इनके पट्ट पर स्थविराग्रणी आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने सर्वगुण सम्पन्न कुशलकीर्तिगण को स्थापित किया। वे श्री जिनकुशलसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । उस समय ७०० मुनिराज एवं २८०० साध्वियाँ खतरगच्छ में आपके आज्ञानुवर्ती थे ।
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इन्हीं के समकालीन महाविद्वान कवि शिरोमणि श्री जिनप्रभसूरि लघु खरतर शाखा में महाप्रभावशाली आचार्य थे । तत्कालीन तुगलक बादशाह फिरोजशाह और मोहम्मदशाह इनके परम भक्त थे । इनके बनाये विविध तीर्थ कल्प, विधिप्रथा तथा सैकड़ों स्तोत्र आज भी समुपलब्ध हैं नित्य अभिनव सुरचित स्तुति से प्रभु की स्तवना करके प्रत्याख्यान पारने की प्रतिज्ञा थी ।
इन्हीं कुशलसूरि ने ५०,००० अजैनों को जैन बनाया था। इनका आचार्यपद पाटण ( अणहिलपुर पट्टन ) में भारी समारोहपूर्वक हुआ था । आपका प्रामाणिक सम्पूर्ण चरित्र नाहटा बन्धुओं द्वारा लिखित सुप्राप्य है । इनका विहार क्षेत्र अधिकतर छोटी मारवाड़ - सिरोही, जालौर, सिवाणा आदि मरुस्थल, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर आदि प्रदेश तथा सिन्धु देश पंजाब आदि था । जैन दर्शन की भावना करने में भारी समर्थ आचार्य थे। आप आज भी छोटे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। देराउर (सिन्धु प्रदेश ) में इनका स्वर्गवास वि० सं० १३८६ में फागुन कृष्णा ५ का होने का उल्लेख प्राचीन पट्टावलियों में है । किन्तु प्रतिलिपिकारों के द्वारा अज्ञानवश ५ को १५ लिख दिया गया लगता है । और वर्तमान में कई वर्षों से फागुन बिदी अमावस्या ही प्रसिद्ध है । आप विद्वान, साहित्यकार और afa थे | आपकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं । उनमें चैत्यवन्दन कुलकवृत्ति, शान्तिनाथ चरित्र ( प्राकृत ) जिनचन्द्र चतुःसप्ततिका, पार्श्वस्तोत्र, यमक अलंकार युक्त आदिनाथ स्तोत्र, फलौदी पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि मुख्य हैं । श्री जिनकुशलसूरि के चरण और मूर्तियाँ हजारों ग्राम-नगरों में पूजी जाती हैं । राउर तो पाकिस्तान में रह गया किन्तु मालपुरा में तो आज भी उनका चमत्कारी
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स्थान जैन दादाबाड़ी, देश-विदेश में विख्यात है । जहाँ वर्ष भर सैकड़ों यात्री आते रहते हैं । और फागुन बदी अमावस्या को भारी मेला लगता है । पूजा, रात्रि जागरण, वरघोड़ा, स्वधार्मिक वात्सल्य आदि बड़ी धूमधाम से होते हैं। आपका प्रभाव इस कलिकाल में भी प्रत्यक्ष है । अनेक भक्तों के कष्टनिवारण करने के समाचार तो आज भी कई पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं । इनके भक्तों द्वारा रचित हजारों स्तवन जन-जन के मुख से सुने जाते हैं। इनकी महिमा के विषय में कुछ लिखना तो सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है । अनुमानतः पौने सात सौ वर्ष हो जाने पर भी दादा श्री जिनकुशल सूरि का नाम जैन जगत में सुविख्यात है । उनके जन्म की सप्तम शताब्दी उन्हीं के जन्म स्थान सिवाणा में मनाई गई । पुरानी दादावाड़ी के स्थान पर नवीन जिनमन्दिर सहित दादाबाड़ी का निर्माण हुआ है । मन्दिर में भगवान शंखेश्वर पार्श्वनाथ आदि की प्रतिमाएँ और दादावाड़ी में सभी दादागुरुओं की मूर्तियाँ स्थापित हो गयी हैं ।
पुरानी दादाबाड़ियों, स्तूपों, मूर्तियों एवं चरणपादुकाओं की संख्या लगभग १० हजार है । और दिनानुदिन वृद्धिंगत है। सैकड़ों गुरुदेव भक्तगण दादा के जाप पूजन गुणगान भक्ति कर रहे हैं । मनोवांच्छित पूर्ण करने में श्री दादागुरुदेव साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो कोई उन्हें जानता तक नहीं । यह सब उनके महान् प्रभाव के साक्षात् प्रमाण हैं ।
इसी परम्परा में भंडारों के संस्थापक, हजारों मूर्तियों की अंजनशलाका ( प्रतिष्ठाकारक) श्री जिनभद्रसूरि, नाकोडा तीर्थ संस्थापक श्री कीर्तिरत्नसूरि, बादशाह अकबर व जहाँगीर प्रतिबोधक, सैकड़ों शिथिलाचारी साधुओं को मत्थेरण (गृहस्थी वस्त्र धारण ) बना देने वाले महान् क्रियोद्धारक, चतुर्थ दादा श्री जिनचन्द्रसूरि, आठ अक्षरों के दस लाख अर्थ करने वाले अद्भुत विद्वान श्री समयसुन्दर जी गणि एक पूर्व का ज्ञान रखने वाले, द्रव्यानुयोग के, न्याय के, तत्त्वचर्चा के अनेक गद्य पद्यमय ग्रन्थों के रचयिता श्रीमद् देवचन्द्र गणि तथा योगिरान आनन्दघन आदि महापुरुष हुए हैं, जिनकी चरित्रतपोनिष्ठता, विद्वत्तादि गुण सौरभ से वीरशासन उद्यान सुरभित है । आज तक अनेक शासन प्रभावक, मुनिराज, साध्वियाँ, श्रावक, श्राविका आदि से यह परम्परा समृद्ध रही है और भविष्य में भी इस परम्परा को अखण्ड रखने वाले अनेक महानुभाव होंगे ।
इसी मंगलमय भावनापूर्वक विरमित होती हूँ ।
सज्जन वाणी
१. जिन्होंने सत्य को आचरण में उतारा है, जिनकी वाणी सत्य से ओतप्रोत है, जिनका मन भव्य चिंतन में लीन है वे संसार के पूज्यवान माने जाते हैं ।
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२. जिन्होंने अस्तेय व्रत धारण कर लिया, उन्हें सभी सम्पत्तियाँ अनायास मिलती हैं उनके जीवन में कभी दरिद्रता नहीं आती । और वे सभी के विश्वासपात्र बन जाते हैं ।
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मंजुल विनयसागर जैन
खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय
यह निर्विवाद सत्य है कि यशोलिप्सा और शारीरिक सुविधावाद आदि ऐसी मानवीय दुर्बलताएँ हैं कि इसके घेरे में आकर अच्छे से अच्छे व्रती और तपस्वी भी अपने आत्मिक मार्ग से फिसल जाते हैं। यह दुर्बलताएँ यह भेद नहीं करतीं कि यह साधु है या साध्वी, श्रावक है या श्राविका, व्रती है या अबती। तनिक-सी फिसलन भी क्रमशः अपना व्यूह बनाकर बृहद् रूप धारण कर लेती है । फलतः मानव उस फिसलन की गर्त में धीमे-धीमे बढ़ता जाता है और उसका ऐसा आदी हो जाता है कि उसको धर्म के आवरण में लपेटना चाहता है। इसी के प्रतिफलस्वरूप जीवन में शिथिलाचार बढ़ता जाता है। जिस शिथिलाचार का आचार्य वर्धमान और आचार्य जिनेश्वर ने सक्रिय विरोध किया था और सुविहित/संविग्न परम्परा की नींव रखी थी वह शताब्दियों तक फलती-फूलती रही। धीरे-धीरे शिथिलाचार ने इसमें प्रवेश करना प्रारम्भ किया। इसी के प्रतिकार रूप में अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने संवत् १६१४ में क्रियोद्धार किया। पुनः इसमें शिथिलता के बीज पैदा हुए । संवत् १६९१ में समयसुन्दरोपाध्याय ने क्रियोद्धार किया। धीमे-धीमे पुनः इसमें विकृतियाँ आने लगी तो इसके प्रतिकारस्वरूप कई क्रियापात्र साधुओं ने समय-समय पर क्रियोद्धार किया। इन क्रियोद्धारक साधुवर्ग की परम्परा वर्तमान समय में संविग्न परम्परा कहलाई। इस समय में यह संविग्न परम्परा ३ महापुरुषों के नाम से खरतरगच्छ में प्रसिद्ध हैं :
१. सुखसागरजी म० का समुदाय, २. कृपाचन्द्रजी म० का समुदाय और ३. मोहनलालजी म० का समुदाय । अतः इन तीन समुदायों का यहाँ संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना अभीष्ट है।
सुखसागरजी म. का समुदाय सुखसागरजी म. की परम्परा में यह एक विशेष बात है कि वे अपनी परम्परा को "क्षमा कल्याणजी म. की वासक्षेप" के नाम से मानती आ रही हैं, अतः सुखसागरजी म. की परम्परा का वस्तुतः अभ्युदय महोपाध्याय क्षमाकल्याणजी म. से ही प्रारम्भ होता है। इसी कारण इस परम्परा का परिचय क्षमाकल्याणजी के दादागुरु उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से प्रारम्भ करते हैं।
(१) उपाध्याय प्रीतिसागरगणि प्रीतिसागर गणि आचार्य जिनभक्तिसूरि के शिष्य थे। आपका जन्म नाम प्रेमचन्द था। दीक्षा
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योगीन्द्र
आर्यपुत्र श्री उदयसागर सूरिजी
खरतरगणाधीश्वर श्री सुखसागर सूरिजी
श्रीमज्जितकवीन्द्रसागरसूरिजी
वीरपुत्र श्रीमज्जिन आनन्दसागर सूरिजी
युगप्रधानदादा श्रीजिनकुशल सूरिजी
तपस्वी श्री छगनसागर सूरिजी
अनुयोगाचार्य
शान्तमूर्ति श्री जिनकान्तिसागर सूरिजी श्रीमज्जिन हरीसागर सूरिजी
गणाधीश्वर श्री हेमेन्द्रसागर सूरिजी
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नन्दी सूची के अनुसार इनकी दीक्षा १७८८ माघ बदी तेरस को सिणधरी में हुई थी । संवत् १८०१ में ये श्री जिनभक्तिसूरिजी के साथ राधनपुर में थे। जिनभक्तिसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् १८०४ से ये श्री निलाभसूरि के साथ भुजनगर, गूढा और जैसलमेर में रहे । संवत् १८०८ कार्तिक बदी तेरस को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ । संवत् १८५२ में प्रतिष्ठित आपकी चरण पादुकाएँ जैसलमेर में है ।
(२) वाचक अमृतधर्म गणि
आपका कच्छ निवासी ओस वंशीय वृद्ध शाखा में जन्म हुआ था । आपका जन्म नाम अर्जुन था । संवत् १८०४ फागुन सुदी एकम को भुज नगर में श्री जिनलाभसूरि के कर कमलों से दीक्षित होकर श्री प्रीति सागर गणि के शिष्य बने थे । अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं । सिद्धान्तों के योगोदवह्न किये थे। संवत् १८२७ में जिनलाभसूरि ने इनको वाचनाचार्य पद दिया था । संवेग रंग से आपकी आत्मा ओत-प्रोत होने से संवत् १८३८ माघ सुदी पांचम को सर्वथा परिग्रह का त्याग कर दिया था । १८४० तक तत्कालीन आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी के साथ रहे । संवत् १८४३ में पूर्व देश की ओर विचरण किया, तीर्थयात्राएँ कीं और धर्मप्रचार किया। आपके उपदेश से कई नवीन जिनालय बने, कई प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न हुए । संवत् १८४८ में पटना में स्थूलभद्रजी की देहरी की प्रतिष्ठा करवाई। संवत् १८५० का चातुर्मास बीकानेर में किया और १८५१ का चातुर्मास जैसलमेर करने के पश्चात् माघ सुदी आठम को जैसलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। वहाँ आपके चरण प्रतिष्ठित हैं ।
(३) उपाध्याय क्षमाकल्याण
बीकानेर के निकटवर्ती केसरदेशर गाँव के मालू गोत्र में संवत् १९८०१ में इनका जन्म हुआ था । इनका जन्म नाम खुशालचन्द था । संवत् १८१२ से अमृतधर्म गणि के पास रहकर अध्ययन करने लगे और संवत् १८१६ मैं आषाढ़ बीज 'को जैसलमेर में श्री जिनलाभसूरि जी के करकमलों से दीक्षित होकर अमृतधर्म गणि के शिष्य बने । दीक्षा नाम क्षमाकल्याण रखा गया । इन्होंने विद्याध्ययन उपाध्याय राजसोम और उपाध्याय रामविजय ( रूपचन्द ) के सान्निध्य में रहकर किया था। इनका विचरण श्री जिनलाभसूरि व श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ ही अधिकांशतः हुआ । संवत् १८२४ में बीकानेर, १८२६ से १८३३ तक गुजरात, काठियावाड़ और १८३४ में आबू व मारवाड़ के तीर्थों की यात्रा करते हुए जैसलमेर आये तथा १८४० तक वहीं रहे । ९८४३ में बंगाल और बालूचर में चातुर्मास किया । वहाँ भगवती सूत्र आगम की वाचना की । १८४८ तक पूर्व देश में विचरण कर धर्म प्रचार करते रहे ।
संवत् १८५५ में जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको वाचक पद से और श्री जिनहर्षसूरि ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया । गच्छ में वयोवृद्ध एवं गीतार्थ होने के कारण यह महोपाध्याय कहलाये ।
संवत् १८३८ में आपने क्रियोद्धार किया था और साधु परम्परा के लिये कई विशिष्ट नियम निर्धारित किये थे । संवत् १८७३ पौष बदी चौदस मंगलवार को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ । बीकानेर की रेलदादाजी में आपकी चरण पादुका व सीमंधर जिनालय तथा सुगनजी के उपाश्रय में मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं ।
आपके कई चमत्कार भी प्रसिद्ध हैं । कहा जाता है कि जोधपुर के महाराजा ने जब जैसलमेर पर आक्रमण किया था तथा जैसलमेर के महारावल की प्रार्थना पर क्षमाकल्याणजी ने सर्वतोभद्र यंत्र लिखकर दिया था । इस यन्त्र के प्रताप से ही महारावल विजयी होकर आये थे । जैसलमेर के महारावल आपके परम भक्त थे ।
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खरतरगच्छ को संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जन - आप अपने समय के परम गीतार्थ एवं चिन्तनशील धुरन्धर विद्वान थे । आपके द्वारा निर्मित संस्कृत व भाषा के स्वतन्त्र ग्रन्थ, प्रश्नोत्तर ग्रन्थ एवं टीका ग्रन्थ प्राप्त होते हैं जिनमें से मुख्य-मुख्य हैंतर्क संग्रह फक्किका, गौतमीय काव्यवृत्ति, खरतरगच्छ पट्टावली, आत्मप्रबोध, सूक्तिरत्नावली सटीक, प्रश्नोत्तर सार्ध शतक, साधु एवं श्रावक विधि प्रकाश, यशोधर चरित्र एवं श्रीपाल चरित्र टीका तथा चातुर्मासिक, अष्टाह्निका आदि पाँच व्याख्यान । आपके प्रमुख शिष्य थे--कल्याणविजय, विवेकविजय, विद्यानन्दन, और धर्मविशाल ।
(४) धर्म विशालजो (धर्मानन्द) इनकी दीक्षा संवत् १८७० ज्येष्ठ बदी छठ को जयपुर में हुई । इनका दीक्षा नाम धर्मविशाल रखा गया किन्तु ये धर्मानन्द के नाम से ही प्रसिद्ध रहे । आपने संवत् १८७४ आषाढ शुक्ल छठ को बीकानेर रेलदादाजी में क्षमाकल्याण उपाध्याय के चरण प्रतिष्ठित किये। इन्हीं के उपदेश से भाण्डासर मन्दिर के अहाते में सीमंधर स्वामी के जिनालय का निर्माण हुआ। संवत् १८८६ में माघ सुदी पांचम को बीकानेर में राजाराम को दीक्षित किया, रत्नराज नाम रखा । सम्भवतः यही भविष्य में राजसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। संवत् १६१२ में सुगुण को शिष्य बनाया और दीक्षा ना. सुमतिमंडन रखा। यह अच्छे विद्वान और कवि थे । इन्होंने पंचज्ञान, पंचपरमेष्ठी आदि दसों पूजाएँ बनाकर पूजा साहित्य
की प्रशंसनीय अभिवद्धि की थी। बीकानेर का स्थान आज भी सुगनजी के उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध है। ., इन्हीं के प्रयत्न से शिववाडी में मन्दिर की स्थापना हुई थी । संवत् १६२८ ज्येष्ठ बदी दूज को धर्मानन्दजी
के चरण रेलदादाजी में सुमतिमण्डन द्वारा प्रतिष्ठित प्राप्त हैं। अतः इसके आसपास ही धर्मानन्दजी का स्वर्गवास हुआ होगा । अन्तिम व्यवस्था में धर्मानन्दजी के आचार-व्यवहार में कुछ शिथिलता आ गई थी।
(५) राजसागरजी इनका जन्मनाम राजाराम था। धर्मानन्दजी के पास १८८६ माघ सुदी पांचम को दीक्षा ग्रहण की और राजसागर नाम प्राप्त किया। ये प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने अनेक मानवों को मांस-मदिरा का त्याग करवा कर दुर्व्यसनों से मुक्त कराया था और शुद्ध धर्म प्रदान किया था। इनके सम्बन्ध में विशेष इतिवृत्त प्राप्त नहीं है।
(६) ऋद्धिसागरजी इनका भी कोई परिचय प्राप्त नहीं है। ये उच्चकोटि के विद्वान थे, साथ ही चमत्कारी मन्त्रवादी भी । वृद्ध जनों से ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र-शक्ति से इन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाश गमन कर सकते थे। आबू तीर्थ की अंग्रेजों द्वारा आशातना देखकर इन्होंने विरोध किया था। राजकीय कार्यवाही में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे। और अन्त में तीर्थरक्षा हेत गवर्नमेन्ट से ११ नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे। त्रिस्तुतिक प्रसिद्ध आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि और तपागच्छ के प्रौढ़ आचार्य झवेरसागरजी का जब चतुर्थ स्तुति के सम्बन्ध में शास्त्रार्थ हुआ तो उस शास्त्रार्थ के निर्णायकों में वाराणसी के दिङ मण्डलाचार्य बालचन्द्राचार्य और ऋद्धिसागरजी ही थे । संवत् १६५२ में आपका स्वर्गवास हुआ।
(७) गणाधीश सुखसागरजी इनका जन्म सरसा में १८७६ में हुआ था। दूगड़ गोत्रीय मनसुखलालजी इनके पिता थे और माता का नाम था जेतीबाई । युवावस्था में माता-पिता का वियोग हो जाने पर ये जयपुर में आकर
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अपनी बहन के पास रहने लगे थे और किराने का व्यापार करने लगे थे। कुछ ही दिनों में अपनी व्यावहारिक कुशलता के कारण जयपुर के प्रसिद्ध सेठ माणकचन्दजी गोलेच्छा के ये मुनीम नियुक्त हुए।
संवत् १६०६ में जयपुर में ही मुनि श्री राजसागरजी और ऋद्धिसागरजी का चातुर्मास हुआ। चातुर्मास के मध्य मुनिजनों के सम्पर्क में रहने के कारण इनका हृदय वैराग्यवासित हो गया। इसी के फलस्वरूप संवत् १६०६ में ही भादवा सुदी पांचम के दिन इन्होंने दीक्षा ग्रहण की, मुनि सुखसागर नाम रखा गया। दीक्षा का सारा महोत्सव सेठ माणकचन्दजी गोलेच्छा ने किया था। राजसागरजी ने इस नव दीक्षित सुखसागर को ऋद्धिसागरजी का शिष्य घोषित किया था।
गहन शास्त्र अध्ययन करने के पश्चात साधुजीवन में आई शिथिलता से उद्विग्न होकर संवत् १६१८ में क्रियोद्धार किया। इस समय आपके साथ आपके दो गुरु भाई भी थे, जिनके नाम पद्मसागरजी और गुणवन्तसागरजी थे । क्रियोद्धार के पश्चात् शत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर फलौदी पधारे।
इधर साध्वी रूपश्री की शिष्याएँ उद्योतश्री जी, धनश्री जी भी शिथिलाचार का त्याग कर १९२२ में फलौदी आई और संविग्न सुखसागरजी को अपना गुरु मानकर उनकी आज्ञानुवर्तिनी हो गईं। संवत् १९२४ में लक्ष्मीश्रीजी की दीक्षा हुई, सम्वत् १६२५ में भगवानदास नामक भव्य पुरुष ने इनके पास दीक्षा ग्रहण की और यही भगवानसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
___ कहा जाता है कि एक बार आपने स्वप्न में देखा कि 'पल्लवित बगीचे में कुछ बछड़ों के साथ गायों का झुण्ड वूम रहा है' इस स्वप्न के आधार पर इन्होंने भविष्यवाणी की थी कि समुदाय का विस्तार अवश्य होगा किन्तु उसमें साधु कम और साध्वियाँ अधिक होंगी। उनकी यह भविष्यवाणी पूर्णतः सफल हुई । आप आगम साहित्य के अच्छे विद्वान भी थे। जीवाजीव राशि प्रकाश, बासठ मार्गणा यन्त्र एवं अष्टक आदि कई कृतियाँ आपकी प्राप्त हैं।
सम्वत् १९४२ माघ बदी ४ (२३ जनवरी १८८६) के दिन प्रातःकाल फलौदी में आपका स्वर्गवास हुआ। वर्तमान में आपने जो सुविहित मार्ग का पुनरुद्धार किया था, इसी कारण इनका समुदाय परम्परा सुखसागर जी म. के समुदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज भी प्रसिद्धि के शिखर पर है।
(८) गणाधीश भगवानसागर जी ये रोहिणी गाँव के निवासी थे और जसाजी जाट के पुत्र थे। सुखसागरजी के उपदेश से प्रतिबोध पाकर आपने सम्वत् १९२५ में दीक्षा ग्रहण की थी। सुखसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर आप समुदाय के गणाधीश बने । अन्तिम अवस्था में आपने अपने भतीजे हरीसिंह के लिए छगनसागरजी को निर्देश दिया था कि इसको योग्य अवस्था में दीक्षा प्रदान करना । सम्वत् १६५७ ज्येष्ठ कृष्णा चौदस को आपका स्वर्गवास हो गया। इनके सात शिष्य हुए, जिनमें से प्रमुख तीन थे-सुमतिसागरजी, त्रैलोक्य सागरजी और हरिसागरजी। इनके कार्यकाल में सात साधु और ४१ साध्वियाँ हुईं।
(६) तपस्वी छगनसागर जी भगवानसागर जी के पश्चात् इस समुदाय के अधिपति छगनसागर जी हुए । इनका जन्म १८६६ में फलौदी में हुआ था। आपके पिता का नाम था सागरमलजी गोलेच्छा और माता का नाम था चन्दन
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खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन बाई | अखेचन्दजी झाबक की पुत्री चुन्नीबाई से आपका पाणिग्रहण हुआ था जिससे तीन पुत्र व एक पुत्री हुई थी।
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साध्वीरत्नों के उपदेश व प्रयत्न से प्रतिबोध पाकर सम्वत् १६४३ वैशाख सुदि दशमी को पत्नी के साथ इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षादाता थे भगवानसागर जी । भगवानसागरजी ने इनको श्री राजसागर जी के पौत्र श्री स्थानसागरजी का शिष्य घोषित किया। ये सिद्धान्तों के अच्छे जानकार थे और महातपस्वी भी थे । भगवानसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर आपने इस समुदाय का भार सम्भाला । आपके कार्यकाल में ६८ साध्वियों ने दीक्षा ग्रहण की । अन्त में आपने ५२ उपवास किये जिसमें ४० उपवास जन के साथ थे और १२ उपवास निर्जल थे । इसी की पूर्णाहुति में सम्वत् १९६६ द्वितीय श्रावण सुदि छठ को लोहावट में आपका स्वर्गवास हो गया । सम्वत् १६७० में लोहावट में आपकी पादुकाएँ स्थापित की गयीं ।
महातपस्वी छगनसागर जी के स्वर्गवास के पश्चात् संघ ने भगवानसागरजी के प्रमुख शिष्य सुमतिसागरजी से (जो कि उस समय खान देश में थे ) गच्छभार संभालने का अनुरोध किया था, किन्तु सुमतिसागरजी ने अपनी अनिच्छा प्रदर्शित करते हुए त्रैलोक्यसागरजी को सौंपने का आग्रह किया ।
(१०) त्रैलोक्यसागरजी
जैसलमेर राज्यान्तर्गत गिरासर निवासी पारख गोत्रीय जीतमलजी के पुत्र रूप में इनका जन्म संक्त् १९१८ में हुआ । इनका जन्म नाम चुन्नीलाल था । इनकी बड़ी बहन पन्ना बाई थी, जो कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पुण्यश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध हुई थी । अपनी बड़ी बहन पुण्यश्रीजी के प्रयत्न से ही चुन्नीलाल जी ने संवत् १६५२ ज्येष्ठ सुदि सातम को भगवानसागरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम रखा गया त्रैलोक्यसागर ।
महातपस्वी छगनसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर एवं अपने बड़े गुरु भ्राता सुमतिसागरजी का आदेश प्राप्त कर इन्होंने समुदाय का आधिपत्य स्वीकार किया। सं० १९६६ में आपका कोटा में चातुर्मास हुआ । वहाँ ज्ञानसुधारस धर्म सभा की स्थापना की । परासली तीर्थ यात्रा हेतु डग, गंगधार और सीतामहु से तीन संघ निकलवाये । संवत् १६७० में विमलश्रीजी के प्रयत्न से जैसलमेर का संघ निकलवाया । सुजानगढ़ प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए । लोहावट में छगनसागर जैन पाठशाला खुलवाई । संवत् १६७४ श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को लोहावट में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके समय में इस समुदाय की साधुसाध्वियों की संख्या में काफी अधिक वृद्धि हुई ।
(११) जिनहरिसागरसूरि
इनका जन्म नागौर जिले के रोहिणा गाँव में संवत् १६४६ मिगसर सुदि सातम को हुआ था । इनके पिता जमींदार झूरिया जाट हनुमन्तसिंह जी थे और माता थी केसरदेवी । इनका जन्म नाम हरि सिंह था । ये पांच भाइयों में तीसरे नम्बर के थे । भगवानसागरजी म. के ये भतीजे होते थे । भगवान सागरजी ने अन्तिम समय में अपनी इच्छा छगनसागरजी के सम्मुख जाहिर की थी कि 'इसको योग्य समय पर दीक्षा दे देना' तदनुसार निर्देश का पालन करते हुए छगनसागरजी ने संवत् १६५७ आषाढ़ वदि पाँचम के दिन फलौदी में दीक्षा प्रदान की और दीक्षा नाम रखा हरिसागर तथा भगवानसागरत्री का शिष्य घोषित किया । संवत् १९७४ में गणाधीश त्रैलोक्यसागरजी का स्वर्गवास हो जाने पर इन्होंने समुदाय का नेतृत्व संभाला ।
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आप इतिहास और साहित्य के प्रेमी, सरल स्वभावी और अच्छे विद्वान् थे । आपके समय में इस समुदाय में साधु-साध्वियों की काफी बढ़ोतरी हुई । आपने अपने जीवनकाल में सभी प्रदेशों में विचरण किया, तीर्थ यात्राएँ कीं । प्रतिष्ठा, उद्यापन, संघयात्रा, साहित्य उद्धार आदि अनेक श्लाघनीय कार्य किये। शत्रुञ्जय तीर्थ पर नई खरतरवसही पर प्रयत्न करके आनन्दजी कल्याणजी की पेढी द्वारा वापस पाटिया लगवाया।
सुजानगढ़ जिनमन्दिर की, केलु ऋषभदेव पंचायती मन्दिर की, मोहनबाड़ी पार्श्वनाथ स्वामी की, हाथरस दादाबाड़ी की और लोहावट में गुरु मन्दिर की आपने प्रतिष्ठायें करवाई। आपके कार्यकाल में अनेकों उद्यापन महोत्सव हुये । आपके उपदेश से ही जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम, पालीताणा, खरतरच्छ ज्ञानमन्दिर जैनशाला, जामनगर, हरिसागर जैन पुस्तकालय, लोहावट और हरिसागर जैन ज्ञान मन्दिर बालुचर आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई।
___ संवत् १९६२ में आप शिष्य परिवार सहित अजीमगंज पधारे । उस समय में श्री संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया। तभी से आप जिनहरिसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
आपको मूर्ति लेख संग्रह का, ग्रंथों की प्रशस्तियों के संग्रह का और शास्त्रों की प्राचीन प्रतिलिपियों के आधार पर प्रतिलिपियाँ तैयार करवाने का बड़ा उत्साह था। कई प्रतिलिपिकार निरन्तर आपके पास रहकर प्रतिलिपि करते रहते थे और आप स्वयं उनका मिलान करते थे । सैकड़ों प्राचीन प्रतियों की आपने प्रतिलिपियाँ करवाकर अपने लोहावट के ज्ञान भण्डार को समृद्ध किया था। चारों दादा साहब की पूजायें और तपस्वी छगनसागरजी का जीवन चरित्र आदि आपकी कृतियें प्रकाशित हैं। फलौदी पार्श्वनाश तीर्थ में पार्श्वनाथ विद्यालय की स्थापना भी की थी। संवत् २००६ पोष वदि आठम मंगलवार को फलौदी पार्श्वनाय तीर्थ में ही आपका स्वर्गवास हुआ था।
(१२) जिनानन्दसागरसूरि श्रीजिनहरिसागरसूरि जी म. के स्वर्गवास के पश्चात् गणनायक के रूप में श्री जिनानन्दसागरसूरिजी हुए । इनका जन्म संवत् १९४६ आषाढ सुदि बारस को सैलाना में हुआ था। इनके मातापिता थे कोठारी तेजकरणजी और केसरदेवी । इनका जन्म नाम यादव सिंह था। प्रवर्तिनी श्री ज्ञान श्रीजी म० से प्रतिबोध पाकर बाईस वर्ष की अवस्था में तत्कालीन गणनायक श्री त्रैलोक्यसागरजी म. नेपाल आप दीक्षित हुए । दीक्षा महोत्सव दोवान बहादुर सेठ श्री केसरसिंहजी बाफना ने किया था। इनका दीक्षा नाम आनन्दसागर था किन्तु वे वीर पुत्र के नाम से ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुये।
आपका संस्कृत, हिन्दी, और अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार था । अपने समय के आप प्रखर वक्ता थे । आपने ही प्रवर्तिनी श्री बल्लभश्रीजी, प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्रीजी एवं प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी आदि साध्वियों को प्रवचन शैली का अभ्यास कराकर प्रवचनपटु बनाया था। आपने अपने जीवन काल में सुखचरित्र, हिन्दी कल्पसूत्र, द्वादशपर्व, श्रीपाल चरित्र सप्त व्यसन निषेध, आगमसार आदि अनेक ग्रन्थ लिखे थे' आनन्दविनोद' (स्तवनादि) एवं अनेक निबन्ध-विद्या विनय विवेक अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि की रचना की थी । आगमसार आदि छोटी-मोटी ४६ पुस्तकें प्रकाशित करवाई थीं। सैलाना नरेश आपके सहपाठी थे, अतः उन्हीं के अनुरोध पर सैलाना में आनन्दज्ञान मन्दिर की स्थापना
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की थी । श्री जिनहरिसागरसूरि जी म० का स्वर्गवास हो जाने के बाद संवत् २००६ माघ सुदि पाँचम को प्रतापगढ़ में खरतरगच्छ संघ द्वारा आपको आचार्य पद पर स्थापित किया गया था।
संवत् २०११ में अजमेर में आपकी ही अध्यक्षता में दादा श्री जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी समारोह के समय साधु सम्मेलन हुआ था । आपकी ही प्रेरणा से अखिल भारतीय जिनदत्त सूरि सेवा संघ की स्थापना हुई । आपने अनेकों को दीक्षा प्रदान की, प्रतिष्ठायें, अन्जनशलाका करवाईं। तीर्थ यात्रा संघ आदि निकलवाये । यात्रा संघों में प्रमुख हैं-फलौदी से जैसलमेर, इन्दौर से माण्डवगढ़, माण्डवी से भद्र श्वर तीर्थ और माण्डवी से सुथरी तीर्थ ।
संवत् २०१६ वैशाख सुदि छठ को सिद्धाचल तीर्थ पर दादाजी की टोंक पर नवनिर्मित देहरियों में आप ही ने प्राचीन चरणों की स्थापना करवाई थी । संवत् २०१६ का चातुर्मास आपका पालीताणा में ही हआ। उस समय वहाँ खरतरगच्छ के २६ मुनि एवं ३२ साध्वियाँ विराजमान थीं। इसी वर्ष जिनदत्तसूरि सेवा संघ का द्वितीय अधिवेशन भी हुआ । संवत् २०१७ पौष सुदि दशम को आपका पालीताणा में ही स्वर्गवास हुआ।
(१३) जिनकवीन्द्रसागर सूरि आपका जन्म पालनपुर में संवत् १९६४ चैत्र सुदि तेरस के दिन हुआ था। आपके पिता थे निहालचन्द शाह और माता थी बब्बूबाई । दस वर्ष की अवस्था में आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। साध्वी श्री दयाश्रीजी की प्रेरणा से अध्ययन हेतु आप हरिसागरजी म० के पास कोटा आ गये । इनका हृदय वैराग्यवासित होने के कारण श्री हरिसागरजी म० ने संवत् १६७६ फाल्गुन वदि पाँचम को जयपुर में दीक्षा प्रदान की और दीक्षा नाम रखा मुनि कवीन्द्रसागर ।
आप संस्कृत साहित्य के दिग्गज विद्वान् तो थे ही, साथ ही प्रतिभासम्पन्न आशु कवि भी थे। आपकी आवाज भी बुलन्द थी और ववतृत्व शैली भी अनोखी थी। आपके द्वारा संस्कृत या हिन्दी भाषा में कोई महाकाव्य या विशिष्ट बड़ी कृति तो प्राप्त नहीं है, किन्तु संस्कृत और हिन्दी भाषा में स्तोत्र, चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ और भजन आदि शताधिक संख्या में प्राप्त हैं। आपके द्वारा निर्मित प्रमुख कृतियाँ हैं-रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा, महावीर पूजा, चौंसठ प्रकारी पूजा, चैत्री पूर्णिमा व कार्तिकी पूर्णिमा विधि, उपधान तप, बीस स्थानक तप, वर्षी तप, छम्मासी तप आदि की देववन्दन विधि । चारों दादा साहब की पूजाएँ एवं पचासों स्तवन इन्होंने गुरुभक्तिवश अपने पूज्य गुरुदेव के नाम से प्रकट की हैं। आप साधनाप्रिय भी थे और नगर के बाहर दादाबाड़ियों आदि में जाकर साधना भी किया करते थे। आपकी ही प्रेरणा से पालीताणा में 'हरि विहार' की स्थापना हुई।
जिनानन्दसागरसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् २०१७ चैत्र वदि सातम के दिन खरतरगच्छ संघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित कर जिनकवीन्द्रसागरसूरि नाम रखा। यह महोत्सव अहमदाबाद में सम्पन्न हुआ था। किन्तु, संघ का दुर्भाग्य था कि वे अधिक समय तक संघ की सेवा न कर सके । सम्वत् २०१७ फाल्गुन सुदि पांचम को अचानक हृदय गति बन्द हो जाने से बूटा में आपका स्वर्गवारा हो गया था।
(इनका विस्तृत जीवन वर्णन पृथक् लेख में प्रकाशित है।)
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(१४) महोपाध्याय समतिसागर जी जैसाकि पूर्व में संकेत किया जा चुका है कि गणनायक भगवानसागर जी म. के प्रमुख शिष्य सुमतिसागरजी थे। इनका जन्म सं० १६१८ में नागौर में हुआ था। रेखावत गोत्रीय थे और नाम था सूजाणमल । शादी भी हुई थी। पुत्री भी थी, जिसका भविष्य में विवाह धनराज जी बोथरा के साथ हआ था। पुत्री की पुत्री का विवाह नागौर के ही सरदारमल जी समदड़िया के साथ हुआ था। वैराग्य रंग लग जाने से २६ वर्ष की अवस्था में घर-बार, पत्नी एवं पुत्री का त्याग कर सं० १९४४ वैशाख सूदी ८ के दिन सिरोही में भगवानसागरजी म. के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने । दीक्षावस्था का नाम था-मुनि सुमतिसागर । तत्कालीन गणनायक छगनसागरजी म. का स्वर्गवास होने पर संघ की बागडोर सम्भालने के लिये संघ ने सुमतिसागरजी से निवेदन किया था, किन्तु सुमतिसागरजी ने जो कि उस समय खानदेश में थे, अपने लघु गुरुभ्राता श्री त्रैलोक्यसागरजी को गणनायक बनाने का अनुरोध किया। सम्वत् १९७२ में बम्बई में आचार्य श्री कृपाचन्द्रसूरि ने सुमतिसागरजी को उपाध्याय पद-प्रदान किया था और सम्वत् १९७६ में इन्दौर में सुमतिसागरजी को महोपाध्याय पद से अलंकृत किया था। सम्वत् १९९४ में आपका अचानक हृदय गति रुक जाने से कोटा में ७६ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुआ था।
(१५) जिनमणिसागरसरि महोपाध्याय सूमतिसागरजी के प्रमुख शिष्य थे जिनमणिसागरसूरि । सम्वत् १९४३ में वीसा पोरवाल जाति के परिवार में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम था गुलाबचन्दजी और माता का नाम था पानीबाई; जो कि बांकड़िया बडगांव के रहने वाले थे। इनका जन्म नाम था मनजी। सम्बत १९६० में जब मनजी पालीताणा की यात्रा पर गये तो यात्रा करते समय ही इनमें वैराग्यरंग जागृत हआ और १६६० में ही वैशाख सुदी द्वितीया को सिद्धाचल तीर्थ पर ही सुमतिसागरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । इनका दीक्षा नाम रखा गया मुनि मणिसागर । सम्वत् १९६४ में मुनि मणिसागरजी ने योगीराज चिदानन्दजी (द्वितीय) लिखित 'आत्मा भ्रमोच्छेदन भानु' नामक पुस्तक जो कि ८० पृष्ठ की थी, उसे विस्तृत कर ३५० पृष्ठों में पूर्ण की और चिदानन्दजी के नाम से ही प्रकाशित की। यह थी आपकी साहित्य निश्छलता और निरभिमानता।
उन्हीं दिनों सम्मेतशिखर महातीर्थ के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में केस चल रहा था। मणिसागरजी ने सम्मेतशिखर में रहकर एक माह तक कठोर अनुष्ठान किया। फलतः सम्मेतशिखर के केस में श्वेताम्बर समाज को सफलता प्राप्त हुई।
सम्वत् १९६६ में मुनि विद्याविजयजी ने खरतरगच्छ की मान्यताओं पर जब दोषारोपण किया तो मणिसागरजी ने प्रारम्भ में प्रत्युत्तर के रूप में एक छोटी सी पुस्तिका लिखी और उसी का विस्तार रूप 'बहद् पर्यषणा निर्णय' और 'षटकल्याणक निर्णय' था। इन दोनों पुस्तकों ने खरतरगच्छ को मान्यताओं को सबल आधार दिया और शास्त्रानुसार स्थायी रूप दिया।
सम्वत् १९७२ में जब कृपाचन्द्रजी म. को आचार्य पद दिया गया। जिनकृपाचन्द्र सूरि ने उस समय सुमतिसागरजी को उपाध्यायपद और मणिसागरजी को पण्डित पद प्रदान किया। इसी वर्ष बम्बई में तपागच्छ के धुरन्धर विद्वान् श्री सागरानन्दसूरि और श्री बल्लभविजयजी (विजयवल्लभसूरि) आदि ने खरतरगच्छ की मान्यताओं पर आरोप करते हुए कई बुलेटिन निकाले ।
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खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
पण्डित मणिसागरजी ने भी बुलेटिनों के द्वारा उनका सचोट उत्तर दिया और शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया । सप्रमाण सचोट उत्तर मिलने के कारण तपागच्छ के आचार्य उत्तर न दे सके और न शास्त्रार्थ के लिये आगे ही आये । इसी प्रकार इन्दौर में जब सागरानन्दसूरि और विजयधर्मसूरि के बीच देव द्रव्य का विवाद चल रहा था तब पण्डित मणिसागरजी ने विजयधर्मसूरि को भी शास्त्रार्थ के लिये ललकारा और इसी समय इसी प्रसंग पर उन्होंने 'देव द्रव्य निर्णय' नामक पुस्तक लिखी । इन्दौर में ही मुखस्त्रिका के प्रसंग को लेकर स्थानकवासी समाज के प्रमुख विद्वान् और प्रसिद्ध वक्ता मुनि चौथमल जी को भी शास्त्र चर्चा के लिये आमन्त्रित किया, किन्तु वे भी समझ न आये । अन्त में पण्डित मणिसागर जी 'मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधना अशास्त्रीय है ।' का प्रतिपादन करने वाली 'आगमानुसार मुंहपत्ती का निर्णय' पुस्तक प्रकाशित की। इसी प्रकार जब मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने 'साध्वियों को व्याख्यान देने का अधिकार नहीं है' पुस्तिका लिखी तो इसके प्रत्युत्तर में शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर इन्होंने पुस्तिका लिखी थी 'साध्वी व्याख्यान निर्णय ।'
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इनके उपदेश से कोटा में श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय और जैन प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना हुई । कल्पसूत्र आदि पाँच-छह आगमों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए ।
सम्वत् १९६८ का इनका चातुर्मास जयपुर में हुआ था और यहीं पर इन्होंने सुखसागरजी म. के समुदाय में सर्वप्रथम उपधान तप करवाया था । सम्वत् १६६६ में ही श्री कल्याणमलजी गोलेच्छा को बड़ी कठिनता से समझा कर उनकी पत्नी को नथमलजी के कटले में ही बड़े महोत्सव के साथ दीक्षित किया था और दीक्षा नाम सज्जनश्री जी रखा था, जो कि इस समय प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर रही हैं और जिनका इस समय अभिनन्दन महोत्सव होने जा रहा हैं ।
सम्वत् २००० का आपका चातुर्मास बीकानेर में हुआ । यहाँ भी उपधान तप करवाया, उपधान तप के मालारोपण महोत्सव के प्रसंग पर आचार्य जिनऋद्धिसूरिजी म. ने सम्वत् २००० पौष वदी एकम को उनको आचार्य पद से सुशोभित किया था ।
सम्वत् २००७ माघ वदी अमावस ६ फरवरी १९५१ को अकस्मात् ही आपका स्वर्गवास
हो गया ।
उनके प्रथम शिष्य थे मुनि विनयसागर जो बाद में गृहस्थ हो गये । उनके एक शिष्य और थे श्री गौतमसागरजी और गौतमसागरजी के शिष्य अस्थिर मुनिजी । इन दोनों का ही स्वर्गवास हो चुका है ।
(१६) जिन उदयसागरसूरि
श्री जनकवीन्द्रसागर सूरिजी के स्वर्गवास के पश्चात् समुदाय का भार गणि श्री हेमेन्द्रसागर जी के कन्धों पर आया । वे उसे सुचारु रूप से कार्यान्वित करते रहे। उनका भी सूरत में स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् समाज में यह अभाव विशेष रूप से खलने लगा कि गच्छ में कोई आचार्य ही नहीं है । फलतः अखिल भारतीय जैन श्वेताम्वर खरतरगच्छ महासंघ ने निर्णय लिया कि अब आचार्य पद रिक्त न रखकर दोनों ही मुनि गणों को आचार्य बना दिया जाय। फलतः सन् १९८२ में जयपुर में आचार्य पद महोत्सव हुआ और संघ ने एक साथ दो आचार्य बनाये – जिनउदयसागरसूरि एवं जिनका न्तिसागरसूरि । आप दोनों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
जिनउदयसागरसूरिजी का गृहस्थावस्था का नाम था देवराज भंडारी । इनके माता-पिता का नाम था श्री सुल्तानकरणजी भंडारी एवं श्रीमती जतन देवी । इनका जन्म सं० १९६० फाल्गुन वदि अमावस को सोजत में हुआ था। विक्रम संवत् १९८८ माघ सुदि पांचम को बीकानेर में २८ वर्ष की अवस्था में ही वीर पुत्र आनन्दसागरजी (जिनआनन्दसागरसूरि) के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने । दीक्षा नाम मुनि उदयसागर रखा गया था । १३ जून १९८२ को जयपुर नगर में श्री संघ ने आपको आचार्य पद से विसूषित किया। तभी से आप जिनउदयसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हैं और तभी से इस सुख- . सागरजी महाराज के समुदाय के गणनायक पद का भार संभाला और समुदाय का नेतृत्व कर रहे हैं।
आप गूजराती, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आद्वि भाषाओं के अच्छे जानकार हैं। आपका विचरण क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश रहा है । आपने अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, आदि महोत्सव कराये हैं । आपके नेतृत्व में कई उद्यापन भी हुए हैं । कई स्थानों पर नई दादाबाड़ियों का निर्माण और कई का जीर्णोद्धार भी करवाया है। कई पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन भी करवाया है जिसमें पंचप्रतिक्रमण सूत्र सविधि आदि मुख्य हैं । आप सरल स्वभावी हैं । वर्तमान में आप अपने शिष्यों-उपाध्याय महोदयसागरजी, पूर्णानन्दसागरजी, पीयूषसागरजी के साथ सिवनी में विराज रहे हैं।
(१७) जिनकान्तिसागरसूरि सन् १९८२ में जयपुर में जो दूसरे आचार्य बने वे थे जिनकान्तिसागरसूरि । इनका जन्म विक्रम संवत १९६८ माघ बदि एकादशी को रतनगढ़ में हुआ था। आपके पिता का नाम मुक्तिमलजी सिंघी था और माता का नाम था सोहनदेवी । आपका जन्म था तेजकरण/तोलाराम । रतनगढ़ में तेरापंथी संप्रदाय का प्राचुर्य एवं प्रभाव होने के कारण इनके माता-पिता तेरापंथी परम्परा को ही मानते थे । तत्कालीन तेरापंथी समुदाय के अष्टम आचार्य कालूगणि के पास इन्होंने अपने पिता के साथ ही (तेजकरण) दस वर्ष की बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा संवत था १९७८ ।
तेरापंथ में दीक्षित होने पश्चात् इन्होंने शास्त्र अध्ययन किया। प्रखर बुद्धि तो थी ही, साथ ही चितन भी प्रौढ़ था । फलतः मूर्तिपूजा, मुखवस्त्रिका, दया, दान आदि के सम्बन्ध में तेरापंथ संप्रदाय की मान्यताएँ इन्हें अशास्त्रीय लगीं और तेरापंथ संप्रदाय का त्याग कर संवत् १९८६ ज्येष्ठ सूदि तेरस के दिन अनूप शहर में गणनायक हरिसागरजी महाराज (जिनहरिसागरसूरिजी) के करकमलों से भागवती दीक्षा अंगीकार की। तभी से आप मुनि कान्तिसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
आप प्रखर वक्ता थे । वाणी में ओज था । श्रोताओं को मंत्र मुग्ध करने की आप में कला थी। भाषणों में कुरान शरीफ, बाइबल, गीता और जैन साहित्य का पुट देते हुए सुन्दर प्रवचन देते थे। फलतः आपकी ख्याति बढ़ती ही गई ।।
आगम ज्ञान के अतिरिक्त आप संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती, मारवाड़ी का भी अच्छा ज्ञान रखते थे, साथ ही कवि भी थे । हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपने स्तवन साहित्य और रास साहित्य की कई रचनाएँ की हैं। जिनमें से प्रमुख हैं :-अंजनारास, मयणरेहारास, प्रतिभाबहार, पैंतीस बोल विवरण आदि ।
आपका विवरण क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु रहा ।
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ख रतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
आपने अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएँ करवाई। दादाबाड़ियों का निर्माण करवाया। अनेकों उपधान तप करवाये । नाकोड़ा तीर्थ जैसे क्षेत्र में खतरगच्छ का डंका बजवाया। और, बाडमेर से शत्रुजय का जो पैदल यात्री संघ निकाला था, वह वास्तव में वर्णनीय था। इस यात्रा में एक हजार व्यक्ति थे। लगभग १०० वर्ष के इतिहास में खरतरगच्छ के लिए यह पहला अवसर था कि इतनी दूरी का और इतने समह का एक विशाल यात्री संघ निकला। आपने कई संस्थायें भी निर्माण की । खरतरगच्छ की वृद्धि के लिए आप सतत प्रयत्नशील रहते थे।
१३ जून १९८२ को जयपुर में श्री संघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित किया, तभी से आप जिनकान्तिसागर सूरि के नाम से विख्यात हुए।
संवत् २०४२ मिगसर बदि ७ को माण्डवला में अकस्मात हृदय गति रुक जाने से आपका स्वर्गवास हो गया।
आपके शिष्यों में गणि मणिप्रभसागरजी, मनोज्ञसागरजी, मुक्तिप्रभसागरजी, सुयशप्रभसागरजी, महिमाप्रभसागरजी, ललितप्रभसागरजी, चन्द्रप्रभसागरजी, आदि विद्यमान हैं। गणि मणिप्रभसागरजी अच्छे विद्वान हैं, व्यवहारपटु हैं, कार्य दक्ष हैं और खरतरगच्छ की सेवा में संलग्न हैं । मुनि महिमाप्रभसागरजी अपने दो शिष्यों-ललितप्रभसागर और चन्द्रप्रभसागर को योग्य विद्वान बनाने में प्रयत्नशील हैं ।
२. श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी का समुदाय नाकोड़ातीर्थ के संस्थापक और प्रतिष्ठापक आचार्य कीतिरत्नसूरि से उनके नाम पर एक परम्परा चली जो खरतरगच्छ की एक उपशाखा के रूप में कीर्तिरत्नसूरि शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी परम्परा में मूलतः कृपाचन्द्रसूरि थे। इनका जन्म जोधपुर राज्य के चातु गाँव में सं० १६१३ में हुआ था। इनके पिता का नाम बाफना मेघराजजी था और माता का नाम था अमरा देवी । यतिवर्य मुक्तिअमृत के पास यति दीक्षा सन् १६३६ में ग्रहण की थी। यति अवस्था में रहते हुए जब उन्हें अनुभव हआ कि हमारा आचार-व्यवहार शास्त्र युक्त नहीं है और यति वर्ग में परम्परा के दुराग्रह को लेकर द्वन्द्व-युद्ध एवं लट्ठालठी देखी तो उन्होंने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया । यति अवस्था में बीकानेर में इनके पास प्रचुर सम्पत्ति थी। उस सब का त्यागकर क्रियोद्धार कर संविग्न साधु बने । आपने क्रियोद्धार करने के पश्चात खेरवाड़ा आदि स्थानों पर प्रतिष्ठाएँ करवाईं। कच्छ में उपधान तप करवाये । अनेक स्थानों से आपकी उपस्थिति में संघ निकले और अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर आपने साधु धर्म में दीक्षित किया।
संवत १९७२ में आपका चातुर्मास बम्बई लालबाग में था । उसी समय संघ ने बड़े महोत्सव के माथ इनको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया । सूरिमंत्र श्री पूज्य श्री जिनचारित्रसूरिजी ने आपको प्रदान किया। सूरत में जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना की। संवत् १९८२ में बाडमेर में एक दिन में ही ४०० व्यक्तियों की मुँहपत्ती तुड़वा कर जिन प्रतिमा के प्रति श्रद्धावान बनाया । जैसलमेर ज्ञान भंडार के अनेक ताडपत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोद्धार करवाया । आपके उपदेशों से इन्दौर, सूरत, और बीकानेर आदि में ज्ञान भंडार, पाटशालायें एवं कन्याशालाओं का निर्माण हुआ था। पालीताणा में कल्याण भवन, चांदभवन आदि धर्मशालायें तथा जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम आदि संस्थाओं की स्थापनाओं में मुख्य प्रेरणा स्रोत आप ही थे।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
___ आप आगम साहित्य के धुरंधर विद्वान थे। अनेक चातुर्मासों में भगवती सूत्र का वाचन किया था । अनेक आगम कंठाग्र थे । साधु समुदाय को आगमों की वाचना देते थे। आपने कल्पसूत्र, द्वादशपर्व व्याख्यान एवं श्रीपालचरित्र आदि के हिंदी अनुवाद भी किये थे । आप अच्छे कवि भी थे । आपके द्वारा निर्मित गिरनार पूजा एवं कृपाविनोद इसके प्रमाण हैं । जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फंड से अनेक प्राचीन ग्रन्थों का प्रकाशन भी करवाया। आपने अनेकों शिष्य-प्रशिष्यों को दीक्षित किया था। आपकी उपस्थिति में लगभग ३५ साधुओं का समुदाय था । आपका उत्कृष्ट चारित्रधर्म अन्य साधुओं के लिए सर्वदा अनुकरणीय रहा।
संवत् १९९४ माघ सुदि ग्यारस के दिन पालीताणा में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय आपका साधु-साध्वी समुदाय ७० के लगभग था। अनेक स्थानों पर आपकी प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं।
(१) जिनजयसागरसूरि श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि के आप पट्टधर आचार्य थे। इनका जन्म संवत् १६४३ में हुआ था। १६५६ में दीक्षा ग्रहण की थी । सम्वत् १९७६ में सूरत में कृपाचन्द्रसूरिजी ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और संवत् १६६० में कृपाचन्द्रसूरिजी ने ही अपने कर-कमलों से इनको आचार्य पद प्रदान किया था । आपके द्वारा निर्मित साहित्य में जिनदत्तसूरि चरित्र दो भाग, गणधरसार्धशतक भाषान्तर, जिनकृपाचन्द्रसूरि चरित्र (संस्कृत) आदि प्राप्त हैं । सिद्धान्तों के प्रौढ़ विद्वान थे। इनका जीवन पूर्णरूपेण विशुद्ध था और दृढ़ संयमी थे तथा ठाम चौविहार करते थे । अनेक स्थानों पर आपने प्रतिष्ठाएं करवाई थीं। आपके ग्रन्थों का संग्रह गढ़सिवाना की दादाबाड़ी में सुरक्षित हैं । बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ।
(२) उपाध्याय सुखसागरजी श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि के प्रमुख शिष्यों में आपकी गणना है। आप मूलतः इन्दौर के निवासी थे और मराठा जाति के थे । सेठ कानमलजी के परिचय में आने के बाद इन्होंने कच्छ में जाकर दीक्षा ग्रहण की थी । श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि ने ही इन्दौर में आपको प्रवर्तक पद प्रदान किया था। १९६२ में आपको उपाध्याय पद प्राप्त हुआ था। अनेक जगह आपने प्रतिष्ठाएँ करवाई, उपधान तप करवाये और आपके गुरुश्री ने जो साहित्य प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया था उसे वेग के साथ आगे बढ़ाया और पचासों प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित करवाये । गुजरात, कच्छ, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार एवं बंगाल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विचरण कर, चातुर्मास कर शासन की महती प्रभावना की।
संवत् २०२४ वैशाख सुदि नवमी को पालीताणा में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके प्रमुख शिष्य थे मुनि मंगलसागर जी और मुनि कान्तिसागरजी ।
(३) मुनि कान्तिसागरजी उपाध्याय सुखसागरजी के लघु शिष्य मुनि कान्तिसागरजी थे। मूलतः ये जामनगर के निवासी थे और जैनेतर कुल में उत्पन्न हुए थे । संवत् १६९२ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी।
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खरतरगच्छ की संविग्न साधु का परम्परा परिचय : मंजुल विनयसागर जैन ये प्रतिभा के धनी और सिद्धहस्त लेखक थे । लेखन के साथ वक्तृत्व कला पर भी आपका पूर्ण अधिकार था । आपकी लिखित 'खण्डहरों का वैभव' और 'खोज की पगडंडियाँ" ये दो पुस्तकें तो संस्कृति एवं कला की दृष्टि से अद्वितीय हैं । पुरातत्व और कला के भी आप अधिकारी विद्वान् थे। जैन धातु प्रतिमा लेख, नगरवर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह, आयुर्वेदना अनुभूत प्रयोगो और सईकी आदि आपकी कृतियाँ प्रकाशित हुई। नागदा और एकलिंग जी पर आपने विस्तृत शोधपूर्ण पुस्तक लिखी थी, वह आपके स्वर्गवास के पश्चात् अन्धकार की गुफा में विलीन हो गई।
आपका जीवन संघर्षपूर्ण रहा और अनेक विकट परिस्थितियों का आपको सामना करना पड़ा। २८ सितम्बर १६६६ को आपका जयपुर में स्वर्गवास हुआ।
संवत् १९६४ के आसपास कृपाचन्द्रसूरिजी के समुदाय में लगभग ७० साध्वियाँ थीं, किन्तु खेद है कि आज इस समुदाय का एक भी साधु विद्यमान नहीं है और जो कुछ १५-२० साध्वियाँ शेष हैं वे मोहन लालजी म० की परम्परा के जयानन्दमुनिजी की निश्रा में संयम पालन कर रही हैं।
३. श्रीमोहनलालजी म0 का समुदाय श्री मोहनलालजी महाराज का नाम आज भी तपागच्छ और खरतरगच्छ में परम सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाता है । ये मूलतः नागौर निवासी यतिवर्य ऋद्धिशेखर (रूपचन्दजी) के शिष्य थे। इनकी यति परम्परा में पूर्वज कीर्तिवर्धन (कर्मचन्दजी) जिनसुखसूरि के शिष्य थे । इनका मूल नाम मोहनलाल था । संवत् १६०० ज्येष्ठ सुदि तेरस को जिनमहेन्द्रसूरि के कर-कमलों से इनकी दीक्षा हुई थी। दीक्षा नाम मानोदय था।
मूलतः ये मथुरा के निकट चन्द्रपुर ग्राम के निवासी थे । सनाढ्य ब्राह्मण बादरमलजी के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सुन्दरबाई था । संवत् १८६४ में इनके मातापिता ने नागौर आकर यतिवर्य रूपचन्दजी को समर्पित कर दिया था। यतिजी के पास रहकर ही विद्याभ्यास किया था। संवत् १९३० में अजमेर में क्रियोद्धार कर कठिन साध्वाचार का पालन करने लगे । संविग्न साधु बनने के बाद इन्होंने मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि अनेक स्थानों पर विचरण कर चातुर्मास किये। १९४६ में शत्रञ्जयतीर्थ की तलहटी में मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादुर धनपतसिंह दूगड द्वारा धनवसही की आप ही ने प्रतिष्ठा करवाई । बम्बई में सर्वप्रथम आप ही पधारे थे । इससे पूर्व कोई भी संविग्न साधु वहाँ नहीं गया था। तत्पश्चात् तो बम्बई क्षेत्र साधुओं के लिए खुल गया और सर्वदा नियमित रूप से साधुओं के वहाँ चातुमसि होने लगे।
- आप बड़े समदर्शी थे। गच्छ का आग्रह आपकी दृष्टि में नगण्य था। यही कारण है कि आपने अपने विशाल शिष्य समुदाय को सहज भाव से यह स्वीकृति दे दी थी कि जो जिस गच्छ की भी क्रिया करना चाहे प्रसन्नता से कर सकता है। यही कारण है कि आपकी शिष्य परम्परा दो भागों में विभक्त हो गई-एक खरतरगच्छ की क्रिया करने वाले और दूसरी तपागच्छ की क्रिया करने वाले ।
आप बड़े तेजस्वी, शान्तस्वभावी, निर्मल चारित्र के धारक थे। बम्बई आदि में आपका अत्यधिक प्रभाव रहा। आज भी गुजरात और बम्बई आदि में सैकड़ों धर्मस्थानों पर मोहनलालजी महाराज के फोटो प्राप्त होते हैं। साधु समुदाय में सर्वप्रथम यही आचार्य बने । सम्वत् १६६४ वैशाख वदी चौदस को सूरतनगर में आपका स्वर्गवास हुआ।
(१) जिनयशःसूरि वचनसिद्ध मोहनलालजी महाराज की खरतरगच्छ परम्परा में अिनयशःसूरिजी पहले आचार्य थे।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ इनका जन्म सम्वत् १९१२ में जोधपुर के सांड गोत्रीय पूनमचन्द जी की धर्मपत्नी मांगीबाई की कक्षि से हुआ था। इनका जन्म नाम जेठमल था। पिता के स्वर्गवास हो जाने पर अहमदाबाद जाकर ये नौकरी करने लगे। श्री जीतविजयजी म. के प्रयत्न में परासवा ग्राम (कच्छ) में जाकर धर्माध्यापक का कार्य करने लगे। १५ वर्ष पश्चात् जब वे कच्छ से जोधपुर लौटे, उस समय अपनी माता को जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया। जोधपुर में ही इन्होंने ५१ दिन की दीर्घ तपस्या की, जिसका पारणा दीवान कुन्दनमलजी ने अपने घर ले जाकर करवाया था।
सम्वत् १९४१ जेठ सुदी पांचम को आपने मोहनलालजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपका नाम यश मुनि रखा गया। सम्वत् १९५४ से ५६ तक पंन्यास दयाविमलजी के पास ४५ आगमों का योगोद्वहन किया और पंन्यास पद प्राप्त किया। १६५७-५८ में सूरत व बम्बई चातुर्मास कर आपने हर्ष मुनिजी को पंन्यास पद दिया था जो कि बाद में तपागच्छ परम्परा में चले गये थे। अनेकों स्थानों पर विचरण कर आपने शासन की महती प्रभवना की। ऋद्धिमुनि, रत्नमुनि, लब्धिमुनि आदि को आपने ही दीक्षा प्रदान की थी। सं० १६६५ में गुमानमुनि, ऋद्धिमुनि, केसर मुनि को आपने पंन्यास पद दिया था। अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं । सम्वत् १६६६ ज्येष्ठ सुदी छठ के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया था। आप दीर्घ और उग्र तपस्वी थे। सम्वत् १९७० मिगसर सुदी तीज को पावापरी में आपका स्वर्गवास हुआ।
(२) जिनऋद्धिसूरि चूरू के यतिवर्य श्री चिमनीरामजी के आप शिष्य थे। रामकुमार आपका नाम था और आप जाति से ब्राह्मण थे। वैराग्यवासित मन होने के कारण गद्दी की जंजाल में नहीं पड़े और वहाँ से चल कर नाल दादाजी के दर्शन किये और एक यतिजी के साथ गिरनार और सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा की । सम्वत् १९४१ आषाढ़ सुदी छठ को मोहनलालजी महाराज के पास दीक्षा ली और रामकुमार से ऋद्धिमूनि बने । यशमुनिजी के शिष्य कहलाये। योगोद्वहन के पश्चात् सम्वत् १६६६ मिगसर सुदी तीज को ग्वालियर में यशमुनिजी ने आपको पन्यास पद प्रदान किया। सम्वत् १६६५ में बम्बई में आचार्य पद प्राप्त कर जिनयशःसूरिजी के पट्टधर के रूप में विख्यात हुए। सम्वत् १९९७ में रत्नमुनिजी को आचार्य पद देकर जिनरत्नसूरि बनाया और लब्धिमनिजी को उपाध्याय पद से अलंकृत किया।
आप बड़े सरल और शांत स्वभावी थे, निश्छल हृदयी थे और साधनारत रहते थे। घण्टाकर्ण महावीर का आपको इष्ट था। स्थान-स्थान पर जैन शासन की प्रभावना के अनेकों कार्य किये। अनेकों मन्दिरों एवं मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायीं। कई संघों के वैमनस्य को दूर करने में सफल हुए थे। कई जगह जैन बोडिंग स्थापित करवाये थे और कई स्थानों पर आयम्बिल खाते खुलवाये थे।
थाणा में श्रीपाल चरित्र के कलापूर्ण भित्ति चित्रों के साथ भव्य एवं विशाल जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी। अनेक नवीन उपाश्रय बनवाए थे। कई मन्दिरों के जीर्णोद्धार आपके उपदेश से हए थे । बोरीवली का संभवनाथ मन्दिर का निर्माण भी आप ही के उपदेश से प्रारम्भ हुआ था । घण्टाकर्ण महावीर का इष्ट होने के कारण स्थान-स्थान पर घण्टाकर्ण महावीर की मूर्तियाँ स्थापित करवाई। सं० २००८ में आपका स्वर्गवास हुआ था । आपके मुख्य शिष्य थे गुलाबमुनि और प्रशिष्य थे महोदयमुनि । दोनों का ही स्वर्गवास हो चुका है । आपके सम्बन्ध में उपाध्याय लब्धिमुनिजी ने संस्कृत भाषा में 'जिनऋद्धिसूरि चरितं' लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है ।
खण्ड ३/८
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खरतरगच्छ की संविग्न साधु का परम्परा परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
(३) जिनरत्नसूरि आपका जन्म संवत् १९३८ में लायजा में हुआ था। जन्म नाम देवजी था । बाल्यावस्था में ही बम्बई आकर अपने पिता की दुकान में सहयोगी बनकर काम कर रहे थे । इधर बम्बई में मोहनलालजी महाराज का चातुर्मास होने से देवजी भाई अपने मित्र लधाभाई के साथ प्रतिदिन व्याख्यान सुनने के लिए जाते थे । प्रतिबोध पाकर दोनों ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। मोहनलालजी महाराज ने इन दोनों को राजमुनिजी के पास रेवदर भेज दिया । राजमुनिजी ने इन दोनों को संवत् १९५८ चैत्र वदी तीज को भागवती दीक्षा दी । देवजी भाई का नाम रत्नमुनि रखा और लधाभाई का नाम लब्धिमुनि रखा। यशमनिजी के पास में इन्होंने योगोदवहन किया और गणि पद को प्राप्त किया। जिनऋद्धिसरिजी ने संवत् १९९७ में बम्बई में आपको आचार्य पद प्रदान कर जिनरत्नसूरि नाम रखा।
आप बड़े धीर प्रकृति के श्रमण थे, संयममार्ग में दृढ़ थे और आपने राजस्थान, मालवा, गुजरात, कच्छ, महाराष्ट्र आदि अनेक स्थानों पर भ्रमण कर कई विशिष्ट धार्मिक कार्य सम्पन्न करवाये । आपके वरदाहस्तों से अनेक जिनमन्दिरों की प्रतिष्ठाएँ हुईं, अंजनशलाकाएँ हुई', उपधान तप हुए । कई स्थानों पर नवीन दादाबाड़ियाँ निर्माण करवाई । कई दादाबाड़ियों के जीर्णोद्धार करवाये । अनेक स्थलों पर गुरुदेव के चरणों की प्रतिष्ठा करवाई और अनेक उपाश्रयों का जीर्णोद्धार करवाया।
आपने कई भव्य आत्माओं को संयमपथ पर आरूढ़ किया था । गणि श्री प्रेममूनिजी, मूक्तिमुनिजी, भद्रमुनिजी आदि प्रमुख शिष्य थे । भद्रमुनिजी ही आत्मपथिक बनने के पश्चात् योगीराज सहजानन्दजी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे । संवत् २०११ माघ सुदी प्रतिपदा को अंजार में आपका स्वर्गवास
हुआ।
___ आपके बचपन के साथी और दीक्षा में भी साथी लब्धिमुनिजी उपाध्याय आशु कवि थे। संस्कृत में इन्होंने कई चरित्र काव्य और कई ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें चारों दादाओं के जीवन चरित्र, जिनरत्नसूरि चरित्र, जिनयशःसूरि चरित्र, जिनऋद्धिसूरि चरित्र, द्वादश पर्व कथा, सुसढचरित्र एवं स्तुति स्तोत्रादि प्रमुख है । आपका संवत् २०२३ में आसम्बिया में स्वर्गवास हुआ।
(४) गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी आपका जन्म जोधपुर क्षेत्र के गंगाणी तीर्थ के निकट बिलारे गाँव में हुआ था । जन्मतः आप चौधरी (जाट) वंश के थे । पंन्यास श्रीकेसरमुनिजी का सुसंयोग मिलने के कारश संवत् १९६३ में ६ वर्ष की अल्प आयु में ही दीक्षा ग्रहण की । जन्म नाम नवल था और आपका दीक्षा नाम हुआ बुद्धिमुनि । सं० १९६५ में जिनरत्नसूरिजी ने आपको गणि पद से विभूषित किया था।
आप उत्कृष्ट साध्वाचार के पालक थे, कठोर नियमों एवं अनुशासन में रहना इनको अधिक प्रिय था। संस्कृत और प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे । रात-दिवस साहित्यसाधना में व्यतीत करना ही इनका मुख्य व्यसन था। अनेकों ग्रन्थों का आपने सम्पादन किया था और अनेक चर्चात्मक पुस्तकों का लेखन भी किया था। तपस्वी भी थे । अनेक स्थानों पर जिनमन्दिरों, जिनप्रतिमाओं, गुरुचरणों आदि की प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं । कई उद्यापन आपकी अध्यक्षता में हुए थे । अन्तिम अवस्था में आप अत्यधिक रुग्ण रहे तथापि तनिक भी साध्वाचार के नियमों का उल्लंघन नहीं किया और एक मिनट भी व्यर्थ न खोकर छोटे-मोटे ग्रन्थों का संपादन करते रहे । सं० २०१८ श्रावण सुदी अष्टमी को आपका स्वर्गवास हुआ। आपके शिष्यों में मुनि जयानन्दजी म. विद्यमान हैं जो अपने शिष्य मुनि कुशाल मुनि जी के साथ विचरण कर रहे हैं । ये विद्वान व क्रियापात्र मुनि हैं । एक राजेन्द्रमुनि जी (जिनरत्नसूरि शिष्य) भी हैं जो वृद्धावस्था में होने से ठाणापति हैं ।
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0 सन्तोष विनयसागर जैन
सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय
जिस प्रकार शिथिलाचार परिहारी क्रियोद्धारक राजसागरजी महाराज की शिष्या रूपश्री जी से संविग्न साधु परम्परा का प्रारम्भ १९वीं शताब्दी इनका मिलन हुआ और इनकी विरक्त भावना में उपाध्याय प्रीतिसागर गणि से मानकर उनकी जागृत हो गई। तीन पुत्र, पाँच पौत्र और तीन परम्परा का इतिवृत्त दिया है/परिचय दिया है। पौत्रियाँ आदि परिवार के स्नेह बन्धन से मक्त उसी प्रकार साध्वी वर्ग ने भी इन मुनि-वृन्दों के होकर सम्वत् १६१८ के माघ सुदी पाँचम को साथ क्रियोद्धार अवश्य किया होगा, किन्तु इसका राजश्री जी के पास दीक्षा ग्रहण की, नाम उद्योत कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं है। क्रियोद्धा- श्री रखा गया । सम्वत् १९१६ का जोधपुर, सम्वत् रिका के रूप में सर्वप्रथम १६वीं शताब्दी में उद्योत- १९२० का अजमेर, १६२१ का किशनगढ़ और श्रीजी का ही नाम प्राप्त होता है। वर्तमान में १९२२ का चातुर्मास फलोदी में किया। फलोदी में समुदाय की परम्परा भी उद्योतश्रीजी की ही ही इन्हें सद्गुरु का सहयोग मिला । सद्गुरु थे शिष्या परम्परा है अतः उद्योतश्रीजी से ही परि- क्रियोद्धारक सुखसागरजी । सुखसागर जी की चय प्रस्तुत किया जा रहा है ।
उत्कृष्ट क्रिया पात्रता देखकर उद्योतश्री जी ने
भी क्रियोद्धार किया और उनकी आज्ञानुयायिनी (१) उद्योतश्रीजी
बन गई। इनका निवास स्थान फलोदी था । नाम दीक्षा के पश्चात् भी कई वर्षों तक पूर्वगृहीत नानीबाई था। बाल्यावस्था में ही फलोदी के ही अभिग्रह पूर्ण नहीं हुआ था, तब तक आपने घृत का रतनचन्दजी गोलेछा के साथ विवाह हुआ था। प्रयोग नहीं किया था। कई वर्षों बाद मक्सी तीर्थ अशुभकर्मोदय के कारण इनके पति का स्वर्गवास की यात्रा सानन्द की और इनका अभिग्रह पूर्ण हो गया। वैधव्य जीवन बिता रही थीं। पति के हआ। इन्होंने ४ साध्वियों को दीक्षा देकर अपने अचानक स्वर्गवास से मन संसार से विरक्त हो गया साध्वी समुदाय की वृद्धि की। चारों साध्वियाँ था। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि 'मक्सी तीर्थ की थीं-धनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री और पुण्यश्री । यात्रा करने के पश्चात् घी का प्रयोग करूगी।' लक्ष्मीश्री जी को संवत् १६२४ में और मगनश्री जी तीर्थ यात्रा हेतु ही जोधपुर आईं। वहीं संयोग से को संवत् १९३० में दीक्षा प्रदान की थी।
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६० सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयसागर जैन
साध्वियों को शिक्षा-दीक्षा देती हुई अनेक में ही विवाह की बातचीत चली, पन्नीबाई ने अपनी स्थानों पर विचरण करती रहीं। संवत् १९४० माँ से स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'मैं दीक्षा लेना के बाद ही फलोदी में ही आपका स्वर्गवास चाहती हूँ विवाह करना नहीं।' पिता के समक्ष हुआ।
पन्नीबाई की न चली और संवत् १९२७ आषाढ़ बदी इनकी शिष्याओं लक्ष्मीश्री जी और शिवश्रीजी ७ को फलोदी निवासी दौलतचन्द झाबक के साथ की शिष्याओं में अत्यधिक मात्रा में वद्धि होने के विवाह हुआ। किन्तु, यह सौभाग्य अधिक दिनों कारण उद्योतश्री जी की परम्परा दो भागों में तक न रह सका और विवाह के १८ दिन पश्चात् विभक्त हो गई। एक लक्ष्मीश्री जी की परम्परा ही पन्नीबाई को दुर्दैव से वैधव्य जीवन स्वीकार और दूसरी शिवश्री जी की परम्परा।
करना पड़ा। तदनन्तर अपनी बड़ी बहन मूलीबाई
के साथ आकर फलोदी रहने लगी और कस्तूरचन्द (२) प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्रीजी जी लूणीया के पास से धार्मिक संस्कार प्राप्त करने
लगीं। विवाह के पूर्व ही दीक्षा की भावना थी, इनका निवास स्थान फलोदी था। जीतमल जी
वह भावना अब वेग पकड़ने लगी। पितृपक्ष और गोलेछा की सुपुत्री थी और कनीरामजी झाबक
श्वसुरपक्ष ने दीक्षा की आज्ञा न दी। पन्नीबाई ने के पुत्र सरदारमलजी की पत्नी थी। इनका नाम
आज्ञा हेतु अन्न-पानी का त्याग कर दिया। बड़ी लक्ष्मीबाई था। बालविधवा हो जाने से आपकी
कठिनता से दीक्षा की अनुमति प्राप्त हुई और संवत् भावना वैराग्य की ओर अग्रसर हुई। सुखसागर
१६३१ वैशाख सुदी ११ को फलोदी में ही महोत्सव जी महाराज की देशना से प्रतिबोध पाकर संवत् के साथ गणनायक सुखसागरजी महाराज के हाथों १६२४ मिगसर वदी १० को दीक्षा ग्रहण की। पुनीत दीक्षा ग्रहण कर लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या बनी दीक्षानन्तर संवत् १६२५ का जयपुर, १६२६ का और इनका नाम रखा गया पुण्यश्री । फलोदी, १६२७ का बीकानेर और १६२८ का पाटण में चातुर्मास किया। पाटण से शत्रुजय तीर्थ की संवत् १९३१ से लेकर १९७६ तक ४५ वर्ष पर्यन्त यात्रा कर १६२६ का चातुर्मास अहमदाबाद किया स्थान-स्थान पर विचरण करती हुई, धर्मोपदेश देती
और १६३० का चातुर्मास नागोर में किया। इन्होंने हुई शासन की सेवा और खरतरगच्छ की वृद्धि में अनेक महिलाओं को दीक्षा दी थी। संवत १९३१ में सतत् संलग्न रहीं। पूण्यश्री को दीक्षा दी थी। आप कब तक विद्यमान इनकी दैदीप्यमान आकृति थी, आँखों में तेज रहीं, कब स्वर्गवास हुआ और कहाँ हुआ ! इसका था, वाणी में ओज और माधुर्य । गुरुजनों के पास कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है ।
रहकर आगम साहित्य आदि का अच्छा अध्ययन (३) प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी
किया था । व्याख्यान शैली भी रसोत्पादक थी ।
यही कारण है कि आपके उपदेशों से अनेक भव्य जैसलमेर के निकट गिरासर नामक गाँव में महिलाओं ने दीक्षा ग्रहण की। सर्वप्रथम संवत् पारख गोत्रीय जोतमलजी रहते थे। उनकी धर्म- १६३६ में फलोदी में दो को दीक्षाएँ देकर अपनी पत्नी का नाम कुन्दनदेवी था। दो लड़के और एक शिष्याएँ बनाई थीं। वे थीं-अमरश्री और शृंगारलड़की के पश्चात् जब कुन्दनदेवी ने गर्भधारण श्री । संवत् १९३६ से लेकर १९७६ तक के काल में किया तो सिंह का स्वप्न देखा था। संवत् १६१५ आपकी निश्रा में ११६ दीक्षाएं विभिन्न स्थानों पर वैशाख सुदी छठ को कुन्दनदेवी ने बालिका को हुई और वे भी बड़े महोत्सव के साथ । इन ११६ जन्म दिया, नाम रखा पन्नीबाई । ११ वर्ष की उम्र दीक्षाओं में से ४६ तो इन्हीं की शिष्याएँ थीं और
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पंच प्रवर्तिनी
पुण्यशालिनी श्री पुण्यश्री जी महाराज
प्रवर्तिनी सुवर्णश्री जी महाराज .
प्रवर्तिनी ज्ञानश्री जी महाराज
प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी महाराज
प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज
in Education International
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ शेष अपनी शिष्याओं की और प्रशिष्याओं की शृंगारश्री को लावण्यवती देखकर अपनी वासना शिष्याएँ बनी थीं । गणनायक सुखसागरजी महा- का शिकार बनाना चाहा। उस समय पुण्यश्रीजी ने राज का वह स्वप्न कि "कुछ बछड़ों के साथ गायों कड़कती आवाज में उसको अनिष्ट की और सकेत का झुण्ड देखा" वह पुण्यश्री के समय में साकार किया। उसको दिखाई देने बंद हो गया, फलतः रूप ले गया।
उसने क्षमा याचना की और भविष्य के लिए कुसूखसागरजी महाराज के समुदाय के साधुओं वासनाओं से बचने की प्रतिज्ञा की। उसे पुनः की व द्धि के लिए भी ये सतत प्रयत्नशील रहीं और दिखाई देने लगा। संवत् १९४८ में फलोदी में नवअनेकों को साधमार्ग की ओर आकर्षित कर दीक्षाएँ निर्मापित आदिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा हई । दिलवाकर खरतरगच्छ की अभिवद्धि में अपना एक प्रतिष्ठाकारक थे श्री ऋद्धिसागरजी महाराज । विशिष्ट स्थान बनाया। महातपस्वी छगनसागरजी इस प्रतिष्ठा अवसर पर भगवानसागरजी, सुमतिभी आपकी ही प्रेरणा से संवत १९४३ में दीक्षित सागरजी, छगनसागरजी आदि भी विद्यमान थे। हुए । महोपाध्याय सुमतिसागरजी भी जिनका नाम संवत् १९४८ में फलोदी में ही ऋद्धिसागर जी सुजानमल रेखावत था, नागोर निवासी थे, आपकी महाराज के पास से पुण्यश्रीजी ने भगवती सूत्र की ही प्रेरणा से उन्होंने भी सं. १६४४ वैशाख सुदी ८ को वाचना ग्रहण की । संवत् १९५१ में जैसलमेर की सिरोही में भगवानसागरजी महाराज के पास दीक्षा यात्रा की । १९५१-५२ में खीचन के मूल निवासी ग्रहण की थी। अपने भाई चुन्नीलाल को भी प्रेरित तत्कालीन लश्कर-ग्वालियर नरेश के कोषाध्यक्ष कर संवत १९५३ में पाटण में दीक्षा दिलवाई थी; सेठ नथमलजी गोलेच्छा ने सिद्धाचल का संघ निकाजो कि बाद में गणनायक त्रैलोक्यसागरजी बने थे। लने का निर्णय किया और पुण्यश्रीजी से विनती पूर्णसागरजी और क्षेमसागरजी भी आपकी प्रेरणा की। इसी संघ के साथ इन्होंने सिद्धाचल की यात्रा से ही संवत् १९६३ में दीक्षित हुये । यादवसिंह की। संघ की अध्यक्षा थी सेठ नथमलजी की बहन कोठारी भी प्रज्ञानश्रीजी के प्रयत्नों और पुण्यश्रीजी जवाहरबाई । संवत् १९५९ में केसरियाजी की यात्रा की प्रेरणा से ही संवत् १९६८ में रतलाम में की । सं० १६६३ में कालिंद्री के संघ में जो वैमनस्य दीक्षित हुए थे, यही भविष्य में वीर पुत्र आनन्द था उसे समाप्त करवाया। १९६५ में रतलाल में सागरजी/जिनानन्दसागरजी बने थे।
दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहजी बाफना ने विशाल आर्यारत्न पण्यश्री जी का जैसा नाम था वैसे व दर्शनीय उद्यापन महोत्सव करवाया था। इस
उत्सव में यशमुनिजी महाराज (जिनयशःसूरिजी) ही पुण्य की पुज थीं, गुणधारक थीं। इनके कार्य
उपस्थित थे । १६६५ में मक्सी तीर्थ की यात्रा की। काल में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य सम्पन्न हुए
१९६६ में इंदौर निवासी सेठ पूनमचंद सामसुखा ने उनकी तालिका इस प्रकार है :
माण्डवगढ़ का संघ निकाला था। १९६६ में रघुसं. १६३७ में नागौर के संघ के साथ इन्होंने केस- नाथपुर के जागीरदार कुलभानुचन्द्रसिंह एवं रियाजी की यात्रा की। १६४१ में फलोदी में मंदिरों ठकूरानी को उपदेश देकर मांस का त्याग करवाया पर कलशारोपण व उद्यापन हुआ। १६४२ में कुचेरा था। १९६६ में ग्वालियर नरेश को भी उपदेश में जिनमंदिर के ताले लग गये थे, काँटों की दिया था और राजमाता, महारानियों को पर्व बाड लगा दी गई थी उसका निवारण कर वहाँ तिथि पर मद्य-मांस का त्याग करवाया था । शताधिक कुटुम्बों को मंदिरमार्गी बनाया था। १९७२ से १९७६ के चातुर्मास आपके जयपुर १९४४ में नागोर से संघ के साथ शत्रुजय तीर्थ की में ही हुए। अंतिम अवस्था में आप जयपुर आईं। यात्रा की थी। मार्ग में जंगल में एक अश्वारोही ने जयपुर का पानी आपको लग गया। फलतः अस्वस्थ
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६२ सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयसागर जैन रहने लगीं, शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जर हो गया। पुण्यश्रीजी के सान्निध्य में सुवर्णश्रीजी की धर्माराधन और शास्त्रश्रवण करती हुई संवत् दीक्षा बारहवें नम्बर पर हुई थी। इनके दीक्षित १९७६ फाल्गुन सुदी १० को जयपुर में ही आप होने के पश्चात् साध्वियों की दीक्षाओं में अत्यधिक स्वर्गवासिनी हुई। मोहनबाडी मे आपका दाह- वृद्धि हुई । संवत् १९६१ तक यह संख्या लगभग संस्कार किया गया । और वहीं शिवजीरामजी १४० को पार कर गईं। पुण्यश्रीजी का यह मानना महाराज की छतरी के पास आपकी छतरी बनाकर था कि इस सुवर्ण के आने से यह वंश वृद्धि वेग से चरण पादुका स्थापित की गईं।
हुई । पुण्यश्रीजी का इन पर अत्यधिक स्नेह था। आपकी स्वहस्त दीक्षित शिष्याओं में से मह- स्वर्गवास के पूर्व इन्हीं को गणनायिका के रूप में त्तरा वयोवद्धा चम्पाश्रीजी का १०५ की अवस्था में घोषित किया था। संवत् १६७६ से सूवर्णश्रीजी इसी वर्ष स्वर्गवास हआ है। और प्रशिष्याओं में ने प्रतिनी पद का भार सकुशलता के साथ निर्वाह वयोवृद्धा रतिश्रीजी आदि अभी विद्यमान हैं। किया। इनकी स्वयं की १८ शिष्याएँ थीं, प्रशिष्याएँ आपकी साध्वीपरम्परा में आज भी ६० और १०० आदि भी बहुत रहीं। के भीतर शिष्याएँ विद्यमान हैं, धर्म प्रभावना आपके समय में जो विशिष्ट धार्मिक कृत्य हए करती हुईं शासन की सेवा कर रहीं हैं। उनकी सूची इस प्रकार है
(४) प्रवर्तिनी सुवर्णश्रीजी हापुड़ में मोतीलालजी बूरड द्वारा नवमंदिर प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात्
का निर्माण हुआ। आगरा में दानवीर सेठ लक्ष्मी
चन्दजी वेद ने बेलनगंज में भव्य मन्दिर व विशाल उन्हीं के निर्देशानुसार प्रवर्तिनी सूवर्णश्रीजी हईं।
धर्मशाला बनाई। सौरीपुर तीर्थ का उद्धार करये अहमदनगर निवासी सेठ योगीदास जी बोहरा
वाया। महिला समाज की उन्नति हेतु दिल्ली में की पुत्री थीं। माता का नाम दुर्गादेवी था । इनका जन्म संवत् १६२७ ज्येष्ठ बदी १२ के दिन हुआ था।
साप्ताहिक स्त्री सभा प्रारम्भ की। संवत् १९८४
कार्तिक सुदी ५ के दिन जयपुर में धूपियों की सुन्दरबाई नाम रखा गया था। ११ वर्ष की अवस्था
धर्मशाला में धाविकाश्रम की स्थापना की। जो में संवत् १९३८ माघ सुदी ३ के दिन नागोर निवासी
राजरूपजी टांक आदि के सतत् प्रयत्नों से वीर प्रतापचन्दजी भंडारी के साथ इनका शुभ विवाह
बालिका महाविद्यालय के रूप में विद्यमान है। हुआ। संवत् १६४५ में पुण्यश्रीजी के सम्पर्क से
बीकानेर में बीस स्थानक उद्यापन महोत्सव करवैराग्यभावना जागृत हुई । बड़ी कठिनता से अपने
वाया। पति से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर संवत् १९४६ मिगसर सुदी ५ को दीक्षा ग्रहण की। केसरश्रीजी
अन्तिम अवस्था में साध्वी समुदाय की प्रवकी शिष्या बनी अर्थात् पुण्यश्रीजी के प्रपौत्र शिष्या तिनी का पद भार अपने हाथों से ज्ञानश्रीजी को बनीं । साध्वी अवस्था में नाम रखा गया सूवर्णश्री। प्रवतिनी बनाकर सौंपा। बड़ी तपस्विनी थीं । निरन्तर तपस्या करती रहती संवत् १९८६ माघ बदी ६ को बीकानेर में थीं । घण्टों तक ध्यानावस्था में रहा करती थीं। इनका स्वर्गवास हुआ। रेलदादाजी में इनका दाहअनेक वर्षों तक पुण्यश्रीजी महाराज के साथ ही रह संस्कार किया गया और वहाँ स्वर्ण समाधि स्थल कर उनकी सेवा शुश्रषा में लगी रहती थी। २२वाँ स्थापित किया गया। चौमासा अपनी जन्मभूमि अहमदनगर में किया था । वहाँ से चौबीसवाँ चौमासा बम्बई में किया
(५) प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी था।
प्रवर्तिनी स्वर्णश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् ..
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
ज्ञानश्रीजी प्रवर्तिनी हुईं। इनका जन्म सम्वत् गुजराजजी वरड़िया के साथ हुआ था। छोटी अव१९४२ कार्तिक बदी १३ के दिन फलोदी में हुआ स्था में ही विधवा हो गई थी। ज्ञानश्रीजी के उपथा। इनका नाम था गीताकुमारी। केवलचंदजी देश से १६७४ माघ सुदी १३ को 'फलोदो में दीक्षा गोलेछा की ये सुपुत्री थी। मारवाड़ की पुरानी ग्रहण की थी। शिष्या अवश्य ही पुण्यश्रीजी की परम्परा के अनुसार गीता / गीथा का विवाह नौ कहलाईं। किन्तु सारा जीवन ज्ञानश्रीजी की सेवा वर्ष की अवस्था में ही भीकमचन्दजी वेद के साथ हो बीता । उदारहृदया और सेवाभाविनी थीं। कर दिया था। दुर्भाग्य से एक वर्ष में ही भीकम- सम्वत् २०१६ में जयपुर में इनका अकस्मात् ही चन्दजी वेद का स्वर्गवास हो गया और आप बाल- स्वर्गवास हो गया था। विधवा हो गईं। साध्वी रत्नश्रीजी के सम्पर्क से वैराग्य का बीज पनपा और आखिर में संवत्
(७) प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी १६५५ पौष सुदी ७ को गणनायक भगवानसागरजी, जैन कोकिला प्रख रवक्त्री विदूषी विचक्षणश्रीजी तपस्वी छगनसागरजी, त्रैलोक्यसागरजी की उप- का जन्म १९६६ आषाढ़ बदी एकम् के दिन अमरावती स्थिति में फलोदी में ही इनकी दीक्षा हुई। पुण्यश्री में हुआ था। इनके पिता का नाम था मिश्रीमलजी जी की शिष्या घोषित कर ज्ञानश्री नामकरण मूथा और माता का नाम था रूपादेवी। मूथा जी किया।
मूलतः चीपाड के रहने वाले थे, किन्तु व्यापार हेतु
अमरावती में निवास कर रहे थे। इस बालिका का ____ इन्होंने ४० वर्ष तक विभिन्न प्रान्तों-मारवाड़,
जन्म नाम था दाखीबाई । दाख के अनुसार ही मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ आदि में
बाल्यावस्था से लेकर सांध्य बेला तक इनका व्यवहार विचरण कर धर्म का प्रचार किया। शत्रुजय,
मधुर ही रहा । छोटी सी अवस्था में ही इस दाखां गिरनार, आबू, तारंगा, खम्भात, धुलेवा, माण्डव
की सगाई पन्नालालजी मुणोत के साथ कर दी गई गढ़, मक्सी और हस्तिनापुर आदि तीर्थों की
थी। संवत् १९७० में दाखां के पिता मिश्रीमलजी यात्राएँ की । सम्वत् १९८६ में इन्हें प्रवर्तिनी पद
का अचानक स्वर्गवास हो गया । स्वर्णश्रींजी के दिया गया। तब से पुण्यश्री महाराज के समुदाय
सम्पर्क में सतत् आने के कारण माता और पुत्री का सफलतापूर्वक नेतृत्व करती रहीं। आपने अनेकों को दीक्षाएँ प्रदान की। जिनमें पूज्य सज्जन
दोनों ही दीक्षा की इच्छुक हो गई। ससुराल से श्रीजी आदि ११ शिष्याएँ हुई। सम्वत् १६६४ से
आये आभूषणों को दाखां ने पहनना अस्वीकार कर शारीरिक अस्वस्थता और अशक्तता के कारण
दिया। घर की शादियों में भी सम्मिलित नहीं हुईं। जयपुर में ही स्थिरवास किया। आपका स्वभाव
इससे इनके दादाजी असन्तुष्ट हुए। माता-पुत्री के बड़ा शान्त था, प्रकृति बड़ी निर्मल थी। निन्दा
द्वारा दीक्षा की अनुमति चाहने पर उन्होने अस्वीविकथा से दूर रहकर जप-ध्यान करती रहती थीं
कार कर दी, बड़ी कठिनता से स्वीकार भी किया । और शासन-प्रभावना के कार्यों में दत्तचित्त रहती उत्सव भी चालू हुए ऐन वक्त पर दादाजी ने मना थीं । सम्वत् २०२३ चैत्र वदी १० को जयपुर में
ही कर दी । और आखिर में निम्बाज ठाकुर के आपका स्वर्गवास हुआ। मोहनबाडी में इनका
यहाँ इसकी पेशी हुई । निम्बाज ठाकुर ने दाखां का अग्नि-संस्कार किया गया।
परीक्षण करने के पश्चात् दीक्षा की स्वीकृति दे दी।
दीक्षा हेतु जतनश्रीजी, ज्ञानश्रीजी, उपयोगश्रीजी (६) उपयोगश्रीजी
आदि पीपाड़ पहुंच चुके थे। इन्हीं की उपस्थिति में आप फलोदी निवासी कन्हैयालालजी गोलेछा संवत् १९८१ ज्येष्ठ सुदी पांचम को दीक्षा दी गई। की पत्री थी। केसरबाई नाम था । इनका विवाह दोनों के नाम-माता रूपाबाई का नाम विज्ञानश्री
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सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयमागर जैन
और दाखां का नाम विचक्षणश्री रखा गया । और संवत् २०३३ में आपके सीने पर अकस्मात ही कैंसर दोनों को स्वर्णश्रीजी महाराज की शिष्या घोषित की गाँठ हो गई । वह गाँठ बढ़ती ही गई, गाँठ के किया । इन दोनों को बड़ी दीक्षा गणनायक हरिसा- साथ वेदना भी बढ़ती ही गई । आपने कभी उपचार गरजी महाराज ने दी और विचक्षणश्रीजी को जत- नहीं करवाया। अशुभ कर्मों का उदय समझकर नश्रीजी की शिष्या घोषित किया।
शांत भाव से सहन करने में ही अपना कुशल क्षेम दीक्षा ग्रहण के पश्चात् शास्त्रों का अध्ययन समझा । देह भिन्न और आत्मा भिन्न है इस विभेद करने लगी। प्रखर बुद्धि थी ही और प्रतिभा भी ज्ञान को साकार रूप से अपने जीवन में चरितार्थ थी। कुछ ही समय में अच्छी विदुषी बन गई। किया । "तन में व्याधि मन में समाधि" धारण कर
आपकी वाणी में श्रोता को मुग्ध करने का जाद एक अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया। अन्तिम दिनों में था। बड़ी-बड़ी विशाल सभाओं में निर्भीकता के तो गांठ के फूट जाने से जो असीम वेदना होती थी साथ भाषण/प्रवचन देती थीं। बडे-बडे जैनाचार्यों के उसे वे शांत भाव से सहन करती रहीं और संवत् समक्ष भी भाषण देने में कभी भी हिचकिचाई नहीं। २०३७ वैशाख सुदी को श्रीमालां की दादाबाडी. तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य यूग दिवाकर विजय जयपुर में इस नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग की बल्लभसूरिजी ने तो इनके भाषणों से मुग्ध होकर ओर प्रस्थान किया। मोहनबाड़ी में बड़े उत्सव के इन्हें "जैन कोकिला" से सम्बोधित किया था। साथ इनका दाह-संस्कार किया गया। मोहनवाडी प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् में ही इनका विशाल एवं भव्य समाधि मन्दिर बना इस समुदाय का भार इन्हीं के कन्धों पर आ गया है। और इन्होंने सफलतापूर्वक निभाया।
विचक्षणश्रीजी ने अपना उपनाम 'कोमल' रखा अपनी समाज की गरीब महिलाओं के पोषण था । आपके द्वारा रचित भजन साहित्य प्रचुर संख्या हेतु इन्होंने प्रयत्न करके अखिल भारतीय सुवर्ण सेवा
वों में प्राप्त हैं उसमें कई स्थल पर 'कोमल' का प्रयोग फण्ड अमरावती और जयपुर में स्थापित करवाये किया है । हृदय से जैसी कोमल थीं, मधूर थीं वैसी और दिल्ली में सोहनश्री, विज्ञानश्री कल्याण केन्द्र की
ही अनुशासन प्रिय भी थीं। यही कारण है कि इनकी स्थापना करवाई । इन तीनों संस्थाओं से आर्थिक
दीक्षित समुदाय में तब तक अनुशासन बना रहा । स्थिति से कमजोर महिलाओं को प्रत्येक प्रकार से अन्तिम समय के पूर्व आपने बड़ी बुद्धिमानी और गुप्त रूप से सहयोग दिया जाता है। रतलाम में वचक्षण्य का कार्य किया कि सज्जनश्रीजी को सुखसागर जैन गुरुकुल की स्थापना करवाई।
प्रतिनी पद देने का निर्देश दिया और अपनी साध्वी
समुदाय के लिए उनका नेतृत्व अपनी प्रथम शिष्या आपने अपने उपदेशों से अनेक बालिकाओं, अविचलश्रजी को प्रधान पद देकर उनके कंधों पर महिलाओं को प्रतिबोध देकर वैराग्य की ओर प्रेरित डाल दिया। किया और पचासों को दीक्षा प्रदान की। आपकी दीक्षित शिष्याओं में सर्वप्रथम दीक्षित अविचलश्री
आज भी आपकी साध्वी समुदाय लगभग ५१ जी आज भी प्रधानजी पद को सुशोभित कर रही
है और वह इस समय अनेक स्थानों पर विचरण हैं। इनको संवत् १९६१ में दीक्षा दी । कई शिष्याएँ
कर रहा है। विदुषी हैं, व्याख्यान पटु हैं और आपके नाम को (८) प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी दीपित करती हुई शासन की सेवा में संलग्न हैं। गुलाबी नगरी जयपुर में ही जन्मीं, यहीं खेलीं,
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
बड़ी हुई, यहीं विवाहित जीवन जीया, यहीं दीक्षा बाद में परम्परा चली वे मुख्यतः ५ हुई थीं। उन ग्रहण की और यहीं अब आपका अभिनन्दन समा- पांचों के नाम इस प्रकार हैं :रोह होने जा रहा है। अभिनन्द्यमान सज्जनश्रीजी प्रतापश्रीजी, देवश्रीजी, ज्ञानश्रीजी, प्रेमश्रीजी का विस्तार से परिचय अन्यत्र दिया गया है अतः और विमल श्रीजी। अब इन पाँचों के परिवार का उसका यहाँ पिष्ट-पेषण करना उपयुक्त नहीं है। संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है :संवत् २०३७ से प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर
(१) प्रवर्तिनी प्रतापश्रीजी रही हैं। अभी आपकी आज्ञा में निम्नांकित साध्वी समुदाय विचरण कर रहा है :
शिवश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् ये प्रवर्तिनी
बनीं। इनकी दीक्षा संवत् १६४८ मिगसर वदी दूज १. शशिप्रभाश्रीजी आदि १२ ठाणा, सज्जनश्री
को हुई थी। गृहस्थावस्था में ये सूरजमलजी झाबक जी महाराज की ही शिष्याएँ हैं ।
की पत्नी थीं और नाम ज्योतिबाई था । आपने २. स्वर्गीया चंपाश्रीजी महाराज की शिष्याएँ अनेक शिष्याएँ बनाई थीं, इनमें से दिव्यश्रीजी, जितेन्द्रधीजी, १२ ठाणा से विचरण कर रही हैं। मोहनश्रीजी आदि आज विद्यमान हैं। ३. विचक्षण मण्डल की ५१ साध्वियाँ अनेक
(२) प्रवर्तिनी देवश्रीजी स्थानों पर विचरण कर रही हैं।
इनके सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की जानकारी ४. रतिश्रीजी ७ ठाणा के साथ फलोदी में
प्राप्त नहीं हैं। प्रतापश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् विराजमान हैं।
इस समुदाय का नेतृत्व इन्होंने संभाला था और ५. स्वर्गीया पवित्रश्रीजी की शिष्याओं में दिव्य- इन्होंने प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया था । चन्द्रकांताप्रभाश्रीजी ८ ठाणा के साथ हैं ।
श्रीजी आदि कुछ साध्वियाँ इनकी परम्परा में विद्यअंत में प्रवतिनी सज्जनश्रीजी महाराज दीर्घ
मान हैं। जीवी हों और शासन तथा खरतरगच्छ के अभ्युदय
(३) प्रवर्तिनी प्रेमश्रोजी में निरन्तर सहयोग देती रहें, यही हार्दिक शुभ
प्रवर्तिनी देवश्रीजी के पश्चात् प्रेमश्रीजी ने कामना है।
प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया था । फलोदी में ही इनका
स्वर्गवास हुआ या । इनकी परम्परा में निम्नांकित (२) शिवश्रीजी महाराज साध्वियाँ विद्यमान हैं :का समुदाय
१. विकासश्रीजी ठाणा ३
२. विनोदश्रीजी उद्योतश्रीजी. महाराज की लघु शिष्या थी । शिवश्रीजी । इनके सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की
३. विदुषी साध्वी हेमप्रभाश्री जी ठाणा १४ जानकारी अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। किंतु जिनके उपदेश से इस वर्ष बीकानेर में उपधान तप आपका साध्वी समुदाय भी विशाल होने के कारण हुआ था। शास्त्रों की अच्छी जानकार हैं और यह समुदाय शिवश्रीजी के समूदाय के नाम से अच्छी वक्ता हैं। प्रसिद्ध है । अनेकों को दीक्षा दी होगी, किंतु जिनकी ४. सुलोचनाश्रीजी ठाणा ६ । खण्ड ३!
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सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी परम्परा का परिचय : सन्तोष विनयसागर जैन (४) प्रवर्तिनी वल्लभश्री जी में हुई थी। ये भी आगम और साहित्य की अच्छी प्रेमश्रीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात्
... जानकार थीं। इनकी साध्वी परम्परा में प्रकाशश्री
जी, विजयेन्द्रश्रीजी, और विद्य तप्रभाश्रीजी ठाणा ७ साध्वी समुदाय का नेतृत्व वल्लभश्रीजी के कन्धों पर आया, प्रवर्तिनी बनीं। वल्लभश्री जी ज्ञानश्री
आदि विद्यमान हैं । विद्य तप्रभाश्री जी अच्छी जी महाराज की शिष्या थीं। ज्ञानश्रीजी प्रेमश्रीजी
लेखिका हैं और अभी डाक्टरेट के लिए शोध प्रबन्ध
लिख रही हैं। प्रमोदश्रीजी महाराज का २०३६ से बड़ी थी. किन्तु स्वर्गवास पूर्व हो जाने के कारण
पौष बदी १० को बाडमेर में स्वर्गवास हुआ। प्रवर्तिनी पद प्रेमश्रीजी को प्राप्त हुआ था और तत्पश्चात् वल्लभश्रीजी को। वल्लभश्रीजी अच्छी विदुषी थीं, आगमों की जानकार थीं, उपदेश देने
(६) प्रवर्तिनी जिनश्रीजी में पट थीं। आपका स्वर्गवास भी फलोदी में हुआ
प्रमोदश्रीजी के पश्चात् प्रवर्तिनी पद पर था। इनकी शिष्या-प्रशिष्याओं में लगभग ३५ अभी
प्रवर्तिनी वल्लभश्रीजी महाराज की शिष्या जिनश्री विद्यमान हैं । जिनका विवरण इस प्रकार हैं :
जी विभूषित हुई । इनका जन्म संवत् १६५७ १. प्रवर्तिनी जिनश्रीजी ६ ठाणा अमलनेर आश्विन सुदी ८ को तिवरी में हुआ था। पिता का २. निपुणाश्रीजी आदि
नाम बूरड लाधूरामजी और माता का नाम धुणी
देवी था। संवत् १९७६ में मिगसर सुदी ५ को ३. छत्तीसगढ़शिरोमणि मनोहरश्रीजी १६
आपने बल्लभश्रीजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण ठाणा। ये अच्छी विदुषी साध्वी हैं। इनकी समस्त
की थी। २०४० वैशाख शुक्ला दूज को आपने साध्वियाँ व्याख्यान देने में पटु हैं।
प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया था। ८८ वर्ष की वृद्धा४. कुसुमश्रीजी आदि।
वस्था और शारीरिक अस्वस्थता के कारण अभी (५) प्रवर्तिनी प्रमोदश्रीजी
आप ६ ठाणों से अमलनेर में विराजमान हैं। शिब
श्रीजी समुदाय की लगभग ६० साध्वियों का आप प्रवर्तिनी वल्लभश्रीजी के स्वर्गवास के पश्चात् नेतत्व कर रही हैं। प्रवर्तिनी पद पर प्रमोदश्रीजी की स्थापना हुई। प्रमोदश्रीजी शिवश्रीजी महाराज की प्रशिष्या और उपसंहार-शिवश्रीजी महाराज के समुदाय विमलश्रीजी की शिष्या थीं। इनका जन्म सं० १६५५ का ब्यौरेवार इतिहास समय और सामग्री के अभाव कार्तिक सुदी ५ को फलौदी में हुआ था। गोलेछा के कारण नहीं लिखा जा सका। यथाशीघ्र ही गोत्रीय सूरजमलजी की पत्नी जेठीबाई की पुत्री थीं। समय निकाल कर इसकी अवश्य ही पूर्ति की इनकी दीक्षा सं० १६६४ माघ सुदी ५ को फलौदी जायेगी।
सज्जन वाणी
१. जिन्होंने सत्य को आचरण में उतारा है, जिनकी वाणी सत्य से ओत-प्रोत
है, जिनका मन भव्य चिंतन में लीन है। वे संसार के पूज्य बन
जाते हैं। २. जिन्होंने अस्तेय व्रत धारण लिया, उन्हें सभी सम्पत्तियाँ अनायास मिलती
हैं उनके जीवन में कभी दरिद्रता नहीं आती । और वे सभी के विश्वासपात्र बन जाते हैं।।
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साध्वी सम्यग्दर्शनाश्रीजी
स्व० आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागर सूरिजी म.सा.
इस अनादिकालीन चतुर्गत्यात्मक संसार कानन में अनन्त प्राणी स्व-स्व-कर्मानुसार विचित्रविचित्र शरीर धारण करके कर्मविपाक को शुभाशुभ रूप से भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं । उनमें से कोई आत्मा किसी महान् पुण्योदय से मानव-शरीर पाकर सद्गुरु संयोग से स्वरूप का भान करके विरक्ति की ओर गमन करते हैं । जन्म-जरा-मरण से छूटकर वास्तविक मुक्ति सुख प्राप्त करने के लिए, तप संयम की साधनापूर्वक स्व-पर-कल्याण साधते हैं। ऐसे ही प्राणियों में से स्वर्गीय आचार्यदेव थे. जिन्होंने बाल्यावस्था से आत्मविकास के पथ पर चलकर मानव-जीवन को कृतार्थ किया।
वंश परिचय व जन्म-आपश्री के पूर्वज सोनीगरा चौहान क्षत्रिय थे और वीर प्रसविनी मरुभूमि के घनाणी ग्राम में निवास करते थे । वि० सं० ६०५ में श्री देवानन्द सूरि से प्रतिबोध पाकर जैन ओसवाल बने और अहिंसाधर्म धारण किया । पूर्व पुरुष जगाजी शाह रानी आकर रहने लगे। रानी से पाटण और फिर व्यापारार्थ इनके वंशज श्रीमलजी वि० १६१६ में लालपुरा चले गये थे। वहाँ भी स्थिति ठीक न होने से इनके वंशज शेषमलजी पालनपुर आये और वही निवास कर लिया। इसी वंश में बेचर भाई के सुपुत्र श्री निहालचन्द्र शाह की धर्मपत्नी श्रीमती बब्बूबाई की रत्नकुक्षि से वि० सं० १९६४ की चैत्र शुक्ला १३ को शुभ स्वप्न सूचित एक दिव्य बालक ने अवतार लिया। पिता-माता के इससे पूर्व कई बालक बाल्यावस्था में ही काल कवलित हो चुके थे। अतः उन्होंने विचार किया कि यह बालक जीवित रहा तो इसे शासन सेवार्थ समर्पित कर देंगे। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार यह बालक शैशवावस्था से ही तेजस्वी और तीव्र बुद्धि था।
जब हमारे यह दिव्य पुरुष केवल १० वर्ष के ही थे तभी पिता की छत्रछाया उठ गई । और यह प्रसंग इस बालक के लिए वैराग्योद्भव का कारण बना।
शोकग्रस्त माता पुत्र अपनी अनाथ दशा से अत्यन्त दुःखी हो गये । 'दुख में भगवान याद आता है' यह कहावत सही है । कुछ दिन तो शोकाभिभूत हो व्यतीत किये । बालक धनपत ने कहा, माँ मैं दीक्षा लूंगा। मुझे किसी अच्छे गुरुजी को सौंप दें।
माता ने विचार किया अब एक बार बड़ी बहिन के दर्शन करने चलना चाहिए। माताजी की बड़ी बहिन जिनका नाम जीवीबाई था, स्वनामधन्या प्रसिद्ध विदुषी आर्यारत्न पुण्यश्री जी म. सा. के पास दीक्षा लेकर साध्वी बन गई थीं, उनका नाम था दयाश्रीजी म० । वे उस समय रत्नाश्रीजी म. सा. के साथ मारवाड़ में विचरती थीं, वहीं माता पुत्र दर्शनार्थ जा पहुँचे।
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स्व० आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागर सूरिजी म० सा० : साध्वी सभ्यग्दर्शनाश्री जी
रत्नश्री जी म० सा० ने इस बुद्धिमान तेजस्वी बालक की भावना को वैराग्यमय आख्यानों से परिपुष्ट किया और गणाधीश्वर श्री पूज्य हरिसागरजी म० सा० के पास धार्मिक शिक्षा-दीक्षा लेने को कोटा भेज दिया। वहीं रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगे । थोड़े दिनों में इन्होंने जीव विचार, नवतत्व आदि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण - स्तवन- सज्झाय आदि सीख लिये ।
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गणाधीश महोदय कोटा जयपुर पधारे। वहीं वि० सं० १९७६ के फाल्गुन मास की कृष्णा पंचमी को १२ वर्ष के किशोर बालक धनपतशाह ने शुभ मुहूर्त में बड़ी धूमधाम में ४ अन्य वैरागियों के साथ दीक्षा धारण की । इनका नाम 'कवीन्द्रसागर' रखा गया और गणाधीश महोदय के शिष्य बनें ।
अध्ययन-अपने योग्य गुरुदेव की छत्रछाया में निवास करके व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश, छन्द, अलंकार आदि शास्त्र पढ़े एवं संस्कृत, प्राकृत, गुर्जर आदि भाषाओं का सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया व जैन शास्त्रों का भी गम्भीर अध्ययन किया । यथानाम तथागुण के अनुरूप आप सोलह वर्ष की आयु से ही काव्य प्रणयन करने लग गये थे । स्वल्पकाल में हो आशु कवि बन गये । आपने संस्कृत और राष्ट्र भाषा में काव्य साहित्य की अनुपम वृद्धि की है । दार्शनिक एवं तत्वज्ञान से पूर्ण अनेक चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुतियाँ, सज्झाएँ और पूजाएँ बनाई हैं जो जैन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं । जैन साहित्य के गम्भीर ज्ञान का सरल एवं सरस विवेचन पढ़कर पाठक अनायास ही तत्त्वज्ञान को हृदयंगम कर सकता है और आनन्द समुद्र में मग्न हो सकता है । आधुनिक काल में इस प्रकार तत्वज्ञानमय साहित्य बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। जैन समाज को आप से अत्यधिक आशाएँ थीं, किन्तु असामायिक निधन से वे सब निराशा में परिवर्तित हो गईं ।
आपने ४२ वर्ष से संयमी जीवन में ३० वर्ष गुरुदेव के चरणों में व्यतीत किये और मारवाड़, कच्छ, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में विहार करके तीर्थयात्रा के साथ धर्म प्रचार किया । जयपुर, जैसलमेर आदि कई ज्ञान भण्डारों को सुव्यवस्थित करने, सूचीपत्र बनाने में गुरुवर्य महोदय की सहायता की।
आप ही के अदम्य साहस और प्रेरणा से वि० सं० २००६ में मेड़तारोड़ फलोदी पार्श्वनाथ तीर्थ गुरुदेव श्री जिनहरिसागरसूरीश्वरजी म० सा० के कर कमलों से श्री पार्श्वनाथ विद्यालय की स्थापना हुई। उसी वर्ष गुरुदेव ने मेड़तारोड़ में उपधान मालारोहण के अवसर पर मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। आपके गुरुदेव का पक्षाघात से उसी वर्ष पोष कृष्णा अष्टमी को स्वर्गवास हो जाने पर उपस्थित श्रीसंघ ने आपश्री को आचार्य पद पर विराजमान होने की प्रार्थना की, किन्तु आपश्री ने फरमाया हमारे समुदाय में परम्परा से बड़े ही इस पद को अलंकृत करते हैं । अतः यह पद वीर पुत्र श्रीमान् आनन्दसागरजी महाराज सा० सुशोभित करेंगे। मुझे जो गुरुदेव बना गये हैं, वही रहूँगा । कितनी विनम्रता और निःस्पृहता ।
योग साधना - आपको आत्मसाधना के लिए एकान्त स्थान अत्यधिक रुचिकर थे । विद्याध्ययनान्तर आपश्री योगसाधना के लिए कुछ समय ओसियां के निकट पर्वत गुफा में रहे थे, एवं लोहावट के पास की टेकड़ी भी आपका साधना स्थल रहा था । जयपुर में मोहनवाड़ी नामक स्थान पर भी आपने कई बार तपस्यापूर्वक साधना की थी । वहाँ आपके सामने नागदेव फन उठाये रात्रि भर बैठे रहे थे । यह दृश्य कई व्यक्तियों ने आँखों देखा था । आप हठयोग की आसन, प्राणायाम, मुद्रा, नेति, धौति आदि कई क्रियायें किया करते थे ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
तपश्चर्या–प्रायः देखा जाता है कि ज्ञानाभ्यासी साधु साध्वी वर्ग तपस्या से वंचित रह जाते हैं। किन्तु आप महानुभाव इसके अपवादरूप थे। ज्ञानार्जन, एवं काव्य प्रणयन के साथ ही तपश्चर्या भी समय-समय पर किया करते थे । ४२ वर्ष के संयमी जीवन में आपने मास क्षमण, पक्ष क्षमण, अट्ठाइयाँ, पंचौले आदि किये । तेलों की तो गिनती ही नहीं लगाई जा सकती।
साहित्य सेवा-आपने सैकड़ों छोटे-मोटे चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ, स्तवन, सज्झाय आदि बनाये । रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा, महावीर पंचकल्याणक पूजा, चौंसठ अष्ट कर्म प्रकारी पूजा, तथा चारों दादागुरुओं की पृथक्-पृथक् पूजाएँ एवं चैत्री पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा विधि, उपधान, विंशतिस्थानक, वर्षी तप, छमासी तप आदि के देववन्दन आदि विशिष्ट रचनाएँ की है। आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी में समान रूप से रचनाएँ करते थे । बहुत सी रचनाओं में आपने अपना नाम न देकर अपने पूज्य गुरुदेव का, गुरुभ्राताओं का एवं अन्यों का नाम दिया है । इस सारे साहित्य का पूर्ण परिचय विस्तार भय से यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
आपकी प्रवचन शैली ओजस्वी व दार्शनिक ज्ञानयुक्त थी। भाषा सरल सुबोध और प्रसाद गुण युक्त थी, रचनाओं में अलंकार स्वभावतः ही आ गये हैं । इस प्रकार आपको एक प्रतिभाशाली कवि भी कहा जा सकता है।
आचार्य पद-विक्रम सं० २०१७ की पौष शुक्ला १० को प्रखरवक्ता व्याख्यान वाचस्पति वीर पुत्र श्री जिनआनन्दसागर सूरीश्वरजी म० सा० के आकस्मिक स्वर्गगमनान्तर सारी समुदाय ने आप ही को समुदायाधीश बनाया। अहमदाबाद में चैत्र कृष्णा ७ को भी खरतरगच्छ संघ द्वारा आपको महोत्सपूर्वक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया ।
आप श्री स्वभाव से ही मिलनसार और गम्भीर थे। दयालुता और हृदय की विशालता आदि सद्गुणों से सुशोभित थे। आप श्री के अन्तःकरण में शासन, गच्छ व समुदाय के उत्कर्ष की भावनाएँ सतत जागृत रहती थीं । पालीताना में निर्मायमान श्री जिन हरि बिहार भी आपश्री की सत्प्रेरणा का कीर्ति स्तम्भ है।
__ आपश्री के कई शिष्य हुए पर वर्तमान में केवल श्री कल्याणसागरजी म. सा० तथा मुनिवर्य श्री कैलाश सागर जी महाराज ही विद्यमान है।
समुदाय के दुर्भाग्य से आपश्री पुरे एक वर्ष भी आचार्य पद द्वारा सेवा नहीं कर पाये कि करालकाल ने निर्दयतापूर्वक इस रत्न को समुदाय से छीन लिया । उग्र विहार करते हुए स्वस्थ सबल देहधारी ये महान् पुरुष अहमदाबाद से केवल २० दिन में मन्दसोर के पास बूढ़ा ग्राम फा० सुदी एकम को संध्या समय पधारे । वहाँ प्रतिष्ठा कार्य व योगाद्वहन कराने पधारे थे; परन्तु फा० सुदी ५ शनिवार की रात्रि को १२.३० बजे अकस्मात् हृदय गति के रुक जाने से नवकार का जाप करते एवं प्रतिष्ठा कार्य के लिए ध्यान में अवस्थित ये महानुभाव संघ व समुदाय को निराधार निराश्रित बनाकर देवलोक में जा विराजे । दादा गुरुदेव व शासनदेव उस महापुरुष की आत्मा को शान्ति एवं समुदाय को उनके पदानुसरण की शक्ति प्रदान करे । यही हार्दिक अभिलाषा है ।
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डॉ0 शिवप्रसाद (शोध छात्र-पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी)
खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा
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समाज की सृष्टि में नारी का विशिष्ट योगदान है । समाज का अर्थ ही है नर और नारी । उसका अर्थ न तो नर ही है और न केवल नारी। नारी के बिना सृष्टि की रचना, समाज का संगठन, जातीय कार्यकलाप, गृहस्थ जीवन सभी अधूरे हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह धार्मिक आदर्श हो. चाहे समाज-सुधार अथवा राजनीति हो, में नारी का सक्रिय योगदान रहा है ।
जहाँ तक नारियों के संन्यास या प्रव्रज्या का प्रश्न है, वैदिक युग में नारियों के लिये ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। बृहदारण्यक उपनिषद्, रामायण और महाभारत में नारियों के संन्यास लेने के प्रसंग मिलते हैं । इन नारियों ने पति के संन्यास लेने, उसकी मृत्यु अथवा योग्य वर न मिलने पर संन्यास का आश्रय लिया था । श्रमण परम्परा के जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में इन कारणों के साथ-साथ वैराग्य के कारण भी स्त्रियों के संन्यास लेने की व्यवस्था दृष्टिगत होती है।
जहाँ तक जैन धर्म में स्त्रियों की प्रव्रज्या का प्रश्न है, सूत्रकृतांग के द्वितीय श्र तस्कन्ध से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर से भिन्न थी। उत्तराध्ययनसूत्र २३/८७ में तो पाश्र्वापत्यीय श्रमणों और श्रमणियों के लिए पंचमहाव्रतों को स्वीकार करवाकर ही महावीर के संघ में सम्मिलित करने का उल्लेख है। इसी प्रकार स्पष्ट है कि महावीर के पूर्व ही जैन धर्म में भिक्ष-भिक्षणी संघ की स्थापना हो चुकी थी। आचारांगसूत्र में श्रमण एवं श्रमणियों के आचार सम्बन्धी नियमों की चर्चा से स्पष्ट है कि जैनधर्म में श्रमण संघ और श्रमणी संघ दोनों की ही साथ-साथ स्थापना हुई थी।
समाज के प्रत्येक वर्ग की महिलाओं के प्रवेश के लिए जैन श्रमणी संघ का द्वार खुला हआ था। स्थानांगसूत्र और उसकी टीका में १० विभिन्न कारणों का उल्लेख है, जिनके कारण ही स्त्रियाँ दीक्षा
१. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४-४
२. रामायण २-२६-१३, ३-७३-२६, ३-७४-३ ३. महाभारत, आदिपर्व ३-७४-१०
४. सूत्रकृतांग २,७,७१-८० ५. स्थानांग १०-७१२, टीका भाग-५, पृ० ३६५-६६
( ७० )
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ ग्रहण करती थीं। ये कारण मुख्य रूप से सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक हैं। सामान्यतः नारी अपने पति, पुत्र, भाई या अन्य किसी प्रिय सम्बन्धी की मृत्यु या प्रव्रज्या ग्रहण करने पर स्वयं भी प्रवजित हो जाती थी। कभी-कभी धर्माचार्यों के उपदेश से भी स्त्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने का उल्लेख मिलता है।
जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को समान धार्मिक अधिकार दिये गये और चतविध संघ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका भी सम्मिलित किये गये। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं में आज भी बड़ी संख्या में साध्वियाँ विद्यमान हैं। इस लेख में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की एक प्राचीन और महत्वपूर्ण शाखा-खरतरगच्छ की साध्वी परम्परा पर प्रकाश डाला गया है । विक्रम संवत् की ग्यारहवीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज भी यह गच्छ जैन धर्म के लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्ज्वल आदर्श उपस्थित कर रहा है।
खरतरगच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य, उपाध्याय, विद्वान साधु एवं साध्वियाँ तथा बड़ी संख्या में तन्त्र-मन्त्र के विशेषज्ञ, ज्योतिर्विद, वैद्यक शास्त्र के ज्ञाता यतिजन हो चुके हैं, जिन्होंने न केवल समाजोत्थान बल्कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और देश्य भाषाओं में साहित्य-सृजन कर उसे समृद्ध बनाने में महान् योग दिया है। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहितमार्ग को पुनः प्रतिष्ठित करना खरतरगच्छीय आचार्यों की सबसे बड़ी देन है।
खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली में इस गच्छ के महान् आचार्यों के दीक्षा, बिहार, साधु-साध्वी समुदाय, स्थानीय श्रावकों के नाम, राजाओं के नाम, प्रतिद्वन्द्वी धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ, तीर्थोद्धार आदि अनेक बातों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। सम्प्रति लेख में इसी गुर्वांवली के आधार पर खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा की एक झाँकी प्रस्तुत है।
वर्धमानसूरि खरतरगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासी आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरधरा में सुविहितमार्गीय मुनियों के विहार को सम्भव बनाया। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपर नाम धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, धर्मदेव, सहदेव आदि अनेक मुनियों का उल्लेख तो हमें मिलता है, परन्तु इनके द्वारा किसी महिला को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिला है। खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली से ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वगच्छीय मरुदेवी प्रवर्तिनी को आशापल्ली में उसके संथारा के समय सल्लेखना पाठ सुनाया था। जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों द्वारा धोलका निवासी भक्त वाछिग और उसकी पत्नी बाहड़देवी के पुत्र सोमचन्द्र को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। यही वालक आगे चलकर जिनदत्तसूरि के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। १. जैन और बौद्ध भिक्ष णी संघ, ड० अरुणप्रतापसिंह, पृ० १२-१३ २. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड) महोपाध्याय विनयसागर, भूमिका पृ० ४-५ ३. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड) महोपाध्याय विनयसागर भूमिका पृष्ठ ४-५। ४. यह अन्य मुनि जिनविजय जी के संपादकत्व में सिन्धी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत १९५६ ई० में प्रकाशित हो
चुका है। ५. जिनविजय जी, संपा० खरतरगच्छवहद् गुर्वावली पृ०५ (बम्बई-१९५६)
६. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छबृहदगुर्वावली पृ० १४-१५. बम्बई १९५६
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खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा : डॉ० शिवप्रसाद
जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित साध्वियों का उल्लेख तो नहीं मिलता है, परन्तु इनके समय में भी खरतरगच्छ में साध्वी संघ की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । जिनवल्लभसूरि का अत्यधिक समय विधिमार्ग के प्रसार में ही व्यतीत हुआ । उनके उपदेशों से गुजरात, राजस्थान और मालवा के अनेक स्थानों पर विधिचैत्यों का निर्माण हुआ । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के कुछ माह पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् सोमचन्द्रगणि को जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया गया ।
७२
दत्तसूरि द्वारा अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख मिलता है । उनके वरदहस्त बागड़ देश में श्रीमति, जिनमति, पूर्वश्री ज्ञानश्री और जिनश्री को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई । जिनदत्त सूरि अत्यन्त विद्यानुरागी आचार्य थे, इसीलिए उन्होंने अपने गच्छ के साधु-साध्वियों की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। श्रीमति, जिनमति और पूर्व श्री इन तीन साध्वियों को अन्य स्वगच्छीय मुनियों के साथ उन्होंने अध्ययनार्य धारा नगरी भेजा था ।" उनकी ही शिष्या गणिनी शांतिमति ने वि० सं० १२१५ में प्रकरण संग्रह की प्रतिलिपि की, जो जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में सुरक्षित है ।
आचार्य जिनदत्तसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् मणिधारी जिनचन्द्रसूरि वरतरगच्छ के नायक बने । इनके अल्पकाल के नायकत्व में भी खरतरगच्छ में अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा हुई । वि० सम्वत् १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ जिनालय पर भव्य महोत्सव के साथ सुवर्णध्वज और कलश IT आरोपण किया और साध्वी हेमादेवी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया ।" वि०सं० १२१८ में उच्चानगरी में उन्होंने ५ मुनियों के साथ जगश्री, गुणश्री और सरस्वती को साध्वी दीक्षा प्रदान की ।" वि०सं० १२२१
आचार्यश्री ने देव और उसकी पत्नी को अन्य ४ साधुओं के साथ दीक्षित किया | वि०सं० १२२३ भाद्रपद बदी चतुर्दशी को दिल्ली में आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् आचार्य जिनपतिसूरि को उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित किया गया । जिनपतिसूरि ने वि० सं० १२२७ में उच्चानगरी में धर्मशील और उसकी माता को ५ अन्य व्यक्तियों के साथ दीक्षित किया। इसके पश्वात् वे विहार करते हुए मरुकोट पधारे, जहाँ अजितश्री ने उनसे प्रवज्या ली वि० सं० १२२६ में फलवधिका में अभयमति, आसमति और श्रीदेवी ने उनसे साध्वीदीक्षा प्राप्त की ।" यहीं वि०सं० १२३४ में साध्वी गुणश्री ने महत्तरा पद और जगदेवी ने साध्वी दीक्षा ली । 10 इसी नगरी में वि०सं० १२४१ धर्मश्री और धर्मदेवी को उन्होंने श्रमणी संघ में सम्मिलित किया । 11 वि०सं० १२४५ में पुष्करणी नगरी में संयमश्री, शान्तमति एवं रत्नमति को साध्वी दीक्षा दी गयी । 12 वि० सं० १२५४ में धारा नगरी में उन्होंने साध्वी रत्नश्री को दीक्षित
१. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० १५ ( बम्बई १९५६ )
३. खरतरगच्छ बृहद्गुव विली
२. खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली पृ० १८
पृ०१८
४. श्री जैसलमेरदुर्गस्थ जैन ताड़पत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूची- पत्र, संपा० मुनिपुण्यविजय क्रमांक १५४ पृ० ५१-५२ ।
५. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २० ७. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २० ६. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २३ ११. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० २४
६. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० २० ८. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २३ १०. खरतरगच्छ्वृहद् गुर्वावली पृ० २४ १२. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० ३४
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
किया । यही साध्वी रत्नश्री आगे चलकर गच्छ प्रवर्तिनी बनीं । वि०सं० १२६० में आचार्यश्री ने लवणखेड में आर्यां आनन्दश्री को महत्तरा पद प्रदान किया। इसी नगरी में वि०सं० १२६३ में विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री और जिनश्री ने उनके वरदहस्त से भागवती दीक्षा ली और साध्वी धर्मदेवी ने प्रवर्तिनी पद प्राप्त किया। लवणखेड़ में ही वि०सं० १२६५ में आसमति और सुन्दरमति तथा वि०सं० १२६६ में विक्रमपुर में ज्ञानश्री ने उनसे साध्वी दीक्षा ली। वि०सं० १२६६ में चन्द्रश्री और केवलश्री को साध्वी-दीक्षा दी गयी और साध्वी धर्मदेवी को महत्तरा पद प्रदान कर उन्हें प्रभावती के नाम से प्रसिद्ध किया गया । वि०सं० १२७५ में आचार्यश्री ने भुवनश्री, जगमति और मंगलश्री को भागवती दीक्षा देकर श्रमणीसंघ में प्रविष्ट कराया। इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य जिनपतिसूरि के समय खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में पर्याप्त साध्वियाँ थीं।
आचार्य जिनपतिसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) खरतरगच्छ के प्रधान आचार्य बने ।' इनके समय में भी अनेक महिलाएँ साध्वीसंघ में प्रविष्ट हुईं। इन्होंने वि०सं० १२७६ में श्रीमालपुर में ज्येष्ठ सुदी १२ को चारित्रमाला, ज्ञानमाला और सत्यमाला को साध्वी दीक्षा दी। वि०सं० १२७६ माघ सुदी पंचमी को आपने विवेकश्री गणिनी, शीलमाला गणिनी और विनयमाला गणिनी को संयम प्रदान किया। वि०सं० १२८० माघ सुदि द्वादशी को श्रीमालपुर में पूर्णश्री तथा हेमश्री और वि०सं० १२८१ वैशाख सुदी ६ को जावालिपुर में कमलश्री एवं कुमुदश्री को साध्वी दीक्षा प्रदान की गई। वि०सं० १२८३ माघ वदि ६ को वांगसेर में आर्यामंगलमति प्रतिनी पद पर प्रतिष्ठित की गयीं।11 वि०सं० १२८४ में बीजापुर में वासुपूज्य जिनालय में प्रतिमा प्रतिष्ठा के अवसर पर श्रावकों द्वारा भव्य महोत्सव का आयोजन किया गया ।12 इसी नगरी में वि०सं० १२८४ आषाढ़ सुदी द्वितीया को आचार्यश्री ने चारित्रसुन्दरी और धर्मसुन्दरी को साध्वी दीक्षा प्रदान की ।13 वि०सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदी द्वितीया को बीजापुर में ही उदयश्री ने भगवती दीक्षा ग्रहण की।14 वि०सं० १२८७ फाल्गुन सुदि ५ को पालनपुर में कुलश्री और प्रमोदश्री साध्वी संघ में सम्मिलित हुई । वि०सं० १२८८ भाद्रपद सुदि १० को आचार्यश्री ने जावालिपुर में स्तुपध्वज की प्रतिष्ठा की।16 इसी बर्ष इसी नगरी में पौष शुक्ल एकादशी को धर्ममति, विनयमति, विद्यामति और चारित्रमति खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में दीक्षित की गई। वि०सं० १२८६ ज्येष्ठ सुदी १२ को चित्तौड़ में राजीमती, हेमावली, कनकावली, रत्नावली और मुक्तावली को आचार्यश्री ने प्रव्रज्या दी ।18 चित्तौड़ में इसी वर्ष आषाढ़ वदी २ को आचार्यश्री ने ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के नवनिर्मित जिनालयों में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।19 वि०सं० १२६१ वैशाख सुदी १० को जावालिपुर में शीलसुन्दरी और चन्दनसुन्दरी ने प्रव्रज्या ली।20 वि०सं०
१. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ ० ३४ ४. वही, पृ० ३४ ७. वही पृ. ४४ १०. वही पृ. ४४ १३. वही पृ. ४४ १६. वही पृ. ४४ १६. वही पृ. ४६ खण्ड ३/१०
२. वही पृ० ३४ ५. वही पृ० ३४
८. वही पृ. ४४ ११. वही पृ. ४४ १४. वही पृ. ४४ १७. वही पृ. ४४ २०. वही पृ० ४६.
३. वही पृ० ३४ ६. वही पृ. ३४ ६. वही पृ. ४४ १२. वही पृ. ४४ १५. वही पृ. ४४ १८. वही पृ० ४६
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खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा : डॉ. शिवप्रसाद
१३०६ मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को मुक्तिसुन्दरी को साध्वी दीक्षा दी गयी । 1 वि०सं० १३१३ फाल्गुन सुदी चतुर्दशी को जावालिपुर में जयलक्ष्मी, कल्याणनिधि, प्रमोदलक्ष्मी और गच्छवृद्धि इन चार नारियों श्रमणी दीक्षा दी गयी । वि०सं० १३१५ आषाढ़ सुदी १० को पालनपुर में बुद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसुन्दरी और रत्नसुन्दरी को आचार्य श्री द्वारा साध्वी दीक्षा दी गयी | वि०सं० १३१६ माघ सुदी चतुर्दशी को जालौर में आचार्यश्री ने प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया 14
७४
वि० सं० १३१६ माघ बदी पंचमी को विजयश्री तथा वि० सं० १३२१ फाल्गुन सुदी २ को चित्तसमाधि एवं शान्तिसमाधि को पालनपुर में आचार्यश्री के हाथों साध्वी दीक्षा प्रदान की गई। विक्रमपुर में वि० सं० १३२२ माघ सुदी चतुर्दशी को मुक्तिवल्लभा, नेमिवल्लभा, मंगलनिधि और प्रियदर्शना तथा वि० सं० १३२३ वैशाख सुदी ६ को वीरसुन्दरी की प्रव्रज्या हुई । इसी वर्ष विक्रमपुर में ही भार्गशीर्ष सुदी पंचमी को विनयसिद्धि और आगमसिद्धि को साध्वीदीक्षा दी गयी। 7
वि० सं० १३२४ अगहन बदी २ शनिवार को जावालिपुर में अनन्तश्री, व्रतलक्ष्मी, एकलक्ष्मी और प्रधानलक्ष्मी तथा वि० सं० १३२५ वैशाख सुदी १० को पद्मावती ने भागवती दीक्षा अंगीकार की । 8 वि० सं० १३२६ में आचार्यश्री ने श्रेष्ठिवर्ग की प्रार्थना पर २३ साधुओं तथा लक्ष्मीनिधि महत्तरा आदि १३ साध्वियों के साथ शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की । "
वि० सं० १३२८ ज्येष्ठ बदी चतुर्थी को जावालिपुर में हेमप्रभा को साध्वी दीक्षा तथा वि० सं० १३३० वैशाख बदी ६ को कल्याणऋद्धि गणिनी को महत्तरा पद दिया गया । 1 वि० सं० १३३१ में आचार्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) का स्वर्गवास हुआ 1
11
आचार्य जिनेश्वरसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् वि० सं० १३३१ फाल्गुन वदि को आचार्य जिनप्रबोध सूरि ने खरतरगच्छ का नायकत्व प्राप्त किया । आपके वरदहस्त से अनेक मुमुक्षु महिलाओं ने दीक्षा प्राप्त की, जिसका विवरण इस प्रकार है
आचार्यश्री ने वि० सं० १३३१ फाल्गुन सुदी ५ को केवलप्रभा, हर्ष प्रभा, जयप्रभा, यणप्रभा इन चार महिलाओं को दीक्षा प्रदान कर श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया । दीक्षा महोत्सव जावालिपुर में सम्पन्न हुआ । 2
वि० सं० १३३२ ज्येष्ठ वदी प्रतिपदा शुक्रवार को जावालिपुर में ही लब्धिमाला और पुण्यमाला को साध्वीदीक्षा प्रदान की गयी । 13 वि० सं० १३३३ माघ वदी १३ को आचार्यश्री ने गणिनी कुशल श्री को प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया । 14
वि० सं० १३३४ चैत्र बदी ५ को आचार्यश्री शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा पर गये । इस यात्रा में
१. खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली पृ० ५०
४. वही पृ० ५१.
७. वही पृ० ५२
१०. वही पृ० ५२. १३. वही पृ० ५५.
२. वही पृ० ५१.
५. वही पृ० ५२
८. वही पृ० ५२.
११. वही पृ० ५४
१४. वही पृ० ५५.
३. वही पृ० ५१
६. वही पृ० ५२.
६. वही पृ० ५२ १२. वही पृ० ५४.
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
७५
उनके साथ २७ मुनि तथा प्रवर्तिनी कल्याणऋद्धि आदि १५ साध्वियां भी थीं। शत्रुजय तीर्थ पर ही आचार्य श्री ने ज्येष्ठ बदी ७ को भगवान आदिनाथ की प्रतिमा के समक्ष पुष्पमाला, यशोमाला, धर्ममाला और लक्ष्मीमाला को साध्वी दीक्षा प्रदान की।
वि० सं० १३३४ मार्गशीर्ष सुदी १२ को जालौर में गणिनी रत्नश्री को आचार्य जिनप्रबोधसूरि ने प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। वि० सं० १३४० ज्येष्ठ बदी ४ को जावालिपुर में ही आपने कुमुदलक्ष्मी और भुवनलक्ष्मी को दीक्षा प्रदान की। अगले दिन अर्थात् ज्येष्ठ बदी ५ को आपने साध्वी चन्दनथी को महत्तरा पद प्रदान किया।
वि० सं० १३४१ ज्येष्ठ सुदी ४ को आचार्यश्री के वरदहस्त से जैसलमेर में पुण्यसुन्दरी, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी और हर्षसुन्दरी को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई।
इसी वर्ष फाल्गुन बदी ११ को आचार्यश्री ने जैसलमेर में ही धर्मप्रभा और हेमप्रभा को उनकी अल्पायु के कारण साध्वी दीक्षा न देकर क्षुल्लक दीक्षा दी। वि० सं० १३४१ वैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीया को आपने जिनचन्द्रसूरि को ही अपना पट्टधर घोषित कर वैशाख सुदी ११ को देवलोक प्रयाण किया।
आचार्य जिनचन्द्रसूरि (द्वितीय) ने भी अनेक मुमुक्षु महिलाओं को साध्वी दीक्षा प्रदान कर खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ के गौरव की वृद्धि की।
आपके वरदहस्त से वि० सं० १३४२ वैशाख सुदी १० को जावालिपुर में जयमंजरी, रत्नमंजरी और शालमंजरी को क्षुल्लक दीक्षा तथा गणिनी बुद्धिसमृद्धि को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। इस दीक्षा महोत्सव में प्रीतिचन्द और सुखकीर्ति को भी क्षुल्लक दीक्षा दी गयी।
वि० सं० १३४५ आषाढ़ सुदी ३ को जावालिपुर में ही चारित्रलक्ष्मी को साध्वी दीक्षा दी गयी ।10 इसी नगरी में वि० सं० १३४६ फाल्गुन सुदी ८ को रत्नश्री एवं वि० सं० १३४७ ज्येष्ठ वदी ७ को मुक्तिलक्ष्मी और युक्तिलक्ष्मी को आचार्यश्री के वरदहस्त से साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई। वि० सं० १३४७ मार्गशीर्ष सूदी ६ को पालनपुर में आपने साधु-साध्वियों को बड़ी दीक्षा प्रदान की।12
वि० सं० १३४८ चैत्र वदी ६ को बीजापुर में मुक्तिचन्द्रिका तथा इसी वर्ष वैशाख सुदी ६ को पालनपुर में अमृतश्री को साध्वी दीक्षा प्रदान की गयी ।13 वि० सं० १३५१ माघ बदी ५ को पालनपुर में ही हेमलता को साध्वी दीक्षा दी गयी।14 वि० सं० १३५४ ज्येष्ठ बदी १० को जावालिपुर में आचार्यश्री ने जयसुन्दरी को दीक्षा देकर श्रमणीसंघ में सम्मिलित किया ।
वि० सं० १३६६ ज्येष्ठ बदी १२ को आचार्य जिनचन्द्रसूरि शत्रुञ्जय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा पर निकले । इस यात्रा में आपके साथ प्रवर्तिनी रत्नश्री गणिनी आदि ५ साध्वियाँ तथा कुछ मुनि भी थे।16 तीर्थयात्रा पूर्ण कर आप भीमपल्ली पधारे जहाँ दृढ़धर्मा और व्रतधर्मा को दो अन्य व्यक्तियों के १. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० ५५. २. वहीं पृ. ५५.
३. वही पृ. ५६.
४. वही पृ. ५८. ५. वही पृ. ५८ः
६. वही पृ. ५८.
७. वही पृ. ५८. ८. वही पृ० ५६
६. वही पृ० ५६.
१०. वही पृ० ५६. ११. वही पृ० ५६.
१२. वही पृ० ६०.
१३. वही पृ० ६०. १४. वही पृ० ६१
१५. वही पृ० ६२.
१६. वही पृ० ६२.
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खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा : डॉ. शिवप्रसाद साथ क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। इसी अवसर पर गणिनी प्रियदर्शना को प्रवर्तिनी पद तथा गणिनी रत्नमंजरी को महत्तरा पद प्रदान किया ।
वि० सं० १३६६ मार्गशिीर्ष बदी ६ को आपने पाटण में गणिनी केवलप्रभा को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया।
वि० सं० १३७१ फाल्गुन सुदी ११ को भीमपल्ली में प्रियधर्मा, यशोलक्ष्मी और धर्मलक्ष्मी को भागवती दीक्षा प्रदान की गयी। इसी वर्ष ज्येष्ठ बदी १० को जावालिपुर में पुष्पलक्ष्मी, ज्ञानलक्ष्मी, कनकलक्ष्मी और मतिलक्ष्मी ने प्रवज्या ली।
प्राकृत भाषामय अंजनासुन्दरीचरित (रचनाकाल वि० सं० १४०७) की रचयिता और प्राकृत भाषा की एकमात्र लेखिका साध्वी गुणसमृद्धि महत्तरा आप की शिष्या थी।
- वि० सं० १३७५ माघ सुदी १२ को नागौर में एक भव्य समारोह में शीर्षसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि और भुवनसमृद्धि को साध्वी दीक्षा तथा गणिनी धर्ममाला एवं गणिनी पुण्यसुन्दरी को प्रवतिनी पद प्रदान किया गया । इसी अवसर पर आचार्यश्री ने पं० कुशलकीर्ति को अपना उत्तराधिकारी (पट्टधर) घोषित कर उन्हें वाचनाचार्य पद दिया । संवत् १३७६ आषाढ़ सुदी ६ को ६५ वर्ष की आयु में आचार्य जिनचन्द्रसूरि का निधन हो गया। गच्छनायक आचार्य के निधन के पश्चात् गच्छ के ज्येष्ठ मुनिजनों, साध्वियों एवं श्रावकों ने एक सभा आयोजित कर स्वर्गीय आचार्य के पूर्वआदेशानुसार गणि कुशलकीर्ति को पाटन में जिनकुशलसूरि के नाम से उनके पट्ट पर आसीन कराया।10
आचार्य जिनकुशलसूरि ने वि० सं० १३८१ वैशाख बदी ६ को पाटन में धर्मसुन्दरी और चरित्रसन्दरी को साध्वी दीक्षा दी।11 वि० सं० १३८३ वैशाख बदी ५ को कमलश्री और ललितश्री की दीक्षा हुई 112
वि० सं० १३८६ को देवराजपुर में कुलधर्मा, विनयधर्मा और शीलधर्मा ने साध्वी दीक्षा ग्रहण की13 । इसी नगरी में वि० सं० १३८८ में जयश्री और धर्मश्री को क्षुल्लिका दीक्षा दी गयी । इस प्रकार
१. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० ६३. २. वही पृ० ६४.
३. वही पृ० ६४. ४. वही पृ० ६४.
५. वही, पृ०६४ ६. सिरिजेसलमेरपुरे विक्कमचउदसहसतुत्तरे वरिसे ।
वीरजिणजम्मदिवसे कियमंजणसुन्दरीचरियं ॥५०३।। जो आसायण कुणई अणंत संसारू भमई सो जीवो। जो आसायण रक्खइ सो पासइ सासय ठाणं ॥५०४।। इति श्री अंजणासुन्दरी महासती कथानकं समाप्तम् । कृतिरियं श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यणी श्रीगुणसमृद्धिमहत्तरायाः ॥छ।। 'श्री जैसलमेर दुर्गस्थ जैन ताडपत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूचीपत्र' संपा० मुनिपुण्यविजयजी अहमदाबाद, १९७२ ई० . क्रमांक-१२७८ पृ. २८२-२८३ . ७.. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० ६५८. वही पृ० ६५
६. वही पृ० ६८ . १०. वही पृ०७० ११. वही पृ०७७
१२. वही पृ० ८० १३. वही पृ० ८२
१४. वही पृ० ८५
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ स्पष्ट है कि खरतरगच्छ में इस समय भी साध्वियों की बड़ी संख्या थी। वि० सं० १३८९ फाल्गुन वदी ५ को आचार्य श्री जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास हुआ।
दिवंगत आचार्य जिनकुशलसूरि के पूर्व आदेशानुसार क्षुल्लक पद्ममूर्ति को जिनपद्मसूरि नाम से वि० सं० १३६० ज्येष्ठ सुदी ६ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। यह पट्टमहोत्सव देवराजपुर स्थित विधिचैत्य में स्वगच्छीय साधु-साध्वियों तथा समाज के स्वपक्षीय श्रावकों के समक्ष बड़े धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।
आचार्य जिनपद्मसूरि ने वि० सं० १३९१ पौष बदी १० को लक्ष्मीमाला नामक गणिनी को प्रवतिनी के पद पर प्रतिष्ठित किया । वि० सं० १३६४ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को आप १५ मुनियों तथा जपद्धिमहत्तरा आदि ८ साध्वियाँ और कुछ श्रावकों के साथ अर्बुदतीर्थ की यात्रा पर गये। जिनपद्मसूरि द्वारा किसी महिला को साध्वी दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिलता। वि० सं० १४०४ वैशाख शुक्ल चतुदशी को अल्पायु में ही इनका दुःखद निधन हो गया।
बाद की शताब्दियों में भी खरतरगच्छ में साध्वियों की पर्याप्त संख्या रही। नाहटाजी द्वारा संकलित और सम्पादित “बीकानेर जैनलेख संग्रह" में भी १८ साध्वियों का उल्लेख मिलता है। अन्य लेख संग्रहों में भी खोजने पर कई साध्वियों का नाम मिल सकता है ।
खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में यद्यपि बड़ी संख्या में साध्वियाँ थीं, परन्तु उन्होंने स्वयं को धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित रखा। जहाँ इस गच्छ में अनेक साहित्योपासक मुनि हो चुके हैं, वहाँ श्रमणीसंघ में मात्र ४-५ विदुषी साध्वियों का उल्लेख प्राप्त होता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने नारी शिक्षा का अभाव इसका प्रमुख कारण बतलाया है। जो सत्य प्रतीत होता है।
वर्तमानयुग में नारी शिक्षा के उत्तरोत्तर प्रचार के कारण श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों की सभी शाखाओं में आज अनेक विदुषी साध्वियाँ हैं जो तपश्चरण के साथ-साथ स्वाध्याय में भी समान रूप से रत हैं। खरतरगच्छ में साध्वी सज्जनश्री ऐसी विदुषी साध्वी हैं जो अपनी विद्वत्ता के कारण ही प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः नारी शिक्षा के प्रचार के कारण मध्यकाल की अपेक्षा आज खरतरगच्छ ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जैन श्रमणीसंघ का भविष्य उज्ज्वल है।
१. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ०८५। २. वही पृ० ८५ ३. वही १०८६ ४. वही पृ० ८७
५-६. वही पृ० १७७ ७. द्रष्टव्य-परिशिष्ट-च, पृ० ३८ ८. नाहटा, अगरचन्द-कतिपय श्वे० विदुषी कवित्रियाँ, चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रंथ (आरा, विहार १९५४) पृ० ५७०
और आगे। ६. वही पृ० ५७३ ।
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D हजारीमल बांठिया, कानपुर
खरतरगच्छ की गौरवमयी परम्परा
यदि खरतरगच्छ के संस्थापक पूर्वाचार्यों ने चैत्यवास पर चोट नहीं की होती तो, यह निश्चित था कि जैनधर्म भी, बुद्धधर्म की तरह भारत की धरती से लुप्त हो जाता । चैत्यवासी परम्परा ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर सुविधाधर्म बन लिया था । अपने तन्त्र-मन्त्र-विद्या के सहारे तत्कालीन राजाओं व मन्त्रियों पर अपना अक्षण्ण प्रभाव जमा लिया था । खरतरगच्छ के आदि संस्थापक आचार्य वर्द्धमान सूरि और उनके शिष्य जिनेश्वर सूरि से लेकर जिनपतिसूरि इतने दिग्गज विद्वान हुए जिन्होंने राज-सभाओं में शास्त्रार्थं कर चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त की । स्वनामधन्य विद्वान स्व० अगरचन्दजी नाहटा ने ठीक ही लिखा है
"पाँच सौ- सात सौ वर्षों से जो चैत्यवास ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अपना इतना प्रभाव विस्तार कर लिया था, वह जिनेश्वरसूरि से लेकर जिनपतिसूरि जी तक के आचार्यों के जबरदस्त प्रभाव से क्षीणप्राय हो गया ।" अतः सुविहित मार्ग की परम्परा को पुनः प्रतिष्ठित और चालू रखने में " खरतरगच्छ ' की महान देन है । प्राचीन जैन साहित्य - इतिहास - पुरातत्व जो भी वर्तमान में उपलब्ध हैं उसका पचास प्रतिशत भाग खरतरगच्छ के जैन मुनियों, श्रावकों आदि ने रचित किया है । पुरातत्वाचार्य स्व० मुनि जिनविजयजी तो खरतरगच्छ के साहित्य से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने निष्पक्ष भाव और मुक्त हृदय से लिखा है
"खरतरगच्छ में अनेक बड़े-बड़े आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े प्रतिभाशाली पंडित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद्, वैद्यक विशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाज की उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढ़ाने में बड़ा योग दिया है । सामाजिक और साम्प्रदायिक उत्कर्ष के सिवाय खरतरगच्छ अनुयायियों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों हजारों पुस्तकें और ग्रन्थ आदि कृतियाँ जैन भंडारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों द्वारा की हुई यह उपासना न केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्व वाली है, अपितु सम्मुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है ।
"साहित्योपासना की दृष्टि से खरतरगच्छ के विद्वान यति मुनि बड़े उदारचेता मालूम देते हैं । इस विषय में उनकी उपासना का क्षेत्र, केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय की बाड़ से बद्ध नहीं है । वे जैन और जैनेतर वाङ् मय का समान भाव से अध्ययन-अध्यापन करते रहे हैं । व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक और दर्शनशास्त्र तक के अगणित अजैन ग्रन्थों पर उन्होंने अपनी
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७६
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ पांडित्यपूर्ण टीकाएँ आदि रचकर तत्तद् ग्रन्थों और विषयों के अध्ययन कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तैयार किया है।"
___ खरतरगच्छ के गौरव को प्रदर्शित करने वाली ये सब बातें मैं यहाँ पर बहुत ही संक्षेप रूप में, केवल सूत्र रूप से ही उल्लेखित कर रहा हूँ।
खरतरगच्छ में योग-अध्यात्म की अनूठी परम्परा रही है। योगीराज आनन्दघन, चिदानन्दजी, श्रीमद् देवचन्द जी, मस्तयोगी ज्ञानसागरजी (नारायण बाबा), अध्यात्मयोगी सहजानन्दघन आदि इसी परम्परा में हुए हैं। वर्तमान में माता धनबाई भी हम्पी की गुफाओं में अलख जगा रही हैं। जैनतीर्थों में शत्रुजय, गिरनार, राणकपुर, कापरड़ा, नाकोड़ा और उत्तर-पूर्व भारत में दिल्ली से लेकर गौहाटी तक सभी कल्याणक तीर्थ या मन्दिर खरतरगच्छ के आचार्यों व मुनियों की देन हैं। इनके निर्माण व जीर्णोद्धार में इसी गच्छ के मुनियों व श्रावकों ने योगदान दिया है। संक्षिप्त में यूं कहा जावे-चौबीसों तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों को तीर्थरूप देने में इसी गच्छ के आचार्यों व मुनियों की सूझ-बूझ थी।
__सही मायनों में “युगप्रधान" शब्द को सार्थक करने वाले चारों दादा इसी गच्छ की परम्परा के हैं जिनके नाम की माला समस्त जैन व अनेकों जैनेतर प्रतिदिन जपते हैं। समस्त भारत में जहाँ भी श्वेताम्बर जैनों के घर हैं, जैन दादावाड़ियाँ बनी हुई हैं जो आज करोड़ों-अरबों की जैन-सम्पति है। इसी “युगप्रधान" शब्द व “दादावाड़ी" का चमत्कार देखकर अन्य जैन समाज भी इन्हीं दोनों का प्रयोग कर अपने को धन्य मान रही है।
नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि की आगम टीकाएँ, उपाध्याय जमसोम की “युगप्रधानाचार्य गूर्वावली", आचार्य श्री जिनप्रभसूरि का "विविध तीर्थ कल्प" आचार्य अभयदेवसूरि का "जयन्तविजय" श्री जिनचन्द्रसूरि की “सम्वेग रंगशाला" महाकवि समयसुन्दर की “अष्ट लक्षी" आदि ग्रन्थ विश्व .. साहित्य के अजोड़ ग्रन्थ हैं। बाबा आनन्दघन के चौबीसी और पद तो अपने आप में अनूठे हैं ही।
खरतरगच्छ के श्रावक-श्राविकाओं ने अनेक धर्मकार्य किये, मन्दिर-मूर्तियाँ बनाईं, तीर्थों के जीर्णोद्धार करवाये, हजारों हस्तलिखित प्रतियाँ लिखवाईं। विविध धर्म प्रभावना के कार्य किये। उनका अपना महत्व है। संघपति सोमजी शाह, नर-रतन सेठ, मोतीचन्द नाहटा, मन्त्रीश्वर कर्मचन्द बच्छावत, दीवान अमरचन्द सुराणा, देशभक्त अमरशहीद अमरचन्द बांठियां, सर सिरेमल बाफना, जगत-सेठ परिवार की माणकदेवी, राक्याण परिवार के राजा भारमल आदि अनेक श्रावक-श्राविकाएँ हुई हैं जिन्होंने जैनशासन की अनुपम सेवा की है। विद्वान श्रावकों में इस युग में स्व० अगरचन्द जी नाहटा का अकेला ही ऐसा नाम है जिन्होंने अपनी पचास वर्ष की साहित्य-साधना से माँ भारती के ज्ञान भंडार को अनुपम ज्ञान-रत्नों से भर दिया और "विश्व के महान-पुरुषों के सन्दर्भ कोष" में उनका नाम आदर से जुड़ गया, जो अमेरिका से प्रकाशित हुआ है।
इसी गौरवमयी परम्परा में खरतरगच्छ के वर्तमान में साधु-साध्वियें यद्यपि संख्या में अत्यन्त अल्प हैं फिर भी वे अपनी त्याग-तपस्या एवं विद्धता से जैन एवं जैनेतर समाज में अपना विशिष्ट प्रभाव जमाये हुए हैं। इसी खरतरगच्छ की गौरवमयी परम्परा की आगमज्ञा विदुषीवर्या, शान्त, सरल स्वभाव, यथानाम तथागुण को सार्थक करने वाली प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी महाराज साहब का अभिनन्दन कर अपने को कृत-कृत्य मान रहे हैं। उनके चरणों में शतशः नमन-अभिनन्दन ।
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श्री भंवरलाल नाहटा
खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय
आर्यावर्त में तो तीर्थ शब्द अत्यन्त श्रद्धास्पद है ही, समस्त विश्व में भी महत्वपूर्ण धार्मिक स्थानों या महापुरुषों से सम्बन्धित अधिस्थानों को सभी धर्मों में आदरणीय माना जाता है। 'तीर्यते अनेन यत्तत्तीर्थः' अर्थात् जिसके द्वारा तिरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं। यह शब्द जैन परम्परा में प्रवचन या चतविध संघ का द्योतक होने से उसके कर्ता तीर्थंकर कहलाते हैं । यों तीर्थ शब्द तविषयक पारगामित्व के कारण ही व्याकरणतीर्थ, न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ आदि में प्रयुक्त होता है एवं उसी प्रकार गंगा, त्रिवेणी माग आदि तीर्थ-तिरने के घाट भी लोक प्रसिद्ध हैं । यहाँ और अधिक स्पष्टीकरण के लिए 'तीर्यते संसार सागरो येन तत् तीर्थम्' परिभाषा द्रष्टव्य है । तीथे दो प्रकार के होते हैं-एक जंगम और दूसरा स्थावर । जंगमतीर्थ हैं आत्मस्थ महापुरुष आचार्य, उपाध्याय और साधुजन एवं स्थावर तीर्थ हैं वे स्थान, जहाँ पर तीर्थकर भगवंतों का च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान और निर्वाण हुआ है । आचारांग सूत्र, आवश्यक निर्यक्ति और भाष्यादि प्राचीनतम आगमों में इन तीर्थों का उल्लेख पाया जाता है, जो कल्याणक भूमि अथवा भगवान के विचरण द्वारा पवित्रित है । आचारांगनियुक्ति की गाथा, ३२६ से ३३२ तक कल्याणकभमियों, देवलोक के विमान, असुरादि के भवन, मेरुपर्वत व नन्दीश्वर के चैत्यों व भूमिस्थ व्यन्तर नगरों में वर्तमान जिनप्रतिमाओं तथा अष्टापद, उज्जयन्त, गजानपद, धर्मचक्र, पार्श्वनाथतीर्थ, रथावर्त और चमरोत्पात तीर्थों को नमस्कार किया गया है ।
. इन गाथाओं में नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी चतुर्दश पूर्वधर श्रु तकेवली द्वारा शाश्वत चैत्यों के साथ अशाश्वत सात तीर्थों का वन्दन किया है । अतः शास्त्र एवं इतिहास प्रमाण से तीर्थों का अस्तित्व एवं उनकी उपादेयता निर्विवाद अनादिकालीन सिद्ध हैं।
चैत्यवंदन कूलक की गाथा में १ मंगल, २ निश्रागत, ३ अनिश्रागत, ४ भक्तिचैत्य और ५ शाश्वत चैत्यों का प्रकार जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट बतलाया है। मंगलचैत्य मन्दिरों व सदगृहस्थों के द्वार पर, निश्नाकृत व्यक्तिगत अधिकार वाले गृहचैत्यालय, अनिश्राकृत सार्वजनिक जिनालय, भक्तिचैत्य पाँच कल्याणक व तपोभूमि पर, शाश्वत चैत्य नंदीश्वरद्वीप, मेरुपर्वतादि तथा देवविमान व भवनों के अकृत्रिम चैत्य हैं । शाश्वतचैत्यों में स्वर्ग के देव, जंघाचरण विद्याचरणादि मुनि व लब्धिधारी और उन के सहाय्य प्राप्त जन दर्शन-पूजन करते हैं जिससे अनादिकालीन जिनप्रतिमा का दर्शन-पूजन स्वतःसिद्ध है।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
मूर्ति आदि के अवलम्बन बिना ध्यानसिद्धि व निरालम्बध्यानश्रेणि प्राप्त करना असंभव है । इतिहास प्रमाण व शास्त्रप्रमाण से मूर्ति के बहाने मूत्तिमान की पूजा है और उसके प्रति श्रद्धान्वित हुए विना सम्यक् दर्शन और मोक्षप्राप्ति तीन काल में भी संभव नहीं।
भगवान् के समवशरण में तीनों दिशाओं में भगवान् के बिम्ब होते थे, अर्थात् नौ पर्षदाएँ तो उन्हीं के दर्शन से सम्यक्त्व प्राप्त करते थे, केवल पूर्वाभिमुख भगवान् के साक्षात् दर्शन तीन पर्षदाओं को होते थे । श्रीदेवचन्दजी महाराज ने लिखा है कि मुनि अपने स्थान से जिनवन्दन, ग्रामान्तर विहार, आहार हेतु गोचरी और स्थंडिल भूमि-इन चार कारणों से ही उठते हैं। महानिशीथ सूत्रानुसार यदि मुनि जिनवन्दनार्थ, जहाँ जिनालय हो न जाय तो उसे पाँच उपवास का दण्ड आता है । मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी मुस्लिम भी तीर्थयात्रा (हज) को महत्व देते हैं।
सम्राट मुहम्मद तुगलक सुप्रसिद्ध खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनप्रभसूरि से इतना प्रभावित था कि उसने भगवान महावीर की प्रतिमा को अपने उच्च अधिकारियों के कन्धे पर चढ़ाकर आदर सहित बुलाया एवं दिल्ली में जिनालय, उपाश्रय और जैन बस्ती (सुलतान सराय, भट्टारक सराय) आदि को राज्य की ओर से निर्माण कराया। इतना ही नहीं सम्राट रवयं सूरिजी के साथ शत्रुजय यात्रार्थ गया। जैन अमूर्तिपूजक वीतराग देव के मन्दिरों को अमान्य कर हृदय की माँग को कालीजी, भैरोंजी, रामदेवजी आदि ही नहीं पीरों तक को मानकर पूर्ण करता है। जबकि अनादिकाल से मान्य जिनप्रतिमा को पाँच सौ वर्ष पूर्व तक किसी ने अमान्य नहीं किया। कई लोग बड़े आडम्बर का कारण कहकर बहाना बनाते हैं पर सचमुच में देखा जाय तो आज का आडम्बर उस चैत्यवासी युग के अविधि मार्ग से बढ़कर कुछ भी नहीं । मन्दिरों में वेश्यानृत्य, पानचर्वण, रात्रि में अनुष्ठान, गद्दे-तकिये लगाना मठधारी के लिए सामान्य था । जिसका विरोध हरिभद्रसूरिजी से लगाकर श्री वर्द्ध मानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिपूरि आदि आचार्यों ने विधि मार्ग प्रचारित कर, चैत्यवासियों के विरोध द्वारा जैनधर्म का बौद्धों की भाँति, तिरोभाव होने से बचा लिया। इन महान् आचार्यों ने विधिचैत्यों की प्रतिष्ठा की, अविधिवजित आज्ञा को शिलोत्कीणित किया और त्याग-वैराग्य भाव वाले चैत्यवासियों को उपसम्पदा देकर सुविहित मार्ग में प्रविष्ट कराया।
जैन तीर्थों पर चैत्यवासियों का प्रभाव अल्प ही था फिर भी दुष्प्रभाव न बढ़े इसलिए विधिचैत्य और खरतरवसही निर्माण का कार्य यथावश्यक चालू रहा । अणहिलपुर पाटण में दुर्लभराज की सभा में शास्त्रार्थ कर चैत्यवासियों को पराभूत करने से पूर्व तो सुविहित साधुओं का चंचुप्रवेश भी गुजरातादि में नहीं था । स्वयं वर्द्धमानसूरि, जिनेश्ररसूरि आदि १८ ठाणों को ठहरने तक का स्थान चैत्यवासियों के आतंक के कारण नहीं मिला था। उनके अधिकृत स्थानों में दर्शन-पूजन-भक्तिभाव में विघ्न-बाधा की उपस्थिति के कारण स्थान-स्थान पर विधिचैत्यों ने प्रतिष्ठित होकर तीर्थ का रूप धारण किया।
सम्यकत्व सप्तति टीकादि के अनुसार आबूतीर्थ के निर्माता विमलमन्त्री और तिलकमञ्जरी के कर्ता कवि धनपाल का सम्बन्ध वर्द्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि से था। आबू की सुप्रसिद्ध कलापूर्ण विमलवसही की प्रतिष्ठा सं० १०८८ में वर्द्धमानसूरि आदि आचार्यों ने करवायी थी। जिसका उल्लेख प्रबन्धों व पट्टावलियों में संप्राप्त है। वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के अनुसार आबू की प्राचीन प्रतिमा श्रीवर्द्ध मानसूरिजी द्वारा ही प्रगट हुई थी। "वद्ध माणसूरिहि तित्थं पयडियं" अर्थात् बर्द्ध मानसूरि ने आबूतीर्थ को प्रगट किया। खण्ड ३/११
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भँवरलाल नाहटा स्तंभन पार्श्वनाथ भगवान् की सातिशय प्रतिमा नवांगीवृत्तिकारक अभयदेवसूरिजी द्वारा जयतिहुअण स्तोत्र की रचना / स्तवना से प्रगट हुई और प्रभु के न्हवण जल से आचार्यश्री का रोग उपशान्त हो गया । आज यह तीर्थ खम्भात नगर में सप्रभावी है । उनके पट्टधर श्रीजिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़, नागौर आदि अनेक नगरों में विधिचैत्यों की स्थापना करवायी और चित्रकूटीय प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाकर विधिचैत्यों के नियम लिखवाये । इस अष्टसप्तति का विशद परिचय महोपाध्याय विनयसागर जी द्वारा लिखित श्रीजिनदत्तसूरि सेवा संघ की स्मारिका में प्रकाशित किया गया है ।
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परम पितामह युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी ने अजमेर, कन्यानयन, विक्रमपुर, नरहड़ आदि अनेक स्थानों में विधिचैत्य स्थापित करवाये। जांगलू तथा अजयपुर में एक ही दिन में प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ हैं जिनमें विधिचैत्य का नाम है । यह अवश्य ही जिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं । उनके पट्टधर मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने भी कई प्रतिष्ठाएँ कराई थीं ।
वादि विजेता श्रीजिनपतिसूरिजी ने कन्नाणा में अपने चाचा साह मानदेव कारित जिस महाar प्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की वह भी अपने अतिशय के कारण तीर्थरूप में मान्य हुई और श्रीजिनप्रभसूरिजी को मुहम्मद तुगलक बादशाह ने भेंट की और मन्दिर निर्माण कराके प्रतिष्ठित की, वह मन्दिर सतरहवीं शती तक विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं । विविध तीर्थंकल्प के दो कल्पों में इनके चमत्कारों का विशद वर्णन है ।
युग प्रधानचार्यगुर्वावली के अनुसार आचार्य श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज अजमेर से अनेक नगरों के विशाल संघ के साथ तीर्थयात्रा हेतु निकले और चन्द्रावती आदि होते हुए आशापल्ली पधारे । वहाँ सेठ क्षेमंधर के पुत्र प्रद्य मनाचार्य से शास्त्रार्थ का उपक्रम चला और इसी बीच स्तंभन, गिरनारादि यात्रा करके आये । इस यात्रा का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। यह प्राप्त प्रमाणानुसार सं० १२४४ की संघ यात्रा थी ।
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सं० १३२६ में स्वर्णगिरि से भुवनपाल के पुत्र अभयचंद्र तथा देदा आदि के संघ सहित श्रीजिनेश्वरसूरि, जिनरत्नसूरि, चन्द्रतिलकोपाध्याय आदि १३ साधु और १३ ठाणा लक्ष्मीनिधि महत्तरादि साध्वियों के साथ पधारे। शत्रुञ्जय में बीस हजार और उज्जयंत में १७ हजार भण्डार में आमदनी हुई। इन दिनों स्वर्णगिरितीर्थ बड़ी उन्नति पर था । वहाँ जिनालयों की प्रतिष्ठा, दीक्षादि अनेक उत्सव हुए। बीजापुर, पालनपुर आदि में सर्वत्र प्रतिष्ठाऍ हुई । श्रीजिनप्रबोधसूरिजी ने तारंगा, स्तंभन तीर्थ, भरौंच आदि की संघ सहयात्रा की । सं० १३३४ में भीलड़ियाजी में दीक्षा और प्रतिष्ठा महोत्सव हुए । चित्तौड़ में भी प्रतिष्ठा स्वर्णगिरि में भी हुई ।
सं० १३३७ में बीजापुर के वासुपूज्य विधिचैत्य में अनेक दीक्षा प्रतिष्ठादि उत्सव हुए जिसमें वहाँ तीस हजार की आमदनी हुई। गढसिवाणादि के बाद सं० १३४० में जैसलमेर, विक्रमपुर आदि तीर्थों में प्रभावना कर जावालिपुर में महती धर्मप्रभावना करके श्रीजिनप्रबोधसूरि सं० १३४१ में स्वर्गवासी हुए ।
कलिकाल केवली श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से सं० १३५२ में वा० राजशेखर सुबुद्धिराज, तिलक, पुण्यकीर्ति आदि गणिवरों ने बड़गाँव में विहार किया । वहाँ के श्रावकों के साथ कौशाम्बी, वाराणसी, काकन्दी, राजगृह, पावापुरी नालंदा, क्षत्रियकुण्ड, अयोध्या. रत्नपुर यात्रा करते हुए हस्तिना
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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पुर तक यात्रा कर वापस आये और बिहार नगर में चातुर्मास किया । इधर आचार्यश्री अनेक स्थानों, तीर्थो, पाटण, साचौर, शंखेश्वरजी आदि में विचर कर ध्वजारोहण, उद्यापना उत्सव कराके भीमपल्ली आये और बीजापुर में चौमासा कर जावालिपुर आये ।
सं० १३५४ ज्येष्ठ बदी १० को जावालिपुर में अनेक महोत्सव हुए । सिरियाणक गाँव में महावीर प्रासादोद्धार कर बड़े ठाठ से सं० १३५५ महावीरप्रभु स्थापित किए। सं० १३५८ जैसलमेर के पार्श्वनाथ विधिचैत्य में समेतशिखरादि बिम्बों की प्रतिष्ठा की । सं० १३६१ में शांतिनाथ विधिचैत्य में वै० सु० ६ को जाबालिपुर सवालक्ष देश के संघ की उपस्थिति में श्रीपार्श्वनाथादि नाना बिम्बों की प्रतिष्ठा की ।
सं० १३६६ में खंभात के सा० जेसल ने अपने बड़े भाई तोलिय के संघपति पद और लघुभ्राता सा० लाखू के पृष्ठरक्षक पद संभालने पर श्रीपतन, भीमपल्ली बाहड़मेर, शम्यानयनादि के संघ एकत्र होने पर स्तंभ तीर्थ से देवालय प्रचलन महोत्सव किया। आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरिजी साधु-साध्वियों सहित पीपलाउली गाँव से शत्रुंजय महातीर्थ पर्वत का अवलोकन करते हुए पहुँचे । सा० सलखण के पुत्र मोकल ने इन्द्रपद महोत्सव विस्तारपूर्वक किया । शत्रुञ्जय यात्रा के पश्चात् कटकोपद्रव रहते हुए भी सौराष्ट्र में भ० नेमिनाथ और अंबिकादेवी के सान्निध्य से सुखपूर्वक गिरनारजी की तलहटी में पहुँचे । सा० कुलचन्द्र के पुत्र बीजड़ ने इन्द्र पद लिया । भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार कर संघ सहित खम्भात पहुँचे । सा० जैसल ने देवालय और पूज्यश्री आदि का प्रवेश महोत्सव कर चातुर्मास कराया । बीजापुर में सं० १३६७ में वासुपूज्य स्वामी को वंदन किया। मिती माघ कृष्णा को श्रीमहावीर स्वामी आदि के शैलमय बिम्बों की बड़े समारोह से प्रतिष्ठा की ।
इसके पश्चात् भीमपल्ली के सेठ सामल ने अनेक नगरों के संघ को आमंत्रित कर बड़े विस्तार से तीर्थ यात्री संघ का आयोजन श्रीजिनचन्द्रसूरिजी महाराज के नेतृत्व में किया । चैत्र शुक्ला १३ को देवालय के साथ संघ का प्रस्थान हुआ । श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ में वन्दना कर आठ दिन पर्यन्त महामहोत्सव का आयोजन कर भक्ति की । वहाँ पाटला ग्राम के श्री नेमिनाथ तीर्थपति को नमस्कार कर १६ साधु और १५ साध्वियों सहित संघ शत्रुंजय गिरिराज की यात्रा कर समारोहपूर्वक गिरनार तीर्थ पहुँचे । गीत-गान और वाजित्रादि के साथ तीर्थों की यात्रा की । स्वधर्मीवात्सल्य और अवारित सत्र चालू थे । भिन्न-भिन्न श्रावकों व संघपति आदि ने जो लाभ लिया वह गुर्वावली में विस्तार से वर्गित है । वायड़ गाँव में श्री महावीर (जीवित) स्वामी की यात्रा बड़े विस्तार से करके श्रावण कृष्णपक्ष में भीमपल्ली में प्रवेशोत्सव हुआ ।
श्रीजिनचन्द्रसूरिजी महाराज भीमपल्ली से जाबालिपुर पधारे। ज्येष्ठ बदी १० को दीक्षा मालारोपणादि अनेक महोत्सव हुए। इसके पश्चात् म्लेच्छों द्वारा जावालिपुर का भंग होने से अनेक ग्रामों के संघ को सन्तुष्ट कर रूणापुर से ३०० गाड़ों के संघ सहित श्रीफलवर्धी तीर्थयात्रार्थं पधारे। म्लेच्छ व्याकुल सवालक्ष देशरूपी खारे समुद्र में भगवान् पार्श्वनाथ की अमृतकप तुल्य बड़े समारोहपूर्वक यात्रा महोत्सव हुआ । फिर नागौर संघ की विनती से नागौर पधारे ।
इसके पश्चात् सिन्धु देश के ग्राम नगरों में विचरकर फिर संवत् १३७४ के शेष में लौटे । कन्यानयन- वागड़ देश और सपादलक्ष देश के संघसंह द्वितीय बार फजवद्धि तीर्थ की यात्रा की । अवारित
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
सत्र और स्वधर्मी वात्सल्यादि का बड़ा ठाठ रहा। फिर तीसरी बार दिल्ली, हरियाणा-वागड़ सवालक्ष, मरुधर देश के संघ सहित अत्यन्त ठाट-बाट से यात्रार्थ पधारे।
संवत् १३७५ वैशाख बदी ८ को मन्त्रीदलीय ठा० प्रतापसिंह के पुत्र अचल ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से फरमान प्राप्त कर नागौर, रूण, कोसवाणा, मेड़ता, नौहा, झंझणु, नरहड़, कन्यानयन, आसिका (हाँसी), दिल्ली, धामइना, यमुनापार नाना स्थान वास्तव्य संघ के साथ हस्तिनापुर, मथुरा यात्रार्थ श्रीजिनचन्द्रसूरि सपरिकर यात्रा की। श्री महावीर जी, कन्नाणा तीर्थ में आठ दिन तक अठाई महोत्सवादि महान् धर्मप्रभावक कार्य किये । यमुना पार वागड़ देशीय संघ के ४०० घोड़े, ५०० गाड़ियाँ, ७०० वृषभ थे। चातुर्मास खंडासराय में करने को रुके फिर मथुरा तीर्थ की यात्रा भी बड़े विस्तार से की। मथुरा में सुपार्श्व, पाव और महावीर तीर्थंकरों की यात्रा हुई। अवारित सत्र और स्वधर्मीवात्सल्यादि का बड़ा ठाठ रहा । दिल्ली में दादा श्रीजिनचन्द्रसूरि स्तूप की दो बार समारोहपूर्वक यात्रा की। लौटते हुए फिर कन्यानयनीय महावीर जी आदि तीर्थों की यात्रा कर एक मास ठहरे फिर २४ दिन मेड़ता में रुककर कोसवाणा पधार कर स्वर्गवासी हुए।
सं० १३७६ में गुजरात की राजधानी पाटणतीर्थ में शान्तिनाथ विधिचैत्य में बड़े भारी समारोह से प्रतिष्ठोत्सव हुआ । इसी दिन शत्रुजय तीर्थ पर आदिनाथ विधिचैत्य का निर्माण आरम्भ हुआ। वहाँ के लिए भी पाषाण; रत्न और धातुमय अनेक जिनबिम्ब, गुरुमूर्तियों आदि की प्रतिष्ठा श्रीजिनकुशलसूरिजी महाराज ने की। बीजापुर के वासुपूज्य तीर्थ की यात्रा करने पधारे। तीसरा चौमासा भी पाटण में हुआ।
शत्रुजय के मानतुग विहार-खरतरवसही के मूलनायक हेतु २७ अंगुल की अति उज्ज्वल बिम्ब निर्माण हुआ और अनेक पाषाण व धातुमय बिम्ब गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठा हेतु शत्रुजय गिरराज यात्रा की, कुकुम पत्रिकाएँ भेजी गई और दिल्ली के रयपति आदि अनेक श्रावक श्रीजिनकुशलसूरिजी का आदेश प्राप्त कर सुलतान गयासुद्दीन तुगलक के फरमान के साथ सभी नगर प्रान्तों के संघसहित पाटण आये । उन्हें श्रीजिनकुशलसूरिजी १७ साधु और १६ साध्वियों का साथ/सान्निध्य प्राप्त हो गया। यह संघ कन्यानयन के श्रीमहावीरजी, नरभट के नवफणा पार्श्वनाथ, फलौदी, पार्श्वनाथ, जालौर-स्वर्णगिरि आदि मार्गवर्ती तीर्थों की यात्रा करके आया था। पाटण से मार्ग में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा कर आषाढ़ बदी ६ के दिन सूरिजी श्री शत्रुजय महातीर्थ पहुंचे । श्री जिनकुशलसूरिजी ने विद्वत्तापूर्ण नव्यस्तोत्र-स्तुति रचना द्वारा प्रभु को नमस्कार किया। प्रतिष्ठा महोत्सव अभूतपूर्व उत्साह से समारोहपूर्वक हुआ। मिती आषाढ़ बदी ७ को जलयात्रा करके आदिनाथ भगवान् के मूल मन्दिर में नेमिनाथस्वामी आदि के अनेक बिम्ब व अनेक गुरुमूर्तियाँ समयशरणादि की प्रतिष्ठा बदी ६ को हुई। हजारों स्त्री-पुरुषों ने नवमी के दिन नन्दि महोत्सवपूर्वक व्रत ग्रहण किये।
संघ ने बड़े आडम्बरपूर्वक प्रयाण किया और निरुपद्रव श्री गिरनार जी पहुंचे। यहाँ भी आषाढ़ चौमासी के दिन तीर्थपति नेमिनाथ भगवान् की नवनिर्मित स्तुति स्तोत्रों से वन्दन किया। श्रावकों ने तलहटी में आकर तीन दिन तक स्वर्णाभरण, वस्त्रादि प्रचुर परिमाण में वितरित किये। फिर समस्त संघ निराबाध रूप से श्रावण शुक्ल १३ को पाटण नगर के उपवन में पहुँचे । संघ के समाधान हेतु १५ दिन विराजकर बड़े भारी समारोह से भाद्रपद वदी ११ के दिन पाटण नगर में प्रवेश किया।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
सं० १३८१ मिती वैशाख बदी ५ को पाटण के शान्तिनाथ विधिचैत्य में श्रीजिनकुशलसूरिजी द्वारा विराट् प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ जिसमें अनेक नगरों के मुख्य श्रावक संघ की उपस्थिति थी। इसमें जालौर के लिए महावीर प्रतिमा, देरावर के लिए आदिनाथ, शत्रजय की बूल्हावसही के लिए श्रेयांसनाथ, शत्रुजय के अष्टापद प्रासाद के लिए चौबीस जिन बिम्ब आदि २५० पाषाण व पित्तल की अगणित मूर्तियाँ एवं उच्चापुर के लिए श्रीजिनदत्तसूरि, पाटण व जालौर के लिए जिनप्रबोधसूरि, देरावर के लिए जिनचन्द्रसूरि, अंबिका तथा स्व भंडारयोग्य समोशरण की प्रतिष्ठा की।
भीमपल्ली (भीलड़ियाजी) के सुप्रसिद्ध श्रावक वीरदेव ने सम्राट गयासुद्दीन से शत्रुजय यात्रार्थ फरमान प्राप्त कर देश-विदेश के संघ को आमन्त्रित किया । ज्येष्ठ बदी ५ को श्रीजिनकशलसरि जी ठा० १२ व प्र० पुण्यसुन्दरी आदि साध्वीवृन्द सहित भीमपल्ली से साथ चले। वायड़ में श्री महावीर स्वामी, सैरिसा में श्री पार्श्वनाथ आदि विविध तीर्थों में ध्वजारोप पूजा, सरखेज देवालय प्रवेशोकोत्सव से आशापल्ली में युगादिदेव वंदनकर मालारोपण महोत्सव किया। फिर पूज्यश्री संघ के साथ खंभात पधारे । स्तंभन पार्श्वनाथ और अजितनाथ भगवान् की यात्रा की । यहाँ आठ दिन तक वीरदेव ने अनेक प्रकार के महोत्सव किये फिर धंधुका महानगर में अनेक संघवात्सल्यादि हुए। शत्रुजय पहुंचकर दूसरी बार यात्रा की । आठ दिन तक अनेक उत्सव हुए । युगादिदेव विधिचैत्य में नवनिर्मित चतुर्विंशति जिनालय पर कलश-ध्वजारोप समारोहपूर्वक हुआ। शत्रुञ्जय से लौटते शेरीषा पार्श्वनाथ यात्रा कर शंखेश्वरजी आकर चार दिन महापूजा, अवारित सत्र, स्वधर्मीवात्सल्य, महाध्वजारोपकर पाडलालंकार नेमिनाथजी की यात्रा की । फिर भीलड़िया/भीमपल्ली पहुँचकर समस्त संघ को अपने-अपने स्थान विदा किया । अनेक प्रकार के उत्सव हुए । सांचौर तीर्थ की यात्रा की, एक मास रहे । नागहृद में महावीर स्वामी को वन्दन किया, पन्द्रह दिन संघ को संतुष्ट कर बाहड़मेर पधारे। फिर लवणखेड़ा, जावालिपुर, समियाणा गये।
सं० १३८३ फाल्गुन वदी ६ को अनेक उत्सवों के आयोजन के साथ महातीर्थ श्रीराजगृह में मंत्रीदलीय ठा० प्रतापसिंह के पुत्र अचलसिंह कारित वैभारगिरि के चतुर्विंशति जिनालय के योग्य श्री महावीर स्वामी आदि अनेक पाषाण व धातुमय बिम्ब, गुरुमूर्तियाँ, अधिष्ठायकादि की प्रतिष्ठा सम्पन्न की। इसी दिन प्रतिष्ठित एक प्रतिमा बीकानेर के सुपार्श्वनाथ जिनालय में है।
श्रीजिनकुशलसूरिजी महाराज ने जैसलमेर महा तीर्थ पधारकर सिन्धु देश की ओर विहार किया। उन दिनों सिन्ध के अनेक नगरों में प्राचीन व प्रभावशाली जिनालय एवं जैनों की बस्ती प्रचुर प्रमाण में थी। देवराजपुर, उच्चनगर, क्यासपुर, बहरामपुर , मलिकपुर, परशुरोर कोट विचरते हुए अनेक प्रतिष्ठादि उत्सव आयोजित हुए जिसमें पाषाण व धातुमय मूत्तियों की प्रतिष्ठा की। सं० १३८६ तक पाँच-छः बर्ष सिन्धु देश में धर्म-प्रचार करते हुए वहीं स्वर्गवासी हुए।
__ श्रीजिनपद्मसूरिजी ने भी आदिनाथ भगवान् और गुरुमूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ की। सं० १३६१ माघ सुदी १५ को पाटणनगर में सेठ जाल्हण के पुत्र तेजपाल (बोथरा) ने भ० ऋषभदेव आदि ५०० जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई।
बूजद्री में सेठ छज्जन के पुत्र मोखदेव ने राजा उदयसिंह के साथ जाकर सूरिजी से आबूतीर्थ यात्रार्थ विनती की । आचार्यजी ने शान्तिनाथ भगवान् के रथाकार नवीन देवालय की प्रतिष्ठा की ।
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खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा पन्द्रह साधु और आठ साध्वियों के साथ मारवाड़ और आमंत्रित संघों के साथ नागा, तीर्थवन्दन कर आबू, आरासण, चन्द्रावती, तारंगा - तृश्शृङ्गम आदि की यात्रा की ।
सुलतान मुहम्मद तुगलक श्रीजिनप्रभसूरि से बड़ा प्रभावित था । कन्यानयनीय महावीरस्वामी की प्रतिमा के चमत्कार स्वयं देख चुका था । सम्राट ने सूरिजी से पूछा- ऐसी ही प्रतिमा और कहीं चमत्कार पूर्ण है ? सूरिजी ने शत्रु जयतीर्थ का कहा तो सम्राट सूरिजी को संघ सहित लेकर शत्रुंजय गया। रायण वृक्ष से दुग्ध वृष्टि का चमत्कार देखकर शत्रुंजयतीर्थ को कोई नुकसान न पहुँचावेऐसा फरमान निकाला । फिर गिरनारजी पर जाकर प्रतिमा पर घन घाव किए। प्रतिमा से अग्नि स्फुलिंग निकलने पर क्षमायाचना कर स्वर्णमुद्राएँ भेंट कीं । शत्रुञ्जय से नीचे उतरने पर सम्राट ने सभी देवों से उत्कृष्ट अिनेश्वर देव को प्रमाणित किया । जिनप्रभसूरिजी के जीवन चरित्र और स्तवनों के अनुसार उन्होंने सभी तीर्थों की यात्रा की और स्तोत्र रचना तथा तीर्थों के ऐतिहासिक कल्प लिखे थे । जिनप्रभसूरिजी ने संघपति देवराज के संघ सहित सं० १३७६ जेठ बदी १३ को शत्रुंजय तथा ज्येष्ठ सुदी १५ को गिरनारजी की यात्रा की । सं० १३८२ में फलवद्वितीर्थ की यात्रा की थी ।
सं० १४१२ में बिहार निवासी महत्तियाण मण्डन के पुत्र ठक्कुर बच्छराज ने विपुलगिरि ( राजगृह) पर पार्श्वनाथ भगवान् का जिनालय निर्माण कराया और श्री भुवनहितोपाध्याय ने हरिप्रभ मोदमूर्ति, पुण्यप्रधानगण के साथ पूर्व देश में तीर्थयात्रा के हेतु विचर कर उक्त मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई जिसकी ३८ श्लोक की महत्वपूर्ण प्रशस्ति नाहरजी के लेखांक २३६ में प्रकाशित है ।
जैसलमेर के सर्वप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जिनालय के निर्माता रांका परिवार की एक प्रशस्ति जैसलमेर भंडार सूची क्रमांक ४२६ में प्रकाशित है जो संदेहविषौषधि शास्त्र की है । उसमें पारिवारिक स्त्री-पुरुषों के नामोल्लेख सह उनके विशिष्ट धर्मकार्यों का विवरण दिया है । जैसल के पुत्र आंबराज द्वारा जो संघ देरावर यात्रार्थ गया था वह श्रीजिनोदयसूरिजी के उपदेश से गया था । सं० १४२७ में जो प्रतिष्ठोत्सव हुआ वह उच्चानगर में हुआ था । सं० १४५४ में भावसुन्दर का दीक्षोत्सव किया । सं० १४४६ में शत्रुंजय-गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की। जिनराजसूरिजी द्वारा मालारोपण हुआ । धन्नाधामा ने ज्ञानपंचमी का उद्यापन किया और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पास बहिन सरस्वती ने दीक्षा ली जिसका नाम चारित्रसुन्दरी हुआ ।
सं० १४३० के पूर्व श्रीलोकहिताचार्यजी महाराज ने पूर्वं देश के तीर्थों की यात्रा करके अयोध्या में चातुर्मास किया । इस यात्रा में जो प्रतिष्ठा, व्रतग्रहणादि अनेक धर्मकृत्य हुए उनके विवरणात्मक एक महत्वपूर्ण पत्र उन्होंने श्रीजिनोदयसूरिजी महाराज के पास भेजा था, वह अभी तक कहीं से भी उपलब्ध नहीं हो सका है। सौभाग्य से उसके प्रत्युत्तर में श्रीजिनोदयसूरिजी द्वारा प्रेषित विज्ञप्ति - महालेख सम्प्राप्त हुआ है जिसमें उनके समाचारों का समर्थन और मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि स्थानों की तीर्थयात्रा व धर्मोन्नायक कार्यों का सविस्तार वर्णन है । इससे ज्ञात होता है कि श्री लोकहिताचार्यजी को मंत्रीदलीय ठ० चन्द्र के पुत्र ठ० राजदेव सुश्रावक ने मगधदेश के तीर्थों व ग्राम नगरों में विचरण कराया। उन्होंने विपुलाचल, वैभारगिरि आदि की यात्रा की और विचरण कर ब्राह्मणकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड भी पधारे। राजगृह के उपर्युक्त दोनों पहाड़ों पर उन्होंने बड़े विस्तार से निम्बादि की प्रतिष्ठा कराई थी । पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजयजी ने लिखा है कि यह पत्र बहुत ही सुन्दर और प्रौढ़ साहित्यिक भाषा में बाण, दण्डी और धनपाल जैसे महाकवियों द्वारा प्रयुक्त गद्य
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
शैली के अनुकरणरूप एक आदर्श रचना है। आलंकारिक भाषा की शब्द छटा के साथ इसमें ऐतिहासिक घटना निदर्शक वर्णनों का भी सुन्दर पुट सम्मिश्रित है ।
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इस विज्ञप्ति महालेख से ज्ञात होता है कि श्रीजिनोदयसूरिजी ने नागौर में मालारोपण उत्सव कराये व तीन बार फलौदी तीर्थ की यात्रा की । कोसवाणा में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के चरण स्तूप वन्दना कर सोजत, बाडोल होते हुए मेवाड़ पधारे । मेवाड़ से केलवाड़ा और करहेड़ा पार्श्वनाथ पधारे । सेठ रामदेव और दूसरे बहुत से श्रावकों के नामोल्लेख पूर्वक तत्र सम्पन्न धर्मकार्यों का विशद वर्णन विज्ञप्ति-महालेख में है । इस समय कल्याणविलास, कीर्तिविलास, कुशलविलास मुनि और मतिसुन्दरी, हर्षसुन्दरी साध्वियों का दीक्षा महोत्सव हुआ । सेठ रामदेव ने सात आठ दिन पर्यन्त स्वधर्मी वात्सल्य तथा विपन्न साधर्मियों की सहायता के साथ पाँच दिन तक अमारि उद्घोषणा करवायी थी । मिती फाल्गुन शुक्ला ८ सोमवार को अमृतसिद्धि योग में श्री सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु विहरमान तीर्थंकर तथा श्री जिनरत्नसूरि प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी । उस समय मेवाड़ में म्लेच्छोपद्रव और व्यन्तरोपद्रव होते हुए भी दीक्षा और प्रतिष्ठा के उत्सव निर्विघ्न तथा सम्पन्न हुए ।
श्री जिनोदयसूरिजी ने पाटण के मंत्री वीरा और मंत्री सारंग आदि की विनती से गुजरात की ओर विहार किया । वे नागह्रद, ईडर, बड़नगर, सिद्धपुर होकर पाटण पधारे । वहाँ से गुजरात, मेवाड़, मारवाड़, सिंध, कौशल आदि देश के संघ सहित शत्रुंजय, गिरनार की यात्रा की । शत्रुंजय के मानतुरंग खरतर विहार में ध्वजारोपणादि उत्सव हुए । मूल मन्दिर में ज्येष्ठ बदी के ३ दिन ६८ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की ।
विज्ञप्ति त्रिवेणी से विदित होता है कि सं० १४८३ का चातुर्मास मम्मणवाहणपुर में करके मरुकोट महातीर्थ का यात्री संघ निकला । उस समय सिंध के अनेक स्थान खरतरगच्छीय महापुरुषों के प्रतिष्ठित तीर्थरूप में प्रसिद्ध हो गये थे । उपाध्यायजी ने फरीदकोट आकर ब्रह्मक्षत्रिय और ब्राह्मणों आदि को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था । यहाँ एक यात्री से समाचार ज्ञात हुआ कि अनेक तीर्थं नष्ट हो जाने पर भी सुशर्मपुर नगरकोट का सप्रभाव तीर्थ आज भी अखण्ड है । उपाध्यायजी महाराज के उपदेश से वहाँ के लिए संघ निकालने की तैयारियाँ होने लगीं। इसी बीच उन्होंने माबारखपुर जाकर बड़े ठाठ के साथ श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा की । वहाँ श्रावकों के सौ घर थे । फिर विशाल यात्री संघ निकला, जिसने ज्येष्ठ सुदी ५ को नगरकोट पहुँचकर साधु क्षेमसिंह के बनवाये हुए शान्तिनाथ जिनालय के दर्शन किये जो खरतरगच्छाचार्य श्री जिनेश्वरसूरि प्रतिष्ठित था । दूसरा मन्दिर राजा रूपचन्द का बनवाया हुआ था, जिसमें महावीरस्वामी की स्वर्णमय प्रतिमा थी। तीसरा मन्दिर युगादिदेव का था जिनका वन्दन कर दूसरे दिन पहाड़ी पर कांगडा किले के अनादियुगीन आदिनाथ भगवान् के सुन्दर तीर्थ के दर्शन किये। राजा नरेन्द्रचन्द्र ने संघ का स्वागत किया। लोगों ने बताया कि यह तीर्थ श्री नेमिनाथ स्वामी के समय में राजा सुशर्म ने स्थापित किया था। अम्बिका देवी के प्रक्षालन का जल और हजारों घड़े पानी से अभिषेक किया हुआ भगवान् का न्हवण जल परस्पर मिलता नहीं और दरवाजा बन्द कर देने पर भी क्षणमात्र में सूख जाता है । इस चमत्कारी तीर्थ की यात्रा कर उपाध्यायजी ने राजा नरेन्द्रचन्द्र के आमन्त्रण से राजसभा में उपदेश दिया। राजा जैन था, उसने अपने देवागार में रहे स्फटिक आदि विविध रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन कराये। वहाँ से गोपाचलपुर तीर्थ में सं० धिरिराज के बनवाये हुए शान्तिनाथ मन्दिर के दर्शन किये। नन्दवनपुर (नांदीन ) में महावीर स्वामी व कोटिल ग्राम में पार्श्वनाथ भगवान् की यात्रा की । देवपालपुर, कोठीपुर आदि में अपने शिष्यों को चातुर्मास के
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
लिए छोड़ा और स्वयं सं० १४८४ का चातुर्मास मलिकवाहण में किया। सिन्ध व पंजाब प्रान्त में उस समय खरतरगच्छ का बड़ा प्रभाव था, गाँव-गाँव में मन्दिर व श्रावकों के घर थे। खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के मुनिगणों का भी वहाँ चातुर्मास होता था।
सीमा प्रान्त में देरा गाजीखान, देरा इसमाइल खान, हाजीखान देरा, बन्नू आदि सर्वत्र जैनों की बस्ती थी। सिन्ध के मुलतान नगर में तथा अन्य अनेक नगरों में जैनों की भरपूर बस्ती थी। खरतरगच्छ के यति-मुनियों का विचरण होता था। मरोट तथा देरावर में सर्वत्र जिनालय और दादावाड़ियाँ थीं। लाहौर पंजाब के गुरुमुकुट स्थान में मन्त्रीश्वर कर्मचन्द वच्छावत निर्मित दादावाड़ी थी। पाकिस्तान हो जाने पर सीमा प्रान्त के मन्दिरों से प्रतिमाएँ जैन श्रावक ले आये । करांची, हालां आदि सर्वत्र जिनालय थे। हालां वाले तो अपने मन्दिर को मूर्तियाँ और ज्ञानभंडार आदि ले आये। बाकी बहुत से मन्दिर आदि पाकिस्तान हो जाने पर वहीं रह गये। गुजरांवाला में भी बड़ी बस्ती जिनालय व दादा साहब के चरणों के मैंने स्वयं दर्शन किये हैं । श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज वहाँ के जैनों को सुरक्षित भारत में ले आये । पंजाब के भारतीय नगरों में सर्वत्र जिनालय, उपाधय आदि हैं । समाणा में दादावाड़ी प्रसिद्ध है। हरियाणा के सिरसा, हिसार आदि नगरों में जैनों की पर्याप्त बस्ती है। सिरसा में दो जिनालय एवं दादावाड़ी भी हैं जिसके पीछे नहर किनारे लाखों की जमीन है जिस पर अन्यगच्छीय यति का जैनेतर कुटुम्बी कब्जा किये बैठा है।
सं० १५५०-६० के बीच बीकानेर के मन्त्रीश्वर बच्छराज के संघ सहित यात्रा का वर्णन साधुचन्द्रकृत चैत्य परिपाटी में है । मन्त्री वरसिंह ने मुजफ्फरशाह से छः मास का फरमान प्राप्त कर शत्रञ्जय, आबू, गिरनार का संघ निकाला। इसी प्रकार संग्रामसिंह आदि का भी संघ निकला था। सं० १६४४ में युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के तत्त्वावधान में संघपति सोमजी ने शत्रुजय का संघ निकाला था । इतः पूर्व सं० १६१६ में भी बीकानेर से शत्रुञ्जय का संघ निकला जिसका विस्तृत वर्णन गुणरंगकृत चैत्य परिपाटी में है।
सं० १६५७ में लिंगागोत्रीय संघपति सतीदास ने संघ निकालकर मूलमन्दिर की द्वितीय प्रदक्षिणा में जिनालय निर्माण कराया था। श्रीमद्देवचन्द्रजी ने वहां ३६ प्रतिमाएँ होने का उल्लेख किया है। इसी वर्ष तलहटी में वर्तमान माताघर के सामने 'सतीवाव" नामक सुन्दर वापी बनवाई जिसे इतिहासकारों ने शिलालेख लगा होने पर भी अहमदाबाद के सेठ शांतिदास कारित लिखने की गम्भीर भूल की है।
सं० १६७१ में बीकानेर से शत्रुञ्जय का संघ निकला जो संघपति आसकरण चोपड़ा के संघ से जा मिला । विशेष जानने के लिए बीकानेर जैन लेख संग्रह देखना चाहिए।
श्रीजिनरत्नसरिजी के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय जोधपुर के साह मनोहरदास के संघ में सूरिजी ने यात्रा कर उनके बनाये हुए चैत्य शृंगार में २४ तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा की।
__ श्रीक्षमाकल्याण जी महाराज के समय में सं० १८६६ में श्रीतिलोकचन्द लूणिया एवं राजाराम गिडीया ने शत्रजय का संघ निकाला था। उसी समय पालीताने का सुप्रसिद्ध वंडा-जहाँ वर्षी तप के पारणे होते हैं, निर्माण कराया गया था। जैसलमेर के सुप्रसिद्ध पटवों का संघ बहुत ही शानदार ढंग से निकला जिसमें कई राज्यों की सेनाएँ तथा विशाल यात्री संघ था। इस संघ में ८० लाख रुपये व्यय हुए थे।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
अजीमगंज-मुर्शिदाबाद से भी अनेकशः संघ निकले। सम्मेतशिखरजी आदि पूर्व देश के तीर्थों के संघ निकलते ही रहते थे । शत्रुञ्जय पर खरतरगच्छ संघ द्वारा अनेक मन्दिरादि बने तथा तलहटी के विशाल धनवसही मन्दिर भी स्वनामधन्य श्रीमोहनलालजी महाराज के हाथ से प्रतिष्ठित हैं ।
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अनेक बार कचरा कीका आदि के संघसह सिद्धावतजी पधारे और उनके उपदेश से अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ जिनके अनेक शिलालेख मिलते हैं। उनके गुरु श्रीदीपचन्दजी ने भी वहाँ प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। श्री आनन्दजी कल्याणजी की पेढी की स्थापना और शत्रुञ्जय पर कौओं का आना बन्द किया। नगर के बीच यतिजी का वंडा और दादावाड़ी आदि हैं। पहले खरतरवसही आदि के जीर्णोद्धार वहीवट खरतरगच्छ संघ के अधीन था और यतिजी की पूरी सेवाएँ थीं बाद में अब तो सब कुछ शेष हो गया।
जैसलमेर तीर्थ तो प्रारम्भ से ही खरतरगच्छ के कीर्तिकलाप से मण्डित है। इसके बसने के पूर्व लौद्रनपुर राजधानी थी, वहाँ के राजवंश को प्रतिबोध देकर महान् गुरुओं ने भणशाली गोत्रादि प्रतिबोध दिये थे । यहाँ किले के सभी मन्दिर अद्भुत कलाधाम हैं जो खरतरगच्छानुयायियों द्वारा निर्मापित
और प्रतिष्ठित हैं। जैसलमेर का सर्वप्रथम पार्श्वनाथ जिनालय सेठ जगद्धर का बनवाया हुआ था। इनके पूर्वज आषाढ सेठ बड़े धर्मात्मा थे जो पहले महेश्वर धर्म को मानने वाले थे। इन्होंने व्यास की दुष्टता रखकर माहेश्वरत्व छोड़कर उपके शपुर में आर्हत्धर्म स्वीकार कर लिया, उनका पुत्र जामुणाग और उसका पुत्र बोहित्थ था। इन्हों से बोथरा वंश प्रसिद्ध हुआ। बोहित्थ के पद्मदेव और वोल्ह नामक पुत्र थे। पद्मदेव ने नागौर के पास कुडलू गाँव में जिनालय निर्माण कराया। उनके पुत्र सुप्रसिद्ध सेठ क्षेमंधर हुए जिन्होंने मणिधारीजी से विधिमार्ग स्वीकार किया और सं० १२१८ में वैशाख सुदी १० को मरुकोट में धर्कटवंशीय सेठ पार्श्वनागपुत्र गोल्लक के निर्मापित चन्द्रप्रभ जिनालय में ध्वजा दण्डकलशारोहण के समय पाँच सौ द्रम देकर माला ग्रहण की। उस समय राजा सिंहबल का राज्य था । सेठ क्षेमंधर के दो पुत्र महेन्द्र और प्रद्युम्न इतः पूर्व चैत्यवासी परम्परा में दीक्षित हो चुके थे। अजयपुर के विधिचैत्य के मण्डप निर्माण हेतु सोलह हजार रुपये प्रदान किये तथा हजारों पारुत्थक व्यय कर अपने कुल के श्रेयार्थ तीर्थयात्राएँ की। सं० १२४४ में अपने पुत्र प्रद्य म्नाचार्य को प्रतिबोध देने, सुविहित मार्ग में लाने के लिए आशापल्ली में श्रीजिनपतिसूरिजी से शास्त्रार्थ कराया था।
सेठ क्षेमंधर के यशोदेवी और हंसिनी नामक दो भार्याएँ थीं। यशोदेवी के पुत्र जगद्धर ने ही जेसलमेर में देव विमान तुल्य पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण कराया। इसी मन्दिर को सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के समय यवन राज्य में तोड़-फोड़ डाला गया। जगद्धर की स्त्री साढलही के पुत्र यशोधवल, भुवनपाल और सहदेव थे। यशोधवल प्रतिदिन देशान्तर से आये हुए श्रावकों की भोजनादि से भक्ति करते। भुवनपाल छः मास भूमिशयन, एकाशन, स्नान-त्याग, षडावश्यक, नवकार जाप और ब्रह्मचर्य पालक थे। सं० १२८८ में आश्विन सुदी १० को पालनपुर में श्री जिनपतिसूरि स्तूपरत्न पर ध्वजारोपण किया। श्री भीमपल्लीतीर्थ में सौध शिखरी प्रासाद निर्माण किराया सं० १३१७ में जिनेश्वरसूरिजी द्वारा महावीर स्वामी प्रतिष्ठित कराये । इनकी पत्नी पुण्यिनी के त्रिभुवनपाल व घीदा पुत्र हुए। उनके पुत्र क्षेमसिंह और अभयचन्द्र हुए। श्री जिनेश्वरसूरिजी की संघ यात्रा में सेनापति बने थे। सेठ जगद्धर ने श्रीमाल नगर में समोशरण प्रतिष्ठा की और शान्तिनाथ स्वामी स्थापित किये। जैसलमेर का मुख्य जिनालय रांका सेठ आम्बा द्वारा निर्मापित है। आम्बा ने सं० १४२५ में विस्तार से देरावर तीर्थयात्रा खण्ड ३/१२
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
तथा सं० १४२७ में श्री जिनोदयसूरि द्वारा प्रतिष्ठोत्सव करवाया था। सं० १४३६ में यात्री संघ निकालने तथा मोहन के पुत्र कीहट द्वारा सं० १४४६ में शत्रुजय गिरनार तीर्थ का संघ निकालने का उल्लेख है। सं० १४५६ व सं० १४७३ की दो प्रशस्तियाँ लगी हैं जिसमें "खरतरप्रासाद चूड़ामणि" तथा वास्तुशास्त्र के अनुसार श्रीनन्दिवर्द्धमान प्रासाद नाम लिखा है।
दूसरा मन्दिर श्रीसंभवनाथ भगवान् का सं० १४९४ में चोपड़ागोत्रीय सा० हेमराज पूना-दीतापांचा के पुत्र परिवार सहित बनवाकर सं०१४६७ में श्री जिनभद्रसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित कराया। इस अवसर पर ३०० जिनबिम्बों की अंजनशलाका हुई। यह जिनालय भी अत्यन्त सुन्दर कलापूर्ण है जिसके नीचे तलघर में विश्वविश्रु त ताड़पत्रीय ग्रन्थों का श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार है ।
तीसरा अष्टापद प्रासाद व उसके ऊपर शान्तिनाथ जिनालय है । अष्टापद प्रासाद के मूलनायक कुन्थुनाथ स्वामी हैं । इन दोनों प्रासादों का चोपड़ा लाखण व संखवाल खेता ने मिलकर निर्माण कराया था । संखलाल खेता की मां गेली श्राविका चोपड़ा पांचा की पुत्री अर्थात् लाखण की बहिन थी। ऊपर वाले प्रासाद में ४५ पंक्तियों की महत्वपूर्ण प्रशस्ति उत्कीणित है जिसमें संखवाल परिवार के द्वारा सम्पन्न धर्मकार्यों का राजस्थानी भाषा में विशद् वर्णन है। यह प्रतिष्ठा सं० १५३६ में हुई थी। पार्श्वनाथ जिनालय से ऊपर पुल द्वारा मार्ग है, नीचे राजमार्ग है । इस पुल पर दशावतार सहित श्रीलक्ष्मीनारायणजी की मूर्ति गवाक्ष में विराजमान है।
प्रशस्ति में निर्माता के धर्मकार्यों का इस प्रकार उल्लेख है
(१) कोचरशाह ने कोरंटा और संखवाली गाँव में उत्तुंग तोरणयुक्त जिनालय बनवाये । आबू, जीरावला तीर्थ की संघ सहयात्रा की, अपना समस्त धन दान कर कर्ण विरुद पाया।
(२) सं० आसराज ने शत्रुजय महातीर्थ का संघ निकाला । धर्मपत्नी गेली जो चोपड़ा पांचा की पुत्री थी, शत्रुजय, गिरनार, आबू तीर्थों की यात्रा की । शत्रुजय पट्ट, नेमिनाथ स्वामी का सतोरण बिंब कराके संभवनाथ जिनालय में स्थापित किया । तपापट्टिका बनवाई।
(३) सं० खेता ने सं० १५११ में शत्रुजय गिरनार की संघ यात्रा प्रतिवर्ष करते हुए सं० १५२४ में तेरहवी यात्रा कर छहरी पालते हुए प्रभु पूजा की । छ? तपपूर्वक दो लाख नवकार का जाप किया, चतुर्विध संघ की भक्ति की । अपने मामा चोपड़ा लाखण के परिवार सह जैसलमेरगढ़ पर द्विभूमिक अष्टापद प्रासाद कराके सं० १५३६ फागुन सुदी ३ को जिनसमुद्रसूरिजी से प्रतिष्ठा करवायी । अनेक जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराईं। सारे मारवाड़ में समकित के लड्डू और रुपयों की प्रभावना की । स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र लिखवाये । शांतिसागरसूरि की पद स्थापना कराई । दोनों प्रासाद के दोनों तल्लों पर भमती में जिनबिंब स्थापित किए।
(४) सं० बीदा ने शत्रुजय, आबू, गिरनार की सपरिवार यात्रा की समकित के लड्डू व खांड़ की लाहण की। जिनहंससूरिजी की वर्षगाँठ महोत्सव करके प्रत्येक घर में अल्ली मुद्रा बाँटी, पंचमी तप उद्यापन व स्वर्णमुद्रादि अनेक वस्तुएँ चढ़ाई, पाँच बार लाख नवकार जाप किया।
(५) सं० सह समाज के शत्रुजय, गिरनार, राणपुर, वीरमगांव, पाटण, पारकरयात्राकर खांड व अल्ली की लाहण की। बीदा ने यात्रा से आकर प्रत्येक घर में दस-दस सेर घी की प्रभावना की।
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जिनालय के द्वारों की चौकी, पउडसाणा में जाली युक्त चौदह स्वप्न कराये । खेता व सरस्वती की मूर्ति हाथियों पर बनवाई। सं० १५८१ में जिनालयों के ऊपर पुल बनवाया । ६ आवली कोहर, कुतेक बनवाये । हजार गायें, घृत, गुड़, अन्न, रूई अनेक बार ब्राह्मणों को बाँटे ।
शीतलनाथ जिनालय-यह जिनालय डागा गोत्रीय श्रावकों का बनाया हुआ है। इसका निर्माणकाल शिलालेख प्रशस्ति के अभाव में निर्माता का नामादि निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वृद्धि रत्नमाला के अनुसार सं० १५०८ और लक्ष्मीचंद सेवक कृत तवारीख के अनुसार सं० १५०६ में डागा लूणसा मूणसा ने कराया था। अब मूलनायक प्रतिमा भी सं० १५६६ प्रतिष्ठित शांतिनाथ स्वामी की है और काष्टमय परिकर पर ताम्रजटित है।
(६) चन्द्रप्रभ जिनालय--यह तिमंजिला मन्दिर चौमुख चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमाएँ हैं । शिलालेख प्रशस्ति के अभाव में मूलनायक प्रतिमा पर सं० १५०६ कार्तिक सुदी १३ के अनुसार इसके निर्माता भणशाली जयसिंह के पुत्र बीदा और सा० मेरा, रणधीर के पुत्र देवराजवत्सराज आदि परिवार ने निर्माण कराके जिनभद्रसूरिजी से प्रतिष्ठित कराया था । सं० १५५० में हेमध्वज रचित स्तवनानुसार मेघनादमण्डप श्रेष्ठि गुणराजकारित है।।
(७) श्री ऋषभदेव जिनालय-यह जिनालय सं० १५३६ फा० सु० ५ के दिन जिनभद्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने कराई थी और निर्माता गणधर चोपड़ा सच्चू और उसके भतीज जयवंत द्वारा निमापित है। इस जिनालय में नवनिर्मित दादादेहरी सं० १९८० में गणिवर्यरत्नमुनिजी महाराज की उपस्थिति में यतिवर्य वृद्धिचन्द्रजी द्वारा प्रतिष्ठित है।
ये सात मन्दिर दुर्ग पर एक स्थान पर संलग्न बने हैं, आठवाँ मन्दिर चौगाना पाड़े में है।
(८) श्री महावीर स्वामी का मन्दिर-इसे चैत्य परिपाटी के अनुसार बरधिया साह दीपा ने निर्माण कराया था । वृद्धिरत्नजी ने सं० १५८१ में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख किया है । जैसलमेर नगर में उल्लेखनीय कलापूर्ण सुपार्श्वनाथ जिनालय है जो सं० १८६६ में तपागच्छीय संघ ने निर्माण कराके श्री दीपविजय, नगविजय से प्रतिष्ठित कराया था।
दादाबाड़ियाँ-जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान केन्द्र होने के कारण नगर के चतुर्दिक दादाबाड़ियाँ बनी हुई हैं। देदानसर, कालानसर, गढीसर, गजरूपसागर, गंगासागर आदि का विशेष परिचय न देकर बेगड़ शाखा के महत्वपूर्ण शिलालेख सं० १६६३ का ही उल्लेख करता हूँ जहाँ छाजहड़ मंत्री कालू द्वारा रायपुर में मन्दिर कराया लिखा है।
अमरसागर-लौद्रवाजी के मार्ग में अमरसागर नामक सुन्दर स्थान है जहाँ आदीश्वर भगवान के ३ जिनालय हैं जिसमें एक पंचायती मन्दिर सं० १६०३ प्रतिष्ठित है । अवशिष्ट दोनों वाफना सेठों द्वारा निर्मापित हैं । सेठ सवाईरामजी का मन्दिर छोटा है जो सं १८९७ में जिनमहेन्द्रसूरि प्रतिष्ठित है । इसकी प्रतिमाएँ विक्रमपुर से आई हुई हैं जो जिनभद्रसूरि प्रतिष्ठित थुल्ल गोत्र की और दूसरी संखवाल गोत्र की है । तीसरा विशाल कलापूर्ण मन्दिर सेठ हिम्मतरायजी का तालाब के किनारे है। इसका निर्माण १६२८ में होकर जिनमुक्तिसूरि द्वारा प्रतिष्ठित है। इस मन्दिर में राजस्थानी भाषा में सं १८६६
की ६६ पंक्ति की ऐतिहासिक प्रशस्ति है । दूसरी प्रशस्ति २६ पंक्ति की सं० १९४५ की लगी हुई है। हिम्मतरायजी के पिता प्रतापचन्दजी की सपत्नीक मूर्ति सामने पश्चिमाभिमुख चौतरे में स्थापन का उल्लेख है। मूलनायक आदिनाथ भगवान और द्वितल पर पार्श्वनाथजी और बीस विहरमान हैं । दाहिनी ओर दादा साहब के मन्दिर में सं० १६१७ प्रतिष्ठित व सामने अश्वारोही जीवनरामजी की मूर्ति सं० १९२८
की है।
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
लौद्रव-पार्श्वनाथ तीर्थ-जैसलमेर से १० मील पश्चिम की ओर लौद्रवाजी तीर्थ है जहाँ प्राचीन काल में भाटियों की राजधानी थी। सं० १२१२ में जैसलमेर बसने के बाद एकदम उजड़ गया। सगर राजा के पुत्र श्रीधर और राजधर ने जैन बनकर जिनालय वनवाया। फिर विप्लव में नष्ट हो जाने से सेठ खमसी ने जीर्णोद्धार कराया । पुत्र जूनसी ने जो १७वीं पीढ़ी में था, उसके पौत्र थाहरूशाह भनशाली ने सं० १६०५ में जीर्णोद्धार कराया। एक विशाल कोट में पंचमेरु या पंचअनुत्तर विमान के प्रतीकस्वरूप मंदिर बने । इसकी प्रतिष्ठा श्री जिनराज सूरिजी ने कराई । चारों ओर के मन्दिर सं० १६६३ में प्रतिष्ठित हुए। शतदल पद्म यंत्र और पट्टावली पट्टक बड़े महत्वपूर्ण हैं । भमती के शिखर के बाह्य भाग में अधिष्ठाता नागराज धरणेन्द्र की बाँबी है, जो कभी-कभी स्वयं भक्तों को दर्शन देते हैं । अष्टापदजी पर धातुमय कल्पवृक्ष विशाल और दर्शनीय है । दादावाड़ी संलग्न धर्मशाला में है।
ब्रह्मसर-यह स्थान जैसलमेर से उत्तर की ओर चार कोश पर है, जहाँ स्वनामधन्य श्री मोहनलालजी महाराज के सदुपदेश से सं० १९४४ में बागरेचों द्वारा निर्मापित जिनालय है । एक मील दरी पर दादाजी का स्थान है । लूणिया परिवार को सुरक्षित देरावर से निकालकर लाने की चमत्कारिक घटना प्रसिद्ध है।
देवीकोट-यह जैसलमेर से १२ कोश दक्षिण-पूर्व की ओर है । अब जैनों की बस्ती नहीं रही। जिनालय सं० १८६० में जिनहर्षसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित है। गाँव से बाहर दादाजी का स्थान है । जो सं० १८७४ में प्रतिष्ठित है।
पोकरण- यहाँ तीन जिनालय हैं । अब ओसवाल लोग बाहर जाकर बस गये, थोड़े से माहेश्वरी जैन धर्माबलम्बी हैं । मन्दिरों की व्यवस्था जैसलमेर लौद्रवा तीर्थ की पेढ़ी के अन्तर्गत है । उपाश्रय में दादाजी के चरण और ज्ञानभंडार भी हैं।
फलौदी-यह नगर खरतरगच्छ का केन्द्र होने से पचासों साधु-साध्वी इसी पुण्यभूमि से खरतरगच्छ में दीक्षित हुए । मन्दिर व दादावाड़ियों आदि का प्रभाव पर्याप्त प्रसिद्ध है । यहाँ से अनेकशः यात्री संघ भी तीर्थयात्रा हेतु निकले हैं ।
खीचन-यहाँ भी खरतरगच्छ का पर्याप्त प्रभाव रहा है । मन्दिर उपाश्रय आदि हैं, दादावाड़ी . भी हैं।
लोहावट-यहाँ के मन्दिर उपाश्रय ज्ञान-भंडारादि प्रसिद्ध हैं। खरतरगच्छ के अनेक घर बाहर जा बसे हैं फिर भी गच्छ का अच्छा प्रभाव है, चातुर्मासादि होते रहते हैं।
ओसियांतीर्थ-यहाँ का प्राचीन जिनालय ओसवालों की उत्पत्ति होने से पर्याप्त प्रसिद्ध है। मन्दिर का जीर्णोद्धार स्वनामधन्य मोहनलाल जी महाराज के उपदेश से हुआ। यहाँ का प्रसिद्ध विद्याधाम खरतरगच्छ की महिमामण्डित है।
जोधपुर-यह राजस्थान का प्रमुख नगर है, खरतरगच्छ की अच्छी बस्ती है । कई जिनालय, ज्ञान-भंडार और दादावाड़ियाँ अवस्थित हैं । साधु-साध्वियों के चातुर्मास होते रहते हैं।
कापरड़ाजी-जोधपुर से ३० मील सुप्रसिद्ध सौधशिखरी जिनालय वाला तीर्थ है। सुप्रसिद्ध राज्याधिकारी भानाजी भंडारी ने इसे तीन मंजिल ऊँचा निर्माण कराया । अब यहाँ जैनों के घर न रहने से राजस्थान के नगरों की कमेटी ही व्यवस्था करती है ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
गांगाणी-यहाँ एक मन्दिर है, जैनों की बस्ती न रहने से मन्दिर खाली है। सं० १६६२ में यहाँ भूमिगृह से अति प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं जों सम्राट संप्रति और चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मापित थीं। यहाँ अर्जुनहेम (प्लेटिनम) की मूर्ति भी मिली थी, इससे अर्जुनपुरी नाम प्रसिद्ध था। प्राचीन अभिलेखों की लिपि अम्बिका देवी की सहायता से जिनराजसूरि ने पढ़ी थी।
पाली-यह स्थान भी खरतरगच्छ का केन्द्र और आद्यपक्षीय खरतरगच्छ के श्रीपूज्यों की गादी रही है । मन्दिर, उपाश्रय, दादावाड़ी आदि हैं । साधु-साध्वियों के चातुर्मास, उपाधान आदि होते हैं ।
बालोतरा-यहाँ खरतरगच्छ की अच्छी बस्ती और भावहर्षीय शाखा के श्रीपूज्यों की गद्दी रही है । मन्दिर, उपाश्रयादि सभी हैं।
बाड़मेर-यहाँ खरतरगच्छ के सहस्राधिक घर हैं और पर्याप्त सम्पन्न हैं । जिनालयादि सभी धर्मस्थान पर्याप्त प्रसिद्ध हैं।
नाकोड़ाजी तीर्थ-यह महातीर्थ पहाड़ों के बीच अत्यन्त प्रभावशाली है जहाँ श्रीकीतिरत्नसूरिजी के कुटुम्बी संखवाल (संखलेचा) श्रावकों के आवास थे । अधिष्ठायक नाकोड़ा भैरव प्रत्यक्ष चमत्कारी हैं। सामने ही कीर्तिरत्नसूरि जी की मूत्ति विराजमान है । दो दादावाड़ियाँ व पहाड़ी पर नेमिनाथ भगवान हैं । राजस्थान के तीर्थों में सर्वाधिक आमदनी वाला और सुव्यवस्थित है, जहाँ से लाखों रुपया बाहर के मन्दिरों के जीर्णोद्धारादि में, साहित्य प्रकाशन आदि में लगते रहते हैं । पहले इसकी व्यवस्था बालोतरा वालों के हाथों में थी।
___ नागौर - यह भी अति प्राचीन नगर है जहाँ खरतरगच्छ का अच्छा प्रभाव रहा है। श्री जिनवल्लभ सूरिजी प्रतिष्ठित प्राचीन मन्दिर था । अन्य मन्दिर, दादावाड़ी और उपाश्रयादि प्रसिद्ध हैं।
फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ-यह तीर्थ मेड़ता रोड स्टेशन के पास है। यह अति प्राचीन है । यहाँ सभी गच्छों का प्रभाव रहा है । खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार यहाँ श्री जिनपतिसूरि ने भी प्रतिष्ठा सं० १२३४ में कराई थी जो मुस्लिमों द्वारा उपद्रवित होने पर भी होना सम्भव है । यहाँ हरिसागरसूरि जी का स्वर्गवास हुआ, उन्होंने छात्रालय स्थापित किया व दादावाड़ी भी है।
मेड़ता-यह प्राचीन नगर जैनों की पर्याप्त बस्ती वाला रहा है । चोपड़ा आसकरण के परिवार द्वारा निर्मापित शान्तिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा श्री जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि ने करवाई थी। जिनसिंह सूरिजी महाराज का स्वर्गवास यहीं पर हुआ था । सुप्रसिद्ध योगिराज श्री आनन्दघन जी महाराज का जन्म और महाप्रयाण भूमि भी यही है। श्री कलापूर्णसूरि जी उनका स्मारक निर्माण का प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं । स्टेशन के निकट दादाजी का स्थान है।
बिलाड़ा- यह अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि चतुर्थ दादा की स्वर्गवासभूमि है । उपाश्रय, मन्दिरादि नगर में है। अभी प्र. श्री विचक्षणश्री जी म. की प्रेरणा से नई दादावाड़ी, जिनालय व यात्रियों के ठहरने के कमरे आदि बने हैं। श्री कान्तिसागरजी महाराज ने उसकी प्रतिष्ठा करवाई । आश्विन बदी २ को मेला भरता है।
अजमेर--यह दादा श्री जिनदत्तसूरिजी की निर्वाण भूमि है । यहाँ अष्टम शताब्दी के पश्चात् काफी उन्नति हुई है । आषाढ़ सुदी ११ को मेले में हजारों की उपस्थिति होती है । भोजनशाला व छात्रों के रहने की व्यवस्था है । वृद्धाश्रम भी खोला गया है। नगरों में उपाश्रय मंदिर आदि हैं। उत्साही कार्यकर्ता श्री अमरचन्द जी लूणिया, महेन्द्र पारख आदि अच्छी सेवायें दे रहे हैं।
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खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
बीकानेर - राजस्थान के सभी नगरों में खरतरगच्छ का वर्चस्व रहा है। बीकानेर बसने से पूर्व भी कई स्थान अतिप्राचीन थे। रिणी, राजलदेसर, नौहर, भटनेर, छापर, पल्लू आदि अनेक स्थानों में जिनालय प्रसिद्ध थे । पूगल, सोरूड़ा, छापर, ददरेवा, पल्लू आदि में अब मन्दिर नहीं रहे हैं । राव बीकाजी ने बीकानेर बसाया तभी से मन्दिरों का निर्माण होना प्रारम्भ हो गया था। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चार मन्दिर बने जिनमें तीन मन्दिर खरतरगच्छीय महानुभावों ने के एक कंवलागच्छ का था । सोलहवीं शताब्दी में चिन्तामणिजी, भाण्डासरजी और नमिनाथजी तोनों मन्दिर शिल्पकला की दृष्टि से उच्च कोटि के थे । भांडासर जी का मन्दिर तो त्रैलोक्य दीपक नाम से प्रसिद्ध था । सतरहवीं शताब्दी में समयसुन्दर जी ने बीकानेर नगर की तीर्थरूप में गणना की है - बीकानेरज वंदिये, चिरनंदिये रे अरिहंत देहरा आहे । तीरथ ते नमु रे । ये चार मन्दिर १७वीं शती में बने । बाद में १६वीं शताब्दी में सब मिलाकर ३५ मन्दिर हो गये । जांगल देश की राजधानी जांगलू थी जिसका अजयपुर उपनगर था । वहाँ की एक ही मिती में प्रतिष्ठित दो प्रतिमाएँ सं० १९७६ मिती मिगसर वदी ६ के विधित्यों की हैं। विक्कमपुर प्राचीन नगर भी बीकानेर रियासत के भूभाग में है जहाँ सवालाख नव्य जैन प्रतिबोध में मन्दिर प्रतिष्ठाएँ आदि श्रीजिनदत्तसूरि जी महाराज ने की थीं । द्वितीय दादा की जन्मभूमि भी वहीं है जहाँ अब कुछ भी पुरातत्व नहीं बचा है। बीकानेर रिसायत में चूरू, सुजानगढ़ आदि के जिनालय कलापूर्ण व दर्शनीय हैं । श्रीचिन्तामणिजी के भूमिगृह में ११०० जिनप्रतिमाएँ इतिहास की अमूल्य निधि हैं । विशेष जानने के लिए हमारा "बीकानेर जैनलेख संग्रह " ग्रन्थ द्रष्टव्य है ।
बीकानेर से अनेकशः महातीर्थों के संघ निकले हैं। बीकानेरी संघ द्वारा निर्माण कराये हुए जिनालय तीर्थों में सर्वत्र हैं । सम्मेतशिखर, शत्रुंजय, सौरीपुर, गिरनार आदि में उसके प्रमाण विद्यमान हैं । शत्रुंजय पर खरतरजयप्रासाद, तलहटी की सतीवाव सं. १६५७ में लिंगागोत्रीय सेठ सतीदास की अमरकीर्ति है । खरतरवसही तो कर्मचन्द्र वच्छावत के पूर्वजों द्वारा निर्मापित है । मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र के पूर्वजों ने पाटण, भीलडियाजी, कुडलू, जैसलमेर, लाहौर, अमरपुर, बीकानेर, ताल, फलौदी, सीरोही, तोसाम, सांगानेर आदि स्थानों में अनेक जिनालय व दादावाडियों का निर्माण कराया था । सम्राट अकबर ने समस्त तीर्थ मन्त्रीश्वर के अधीन कर दिये थे - " मन्त्री साच्चक्रिरे नूनं, पुंडरीकाचलादयः " ( कर्मचन्द्र मंत्रि वंश प्रबन्ध) । सुजानगढ़ का मन्दिर पनाचन्दजी सिंघी के परिवार द्वारा बनवाया हुआ है । बीकानेर ज्ञान भण्डारों में हस्तलिखित ग्रन्थ अच्छे परिमाण में उपलब्ध हैं ।
कोटा, बूँदी, अलवर, भरतपुर आदि अनेक नगर खरतरगच्छ के ऐतिहासिक महापुरुषों की सेवा प्रोत हैं । जयपुर तो राजस्थान की राजधानी है । वहाँ की सेवायें भी कम नहीं हैं । सांगानेर, मालपुरा आदि स्थान तथा राजस्थान के सैकड़ों गाँव अपने इतिहास में स्वस्थान में अधिवास करने वाले धर्मप्राण श्रावकों की सेवा अपने ज्ञात-अज्ञात इतिवृत्त में स्वर्णाक्षरों से मण्डित हैं । सीमित स्थान में उनका उल्लेख करना कठिन है । अलवर का रावण पार्श्वनाथतीर्थ का शिलालेख अरड़क सोनी गोत्र के खरतर - उच्छीय श्रावक की यशोगाथा वर्णन करता है ।
चूरू का मन्दिर, दादावाड़ी और उपाश्रय यतिवर्य ऋद्धिकरणजी की त्यागभावना का ज्वलन्त उदाहरण है । स्थली प्रदेश में सर्वत्र जिनालय, दादावाड़ियाँ हैं पर साधुओं के विहार के अभाव में मूर्तिपूजक हो गए ।
मालव प्रदेश, वागड़ आदि सभी स्थान खरतरगच्छ के केन्द्र थे । उज्जैन, इन्दौर, धार, सैलाना,
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रतलाम, महीदपुर तथा छोटे-मोटे सभी गाँव-नगरों में खरतरगच्छीय साधु-साध्वियों तथा यतिजनों के चातुर्मास होते रहे हैं। तीर्थस्थानों में भी सर्वत्र उनके कीर्तिकलाप विद्यमान हैं। मेवाड़ के सभी नगरों का प्राचीन इतिहास खरतरगच्छ से ओत-प्रोत है । श्रीजिनवर्द्ध नसूरि परम्परा के मुनिजन उधर विचरते थे। धीरे-धीरे अनेक गाँव अमूर्तिपूजकों द्वारा तिमिराच्छन्न हो गये। श्री केशरियाजी तीर्थ तो राजमान्य एवं सर्वमान्य है। मेवाड़ और तत्रस्थ तीर्थों की उन्नति में जैसलमेर के पटवा सेठों की महान् सेवाओं से उपकृत है। चित्तौड़, उदयपुर का प्राचीन इतिहास खरतरगच्छ इतिवृत्त आलोकित है।
आगे गुजरात की ओर बढ़े तो अकेले अहमदाबाद के ही दस-बारह मन्दिर केवल सोमजीशिवा द्वारा निर्मापित हैं। यहाँ खरतरगच्छीय आचार्यों, उपाध्यायों, वाचनाचार्यो की विचरण भूमि मुख्यतः थी। पाटण नगर तो खरतरगच्छ के गुजरात प्रवेश का विजय स्तम्भ ही रहा है। खम्भात, सूरत, आदि नगर भी खरतरगच्छ की महान् सेवाओं के मुख्य स्थल रहे हैं। श्रीजिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दरोपाध्याय, कविवर जिनहर्ष, कविवर विनयचन्द तथा श्रीमद्देवचन्द्र जी महाराज की सेवाएँ चिरकाल तक संप्राप्त हुईं। इन सभी महापुरुषों की महाप्रयाण भूमि भी यही थी। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने श@जय तीर्थोद्धार के लिए अपने जीवन के ३५ वर्ष गुर्जरभूमि की शासन-सेवा और महातीर्थ के उद्धार में व्यतीत किये। जहाँ अमूर्तिपूजक प्रचार से गुजरात-सौराष्ट्र में अन्धकार प्रसरित हो गया था वहाँ आपश्री ने अपने उपदेशों द्वारा अहमदाबाद, सूरत, ध्रांगधा, लीवड़ी, भावनगर, जामनगर, चूड़ा, आदि में विचरण कर श्रावकों को जिनभक्ति के श्रद्धालु बनाकर अनेक स्थानों में जिनालयों को प्रतिष्ठा कराई। उजड़ते हुए शत्रुजय तीर्थ को आबाद कर दिया। पालीताना, जूनागढ़ आदि सर्वत्र खरतरगच्छ का जबरदस्त प्रभाव रहा है।
बम्बई का प्रारम्भिक इतिहास देखें तो वहाँ जो ७ मन्दिर थे उनमें से एक अंचलगच्छ का था और अवशिष्ट सभी नाहटा मोतीशाह, जो राजस्थान से ही खंभात, सूरत आदि स्थानों में होते हुए अगासी (बम्बई) में आकर पेढी खोली, चीन आदि देशों से जहाजी व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर किया । गौड़ीजी की प्रतिमा जी वे राजस्थान से साथ ही लाये थे। भायखला, कोट, चिन्तामणिजी (भोइवाड़ा) आदि सभी मन्दिर उनके द्वारा बनवाये गये थे । चिन्तामणिजी के मन्दिर में बीकानेर का कोठारी परिवार साथी था। इसी कोठारी परिवार द्वारा सं० १८५६ में पूना की दादाबाड़ी निर्मापित है। यतिवर्य अमरसिंधुर जी ने आठ वर्ष तक चातुर्मास कर चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में अपनी सेवाएं दी थीं । बम्बई में साधु विहार खरतरगच्छ भूषण श्री मोहनलालजी महाराज ने ही खोला था, जहाँ साधु लोग अनार्य देश समझ कर आने से कतराते थे। मोहनलालजी महाराज गच्छवाद में निराग्रही थे। उनके शिष्य भी क्रिया विधि में स्वतन्त्र और अनाग्रही थे पर उनकी दीक्षा में परम्परा खरतरगच्छ की ही प्रव्रजित की जाती है।
अब मैं कच्छ देश, जो अब गुजरात के अन्तर्गत ही है उसके सम्बन्ध में कुछ विचार करता हूँ। कच्छ देश भद्रेश्वर नामक प्राचीनतम तीर्थ के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध है । राजस्थान के जैसलमेर की तरफ से आकर बसे हुए ओसवाल आदि जैन जातियाँ यहाँ धर्म और अर्थ में काफी प्रसिद्ध हैं। तीर्थराज सिद्धाचख जी पर यहाँ के अधिवासियों के मन्दिरादि /टोंकें बनी हुई है। बम्बई में भी इनके मन्दिर, उपाश्रय प्रसिद्ध हैं। अब सम्मेतशिखरजी में भी जिनालय व धर्मशाला आदि हो गये हैं। यहाँ के चार मुख्य नगरों में खरतरगच्छ का संघ निवास करता है, वे हैं-भुज, माण्डवी, अंजार और मुंद्रा । यहाँ दादावाड़ी और मन्दिर आदि भी हैं। बडाला, तंवड़ी आदि में भी घर थे पर साधु समुदाय का विचरण न होने से
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
अब नहीं रहे । भद्र ेश्वर तीर्थ में भी सुन्दर दादावाड़ी है । मजल गाँव में भी दादा साहब की चार मूर्तियाँ हैं। यहाँ के जन्मे हुए चारित्रात्माओं ने खरतरगच्छ को सुशोभित किया है । उनमें जिनरत्नसूरि जी, उ. लब्धिमुनि जी और योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दजी महाराज उल्लेखनीय हैं। वर्त्तमान में श्री मोहनलालजी महाराज के संघाड़े में श्री जयानन्द मुनिजी हैं ।
गुजरात में जामनगर में खरतरगच्छ के ८० घर, उपाश्रय, मन्दिर व ज्ञान भंडारादि हैं । पादरा में दादावाड़ी है । पहले खरतरगच्छ के घर थे । अब तो सर्वत्र तपागच्छ है पर लगभग ३०-४० साध्वियाँ खरतरगच्छ में दीक्षित हैं ।
श्री पूज्यों के पुराने दफ्तरों में सैकड़ों गाँवों के श्रावक वर्ग के नाम पाये जाते हैं जो खरतर - गच्छानुयायी थे । अब ये साधु-साध्वियों की सत्संग मिलने के अभाव में भिन्न सम्प्रदाय या गच्छों में परिहो गये हैं ।
मद्रास नगर भारत के समृद्धिशाली नगरों में हैं, वहाँ भी प्राचीन मन्दिर विद्यमान हैं, मद्रास की दादावाड़ी सेठ मोतीशाह नाहटा की ही देन है । मोतीशाह का व्यापार कलकत्ता में भी था और किसी की साझेदारी में था । बम्बई में तो आपके जिनालय, दादावाड़ी, पींजरापोल आदि द्वारा बहुत बड़ी देन है ।
दक्षिण भारत में राजस्थान से गये हुए लोगों ने अपने पैर जमाये और धर्मध्यान के हेतु मन्दिर, दादावाड़ी आदि निर्मित कराये । श्रमणवर्ग का भी विहार क्षेत्र बढ़ा और विविध प्रकार से कार्यकलापों में अभिवृद्धि हुई । कुनूर, बेंगलौर, मैसूर इत्यादि सर्वत्र दादावाड़ियाँ व मन्दिर बने । खरतरगच्छ के साधु-साध्वियाँ भी उधर गये और अपने उपदेशों द्वारा सेवाएँ दीं ।
चैत्यवास का उन्मूलन कर विधिवाद प्रचारित करने के हेतु स्थान-स्थान पर विधिचैत्य प्रतिष्ठित हुए । विधिमार्ग या खरतरगच्छ एक दूसरे के पर्याय हैं। शत्रुंजय में खरतरवसही जो मानतुंग प्रासाद था, निर्माण के पूर्व ही वहाँ कई मन्दिर खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित विधिचैत्य थे । पुरानी खरतरवसही विमलवसही का अधिकांश भाग था । शुभशीलमणि ने सं १५२१ में रचित पंचशती प्रबन्ध में १०५४ प्रतिमाओं का उल्लेख किया है - " ततः खरतरवसहिकयां १०५४ जिनान् " शत्रुंजय पर बुल्हावसही, श्र ेयांसनाथ मंदिर, अष्टापद प्रासाद आदि १३वीं १४वीं शती के खरतरगच्छीय मंदिर थे । सोलहवीं शताब्दी के प्राग्वाट कर्णसिंहकृत चैत्य परिपाटी रास की १७वीं गाथा में १४५८ बिम्ब और स्थान-स्थान पर कौतुकपूर्ण मण्डप होने का उल्लेख है । यह जिनालय कर्मचंद्र वच्छावत के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल निर्मार्पित था । नगरकोट कांगडा की खरतरवसही श्री जिनपतिसूरिजी के कुटुम्ब में माल्हू गोत्रीय विमलचन्द ने बनवायी और उनके पुत्र क्ष ेमसिंह ने वासुपूज्य स्वामी आदि के बिम्ब विराजमान कराये । सं० १३३३ में क्षेमसिंह ने शत्रुंजय का संघ निकाला था ।
आबू तीर्थ पर विमलवसही तो वर्द्ध मानसूरि प्रतिष्ठित थी ही, उन्होंने ही तीर्थ प्रगट किया था। वहाँ सर्वोच्च तीन मंजिला पार्श्वनाथ जिनालय भी खरतरवसही है जिसका निर्माण उ. जयसागरजी के भ्राता मण्डली आदि ने निर्माण कराया था, ये दरड़ा गोत्रीय महद्धिक श्रावक थे ।
सं० १५११ के लिखे एक पत्र में जयसागरोपाध्याय के सम्बन्ध में अनेक ऐतिहासिक बातें हैं । गिरनार तीर्थ की खरतरवसही लक्ष्मीतिलक प्रासाद जब नरपाल संघपति ने बनाना प्रारम्भ किया तो अम्बादेवी श्रीदेवी आदि आपके प्रत्यक्ष हुए थे । सेरिसा पार्श्वनाथ जिनालय में धरणेन्द्र पद्मावती प्रत्यक्ष हुए ।
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मेवाड़ के नागद्रह में नवखण्डा पार्श्व जिनालय में श्री सरस्वती की प्रसन्नता प्राप्त की थी। गिरनार के अभिलेखों की खोजकर नरपाल संघपति का विशेष परिचय प्रकाश में लाना चाहिए।
राणकपुर में भी खरतरवसही है जिसके निर्माता का वतिहास प्रकाश में आना आवश्यक है। देलवाड़ा (देवकुलपाटक-मेवाड़) में राणाकुम्भा के मन्त्री नवलखा रामदेव ने खरतरवसही बनवाई थी। देलवाड़ा गांव आबू के देलवाड़ा से भी प्राचीन है । कवि धनपाल ने यहाँ के प्राचीन मन्दिरों को यवनों द्वारा भंग होने का लिखा है । श्रीरामदेव मन्त्री का वंश मेवाड़ में बहुत प्रसिद्ध था। आहड़ (आघाटमेवाड़) के सम्राट सम्प्रति कारापित प्रासाद का जीर्णोद्धार, करहेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ में भी प्रतिष्ठादि कराने का उल्लेख मिलता है । उदयपुर नगर के सुप्रसिद्ध पद्मनाभ जिनालय का भी निर्माण आपके वंशजों ने ही करवाया था।
___ कन्नाणा में सुप्रसिद्ध महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा जिनपतिसूरिजी ने करवायी थी। यह मन्दिर उनके बाबा सेठ मानदेव माल्हू द्वारा निर्मापित था । पाटण में शांतिनाथ जिनालय सोलहवीं शताब्दी में तथा वाड़ी पार्श्वनाथ जिनालय १७वीं शती में बनवाने वाले खरतरगच्छ के महान् श्रावक थे । चौदहवीं शती में दादा जिनकुशलसूरि का पट्टाभिषेक व शत्रुजय की खरतरवसही मानतुंग बिहार के निर्माताओं ने भी पाटण में जिनालय निर्माण कराया था।
शत्रुजय पर मरुदेवी टोंक पर नयी खरतरवसही का निर्माण अहमदावाद के सेठ सोमजी, शिवा, रूपजी परिवार ने गगनचुम्बी शिखर वाला निर्माण कराया था जिसमें ६८ लाख रुपये लगे, मीराते अहमदी के अनुसार ८४००० रुपये की तो रस्सियाँ ही लगी थीं।
सं. १५८७ में कर्मा डोसी के जीर्णोद्धार के समय प्रतिष्ठित एक प्रतिमा मैंने श्रीजिनमाणिक्य सूरि द्वारा प्रतिष्ठित देखी थी।
दिल्ली भारत की राजधानी थी, यहाँ प्रारम्भ से ही खरतरगच्छ का प्रभाव था। मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के द्वारा दिल्लीपति मदनपाल को प्रतिबोध देने व उनके स्वर्गवास भी यहीं होने की घटना इतिहासप्रसिद्ध है । महरोली का दादातीर्थ प्रसिद्ध है। वहाँ शत्रुजय तीर्थ की स्थापना अपने आप में एक महत्वपूर्ण कीर्तिकलाप है। अभी वहाँ सम्मेतशिखरजी तीर्थ की स्थापना करने का आयोजन है। छोटी दादावाड़ी (साउथ एक्सटेन्शन) मोठ की मस्जिद इलाका में जिनालय और विशाल दादाजी का मंदिर, उपाश्रयादि हैं । नगर में कई मन्दिर विद्यमान हैं । लखनऊ गद्दी का उपाश्रय व नौघरे का सुमतिनाथ जी का जिनालय काफी प्रसिद्ध है । बीकानेर के यतिजन जहाँ चौमासा करते थे, वहाँ भ० पार्श्वनाथ स्वामी का जिनालय है।
हस्तिनापुर तीर्थ में श्वे जैन मन्दिर कलकता के प्रतापचन्दजी पारसान द्वारा निर्मापित था अब वहाँ जीर्णोद्धार होकर विशाल मन्दिर, धर्मशाला, दादावाड़ी आदि बने हैं। निशियांजी के प्राचीन स्थान का भी जीर्णोद्धार हो रहा है।
मेरठ, हाथरस, आगरा आदि में जिनालयादि प्रसिद्ध हैं । मथुरातीर्थ की यात्रा के लिए संघ आदि जाते थे जिनका इतिहास मिलता है । जिनप्रभसूरि और बाद में कई खरतरगच्छाचार्य वहाँ पधारे थे। सौरीपुर तीर्थ नेमिनाथस्वामी की जन्म भूमि है वहाँ अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरिजी आदि ने यात्रा की है एवं धर्मशाला मन्दिरादि प्राचीनकाल से है। विमलनाथ स्वामी की जन्मभूमि कम्पिल
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
पर्याप्त प्रसिद्ध हैं। अभी वहाँ जीर्णोद्धार, धर्मशाला, अस्पताल आदि निर्माण कर प्रतिवर्ष नेत्र शिविर आदि द्वारा बहुत सेवाएँ दी जा रही हैं। कानपुर का मन्दिर कांच जटित मीने के काम का सुप्रसिद्ध है । वाराणसी तो महातीर्थ है । यहाँ श्रीहीरधर्मोपध्याय ने जहाँ काशी में मन्दिर नहीं बनाने देते थे, वहाँ शास्त्रार्थ में पण्डितों पर राजसभा में बिजय पाकर कई मन्दिर बनवाये । रामघाट उपाश्रय में संलग्न त्रितल जिनालय में बहुत सी प्रतिमाएँ तथा ज्ञान भण्डार है । यहीं के विद्वान और त्यागी परम्परा में बालचन्द्रसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, हीरचन्द्रसूरिजी की बहुत बड़ी सेवाएँ हैं । धर्मनाथ भगवान की जन्मभूमि रत्नपुरी, अयोध्या, भेलूपुर मदैनीघाट तथा सिंहपुरी चन्द्रावती-तीर्थों की व्यवस्था भी ये ही गुरुजन निस्वार्थ सेवा देते थे।
मिर्जापुर में दो मन्दिर एवं दादाबाड़ी प्रसिद्ध है । खरतरगच्छीय महानुभावों की ही निर्मापित है। मिथिलातीर्थ विच्छेद होने का कारण यात्रीगणों के आवागमन की कमी के कारण ही था । भागलपुर के मन्दिर में चरण, मूर्तियाँ वहां से आये हुए हैं जो श्रीजिनहर्षसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं । अभी नमिनाथ स्वामी व मलिल्नाथ स्वामी के चार-चार कल्याण की पवित्रभूमि होने से निकटस्थ नेपाल की राज्य सीमा में दिगम्बर भाइयों ने तीर्थ स्थापन हेतु भूमि प्राप्त की है । पास ही श्वेताम्बर तीर्थ स्थापन होना अत्यावश्यक है।
जौनपुर जिसका जेउणापुर प्राकृत रूप का संस्कृत पर्याय यमुनापुर है। जैनों की अच्छी बस्ती तिमंजिला मंदिर था जो बाद में मस्जिद बन गया है। जिनवर्द्धनमूरिजी के समय ५२ संघपतियों का विशाल तीर्थयात्री संघ निकला था। ओसवाल श्रीमाल और मत्तियाण खरतरसंघ का केन्द्र था।
चैत्यवास की जड़े हिलने पर सुविहित श्रमणवर्ग भारत के विभिन्न क्षेत्रों को संभालने के लिए विचरने लगा । खरतर विरुद प्राप्ति तो गुजरात जाने पर हुई पर पहले से ही उनका विहार उत्तरप्रदेश और बिहार प्रान्त में था ही । यही कारण है कि खरतरगच्छ की शाखाएँ वहाँ जब तक कायम रहीं क्षेत्रों को सम्भालती रहीं। बिहार की महतियाण (मन्त्री दलोय) जाति अपो को सर्व प्राचीन भगवान ऋषभदेव के पूत्र भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल संतानीय मानती हुई जैन धर्म का पालन खरतरगच्छ के पूर्वाचार्यों के सान्निध्य में करती थी । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसरिजी ने जब उनका शैथिल्य दूरकर चुस्त जैन बनाये तो उनकी “महत्तियाणड़ा दुई नमइ, कइ जिणकइ जिणचन्द' अथवा 'जिन नमामि वा जिनचंद्रगुरु नमामि" उद्घोष प्रसिद्ध हो गया । जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनशेखर सूरि रुद्रपल्ली (रुदोली) के थे अतः उन्होंने भी उत्तरप्रदेश तथा पंजाब के क्षेत्रों को संभाला । दूगड़, नाहर आदि अनेक गोत्रों के अभिलेख उन्हीं से सम्बन्धित थे पर उनका नामशेष हो जाने पर अन्य गच्छों का उधर वर्चस्व छा गया। श्री जिनेश्वरसरि द्वितीय ने श्रीजिनसिंहसूरि को वह क्षेत्र सौंपा । अयोध्या, जौनपुर आदि में उनके चातुर्मास होना ग्रन्थ रचना आदि से सिद्ध है । जब वह शाखा कुछ निर्बल पड़ गई तो श्री जिनराजसूरि के पट्टधर श्री जिनरंग अनेक क्षेत्रों को सम्भालने लगे।
नालंदा, राजगृह आदि उनके प्रभाव क्षेत्र थे । जालोर से प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर भेजी गईं। साधुओं के चातुर्मास, उपधान तप आदि नालंदा में हुए जिसके उल्लेख मिलते हैं। बिहार शरीफ का महत्तियाण मुहल्ला के लिए तो पावापुरी गाँव मन्दिर का शिलालेख डंके की चोट उस जाति के बीसों गोत्रों के निवास का विवरण देता है। वहाँ नालंदा में १७ मन्दिर थे । राजगृह नगर के पाँचों पहाड़ों में ८१ से ऊपर जिनालय थे। विपुलाचल और वैभारगिरि के उल्लेख व सं० १४१२ का शिलालेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एतद्विषयक सूचना देते हैं।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
पावापुरी का शिलालेख स्पष्ट बतलाता है कि पटना आदि में ओसवाल संघ जाने से पूर्व महत्तियाण संघ ही तीर्थ में निर्माण-जीर्णोद्धार आदि कराता रहा है। क्षत्रियकुण्ड, काकन्दी, नालंदा, राजगृह के शिलालेख स्पष्ट सूचना देते हैं।
राजगृह गाँव के मन्दिर में जिनभद्रसूरिजी के प्राचीन चरण जयसागरोपाध्याय प्रतिष्ठित हैं । मूलनायक प्रतिमा जिनदास श्रावक के घिसे हुए अभिलेख से महत्तियाण जाति का कर्तृत्व सूचक है । यह जाति ओसवाल, श्रीमाल व अग्रवालों में मिल गई मालूम होती है। मारवाड़, गुजरात व बम्बई से दक्षिण भारत में महाराष्ट्र में जाकर बस जाने के कुछ प्रमाण मिले, मैंने मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि चरित्र में इस बात का उल्लेख किया है ।
राजगृह-जैन दृष्टिकोण से राजगृह बिहार प्रान्त का अतिप्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान महावीर १६वें भव में विशाखनन्दी और १८वें भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव यहीं हुए थे। बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी के लाखों वर्ष पूर्व यहीं चार कल्याणक हुए थे । भगवान महावीर के १४ चातुर्मास, गणधरों, निर्वाणभूमि तथा जम्बूस्वामी, शालिभद्र, कयवन्ना, मेतार्य, पूणिया श्रावक, अभयकुमार आदि अनेक महापुरुषों से सम्बन्धित यह तीर्थस्थान है। महाराजा श्रेणिक जो आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ होंगे, यहीं के सम्राट और भगवान महावोर से पारिवारिक सम्बन्ध के साथ उनके परम भक्त थे। महाराजा कोणिक के राजधानी चम्पानगर कर देने पर राजगृह उजड़ जाने पर भी उसके महत्व में कोई कमी नहीं आई। यहाँ की गुफाओं में, प्रतिमाओं पर उत्कीणित प्राचीन लिपि अपना सम्बन्ध आज तक अनेक साक्ष्य लुप्त हो जाने, नष्ट हो जाने पर भी संजोये हुए हैं ।
उपनगर नालन्दापाड़ा और बिहार शरीफ के अधिवासी जैन बस्ती यहाँ से बराबर सम्बन्धित रही। प्राचीन तीर्थमालाएँ राजगृह और उसके पाँचों पहाड़ों का वर्णन अत्यन्त गौरव के साथ कीत्ति गाथाओं का उद्घोष करती है। सोन भंडार का पूर्वगप्तकाल का अभिलेख गुफा में अर्हत प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की गौरव गाथा गाती है तथा वहाँ की कलापूर्ण अद्वितीय जिन प्रतिमाएँ जैन संस्कृति और कला की अमूल्य निधि है ।
युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरिजी की आज्ञा से वा. राजशेखर गणि ने सं० १३५२ में राजगृ हनालंदा, क्षत्रियकुण्डादि की यात्रा करने के राजगृह के बाद निकटवर्ती उद्दड़ बिहार (बिहार शरीफ) में चातुर्मास किया था। वहाँ नन्दि महोत्सव, मालारोपण आदि धार्मिक अनुष्ठान हुए। सं० १३६४ में राजशेखर गणि को श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आचार्य पद से अलंकृत किया था। सं० १३८३ में जालोर में मिती फाल्गुन वदी ६ को श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज ने मन्त्रिदलीय ठ० प्रतापसिंह के पुत्र ठ० अचलसिंह कारित वैभारगिरि के चुतुर्विशति जिनालय के मूलनायक योग्य श्री महावीर स्वामी आदि के अनेक पाषाण व धातुमय बिम्ब, गुरुमूत्तियाँ व अधिष्ठायकों की प्रतिष्ठा की थी।
__सं० १४१२ की काव्यमय ३३ पंक्तियों वाली विस्तृत प्रशस्ति बिहार निवासी महत्तियाण ठ० मण्डन के वंशज वत्सराज और देवराज ने राजगृह के विपुलाचल पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी का ध्वजदण्ड मण्डित विशाल जिनालय निर्माण करवाकर आषाढ़ बदी ६ को खरतरगच्छ नायक श्री जिनलब्धिसूरिजी के पट्ट प्रभाकर श्री जिनउदयसूरिजी की आज्ञा से उपाध्याय श्रीभुवनहित गणि के पास प्रतिष्ठा करवायी थी।
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा इस महत्वपूर्ण प्रशस्ति में दिल्लीश्वर फीरोजशाह के मण्डलेश्वर मलिकवय नामक मगधशासक के सेवक से इस पुण्यकार्य में बड़ा साहाय्य मिलने का उल्लेख है।
सं० १४३१ में अयोध्या स्थित श्री लोकहिताचार्य के प्रति अणहिल्लपुर पत्तन से श्री जिनोदयसूरि प्रेषित 'विज्ञप्ति महालेख' से विदित होता है कि श्री लोकहिताचार्य जी इतःपूर्व मन्त्रीदलीय वंशोद्भुत ठ० चन्द्रांगज सुश्रावक राजदेव तथा इतर मन्त्रिदलीय समुदाय के निवेदन से बिहार व राजगृह में विचरे व विपूलाचल पर श्रावकों द्वारा नव निर्मापित जिन प्रासादों को वन्दन किया था। सूरिजी वहाँ से ब्राह्मण कुण्ड व क्षत्रियकुण्ड जाकर पुनः बिहार होते हुए राजगृह पधारे और विपुलाचल व वैभारगिरि पर बड़े समारोह से जिनबिम्बादि की प्रतिष्ठा की थी।
पन्द्रहवीं शताब्दी में विज्ञप्ति त्रिवेणी रचयिता प्रकाण्ड विद्वान श्री जयसागरोपाध्यायजी भी राजगृह और उद्दड़ बिहार में विचरे थे । (देखिए ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ४०) । सं० १५०४ में जिनवर्द्धनसूरि, जिन्होंने अपनी तीर्थयात्रा में राजगृह यात्रा का विशद वर्णन किया है-के प्रशिष्य जिनसागरसूरिजी की आज्ञा से यहाँ अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी थी। उस समय की प्रतिष्ठित कितनी ही प्रतिमाएँ वैभारगिरि के खण्डहर, स्वर्णगिरि, राजगृह, काकन्दी और नालन्दा के मन्दिरों में अब भी पूज्यमान हैं।
___ सं० १५२४ में श्री जिनभद्रसूरि पट्ट प्रभावक श्री जिनचन्द्रसूरिजी की आज्ञा से उत्तराध्ययन वत्तिकार श्री कमलसंयमोपाध्यायजी ने श्रीमाल श्रावक छीतमल्ल द्वारा निर्मापित नैभारगिरि शिखरस्थ धन्ना-शालिभद्रमूर्ति, एकादश गणधर चरण पादुका तथा स्वगुरु श्री जिनभद्रसूरिजी के चरणों की प्रतिष्ठा की थी । सं० १५२५ में लिखित आवश्यकसूत्र तथा दशवकालिक टीका की प्रशस्तियों में भी राजगृह और क्षत्रियकुण्ड यात्रादि का वर्णन पाया जाता है।
सं० १५६५ में कवि हंस सोम ने अपनी तीर्थयात्रा में राजगृह के वैभारगिरि पर मुनिसुव्रत । प्रभति २४ प्रासादों में ७०० जिनबिम्ब और अन्य सभी स्थानों पर पहाड़ों के मन्दिरों का वर्णन किया है। सतरहवीं शती के कवि विजयसागर ने पाँचों पहाड़ों पर १५० मन्दिर व ३०३ जिनबिम्ब तथा ११ गणधर आदि अन्य उल्लेखनीय वर्णन किये हैं । शीलविजयजी ने सं० १७४६ में तीर्थमाला में सभी दर्शनीय स्थानों का वर्णन किया है। सं० १७५० में सौभाग्यविजयजी ने ८१ जिनालय की संख्या लिखी है ।
श्री क्षमाकल्याणोपाध्यायजी इस देश से विचरे और उनके गुरु श्री अमृतधर्मजी ने अतिमुक्तक मुनि की विपुलाचल पर प्रतिष्ठा की थी। श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने सं० १८३४-३५-३६ में समस्त तीर्थों की यात्रा के साथ राजगृह यात्रा कर राजा बच्छराज नाहटा के आग्रह से लखनऊ में तीन चातुर्मास किये थे।
दानवीर द्वितीय जगडूशाह के पिता वर्द्धमान और उनके भ्राता पद्मसिंह के चरित्र में अचल गच्छ के अचलगच्छाचार्य अमरसागरसूरिजी ने सं० १६६१ में वें सर्ग में पूरब देश के समस्त तीर्थों की यात्रा कर लाखों रुपया व्यय करने का उल्लेख किया है।
सं० १७०७ में बिहार के खरतरगच्छीय महत्तियाण चोपड़ा तुलसीदास के पुत्र संग्राम व गोवर्द्धन ने विपुलगिरि पर वा० कल्याणकीर्ति के उपदेश से जीर्णोद्धार कराया जिसका अभिलेख दगिम्बराधिकृत जिनालय के नव ग्रह दशदिग्पाल पट्टिका पर खुदा है । तीन वर्ष मुकदमाबाजी के पश्चात्
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ मन्दिरों का बँटवारा परस्पर शांतिपूर्वक कर लिया था। तदनुसार प्राचीन मन्दिरादि श्वे के पास रहे । दि० ने गाँव में नवीन धर्मशाला मंदिरादि निर्माण करा लिए ।
सं० १८१६ से १८२६ तक पहाड़ों के अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार हुगली निवासी गाँधी बुलाकी दास के पुत्र माणकचन्द ने करवाये जिनके लेख चरण पादुकादि पर खुदे हुए हैं । सं० १५२४ में वैभारगिरि पर धन्ना शालिभद्र की मूर्तियाँ श्री कमलसंयमोपाध्याय द्वारा प्रतिष्ठित हैं। सं० १८३० में जगतसेठ फतैचन्द्र गेलड़ा के पौत्र जगत सेठ महताबराय की पत्नी शृंगारदेवी ने ग्यारह गणधर पादुका वैभारगिरि पर विराजमान की । सं० १८७४ में जिनहर्षसूरि प्रतिष्ठित मंदिरों का जीर्णोद्धार सं० १९३८ में राय धनपतसिंह जी ने कराया था। सं० १६०० में लखनऊ वाले श्रीपूज्य जिननन्दीवर्द्धन सूरि जी के समय मुनि कीयुदय ने कई चरणों की प्रतिष्ठा करवाई। श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी द्वार । प्रतिष्ठित गौतम स्वामी की ढूंक की प्रतिष्ठा सं० १६११ में हुई थी । सं० १९८५ में श्री जिनचारित्रसूरिजी द्वारा दादा जिनदत्त सूरि की चरण प्रतिष्ठा की है।
राजगृह में जो प्राचीनतम मन्दिर थे वे ध्वस्त हो गये। तेरहवीं, चौदहवीं, पन्द्रहवीं शती में खरतरगच्छीय प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ अब एक भी प्राप्त नहीं हैं। मंदिर जहाँ पहाड़ों पर सैकड़ों थे, अब गिनती के रह गये । अनेक प्रतिमाएँ, अभिलेख भूगर्भ में सम गये । इस शताब्दी में तो मूत्ति चोरों के कारनामे भी कम नहीं हैं।
अब राजगृह गाँव में धर्मशाला के पास नया विशाल शिखरबद्ध मंदिर एवं पृष्ठ भाग में गुरु मंदिर बन गया है । जिनालय में प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की बात थी पर सर्वानुमति बिना शीघ्रतावश नवीन प्रतिमा के अग्रभाग में प्राचीन प्रतिमा विराजमानकर आशातना का कारण बन गया है। अब जो हो गया सो हो गया, आशातना मिटाकर सही मार्ग अपनाने में ही श्रेयस् है।
नालंदा में द्वितल मंदिर और दादाजी का मंदिर प्राचीन है। जहाँ १७ मन्दिर थे अब एक ही रहा है । धर्मशाला टूटी-फूटी हालत में समृद्ध जैन समाज के लिए लज्जास्पद है । मन्दिर में प्राचीनतम प्रतिमाएँ अवश्य ही आह्लादकारी हैं । पर जिनालय गाँव में पक्की सड़कहीन स्थान में है अन्यथा नालंदा जैसे विश्वविथ त स्थान में आये हुए निकटवर्ती स्थान में सैकड़ों व्यक्ति दर्शनार्थ आ सकते हैं । जैन समाज अपनी धर्मशाला के लोगों को दर्शन कराने में ही भलाई समझकर प्रचार से मुंह मोड़े बैठा है।
पावापुरी-भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पावापुरी महातीर्थ पटना जिले में सदा से प्रसिद्ध रहा है। यहाँ का गाँव मन्दिर जो हस्तिपाल राजा की जीर्ण शुल्कशाला था, भगवान ने अन्तिम चातुर्मास किया और कार्तिक बदी १५ की रात्रि में पिछले प्रहर में निर्वाण को प्राप्त हुए। अतः इस स्थान में १६ प्रहर तक देशना देते हुए सिद्धगति को गये। भाव-उद्योत का विलय होने से लोक में द्रव्य-उद्योत रूप दोवाली पर्व प्रसिद्ध हुआ। तभी से दीवाली पर पावापुरी तीर्थ में दीपावाली का मेला लगता है।
भगवान का प्रथम देशना स्थल खेतों के बीच महसेतवन में था जहाँ स्तूप और प्राचीन कुआ था। लगभग ३५ वर्ष पूर्व जैनाचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरिजी के उपदेश से भण्डार से जमीन ग्रहणकर निर्माण के पश्चात् पावापुरी भण्डार की पेढ़ी को सौंप देने की शर्त से अधिगृहीत की थी। वहाँ विशाल संगमरमर का कलापूर्ण मन्दिर व धर्मशाला एवं जिनालय निर्मित हो गया है।
भगवान महावीर की निर्वाण भूमि गाँव मन्दिर भी जीर्णोद्धारित होकर अनुयोगाचार्य श्री कांति
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खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा सागर मुनि राज (बाद में आचार्य) के हाथ से प्रतिष्ठित हो गया। जैसलमेर से सं० १५३६ में श्री जिनभद्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज के कर कमलों से प्रतिष्ठित दो प्रतिमाएँ भी प्राप्त हो गई । मन्दिर विशाल हो गया, धर्मशाला के बगल में नवरतन संज्ञक विशाल धर्मशाला है और उसके पृष्ठ भाग में भी भूखण्ड क्रयकर और विशाल करने का आयोजन है।
पहले यहाँ बिहार के महत्तियाण संघ द्वारा जीर्णोद्धारित सं० १६९८ का मन्दिर था जिसके नीचे भी पुरानी नींव आदि के चिन्ह देखे गये थे । यहीं तीर्थ को जैन श्वेताम्बर पेढी है। अति प्राचीनकाल से यहाँ खरतरगच्छ का वर्चस्व रहा है । बिहार के महत्तियाण मुहल्ले में उनका मन्दिर व सैकड़ों घरों की बस्ती थी। कालान्तर में आज एक भी घर नहीं रहा तो वहाँ के मन्दिर से प्रतिमाएँ उत्थापितकर केवल अधिष्ठाता भैंरोजी रहे हैं। बिहार शरीफ में जिनालय और दादावाड़ी है जिसकी व्यवस्था वहाँ के निवासी श्री धन्नूलालजी सुचन्ती तथा बाद में लक्ष्मीचन्दजी सुचन्ती करते थे। अब ट्रस्टियों का चुनाव होता है।
जल मन्दिर-यह विशाल तालाब/कमल सरोवर के बीच अत्यन्त सुन्दर कलापूर्ण संगमरमर निर्मित जिनालय है। लाल पत्थर की विशाल ६०० फुट लम्बे पुल को पार कर मन्दिर में पहुँचते हैं। मध्यवर्ती मन्दिर में बीच में भगवान महावीर के प्राचीन चरण और दोनों ओर गणधर गौतम स्वामी, सुधर्मास्वामी के चरण हैं। यहाँ दीपावली के दिन निर्वाण के लड्डू हजारों यात्रीगण चढ़ाते हैं। चारों ओर गुम्बद बने हैं जिनमें १६ सती, ११ गणधर, दादा जिनकुशलसूरि और दीपविजय गणि के चरण हैं जो खरतरगच्छ की जिनरंगसूरि शाखा के थे। गाँव मन्दिर की धर्मशाला में खरतरगच्छ की रंगसूरि शाखा का उपाश्रय है। जल मन्दिर के पास मुर्शिदाबाद धर्मशाला, नाहरजी, दुधोड़ियाजी तथा गुईबाबू की धर्मशाला है । जल मन्दिर के सामने महताब बीबी का द्वितल मन्दिर और पुराने चरण स्थापित समवशरण मन्दिर है। गाँव मन्दिर की सड़क पर जल मन्दिर के पास भव्य दादावाड़ी है जिसमें चारों दादा साहब की प्रतिमाएँ श्री उदयसागरजी द्वारा प्रतिष्ठित हुई है। जल मन्दिर से सड़क के किनारे पर जिनयशःसूरिजी महाराज का समाधि मन्दिर है जिसमें उनकी प्रतिमा विराजमान है । उन्होंने ५३ उपवास करके पावापुरी में ही स्वर्गगति प्राप्त की थी।
पावापुरी के सभी मन्दिर, दिगम्बर मन्दिर और धर्मशाला तथा सभी स्थान तीर्थ भण्डार की भूमि पर निर्मित हैं। जैन संघ द्वारा नाहरजी की दानशाला में प्रतिवर्ष चावल, कम्बलें आदि गरीबों को बाँटा जाता है। दीवाली के दिन गांव मन्दिर से भगवान की सवारी निकलती है ।
पटना--यह प्राचीन पाटलीपुत्र नगर और बिहार प्रान्त की राजधानी है। यहाँ पर सुदर्शन सेठ के शील प्रभाव से शुली का सिंहासन हुआ था और कोशा वेश्या के यहाँ स्थूलिभद्र स्वामी का चातुर्मास हुआ था। गुलजार बाग में ये दोनों मन्दिर बने हुए हैं। नगर में जैन श्वे. मन्दिर और धर्मशाला है। महाराज कोणिक-अजातशत्र के बाद राजा उदायी ने इसे मगध की राजधानी बनाया । अंगदेश भी इसी के अन्तर्गत था। यहाँ १४ पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी, वज्रस्वामी आदि अनेक महान जैनाचार्यों ने विचरण किया है।
गुणायाजी-नवादा स्टेशन से पावापुरीजी जाते एक मील पर सड़क के पास ही यह तीर्थ है । तालाब के बीच में सुन्दर श्वेताम्बर जैन मन्दिर बना हुआ है। धर्मशाला में से पुल द्वारा जाने का मार्ग है। मन्दिर में प्राचीन चरण पादुकाएँ तथा प्रतिमाएँ हैं। यहाँ गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ था।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
१०३ क्षत्रियकुण्ड–नवादा से जमुई रोड पर सिकन्दरा गाँव से दो मील पर लिछुबाड़ नामक गाँव में इस तीर्थ की तलहट्टिका रूप धर्मशाला व महावीर स्वामी का जिनालय है। यहाँ धर्मशाला में ठहरने की सुविधा है तथा रसोडा-भोजनशाला भी चालू है। यहाँ से ३ मील जाने पर कुण्डघाट बाँध और नदी के दोनों ओर भगवान के दीक्षा व च्यवन कल्याणक के प्राचीन मन्दिर है। सात पहाड़ी का चढ़ाव पार करने पर भगवान के जन्म स्थान का भव्य मन्दिर आता है जहाँ डेढ़ हजार वर्ष प्राचीन महावीर स्वामी की मनोज्ञ प्रतिमा है। लोधामानी जो यहाँ से दो मील है सिद्धार्थ राजा के महल के खण्डहर है जहाँ भगवान का जन्म हुआ था। क्षत्रियकुण्ड पहाड़ पर जीर्णोद्धार, कराके श्री कन्हैयालालजी वैद ने कमरे, स्नान घर और सुन्दर बगीचा बना दिया है।
___ काकन्दी-ये जमुई से चार मील दूर प्राचीन गाँव है जहाँ नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथजी की जन्म कल्याणक भूमि है । मन्दिर व धर्मशाला का जीर्णोद्धार हो रहा है । यहाँ सं० १५०४ की प्रतिमा है। एक अति प्राचीन १८०० वर्ष प्राचीन प्रतिमा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने देखी थी जो बहुत वर्ष पूर्व ही गायब हो गई थी। अनेक तीर्थमालाओं में इस तीर्थ का उल्लेख है।
चम्पापुरी--यह वासुपूज्य भगवान के पंच कल्याणक का महातीर्थ है। स्टेशन भागलपुर और नाथनगर से निकट है। कोणिक ने अंग-मगध की राजधानी कायम की थी। चम्पानाले के पास धर्मशाला में दो मन्दिर व दादाजी का स्थान भी है। भगवान की निर्वाण भूमि मन्दारहिल बतायी जाती है जो यहाँ से ३० मील है, वहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर भी है।
भागलपुर-लूप लाइन के स्टेशन के सामने ही जैन धर्मशाला में दूगड़ परिवार का बनाकर जैन संघ को समर्पित किया हुआ जैन मन्दिर भी है । भागलपुर जैन संघ देख-देख रखता है । मिथिलानगरी नमिनाथ स्वामी एवं मल्लिनाथ स्वामी की चार कल्याणक भूमि है। वहाँ की प्रतिमा व चरण पादुकाएँ लाकर भागलपुर मन्दिर में रख देने से तीर्थ विच्छेद हो गया है । अब नेपाल की भूमि में दिगम्बर समाज तीर्थ स्थापन कर रहा है । श्वेताम्बर समाज को भी तीर्थ स्थापन करना आवश्यक है। श्री जिनहर्षसूरिजो महाराज के प्रतिष्ठित मूर्ति चरणों के मिथिला तीर्थ में प्रतिष्ठित करना आवश्यक है ।
__ बराकड़-यह गिरीडीह से सम्मेतशिखरजी के मार्ग में भगवान महावीर स्वामी की केवलज्ञान भूमि है जहाँ धर्मशाला में मन्दिर ऋजुवालुका (बराकड़) नदी के तट पर बना हुआ है । दादा साहब के चरण भी प्रतिष्ठित हैं।
गिरीडीह-स्टेशन के सामने जैन धर्मशाला में दुधोडिया परिवार द्वारा निर्मापित जिनालय है। अब धर्मशाला दूगड़ परिवार की निजी सम्पत्ति घोषित हो गई है।
सम्मेतशिखर महातीर्थ-पारसनाथ पहाड़ी नाम से प्रसिद्ध यह पवित्र स्थान २० तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि है । यहाँ से असंख्य मुनि मोक्ष गये हैं । बीस तीर्थंकरों की निर्वाण स्मृति में प्राचीन काल से टूकें बनी हुई हैं जिनका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा है । सर्वत्र प्रभु के चरण पादुके प्रतिष्ठित हैं। गौतमस्वामी की ट्रॅक पहले आती है । जलमन्दिर नामक स्थान में विशाल मन्दिर में प्रभु प्रतिमाएं हैं । जलमंदिर को दो सौ वर्ष पूर्व अजीमगंज के सामसुखा सुगालचंद आदि ने बनवाया था जिनके द्वारा अजीमगंज में भी दादासाहब आदि के स्थान बने थे । मन्दिर की प्रतिमाएँ सामसखा परिवार ने सूरत में हई प्रतिष्ठा के समय अंजनशलाका करके मँगवाई थी। पार्श्वनाथ स्वामी की टोंक पर कलकत्ता के राय बद्रीदास बहादुर ने सौध शिखरी सर्वोच्च जिनालय निर्माण कराया था। अवशेष सभी टोंके तथा जलमन्दिरादि अभी सं० २०१७ में साध्वीजी रजनश्रीजी के सदुपदेश से जीर्णोद्धारित हुए थे । सम्मेत
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खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा
शिखरजी पर यात्री संघ सैकड़ों वर्षों से
आता रहा है जिसमें खरतरगच्छ के जैनाचार्य श्रीजिन सूरज के पधारने का विवरण प्राचीन है और भी अनेक संघ आये। यह पहाड़ सम्राट अकबर द्वारा विजयसूरिजी को दिए गए फरमानों से श्वेताम्बर समाज के अधिकार में रहा है । बाद में जगत सेठजी को भी फरमान मिले । उनकी माता माणक देवी के संघ का विशद वर्णन मिलता है ।
पहले संघ पालगंज आकर गिरिराज पर जाता था । पालगंज राजा के संरक्षक साथ रहते थे । वहाँ जैनमन्दिर भी श्वेताम्बर - दिगम्बर संप्रदाय का संयुक्त बना हुआ है । जब पहाड़ को रायबद्रीदास बहादुर और मोतीचंदजी नरवत आदि के प्रयत्नों से आनंदजी कल्याणजी की पेढी ने क्रय कर लिया तब से श्वेताम्बर समाज की ही संपत्ति रही है। जमींदारी उन्मूलन द्वारा अधिकांश भूमि सरकार ने अधिगृहीत कर ली है ।
मधुवन
श्वेताम्बर कोठी में बहुत से मन्दिर हैं जिनमें कलकत्ता, अजीमगंज, बीकानेर, मिर्जापुर आदि के संघ द्वारा निर्मापित मन्दिर है । कोठी के सामने तथा पृष्ठ भाग में दादावाड़ी बनी हुई है । विशाल धर्मशाला के मध्य जिनालयों का समूह है । धर्मशाला के बाहर श्री भोमियाजी महाराज का अतिप्राचीन कलापूर्ण मन्दिर है । श्वेताम्बर यात्रीगण सदा से भोमियाजी महाराज के दर्शन करके ही गिरिराज की यात्रा प्रारंभ करते थे। आज भी भोमियाजी महाराज की भक्ति में श्वेताम्बर समाज अग्रगण्य है । अब धर्म मंगल विद्यापीठ में मन्दिर एवं छात्रावास आदि इमारतें हो गई हैं । भोमियाजी भवन में भी मंदिर व भोजनशाला आदि निर्माणाधीन है । लगभग एकसौ दस वर्ष पर्यन्त to का ही बट दूगड़ परिवार के हस्तगत रहा । अब संघ के ट्रस्टी चुने जाकर व्यवस्था करते हैं । दूगड़ जी से पूर्व पूरणचन्द्रजी गोलेछा तथा जगतसेठ के परिवार के साथ मुर्शिदाबाद का संघ व्यवस्था करता था । तीर्थ को बचाने में श्रीमणिसागरजी महाराज ने श्री गुलाबचंद जी ढढा आदि के साथ आकर ७५ वर्ष पूर्व अनुष्ठान द्वारा सफलता प्राप्त की थी । खरतरगच्छ के अनेक आचार्य, उपाध्याय, एवं यति मुनियों द्वारा तीर्थ सेवा में प्रशंसनीय योगदान किया था ।
कलकत्ता - यों तो बंगाल का मुख्य धर्म ही जैनधर्म था । उसके बाद बौद्ध, वैष्णव आदि आये हैं । बंगाल के पुराने अनेक स्थानों में खण्डित अखंडित जैन प्रतिमाएँ व भग्नावशेष जैनमन्दिर पाये जाते हैं पर बंगाल में आकर बसे हुए जैनों का इतिहास मुगल काल व ब्रिटिश शासन के साथ-साथ कलकत्ता के विकास का इतिहास है ।
कलकत्ता में सं० १८७१ माघ सुदी १० को स्वतन्त्र पंचायती मन्दिर का निर्माण होकर खरतर गच्छ नायक श्री जिनहर्षसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित हुआ था । इतः पूर्व दादावाड़ी (माणिकतल्ला ) का निर्माण होकर १ स्थूलभद्र स्वामी २ दादा जिनदत्तसूरि ३ दादा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ४ दादा जिनकुशल सूरिजी तथा ५ जिनभद्रसूरिजी के चरण प्रतिष्ठित हुए थे । दादावाड़ी के परिसर में राय बद्रीदास जी के बगीचे में शीतलनाथ स्वामी का विश्वविश्रुत जिनालय है जहाँ देश-विदेश के दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है । सं० १९२४ में यह निर्मित प्रतिष्ठित हुआ था ।
श्री महावीर स्वामी का जिनालय सं० १९३६ में बड़ा संगीन और विशाल बना हुआ है। श्री चन्दाप्रभु जी मन्दिर सं० १९५२ में श्री कपूरचन्द जी खारड़ ने बनवाकर श्री जिनरत्नसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित कराया था ।
आदिनाथ जिनालय - कुमारसिंह हाल (४६ इण्डियन मीटरस्ट्रीट) में सन् १९१६ प्रतिष्ठित है ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
१०५ यहाँ स्फटिक रत्न की तीन विशाल जिन प्रतिमाएँ हैं । कुमारसिंह हाल में गुलाबकुमारी लायब्ररी एवं श्री पूरणचन्द्र जी नाहर का पुरातत्व संग्रहालय है। यहाँ सभाएँ तथा पर्युषण के व्याख्यान भी होते हैं।
मनमोहन पार्श्वनाथ जिनालय-यह भवानीपुर में शिखरबद्ध विशाल जिनालय और पास ही तीन मंजिल में उपाश्रय साधु-साध्वियों के चातुर्मास और धर्मध्यान का उत्तम साधन है।
१० हंसपोखरिया वर्द्धमान भवन में शांतिनाथ देहरासर, ६,विटिल रसल स्ट्रीट में हरखचन्द जी कांकरिया का देहरासर, भवानीपुर के मेहता बिल्डिंग पर तथा १८, हिन्दुस्तान रोड, वालीगंज में छोटूलाल जी सराणा का पार्श्वनाथ चैत्यालय दर्शनीय हैं।
_ बिहार प्रान्त में राँची, टाटानगर, फाबिशगंज, प्रतापगंज में तथा बंगाल में सैंथिया, खड़गपुर, लिलुआ में जिनालय है। हुगली-चिन्सुरा में कलकत्ता बसने से पूर्व जिनालय, दादाबाड़ी व भैरुजी का मन्दिर था । अब दिगम्बर मन्दिर और अधिष्ठाता भैरुजी का मन्दिर पार्टिशन हटाकर धर्मशाला में संलग्न है । दादावाड़ी गायब है, केवल खुली जमीन पड़ी है। बंगाल की पुरानी बस्तियों दस्तुरहाट, जंगीपुर, कासिम बाजार आदि अनेक स्थानों के मन्दिर उठ गये हैं। मुर्शिदाबाद जिले के अजीमगंज, जीयागंज में पर्याप्त बस्ती थी। अब अनेक लोग की कलकत्ता आदि में आ गए हैं । यहाँ प्राचीन उपाश्रय, मन्दिर और समृद्ध जमीदारों, की राजवाड़ियाँ हैं। वहाँ के मन्दिरों का उल्लेख किया जाता है
अजीमगंज-यहाँ १ नेमिनाथ का मन्दिर, खरतरगच्छ उपाश्रय के बगल में है, ज्ञान भंडार भी हैं । २ चिन्तामणि का मन्दिर ३ सुमतिनाथ जिनालय-यह सिताबचन्दजी नाहर का निर्मापित है। ४ गौडी पार्श्वमन्दिर-धनपतसिंह जी दुगड़ का बनवाया हुआ है। ५ पद्मप्रभ जिनालय-खरतरगच्छीय प्रतापचन्द जी निर्मापित है । ६ संभवनाथ जिनालय नगर से दूर धनपतजी दुगड़ निर्मापित है। यहाँ की अधिकांश प्रतिमाएँ पालीताना भेज दी गई हैं । ७ शान्तिनाथ जिनालय-सुमेरचन्दजी वैद्य की धर्मपत्नी गुलाबकुमारी बीबी निर्मापित है।
" रामबाग में दादावाड़ी में जिनदत्त सूरिजी व जिनकुशल सूरिजी के चरण पादुके हैं । यहाँ कासिम बाजार से नेमिनाथ भगवान, जीयागंज व जंगीपुर से आये सहस्र फणा पार्श्वनाथ हैं, सांवालिया पार्श्वनाथ व अष्टापदजी का मन्दिर भी है।
___ जीयागंज-गंगापार में जीयागंज व बालूचर बसा हुआ है। यहाँ जैन समाजकी कई संस्थाएँ हैं। (१) संभवनाथजी का पंचायती मन्दिर-इसमें दादावाड़ी तथा पृष्ठ भाग में खरतरगच्छ का उपाश्रय है । (२) विमलनाथ जिनालय-यह श्रीपतसिंह जी दूगड़ के पूर्वजों का निर्मापित है । संलग्न धर्मशाला, उपाश्रय, आयंबिलशाला व दादा साहब का मन्दिर भी है। (३) आदिनाथ मन्दिर-इसके बगल में तपागच्छ का उपाश्रय है । (४) दादावाड़ी-कीरतबाग में दादाजी का तथा भगवान का मन्दिर भी है।
जीयागंज से ४ मील महिमापुर में जगतसेठ जी का सुप्रसिद्ध कसौटी मन्दिर है । इसमें दादा साहब के चरण दो सौ वर्ष प्राचीन हैं।
काठगोला-यहाँ दूगड़ परिवार के सुप्रसिद्ध विशाल बगीचे में जिनालय, दादाबाड़ी एवं दर्शनीय कोठी बनी हुई है। कूच बिहार में जिनालय व दादावाड़ी है।
उत्तर बंगाल जो पहले पाकिस्तान और बाद में बंगलादेश हो गया, वहाँ रंगपुर, माहीगंज, नबाबगंज में जिनालय व दादावाड़ी है । सिराजगंज में दादाबाड़ी है । दिनाजपुर में नाहर परिवार द्वारा बनाया जिनालय है।
आसाम प्रान्त में १ गवालपाड़ा व २ तेजपुर में पार्श्वनाथ जिनालय हैं। माणकाचर में दादावाड़ी है तथा गौहाटी में घर देहरासर रूप में चरणादि हैं।
-. खण्ड ३/१३
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संघ- परिचय
(एक परिचय)
जैन समाज की गतिविधियों का जयपुर एक प्रमुख केन्द्र रहा है । धार्मिक एवम् सामाजिक कार्यों के संचालन हेतु यहाँ कई संस्थायें कार्यरत हैं । इन संस्थाओं में इस संस्था का प्रमुख स्थान है ।
श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर
इस संघ को महान साधु-साध्वियों की भक्ति का लाभ हमेशा प्राप्त होता रहा है। परम पूज्य प्रवर्तिनी महोदया श्री सज्जन श्रीजी म० सा०, प्रधान पद विभूषिता श्री अविचल श्रीजी म० सा०, विनयमूर्ति श्री विनीताश्रीजी म० सा०, परम पूज्य श्री कमलाश्रीजी, दर्शनाचार्य श्री शशीप्रभाश्रीजी म० सा०, श्रीनिर्मला श्रीजी म० सा० आदि ठाणा की भक्ति का लाभ काफी समय से संघ को प्राप्त हो रहा है !
संघ द्वारा समय-समय पर पूजन, साधर्मीवात्सल्य, दादा-मेला आदि का आयोजन किया
जाता है ।
संघ द्वारा संचालित विभिन्न कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है :
१. श्री शिवजीराम भवन :
इस भवन में धार्मिक कार्यक्रमों के अलावा कई सामाजिक कार्यक्रम भी होते हैं । इस भवन का नवीनीकरण कराया जा रहा है । अब तक नई आयंबिल शाला व बर्तन विभाग बनकर तैयार हो गये हैं । पूर्व में जो छत पर टीनसेड था उसकी जगह पक्की छत का निर्माण हो चुका है। दूसरी मंजिल पर एक भव्य व्याख्यान हाल के निर्माण की योजना है। भवन में स्थाई भोजनशाला शुरू करने पर भी बिचार चल रहा है ताकि बाहर से आने वाले जैन बंधुओं को शुद्ध आहार का लाभ प्राप्त हो सके । यात्रियों के ठहरने के लिये नये कमरों का निर्माण कराया गया है ।
२. श्री सुपार्श्वनाथजी का बड़ा मंदिर :
यह जिनमंदिर जयपुर नगर के प्राचीन भव्य व अलभ्य कलाकृतियों का रूप तो है ही, साथ में संघ का धार्मिक दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट स्थान है । इसके पास की 'नायला हवेली' संघ ने खरीद ली है और कब्जा भी ले लिया है । मंदिर और नायला हाउस को मिलाकर मंदिर के विस्तार की योजना विचाराधीन है। नायला हाऊस के धार्मिक व सामाजिक उपयोग हेतु निर्माण की रूप-रेखा तैयार की जा रही है ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
३. श्री ऋषभदेवजी भगवान का मंदिर एवं दादावाड़ी - ( मोहनबाड़ी ) :
यह शहर का सर्वाधिक रमणीय स्थान बन गया है । वर्तमान में खूबसूरत लान व बगीचे के निर्माण हो जाने से यह लोगों के सामाजिक कार्यों का प्रमुख केन्द्र है । इसमें नवनिर्मित 'श्री विचक्षण समाधि' अपने आप में एक आकर्षण है, जहाँ शहर व बाहर के दर्शनार्थी अपूर्व आनन्द का लाभ लेते हैं । भविष्य में मोहनबाड़ी को और भी आकर्षक बनाने की कई योजनायें विचाराधीन हैं । ४. श्री चंदाप्रभुजी का मंदिर एवम् दादावाड़ी, आमेर :
जयपुर की पुरानी राजधानी में स्थित श्री चंदाप्रभुजी का भव्य मंदिर व दादावाड़ी है । मंदिर की मूर्ति अत्यन्त ही मनोरम व आकर्षक हैं । कहते हैं, पूरे भारत में श्री चन्दाप्रभु भगवान की ऐसी सुन्दर छवि की मूर्ति कहीं नहीं है । मंदिरजी में जीर्णोद्धार कार्य का लाभ एक सधर्मी भाई ले रहे हैं जिससे प्राचीन मंदिर में और चार चाँद लग जायेंगे ।
५. श्री सांगानेर मंदिरजी व दादावाड़ी :
सांगानेर मंदिरजी के अन्दर का कार्य पूरा हो चुका है। यह मंदिर भी प्राचीन मंदिरों में से एक भव्य मंदिर है और यहाँ की कला भी काफी आकर्षक है |
सांगानेर द्वादाबाड़ी में छतरियों के जीर्णोद्धार कार्य हो जाने से पुरानी भव्यता पुनः लौट आई है । दादावाड़ी में एक सुन्दर बगीचा भी विकसित किया जा रहा है ।
६. श्री चाकसू मंदिरजी :
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यह भी एक प्राचीन मंदिर है और यहाँ सालाना पूजा का आयोजन किया जाता है ।
७. श्री आदीश्वर भगवान का मंदिर : ( नथमलजी का कटला )
यह शहर के पास है और इसका आवश्यक जीर्णोद्धार करवाया गया है । परमपूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्री जी म० सा० के दीक्षा के समय इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई थी और उनके परिवार के सदस्य श्रीमान कल्याणमलजी गोलेच्छा ने इस मंदिर को श्री खरतरगच्छ संघ को भेंट दे दिया था । इस सम्बन्ध में पूज्य म० सा० का पूर्ण योगदान रहा । इसी वर्ष कुछ नवीन मूर्तियों की प्रतिष्ठा व दादा गुरुदेव के चरण स्थापित किये गये हैं ।
८. श्री महावीर भगवान का मंदिर - (टोंक फाटक) :
यहाँ शहर के बाहर बसे कोलोनियों के लोगों के दर्शन व पूजा करने वालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है । मंदिर के नवीनीकरण की योजना विचाराधीन है ।
९. श्री विचक्षण विद्या विहार - छात्रावास :
यह टोंक फाटक पर स्थित है । विभिन्न जगहों के समाज के छात्रों के यहाँ रहने का प्रबंध है । छात्रों को विद्याध्ययन के अलावा शुद्ध भोजन व धार्मिक प्रवृत्ति का यहाँ लाभ प्राप्त होता है । १०. महिला विभाग :
यह विभाग आयंबिलशाला व उपाश्रय की व्यवस्था में कार्यरत है। आंबिलशाला का नवीनीकरण हो चुका है । आयबिलशाला नियमित रूप से प्रगति कर रही है ।
११. श्री विचक्षण स्मृति भवन :
इसका निर्माण जोरों से चल रहा है। नीचे की मंजिल व तहखाने का कार्य पूरा हो चुका है।
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श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर भवन पुरा होने पर यह जयपुर की भव्य इमारतों में से एक होगा और जनसाधारण के उपयोग में आवेगा। १२. मालपुरा दादावाड़ी-मालपुरा
यह मालपुरा में स्थित चमत्कारिक स्थान है । दादा गुरुदेव के दर्शन हेतु समस्त भारत के लोग यहाँ आते हैं । यहाँ आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था है।
देहली वाले सेठ श्री अमृतलालजी की तरफ से एक बगीचे की व्यवस्था की जा रही है जो इस स्थान की शोभा बढ़ाने के अलावा पूजा हेतु फूल भी उपलब्ध कराता है । दादा गुरुदेव की छतरी के नवीनीकरण व दादावाड़ी के विस्तार की योजना विचाराधीन है। १३. श्री खोह मंदिर जी :
जयपुर के पास खोह गाँव में स्थित यह प्राचीन मंदिर है । इसके जीर्णोद्धार की योजना विचाराधीन है। १४. श्री बालचंद फूलचंद धूपिया जैन श्वेताम्बर धर्मशाला :
वर्तमान में यहाँ एक धर्मादा चिकित्सालय सेवा प्रेमी बंधुओं की तरफ से चल रहा है । १५. श्री ज्ञान भण्डार : . श्री ज्ञान-भण्डार में दुर्लभ ग्रन्थ व पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिसका लाभ साधु-साध्वियों के अलावा समाज को भी प्राप्त होता है।
परम श्रद्धय श्री सज्जनश्रीजी म. सा. व पूज्य श्री शशीप्रभाश्रीजी म. सा. के अथक प्रयास से इसको नवीन स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। १६. बर्तन भण्डार :
___ सामाजिक व धार्मिक कार्यों के उपयोग हेतु सभी प्रकार के बर्तन व अन्य सामान की व्यवस्था है। धार्मिक संस्थाओं को बर्तन वगैरा निःशुल्क दिये जाते हैं। इन वर्षों में काफी नये वर्तन खरीदकर इसको और उपयोगी बनाया गया है। १७. साधर्मी भक्ति:
समय-समय पर बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों के आवास व भोजन की व्यवस्था संघ द्वारा सुचारु रूप से की जाती है।
যতালারী १. ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले व्यक्तियों की देवता भी सहायता करते हैं।
ब्रह्मचर्य व्रत के प्रभाव से सभी प्रकार की आपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, उन
पर आये हुए संकट क्षणमात्र में दूर हो जाते हैं। २. अपरिग्रह व्रत-धारी जगत में परम पूज्य पद प्राप्त करते हैं। बड़े-बड़े __ शक्तिशाली सम्राट उनके चरणों में झुकते हैं। और वह सदा निर्भय
रहता है। ३. सत्य जब व्यवहार में आता है तभी उससे स्वयं का और सम्पर्क में आने
वालों का कल्याण होता है। ४. कामना और संकल्प में बड़ा भारी अन्तर है । कामनाओं से केवल अशान्ति
बढ़ती है, भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा को कामना कहते हैं। कामनाओं का त्याग किये बिना अध्यात्म साध.. नहीं हो सकती।
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प्रवर्तिनी सिंहश्रीजी म० के साध्वी समुदाय का परिचय
साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
जैन धर्म परम्परा में - मोक्ष की राह पर चलने का नारी व पुरुष को समान अधिकार है । आत्मसमानता के संगायक भगवान महावीर ने साधना के क्षेत्र में जाति भेद, वर्ग भेद और रंग भेद आदि को कभी नहीं स्वीकारा । उनका सदा उद्घोष रहा कि साधना करने का, आत्मविकास करने का, मुक्ति प्राप्त करने का सबको समान अधिकार है । आत्म-प्रधान दर्शनों में परस्पर विभेद रेखायें हो ही नहीं सकतीं । जो अनन्त-गुण- युक्त आत्मज्योति पुरुष में है वैसी ही आत्मज्योति नारी में है । अतः साधना के क्ष ेत्र में पुरुष नारी का कोई भेद नहीं । यही कारण है कि चतुविध संघ की स्थापना में साधु के साथ साध्वी और श्रावक के साथ श्राविका को भी उन्होंने समान स्थान दिया । नेतृत्व की दृष्टि से यद्यपि साध्वियाँ पीछे हैं। सामान्य स्थिति में संघ का नेतृत्व कभी उनके हाथों नहीं आया, तथापि संयम साधना, शासन प्रभावना, विद्वत्ता आदि की दृष्टि से संघ में उनका स्थान गौरवपूर्ण रहा, और है । साहस व संकल्प की दृष्टि से देखा जा तब तो कभी-कभी नारी-पुरुष की प्रेरणा बनने का दिव्य और भव्य सौभाग्य प्राप्त कर चुकी है । ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमती, याकिनी महत्तरा, नागिला आदि इसके अनुपम उदाहरण हैं । उन्होंने अपनी राह में डगमगाते साधकों को स्थिर ही नहीं किया, उन्होंने महान् त्यागी व संयमी बनाकर मुक्ति का पथिक बनाया। इतना ही नहीं, साधकों की संयम - रक्षा हेतु उन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग तक कर दिया । साध्वी बन्धुमती, इसका ज्वलन्त उदाहरण है ।
भगवान महावीर के समय में विद्यमान साध्वी प्रमुखा आर्या चन्दनबालाजी से लेकर साध्वियों की यह गौरवपूर्ण परम्परा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । इस परम्परा में कई संयमी, तपस्वी, विदुषी, कवयित्री एवं लेखिका आर्यायें हुईं और वर्तमान में हैं, जिनकी गौरवगाथा प्रकाशस्तम्भ की तरह आज भी मानव जाति का दिशा-निर्देश करती हैं ।
इस परम्परा में खरतरगच्छीय साध्वी मंडल संयमनिष्ठा, विद्वत्ता, वक्तृत्व, लेखन आदि की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखता है । आज भी इस परम्परा में, कम संख्या में होते हुए भी, उच्चकोटि की संयम - साधिका वक्ता, कवयित्री, लेखिका आदि बड़ी विदुषी साध्वियाँ हैं, जो आत्म-साधना करती हुई अपने ज्ञान एवं प्रतिभा के द्वारा जन-जन तक भगवान महावीर का दिव्य सन्देश पहुँचा रही हैं ।
समय के प्रवाह के साथ यह परम्परा कई शाखा-उपशाखाओं से समृद्ध बनी । प० पू० खरतर -
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प्रवर्तिनी सिंहश्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी गच्छाधिपति सुखसागरजी म. के समुदाय में वर्तमान में साध्वियों की दो समृद्ध परम्परायें हैं जो पुण्यमण्डल और शिवमण्डल के नाम से प्रसिद्ध हैं। पुण्य-मण्डल की प्रमुखा हैं, पुण्यश्लोका पुण्यश्रीजी म० सा० एवं शिवमण्डल की नेत्री हैं, प० पू० स्वनामधन्या संयममूर्ति शिवश्रीजी म. सा० । दोनों का मूल एक ही है, दोनों ही प० पू० लक्ष्मीश्रीजी म. सा० की शिष्यायें हैं।
शिष्या-प्रशिष्या का परिवार बढ़ने के साथ स्वाभाविक है कि दो गुरुबहिनों का विहार-प्रचार इत्यादि अलग-अलग दिशा में हो जाता है, किन्तु एक बात समझ नहीं आती कि ऐसी क्या आवश्यकता हुई, ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ बनी कि सर्वोपरि अनुशासन एक होते हुए भी प्रवर्तिनी की व्यवस्था अलग-अलग की गई। प० पू० लक्ष्मीश्रीजी म. जैसी संयमनिष्ठ, जिनाज्ञासमर्पित गुरुवर्या के नेतृत्व में फलने-फूलने वाला अनुशासनप्रिय साध्वी-मण्डल में दो प्रवर्तिनियों की आवश्यकता किस कारण हुई, एकता के बँधे हुए साध्वी-मण्डल ने कालान्तर में अलगाव पैदा करने वाले इस निमित्त को क्यों स्वीकार किया। व्यवस्था और अनुशासन की दृष्टि से भी दो प्रवर्तिनी वाली बात का यहाँ कोई औचित्य नहीं लगता । कारण साध्वियों की संख्या इतनी अधिक थी ही नहीं। वर्तमान साध्वी-समुदाय का मूल
प० पू० लक्ष्मी स्वरूपा
लक्ष्मी श्रीजी म. सा. लक्ष्मीश्रीजी म. सा. वास्तव में गच्छ के लिए लक्ष्मीस्वरूपा सिद्ध हुईं। आपकी परमकृपा का सुपरिणाम है कि आज दोनों मण्डल सुयोग्य साध्वियों से समृद्ध हैं। आप फलौदी निवासी जीतमलजी गुलेछा की सुपुत्री थी । आपकी शादी उस समय के रिवाज के अनुसार छोटी उम्र में ही झाबक परिवार में हुई। जिनका जीवन मुक्त होने के लिए निर्मित हुआ वह कब बन्धन-बद्ध रह सकती थीं। कुछ समय बाद ही अचानक आपके पति की मुत्यु हो गई। छोटी उम्र, धर्मरुचि, पारिवारिक सुविधा ने आपको सत्सग से जोड़ दिया। प० पू० खरतरगणाधीश सुखसागरजी म. सा० के त्याग, वैराग्यपूर्ण प्रवचन एव प० पू० गुरुवर्या श्री उद्योतश्रीजी म. सा० की सत्प्रेरणा से आप विरक्ता बनी और वि० सं० १९२४ की मिगसर वदी १० को दीक्षा ग्रहण की । पू० गुरुदेव एवं गुरुवर्याश्री की निश्रा में शास्त्राध्ययन कर आपने विद्वत्ता प्राप्त की थी । आप विदुषी होने के साथ प्रखरव्याख्यात्री, तपस्विनी, संयम एवं प्रभावशालिनी थी। आपकी दो शिष्यायें थी १. प० पू० मगनश्री जी म. सा. २. शिवश्रीजी म. सा० । खरतरगच्छ में शिवमण्डल के नाम से प्रसिद्ध साध्वी मण्डल आपकी ही परम्परा में है।
आदर्श त्यागप्रतिमा प० पू०
सिहश्रीजी म.सा. आपका नाम शिवश्रीजी और सिंहश्रीजी दोनों मिलते हैं। आपके लिये दोनों ही नाम सार्थक हैं । आपका जीवन मोक्ष (शिव) की प्राप्ति के साधनभूत ज्ञान और क्रिया वस्तुतः उनके जीवन की अनुपम 'श्री' थे । साहसासिंह से कम नहीं था । अतः सिंहश्रीजी भी नाम सार्थक है । आपका जन्म वि.स. १६१२ में फलोदी में हुआ था। पिता का नाम लालचन्द्रजी और माता अमोलक देवी थी। अमोलक देवी की कुक्षि से यह अमोलक रत्न १९१२ में पैदा हुआ था। आपका नाम शेरू था। तभी तो छोटी उम्र में आये वैधव्य
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के दुख को शेर की तरह साहस से झेलकर, २० साल की भर युवानी में १६३२ की अक्षयतृतीया को प. प. लक्ष्मीश्रीजी म. के चरणों में संयम स्वीकार कर समर्पित हो गईं। आप साहस व संयम की धनी थीं। ज्ञान और क्रिया दोनों ही समान रूप से आपके जीवन में भोतप्रोत थे । आपका प्रवचन बड़ा ही प्रभावशाली, रोचक व प्रेरक था । यही कारण है कि आपने कई आत्माओं को प्रतिबोध दे संयमी बनाया। दूसरों की भावना को अपने विचारों से अनुप्राणित कर देने की क्षमता प्राप्त कर लेना, बहुत बड़ी उपलब्धि है । आप ही का पुण्य प्रभाव है कि आज आपकी परंपरा सुयोग्य-साध्वियों से समृद्ध है, और शिव-मण्डल के नाम से प्रसिद्ध है । आपकी ७ शिष्यायें प्रसिद्ध हैं। १. प्रतापश्रीजी म० २. देवश्रीजी म० ३. प्रेमश्रीजी म० ४. ज्ञानश्रीजी म० ५. वल्लभश्रीजी म० ६. विमलश्रीजी म० ७. प्रमोदधीजी म० । आप वि. स. १९६५ पो. शु. १२ को अजमेर में दिवंगत हुईं।
इन सात पूज्याओं का विशाल शिष्या-प्रशिष्या परिवार शिव मण्डल है। रंग-विरंगे पुष्पों से जैसे वाटिका महकती है, वैसे गुण-सौरभ संपन्न ८५-६० साध्वियों से यह शिव-मण्डल का बगीचा महक रहा है।
परमप्रतापी पू० प्रतापश्रीजी म.सा० आपका जन्म वि. सं. १९२५ पौषसुद १० को फलोदी में हुआ था । आपके पिता मुकनचन्दजी लुंकड़ एवं माता सुकन देवी थी । आपका नाम आसीबाई था। १२ वर्ष की अल्पायु में सूरजमलजी झाबक के साथ आपका विवाह हुआ किन्तु आपका गृहस्थ-जीवन लम्बे समय तक नहीं चला। कुछ वर्षों में ही आपका सौभाग्य छिन गया।
जो आत्मायें साधक जीवन जीने हेतु ही जन्मी हैं, उनके लिये ये घटनायें अधिक महत्व नहीं रखतीं, वे इन्हें अपने ही कर्मों का प्रसाद मानकर हंसते-हंसते सह लेती हैं । व्यर्थ के आत ध्यान से नये कर्मों का बंधन नहीं करतीं । किन्तु अवसर का उचित लाभ उठाकर अपने जीवन को सार्थक कर लेती हैं।
आसीवाई 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय' के अनुसार जो कुछ हुआ उसे भूलकर, आगे क्या करना है, उस प्रयास में जुट गईं । सर्वप्रथम उन्होंने श्रावकोचित सूत्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। धर्माराधना में मन पिरोया । इससे उन्हें वेदना में विश्राम मिला। शांति एवं सान्त्वना मिली। कर्मबन्धन से ऊवा मन मुक्ति की साधना की राह खोजने लगा। ठीक इसी समय आदर्श त्याग प्रतिमा विशुद्ध संयमी शिवश्रीजी म.सा० का आपको सुयोग मिला । उनकी प्रेरणा से आसीबाई में पूर्ण साधनामय संयमी जीवन जीने का दृढ़ संकल्प बना और वि०सं० १९४७ मिगसर बदी १० को आपने दीक्षा ग्रहण की। पू. शिवश्रीजी म.सा० की प्रधानशिष्या बनने का गौरव प्राप्त किया।
आपका जीवन शान्त, सरल एवं गुरुसेवा समर्पित था। ज्ञानाभ्यास के साथ आप तपस्विनी थीं। आपने १२ शिष्याओं की गुरुपद के साथ शिवमण्डल के प्रवर्तिनी पद को भी कई वर्षों तक सुशोभित किया । वास्तव में आपका जीवन तप-त्याग के प्रताप से पूर्ण था।
___ द्वादश पर्वव्याख्यान, संस्कृत के चैत्यवन्दन स्तुति, आनन्दघन चौबीसी; देवचन्द्र चौवीसी आदि आपके उपयोगी प्रकाशन है ।
यू तो आपकी सभी शिष्या योग्य थी किन्तु प. पू. चैतन्यश्रीजी म. परमविदुषी महान् शासनप्रभाविका थीं।
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प्रवर्तन सिंह श्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
देवीतुल्या देवश्रीजी म. सा.
वास्तव में आप देवीस्वरूपा थीं । प्रकृति से गम्भीर, शान्त एवं शुचिमना थीं । आपका जन्म वि. सं. १९२८ चै. शु. को फलोदी में हुआ था । वैधव्य के पश्चात् पू० गुरुवर्या सिंह श्रीजी म. सा. के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। आप उच्चकोटि की विद्वत्ता तो नहीं प्राप्त कर सकीं, परन्तु विनय एवं सेवा के क्षेत्र में अग्रगण्य रहीं । गुरु एवं गुरुबहिनों के प्रति आपका जो सेवा-शुश्रूषा एवं स्नेह भाव था, वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । अपनी गुरुबहिनों का कार्यं स्वयं करके उन्हें अध्ययन का अवसर देना आपकी महानता का परिचायक है । जहाँ पारस्परिक प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है, वहाँ गुरुबहिनों को आगे बढ़ाने में प्रेमपूर्वक सहयोग करना, आपकी महान् विशिष्टता है । स्नेह के साथ आप में अनुशासन की कुशलता भी थी । स्नेह और अनुशासन, एक अच्छी संरक्षिका के दोनों ही गुण आपमें मौजूद थे । आपके इन्हीं सद्गुणों को देखकर वि. सं. १९६७ माघ बदी १३ को प्रवर्तिनी पद विभूषित किया
गया ।
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आप १०-११ शिष्याओं के गुरुपद को सुशोभित करती थीं । आपकी शिष्याओं में प. पू. विदुषीरत्ना बा. ब्र. हीराश्रीजी म० सा० " यथानामा तथागुणा" ही थीं । आपका स्वर्गवास | वि. सं. २०१० भादवा बदी १३ को फलोदी में हुआ ।
आदर्श प्रेम-प्रतिमा प. पू. प्र. श्री प्रेमश्रीजी म. सा.
आपश्री का व्यक्तित्व असीम था । उसे शब्दों की सीमा में बाँधना कठिन है। जिसका जीवन प्रेम-स्वरूप हो, जिसके हृदय में स्नेह का अजस्र झरना बहता हो, जिसका अन्तर् और बाह्य प्रेम में पगा हो, उस व्यक्तित्त्व को शब्दों के चौखटे नहीं ढाला जा सकता । मात्र उसका अनुभव ही किया जा सकता है | आपके सान्निध्य में रहने का सौभाग्य यद्यपि बहुत ही छोटी उम्र में मिला था, तथापि उनके जीवन की कुछ स्मृतियाँ हृदय में यथावत् अंकित हैं ।
पूज्यवर्या का जन्म फलोदी में छाजेड़ कुलदीपक किशनलालजी एवं अ० सो० लाभूदेवी की रत्नकुक्षि से वि० सं० १९३८ की शरद पूर्णिमा को हुआ था । एक चाँद आकश में चमक रहा था तो दूसरा दुनियाँ को प्रकाश देने धरती पर अवतीर्ण हुआ था । आपका नाम धूलि रखा । मानो रत्नधूलि में ही पकते हैं। धर्मसंस्कारों में पली योग्य शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न 'धूलि' को १३ वर्ष की उम्र में, अईदानजी गुछा के साथ, विवाहसूत्र में बाँध दिया । किन्तु कुदरत को कुछ और ही मंजूर था । राग तोड़ने के लिये जन्मी धूलि, राग का पोषण कैसे कर सकती थी ? जिसका जीवन सर्वजनहिताय एवं सर्वजन सुखाय था। वह एक से बँधकर कैसे रह सकती थी जिसका जीवन मुक्ति की साधना के लिये था, वह संसार के कीचड़ में कैसे फँस सकती थी। शादी को साल भर पूरा न हुआ, पति की मृत्यु हो गई, दुख होना स्वाभाविक था, किन्तु भगवान् ने कहा है- 'अज्ञानं खलु महाकष्टम् ।” दुख का कारण जीव का अपना अज्ञान है। ज्योंही अज्ञान का अन्धेरा दूर होता है सुख का सबेरा स्वतः हो जाता है । भगवान का यह कथन सत्य है यथार्थ है । तपे हुए लोहे पर की गई चोट उसे वांछित आकार में बदल देती है । आवश्यकता है विवेकपूर्वक ढ़ालने की ।
उस समय धुलिबाई एक दुधमुही बाला थी । कुछ आत्मायें वय से छोटी, किन्तु ज्ञान से परिपक्व होती हैं, जरा-सा निमित्त पाकर उनके अज्ञान की झिल्ली टक-टूक हो जाती है । पू. गुरुवर्या विशुद्ध
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
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संयमी सिंहश्रीजी म. सा. के सुयोग एवं सदुपदेश से धूलिबाई के हृदय में सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई । धीरे-धीरे चिरसंचित वैराग्यभावना को पोषण मिला । संसार में होने वाले कर्मबन्धन के चिन्तन से वे कांप उठीं । आखिर गुरुवर्याश्री के चरणों में संयम लेने की प्रबल भावना जाग उठी सुयोग्य पात्र देखकर गुरुवर्याश्री ने भी उन्हें सहर्ष स्वीकृति दे दी । १६ वर्ष की उम्र में वि. स. १६५४ मि. वदी १० को आपने बड़े समारोहपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। आपके जीवन में प्राणीमात्र के प्रति प्रेम का माधुर्य छलकता देखकर गुरुवर्याश्रीजी ने आपका अन्वर्थक नाम 'प्रेमश्रीजी' रखा । तीक्ष्ण बुद्धि, प्रखर प्रतिभा, गुरु समर्पण, अटूट लगन, सेवाभाव, संयमनिष्ठा, निस्पृहता आदि अलौकिक गुणों ने आपको ज्ञानी, प्रखरव्याख्यात्री, विशुद्ध-संयमी एवं ध्यानी बना दिया। आपकी आवाज बड़ी मधुर पर बुलन्द थी । जब बोलती लगता था वीणा के तार झंकृत हो उठे हो । मुख पर अपूर्व तेज था । आपके दर्शन कर अच्छेअच्छे अभिभूत हो जाते थे । आप प्राकृत- संस्कृत, न्याय दर्शन की अच्छी विदुषी थीं। बड़े-बड़े विद्वानों के साथ धारा प्रवाह संस्कृत में वार्तालाप करतीं, ऐसा लगता मानो देहधारिणी सरस्वती हों । प्रवचन देती तो ऐसा लगता मानो हिमालय के उत्तुंग शृंग से कल-कल नादिनी गंगा प्रवाहित हो रही हो । आपके प्रवचन में हृदय परिवर्तन की अपूर्व क्षमता थी । नास्तिक जैसे व्यक्ति भी आपका प्रवचन श्रवण कर आस्थावान् बन जाते थे । सात्त्विकता के अभाव में तात्त्विकता अपूर्ण है । आपका जीवन तात्त्विक ही नहीं पूर्णं सात्त्विक था ।
आप मौन-ध्यान-प्रिय थी, सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् मौन ग्रहण करती वह दूसरे दिन प्रातः १० बजे खोलतीं । प्रातः ६ बजे ध्यानस्थ होती १० बजे बाहर आतीं, चाहे कितना भी आवश्यक कार्य हो, कैसा भी बड़ा व्यक्ति क्यों न आया हो, आपके नियम में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता । जिस समय आप ध्यान करके बाहर पधारतीं आपके चेहरे और आँखों में वह तेज होता कि सहसा उनके सामने देखने का साहस नहीं होता । मौन और ध्यान की उपलब्धि उनके अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के साथ बाहर में वचन-सिद्धि के रूप में हुई । उनकी वचनसिद्धि के साक्षी कई व्यक्ति आज भी मौजूद हैं । आहार शुद्धि एवं नियमितता के प्रति आपका पूर्ण लक्ष्य था । अपने युवावस्था में भी कम से कम द्रव्यों का नियम, वृद्धावस्था में तो मात्र ५ द्रव्य और ३ विगय ही खुली रखी थीं । आपका प्रत्येक चिन्तन आत्मकेन्द्रित होता था ।
आप वास्तव में एक वीरांगना थीं। मध्य प्रदेश की बात, पू. गुरुवर्या को दीक्षा देकर जावरा के आस-पास के क्षेत्र में विहरण कर रही थी । उन दिनों उस इलाके में डाकुओं का बड़ा उपद्रव था । आये दिन गाँव लूटे जा रहे थे । आप अपनी आठ आदर्श - शिष्याओं के साथ जंगल से गुजर रही थीं कि पीछे से घोड़ों की टॉप सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर घुड़सवारों का पूरा दल था । आपकी पारखी आँखों को स्थिति समझते देर नहीं लगी । उन्हें भरोसा था प्रभु के ध्यान पर, उन्हें आस्था थी अपने शुद्ध, शील, संयम पर । युद्ध के मैदान में खड़े कमाण्डर की तरह आपने अपनी शिष्याओं को आदेश दिया - सावधान ! जब तक डाकुओं का उपद्रव शान्त न हो, शरीर और उपधि को वोसिराकर काउस्सग्गध्यान में खड़े होकर, भगवान महावीर, गजसुकुमाल, खंधक, मेतार्य आदि महामुनियों के आदर्श जीवन का चिन्तन करिये । महावीर के अनुयायी जीना जानते हैं तो मरना भी जानते हैं । कितना धैर्य ? कितना साहस ? शिष्याओं ने गुरु आज्ञा तहत्ति की ।
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प्रवर्तन सिंह श्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
दस्युदल नजदीक आता जा रहा था। पर यह समूह बेखबर ध्यान लीन था। एक ही संकल्प था कि उपसर्ग होगा तो मृत्यु का वरण करेंगे। उपद्रव शान्त हो जायगा तो संयम की साधना करते हुए शासन प्रभावना करेंगे । किन्तु यह क्या ? साध्वी - मंडल के नजदीक आकार डाकू दल अन्धों की तरह भ्रमित हो गया। आगे की राह ही नहीं सूझ पाई । आखिर दिशा बदलनी पड़ी। पुनः वही नीरवता छा गयी । साध्वीमंडल ने आँख सोलीं, सुदूर सुदूर क्षितिज पर लौटते हुए डाकुओं की धूल उड़ती दिखाई दी । संयमशील की विजय से आर्या-मण्डल की आँखें चमक उठीं और वे वीरांगनाएँ पुन नमस्कार मन्त्र का ध्यान करती हुई अपनी राह पर चल पड़ीं ।
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ध्यानावस्था में कभी-कभी आपको भावी घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता था । आपने कई घटनाओं का पहिले से संकेत किया था और वे सत्य निकली थीं । आपने अपनी मृत्यु का भी ३ माह पूर्व संकेत दे दिया था । जंघाबल क्षीण होने की स्थिति में आप १५ साल फलोदी में स्थानापन्न रहीं ।
वि० सं० २०१० की भादवा शु० १५ को अनिच्छा से आपको प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया गया। अपने पूर्व संकेतानुसार आ० कृ० १३ को मानो वस्त्र परिवर्तन कर रही हों, इस तरह पूर्ण तैयारीपूर्वक हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया। आपने गच्छ व शासन को १७ विदुषी, विशुद्धसंयमी, शासनप्रभाविका, प्रखर व्याख्यात्री शिष्याओं की अपूर्व भेंट दी। जिनके द्वारा की गई शासन सेवा एवं वर्तमान में २५ प्रशिष्याओं द्वारा हो रही शासनसेवा के लिये गच्छ को बड़ा गौरव है । आपके यशश्रीजी म., शान्तिश्रीजी म., क्षमाश्रीजी म०, अनुभव श्रीजी म०, शुभश्रीजी म०, तेजश्रीजी म० आदि अनेक शिष्याये हुईं। वर्तमान में साध्वीश्री विनोद श्रीजी म०, प्रियदर्शनाश्रीजी म०, विकासश्रीजी म०, हेमप्रभाश्रीजी, सुलोचनाश्रीजी म० आदि विचरण कर रहे हैं ।
प. पू. सौजन्यमूर्ति ज्ञानश्रीजी म. सा.
आप लोहावट निवासी पारख गोत्रीय मुकनचन्दजी एवं कस्तूरदेवी की सुपुत्री थीं । आपका जन्म वि० सं० १६२८ की श्रावण शुक्ला ३ को हुआ था। आपका नाम जड़ाव था । वास्तव में आपका जीवन सुसंस्कार एवं सद्गुणों से जड़ा हुआ था। आपका विवाह ! लोहावट में ही लक्ष्मीचन्द जी सा० चोपड़ा के साथ हुआ। किंतु काल ने १२ वर्ष की अल्प अवधि में ही संस्कारी युगल को वियुक्त कर दिया । जड़ावबाई विधवा हो गई। जिस हृदय में वास्तव में धर्मं रमा है, वहाँ कर्म आते तो हैं किंतु प्रभाव नहीं जमा सकते । दुख आता है किंतु विकल नहीं कर सकता । प्रत्युत प्रेरक बनता है । बाई का भी यही हाल था । पतिवियोग की व्यथा उनकी आत्मोन्नति में प्रेरक बनी। इसे सफल बनाने का काम किया पू. श्रीसिंह श्रीजी म० के सदुपदेशों ने । ५ वर्ष के अथक प्रयास से आखिर सफलता मिली और वि० सं० १६६१ की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की। ज्ञानश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध हुईं । बड़ी उम्र में दीक्षा लेकर भी आपकी पढ़ने की रुचि अद्वितीय थी । यही कारण है कि आपने बड़ी उम्र में अच्छा अध्ययन किया । आपकी ज्ञानरुचि ने ही लोहावट फलोदी आदि में कन्या पाठशाला खुलवाई। आपके उपदेश से खीचन, जैसलमेर का संघ निकला । बल्लभश्री श्री जी म. जैसी महान् साध्वी रत्न आपकी ही देन है । धर्मशालाओं का निर्माण हुआ । १६६६ वै० सु० १३ को फलोदी में आप समाधिपूर्वक दिवंगत हुईं । आप १३ सुयोग्य शिष्याओं की गुरुणी थीं । प. पू. शासन दीपिका मनोहर श्रीजी म० सा० आपकी ही प्रशिष्या है ।
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
११५ प. पू. जन-मन वल्लभा श्री वल्लभश्रीजी म. सा. विद्वत्ता के साथ सरलता एवं नम्रता से वल्लभ वास्तव में सबकी वल्लभ थीं । आपका जन्म लोहावट में पारख गोत्रीय सूरजमलजी की धर्मपत्नी श्रीमती गोगादेदी की कुक्षि से वि० सं० १९५१ पौष कृष्णा ७ को हुआ था। १० वर्ष की उम्र में ही भुवाजी (ज्ञानश्रीजी म.) द्वारा प्रदत्त संस्कार प. पू. गुरुवर्या श्री सिंहश्रीजी म. के प्रभावशाली, वैराग्यमय प्रवचनों से अंकुरित हुए। भुवाजी के साथ दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया । व्यक्ति संघर्ष करता है। किंतु ममता के साथ संघर्ष करना कठिन ही नहीं अति कठिन है ।१० वर्ष की उम्र में उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा, किंतु जहाँ संकल्प है, वहाँ सिद्धि है । आखिर भुवाजी के साथ ही १९६१ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को महान तपस्वी छगनसागर जी म० सा० के कर-कमलों से दीक्षित हो भुआ-भतीजी की यह अलबेली जोड़ी पू. गुरुवर्या सिंहश्रीजी म. सा. का शिष्यत्व स्वीकार कर कृतार्थ बनी । छोटी उम्र, तीक्ष्ण बुद्धि, दृढ़ लगन, अध्ययन रुचि से आप थोड़े वर्षों में ही महान् विदुषी बन गई । पू. गुरुवर्या का सान्निध्य तो आपको ४ वर्ष ही मिला, किंतु गुरुबहने विशेषकर प. पू. प्रवर्तिनी जी प्रेमश्रीजी म० सा० की आप सर्वाधिक कृपा-पात्र रहीं। यों विनय, सेवाभाव, सरलता के कारण आप सभी की प्रेम पात्र थीं । १० वर्ष तक आप गुरुवहिनों के साथ विचरण करती रहीं। तत्पश्चात् अपनी परमोपकारिणी ज्ञानश्रीजी म. के साथ सुदूर प्रदेशों में भ्रमण किया । शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन, प्रभावी-प्रवचन शैली से राजा-महाराजा एवं ठाकुरों ने प्रभावित होकर अहिंसक जीवन स्वीकार किया था। प. पू. प्रेमश्रीजी म. सा. के दिवंगत होने के पश्चात् उनकी परम कृपा-पात्र आपको छोटी सादड़ी में वि० सं० २०१० शरदपूर्णिमा को भव्य समारोह के साथ शिव-मण्डल का नेतृत्व रूप प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया । आपके हाथों शासन-प्रभावना के अनेकों कार्य हुए । अंत में जंघावल क्षीण होने पर अमलनेरे महाराष्ट्र में ६ साल स्थानापन्न रहीं । असाता के उदय में आपकी समता गजब की थी । तन वेदनाग्रस्त होता, किंतु मन प्रभु में मस्त रहता । आप वि० सं० २०१८ फा० सु० १४ को समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारी । आपके विशाल शिष्या-प्रशिष्या परिवार में कई साध्वियाँ बड़ी विदूषी, अच्छी व्याख्यात्री, लेखिका एवं कवयित्री हैं। आपश्री ने करीब २० पस्तकों का लेखन संपादन व प्रकाशन करवाया था। वर्तमान में शिव मंडल का नेतृत्व आपकी शिष्याँ प्रवर्तिनी श्री जिनसूरिजी म. कर रहे हैं। उनका परिचय इस प्रकार है
प. पू. वर्तमान प्रवतिनोजीश्री जिनश्रीजी म. सा. आप वर्तमान में शिव-मंडल के प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित प० पू० प्र० श्री वल्लभश्रीजी म० सा० की प्रधान शिष्या है। आपका जन्म वि० सं० १६५७ आश्विन शु०८ को तिवरी (राज.) में हुआ था । आपके पिता श्री लादुराम जी बुरड़ एवं मातुश्री घूड़ी देवी थी। आपका नाम 'जेठीबाई' था। १४ वर्ष की उम्र में आपका विवाह राजमलजी श्रीमाल के साथ हुआ था किन्तु डेढ़ वर्ष के बाद ही आप विधवा हो गईं। कभी-कभी दुख सुख के लिए होता है । अन्धकार में प्रकाश की किरण चमक जाती है । वि० सं० १९७६ में प० पू० ज्ञानश्रीजी प० पू० वल्लभश्रीजी म० तिवरी पधारी । आप भी गुरुवर्याओं के दर्शनार्थ गई। कुछ ही क्षणों के संसर्ग ने जेठीबाई की चेतना को जगाया। गुरुवर्या श्री तो दूसरे दिन जोधपुर की ओर विहार कर गईं किन्तु जेठीबाई के दिल में हलचल बढ़ती गई । उनके ही पुण्य से खिंची पू० गुरुवर्या का वह चातुर्मास तिवरी में ही हो गया। जेठीबाई की मनोकामना सफल बनी। पू० गुरुवर्या
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प्रवर्तिनी सिंहश्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
के सान्निध्य से उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ अपने आत्मबल एवं वैराग्य-भावना को दृढ़ बनाया। चातुर्मास बाद वि० सं० १९७६ मि० सु० ५ को दीक्षा ग्रहण कर पू० वल्लभश्रीजी म. सा. की प्रधान शिष्या बनीं । अध्ययन के साथ आप सामुदायिक विचार-विमर्श, देखभाल आदि का उत्तरदायित्व निभाने में अपनी गुरुवर्या का पूर्ण सहयोग करने लगीं। आपकी सूझ-बूझ इतनी विवेकपूर्ण थी कि बिगड़ती बात बना लेती थीं। पूज्या प्रवर्तिनी जी के पास आपका पद सदा ‘मन्त्री' जैसा ही रहा । गुरुसेवा आपके जीवन का सर्वस्व था। शिष्य का विनय, गुरु के वात्सल्य को खींचता है । जहां ये दोनों होते हैं, वहाँ आनन्द का पूछना ही क्या ? आपने अपने समूचे अस्तित्व को गुरु में विलीन कर दिया था। उनकी अपनी इच्छा, भावना कुछ भी नहीं है, सब कुछ गुरु समर्पित है। आप उन शिष्यों में थीं, जो गुरुहृदय में बसकर 'धन्यतम' की कोटि में आते हैं। इसी के परिणामस्वरूप प० पू० प्रमोदश्रीजी म. सा. के स्वर्गवास के बाद शिव-समुदाय का संचालन आपके हाथों सौंपा गया। आज आपकी उम्र ८८ वर्ष की है फिर भी अपने उत्तरदायित्व को बड़ी कुशलता के साथ निभा रही हैं। आपकी दीर्घायु की कामना के साथ शासन देव से प्रार्थना है कि आपके सफल नेतृत्व में, समुदाय अधिकाधिक रत्नत्रय की आराधना करती, शासन प्रभावना करती हुई समृद्ध बने।
वर्तमान में विचरण कर रही साध्वी श्री कुसुमश्रीजी म०, निपुणश्रीजी म०, कमलप्रभाश्रीजी म० आदि प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्रीजी म० सा० की ही विदुषी शिष्यायें हैं।
प. पू. प्रतिनीजी विमलश्रीजी म० सा० आपका जन्म स्थान एवं समय उपलब्ध न हो सका । आप शिवश्रीजी म.सा० की शिष्या थीं। आपका सबसे बड़ा योगदान है प. पू. प्र. श्रीप्रमोद श्रीजी म.सा. जैसे व्यक्तित्व का निर्माण करना। पू. शिवश्रीजी म.सा० तो मातापुत्री (पू० जयवन्तश्रीजी म., प्रमोदश्रीजी म.) को दीक्षा देकर उनकी शिक्षा-दीक्षा का सारा उत्तरदायित्व पू. विमलश्रीजी म. को सौंपकर अजमेर पधार गई थीं। करीब ११ महिनों बाद आपका स्वर्गवास भी हो गया था। अतः बालसाध्वीजी प्रमोदश्रीजी, विचक्षण बुद्धि और विलक्षण प्रतिभा को सफल बनाने का सारा उत्तरदायित्व आप पर ही था । आपने उसको बखूबी निभाया
और एक तेजस्वी व्यक्तित्व का निर्माण कर शासन की अपूर्व सेबा की । आपका यह योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा।
प. पू. प्रवर्तिनीजी प्रमोदश्रीजी म. सा. जहाँ पधारती वहाँ का कण-कण प्रमुदित हो जाता। धरती का कण-कण प्रमोद मधुर बन जाता । शारीरिक सौन्दर्य से बाह्य-व्यक्तित्व एवं ज्ञान की आभा से आपका आन्तरिक व्यक्तित्व देदीप्यमान था । आप फलोदी में सूरजमलजी गुलेछा की सद्धर्मपरायण पत्नी जेठी देवी की कुक्षि से वि. सं. १९५५, कार्तिक शु. ५ को जन्मी थीं । आपका नाम लक्ष्मी था । वास्तव में आप रुवरूप एवं गुण से लक्ष्मी ही थी। ज्ञानपंचमी को जन्मी लक्ष्मी शायद ज्ञान साधना के लिए ही न अवतरित हुई हो । युवावस्था में ही पति की मृत्यु हो जाने में लक्ष्मी की माता का झुकाव धर्म की ओर बढ़ने लगा। प. पू. गुरुवर्या श्रीसिंह श्रीजी म.सा० के सम्पर्क ने उनमें एक नई चेतना, नई-स्फूर्ति और नया जीवन जीने की तीव्र आकांक्षा पैदा कर दी। राग के स्थान पर उनके मन में वैराग्य घोल दिया। इधर लक्ष्मी की सगाई ढाई साल की उम्र में ही, संपन्न ढढ्ढा परिवार के सपूत श्रीलालचन्दजी से कर दी गई थी । जैसे-जैसे बड़ी होती गई, माता के साथ उसका भी गुरुवर्या से सम्पर्क बढ़ता गया । ६ वर्ष की उम्र होते-होते तो पूर्वजन्म के संस्कार
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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
११७ एवं वर्तमान के वातावरण के कारण लक्ष्मी पूर्ण विरक्ता बन गईं । बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार सुन लिया सदा के लिए हृदयंगम हो गया। प्रतिभा इतनी प्रखर कि कैसा भी प्रश्न क्यों न हो, तुरन्त जवाब तैयार, साहस इतना कि बड़ों-बड़ों को बेहिचक जवाब दे देती। माता से अधिक जल्दी थी उन्हें दीक्षा ग्रहण की । दादाजी, नानाजी एवं श्वसुरपक्ष तीनों की ममता का केन्द्र लक्ष्मी के लिए इतना आसान नहीं था घर छोड़ना । किन्तु जहाँ संकल्प है, वहाँ सिद्धि है । एक सुनहरा प्रभात आ ही गया, माता-पुत्री के संयम-ग्रहण का । वि. सं. १९६४ माघ. सु. ५ को दोनों सिंहश्रीजी म. सा. का शिष्यत्व स्वीकार शासन को समर्पित हो गई। माता का नाम जयवन्तश्रीजी रखा। उन्होंने पुत्री के रूप में जो अनमोल रत्न शासन को समर्पित किया, उनका यह त्याग सदा अविस्मरणीय रहेगा। होनहार थी ही योग्य निमित्तों ने उन्हें महान् विदुषी बना दिया।
आप कई विषयों में निष्णात थीं किन्तु आगम-अध्ययन के प्रति आपकी विशेष रुचि एवं प्रयास रहा । यही कारण था कि आपका आगम-ज्ञान अगाध एवं मार्मिक था । आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं सतत-चिन्तन के आधार पर चालू कई मान्यताओं को नया मोड़ दिया। कई बार वे शास्त्रीय चर्चा में अच्छे भले विद्वान मुनिवरों को विषय की अतल गहराई में ले जाकर चकित कर देती थीं। आप ओजस्वी प्रवचनकार थीं, आपकी प्रवचन-शैली इतनी निराली एवं रसपूर्ण थी कि एक-एक शब्द से अमृत रस झरता था । आपका आगमिक उच्चारण स्पष्ट शुद्ध एवं प्रवाहयुक्त था । आगम ज्ञान एवं चिन्तन को स्थायित्व, आपके द्वारा किये गये शासन-प्रभावना के महान् कार्य, मन्दिर, दादावाड़ी, पाठशाला, आयंबिल भवन"""""धर्म प्रचार एवं सुयोग्य शिष्या-मण्डल आपकी स्मृति को सदा ताजी रखेगा । आप केवल विदूषी ही नहीं तपस्विनी भी थीं । ७४ वर्ष की उम्र में आपने मास-क्षमण जैसी महान तपस्या की । सब कुछ होते हुए भी एक बात के लिए तो हम अपना दुर्भाग्य समझेंगे कि आपकी प्रतिभा से भावी-पीढ़ी लाभान्वित हो सके ऐसा कोई कृतित्व समुपलब्ध नहीं हो सका । मात्र वैराग्य-शतक का संक्षिप्त विवेचन या रत्नत्रयः विवेचन आपके द्वारा लिखित उपलब्ध होता है । आपकी १३-१४ शिष्यायें हैं।
आप अन्तिम अवस्था में अस्वस्थता के कारण बाड़मेर में स्थानापन्न हो गई थीं। वहाँ वि. सं. २०३६ की पौष १० को समाधिपूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ । ज्ञानपंचमी को जन्म, पो० १० को स्वर्गवास मानो प्रकृति ने आपके लिए मुहूर्त निकालकर रखा हो।
___ वर्तमान में साध्वी श्रीराजेन्द्रश्रीजी म., श्रीचन्द्रयशाश्रीजी म., श्री चन्द्रोदयश्रीजी म., श्री चंपक श्रीजी म., आदि आपकी प्रखर शिष्याओं में से थी । वर्तमान में साध्वी श्री प्रकाशश्रीजी म. विजयेन्द्रश्रीजी म., स्वयंप्रभाश्रीजी म., कोमलश्रीजी म., रतनमालाश्रीजी म., विद्य त्प्रभाश्रीजी म. आदि आपकी शिष्या समूह रूप साध्वीमण्डल विचरण कर रहा है।
खण्ड ३/१६
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-११८
खरतरगच्छीय गोत्र
घीया
खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित गोत्र; जिनका मल गच्छ खरतर है ।
0 राजेन्द्र कुमार श्रीमाल जयपुर ओस्तवाल आयरिया कटारिया कठोतिया कवाड़ कंकुचोपडा कांकरिया कूकडा
कुंभट
कोटेचा कोठारी खटोड़ खजांची
खींवसरा गणधर चौपड़ा गांधी गिडिया
गोलेच्छा गोडवाडा गुलगुलिया गधैया गांग गेलडा
गडवाणी घोडावत घेवरिया
चौपडा चतुर
चीपड चोरडिया चडालिया चौधरी
चपलोत
छाजेड़ छजलानी जोगिया जडिया
जिन्दानी जीरावला झाबक झांट
झाडचूड़ टोडरवाल टांटिया टांक ट्रॅकलिया डूंगरेचा
डागा
डोशी डाकलिया ढड्ढा
ढेलडिया तातेड़ दुगड कांस्टिया दुधेडिया
दक
दसाणी दासोत दुसाज दफ्तरी
दांतेवाडिया धूपिया धाडीवाल नाहटा नाहर नवलखा
नाबडिया पटवा पारख पुनमिया पुंगलिया
पालरेचा पोकरण पालावत पगारिया
पींचा
फोफलिया बरडिया बूवकिया बांठिया
बाफना बलाई बुच्चा बोहरा बोथरा
बच्छावत बुरड बाबेल बदलिया बेंगानी
बडेरा बागरेचा बालड़
वोकडिया बोरू दिया भूतेडिया
भटनेरा चौवरी भंसाली भीडकच्या भंडारी भडगतिया भांडावत भाचावत
मूंदडा मरोटी मालू मुकीम मेडतवाल
महिमवाल मोघा
महतियाण मंडोवरा मरडिया मीठड़िया मोदी बैताला मेहता
रांका
राखेचा रामपुरिया रातडिया राणावत
लूणिया लूणावत लालाणी लोढ़ा
लूंकड़
ललवानी वरमेचा वडेर
उच्चा
वाघमार शेखावत संचेती सांड
सावनसूखा सीपानी संखलेचा सोलंकी
सेठिया
सोनीगरा सांखला सुराणा सियाल सालेचा
सिंघी सिंघवी सोनावत समदडिया हाकिम
हरकावत हुँडिया
हुँबड़ श्रीश्रीमाल भंसाली चील मेहता
बंब
मुणोत
मुथा
वंठ
शाह
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HRSS
खण्ड ४
धर्म
दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
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४. धर्म, दर्शन और अध्यात्म-चिन्तन कहते हैं-धर्म की उत्पत्ति सरल हृदय में आचरण की संगति से होती है, तो दर्शन की उत्पत्ति मस्तिष्क में तर्क और चिन्तन के मिलन से । धर्म मनुष्य की श्रद्धा और क्रिया का विषय है, दर्शन प्रज्ञा, और मनन का । धर्म और दर्शन-दो भिन्न छोर प्रतीत होते हैं किन्तु पूरब-और पश्चिम की भांति इनको मिलन-रेखा एक ही है । जिस रेखा पर पूरब का अन्तिम छोर है उसी रेखा से पश्चिम का प्रथम चरण प्रारम्भ होता है और इन दोनों को मिलन-रेखा का नाम है- अध्यात्म ।
अध्यात्म में धर्म भी समाहित है और दर्शन भी । सस्कृति और साधना, कला और कर्तव्य-बोध सभी कुछ अध्यात्म के विशाल तट पर मिल जाते हैं । प्रस्तुत खंड में धर्म, दर्शन, अध्यात्म, कला, कर्तव्यबोध, आदि सब कुछ समाहित हैं और यही तो उसकी परिपूर्णता है ।। जिस प्रकार शरीर के सातों अंग मिलकर हाथी को परिपूर्णता देते हैं, उसी प्रकार धर्म, दर्शन, कला, संस्कृति, कर्तव्य, बोध, साहित्य और साधना, यह सब कुछ मिलकर अध्यात्म को परिपूर्ण रूप प्रदान करते
प्रस्तुत खंड में इन्हीं विषयों पर विशेषज्ञ विद्वानो द्वारा प्रस्तुत विचार-चिन्तन हमें धर्म, दर्शन और अध्यात्म का सम्यक स्वरूप बोध करायेगा ।
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अर्ह का विराट् स्व रूप
-संघ प्रमुख श्री चन्द न मुनि (संस्कृत-प्राकृत के उद्भट विद्वान, कवि
एवं अध्यात्मयोगी साधक)
अहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः । ।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ -ऋषिमण्डलस्तोत्र ३ अहं बड़ा चामत्कारिक मन्त्र है । उसे अक्षर-ब्रह्म कहा गया है । जो कभी क्षर नहीं होता, क्षययुक्त नहीं होता, मिटता नहीं, उसे अक्षर कहा जाता है-"न क्षरतीति अक्षरम्" । अहँ परमेष्ठी का वाचक है । परमेष्ठिन् शब्द में अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँचों का समावेश हो जाता है। इन पाँचों को जैन-दर्शन में परमेश्वर रूप में स्वीकार किया गया है । जैन परम्परा में सिद्धचक्र यन्त्र का बहत महत्व है। उसकी विधिवत् पूजा, आराधना होती है। “अहँ" को उसके बीज मन्त्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इसीलिए इसे "सिद्धचक्रस्य सद्बीजम्"-विशेषण से विभूषित किया गया है। ऋषि कहते है “सर्वतः प्रणिदध्महे"-हम सर्वतोभावेन इसका प्रणिधान यानी जप आदि के द्वारा आराधना करते हैं । यहाँ एक गहरी बात है-क्रिया में उत्तम पुरुष के बहुवचन के वर्तमान का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हम निरन्तर सर्वांगीण दृष्टि से इसका ध्यान करते रहे हैं, करते हैं । इसी अर्ह की व्याख्या के लिए एक विशेष गीत की रचना की गई है
ॐ अर्ह-अहं गाएजा। अहं-अहं गा-गाकर इस मन को विमल बनाएजा ॥ ध्रव ।। अहं-अहं रटन लगाते, भव-भव के बन्धन कट जाते । अन्दर के और बाहर के क्लेशों को दूर हटाये जा ॥१॥ ॐ अहं-अहं गाएजा ॥
अहं-अहं में लयलीन होने से मन निर्मल बनता है। मन को निर्मल बनाना ही साधक का उत्कृष्ट लक्ष्य है । जप वास्तव में अन्तःशुद्धि का कार्य करता है। वचन और काया की शुद्धि अन्यान्य खण्ड ४/१
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अहं का विराट् स्वरूप : संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि साधनों के द्वारा भी हो सकती है, किन्तु मन को शुद्ध बनाने के लिए, मन का मैल धोने के लिए जप को ही उत्तम साधन माना गया है । प्राचीन आचार्यों ने बड़ा सुन्दर लिखा है
अभेददर्शनं ज्ञानं, ध्यानं निविषयं मनः ।
स्नानं मनोमलत्यागः, शौचमिन्द्रियनिग्रहः॥ इस श्लोक के चार चरणों में चार व्याख्याएँ दी गई हैं। ज्ञान की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या है"ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु येन तद् ज्ञानम्" जिसके द्वारा वस्तु जानी जाती है, अन्य वस्तुओं के साथ उसका पार्थक्य किया जाता है, उसे ज्ञान कहते हैं। लेकिन यहाँ ज्ञान को सूक्ष्म व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया गया है । आचार्य कहते हैं- "अभेददर्शनम् ज्ञानम्" ज्ञान वास्तव में वह है, जो अभेददर्शन कराता है । जहाँ स्व-पर का भेद मिट जाता है, तू-मैं का विभाजन समाप्त हो जाता है, वही सच्चा ज्ञान है । जब तक दृष्टि में भेद विद्यमान है. तब तक ज्ञान केवल पुस्तकीय ज्ञान है। वह सम्यक्ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार कहा गया-"ध्यानं निविषयं मनः" मन का निविषय हो जाना ध्यान है। केवल आँखें मूंदकर, आसन लगाकर बैठना ध्यान नहीं है, जब तक मन विषयों से उपरत न हो जाए। यदि मन सर्वथा निविषयी है तो चाहे कहीं किसी स्थिति में बैठे हों, ध्यान सधता जाता है ।
आचार्य आगे लिखते हैं "स्नानं मनोमलत्यागः" जिसके द्वारा मन के मल का विसर्जन हो, वह स्नान है । ऊपरी मैल को धोना केवल बाह्य स्नान है। किन्तु अन्तःशुद्धि वास्तविक स्नान है । चौथा चरण है-“शौचमिन्द्रियनिग्रहं" इन्द्रियों का निग्रह ही शौच है। यदि आप शुचि-पवित्र रहना चाहते हैं तो इन्द्रिय-संयम करना होगा। इन्द्रियों के असंयम से ही हम अपवित्र बनते हैं। इसीलिए यह उक्ति प्रसिद्ध है---"ब्रह्मचारी सदा शुचिः" । ब्रह्मचारी निरन्तर पवित्र बना रहता है। वह कभी अपवित्र नहीं होता। अतः मनोमल की शुद्धि के लिए जप उत्कृष्ट साधन है।
जप की एक विशेषता और है-"अन्दर के और बाहर के क्लेशों को दूर हटाता है ।" दो प्रकार के क्लेश हैं-अन्दर के क्लेश काम, क्रोध, मोह आदि हैं तथा बाहर के क्लेश रोग, शोक, व्याधि, प्रतिकूलता आदि हैं । संसारी जीव इन दोनों प्रकार के क्लेशों से निरन्तर उत्पीडित बने रहते हैं । इस अर्ह जप के द्वारा वे सब प्रकार के क्लेशों को दूर हटा सकते हैं । यहाँ एक रहस्य और है। जीभ जप के साधन के रूप में प्रयुक्त होती है। रचना की दृष्टि से उसका कुछ भाग बाहर है और कुछ भाग कण्ठ के भीतर चला गया है । सन्तजन कहते हैं
रामनाम मणिदीप धरु, जीभ देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ।। जिस प्रकार कमरे की देहली में रखा दीपक अन्दर के कमरे को तथा बाहर के आंगन को समान रूप से प्रकाशित करता है, उसी प्रकार इस जीभ को देहली मानकर इससे प्रभु-नाम का जप करें तो दोनों ओर प्रकाश होगा । अन्तर्-बाह्य दोनों प्रकार के संक्लेशों से छुटकारा होगा । यहाँ “मणिदीप" का प्रयोग भी विशिष्ट अर्थ में हुआ है । तेलादि से जलने वाले दीप हवा के झोंके से बुझ जाते हैं, तेल समाप्त होने पर बुझ जाते हैं पर जो स्वतः प्रकाशित रत्न होते हैं, उनके बुझने का कोई खतरा नहीं । समग्र उपद्रवों के बावजूद वे प्रकाश देते रहते हैं । यह प्रभु-नाममय मणिदीप हमें अखण्ड प्रकाश देता है । यह अहं का जप भी एक प्रकार का मणिदीप ही है । अब हम यह चिन्तन करेंगे कि इस अहं शब्द की निष्पत्ति कैसे हुई तथा वस्तुतः यह शक्ति क्या है ?
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
- अहं के आदि में अकार का प्रयोग हुआ है और अन्त में "ह" आया है । "र" इन दोनों के मध्य ऊर्ध्वगामी बना है।
अकार अपने आप में बड़ा प्रभावापन्न अक्षर माना गया है । गीता में योगेश्वर कृष्ण ने तो यहाँ तक कह दिया है
| ‘ স মকাৰীচলি’
-गीता १०/३३ हे अर्जुन ! अक्षरों में मैं अकार हूँ। अहं की व्याख्या करते हुए प्राचीन आचार्य कहते हैं
अकारः प्रथमं तत्वं, सर्वभूताभयप्रदम् । कण्ठदेशं समाश्रित्य, वर्तते सर्वदेहिनाम् ॥ सर्वात्मकं सर्वगतं, सर्वव्यापि सनातनम् । सर्वसत्त्वाश्रितं दिव्यं, वितित-पापनाशनम् ।। सर्वेषामपि वर्णानां, स्वराणां च धुरिस्थितम् ।
ध्यंजनेषु च सर्वेषु, ककारादिषु संस्थितम् ॥ अकार प्रथम तत्त्व है । सब भूतों को अभय प्रदान करने वाला है । यह सभी देहधारियों के कण्ठदेश को आश्रित कर विद्यमान है। व्याकरणकार भी कहते हैं-"अकुहविसर्गा कण्ठयाः" अकार का उच्चारण स्थान कण्ठ है । यह सर्वात्म, सर्वगत, सर्वव्यापि सनातन तत्त्व माना गया है। यह समस्त सत्त्वों पर, सद्गुणों पर आश्रित, दिव्य, सुचिन्तित तथा पापनाशक है । सभी वर्गों में, स्वरों में यह अग्रसर हैप्रथम स्थान पर है । 'क्' आदि सभी व्यंजनों में सर्वप्रथम यही प्राण रूप में वर्तमान रहता है। तन्त्रमन्त्रादि प्रयोगों में, समग्र विद्याओं में इसका विशिष्ट स्थान है।
___ अर्ह का मध्याक्षर "र" अग्नि-बीज है। वैदिक वाङमय में उल्लेख है-"बीजं वन्हि ध्यायेत्” । “रकार" को अग्नि-तत्त्व का प्रतीक माना गया है । मन्त्र-वेत्ता आचार्य कहते हैं
दीप्तपावकसंकाशं, सर्वेषां शिरसि स्थितम् । विधिना मंत्रिणा ध्यातं, त्रिवर्गफलदं स्मृतम् ॥ यस्य देवाभिधानस्य, मध्ये ह्येतद् व्यवस्थितम् ।
पुष्यं पवित्रं मांगल्यं, पूज्योऽसौ तत्वदशिभिः ।। "र" कार अग्नि के समान दीप्त तथा सब अक्षरों के सिर पर स्थित है। जो विधिवत् इसका ध्यान करता है, त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम रूप फल प्राप्त कर लेता है । जिस देवता के नाम में, यह मध्य में स्थित हो जाता है, तत्त्वशियों का कथन है, यह पूजनीय “रकार" तदनुरूप पुण्य, पवित्र, मांगलिक सिद्ध होता है । इसीलिए राम, हरि, हर, वीर, पार्श्व आदि शक्तिसम्पन्न नामों में "र" का अस्तित्व विद्यमान है। अन्त में प्रयुक्त "ह" वर्ण आकाश तत्त्व का सूचक है । आचार्य कहते हैं--
सर्वेषामपि भूतानां नित्यं यो हदि संस्थितः ।
पर्यन्ते सर्ववर्णानां. सकलो निष्कलस्तया ॥ . हकारो हि महाप्राणः, लोकशास्त्रेषु पूजितः ।
विधिना मंत्रिणा ध्यातः, सर्वकार्यप्रसाधकः ॥
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अहं का विराट् स्वरूप : संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि वैयाकरणों की दृष्टि में हकार को महाप्राण के रूप में स्वीकार किया गया है । यह सभी भूतों के हृदय में स्थित है तथा सभी वर्गों में सकल होता हुआ निष्कल रूप में व्यवस्थित है। यदि कोई साधक इसका विधिपूर्वक ध्यान करता है तो यह सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला है।
"अह" में वर्गों का अद्भुत संयोजन हुआ है। आदि में अकार और अन्त में हकार का समायोजन अपने आप में अनूठा है । आपने ध्यान दिया होगा, ट्रेन में सबसे आगे इंजन लगा होता है । चालक वहीं से सारी गति नियन्त्रित करता है। किन्तु अन्त में जो गार्ड का डिब्बा लगा होता है, उसका भी गतिनियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दोनों का दायित्व लगभग समान होता है । यहाँ अन्त में हकार की स्थिति गार्ड-परिरक्षक जैसी है । ह के ऊपर लगा चन्द्र बिन्दु ( ) भी अनुपम शक्तिस्रोत है । मन्त्राक्षरों में प्रायः चन्द्र-बिन्दु की योजना की जाती है, जो अलौकिक नाद उत्पन्न करता हुआ बीजाक्षरों को शक्ति प्रदान करता है । इसलिए कहा गया है
त्रीण्यक्षराणि बिन्दुश्च, यस्य देवस्य नाम वै।
स सर्वज्ञः समाख्यातः, अहं तदितिपंडितः॥ अहं की एक दूसरी व्याख्या और की गई है, जिसके अनुसार इसमें अकार से विष्णु, रकार से ब्रह्मा तथा हकार से हर का समावेश है। लिखा है
अकारेणोच्यते विष्णुः, रेफे ब्रह्माव्यवस्थितः ।
हकारेण हरः प्रोक्तः, तदन्ते परमं पदम् ।। यह अर्ह शब्द की नियुक्ति है । वास्तव में यह बहुत प्रभावशाली बीजाक्षर है । कालिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित “सिद्धहेम शब्दानुशासन" व्याकरण का तो पहला सूत्र ही अर्ह है।
एक अन्य दृष्टिकोण ने भी अर्ह शब्द का संयोजन विशेष महत्वपूर्ण है।
संस्कृत में अहं धातु पूजा के अर्थ में है । कहने का आशय ! है-पूजनीय-पूजायोग्य अहं का उपासक नरेन्द्रों, देवेन्द्रों द्वारा पूजनीय बन जाता है । एक दूसरा अर्थ है-अर्ह-योग्य होना-ज्ञान-दर्शन में योग्य बन जाना, सक्षम हो जाना । जैसे ज्ञानार्ह, दर्शनार्ह इत्यादि । अरिहन्त देव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र तथा अनन्तबल-इन चार अनन्तताओं के योग्य बन गये हैं। सारी सीमाएँ लाँघकर वे असीम/अपार बन गये हैं । साधक का ध्यान जब सर्वथा अन्तरमुखी बन जाता है तो वह सिद्धिगमन की अर्हता प्राप्त कर लेता है, तद्योग्य बन जाता है। ध्यान की गहराई में उतरे बिना विशिष्ट योग्यता प्राप्त नहीं हो सकती । अहं शब्द अपनी योग्यता उभारने का सूचक है।
OC
पीत्वाज्ञानामृतं भुक्त्वा क्रिया-सुरलता फलम् ।
साम्यताम्बूलमास्वाद्य तृप्ति याति परां मुनिम् ॥ ज्ञानरूपी अमृत का पानकर और क्रियारूपी कल्पवृक्ष के फल खाकर समतारूपी ताम्बूल चखकर साधु परम तृप्ति का अनुभव करता है ।
-ज्ञानसार १/७३
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अप्पा सो प र म पा
( आत्मा ही परमात्मा है)
- डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
(प्रसिद्ध विद्वान एवं ओजस्वी वक्ता ) ( टोडरमल स्मारक भवन ए-४, बापू नगर, जयपुर ३०२०१५ )
जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कहता है कि सभी आत्मा स्वयं परमात्मा हैं । स्वभाव से तो सभी परमात्मा हैं ही, यदि अपने को जाने, पहचाने और अपने में ही जम जायँ, रम जायँ तो प्रगटरूप से पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं ।
जब यह कहा जाता है तो लोगों के हृदय में एक प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। जब 'सभी परमात्मा हैं, तो परमात्मा बन सकते हैं - इसका क्या अर्थ है ? और यदि 'परमात्मा बन सकते हैं - यह बात सही है तो फिर 'परमात्मा हैं' - इसका कोई अर्थ नहीं रह सकता है, क्योंकि बन सकना और होनादोनों एक साथ संभव नहीं हैं ।
भाई, इसमें असंभव तो कुछ भी नहीं है, पर ऊपर से देखने पर भगवान होने और हो सकने में कुछ विरोधाभास अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर सब बात एकदम स्पष्ट हो जाती है ।
एक सेठ था और था उसका पाँच वर्ष का इकलौता बेटा । बस दो ही प्राणी थे । जब सेठ का अन्तिम समय आ गया तो उसे चिन्ता हुई कि यह छोटा-सा बालक इतनी विशाल सम्पत्ति को कैसे संभालेगा ? अतः उसने लगभग सभी सम्पत्ति बेचकर एक करोड़ रुपये इकट्ठे किये और अपने बालक के नाम पर बैंक में बीस वर्ष के लिए सावधि जमायोजना (फिक्स्ड डिपाजिट ) के अन्तर्गत जमा करा दिये । सेठ ने इस रहस्य को गुप्त ही रखा, यहाँ तक कि अपने पुत्र को भी नहीं बताया, मात्र एक अत्यन्त घनिष्ठ मित्र को इस अनुरोध के साथ बताया कि वह उसके पुत्र को यह बात तब तक न बताये, जब तक कि वह पच्चीस वर्ष का न हो जावे ।
( ५ )
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अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल __ पिता के अचानक स्वर्गवास के बाद वह बालक अनाथ हो गया और कुछ दिनों तक तो बचीखुची सम्पत्ति से आजीविका चलाता रहा, अन्त में रिक्शा चलाकर पेट भरने लगा। चौराहे पर खड़े होकर जोर-जोर से आवाज लगाता कि दो रुपये में रेलवे स्टेशन, दो रुपये में रेलवे स्टेशन,..."।
अब मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि वह रिक्शा चलाने वाला बालक करोड़पति है या नहीं ?
क्या कहा ? नहीं। क्यों ?
क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाते और रिक्शा चलाने वाले बालक करोड़पति नहीं हुआ करते।
अरे भाई, जब वह व्यक्ति ही करोड़पति नहीं होगा, जिसके करोड़ रुपये बैंक में जमा हैं तो फिर और कौन करोड़पति होगा ? पर भाई, बात यह है कि उसके करोड़पति होने पर भी हमारा मन उसे करोड़पति मानने को तैयार नहीं होता; क्योंकि रिक्शावाला करोड़पति हो-यह बात हमारे चित्त को सहज स्वीकार नहीं होती । आज तक हमने जिन्हें करोड़पति माना है, उनमें से किसी को रिक्का चलाते नहीं देखा और करोड़पति रिक्शा चलाये-यह हमें अच्छा भी नहीं लगता; क्योंकि हमारा मन ही कुछ इस प्रकार का बन गया है ।
_ 'कौन करोड़पति है और कौन नहीं है ?'-यह जानने के लिए आज तक कोई किसी की तिजोरी के नोट गिनने तो गया नहीं। यदि जायेगा भी तो बतायेगा कौन ? बस, बाहरी ताम-झाम देखकर ही हम किसी को करोड़पति मान लेते हैं। दस-पाँच नौकर-चाकर, मुनीम-गुमाश्ते और बंगला, मोटरकार, कलकारखाने देखकर ही हम किसी को करोड़पति मान लेते हैं, पर यह कोई नहीं जानता कि जिसे हम करोड़पति समझ रहे हैं, हो सकता है वह करोड़ों का कर्जदार हो । बैंक से करोड़ों रुपये उधार लेकर कल-कारखाने चल निकलते हैं और बाहरी ठाठ-बाट देखकर अन्य लोग भी सेठजी के पास पैसे जमा कराने लगते हैं। इस प्रकार गरीबों, विधवाओं, ब्रह्मचारियों द्वारा उनके पास जमा कराये गये करोड़ों रुपयों से निर्मित बाह्य ठाठ-बाट से हम उसे करोड़पति मान लेते हैं।
इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिसे हम करोड़पति साहूकार मान रहे हैं; वह लोगों के करोड़ों रुपये पचाकर दिवाला निकालने की योजना बना रहा हो।
ठीक यही बात सभी आत्माओं को परमात्मा मानने के सन्दर्भ में भी है । हमारा मन इन चलतेफिरते, खाते-पीते, रोते-गाते चेतन आत्माओं को परमात्मा मानने को तैयार नहीं हाता । हमारा मन कहता है कि यदि हम भगवान होते तो फिर दर-दर की ठोकर क्यों खाते फिरते ? अज्ञानांधकार में डूबा हमारा अन्तर् बोलता है कि हम भगवान नहीं हैं, हम तो दीन-हीन प्राणी हैं, क्योंकि भगवान दीन-हीन नहीं होते और दीन-हीन भगवान नहीं होते।
अब तक हमने भगवान के नाम पर मन्दिरों में विराजमान उन प्रतिमाओं के ही भगवान के रूप में दर्शन किये हैं, जिनके सामने हजारों लोग मस्तक टेकते हैं, भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं । यही कारण है कि हमारा मन डाँटे-फटकारे जाने वाले जनसामान्य को भगवान मानने को तैयार नहीं होता।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
हम सोचते हैं कि ये भी कोई भगवान हो सकते हैं क्या? भगवान तो वे हैं, जिनकी पूजा की जाती है, भक्ति की जाती है । सच बात तो यह है कि हमारा मन ही कुछ ऐसा बन गया है कि उसे यह स्वीकार नहीं कि कोई दीन-हीन जन भगवान बन जाये। अपने आराध्य को दीन-हीन दशा में देखना भी हमें अच्छा नहीं लगता।
भाई, भगवान भी दो तरह के होते हैं-एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्मा की उपासना करते हैं, पूजन-भक्ति करते हैं, जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं, भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं ।
• दूसरे देहदेवल में विराजमान निज-भगवान आत्मा भी परमात्मा हैं, भगवान हैं, इन्हें कारणपरमात्मा कहा जाता है।
जो भगवान मूर्तियों के रूप में मन्दिरों में विराजमान हैं, वे हमारे पूज्य हैं, परमपूज्य हैं, अतः हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, गुणानुवाद करते हैं; किन्तु देहदेवल में विराजमान निज-भगवान आत्मा श्रद्धेय है ध्येय है, परमज्ञेय है, अतः निज भगवान को जानना, पहचानना और उसका ध्यान करना ही उसकी आराधना है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति इस निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है, क्योंकि निश्चय से निज-भगवान आत्मा को निज जानना ही सम्यग्ज्ञान है, उसे ही निज मानना, 'यही मैं हूँ'-ऐसी प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है और उसका ही ध्यान करना, उसी में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना सम्यकचारित्र है।
अष्टद्रव्य से पूजन मन्दिर में विराजमान ‘परभगवान' की की जाती है और ध्यान शरीररूपी मन्दिर में विराजमान 'निजभगवान' आत्मा का किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति निज आत्मा को भगवान मानकर मन्दिर में विराजमान भगवान के समान स्वयं की भी अष्ट द्रव्य से पूजन करने लगे तो उसे व्यवहार-विहीन ही माना जायेगा, वह व्यवहारकुशल नहीं, अपितु व्यवहारमूढ़ ही है ।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति आत्मोपलब्धि के लिए ध्यान भी मन्दिर में विराजमान भगवान का ही करता रहे तो उसे भी विकल्पों की ही उत्पत्ति होती रहेगी, निर्विकल्प आत्मानुभूति कभी नहीं होगी, क्योंकि निर्विकल्प आत्मानुभूति निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही होती है । निर्विकल्प आत्मानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार उसे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की एकतारूप मोक्ष मार्ग का आरम्भ ही नहीं होगा।
जिस प्रकार वह रिक्शा वाला बालक रिक्शा चलाते हुए भी करोड़पति है, उसी प्रकार दीनहीन हालत में होने पर भी हम सभी स्वभाव से ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान हैं, कारण-परमात्मा हैंयह जानना-मानना उचित ही है।
इस सन्दर्भ में मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि भारत में अभी किसका राज है ?
क्या कहा, कांग्रेस का? __ नहीं भाई ! यह ठीक नहीं है, कांग्रेस तो एक पार्टी है, भारत में राज तो जनता-जर्नादन का है, क्योंकि जनता जिसे चुनती है, वही भारत का शासन चलाता है। अतः राज जनता-जर्नादन का ही है।
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अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
उक्त सन्दर्भ में जब हम जनता को जर्नादन (भगवान) कहते हैं तो कोई नहीं कहता कि जनता तो जनता है, वह जर्नादन अर्थात् भगवान कैसे हो सकती है ? पर जब तात्त्विक चर्चा में यह कहा जाता है कि हम सभी भगवान हैं तो हमारे चित्त में अनेक प्रकार की शंकाएँ - आशंकाएँ खड़ी हो जाती हैं, पर भाई, गहराई से विचार करें तो स्वभाव से तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा ही है- इसमें शंका- आशंका को कोई स्थान नहीं है ।
८
प्रश्न- यदि यह बात है तो फिर ये ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा वर्तमान में अनन्त दुःखी क्यों दिखाई दे रहे हैं ?
उत्तर - अरे भाई, ये सब भूले हुए भगवान हैं, स्वयं को स्वयं की सामर्थ्य को भूल गये हैं, इसी कारण सुखस्वभावी होकर भी अनन्तदुःखी हो रहे हैं । इनके दुःख का मूल कारण स्वयं को नहीं जानना, नहीं पहचानना ही है । जब ये स्वयं को जानेंगे, पहचानेंगे एवं स्वयं में ही जम जायेंगे, रम जायेंगे, तब स्वयं ही अनन्तसुखी भी हो जायेंगे ।
जिस प्रकार वह रिक्शा चलाने वाला बालक करोड़पति होने पर भी यह नहीं जानता है कि 'मैं स्वयं करोड़पति हूँ' ' - इस कारण दरिद्रता का दुःख भोग रहा है । यदि उसे यह पता चल जाये कि मैं तो करोड़पति हूँ, मेरे करोड़ रुपये बैंक में जमा हैं तो उसका जीवन ही परिवर्तित हो जावेगा । उसी प्रकार जब तक यह आत्मा स्वयं के परमात्मस्वरूप को नहीं जानता - पहचानता है, तभी तक अनन्त - दुःखी है, जब यह आत्मा अपने परमात्मस्वरूप को भलीभाँति जान लेगा, पहचान लेगा तो इसके दुःख दूर होने में भी देर न लगेगी ।
कंगाल के पास करोड़ों का हीरा हो, पर वह उसे काँच का टुकड़ा समझता हो या चमकदार पत्थर मानता हो तो उसकी दरिद्रता जाने वाली नहीं है, पर यदि वह उसकी सही कीमत जान ले तो दरिद्रता एक क्षण भी उसके पास टिक नहीं सकती, उसे विदा होना ही होगा । इसी प्रकार यह आत्मा स्वयं भगवान होने पर भी यह नहीं जानता कि मैं स्वयं भगवान हूँ । यही कारण है कि यह अनन्त काल से अनन्त दुःख उठा रहा है। जिस दिन यह आत्मा यह जान लेगा कि मैं स्वयं भगवान ही हूँ, उस दिन उसके दुःख दूर होते देर न लगेगी ।
इससे यह बात सहज सिद्ध होती है कि होने से भी अधिक महत्व जानकारी होने का है, ज्ञान होने का है । होने से क्या होता है ? होने को तो यह आत्मा अनादि से ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा ही है, पर इस बात की जानकारी न होने से, ज्ञान न होने से ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान होने का कोई लाभ इसे प्राप्त नहीं हो रहा है । होने को तो वह रिक्शा चलाने वाला बालक भी गर्भश्रीमन्त है, जन्म से ही करोड़पति है, पर पता न होने से दो रोटियों की खातिर उसे रिक्शा चलाना पड़ रहा है । यही कारण है कि जिनागम में ज्ञान के गीत दिल खोलकर गाये हैं । कहा गया है कि
"ज्ञान समान न आन जगत में सुख कौ कारण ।
इह परमामृत जन्म- जरा मृतु रोग निवारण || 2
इस जगत में ज्ञान के समान अन्य कोई भी पदार्थ सुख देने वाला नहीं है । यह ज्ञान जन्म, जरा और मृत्यु रूपी रोग को दूर करने के लिये परम-अमृत है, सर्वोत्कृष्ट औषधि है ।"
१. पंडित दौलतराम ; छहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ४ ।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन और भी देखिये
"जे पूरब शिव गये जाहि अरु आगे जैहैं।
सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहै हैं । आज तक जितने भी जीव अनन्त सुखी हुए हैं अर्थात् मोक्ष गये हैं या जा रहे हैं अथवा भविष्य में जावेंगे, वह सब ज्ञान का ही प्रताप है-ऐसा मुनियों के नाथ जिनेन्द्र भगवान कहते हैं।
सम्यग्ज्ञान की तो अनन्त महिमा है ही, पर सम्यग्दर्शन की महिमा जिनागम में उससे भी अधिक बताई गई है, गाई गई है।
क्यों और कैसे ?
मान लो रिक्शा चलाने वाला वह करोड़पति बालक अब २५ वर्ष का युवक हो गया है। उसके नाम से जमा करोड़ रुपयों की अवधि समाप्त हो गई है, फिर भी कोई व्यक्ति बैंक से रुपये लेने नहीं आया। अतः बैंक ने समाचार-पत्रों में सूचना प्रकाशित कराई कि अमुक व्यक्ति के इतने रुपये बैंक में जमा हैं, वह एक माह के भीतर नहीं आया तो लावारिस समझकर रुपये सरकारी खजाने में जमा करा दिये जावेंगे।
उस समाचार को उस नवयुवक ने भी पढ़ा और उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा, पर उसकी वह प्रसन्नता क्षणिक साबित हुई, क्योंकि अगले ही क्षण उसके हृदय में संशय के बीज अंकुरित हो गये। वह सोचने लगा कि मेरे नाम इतने रुपये बैंक में कैसे हो सकते हैं ? मैंने तो कभी जमा कराये ही नहीं। मेरा तो किसी बैंक में कोई खाता भी नहीं है। फिर भी उसने वह समाचार दुबारा बारीकी से पढ़ा तो पाया कि वह नाम तो उसी का है, पिता के नाम के स्थान पर भी उसी के पिता का नाम अंकित है, कुछ आशा जागृत हुई, किन्तु अगले क्षण ही उसे विचार आया कि हो सकता है, इसी नाम का कोई दूसरा व्यक्ति हो और सहज संयोग से ही उसके पिता का नाम भी यही हो। इस प्रकार वह फिर शंकाशील हो उठा।
इस प्रकार जानकर भी उसे प्रतीति नहीं हुई, इस बात का विश्वास जागृत नहीं हुआ कि ये रुपये मेरे ही हैं। अतः जान लेने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। इससे सिद्ध होता है कि प्रतीति बिना, विश्वास बिना जान लेने मात्र से भी कोई लाभ नहीं होता। अतः ज्ञान से भी अधिक महत्व श्रद्धान का है, विश्वास का है, प्रतीति का है।
इसी प्रकार शास्त्रों में पढ़कर हम सब यह जान तो लेते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है (अप्पा सो परमप्पा), पर अन्तर् में यह विश्वास जागृत नहीं होता कि मैं स्वयं ही परमात्मस्वरूप हैं, परमात्मा हूँ, भगवान हूँ। यही कारण है कि यह बात जान लेने पर भी कि मैं स्वयं परमात्मा हूँ, सम्यकश्रद्धान बिना दुःख का अन्त नहीं होता, चतुर्गतिभ्रमण समाप्त नहीं होता, सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती।
समाचार-पत्र में उक्त समाचार पढ़कर वह युवक अपने साथियों को भी बताता है। उन्हें समाचार दिखाकर कहता है कि 'देखो, मैं करोड़पति हूँ । अब तुम मुझे गरीब रिक्शेवाला नहीं समझना।'
१. पंडित दौलतशम : छहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ८ । खण्ड ४/२
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अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
इस प्रकार कहकर वह अपना और अपने साथियों का मनोरंजन करता है, एक प्रकार से स्वयं अपनी हँसी उड़ाता है। इसी प्रकार शास्त्रों में से पढ़-पढ़कर हम स्वयं अपने साथियों को भी सुनाते हैं। कहते हैं'देखो, हम सभी स्वयं भगवान हैं, दीन-हीन मनुष्य नहीं।' इस प्रकार की आध्यात्मिक चर्चाओं द्वारा हम स्वयं का और समाज का मनोरंजन तो करते हैं, पर सम्यश्रद्धान के अभाव में भगवान होने का सही लाभ प्राप्त नहीं होता, आत्मानुभूति नहीं होती, सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती, आकुलता समाप्त नहीं होती।
___ इस प्रकार अज्ञानीजनों की आध्यात्मिक चर्चा भी आत्मानुभूति के बिना, सम्यग्ज्ञान के बिना, सम्यक्श्रद्धान के बिना बौद्धिक व्यायाम बनकर रह जाती है।
समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो जाने के उपरान्त भी जब कोई व्यक्ति पैसे लेने बैंक में नहीं आया तो बैंकवालों ने रेडियो स्टेशन से घोषणा कराई। रेडियो स्टेशन को भारत में आकाशवाणी कहते है। अतः आकाशवाणी हुई कि अमुक व्यक्ति के इतने रुपये बैंक में जमा हैं, वह एक माह के भीतर ले जावे, अन्यथा लावारिस समझकर सरकारी खजाने में जमा करा दिये जावेंगे।
आकाशवाणी की उस घोषणा को रिक्शे पर बैठे-बैठे उसने भी सुना, अपने साथियों को भी सुनाई, पर विश्वास के अभाव में कोई लाभ नहीं हुआ। इसी प्रकार अनेक प्रवक्ताओं से इस बात को सुनकर भी कि हम सभी स्वयं भगवान हैं, विश्वास के अभाव में बात वहीं की वहीं रही । जीवन भर जिनवाणी सुनकर भी, पढ़कर भी, आध्यात्मिक चर्चायें करके भी आत्मानुभूति से अछूते रह गये।
समाचार-पत्रों में प्रकाशित एवं आकाशवाणी से प्रसारित उक्त समाचार की ओर जब स्वर्गीय सेठजी के उन अभिन्न मित्र का ध्यान गया, जिन्हें उन्होंने मरते समय उक्त रहस्य की जानकारी दी थी, तो वे तत्काल उस युवक के पास पहुँचे और बोले
"बेटा ! तुम रिक्शा क्यों चलाते हो ?" उसने उत्तर दिया-"यदि रिक्शा न चलायें तो खायेंगे क्या ?"
उन्होंने समझाते हुए कहा-"भाई, [तुम तो करोड़पति हो, तुम्हारे तो करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।"
अत्यन्त गमगीन होते हुए युवक कहने लगा
"चाचाजी, आपसे ऐसी आशा नहीं थी, सारी दुनिया तो हमारा मजाक उड़ा ही रही है, पर आप तो बुजुर्ग हैं, मेरे पिता के बराबर हैं, आप भी...।"
वह अपनी बात समाप्त ही न कर पाया था कि उसके माथे पर हाथ फेरते हुए अत्यन्त स्नेह से वे कहने लगे--
"नहीं भाई, मैं तेरी मजाक नहीं उड़ा रहा हूँ। तू सचमुच ही करोड़पति है। जो नाम समाचार-पत्रों में छप रहा है, वह तेरा ही नाम है।"
__अत्यन्त विनयपूर्वक वह बोला-“ऐसी बात कहकर आप मेरे चित्त को व्यर्थ ही अशान्त न करें। मैं मेहनत-मजदूरी करके दो रोटियाँ पैदा करता हूँ और आराम से जिन्दगी बसर कर रहा है। मेरी महत्वाकांक्षा को जगाकर आप मेरे चित्त को क्यों उद्वेलित कर रहे हैं। मैंने तो कभी कोई रुपये बैंक में जमा कराये ही नहीं। अतः मेरे रुपये बैंक में जमा कैसे हो सकते हैं ?"
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
अत्यन्त गद्गद् होते हुए वे कहने लगे ... "भाई तम्हें पैसे जमा कराने की क्या आवश्यकता थी? तुम्हारे पिताजी स्वयं बीस वर्ष पहले तुम्हारे नाम एक करोड़ रुपये बैंक में जमा करा गये थे, जो अब ब्याज सहित तीन करोड़ हो गये होंगे। मरते समय यह बात वे मुझे बता गये थे।
यह बात सुनकर वह एकदम उत्तेजित हो गया। थोड़ा-सा विश्वास उत्पन्न होते ही उसमें करोड़पतियों के लक्षण उभरने लगे। वह एकदम गर्म होते हुए बोला-“यदि यह बात सत्य है तो आपने अभी तक हमें क्यों नहीं बताया ?'
वे समझाते हुए कहने लगे-"उत्तेजित क्यों होते हो ? अब तो बता दिया। पीछे की जाने दो, अब आगे की सोचो।"
"पीछे की क्यों जाने दो ? हमारे करोड़ों रुपये बैंक में पड़े रहे और हम दो रोटियों के लिये मुहताज हो गये। हम रिवशा चलाते रहे और आप देखते रहे। यह कोई साधारण बात नहीं है, जो ऐसे ही छोड़ दी जावे, आपको इसका जवाब देना ही होगा।"
"तुम्हारे पिताजी मना कर गये थे।" "आखिर क्यों ?"
"इसलिए कि बीस वर्ष पहले तुम्हें रुपये तो मिल नहीं सकते थे। पता चलने पर तम रिक्शा भी न चला पाते और भूखों मर जाते।"
"पर उन्होंने ऐसा किया ही क्यों ?"
"इसलिए कि नाबालिगी की अवस्था में कहीं तुम यह सम्पत्ति बर्बाद न कर दो और जीवन भर के लिए कंगाल हो जाओ। समझदार हो जाने पर तुम्हें ब्याज सहित तीन करोड़ रुपये मिल जावें और तुम आराम में रह सको। तुम्हारे पिताजी ने यह सब तुम्हारे हित में ही किया है । अतः उत्तेजना में समय बर्बाद मत करो । आगे की सोचो।"
इस प्रकार सम्पत्ति सम्बन्धी सच्ची जानकारी और उस पर पूरा विश्वास जागृत हो जाने पर उस रिक्शेवाले युवक का मानस एकदम बदल जाता है, दरिद्रता के साथ का एकत्व टूट जाता है एवं 'मैं करोड़पति हूँ' ऐसा गौरव का भाव जागृत हो जाता है, आजीविका की चिन्ता न मालूम कहाँ चली जाती है, चेहरे पर सम्पन्नता का भाव स्पष्ट झलकने लगता है ।
इसी प्रकार शास्त्रों के पठन, प्रवचनों के श्रवण और अनेक युक्तियों के अवलम्बन से ज्ञान में बात स्पष्ट हो जाने पर भी अज्ञानीजनों को इस प्रकार का श्रद्धान उदित नहीं होता कि ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकन्द, शक्तियों का संग्रहालय, अनन्त गुणों का गोदाम भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यही कारण है कि श्रद्धान के अभाव में उक्त ज्ञान का कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।
काललब्धि आने पर किसी आसन्नभव्य जीव को परमभाग्योदय से किसी अत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्मा का सहज समागम प्राप्त होता है और वह ज्ञानी धर्मात्मा उसे अत्यन्त वात्सल्यभाव से समझाता है कि हे आत्मन् ! तू स्वयं भगवान है, तू अपनी शक्तियों को पहचान, पर्याय की पामरता का विचार
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अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य को देख, सम्पूर्ण जगत पर से दृष्टि हटा और स्वयं में ही समा जा, उपयोग को यहाँ-वहाँ न भटका, अन्तर् में जा, तुझे निज-परमात्मा के दर्शन होंगे।
ज्ञानी गुरु की करुणा-विगलित वाणी सुनकर वह निकट भव्य जीव कहता है
"प्रभो ! यह आप क्या कह रहे हैं, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ? मैंने तो जिनागम में बताये भगवान बनने के उपाय का अनुसरण आज तक किया ही नहीं है । न जप किया, न तप किया, न व्रत पाले और न स्वयं को जाना-पहचाना-ऐसी अज्ञानी-असंयत दशा में रहते हुए मैं भगवान कैसे हो सकता है ?"
अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाते हुए ज्ञानी धर्मात्मा कहते हैं
"भाई, ये बनने वाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बने-बनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है । ऐसा जाननामानना और अपने में ही जम जाना, रम जाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है । तू एक बार सच्चे दिल से अन्तर् की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर, अन्तर् की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि पर-पदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव-सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तु अन्तर में समा जायगा, लीन हो जायगा, समाधिस्थ हो जायगा । ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा। एक बार ऐसा स्वीकार करके तो देख !"
"यदि ऐसी बात है तो आज तक किसी ने क्यों नहीं बताया ?" "जाने भी दे, इस बात को, आगे की सोच ।'
"क्यों जाने दें ? इस बात को जाने बिना हम अत्यन्त दुःख उठाते रहे, स्वयं भगवान होकर भी भोगों के भिखारी बने रहे, और किसी ने बताया तक नहीं।"
"अरे भाई, जगत को पता हो तो बताये, और ज्ञानी तो बताते ही रहते हैं, पर कौन सुनता है उनकी, काललब्धि आये बिना किसी का ध्यान ही नहीं जाता इस ओर । सुन भी लेते हैं तो इस कान से सुनकर उस कान से बाहर निकाल देते हैं, ध्यान नहीं देते । समय से पूर्व बताने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होता । अतः अब जाने भी दो पुरानी बातों को, आगे की सोचो। स्वयं के परमात्मस्वरूप को पहचानो, स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानो और स्वयं में समा जावो। सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
कहते-कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है । जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णतः उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिन्ह चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है।
आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरम्भ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है
"चक्रवर्ती की सम्पदा अरु इन्द्र सारिखे भोग । कागबीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग ॥"
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
पिता के मित्र रिक्शेवाले नवयुवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कह रहे बात रिक्शे पर बैठे-बैठे हो ही रही थी । इतने में एक सवारी ने आवाज दी“ऐ रिक्शेवाले ! स्टेशन चलेगा ?"
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उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया- "नहीं ।"
"क्यों ? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये लेना, पर चलो, जल्दी चलो ।"
। उनकी यह
"नहीं, नहीं जाना, एक बार कह दिया न !'
"कह दिया पर...'
उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायगा ? यदि ले जायेगा तो कितने में ? दस रुपये में, बीस रुपये में" ........?
क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा । "क्यों ?"
"क्योंकि अब वह करोड़पति हो गया है ।"
"अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं ?"
"कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा, क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते !" इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति को आत्मानुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन- ज्ञान प्रकट हो जाता है, तब उसके आचरण में भी अन्तर आ ही जाता है । यह बात अलग है कि वह तत्काल पूर्ण संयमी या देशसंयमी नहीं हो जाता, फिर भी उसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य एवं मिथ्यात्वपोषक क्रियाएँ नहीं रहती हैं । उसका जीवन शुद्ध सात्विक हो जाता है, उससे हीन काम नहीं होते ।
वह युवक सवारी लेकर स्टेशन तो नहीं जावेगा, पर उस सेठ के घर रिक्शा वापिस देने और किराया देने तो जावेगा ही, जिसका रिक्शा वह किराये पर लाया था । प्रतिदिन शाम को रिक्शा और किराये के दस रुपये दे आने पर ही उसे अगले दिन रिक्शा किराये पर मिलता था । यदि कभी रिक्शा और किराया देने न जा पावे तो सेठ घर पर आ धमकता था, मुहल्लेवालों के सामने उसकी इज्जत उतार देता था ।
आज वह सेठ के घर रिक्शा देने भी न जावेगा । उसे वहीं ऐसा ही छोड़कर चल देगा । तब फिर क्या वह सेठ उसके घर जायेगा ?
हाँ जायगा, अवश्य जायगा, पर रिक्शा लेने नहीं, रुपये लेने नहीं, अपनी लड़की का रिश्ता लेकर जायेगा, क्योंकि यह पता चल जाने पर कि इसके करोड़ों रुपये बैंक जमा हैं, कौन अपनी कन्या देकर कृतार्थ न होना चाहेगा ।
इसी प्रकार किसी व्यक्ति को आत्मानुभव होता है तो उसके अन्तर् की हीन भावना समाप्त हो ही जाती है, पर सातिशय पुण्य का बन्ध होने से लोक में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, लोक भी उसके सद्व्यवहार से प्रभावित होता है। ऐसा सहज ही निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है ।
ज्ञात हो जाने पर भी जिस प्रकार कोई असभ्य व्यक्ति उस रिक्शेवाले से रिक्शेवालों जैसा व्यवहार भी कदाचित् कर सकता है, उसी प्रकार कुछ अज्ञानीजन उन ज्ञानी धर्मात्माओं से भी कदाचित् असद्व्यवहार कर सकते हैं, करते भी देखे जाते हैं, पर यह बहुत कम होता है ।
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अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
यद्यपि अभी वह वही मैला-कुचैला फटा कुर्ता पहने है, मकान भी टूटा-फूटा ही है, क्योंकि ये सब तो तब बदलेंगे, जब रुपये हाथ में आ जावेंगे। कपड़े और मकान श्रद्धा-ज्ञान से नहीं बदल जाते, उनके लिए तो पैसे चाहिए, पैसे, तथापि उसके चित्त में आप कहीं भी दरिद्रता की हीन भावना का नामोनिशान भी नहीं पायेंगे।
__ उसी प्रकार जीवन तो सम्यक्चारित्र होने पर ही बदलेगा, अभी तो असंयमरूप व्यवहार ही ज्ञानी-धर्मात्मा के देखा जाता है, घर उनके चित्त में रंचमात्र भी हीन भावना नहीं रहती, ये स्वयं को भगवान ही अनुभव करते हैं।
जिस प्रकार उस युवक के श्रद्धा और ज्ञान में तो यह बात एक क्षण में आ गई कि मैं करोड़पति हैं, पर करोड़पतियों जैसे रहन-सहन में अभी वर्षों लग सकते हैं। पैसा हाथ में आ जाय, तब मकान बनना आरम्भ हो, उसमें भी समय तो लगेगा ही। उस युवक को अपना जीवन-स्तर उठाने की जल्दी तो है पर अधीरता नहीं, क्योंकि जब पता चल गया है तो रुपये भी अब मिलेंगे ही, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, वरसों लगने वाले नहीं हैं ।
उसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है । संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी-धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती, क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में, संयम भी आयेगा ही, अनन्तकाल यों ही जाने वाला नहीं है।
अतः हम सभी का यह परम पावन कर्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जानें, सही रूप में पहचानें, इस बात का गहराई से अनुभव करें कि स्वभाव से तो हम सभी सदा से ही भगवान ही हैं-इसमें शंका-आशंका के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है । रही बात पर्याय की पामरता की, सो जब हम अपने परमात्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान कर उसी में अपनापन स्थापित करेंगे, अपने ज्ञानोपयोग (प्रगटज्ञान) को भी सम्पूर्णतः उसी में लगा देंगे, स्थापित कर देंगे और उसी में लीन हो जावेंगे, जम जावेंगे, रम जावेंगे, समा जावेंगे, समाधिस्थ हो जावेंगे तो पर्याय में भी परमात्मा (अरहंतसिद्ध) बनते देर न लगेगी।
___अरे भाई ! जैनदर्शन के इस अद्भुत परमसत्य को एक बार अन्तर् की गहराई से स्वीकार तो करो कि स्वभाव से हम सभी भगवान ही हैं । पर और पर्याय से अपनापन तोड़कर एक बार द्रव्यस्वभाव में अपनापन स्थापित तो करो. फिर देखना अन्तर में कैसी क्रान्ति होती है, कैसी अद्भुत और अपूर्व शान्ति उपलब्ध होती है, अतीन्द्रिय आनन्द का कैसा झरना झरता है।
इस अद्भुत सत्य का आनन्द मात्र बातों से आने वाला नहीं है, अन्तर में इस परमसत्य के साक्षात्कार से ही अतीन्द्रिय आनन्द का दरिया उमड़ेगा। उमड़ेगा, अवश्य उमड़ेगा, एक बार सच्चे हृदय से सम्पूर्णतः समर्पित होकर निज-भगवान आत्मा की आराधना तो करो, फिर देखना क्या होता है ?
बातों से इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है । अतः यह मंगलभावना भाते हुए विराम लेता हूँ कि सभी आत्माएँ स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानकर, पहचानकर स्वयं में ही जमकर, रमकर अनन्त सुख-शान्ति को शीघ्र ही प्राप्त करें।
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जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त
--पन्यासप्रवर श्री नित्यानन्दविजय जी
[जैन तत्त्व विद्या को अधिकारी विद्वान प्रसिद्ध प्रवचनकार धर्म प्रभावक सन्त
भारतीय दर्शनों में कर्म-दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि पृथ्वी के सभी भागों में, सभी दर्शनकारों ने कर्मवाद माना है, परन्तु भारतीय दर्शनों में परस्पर मतभेद होते हुए भी कर्मवाद के अमोघत्व को सभी ने स्वीकार किया है।
विश्व के कवि-मनीषी कर्म-फल के विषय में एकमत हैं । अंग्रेजी के महान् साहित्यकार शेक्सपीयर ने कर्म-फल के विषय में कहा है : 'My deeds upon my head.' कवि शिहलन मिश्र 'शान्ति शतकम्' में बताते हैं :
आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्तमम्भोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम् ।। जन्मान्तराजितशुभाशुभकृन्नराणां छायेव न त्यजति कर्मफलानुबन्धि ॥२॥
आप आकाश में चले जाएँ, दिशाओं के उस पार पहुँच जाएँ, समुद्र के तल में घुस बैठे या चाहे जहाँ चले जाएँ, परन्तु जन्मान्तर में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनके फल तो छाया के समान साथ ही साथ रहेंगे, वे तुम्हें कदापि नहीं छोड़ेंगे । जैनाचार्य श्रीमद् अमितगति कहते हैं
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ।।
-सामायिक, पाठ ३०
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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त : पन्यासप्रवर श्री नित्यानन्दविजय जी (अपने पूर्वकृत् कर्मों का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है । यदि अन्यकृत कर्मों का फल हमें भोगना पड़ता हो तब हमारे स्वकृत कर्म निरर्थक ही रहें।)
जैनमतानुसार प्राणिमात्र को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। फलोत्पत्ति के लिए कर्मफलनियन्ता ईश्वर का बीच में कोई स्थान नहीं है।
भौतिक संस्कृति में पले हुए लोग कर्मफल में विश्वास नहीं करते । उनकी शंका है कि "पापी मनुष्य सुखी और सज्जन दुःखी क्यों दिखाई देते हैं ?"
जैनदर्शन के अनुसार कर्म का फल तो अवश्य ही मिलता है उसके मिलने में कभी अधिक बिलम्ब भी हो सकता है, परन्तु कर्म का फल न मिले यह तो असम्भव है।
जैनमतानुसार हिंसक मनुष्य की समृद्धि और सज्जन पुरुष की दरिद्रता का कारण क्रमशः पूर्वजन्मकृत पापानुबन्धी पुण्यकर्म और पुण्यानुबन्धी पापकर्म है । हिंसा और सज्जनता का क्रमशः अशुभ और शुभ फल अवश्य मिलता है, चाहे जन्मान्तर में ही क्यों न मिले ।
अनन्त लब्धिनिधान गणधर गौतम स्वामी भगवान महावीर स्वामी से पूछते हैं : "दुक्खे केण कडे ?" (दुःख किसने पैदा किया) भगवान ने बताया : "जीवेण कडे पमाएण" (स्वयं जीव ने ही दुःख उत्पन्न किये हैं)। गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया : 'दुःख पैदा कर आत्मा ने अपना अनिष्ट क्यों किया ?' प्रभु ने उत्तर दिया : 'प्रमादवश ।'
प्रमादवश जीव शरीर को आत्मा मानकर भोगों की ओर प्रवृत्त होता है। शारीरिक सुख के लिए वह हिंसा, शोषण आदि दुष्कर्मों में लिप्त होता है। यह उसकी घोर अज्ञान दशा प्रकट होती है । प्रमाद के कारण जीव राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कालुप्य से कलुषित हो जाता है, अतः जीव को अपनी आत्म-शक्ति का बोध होना आवश्यक है।
सम्यक्त्व, स्वाध्याय, सत्संगति, शुद्ध चरित्र आदि से जीव की विभाव दशा मिट जाती है और वह बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर मुड़ जाता है।
अन्तर्मुखी आत्मा अपने अन्तर्गत विद्यमान अनन्त चतुष्टय-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को अपनी निर्मल साधना से प्रकट करके परमानन्द में निवास करती है ।
जैनदर्शन का कर्मवाद भाग्यवाद को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार जीव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है । इस निर्माण में जीव का पुरुषार्थ महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यदि जीव मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थभाव चतुष्टय से विभूषित होकर सत्कर्म में पुरुषार्थ करे तो उसके अन्तर् के कपाट खुल जायेंगे और वह मानस-मन्दिर में विराजमान करुणासागर वीतराम परमात्मा के दर्शन कर सकेगा।
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स्वास्थ्य पर धर्म का प्रभाव
फ्र
मनुष्य इस विश्व का सर्वश्र ेष्ठ प्राणी है । इसकी श्रेष्ठता का मानदण्ड है - विकसित नाड़ीतन्त्र | मनुष्य को जैसा नाड़ीतन्त्र उपलब्ध है, वैसा किसी अन्य प्राणी को उपलब्ध नहीं है । इस गरिमामय उपलब्धि के लिये उसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है । उसके मस्तिष्क की संरचना बहुत जटिल है । उसका मेरुदण्ड बहुत शक्तिशाली है। उसे अस्थि मज्जा की विशिष्टता प्राप्त है । अस्थि-रचना केवल एक ढांचा नहीं है, केवल एक आधार नहीं है; उसमें अनेक विशेषताएँ छिपी हुई हैं । सुदृत अस्थिरचना वाला व्यक्ति ही मन पर नियन्त्रण कर सकता है, मानसिक एकाग्रता को साध सकता है । अस्थिरचना के साथ स्वास्थ्य का भी गहरा सम्बन्ध है । अपने आप में रहने वाला स्वस्थ ( स्वास्मिन् तिष्ठति इति स्वस्थ ) कहलाता है । स्वस्थ की यह व्युत्पत्ति दूसरे नम्बर की है । उसकी पहले नम्बर की व्युत्पत्ति है - जिसकी अस्थियाँ अच्छी होती हैं वह स्वस्थ (सुष्ठु अस्थि यस्य स स्वस्थः ) होता है । मनुष्य के संस्कार अस्थि और मज्जा में अन्तर्निहित होते हैं । जैसा संस्कार वैसा विचार, व्यवहार और आचार ।
खण्ड ४/३
- युवाचार्य महाप्रज्ञ
[ सुख्यात दार्शनिक, बहुश्रुत विद्वान् तथा प्रेक्षाध्यान-योग के अनुभवी साधक एवं प्रवक्ता ]
स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं है | शरीर, मन और भावना - इन तीनों की समीचीन समन्विति का नाम स्वास्थ्य है । बहुत लोग स्वस्थ रहने के लिये पोषक द्रव्यों पर ध्यान केन्द्रित किये हुए हैं । यह शारीरिक स्वास्थ्य का एक बिन्दु हो सकता है । शरीर अकेला नहीं है, वह एक समन्वय है । अकेला शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता । मन स्वस्थ है तो शरीर भी स्वस्थ है । यदि मन स्वस्थ नहीं है तो शरीर कैसे स्वस्थ रहेगा ? हजारों-हजारों वर्ष पहले आयुर्वेद के आचार्यों ने इस सचाई का अनुभव किया था— रोग शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के होते हैं। वर्तमान आयुर्विज्ञान के अनुसार मनोकायिक रोगों की तालिका बहुत लम्बी है । मनोकायिक रोग मन और शरीर - दोनों की रुग्णता से होने वाला रोग है । कायिक रोगों की चिकित्सा
( १७ )
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स्वास्थ्य पर धर्म का प्रभाव : युवाचार्य महाप्रज्ञ औषधि के द्वारा की जा सकती है। मनोकायिक रोग के लिये औषधि पर्याप्त नहीं है। मनोभावों को बदले बिना उसकी चिकित्सा सम्भव नहीं होती।
स्वास्थ्य का मूलस्रोत है--भावों की विशुद्धि । हमारा पूरा जीवन भावधारा के द्वारा संचालित है। भाव से मन प्रभावित होता है और मन से शरीर प्रभावित होता है । जितने निषेधात्मक भाव हैं, वे सब रोग को निमंत्रित करने वाले हैं। क्रोध निषेधात्मक भाव है। उसका वेग अनेक रोगों को निमंत्रित करता है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग आदि के लिये वह विशेष उत्तरदायी है। लोभ भी निषेधात्मक भाव है। उसके वेग से आहार के प्रति अरुचि, अग्निमांद्य आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । भावों से उत्पन्न होने वाले रोगों का लम्बा विवरण आयुर्वेद के ग्रन्थों में मिलता है। आज वैज्ञानिक भी भाव और रोग के सम्बन्ध की खोज में काफी आगे बढ़े हैं।
स्वास्थ्य के पाँच लक्षण हैं :१. शारीरिक धातुओं और रसायनों का सन्तुलन २. प्राण का सन्तुलन ३. इन्द्रियों की प्रसन्नता ४. मन की प्रसन्नता ५. भावों की प्रसन्नता
सन्तुलित आहार से धातुओं और रसायनों का सन्तुलन बनता है। इस सन्तुलन का सम्बन्ध आहार से है---यह स्पष्ट है। इसका सम्बन्ध धर्म से है-यह बहुत अस्पष्ट है। आहार का संयम करना एक तपस्या है और तपस्या धर्म है। जो व्यक्ति कोलेस्टेरोल बढ़ाने वाली वस्तुएँ अधिक मात्रा में खाता है वह धमनिकाठिन्य और हृदय रोग से मुक्त नहीं रह सकता। जो व्यक्ति अधिक मात्रा में नमक खाता है, वह उच्च रक्तचाप और गुर्दे की बीमारी से कैसे बच सकता है ? अधिक मात्रा में सफेद चीनी खाने वाला क्या अम्लता और मधुमेह को निमन्त्रित नहीं कर रहा है ? हमारे शरीर के लिये आहार जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है आहार का संयम अथवा अस्वाद का व्रत ।
जीवन-यात्रा के लिये मन की चंचलता जरूरी है। वह सीमा से आगे बढ़ जाती है तब उससे स्वास्थ्य प्रभावित होता है। पहले मानसिक स्वास्थ्य फिर शारीरिक स्वास्थ्य । चंचलता को कम करना केवल मानसिक शान्ति की ही साधना नहीं है, वह शारीरिक स्वास्थ्य की साधना है। मन की एकाग्रता धर्म का आन्तरिक तत्त्व है । वह स्वास्थ्य का भी एक महत्वपूर्ण अंग है।
आहार, नींद और ब्रह्मचर्य-ये तीन स्वास्थ्य के आधार माने जाते हैं। आहारसंयम की भाँति नींद का संयम भी आवश्यक है। बहुत नींद लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है। सामान्यतः दिन में सोना अच्छा नहीं है। यदि आवश्यक हो तो बहुत कम समय के लिए। बहुत है, आधा घण्टा । एक घण्टा तो बहुत ज्यादा है। रात में भी अवस्था अनुपात में पाँच, छः या सात घण्टा नींद लेना पर्याप्त है । जागरूकता धर्म का महत्वपूर्ण अंग है।
सुकरात से पूछा गया-संभोग कितनी बार करना चाहिये ? सुकरात-जीवन में एक बार। यह सम्भव नहीं हो तो? वर्ष में एक बार।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
यह भी सम्भव न हो तो? महीने में एक बार। यह भी सम्भव न हो तो? सुकरात ने कहा--कफन सिरहाने रख लो फिर चाहे जैसे करो।
आहार-संयम, निद्रा-संयम, ब्रह्मचर्य और विधायक भाव ये सब धर्म के प्राण तत्व हैं। इनकी आराधना धर्म की आराधना है और स्वास्थ्य की साधना भी।
आज धर्म की आराधना कम होती है, सम्प्रदाय की आराधना अधिक होती है। साम्प्रदायिक आचार-संहिता को धर्म मानने वाले लोग अधिक हैं। धर्म का मूल तत्व भिन्न नहीं हो सकता। उसमें देश-काल का भेद भी नहीं होता। यदि त्याग और तपस्या के प्रयोग जीवन में किये जाएँ तो साम्प्रदायिकता की समस्या भी कम हो सकती है, स्वास्थ्य भी अच्छा रह सकता है।
कुछ रोग आगंतुक होते हैं। चोट लगी हड्डी टूट गईं। कुछ संक्रामक होते हैं। कुछ रोग कर्मज होते हैं। ये सभी स्वास्थ्य को कमजोर बना देते हैं। इस बहुसंक्रामी युग में कोई आदमी अकेला रहता नहीं, अप्रभावित हुए बिना भी नहीं रह सकता। इस स्थिति में स्वास्थ्य के मूल तत्व की खोज आवश्यक होती है। वह है प्राण ।
शरीर की अतिरिक्त चंचलतावाणी की अतिरिक्त चंचलता मन की अतिरिक्त चंचलता श्वास की तेज गति आहार का असंयम भोग का असंयम निषेधात्मक भाव
ये सब प्राण को क्षीण करते हैं। आयुर्विज्ञान की भाषा में रोग-निरोधक क्षमता और आत्मरक्षा प्रणाली को अव्यवस्थित बना देते हैं। फलतः बीमारियों के बीज को पनपने का मौका मिल जाता है ।
धर्म की आराधना का प्रत्यक्ष उद्देश्य है-भावना की विशुद्धि, मन की एकाग्रता और आत्मा की अनुभूति । उसका परोक्ष परिणाम है-प्राण को प्रबल बनाना । प्राण प्रबल होता है, स्वास्थ्य की धारा अपने आप प्रवाहित हो जाती है।
पूर्णता या परोपाधेः सा याचितकमण्डनम् ।
या तु स्वाभाविकी सैव जात्यरत्न विभानिभा । पराई वस्तु (पुद्गलों) से जो पूर्णता मानी जाती है, वह तो उधार माँगकर पहने हुए आभूषण के समान है। जैसे कि रत्न की अपनी अलौकिक कान्ति उसकी अपनी होती है वैसे ही आत्म भावों से प्राप्त पूर्णता आत्मा की वास्तविक पूर्णता है।
-ज्ञानसार १/२ (विवेचक--मुनिश्री भद्रगुप्तविजय जी)
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जैन धर्म में मनोविद्या
गणेश ललवाणी (कलकत्ता)
(धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में जाने-माने क्रान्तिकारी चिन्तक, हिन्दी-संस्कृत-बंगला-अंग्रेजी आदि अनेक भाषाविज्ञ लेखक)
जीव तत्व की आलोचना करते हुए जैन मनीषियों ने मनोविद्या नामक ऐसे तत्व की आलोचना की है, विश्लेषण किया है जिसे कि आज हम 'साइकोलाजी' कहते हैं ।
जीव के गुणों में चेतना एवं उपयोग को प्रधान माना गया है। किन्तु चेतना क्या है ? यह समझना उतना आसान नहीं है क्योंकि यह अनुभूति का विषय है। फिर भी चेतना की अभिव्यक्ति किन-किन रूपों में होती है इस पर प्रकाश डाला गया है । यह अभिव्यक्ति तीन प्रकार से होती है, यथा(१) सुख-दुख की अनुभूति से, (२) कार्य करने की शक्ति से, (३) ज्ञान की अनुभूति से । जैन दर्शन के अनुसार स्थावर जीव भी सुख-दुख अनुभव करता है, पर कार्य करने की शक्ति अनुभव नहीं करता जबकि निम्नस्तरीय त्रस जीव सुख-दुख की अनुभूति के साथ कार्य करने की शक्ति को अनुभव करता है, लेकिन उसे ज्ञान की अनुभूति नहीं होती। ज्ञान की अनुभूति तो होती है मात्र मनुष्य जैसे उच्च स्तरीय जीवों को ही । इन तीन प्रकार की अनुभूतियों को पूर्ण चैतन्य के विकास क्रम के तीन स्तर भी मान सकते हैंप्रथम स्तर है सुख-दुख के अनुभव का, द्वितीय कार्यशक्ति का, तुतीय ज्ञानशक्ति का। इससे यह फलित हुआ कि जिसे साधारणतया अचेतन पदार्थ समझा जाता है उन मृत्तिकादि में भी चेतना शक्ति तो है, किन्तु है अविकसित रूप में । उस चेतना की अभिव्यक्ति होती है मात्र सुख-दुख के अनुभव में । पाश्चात्य क्रमविकासवादी मनोवैज्ञानिकों ने भी आज इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है । वे कहने लगे हैं कि मनुष्येतर जीवों में भी एक प्रकार का निम्न स्तरीय चैतन्य रहता है। वे केवल अचैतन्य वस्तु पिण्ड मात्र ही नहीं है।
____ जीव का दूसरा गुण है उपयोग । उसके भी दर्शन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार बताए गए हैं। वस्तु का सामान्य अनुभव है दर्शन । दर्शन में तो मात्र इतनी ही उपलब्धि होती है 'कुछ है' । उदाहरण
( २० )
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन स्वरूप एक गाय को लीजिए। आपने गाय देखी । दर्शन से आपको इतना ही अनुभव हुआ 'गाय कुछ है' पर वया है इसकी विशेष जानकारी नहीं होती । उसके सींग है, पूछ है, वह घास खाती है, दूध देती है यह सब ज्ञान नहीं होता । ज्ञान तो उपयोग का दूसरा प्रकार है जिसका उदय होता है दर्शन के बाद । और यह किस प्रकार उदय होता है, आगे जाकर इसकी चर्चा करेंगे ।
शास्त्रों में दर्शन के चार प्रकार बताए गए हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन । आँखों से देखकर जब यह अनुभव होता है कि 'कुछ है' तो उसे चक्षुदर्शन कहते हैं और जो अनुभव आँख के अतिरिक्त नाक, कान, जीभ और त्वचा से होता है उसे कहते हैं अचक्षुदर्शन । अवधिदर्शन का अर्थ है एक सीमा के मध्य रूपी द्रव्यों का सामान्य-सा अनुभव और केवलदर्शन का विश्व के समस्त पदार्थों का सामान्य अनुभव ।
उपयोग का दूसरा लक्षण है 'ज्ञान' । ज्ञान के पाँच भेद हैं-मति, श्रु त, अवधि, मनःपर्यव और केवल । इनमें प्रथम दो मति और थ त ज्ञान को जैन दर्शन में परोक्ष एवं शेष तीन को प्रत्यक्ष माना है। अन्य दर्शन मति अर्थात् इन्द्रियलब्ध ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानता है। किन्तु जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। वह कहता है जो ज्ञान आत्मा द्वारा होता है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रिय तथा मन के सहारे से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है । क्योंकि जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता है उसमें भ्रान्ति हो नहीं सकती। कारण वह स्व का ज्ञान है । पर जो ज्ञान अन्य की सहायता से उत्पन्न होता है वह भ्रान्तियुक्त हो सकता है । इस भ्रान्त ज्ञान को ही जैनदर्शन 'मिथ्याज्ञान' कहता है और इसके विपरीत ज्ञान को सम्यक् ज्ञान । मति के मिथ्याज्ञान को कुमति, श्रु त के मिथ्याज्ञान को कुश्र त कहा जाता है।
अवधिज्ञान आत्मिक होने पर भी उस समय मिथ्या हो सकता है जब कि वह अवधि की पूर्ण सीमा तक का पूर्ण ज्ञान न होकर आंशिक रूप में उत्पन्न होता है। इस अपूर्ण अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। भगवान महावीर के समय के कुछ ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख हम शास्त्रों में पाते हैं जिन्हें यह विभंगज्ञान हुआ था और भगवान के समीप जाने पर उनके द्वारा उस भ्रान्त ज्ञान का निरसन किया गया था।
दर्शन के बाद सर्वप्रथम जिस ज्ञान का उद्भव होता है वह है मतिज्ञान । यह ज्ञान मन और इन्द्रियों के सहारे से ही उत्पन्न होता है । मतिज्ञान के भी तीन प्रकार हैं-उपलब्धि, भावना, उपयोग । किन्तु, इनकी व्याख्या निष्प्रयोजन है। इनका स्वरूप तो नाम से ही प्रकट है। यथा-उपलब्धि अर्थात ज्ञान का अनुभव, भावना-उस ज्ञान का चिन्तन, उपयोग-वैसी ही परिस्थिति में पुनः उसका प्रयोग। इसी प्रक्रिया का और अधिक स्पष्टीकरण करने के लिए कुछ जैन दार्शनिकों ने मतिज्ञान को पाँच भागों में विभक्त किया है। जैसे-~-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध ।
दर्शन से 'कुछ है' यह बोध होने के पश्चात ही ज्ञान की जो क्रिया प्रारम्भ होती है उसका नाम है उपलब्धि या मति । पाश्चात्य दर्शन में इसे सेन्स इन्ट्यूइसन (sense intuition) या परसेप्शन (perceptic n) कहते हैं। जो मतिज्ञान केवल इन्द्रियों की सहायता से होता है उसे इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान कहते हैं और जो ज्ञान अनिन्द्रिय अर्थात् अर्थात् मन की अपेक्षा रखता है उसे अनिन्द्रिय मतिज्ञान कहते हैं। पर ये दोनों ज्ञान एक ही विषय के दो रूप हैं। आपने आँख से गाय देखी पर जब तक मन उसको ग्रहण नहीं करता तब तक उसका बोध नहीं होता। राह चलते हम हजारों वस्तुएँ देखते हैं पर मन का
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जन धर्म में मनोविद्या : गणेश ललवाणी संयोग नहीं होने के कारण वे हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनती। ज्ञान का विषय वही बनता है जिसके साथ हमारे मन का संयोग होता है। 'लक' ने इसे (idea of sensation) और (idea of reflection) कहा था। आज के पाश्चात्य दार्शनिकगण इसे वहिरानुशीलन (extrospection) और अन्तरानुशीलन (introspection) कहते हैं ।
इन्द्रियों के भेद से मतिज्ञान के भी पाँच भेद हैं। यथा-आँखजनित मतिज्ञान, कानजनित मतिज्ञान, नाकजनित मतिज्ञान, जिह्वाजनित मतिज्ञान और त्वचाजनित मतिज्ञान ।
मतिज्ञान या उपलब्धि परसेप्शन (perception) हमें जिस प्रकार होती है अर्थात् उसमें जो-जो चित्तवृत्तियाँ काम करती हैं उसका विवरण आज के वैज्ञानिकगण जिस प्रकार दे रहे हैं उसे जैन दार्शनिकों ने हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया था। जैन दर्शन ने उन चित्तवृत्तियों को चार नाम दिये हैं-(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय, (४) धारणा । दर्शन और अवग्रह में कुछ अधिक अन्तर नहीं है। कारण अवग्रह से भी 'कुछ है' इतनी ही प्रतीति होती है, उसके विषय में सुनिश्चित या सविशेष रूप में कोई ज्ञान नहीं होता । जैसा कि हमने गाय के उदाहरण से स्पष्ट किया था। पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे सेन्सेशन (sensation) या प्रिमियम कगनितम (prem um cogniium) कहते हैं । विषय को स्पष्ट करने के लिये इसकी तुलना हम किसी नायक-नायिका के प्रथम दर्शन से कर सकते हैं। प्रथम होता है मात्र दर्शन । फिर यह जानने की इच्छा होती है, 'वह कौन है ?' इस इच्छा का नाम ही है ईहा । पाश्चात्य दर्शन में इसे परसेप्चुअल एटेन्शन (perceptual attention) कहते हैं । वह कौन है यह जानने की व्यग्रता के फलस्वरूप वे जानकारी हासिल करते हैं कि वह अमुक है। बस इसी प्रक्रिया का नाम है 'अवाय' । पाश्चात्य दार्शनिकों की परिभाषा में यह परसेप्चुअल डिटरमिनेशन (perceptual determination) है । अर्थात् वह अमुक का पुत्र है, अमूक की कन्या है आदि आदि । अवाय में मतिज्ञान पूर्णता प्राप्त कर लेता है । पर यह अवाय भी किस काम का यदि वह ज्ञान चित्त में स्थिरता प्राप्त न करे। इतना सब कुछ होने के पश्चात् भी यदि नायकनायिका एक दूसरे को भूल जाएँ तो वह समस्त व्यर्थ है । अतः जिस चित्तवृत्ति के आधार पर यह स्थिरता प्राप्त होती है उसे 'धारणा' कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकगण इसे परसेप्चुअल रिटेन्शन (perceptual retension) कहते हैं।
अवग्रह से धारणा तक मतिज्ञान का प्रथम क्षेत्र है । धारणा में जो वस्तु बैठ जाती है वह स्मृति का विषय बन जाती है । पूर्वानुभूत विषय के स्मरण का नाम है स्मृति । पाश्चात्य विज्ञान इसे रिकलेक्शन (recollection) या रिकग्निशन (reco.n.tion) कहता है । रिकग्निशन या रिकलेक्शन का तात्पर्य है देखी हई वस्तु को मन में लाना और उसकी सहायता से जो वस्तुएँ देखी जाती हैं उन्हें पहचानना । हमने
गाय देखी । वह देखना चित्त में स्थिर हो गया। स्थिर होते ही उसकी स्मृति बन गयी। अतः जब हम . गाय को देखते हैं तो उसी स्मृति के आधार पर हम कहते हैं यह गाय है । 'हब्स' 'हिउम' आदि पाश्चात्य
दार्शनिकों का यह मत था कि जिसे हम स्मृति कहते हैं वह क्षीयमान मतिज्ञान ही है। परन्तु यह गलत है। कारण, इसमें कुछ ऐसी विशेषता भी है कि जिसके कारण उसे कभी नहीं भूलते एवं देखने मात्र से ही उसकी स्मृति हो आती है। जैसे कि गाय को देखते ही आप दस वर्ष की उमर में भी यही कहेंगे 'यह गाय है' और पचास वर्ष की उमर में भी यही कहेंगे-'यह गाय है' । स्मृति यदि क्षीयमान मति ही होती तो आप उसे भूल जाते। अतः 'हब्स' एवं 'हिउम' के मत का आज के 'रीड' आदि पाश्चात्य दार्शनिकों ने
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन परित्याग कर दिया है। उनका कहना है कि स्मृति मति पर आधारित होने पर भी इसकी कुछ अपनी विशेषता है जिससे स्मरण सदा बना रहता है।
__स्मृति सदैव नहीं रहती इसके उदाहरणस्वरूप कहा जा सकता है कि किसी पूर्व देखे व्यक्ति को कुछ समय पश्चात् पुनः देखते हैं तो कभी-कभी याद नहीं कर पाते । ठीक है यह । किन्तु, इसका कारण यह नहीं कि स्मति आपको धोखा दे गयी। इसका वास्तविक कारण यह था कि उस व्यक्ति के प्रति आपकी धारणा में कमी थी। आपने उसे सरसरी निगाह से देखा था । मन में कोई स्थायी रूप नहीं दिया गया था। धारणा पक्की नहीं होने के कारण आप उसे भूल गये थे।
मनोविज्ञान में ही नहीं, योग दर्शन में भी धारणा (जिसका दूसरा नाम है भावना) का बहुत बड़ा महत्व है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का जो क्रम है वह इसी धारणा पर प्रतिष्ठित है। उदाहरणतः जो हरदम महसूस करता है कि मैं बीमार हूँ वह सदैव बीमार रहता है। कारण, यह उसकी धारणा बन जाती है और वह सचमुच ही बीमार हो जाता है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा इस निराशा से आपको मुक्त करने का प्रयत्न करती है ताकि आप स्वस्थ और सबल बन सकें ।
फिर भी स्मृति अपने आप में पूर्ण नहीं है। आपने गाय देखी थी आपके मस्तिष्क में उसकी स्मृति बन गई। किन्तु बाद में जब भी आप गाय को देखते हैं तो इसमें मात्र स्मृति ही काम नहीं करती। आपने पूर्व में जो गाय देखी थी उसका सादृश्य आप इसमें खोजते हैं। इस सादृश्य अनुसन्धान का नाम है प्रत्यभिज्ञा या संज्ञा । पाश्चात्य देशों में इसे एसिमिलेशन (assimilation), कम्पारिजन (comparison) या कन्सेप्सन (c nception) कहते हैं। प्रत्यभिज्ञा चार प्रकार की होती है। गाय के उदाहरण से इसे स्पष्ट कर रहे हैं। (१) गाय जैसी है अतः गाय है । यह प्रत्यभिज्ञा सादृश्य से हुई। पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे एसोसिएशन बाई सिमिलरिटि (association by similarity) कहते हैं। (२) गाय भैस जैसी नहीं है। भैंस के भी गाय की ही भाँति सींग है, पूछ है, वह भी घास खाती है, दूध देती है फिर भी वह गाय नहीं है। अतः गाय का जो यह ज्ञान हुआ वह भैंस के वैसादृश्य से हुआ। इसीलिये पाश्चात्य विज्ञान इसे एसोसिएशन बाई कन्ट्रास्ट (association by contrast) कहता है। (३) निरन्तर देखते-देखते गाय के विषय में आपको जो विशेष ज्ञान हो जाता है उस विशेष ज्ञान को पाश्चात्य दर्शन में कन्सेप्शन (conception) कहा जाता है। इस प्रकार विश्व के अन्य सभी द्रव्यों से गाय का जो विशेषत्व है उसे जानने की प्रक्रिया को जैन परिभाषा में तिर्यक्-सामान्य और पाश्चात्य परिभाषा में स्पेसिज आइडिया (species idea) कहते हैं। (४) इसी प्रकार भिन्न-भिन्न द्रव्यों में जिस ऐक्य की उपलब्धि होती है उस पर आप जो दृष्टि डालते हैं उसे जैन दर्शन में ऊर्ध्वता-सामान्य और पाश्चात्य दर्शन में सब्सट्राटम ( utstratum) या एसी (esse) कहा गया है। इस दृष्टि में गाय को गायत्व के विशेष धर्म से न देखकर जीव धर्म से देखते हैं । इसको और स्पष्ट करने के लिये अलंकारों का उदाहरण लीजिये । हार, बाला, अंगूठी आदि में जब उनके विशेषत्व को न देखकर केवल सुवर्ण को देखते हैं तो वह ऊर्ध्वतासामान्य की दृष्टि से ही देखते हैं। वस्तुतः द्रव्य का इन चार प्रकारों से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञा ही है।
चिन्ता-चिन्ता को ऊह या तर्क कहा गया है। तर्क का सहज अर्थ है विचार । प्रत्यभिज्ञा या संज्ञा में हम गाय की एक संज्ञा बना लेते हैं जिसे हम गोत्व कहते हैं। फिर गोत्व और गाय में एक अविनाभाव सम्बन्ध भी स्वीकार कर लेते हैं, अर्थात् जहाँ गोत्व है वहाँ गाय है। आज हम जिसे गाय कहते
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हैं वह इस तर्क या विचार पर ही कहते हैं । कारण हमने गाय की जो संज्ञा प्रस्तुत की थी वह सब इसमें है । पाश्चात्य विज्ञान इसे इन्डक्शन (induction ) कहते हैं । और वे भी जैन दार्शनिकों की भाँति ही इन्डक्शन को आबजरवेशन ( observation ) या भूयोदर्शन का परिणाम मानते हैं । साथ ही जैनाचार्यों की भाँति यह भी मानते हैं कि गाय और गोत्व का जो सम्बन्ध है वह इनवेरियेबल ( invariable) व अनकन्डिशनल (unconditional) है । जैन दर्शन इसे अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति कहता है ।
अभिनिबोध - तर्कलब्ध विषय की सहायता से अन्य विषय के ज्ञान को अभिनिबोध कहते हैं । इसका दूसरा नाम है अनुमान । अनुमान को पाश्चात्य विज्ञान में डिडक्शन ( deduction) कहते हैं । न्यायशास्त्र में इसका एक प्रचलित उदाहरण है 'पर्वतो वह्निमान धूमात् । पर्वत से धूम या धुआँ निकलते देखकर हम अनुमान करते हैं कि पर्वत पर आग लगी है । यह अनुमान तर्क पर प्रतिष्ठित है। आग एवं धुएँ में जो अविनाभाव सम्बन्ध है वह तर्क से ही प्राप्त हुआ था । जहाँ-जहाँ हमने आग देखी, वहाँ-वहाँ छुआ देखा | अतः यह सोच लेते हैं कि पहाड़ से जब धुँआ निकल रहा है तो अवश्य ही वहाँ आग है । वास्तव में अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है । यह प्रत्यक्षमूलक होने पर भी ज्ञान के आहरण में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । कारण, अनुमान के आधार पर ही हम संसार के अधिकतम व्यवहार चला रहे हैं और अनुमान के आधार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खड़ा है ।
अनुमान कार्य-कारण के सम्बन्ध से ही उद्भूत होता है । अग्नि से धूम की उत्पत्ति होती है । afe के अभाव में धूम उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार कार्य कारणभाव व्याप्ति का अविनाभाव सम्बन्ध कहलाता है । इसका निश्चय तर्क से होता है जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं। अविनाभाव निश्चित हो जाने पर कारण को देखते ही कार्य का बोध हो जाता है । यह बोध ही अनुमान है । जिस प्रकार धूम को देखकर ही अदृष्ट अग्नि का अनुमान हम कर लेते हैं इसी प्रकार जब हम किसी शब्द को सुनते ही अनुमान कर लेते हैं कि यह आवाज पशु की है या मनुष्य की । फिर मनुष्य की भी है तो अमुक मनुष्य की, पशु की है तो अमुक पशु की । स्वर से स्वर वाले को पहचान लेना अनुमान का ही फल है ।
अनुमान के भी दो भेद हैं-- स्वार्थानुमान, परार्थानुमान । आप जब अपनी अनुभूति से यह ज्ञान प्राप्त करते हैं तो वह स्वार्थानुमान होता है । पर वाक्य के प्रयोग द्वारा जब वह अन्य को समझाया जाता है तो उसे परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान का शाब्दिक रूप कैसा होगा इस विषय में न्याय दर्शन ने इन पाँच अवयवों को माना है :
१. पर्वत में अग्नि है ( प्रतिज्ञा )
२. क्योंकि वहाँ धूम है ( हेतु)
३. जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है ( व्याप्ति )
४. पर्वत में धूम है ( उपनय )
५. अतः पर्वत में अग्नि है ( निगमन )
प्रसंगवश प्रमाण के विषय में यहाँ दो शब्द उपस्थित किए जाते हैं। प्रमाण चार प्रकार के होते हैं । यथा - ( १ ) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) आगम प्रमाण, (४) उपमान प्रमाण । प्रत्यक्ष प्रमाणों की आलोचना मति आदि ज्ञान की आलोचना में हो जाती है, अनुमान का उपरोक्त आलोचना में । आगम प्रमाण का वर्णन श्रुतज्ञान की व्याख्या में करेंगे । उपमान प्रमाण वहाँ है जहाँ प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
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अप्रसिद्ध पदार्थ का बोध होता है । गवय एक पशु है जो कि गाय जैसा होता है। यह बात जिन लोगों ने सुन रखी है वे गाय के सदृश पशु को देखते ही समझ जायेंगे कि यह गवय है । इस प्रकार दर्शन और स्मरण के निमित्त से होने वाला सादृश्यता का ज्ञान ही उपमान है ।
श्रुतज्ञान – सामान्यतः श्र ुत का अर्थ है सुना हुआ । वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द को सुनकर वाच्य - वाचक सम्बन्ध से श्रोता को जो शब्दबोध होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है । इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि श्रतज्ञान के पूर्व मतिज्ञान होना अनिवार्य है । ज्ञान के द्वारा श्रोता को शब्दों का जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान है । अतः मति और श्र ुत ज्ञान में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य । मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान पैदा नहीं होता । यद्यपि ये दोनों ज्ञान एक साथ रहने वाले हैं, परोक्ष हैं, फिर भी उनमें भिन्नता है । मतिज्ञान मूक है, अ तज्ञान मुखर है । मतिज्ञान वर्तमान विषय का ग्राहक है तो श्र ुतज्ञान त्रिकाल विषय का ग्राहक है । श्रुतज्ञान से ही हमें प्राचीन इतिहास आदि का, अपनी भवितव्यता का ज्ञान होता है । अभिप्राय यह है कि इन्द्रिय- मनोजन्य दीर्घकालीन ज्ञान धारा का प्राथमिक अपरिपक्व अंश मतिज्ञान है । और उत्तरकालीन परिपक्व अंश श्रुतज्ञान है । जब यह ज्ञान किसी को पूर्ण मात्रा में प्राप्त हो जाता है तो उसे श्रुतकेवली कहते हैं ।
श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- ( १ ) द्रव्यश्र ुत ( २ ) भावश्र ुत । भावश्र ुत ज्ञानात्मक है, द्रव्य त शब्दात्मक है | द्रव्यश्र ुत ही आगम है ।
अनेक भारतीय धर्मों की भाँति जैन धर्म भी आगम के प्रामाण्य को अंगीकार करता है । कारण, जैनधर्म के अनुसार अनेकान्त दृष्टि के प्रवर्तक अखण्ड सत्य के द्रष्टा केवलज्ञानी तीर्थंकरों ने समस्त जीवों पर करुणा कर प्रवचन कुसुमों की वृष्टि की। और तीर्थंकारों के महान मेधावी गणधरों ने उन्हें अपने बुद्धिपट पर झेलकर प्रवचनमाला गूँथी । अतः जैनपरम्परा में उन प्रवचन मालाओं को आगम प्रमाण रूप में माना जाता है। तर्क थक जाता है, लक्ष्य डगमगाने लगता है, चित्त चंचल हो उठता है तब आप्त प्रणीत आगम ही मुमुक्षुजनों का एकमात्र आधार बनता है । यह आगम ही द्रव्यश्र ुत कहलाता है और इसके सहारे उत्पन्न होने वाला ज्ञान भावश्र ुत है ।
मतिज्ञान की भाँति जैनाचार्यों ने श्रतज्ञान को भी लब्धि, भावना, उपयोग और नय इन चार भागों में विभाजित किया है । परन्तु वास्तव में वह विषय समूह का व्याख्यान भेद मात्र है | इस व्याख्यान प्रणाली के साथ पाश्चात्य तर्क विद्या के एक्सप्लेनेशन ( explanation ) का सादृश्य है । किसी वस्तु को उसके साथ सम्बन्धयुक्त वस्तु की सहायता से निर्देश करने का नाम है 'लब्धि' । उदाहरणतः जब हम गाय शब्द को सुनते हैं तो प्रथम गाय का सामान्य सा अनुभव होता है और वह भी पूर्व देखी हुई गाय के सादृश्य से । इसे ही हम लब्धि कहते हैं । तत्पश्चात् उसकी प्रकृति, स्वरूप, कार्य आदि की जो धारणा बनी हुई थी वह समक्ष आती है । इसी का नाम है 'भावना' । भावना प्रयोग कर जब गाय का अर्थ अवधारित करते हैं उसे 'उपयोग' कहा जाता है । पर 'नय' कुछ विशेष है । इसमें हम गाय शब्द के अर्थ को और भी परिष्कृत करते हैं । जैसे गो शब्द को लीजिए । 'गो' शब्द के अर्थ हैं गाय, धरती, वाक् आदि आदि । अर्थात् जो चलती है वह गो है । किन्तु गो का तात्पर्य हम गाय करते हैं तो उसका चलनारूप सामान्य धर्म को न देखकर केवल उसके विशेष धर्म दूध देने पर दृष्टि निबद्ध करते हैं । बस, यही कार्य है।
नय का । खण्ड ४/४
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मति और श्र त ज्ञान के साथ-साथ परोक्ष ज्ञान की आलोचना समाप्त होती है । ये दोनों ज्ञान संसारी जीवों को रहते हैं । किन्तु अब जो प्रत्यक्ष ज्ञान विवृत करने जा रहे हैं, वे ऐसे नहीं हैं । जहाँ तक मनुष्य और तिर्यंचों का सम्बन्ध है उन्हें अवधिज्ञान साधना द्वारा ही प्राप्त होता है । जिनमें जन्म से यह ज्ञान देखा जाता है वह उनकी पूर्वजन्मार्जित साधना का परिणाम ही मानना पड़ेगा।
अवधिज्ञान-अवधि का अर्थ है सीमा या मर्यादा। जब आत्मा मन और इन्द्रियों को सहायता के बिना ही साक्षात् आत्मिक शक्ति के द्वारा रूपी पदार्थों को मर्यादित रूप में जानने लगती हैं तो उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
मनःपर्याय ज्ञान-मनःपर्याय ज्ञान तो विशिष्ट साधक को ही प्राप्त होता है। जिसने संयम की उत्कृष्टता प्राप्त की है, जिसका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल हो चुका है। वही इस ज्ञान का अधिकारी होता है। इस ज्ञान के द्वारा प्राणी की चित्तवृत्तियों को, मनोभावों को, एक निर्दिष्ट सीमा में जाना जा सकता है।
अवधि एवं मनःपर्याय दोनों ज्ञान ही यद्यपि अपूर्ण हैं तथापि यह असाधारण हैं। आधुनिक विज्ञान जिसे क्लेअरवायेन्स (clairvoy ince) कहते हैं उसके साथ अवधि एवं टेलीपैथी या माइण्ड-रीडिंग (telepathy or mind-reading) के साथ मनःपर्याय ज्ञान की कथंचित् तुलना की जा सकती है ।
केवलज्ञान-जिस ज्ञान से त्रिकालवर्ती और त्रिलोकवर्ती समस्त वस्तुएँ एक साथ जानी जा सकती हैं उस सर्वोत्तम ज्ञान को केवलज्ञान कहा जाता है। थियोजाफिस्टगण इस नि को ओम्नीसाएन्स (ornniscience) कहते हैं । इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय बन जाती है । यह मनुष्य की साधना का चरम फल है । इस फल की प्राप्ति होने पर आत्मा जीवन्मुक्त हो जाती है और पूर्ण सिद्धि के सन्निकट पहुँच जाती है।
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ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी।
यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥ जिस तरह दीपक की समस्त क्रियाएँ (ज्योति का ऊँचा-नीचा होना) प्रकाशमय होती है, ठीक उसी तरह आत्मा की सभी क्रियाएँ ज्ञानमय होती हैं उस अनन्य स्वभाव वाले (एक आत्म स्वभाव में लीन) मुनि का मौन अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) होता है।
-उपाध्याय यशोविजय जी कृत :-ज्ञानसार ८/१०४
--विवेचन : पन्यासप्रवर श्री भद्रगुप्तविजय जी
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दया / करुणा / अनुकम्पा सम्यग्दर्शन / ज्ञान / चारित्र
• विनय
धर्म - साधना के तीन आधार
- उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि ( व० स्था० श्रमण संघ के उपाचार्य, शताधिक ग्रन्थों के लेखक, बहुत विद्वान विचारक )
धर्म क्या है ? और दर्शन क्या है ? यह जान लेने के बाद, हर साधक को यह जानना उपयोगी होता है कि आखिर इन दोनों की जड़ क्या है ? अर्थात्, धर्म और दर्शन की शुरुआत कहाँ से होती है ? इस जिज्ञासा को लेकर जब जैन - वाङमय में भ्रमण किया जाता है, तो यह पता चलता है कि यहाँ पर धर्म के मूल की तलाश में तीन आचार्यों ने अपने दृष्टिकोण प्रकट किये हैं । ये हैं :
१. 'दया' धर्म की जड़ है । प्राणियों पर 'अनुकम्पा' करना दया है । यह दिगम्बर आचार्य जिनसेन का दृष्टिकोण है।
२. तीर्थंकरों ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया है कि धर्म की शुरुआत दर्शन से होती है । यह सिद्धान्त अध्यात्मवादी आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट किया है ।
३. दशवैकालिक' में, श्वेताम्बर आचार्य शय्यम्भव ने बतलाया है कि धर्म का मूल 'विनय' है । क्योंकि 'विनय' से मोक्ष प्राप्त होता है ।
१. दयामूलो भवेद्धर्मो दया प्राण्यनुकम्पनम् ।
२. दंसणमूलो धम्मो उवइट्टो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
३. एवं धम्मो विणओ मूलं परमो से मोक्खो ।
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( २७ )
- महापुराण, २१।५।६२
- दर्शन पाहुड, २ २२
-- दशवेकालिक,
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धर्म-साधना के तीन आधार : उपााचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
दया का हार्द
आचार्य जिनसेन के दृष्टिकोण के समर्थन में आचार्य पद्मनन्दी ने बड़ी साफ-साफ बात कही है और दया को धर्म का मूल बतलाते हुए उसकी प्रशंसा भी की है। वे कहते हैं-'प्राणिदया' धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, सारे व्रतों में मुख्य व्रत है, सम्पत्ति का और गुणों का भी भण्डार है। इसलिए हर प्राणी को अपने हृदय में दया को धारण करना चाहिए । जो ऐसा करते हैं, वस्तुतः वे विवेकवान हैं।
यह सच है कि जिनेन्द्र भगवान का उपदेश करुणारूपी अमृत से लबालब भरा है। और उसका प्रथम स्रोत दया-करुणा प्रेरित ही है। जो इस धर्म के वास्तविक अनुयायी हैं, उनके चित्त में करुणा तो अवश्य ही होनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक जिन का धर्मोपदेश देने के पीछे यह आशय रहता आया हैजिस मार्ग साधन से मैंने स्वयं की आत्मा को सांसारिक बन्धनों से निकालकर यहाँ तक पहुँचाया है, उसी तरह, संसार के तमाम दुःखी जीव भी मेरे द्वारा अपनाये गये रास्ते पर चलें और स्वयं को मुक्त बनावें। क्योंकि जिनेन्द्र भगवान की आत्मा, 'जिन' बनने के साथ ही करुणा के, दया के सागर को अपने आप में पूरा का पूरा समेट लेती है। यानी, उनमें दया का परिपूर्ण स्वरूप अवतरित हो जाता है। फिर भला वे दुःखी-दीन जनों को देखकर, द्रवित क्यों नहीं होंगे? इसलिए, उनके द्वारा जो भी उपदेश शिष्यों को दिया जाएगा, उसके एक-एक शब्द में करुणा का अमृत-सिन्धु भरा मिलेगा। जरूरत है, उस करुणामृत की तलाश की, पहचान की।
यह दया या करुणा किसी भी प्राणी में बाहर से नहीं आती। यह तो उसके भीतर रहने वाला एक ऐसा तत्त्व है, जो उससे कभी भी अलग रह ही नहीं सकता। क्योंकि यह करुणा या दया, न तो इस धरती पर पैदा होती है, और न ही किसी भौतिक पदार्थ में से उसे ढूँढ़ कर निकाला जा सकता है । यह तो 'चेतना' का अपना एक मौलिक गुण धर्म है। अनुकम्पा
करुणा/दया का समानार्थक एक और शब्द, जैनधर्म व दर्शन में प्रयोग किया गया मिलता है। वह है-'अनुकम्पा' । इस शब्द का अर्थबोध भी आचार्यों ने अलग-अलग ढंग से दिया है ।
बहत्कल्पसूत्रवृत्ति में आचार्य मलगिरि ने लिखा है "अनु-पश्चात् दुःखितसत्वकम्पनादनन्तरं यत्कम्पनं सा अनुकम्पा” (१३२०) । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति में लिखा है-दुःखियों को निहार कर बिना पक्षपात के दुःख को दूर करने की इच्छा अनुकम्पा है (२/१५)। ये ही भाव त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में भी अभिव्यक्त हुए हैं। (१/३/६१५-६१६) तीन भेद अनुकम्पा के
भगवती आराधना में अनुकम्पा को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया है। ये विभाग हैंधर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा ।
संयमी मुनियों पर दया करना 'धर्मानुकम्पा' है। यह धर्मानुकम्पा जब किसी व्यक्ति के अन्तः करण में उत्पन्न होती है, तब वह विवेकवान सद्गृहस्थ श्रमणों-निर्ग्रन्थों को योग्य अन्न, जल, निवास, १. मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् । गुणानां निधिरित्यंगि दया कार्या विवेकिभिः ।।
-पद्मनंदि पंचविंशतिका, ३८ २. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार ।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
औषधि आदि पदार्थ देकर उनकी सेवा करता है। साथ ही, अपनी पूरी सामर्थ्य के अनुसार मुनियों के उपसर्ग आदि को दूर करने में प्रवृत्त होता है। कभी कोई मुनि उसे भटका हुआ मिलता है, तो वह उन्हें सही रास्ता बतला कर, अपने भाव को साकार करता है । सभाओं, आयोजनों आदि सामूहिक गोष्ठियों में वह उन मुनिजनों के गुणों की प्रशंसा करता है, और चाहता है कि साधुओं/मुनियों का सत्संग उसे हमेशा मिलता रहे।
आशय यह है कि साधु/मुनि के गुणों की प्रशंसा करना, अनुमोदन करना, और अनुसरण करना आदि समस्त भाव, 'धर्मानुकम्पा' के माने गये हैं ।
गृहस्थ व्यक्तियों पर जो दया की जाती है, उसे 'मिश्रानुकम्पा' कहते हैं। क्योंकि गृहस्थों में अधिकांशतः ऐसे होते हैं, जो जीवों पर दया तो करते हैं किन्तु दया के समग्र स्वरूप को वे नहीं जानते । इनके अलावा, उन लोगों पर भी, जो जिन-सूत्र से बाहर हैं, पाखण्डी गुरु की अर्चना/उपासना करते हैं, इन सब पर कृपाभाव रखना 'मिश्रानुकम्पा मानी गई है। जो व्यक्ति, गृहस्थधर्म का पालन कर रहे हैं किन्तु अन्य धर्मों का पालन करने वालों के प्रति दया/अनुकम्पा की भावनाएँ रखते हैं, ऐसे गृहस्थों पर अनुकम्पा का भाव भी 'मिश्रानुकम्पा' है।
__ 'मृदुता' चेतना का मौलिक गुण है। वह जिस तरह एक सम्यग्दृष्टि में स्वभावतः मौजूद रहती है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि में भी उसको सहजता से देखा जा सकता है। यह दोनों ही प्रकार के व्यक्ति समस्त प्राणियों पर दया/अनुकम्पा भी करते रहते हैं। इन दोनों की यह ‘अनुकम्पा', कि हर प्राणी के प्रति समान व्यवहार के साथ होती है। इसलिए, इन दोनों की अनुकम्पा को ‘सर्वानुकम्पा' के अन्तर्गत माना जाता है।
निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि जब 'अनुकम्पा' का विषयभूत जीव/प्राणी धर्म-क्षेत्र से सम्बन्धित होगा, तब उस धार्मिक व्यक्ति/जीव के प्रति होने वाला करुणाभाव, 'धर्मानुकम्पा' कहा जाएगा। इसी तरह, अनुकम्पा का विषय जब कोई ऐसा प्राणी हो जो 'संयतासंयत' के दर्जे में आता हो, तो उसके प्रति होने वाला दया करुणा भाव 'मिश्रानुकम्पा' होगा । और जिस अनुकम्पा का विषय हर प्राणी/जीव बन सकता हो, यानी समस्त जीवों को अपना विषय बनाने वाली करुणा/अनुकम्पा को 'सर्वानुकम्पा' कहा जाएगा।
'अनकम्पा' के इस स्वरूप विश्लेषण के साथ जब 'दया' या 'करुणा' के स्वरूप को मिलाकर विचार किया जाता है, तब यह निष्कर्ष सामने आता है कि, जिसे हम 'दया' कहते हैं, वह चाहे तो 'करुणा' के नाम से पुकारी जाये, अथवा 'अनुकम्पा' के नाम से, इनमें कोई मौलिक भेद नहीं है। क्योंकि, इन तीनों में 'नाम' भर की भिन्नता, भले ही दिखलाई पड़ रही हो, वस्तुतः यह तीनों ही शब्द, आत्मा के जिस विशेष भाव को व्यक्त करते हैं वह भाव हर जीवात्मा में, उसके अन्य मौलिक गुणों के साथ सहज ही मौजूद रहता है । और, जब भी उसे अनुकूल वातावरण मिलता है, द्रवित हो उठता है।
१ विशेष जानकारी के लिए देखें-भगवती-आराधना की विजयोदया टीका-१८३४ ।
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धर्म-साधना के तीन आधार : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि सम्यग्दर्शन
____ आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सम्यग्दर्शन' को धर्म का मूल माना है। क्योंकि इसके बिना 'ज्ञान' ज्ञान नहीं रहता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं पनप पाता, चारित्रहीन को मोक्ष नहीं मिलता, और मोक्ष के अभाव में निर्वाण नहीं प्राप्त होता। मगर, वह 'दर्शन' है क्या? इस बारे में जैनाचार्यों ने अलग-अलग ढंग से अपने मत प्रकट किये हैं।
उमास्वाति का कहना है-अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थों का श्रद्धान, 'सम्यग्दर्शन' है। इन्होंने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह सात तत्त्व माने हैं । आचार्य हेमचंद्र आदि ने भी ये ही सातों तत्त्व बतलाये हैं। उत्तराध्ययन में, इन सातों के साथ पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व कहे हैं। जिन आचार्यों ने सात तत्त्व माने हैं, वे पुण्य और पाप को बंध के अन्तर्गत मानते हैं।
अन्य कुछ आचार्यों ने पदार्थों के विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है, तो कुछ ने पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना है। सूत्रपाहुड में उक्त तत्वों के प्रति हेय व उपादेय बुद्धि को सम्यग्दर्शन कहा है तो मोक्षपाहुड में तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन बतलाया गया है।
नियममार में सम्यक्त्व की चर्चा के सम्बन्ध में बतलाया गया है-आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है। यानी इन तीनों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इसी कथन को कुछ और स्पष्ट किया गया है-तीन प्रकार की मूढ़ता और आठ प्रकार के मद से रहित होकर, सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु पर आठों अंगों सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
१. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न हुति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
- उत्तराध्ययन, २८/३०
२. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवास्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र, १/२,४
--उत्तराध्ययन, २८/१४
३. जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावाऽसवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो संते ए तहिया नव ।। ४. (क) पञ्चास्तिकाय--तात्पर्याख्यावृत्ति, १०७
(ख) पुरुषार्थसिद्ध युपाय, २२
(ग) समयसार, १५५ ५. सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं ।
हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी । ६. तच्चरुई सम्मत्तं । ७. अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ८. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
-सूत्रपाहुड, ५ - -मोक्षपाहुड, ३८
-नियमसार, ५
-रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ४
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन तीन वर्ग
इन सारे लक्षणों का निचोड़ यदि निकाला जाये तो मुख्य रूप से इनके तीन वर्ग बनते हैं। पहला वर्ग है, तत्त्वार्थों/पदार्थों का श्रद्धान, दूसरा-देव, शास्त्र व गुरु तथा धर्म पर श्रद्धान, तथा तीसरा वर्गस्व-पर के भेदविज्ञान के साथ शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप श्रद्धान ।
इन लक्षणों में जहाँ पर आप्त, आगम व तत्वों की श्रद्धा को सम्यकदर्शन बतलाया गया है, वहाँ पर पूर्व के दो वर्गों का सम्मिलित रूप लिया गया है। क्योंकि यह दोनों ही वर्ग, सम्यग्दर्शन के व्यवहार पक्ष को लेकर किये गये हैं । जहाँ 'तत्त्वरुचि' को सम्यग्दर्शन कहा गया है, वह कथन, उपचारवश किया गया समझना चाहिए। क्योंकि रुचि कहते हैं-'इच्छा' को, या 'अनुराग' को। जिनका मोह नष्ट हो जाता है, उनमें तो 'रुचि' का अभाव हो जाता है। अतः 'तत्त्वरुचि' या 'अतीन्द्रिय सुख की रुचि' अथवा 'शुद्धात्मरुचि' को सम्यग्दर्शन मानेंगे, तो ऐसे सम्यग्दृष्टि में 'मोह' की सत्ता माननी पड़ेगी। मोह की उपस्थिति में 'सम्यक्त्व' को कैसे स्वीकार किया जायेगा ? क्योंकि, सम्यक्त्व के अभाव में न तो 'सम्यग्दर्शन' ही हो पाता है, और न ही 'सम्यग्ज्ञान'। इसलिए, जहाँ भी 'रुचि' को सम्यग्दर्शन के लक्षण के साथ जोड़ा गया है, वह प्रयोग, उपचारवश माना जाना चाहिए, और 'तत्त्वरुचि' के प्रसंग में उसे 'अशुद्धतर नय' की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिए ।
पूर्व में जो तीन वर्ग बनाये हैं, उन वर्गों का परस्पर न तो कोई सैद्धान्तिक भेद है, न ही अलगाव । बल्कि, यह भिन्नता, भिन्न-भिन्न स्तरों को लक्ष्य में रखकर, भिन्न-भिन्न दृष्टियों से ही मानी जानी चाहिए । इसी बात को यहाँ विशेष रूप से स्पष्ट किया जा रहा है ।
एक सम्यग्दृष्टि जीव को, उनका जैसा श्रद्धान होता है, वैसा श्रद्धान मिथ्यादृष्टि जीव का कभी नहीं होता । क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव, अपने पक्ष के मोहवश अर्हन्त देव आदि का श्रद्धान करता है। अर्हन्त देव आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान, चूंकि एक मिथ्यादृष्टि जीव को नहीं होती, अतः उसका अर्हन्तदेव आदि के प्रति जो पक्षमोहवश श्रद्धान होता है, वह यथार्थ श्रद्धान नहीं होता । यथार्थ श्रद्धान तो उसे तभी हो पाएगा, जब वह इन अर्हन्त आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान कर सकेगा । जिनके यथार्थ श्रद्धान होता है, उन्हें अर्हन्तदेव आदि के यथार्थ स्वरूप का भी श्रद्धान होता है। क्योंकि, अर्हन्त देव आदि के यथार्थ स्वरूप की जिसे पहचान है, उसे जीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की पहचान होगी ही। इन दोनों बातों को परस्पर में अविनाभावी जानना चाहिए। इसी वजह से अर्हन्तदेव आदि के श्रद्धान को 'सम्यक्त्व' या 'सम्यग्दर्शन' कहा गया है ।
'तत्त्व श्रद्धान' को सम्यग्दर्शन मानने में भी अर्हन्तदेव आदि के श्रद्धान की बात गर्भित है। तत्त्व समूह में 'मोक्ष तत्त्व' सर्वोत्कृष्ट है। और मोक्ष की प्राप्ति के पूर्व 'अर्हन्त' पद की प्राप्ति अवश्यम्भावी है । ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जिससे यह स्पष्ट हो सके, कि बिना अर्हन्त हुए कोई जीवात्मा मोक्ष-लाभ कर सका है । अतः, मोक्ष में श्रद्धान में होने पर, 'अर्हन्त' में श्रद्धान अनिवार्यतः होता है।
मोक्ष के कारण हैं-संवर और निर्जरा तत्त्व । ये दोनों उन मुनियों के सम्भव होते हैं जो निर्ग्रन्थ हैं, वीतरागी हैं । यानी, जो मुनि, संवर-निर्जरा के धारक होंगे, वास्तव में वे ही सच्चे 'गुरु' माने
१. अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनय-समाश्रयणात् ।
। -षट्खंडागम-पुस्तक १, पृष्ठ १५१
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धर्म-साधना के तीन आधार : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जा सकते हैं । इन गुरुजनों पर श्रद्धान होने का अर्थ होता है-संवर निर्जरा तत्त्वों पर श्रद्धान होना । और संवर-निर्जरा तत्त्वों पर श्रद्धान होने का मतलब होता है सच्चे गुरु पर श्रद्धान होना । पूर्व की भाँति, ये दोनों भी, परस्पर अविनाभावी या अन्योन्याश्रित माने जा सकते हैं।
___ इसी प्रकार, राग आदि से रहित भाव को 'अहिंसा' कहते हैं । 'अहिंसा' को ही उपादेय धर्म माना गया है । अतः रागादि से रहित भावरूप धर्म को 'सच्चा धर्म' कहा जा सकता है। इसी पर श्रद्धान करना, सच्चे धर्म का श्रद्धान होगा।
इस प्रकार, 'तत्त्व श्रद्धान' में अर्हन्तदेव आदि का श्रद्धान और 'अर्हन्त देव आदि के श्रद्धान' में तत्त्वश्रद्धान का भाव अन्तर्निहित है।
विनय
विनय से ज्ञान-लाभ, आचार विशुद्धि और सम्यगाराधना की सिद्धि होती है। और, अन्त में मोक्षसुख भी मिलता है । अतः, विनय की भावना अवश्य ही करनी चाहिए । 'विनय' की इस महत्ता को देखते हुए दशवकालिक में इसे धर्म का परममूल' कहा गया है। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में विनय की सविस्तृत व्याख्या है। भगवती, स्थानाङ्ग और औपपातिक में विनय के विविध प्रकार बताये हैं। पर विस्तारभय से हम उन सबकी चर्चा यहाँ कर नहीं रहे हैं। भावपाहुड में भी, विनय के माहात्म्य को स्वीकार करके, साधु मुनि को सलाह देते हुए कहा गया है--'हे मुनि ! पाँच प्रकार की विनय को मन, वचन व काय से पालन करो। क्योंकि, विनय से रहित व्यक्ति, सुविहित मुक्ति को प्राप्त नहीं करते हैं।' इस कथन की पुष्टि वसुनन्दि श्रावकाचार में भी की गई है।
विनय के पाँच प्रकार यह हैं :-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्र-विनय, तपविनय व उपचारविनय । यह पाँचों, मोक्षगति के नायक माने गये हैं। भगवती आराधना और वसुनन्दि श्रावकाचार
१. रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्त त्ति भासिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसे त जिणेहि णिहिट्ठा ।
-सर्वार्य सिद्धि, ७/२२ पर उद्धृत २. ज्ञानलाभाचारविशुद्धि सम्यगाराधनाद्यर्थ विनयभावनम् । ततश्च निवृत्ति सुखमिति विनयभावनं क्रियते ।
---राजवा तिक, ६/२३/७ ३. विणयं पंचपयारं पाल हि मणवयणकायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्ति ण पावंति ॥
-भावपाहुड, १०२ ४. वसुनन्दिश्रावकाचार, ३३५ ५. मूलाचार, ३६४ ६. विणओ मोक्खद्दारं विणआदो संज मो तवो णाणं ।
णिगएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य॥ कित्ती मेत्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणो । तित्थयराणां आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥
--भगवती आराधना, १२६.१३१ ७. देविंद चक्कहर मंडलीयरायाइजं सुहं लोए। तं सव्वं विणयफलं णिवाणसुहं तहा चेव ।।
-वसनन्ति श्रावकाचार, ३३४
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
में भी, विनय से प्राप्त होने वाले उन तमाम गुणों की विस्तृत विवेचना की गई है, जो इस लोक के व्यवहार में, और परलोक में सुख की प्राप्ति में सहयोगी बनकर. उसे परम-प्रतिष्ठा दिलाते हैं।
___ इन सारे कथनों का सार-संकेत करते हुए पण्डित-प्रव आशाधर ने कहा है-मनुष्य भव का सार आर्यता, कुलीनता आदि है। इनका भी सार जिनलिंग धारण है। इसका भी सार जिनागम की शिक्षा है। और इस शिक्षा का भी सार, यह विनय है। क्योंकि, इस विनय के प्रकट होने पर सज्जन पुरुषों के गुण भली-भाँति स्फुरायमान होने लगते हैं।
यह है विनय का माहात्म्य । इसे गहराई से देखा जाय तो यह सहज ही बोध होता है कि 'विनय' को, जिस तरह लौकिक सम्पदाओं की प्राप्ति में सहयोगी बतलाया है, उससे, इसे मोक्षमार्ग में सहयोगी मानने में कोई शंका शेष रह जाती है क्या ? विनय तप की व्यावहारिकता को देखकर, कोई यह अनुमान नहीं कर सकता कि इसका मोक्ष प्राप्ति में कोई सीधा सम्बन्ध बनता है ।
मोक्ष की प्राप्ति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मूल कारण मानना, जैन शास्त्रों का निचोड़ है। इस रत्नत्रय में ज्ञान का अपना महत्त्व है। ज्ञान के बिना सम्यकश्रद्धान और सम्यकचारित्र में परिपूर्णता नहीं आ पाती। यह जितना सच है, उतना ही सच यह है कि सम्यग्ज्ञान, आगमों के सर्वांगीण अध्ययन, मनन और चिन्तन के बिना सम्भव नहीं होता।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रों के चिन्तन और मनन की सामग्री, उनके अध्ययन की परिपक्वता पर आधारित रहती है। यदि शास्त्रों का अध्ययन, सच्चे गुरु के द्वारा, सही पद्धति से न हो पाये, तो उस अधीत शास्त्र विषय पर चिन्तन-मनन का आधार नहीं बन पाता । इस दृष्टि से, शास्त्रों की जो महत्ता ज्ञान के प्रसंग में आंकी गई है, इससे कम मूल्य, सच्चे गुरु का नहीं माना गया है। बल्कि, गुरु की परिपक्वता को अधिक महत्त्व दिया गया है।
ऐसे गुरु के प्रति, हर मुमुक्ष को, या ज्ञान की इच्छा रखने वाले को श्रद्धा-भक्ति रखना एक अनिवार्य कार्य माना गया है। इसे 'गुरु-भक्ति' या 'गुरु-विनय' के नाम से ग्रन्थों में बतलाया गया है। गुरु-भक्ति की प्रशंसा करते हुए, रयणसार, राजवार्तिक, भगवती आराधना, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, आदि में कहा गया है-'गुरु-भक्ति से अज्ञान-अंधकार का नाश होता है। अज्ञान के विनाश से सम्यग्ज्ञान का उदय होता है और सम्यग्ज्ञान के उदय, विकास और परिपूर्णता से चारित्र पुष्ट होता है। तब, मोक्षरूपी फल को प्राप्त करना सम्भव होता है।'
इस कयन से साफ-साफ पता चलता है कि, 'गुरु-भक्ति' या 'गुरु-विनय' को मोक्ष-प्राप्ति में परम्परा से, किन्तु एक सीधा कारण माना गया है । इसी तरह, दर्शन, चारित्र आदि विनयों का भी मोक्ष से परम्परया, सीधा सम्बन्ध जुड़ा है ।
आशय यह है कि, पाँचों प्रकार की विनय को मोक्ष से सीधा जुड़ा होने के कारण, दशवकालिक आदि आगमों में उसे 'धर्म का मूल' माना गया है ।
१. सारं सुमानुषत्वेऽहंद्रूप संपदिहाहती।
शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः ॥ खण्ड ४/५
-~-अनगार धर्मामृत, ७/६२
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३४
धर्म साधना के तीन आधार : श्री देवेन्द्र मुनि
सामान्य रूप से तो पूज्य पुरुषों का आदर करना, 'विनय' है। मोक्ष के साधनभूत जो सम्यगज्ञानादि हैं, उनमें, तथा उनके साधकों-गुरु आदि के प्रति भी, योग्य रीति से सत्कार आदि देना, तथा कषायों की निवृत्ति आदि करना, 'विनयसम्पन्नता' माना गया है। रत्नत्रय को धारण करने वाले व्यक्तियों के प्रति नम्रता धारण करने को, अधिक या उत्कृष्ट गुण वाले व्यक्तियों के प्रति नम्र-वृत्ति धारण करने को और इंद्रियों को नम्र करने को भी 'विनय' माना गया है ।
यह लक्षण, विनय के नम्रता अर्थ को लेकर किये गये हैं। किन्तु, कुछ आचार्यों ने, इस अर्थ से भिन्न अर्थ करते हुए, विनय के कुछ और ही लक्षण माने हैं । जिनमें से यह लक्षण मुख्य हैं :
दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा जो विशुद्ध परिणाम होता है, वहीं उनकी विनय है । कर्ममल को जो नाश करता है, वह विनय है । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के अतिचार रूप जो अशुभ क्रियायें हैं, उनको हटाना विनय है। अपने निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है। और उसके
आधारभूत पुरुषों-आचार्य आदि की भक्ति से उत्पन्न होने वाले जो परिणाम हैं, वे व्यावहारिक विनय हैं।
इस सबसे अधिक स्पष्ट और सरल भाषा में विनय का वह लक्षण है :-मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र, तथा सम्यक्तप के दोषों को दूर करने के लिए, जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहा गया है । और, इस प्रयत्न करने में, अपनी शक्ति को न छिपाकर, शक्ति अनुसार भक्ति करते रहना, 'विनयाचार' है ।
इस समस्त विवेचना का आशय यह है कि 'विनय' शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक नी-नयने धातु से बना है। विनयतीति विनयः । यहाँ पर, 'विनयति' इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-दूर करना और
१. पूज्येष्वादरो विनयः ।
-सर्वार्थसिद्धि, ६/२० २, सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कारः आदरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता।
-राजवार्तिक, ६/२४/२ ३. रत्नत्रयवत्सु नीचवृत्तिविनयः ।
-धवला, १३/५-४-२६ ४. गुणाधिकेषु नीचैवृत्तिविनयः ।
--कषायपाहुड, १/१-१/६० ५. चारित्रसार, १४७ ६. दसणणाणचरिते सुविसुद्धौ जो हवेइ परिणामो । वारस भेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसि ॥
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४७ ७. यद्विनश्यत्यपनयति च कसित्तं निराहुरिह विनयम् । शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्य यंकृत्यः ।।
-अनगार धर्मामतम्, ७/६१ ८. ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचाराः अशुभ क्रियाः । तासामपोहनं विनयः ।।
-भगवती आराधना विजयोदया, ६/३२ ६. स्वकीय निश्चयरत्नत्रयशुद्धिनिश्चयविनयः । तदाधारपुरुयेषु भक्ति परिणामो व्यवहारविनयः ।
---प्रवचन० -तात्प० वृ-२२५ १०. सुदृग्धीवृत्त तपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्ध'षु तु ।।
-सागार धर्मामृतम्, ७/३५
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन विशेष रूप से (किसी वस्तु को) प्राप्त करना। विनय, साधनामार्ग में रुकावट बनकर खड़े अप्रशस्त कर्मों को दूर करती है, और जिन-वचन के ज्ञान को प्राप्त कराती है। जिसका फल मोक्ष है अर्थात्, "विनय' में वह सब सामर्थ्य छिपी हुई है, जिसकी कामना करते हुए एक वैदिक ऋषि कहता है
असतो मा सद्गमय ! तमसो मा ज्योतिर्गमय !!
मृत्योर्मा अमृतं गमय !!! भारतीय संस्कृति का हर शास्त्र इस बात से सहमत है कि विद्या (ज्ञान) विनय की दात्री है। विनय से व्यक्ति में वह पात्रता आती है, जिससे वह धर्म को धारण करने लायक बनता है । और, धर्म को धारण करने से सुख प्राप्त होता है ।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आचार्य जिनसेन ने 'दया' को, कुन्दकुन्द ने 'सम्यग्दर्शन' को, और दशवकालिक आदि आगमों में 'विनय' को धर्म का मूल कहने से जो विरोध या विसंगति देखी जा रही है, वह अतात्त्विक है । इन आचार्यों की यह दृष्टिभिन्नता, विवाद का विषय नहीं है। बल्कि, यह समझने के लिए है कि चाहे तो हम 'दया' को परिपूर्ण बनाकर अपना चरित्र उत्तम बनाएँ, चाहें तो 'सम्यग्दृष्टि' के माध्यम से स्वयं को उन्नत बनाएँ, अथवा, 'विनय' के माध्यम से हम अपने आचार-विचार को इतना विशुद्ध पवित्र बनाएँ, जिससे, हम उस 'धर्म' तत्त्व के मर्म को समझ सकें। अपने चरित्र में उसे उतार सके। यह दृष्टिभेद देखकर विवाद में उलझना, धर्म के मर्म को छेदने जैसा होगा। क्योंकि, दया, सम्यक्त्व और विनय, तीनों में ही समान रूप से वह सामर्थ्य समाया हुआ है, जो इनके आराधक को धर्म के दरवाजे तक सहज ही पहुँचा सकता है।
००
जत्थ य विलय विराओ कसाय चाओ गुणेसु अणुराओ । किरिआसु अप्पमाओ, सो धम्मो सिवसुहो लोएवाओ ।
जिसमें विषय से विराग, कषायों का त्याग, गुणों में प्रीति और क्रियाओं में अप्रमादीपन है, वह धर्म ही जगत् में मोक्ष सुख देने वाला है।
-प्राकृत सूक्ति कोष १४३ (महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जी)
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जैनधर्म विश्वधर्म बन सकता है
-(स्व0) काका कालेलकर
(मूर्धन्य गांधीवादी विचारक, चिन्तक तथा प्रसिद्ध लेखक)
जैनधर्म का, और भगवान महावीर का, मैं भक्त हूँ (विद्वान नहीं)। जैन-समाज का प्रेमी हैं। जैनसमाज के पुरुषार्थ के प्रति मेरे मन में आदर है किन्तु एक सनातनी ब्राह्मण अपने को जैनी कैसे कहला सकता है ? तो भी, जैन समाज के कई अच्छे-अच्छे सेवक मेरे प्रति प्रेम और आत्मीयता रखते हैं और मेरे विचार सुनने के लिए उत्सुकता बताते हैं। इसीलिये मैंने चार शब्द बोलने का स्वीकार किया है। जो बातें आपको अच्छी लगे अपनाइये। आप लोगों में क्षमावृत्ति है। मतभेद सहन करने की आपको आदत है, इसलिये, चार शब्द बोलने की हिम्मत करूंगा।
इस अपने बहभाषी, बहवंशी और बहुधर्मी देश में जैनियों के अनेकान्तवाद का स्वीकार और आचार सबको करना ही पड़ता है । इस देश में धर्म-समाजों के झगड़े कभी नहीं हुए सो नहीं, लेकिन कूल मिलाकर हमारा राष्ट्र सहजीवन जीने को और मतभेद सहन करने को काफी सीखा है।
आज मुझे यही बात आपके सामने और आपके द्वारा भारत के सामने रखनी है कि; स्याद्वाद की दार्शनिक दृष्टि मान्य करके, अनेकान्तवाद के उदार हृदय की प्रेरणा से प्रेरित होकर ही, भारत के सामने अब अपने को और सारे विश्व को सर्व-समन्वय-वृत्ति सिखाने के दिन आ गये हैं।
इस देश में अधिकांश लोकसंख्या सनातनी वृत्ति वाले हिन्दुओं की है। उन्हीं का प्रतिनिधि होने से, मैं अपने समाज की गलतियों को अच्छी तरह से समझ सका हैं, और उन गलतियों का स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा। मुझे डर है कि हमारी चन्द गलतियाँ जैन समाज में भी पायी जा सकती हैं। उन्हें पहचान कर उनसे मुक्त होने के लिये आपको भी अन्तर्मुख बनना पड़ेगा और सबके साथ युगानुकूल सुधार करने के लिये तैयार रहना पड़ेगा।
हमारा समाज, हजारों बरसों से छोटी-छोटी जातियों में बँटा हुआ है और जातियों का मुख्य लक्षण है रोटी-बेटी व्यवहार की संकुचितता। इस प्रधान दोष के कारण इतना बड़ा समाज हजारों वर्ष गुलाम रहा, और महा मुश्किल से स्वतन्त्र होने के बाद भी यह संकुचितता हम छोड़ नहीं सके हैं। ऐसी संकुचितता न होने के कारण ही इस्लाम और ईसाई धर्म हमारे देश में फैल गये। हमारे यहाँ का वौद्ध
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन धर्म, विश्वधर्म बनने की महत्त्वाकांक्षा धारण करके, श्रीलंका, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन, जापान आदि अनेक देशों में फैल गया।
हमारे देश में बौद्ध और जैन दोनों धर्म विश्वधर्म बनने की योग्यता रखते हैं। इनमें भी जैनधर्म की अपनी अहिंसा और समन्वयवृत्ति के कारण यह धर्म विश्वधर्म बनने की अधिक से अधिक योग्यता रखता है । लेकिन शायद भारत के वातावरण के कारण जैन समाज एक संकुचित जाति बन गया है । शायद रोटी-बेटी व्यवहार के बंधन के कारण यह संकुचितता आयी हो ।
मेरे इस निरीक्षण का और टीका का मुझे स्पष्टीकरण करना जरूरी है। दूसरों का हम पर बुरा असर होगा, इस डर को हृद से अधिक महत्त्व देकर, आपने अपने साधुओं के लिये भारत के बाहर न जाने का सख्त नियम बनाया था।
साधु लोगों का मुख्य कार्य धर्म का उत्तम पालन करना और उसका प्रचार करना, यही हो सकता है । तब वे भारत से बाहर जाकर प्रचार क्यों न करें ? वहीं तो प्रचार की अधिक जरूरत है।
_अपने बचपन में जब मैंने सुना कि जैन साधु भारत से बाहर जा नहीं सकते, आर गये तो वे भ्रष्ट माने जाते हैं तब मेरे जैसे लोग पूछने लगे---क्या जैनियों का अहिंसा धर्म केवल भारत के ही लिये है ? भारत के बाहर का मांसाहार और हिंसा जैनियों को मान्य है ? विश्वधर्म बनने के लिये बना हुआ धर्म, ऐसा लाचार कैसे बना ?
__भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ स्याद्वाद याने अनेकान्तवाद का जोरों से प्रचार किया। अहिंसा का वह अत्यन्त योग्य और सार्वभौम होने लायक रूप है। जैनधर्म : एक सार्वभौम जीवनदष्टि
अनेकान्तवाद पर आपके सामने व्याख्यान देने यहाँ नहीं आया हूँ। मुझे खास इतना ही कहना है कि सारी दुनिया में धर्म-धर्म के बीच जो ईर्ष्या, असूया और विरोध पाये जाते हैं उनकी जगह मानव- .. जाति के सब वंशों में, सब धर्मों में और संस्कृतियों में (ईर्ष्या, मत्सर और झगड़ा टालकर उनके बीच) समन्वय लाने का, आदान-प्रदान और निष्काम सेवा को स्थापन करने का, भारतमाता के मिशन का समर्थन महावीर स्वामी के अनेकान्तवाद में ही मैं देखता हूँ।
भारतमाता और समस्त मानव जाति भविष्य के लिए महावीर के उपदेशों द्वारा ही प्रतिस्पर्धा टालकर, कौटुम्बिक भाव और पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित कर सकेगी।
___ मैं यही कहने आया हूँ कि विश्व-समन्वय के द्वारा युद्धों को टालकर, धर्मों-धर्मों के बीच, गोरेकाले आदि वंशों के बीच जो प्रतिस्पर्धा अथवा होड़ चलती है, उसे टालकर विश्व-समन्वय याने कौटम्बिक भाव स्थापित करने के लिए ही विश्वव्यापी बनने के लायक जैनधर्म है।
ईसाई और इस्लामी धर्म-प्रचार से हम बोध लेंगे, लेकिन उनका पूरा अनुकरण नहीं करेंगे। उनके मिशन प्रतिस्पर्धा को मानते हैं और हम तो प्रतिस्पर्धा को हिसारूप पाप समझते हैं। हमें तो दुनिया के सब राष्ट्रों में, वंशों में, संस्कृतियों में और धर्मों में अनेकांतवादी विश्व समन्वय-मूलक कौटुम्बिक भाव को फैलाना है।
१. धर्म क्रांति परिषद् दिल्ली में १५ सितम्बर १६७४ को प्रदत्त भाषण से ।
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अनिर्वचनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति
- मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी
'अध्यात्मप्रधान अनेक पुस्तकों के लेखक तत्त्वचिन्तक तथा ओजस्वी प्रवचनकार )
अनुभव : जीवनमुक्ति का अरुणोदय
उपर्युक्त कथन में
निज अनुभव लवलेश से, कठिन कर्म हो नाश । अल्पभव में भवि लहे, अविचलपुर का वास ॥11 यह बात प्रकट होती है कि स्व-स्वरूप का 'अनुभव' परम्परा को अत्यन्त लघु कर देता है । अनुभव में ऐसा क्या जादू है कि उसे प्राप्त अल्पभव में ही मुक्ति प्राप्त कर ले ? इसका रहस्य यह है कि 'अनुभव' द्वारा एक प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है । निज की यह अनुभूति व्यक्ति की जीवनदृष्टि में एक जबर्दस्त क्रान्ति लाती है । श्रुत - श्रवण, वाचन आदि के द्वारा प्राप्त हुआ बौद्धिक स्तर का ज्ञान ऐसी आमूलचूल क्रान्ति का सर्जन नहीं कर सकता ।
भव-भ्रमण की दीर्घ करने वाला व्यक्ति पल में आत्मा का
मोहनाश का अमोघ उपाय
श्रत द्वारा स्वरूप का बोध होने से एवं उससे चित्त भावित होने से, क्रमशः मोह की पकड़ ढीली होती जाती है, और विषय - कषाय के आवेग कुछ शिथिल हो जाते हैं । किन्तु विषयों का रस-विषयों में अनादि से रही सुख-भ्रान्ति - केवल श्रुत से नहीं टलती', यह भ्रान्ति 'अनुभव' से मिटती है । अनुभव द्वारा निज के निरुपाधिक आनन्द का आस्वादन मिलने पर विषयेन्द्रियों के भोग वास्तव में ही नीरस
१. चिदानन्द जी महाराज, स्वरोदय ज्ञान, दोहा-५३ ।
२. उपाध्याय यशोविजय जी, अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, श्लोक-४ |
( ३८ )
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लगते हैं। इतना ही नहीं, सर्व पुद्गल खेल इन्द्रजाल के समान लगने लगते हैं। इससे आत्मज्ञानी के लिए जगत की घटनाओं का महत्त्व स्वप्न की घटनाओं से कुछ भी अधिक नहीं रहता, अर्थात् 'अनुभव' जीवनविषयक समग्र दृष्टिकोण ही बदल देता है।
बौद्धिक प्रतीति विचार-विमर्श से पैदा होती है, किन्तु विचार स्वयं ही अविद्या पर निर्भर है। अतः आत्मस्वरूप की निर्धान्त प्रतीति विचार-विमर्श के द्वारा प्राप्त नहीं होती, यह प्रतीति विचार शान्त होने पर ही मिलती है। मन की उपशान्त अवस्था अथवा उसका नाश यह उन्मनी अवस्था है। इस अवस्था में 'अनुभव' मिलता है। इसलिए आत्मज्ञान की-अनुभव की प्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को चाहिए कि वह प्रथम चंचल चित्त को अपनी इच्छानुसार प्रवर्तन करने की सामर्थ्य प्राप्त करे, और फिर एकाग्र बने इस चित्त को आत्मविचार में लगाकर उसका नाश करे । मोहनाश का यह अमोघ उपाय है। अनुभव क्या है ? चिदानन्द जी महाराज ने 'अनुभव' का परिचय देते हुए कहा है
आपोआप विचारते, मन पाये विश्राम । रसास्वाद सुख ऊपजे, अनुभव ताको नाम ।। आतम अनुभव तीर से, मिटे मोह अंधार ।
आपरूप में झलझले, नहिं तस अन्त अपार ।' सिद्ध परमात्मा या श्री जिनेश्वरदेव के अथवा अपने ही शुद्ध स्वरूप का चिन्तन-मनन और ध्यान करते किसी धन्य क्षण में आत्मा शान्त हो जाता है एवं ध्याता, ध्येय के साथ तदाकार वन शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होकर, स्वयं के यथार्थ स्वरूप का एवं निजी अन्तरंग ऐश्वर्य का 'दर्शन' प्राप्त करता है । खुद के अलौकिक, शाश्वत आनन्दस्वरूप की इस अनुभूति से मोह अन्धकार के नष्ट हो जाने से ध्याता को तत्काल आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । इस अपूर्व घटना को शास्त्रीय परिभाषा में 'आत्मज्ञान' अथवा 'अनुभव' की संज्ञा दी गई है।
१. (क) योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-६६ ।
(ख) अध्यात्म सार, ध्यानस्तुत्यधिकार, श्लोक-२ । २. (क) समाभि शतक, दोहा-४।
(ख) अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, श्लोक-६ । ३. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २३, श्लोक–६ । ४. (क) अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, श्लोक-२४ ।
(ख) योगशास्त्र ‘सटीक' प्रकाश-~~-१२, श्लोक-३६ । ५. योगशास्त्र, प्रकाश -१२, श्लोक-५, टीका । ६. (क) अध्यात्मसार, अनुभवाधिकार, श्लोक १७-१६ ।
(ख) योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक--४० । ७. अध्यात्म वावनी।
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अनिवर्चनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति : मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी
सूर्योदय से जिस प्रकार अरुणोदय प्रकट होकर रात्रि के अन्धकार को हटा देता है, उसी प्रकार केवल-ज्ञान के सूर्य का उदय हो, उससे पहले अनुभव रूपी अरुणोदय आकर मोह के अन्धकार को हटा देता है । सबेरे प्रकाश आकर पूरी रात की प्रगाढ़ निद्रा अथवा स्वप्नमाला का एक क्षण में अन्त कर देता है, उसी प्रकार अनुभव का आगमन देह एवं कर्मकृत व्यक्तित्व से अनादि के अपने तादात्म्य को एक ही पल में चीर डालता है । यह देह और इसमें बसने वाला 'मैं'ये दोनों एक ही आकाश प्रदेश के वासी होने के कारण सामान्य रूप से एक ही महसूस होते हैं, किन्तु वास्तव में दोनों हैं बिल्कुल अलगअलग । अनुभव के प्रकाश में यह हकीकत, मात्र बौद्धिक समझ न रहकर जीवन्त सत्य बन जाती है। पहने हुए कपड़े स्वयं से अलग हैं, यह भान प्रत्येक मनुष्य को जितना स्पष्ट है, उतनी स्पष्टता से आत्मानुभवयुक्त देह को स्वयं से अलग अनुभव करता है ।
जिनको अपरोक्ष अनुभव नहीं हुआ, अथवा इसकी झलक भी प्राप्त नहीं हुई, उनको स्वानुभूति की दशा वाणी द्वारा समझाना मुश्किल है। जन्मान्ध को रंगों के भेद वाणी द्वारा कैसे समझाए जा सकते हैं ? जिन्होंने कभी घी अथवा मक्खन चखा तक नहीं, उन्हें घी अथवा मक्खन का स्वाद वाणी द्वारा किस तरह बताया जाए ? अनुभव की अवस्था की जानकारी देने का प्रयास करते हुए अनुभवियों को यही उलझन रहती है। जो स्थिति भाषा से परे हैं, उसे वाणी द्वारा किस प्रकार व्यक्त करना ? अतः अनुभवविषयक कोई भी निरूपण अधूरा लगना स्वाभाविक है। फिर भी इससे अनुभव अवस्था का जरा-सा भी ख्याल जिज्ञासुजन पा रहे हों तो इससे अच्छा और क्या ?
ज्ञानियों ने अनुभव को 'तुरीय', अर्थात् चौथी अवस्था कहा है । नींद एवं जागृति, इन दो अवस्थाओं से हम सब परिचित हैं। जागृत अवस्था में हमारा मन एवं इन्द्रियां बाहरी जगत के साथ के सम्बन्ध में रहकर हमें उसका ज्ञान कराती हैं। नींद में बाह्य जगत का सम्पर्क छूट जाता है। इन्द्रियाँ एवं मन अपना काम बन्द कर आराम करते हैं एवं हम शून्यता में खोये हुए रहते हैं। कितनी ही बार शून्यता में खो जाने के बजाय, हम स्वप्न देखते हैं, यह इस बात का द्योतक है कि मन की प्रवृत्ति सर्वथा रुकी नहीं। स्वप्नावस्था में इन्द्रियाँ बाह्य जगत् को ग्रहण नहीं करतीं, शरीर निश्चेष्ट पड़ा होता है, परन्तु मन गतिशील रहता है । इस प्रकार अपने परिचय की तीन अवस्थाएँ हुई—जागृत, गहरी नींद एवं स्वप्न । अनुभव की चौथी अवस्था इन तीनों से भिन्न है, इसका अपना अनोखा व्यक्तित्व है । गहरी नींद में बाह्य जगत भुला जाता है। उसके साथ ही जागृति भी चली जाती है, जबकि तुरीय के इस अनुभव के समय, बाह्य जगत् का भान न होते हुए भी, सावधानी-जागृति पूर्ण होती है और स्वयं की आनन्दपूर्ण अस्तित्व-सत्ता प्रबलता से अनुभव में आती है ।1 एक सन्त इस अवस्था का परिचय इस प्रकार देते हैं
"जागृति में भी प्रगाढ़ निद्रा, अर्थात् इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार-सभी निद्राधीन हैं एवं देह में परमेश्वर जागता है।"
१. (क) योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-४७-४६ ।
(ख) उपाध्याय यशोविजय जी कृत अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, शुद्धि० श्लोक-२४-२५ ।
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जब यह अनुभव आता है, तब अकस्मात् आता है । अचानक ही चित्त विचार-तरंगों से रहित होकर शान्त हो जाता है, देह का भान जाता रहता है एवं आत्मप्रकाश झिल मिलाने लगता है । मेघों से आच्छादित अँधेरी रात में जैसे अनजाने मार्ग पर खड़े पथिक को अचानक दमकती बिजली की कौंध में अपने आस-पास का दृश्य दिखाई दे जाता है। उसी प्रकार, इस अनुभव से साधक को एक पल में ही आत्मा के निश्चय शुद्धस्वरूप का 'दर्शन' हो जाता है, अपने अकल, अबद्ध, शाश्वत, शुद्धस्वरूप का अनुभव होता है-इसकी प्रतीति मिलती है। श्रत की तरह यहाँ क्रमशः ज्ञान की अभिवद्धि नहीं होती, किन्त क्षणभर में ही पूर्व के अज्ञान का स्थान आत्मा का निर्धान्त ज्ञान ले लेता है । वर्षों के शास्त्र अध्ययन से प्राप्त हो, उससे अधिक स्पष्ट, निश्चित एवं सूक्ष्म ज्ञान उन अल्प क्षणों में प्राप्त हो जाता है।
यह अनुभव अत्यन्त सुखकर होता है। उस समय वचनातीत शान्ति मिलती है, किन्तु अकेली शान्ति अथवा आनन्द के अनुभव को ही स्वानुभूति का लक्षण नहीं कहा जा सकता । चित्त थोड़ा भी स्थिर हुआ कि शान्ति एवं आनन्द का अनुभव तो होगा, किन्तु यहाँ ज्ञाता एवं ज्ञय का भेद नहीं रहता, और ध्याता ध्येय के साथ एकाकार बना रहता है, परमात्मतत्त्व के साथ ऐक्य का अनुभव रहता है, आनन्द वचनातीत होता है, विद्यत की कौंध की भाँति एकाएक ज्ञानप्रकाश प्रवाहित हो उठता है, एवं साधक को अपने समक्ष विश्व का रहस्य खुल गया-सा प्रतीत होता है एव उसे यह ज्ञान, विश्वास तथा निश्चय हो जाता है कि भविष्य अन्धकारमय नहीं, किन्तु उज्ज्वल है। इस विश्वास के साथ मृत्यु का भय ही विनष्ट हो जाता है । मृत्यु से परे स्वयं का शाश्वत अस्तित्व है, इसकी उसे अंचल प्रतीति मिलती है एवं उसके अन्तर् में समस्त विश्व का आलिंगन करने वाला प्रेम उमड़ पड़ता है । ये है अपरोक्षानुभूति के समय के कुछ विशेष अनुभव ।
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के शब्दों में कहा जाय तो
"इस दर्शन-साक्षात्कार के साथ निरवधि आनन्द आता है, बुद्धि की पहुँच के परे का ज्ञान उपलब्ध हो जाता है, स्वयं जीवन से भी तीव्रतर संवेदन होता है, एवं अपार शान्ति तथा आनन्द का अनुभव होता है "इस शाश्वत तेज के स्मरण का स्थायी असर रह जाता है, एवं ऐसा अनुभव फिर से प्राप्त करने को मन छटपटाता है।" स्वानुभूति की अभिव्यक्ति
यहाँ यह याद रहे कि शब्द द्वारा अनुभव के विषय में हम जो कुछ जान सकते हैं, वह अनुभव का अपने मन से बनाया गया चित्र है । अनुभव के समय ज्ञाता-ज्ञेय का भेद करने वाला मन सोया हुआ रहता है, एवं आत्मा ज्ञय के साथ तदाकार रहती है। बाद में मन जागृत होता है, तब अनुभव के समय जो हुआ, उसको याद करने का वह प्रयास करता है, जिसमें वह कठिनता से ही सफल होता है।
जागृत होने के बाद चित्त अनुभव को स्मरण करे एवं उसका वर्णन दूसरों के सामने प्रस्तुत करे, उसमें
१. डॉ० राधाकृष्णन 'धर्मोनु मिलन,' पृ० २६७ (भारतीय विद्या भवन, बम्बई-७)
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अनिवर्चनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति : मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी (१) अनुभव करने वाले व्यक्ति की अनुभव की घटना से पहले की मानसिक रचना । (२) उसके आस-पास की परिस्थिति-देशकाल ।
(३) अपने अनुभव की बात वह जिनके समक्ष व्यक्त कर रहा हो, उस जन-समूह की मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक भूमिका।
(४) उस व्यक्ति की स्वयं की अभिव्यक्ति की क्षमता (expression power)।
इन सबकी--चारों की छाप, इस वर्णन में आये बिना नहीं रहती। अतः मन द्वारा वाणी में अनुभव का जो चित्र अंकित किया जाता है, वह कोई रम्य नैसर्गिक दृश्य का मात्र दो-चार रेखाओं से अंकित 'स्केच' जैसा भी मुश्किल से ही हो सकता है ।
जिन्होंने इस दशा का अनुभव किया है, वे सभी यही कहते हैं कि उसे वे वाणी द्वारा व्यक्त करने में स्वयं असमर्थ हैं । अतः इस अपरोक्षानुभव को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसका स्वयं अनुभव लेना ही आवश्यक है, शब्द तो इसका संकेत मात्र ही कर सकते हैं। फिर भी, जैसे अंगुली से वृक्ष की डाली की ओर संकेत कर दूज का चन्द्रमा बताया जाता है, उसी प्रकार, शब्द का संकेत करके आत्मानुभव की ओर श्रोताओं की दृष्टि ले जाने का प्रयास होता रहता है।
बहधा ऐसे संकेत सूत्रात्मक शैली से पद्य में- काव्य में हुए हैं। अभिव्यक्ति से परे की इन अनुभूतियों को गणित के समीकरण या भौतिक विज्ञान के नियमों की तरह स्पष्ट शब्दों के दायरे में बाँधा नहीं जा सकता, काव्य का प्रवाही माध्यम ही, आध्यात्मिक अनुभूति ही अभिव्यक्ति के लिए अधिक रहता है । अतः साधकों तथा अनुभवियों ने भजनों एवं पदों में, ऐसे ही अन्य काव्य-प्रकारों में अपनी अनुभूति के कुछ संकेत दिये हैं। कई महान कवियों ने भी अपनी उत्तम काव्यकृतियों में इस अनुभूति के संकेत दिये हैं। फिर भी, काव्यमय भाषा में अक्षरांकित इन त्रुटक संकेतों में से अनुभव की मूल काया का पूर्ण चित्र उपस्थित करना कठिन होता है । अतः पद्यों में दिये हुए इन संकेतों से सामान्य जन अनुभव के समय की-साधक की आन्तरिक स्थिति का स्पष्ट बोध प्राप्त नहीं कर पाता।
अनुभव क्या है, इसकी कुछ स्पष्ट कल्पना जिज्ञासु पाठक कर सके, इसके लिए अनुभव-प्राप्त दो-तीन महानुभावों के उद्गार उन्हीं के गद्य-शब्दों में यहाँ दिये जा रहे हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये महानुभाव पिछले सौ वर्षों में हमारे बीच रहे हुए व्यक्तियों में से हैं।
योगियों के अनुभव-कथन में संभव है कि बुद्धिवादी पाठकों को मात्र अतिशयोक्ति या उमिलता का आवेग ही दिखाई दे, इसलिए पहले एक बुद्धिजीवी-अमेरिकन डाक्टर का अनुभव, उसके स्वयं के ही शब्दों में आपके सामने प्रस्तुत है। 'अमेरिकन मैडिको साइकॉलॉजिक ऐसोसियेशन' के तथा 'ब्रिटिश मेडिकल ऐसोसियेशन' के साइकॉलॉजिकल विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डा० रिचार्ड मोरिस बक, एम० डी० स्वयं का अनुभव बताते हुए लिखते हैं
"अकस्मात् बिना किसी पूर्व सूचना के अग्नि की लपटों-जैसे रंग के बादलों से उसने अपने आपको घिरे हुए देखा-उसके मन में एक क्षण के लिए विचार चमक गया आग का-बड़े शहर में अचानक प्रगटे हुए किसी दावानल का। दूसरे ही क्षण, उसे लगा कि प्रकाश तो उसके अन्दर ही था।
१. इस आलेखन में डा० बक ने स्वयं का उल्लेख अन्य पुरुष के सर्वनाम से किया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है
कि उस समय वे व्यक्तित्व भावना से कितने ऊपर उठे हुए थे।
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इसके बाद तुरन्त ही वह परमानन्द में डूब गया। अमर्याद आनन्द। इसके साथ या इसके पीछे जो बौद्धिक ज्ञानप्रकाश उभरा, उसे वाणी में किस प्रकार से व्यक्त किया जाए, इसका वर्णन करना अशक्य है। उसके दिमाग में ब्राह्मी ऐश्वर्य की एक विद्य तरेखा-सी प्रस्तुत हो गई, जिसका प्रकाश इसके बाद उसके सारे जीवन को आलोकित करता रहा । उसके हृदय पर ब्रह्मामृत की एक बूंद गिरी, जो मुक्तिसुख का आस्वाद सदा के लिए छोड़ गई ।''1
_इस अनुभव के बाद डा० बक ऐस अनुभव से भलीभांति परिचित एक ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आये, जिनके साथ की बातचीत ने, उन्हें स्वयं को जो अनुभव हुआ था, उसके रहस्य पर अत्यन्त प्रकाश डाला। इसके बाद उन्होंने इस विषय में संशोधन करके एक ग्रन्थ की रचना की, जिसका नाम है'Cosmic Con ciousness'--'विश्वचेतना' । स्वयं के उपर्युक्त विषय के अनुभव में इस ग्रन्थ में विशेष विवरण देते हुए वे लिखते हैं
___..."उसका यह दावा है कि इस अनुभव से पूर्व महीनों अथवा वर्षों के अभ्यास द्वारा जितना ज्ञान उसको मिला होगा, उसके बनिस्बत अधिक ज्ञान उसको इस अनुभव के थोड़े-से ही क्षणों में मिल गया-कुछ ऐसा ज्ञान, जो चाहे जितने अभ्यास के द्वारा प्राप्त होना संभव न था। यह प्रचण्ड ज्ञानप्रकाश थोड़े ही क्षणों तक रहा, किन्तु उसका असर स्थायी रहा । उन क्षणों में उसने जो देखा एवं जाना, उसे वह कभी भी भूल नहीं सकता। इसी प्रकार उस समय उसके चित्त के समक्ष जो प्रगट हुआ, उसमें उसने कभी शंका नहीं उठाई-शंका उठ ही नहीं सकती।'
दक्षिण भारत के विश्व-विख्यात सन्त श्री रमण महर्षि को इस जीवन के किसी भी प्रयत्न अथवा साधना के बिना, अचानक ही आत्मानुभूति प्राप्त हुई थी। हाईस्कूल के अन्तिम वर्ष में वे अभ्यास कर रहे थे । उस समय मात्र सत्रह वर्ष की आयु में, एक दिन अचानक उनको यह असाधारण अनुभूति हई । शरीर पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी, एक दिन सहसा मृत्यु के भय ने उनको घेर लिया । किसी बाहरी निमित्त के बिना ही उन्हें ऐसी प्रतीति हुई, मानो मृत्यु ने अपना पंजा उनकी ओर फैला दिया है। शरीर को शव की भाँति निश्चेष्ट बनाकर वे सो गये-मानो शरीर निष्प्राण हो गया हो, ऐसा उन्होंने अभिनय किया। किन्तु शरीर की स्थिति शव-जैसी होते हुए भी, भीतर 'मैं' का भान तो पूर्ववत् ही चालू रहा, इससे उन्होंने मन-ही-मन प्रश्न किया---'मैं' कौन ? और आवरण हट गया । उस समय की अपनी अनुभूति का ब्यौरा उन्होंने स्वयं इस प्रकार दिया है---
"मदुरा से सदा के लिए रवाना होने से पहले लगभग छह सप्ताह पूर्व मेरे जीवन में यह महान परिवर्तन आया । मेरे चाचा के मकान पर पहली मंजिल पर कमरे में मैं अकेला बैठा हुआ था। मुझे कभी कोई बीमारी नहीं हई थी, एवं उस दिन भी मेरा स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक था। किन्तु एकाएक मृत्यु के भीषण भय ने मुझे घेर लिया। मृत्यु के भय के आघात के कारण मैं अन्तर्मुख हुआ एवं मेरे मन में अनायास ही विचार उभरने लगे, 'अब मृत्यु आ पहुँची है । इसका अर्थ क्या ? मृत्यु किस की ? यह शरीर
१. Proceedings and Transactions of the Royal Society of Canada Series II, Vol. 12, pp.
159-196. २. Dr. Richard Mau.ice Bucke, M. D., Cosmic Consciousness, p. 10 (E. P. Dutton and
Co., Newyork.)
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अब नहीं रहेगा' एवं मैंने एकाएक मृत्यु का अभिनय करना शुरू किया। मेरे अंगों को स्थिर रखकर मैं भूमि पर लेट गया । श्वास को मैंने रोक लिया और अपने ओंठ कसकर बन्द कर लिये, ताकि मैं कोई भी आवाज अपने मुख से न निकाल सकू । शव का मैंने हूबहू अनुकरण किया, जिससे इस खोज के अन्तस्तल तक मैं पहुँच सकू । इसके बाद मैं स्वयं विचारने लगा कि 'मेरा यह शरीर मृत है, लोग इसे उठाकर श्मशान-घाट ले जाएंगे और इसे जला देंगे, तब यह राख हो जाएगा। किन्तु क्या इस शरीर की मृत्यु से मेरी मृत्यु हो जाएगी ? क्या मैं शरीर हूँ ? मेरा शरीर मौन और जड़ पड़ा है, किन्तु मैं मेरे व्यक्तित्व को पूर्णरूप से अनुभव कर रहा हूँ और मेरे भीतर उठती 'मैं' की आवाज को भी मैं अनुभव कर रहा हूँ। अर्थात् मैं शरीर से परे आत्मा हूँ। शरीर की मृत्यु हो जाती है, किन्तु आत्मा को मृत्यु स्पर्श तक भी नहीं कर सकती, अर्थात् 'मैं' अमर आत्मा हूँ।' यह कोई शुष्क विचार-प्रक्रिया नहीं थी, जीवित सत्य की भाँति अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक ये विचार मेरे मन में बिजली की तरह कौंध गये । बिना किसी विचार के मुझे सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन हो गया। 'अहं' ही वास्तविक सत्ता थी, और शरीर से सम्बद्ध समस्त हलचल इस 'अहं' पर ही केन्द्रित थी। मृत्यु का भय सदा के लिए नष्ट हो चुका था। इसके आगे आत्मकेन्द्रित ध्यान अविच्छिन्न रूप से जारी रहा।
___ "इस नई चेतना के परिणाम मेरे जीवन में दृष्टिगोचर होने लगे। सर्वप्रथम मित्रों और सम्बन्धियों में रस लेना मैंने बन्द कर दिया । मैं मेरा अध्ययन यांत्रिक भाव से करने लगा। मेरे सम्बन्धियों को सन्तोष देने के लिए मैं पुस्तक खोलकर बैठ जाता, किन्तु वस्तुस्थिति यह थी कि मेरा मन पुस्तक में जरा भी नहीं लगता था । लोगों के साथ के व्यवहार में मैं अत्यन्त विनम्र एवं शान्त बन गया। पहले अगर मुझे दूसरे लड़कों के बनिस्बत अधिक काम दिया जाता था तो मैं इसकी शिकायत किया करता था और अगर कोई लड़का मुझे परेशान करता तो मैं उसका बदला लेता । कोई लड़का मेरे साथ उच्छृङ्खल बरताव करने का अथवा मेरी मजाक उड़ाने का साहस नहीं करता था। अब सब कुछ बदल चुका था । मझे जो भी काम सौंपा जाता, मैं उसे खुशी से करता। मुझे चाहे जितना परेशान किया जाता, मैं उसे शान्ति से सहन कर लेता। विक्षोभ एवं बदला लेने की वृत्ति वाले मेरे अहं का लोप हो चुका था । मित्रों के साथ बाहर खेलने जाना मैंने बन्द कर दिया और एकान्त पसन्द करने लगा। अधिकतर ध्यानावस्था में बैठ जाता और आत्मा में लीन हो जाता ।' मेरा बड़ा भाई मेरी मजाक उड़ाया करता था और व्यंग्य से 'साधु' अथवा 'योगी' कहकर मुझे बुलाता, एवं प्राचीन ऋषियों की तरह वन में चले जाने की सलाह दिया करता था। मुझमें दूसरा परिवर्तन यह हुआ कि भोजन के सम्बन्ध में मेरी कोई रुचिअरुचि नहीं रही। जो कुछ भी मेरे सम्मुख परोसा जाता-स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट, अच्छा या बुरामैं उसे उदासीन भाव से निगल जाता।
"एक और परिवर्तन मुझमें यह हुआ कि मीनाक्षी के मन्दिर के प्रति मेरी धारणा बदल गई। पहले मैं मन्दिर में कभी-कभी मित्रों के साथ मूर्तियों के दर्शन करने तथा मस्तक पर पवित्र विभूति एवं
१. इस घटना के करीब दो महीने बाद घर का त्याग करके वे अरुणाचल गये। वहां ध्यान में बाहर का कोई विक्षेप न रहे, इसलिए एकान्त स्थान ढूढ़ते हुए मन्दिर का एक तलघर उनकी नजरों में चढ़ा, उसमें घुसकर
बैठ गये । इस वीरान तलघर में जीव-जन्तुओं ने उनकी जंघाओं को काट खाया । उनमें जख्म हो गये, तथा उन से रक्त एवं पीव बहने लगे। यह होते हुए भी उन्हें इसका जरा-सा भी भान न हुआ। इससे यह प्रतीत होगा कि उस समय वे देहभावना से परे होकर आत्मा में कितने लीन रहते थे।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
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सिन्दूर लगाने के लिए जाया करता था और बिना किसी आध्यात्मिक प्रभाव के मैं घर वापस आ जाया करता था । किन्तु जागरण के बाद मैं प्रायः प्रतिदिन सन्ध्या के समय वहाँ जाने लगा। मैं मन्दिर में अकेला जाता और शिव, मीनाक्षी या नटराज एवं तिरसठ सन्तों की मूर्तियों के समक्ष अविचल भाव से खड़ा हो जाता । मेरे हृदय - सागर में भावना की लहरें उठने लगतीं "" ---प्रायः मैं किसी भी प्रकार की प्रार्थना नहीं करता था, किन्तु निज की अतल गहराइयों में विद्यमान अमृतप्रवाह को अनन्त सत्ता की ओर प्रवाहित होने देता। मेरी आँखों में से आँसुओं की अजस्र धारा बहने लगती और आत्मा को उसमें सराबोर कर देती ।
...... यह अनुभव मुझे प्राप्त हुआ, इसके पहले भव-भ्रमण से मुक्त होने की अथवा वासनाशून्य होने की कोई उत्कट इच्छा मुझमें नहीं उठी थी । मैंने ब्रह्म, संसार अथवा ऐसे किसी अन्य तत्त्व के विषय में कभी कुछ सुना नहीं था । बाद में तिरुवन्न- मलाई में जब मैंने विभु गीता और अन्य धार्मिक ग्रन्थ पढ़े, तब मुझे ज्ञात हुआ कि धार्मिक ग्रन्थों में उस अवस्था का विश्लेषण एवं नामोल्लेख है, जिसे मैं बिना किसी भी विशेषण या नाम के मुझ में स्फुरण रूप से अनुभव कर रहा था । " 1, 2
श्री रमण महर्षि के अनुभव की एक विलक्षणता यह थी कि उनका अनुभव क्षणिक नहीं था । सामान्य रूप से जब ऐसी अनुभूति मिलती है, तब साधक परमानन्द का अनुभव करता है, किन्तु यह आनन्द कुछ क्षण ही टिकता है। उन क्षणों के बाद वह पुनः सामान्य मनुष्य की भाँति संसार के द्वन्द्वों में उलझ जाता है, जबकि श्री रमण महर्षि ने बताया है कि इस अनुभव के बाद उन्हें आत्मा का अनुसन्धान निरन्तर रहने लगा था ।
ऐसा क्षणिक अनुभव मिलना भी कोई नगण्य प्राप्ति नहीं । इसका प्रभाव भी व्यक्ति के समग्र जीवन को छू जाता है । अनुभव प्राप्ति के समय की ध्येय साथ की तन्मयता, आनन्द, आश्चर्य, कृतकृत्यता तथा आत्मदर्शन द्वारा प्राप्त मोहविजय की खुमारी की कुछ झलक उपाध्याय श्री यशोविजय महाराज के निम्नलिखित उद्गारों में से पाठक प्राप्त कर पायेंगे
हम मगन भये प्रभु ध्यान में, ध्यान में प्रभु ध्यान में । बिसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरासुत गुण-गान ॥१॥ हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की रिद्धि, आवत नाहि कोई मान में । चिदानन्द की मौज मची है, समता - रस के पान में || २ || safer तू हि पिछाण्यो, मेरो जनम गयो सो अजान में ।
अब तो अधिकारी होई बैठे, प्रभुगुण अखय खजान में || ३ ||
. Arthur Osborne, 'Raman Maharshi And the Path of Self Knowledge., pp. 18-24 (Rider and Co. London and Jaico Publishing House, Mahatma Gandhiji Road, Bombay ). [हिन्दी अनुवाद : वेदराज वेदालंकार, 'रमण महर्षि एवं आत्मज्ञान का मार्ग', पृष्ठ ६-१२ (शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी अस्पताल रोड, आगरा ३ ) ]
२. श्री रमण महर्षि ने 'अपने' के स्थान पर 'मेरे' शब्द का प्रयोग किया है। उन्हीं के शब्द यहाँ दिये हैं, इसलिए परिवर्तन नहीं किया, जैसे- 'मेरे अंगों को स्थिर रखकर लेट गया' के स्थान पर 'अपने अंगों को स्थिर करके लेट गया' होना चाहिए ।
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अनिर्वचनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी
गई दीनता अब सबही हमारी, प्रभू ! तुझ समकित दान में । प्रभु गुण अनुभवरस के आगे, आवत नाहि कोउ मान में || ४ ||
कोउ के कान में । कोई शान में || ५ ||
जिनही पाया तिनहि छिपाया न कहे ताली लागे जब अनुभव की, तब समझे प्रभुगुण अनुभव चन्द्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । वाचक 'जश' कहे मोह महाअरि, जीत लियो है मैदान में ॥६॥
अनुभूति से आता हुआ मूल्यपरिवर्तन
बहुधा प्रारम्भिक अनुभव थोड़े ही पलों का होता है— मानों बिजली की कौंध की भाँति एक क्षण में परमात्मा के दर्शन होते हैं और उसी प्रकार वे अलोप हो जाते हैं । किन्तु ये थोड़े-से ही क्षण व्यक्ति की मानसिक वृत्ति में क्रांति ला देते है । 'अंशे होय इहां अविनाशी, पुद्गल जाल तमाशी' - इस उक्ति में उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज अनुभवयुक्त व्यक्ति का चित्र स्पष्ट रूप से उभारते हैं । किसी भयानक सपने में भयभीत बने सोये हुए व्यक्ति की मानसिक अवस्था एवं नींद खुल जाने पर भय रहित होकर स्वयं में हल्कापन अनुभव करते उस व्यक्ति की मानसिक अवस्था में जो अन्तर है, ठीक वही अन्तर अनुभव प्राप्त करने वाले व्यक्ति की, अनुभव के पूर्व की एवं अनुभव के बाद की मानसिक स्थिति में पड़ जाता है । नींद से जगे हुए व्यक्ति को यह ज्ञान हो जाता है कि स्वप्न की सृष्टि मात्र अपना मानसिक भ्रम था, यह होते ही उसके मन में स्वप्न की घटना का कोई महत्त्व नहीं रहता । इसी प्रकार आत्मा ज्ञान-आनन्दमय शाश्वत स्वरूप की स्वानुभवसिद्ध प्रतीति मिलते ही भव की भ्रांति मिट जाती है एवं बाह्य जगत स्वप्न के तमाशे जैसा ही निस्सार प्रतीत होता है ।
शक्ल अलग : 'बिर। दरी' एक
अनुभव में गहराई एवं स्थायित्व का तारतम्य होता है । " किसी का अनुभव गहरा एवं स्थायी होता है, तो किसी का क्षणजीवी होता है । आत्मानुभव मिलने के बाद किसी के बाह्य जीवन में जबर्दस्त परिवर्तन आता है, तो किसी का बाह्य जीवन पहले की तरह ही व्यतीत होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । अनुभव के बाद व्यक्ति के बाह्य जीवन में कोई परिवर्तन आये या न आये, किन्तु उसका आन्तरकलेवर अवश्य बदल जाता है; जीवन एवं जगत विषयक उसकी दृष्टि में तो जड़मूल परिवर्तन होता ही है, क्षणिक अनुभव भी व्यक्ति के मानस पर अपना प्रभाव अचूक छोड़ जाता है । अनुभव प्राप्त व्यक्ति अनुभव 'पूर्व की और उसके बाद की अपनी दृष्टि में इतना भारी फर्क अनुभव करता है कि उसने मानो नया ही जन्म लिया हो, ऐसा अनुभव करता है ।
यह नहीं कि अनुभव ध्यान के समय ही प्राप्त हो; हो सकता है कि कोई भव्य हृदयस्पर्शी काव्य, उच्च संगीत या ज्ञानियों के किसी वचन का मनन करते हुए चित्त स्तब्ध हो जाए, देह का भान जाता रहे एवं आत्मज्योति झिलमिला उठे। ऐसा भी होता है कि मनुष्य किसी भयानक विपत्ति में फँसा हुआ हो
१. योगशास्त्र, प्रकाश - १२, श्लोक १३ ।
इस प्रकार का एक प्रसिद्ध उदाहरण अरुणाचल, तिरुवन्नमलाई, तमिलनाडु (दक्षिण भारत ) के आत्मनिष्ठ संत श्री रमण महर्षि का है । यह असाधारण अनुभूति उन्हें अचानक ही कैसे मिली, यह वृत्तान्त आप पहले पढ चुके हैं।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
निराशा, विषाद एवं उदासीनता से वह बेतरह घिर गया हो-उस दरम्यान यह अनुभव अकस्मात् आये, एकाएक निराशा, विषाद, उदासीनता इत्यादि सभी हट जाएँ एवं वह अपनी परिस्थिति का निर्लेप साक्षी रह जाए। जन्मान्तर की साधनाओं के संस्कार जाग जाने पर, किसी को इस जीवन के कुछ भी प्रयत्न, बिना किसी पूर्व तैयारी अथवा बिना किसी बाह्य निमित्त के ही तत्त्वदर्शन की प्राप्ति हो जाती है । कई बार तो जिसका बाह्य जीवन पाप एवं अनाचार के पंकिल मार्ग में अग्रसर रहा हो, ऐसे व्यक्ति को भी, इस तरह एकाएक ही आत्मानुभव मिलता है एवं उसके जीवन की दिशा बदल जाती है, और भयंकर गुनहगार महान सन्त बन जाता है।
चाहे जिस प्रकार से अनुभव मिला हो, किन्तु सभी अनुभवियों की बिरादरी एक ही है। देश, काल एवं मानव द्वारा रचित जाति, रंग या मत-पंथों के बाह्य भेदों को बींध कर वे एक दूसरे की अनुभव को भाषा को पहचान लेते हैं । किसी उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए, तलहटियों से भिन्न-भिन्न मार्गों से जाने वाले यात्री; उदाहरणार्थ कदम्बगिरि की ओर से, घेटी की तलहटी की ओर से अथवा पालीताणा के पास की तलहटी से सिद्धगिरि पर चलने वाले-ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों वे एक दूसरे के करीब आते-जाते हैं, एवं शिखर पर पहुँचने पर तो सभी एक ही स्थल पर आकर मिल जाते हैं, ठीक वैसा ही आध्यात्मिक पथ पर भी होता है । जिन-जिन को आत्मतत्त्व का अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होता है, उनउन में एक मूलभूत साधर्म्य आ जाता है । अपनी तात्त्विक सत्ता देह एवं जगत से परे है और इस सत्ता में अवस्थित होना यही मुक्ति है-यह बात प्रत्येक 'अनुभवी' के अन्तर् मे बस जाती है । अतः परिभाषा के भेद को छोड़कर, वे एक-दूसरे के मन्तव्यों में रहा हुआ साम्य परख सकते हैं। इससे कोई अदृश्य तन्तु इनके बीच बन्धुभावना की गाँठ बाँध देता है । अपनी स्वायत्तसत्ता के अनुभव के परिणामस्वरूप जीवनदृष्टि का प्रभाव प्रायः उनके समग्र जीवन-व्यवहार पर पड़ता है। नये उन्नत आदर्शों के क्षितिज उनके समक्ष खुलते हैं । दृष्टि की विशालता एवं आशावादी जीवनदृष्टि अनुभवशील व्यक्ति का प्रमुख लक्षण बन जाता है। उनकी दृष्टि छिछली न रहकर तत्त्वग्राही बन जाती है, बाह्य प्रदर्शनों से भरमाती नहीं,
और न वह अंधानुकरण करती है । वह धर्म, नीति, देश-प्रेम, जीवन-पद्धति आदि किसी भी बात-विषयक प्रचलित मान्यताओं और व्यवहारों को अपनी विवेक-बुद्धि से कसकर देखती है। शास्त्रवचनों के रहस्य को भी वह शीघ्र ग्रहण कर पाती है । निरर्थक वाद-विवादों में उसे रस नहीं रहता । अतः अन्य लोग जहाँ उग्र चर्चाओं में उलझ जाते हैं, वहाँ वह शान्त रहता है।
आत्मज्ञान की उषा जैसे सूर्योदय से पहले रात्रि के अन्धकार की गहनता को चीरती हुई उषा आती है, वैसे ही आध्यात्मिक साधकों के जीवन में, अनुभव के आगमन से पहले बहिरात्म-भाव को मन्द करती हुई, आत्म ज्ञान की प्रभा फैलती है । इस झलमल प्रकाश में भी मुमुक्ष को स्वरूप का कुछ भान जरूर होता है, परन्तु जब अनुभव के द्वारा उसे स्वरूप की पक्की प्रतीति मिलती है, तभी उसकी बहिरात्मदृष्टि पूर्ण रूप से निराधार बनकर हटती है एवं अन्तर्दृष्टि खिल उठती है । कहा गया है
ज्ञानतणी चांदरणी प्रगटी तब गई कुमति रयणी रे । अकल अनुभव उद्योत हुओ जब सकल कला पिछाणी रे ॥
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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म-सिद्धान्त
-रत्नलाल जैन (जैन दर्शन-शोध छात्र)
(एम. ए., एम. एड.)
भारत भूमि दर्शनों की जन्म-भूमि है, पुण्यस्थली है । इस पुण्यभूमि पर न्याय, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसा, बौद्ध और जैन आदि अनेक दर्शनों का आविर्भाव हुआ। यहाँ के मनीषी दार्शनिकों ने आत्मा, परमात्मा, लोक और कर्म-पाप-पुण्य आदि महत्वपूर्ण तत्वों पर बड़ी गम्भीरता से चिन्तन-मनन और विवेचन किया है।
- जैनदर्शन में 'कर्म' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उस अर्थ में अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में भी इन शब्दों का प्रयोग किया गया है। माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि ।
'माया', 'अविद्या' और 'प्रकृति' शब्द वेदान्त दर्शन में उपलब्ध हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हआ है। "वासना" शब्द बौद्धदर्शन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है । "आशय' शब्द विशेषतः योग और सांख्य दर्शन में उपलब्ध है । "धर्माधर्म", "अदृष्ट" और "सस्कार" शब्द न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों में प्रचलित है। "दैव", "भाग्य", "पुण्य", "पाप" आदि अनेक ऐसे शब्द हैं जिनका साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया है । जैन और योग दर्शनों में कर्मवाद का विचित्र समन्वय मिलता है।
कर्म को जैन परिभाषा-प्रसिद्ध आचार्य देवेन्द्रसूरि कर्म की परिभाषा करते हुए लिखते हैं"जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है ।" पं० सुखलाल जी कहते हैं-"मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो कुछ किया जाता है, वही कर्म कहलाता है। जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्म योग्य पुद्गल-परमाणओं का आकर्षण होता है। आत्मा की राग-द्वेषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं।" जैन लक्षणावली में लिखा है-"अंजनचूर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान सूक्ष्म व स्थूल आदि अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण, लोक में जो कर्मरूप में परिणत होने योग्य नियत पुद्गल जीव-परिणाम के अनुसार बन्ध को
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन के घातक (ज्ञानावरण व दर्शनावरण तथा सुख-दुःख शुभ-अशुभ आयु, नाम, उच्च व नीच गोत्र और अन्तराय रूप) पुद्गलों को कर्म कहा जाता है ।
__पातंजल योग दर्शन में प.शिय-महर्षि पतंजलि लिखते हैं—“क्लेशमूलक कर्माशय--कर्म-संस्कारों का समुदय वर्तमान और भविष्य दोनों ही जन्मों में भोगा जाने वाला है।" कर्मों के संस्कारों की जड़अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश हैं । यह क्लेशमूलक कर्माशय जिस प्रकार इस जन्म में दुःख देता है, उसी प्रकार भविष्य में होने वाले जन्मों में भी दुःखदायक है । जब चित्त में क्लेशों के संस्कार जमे होते हैं, तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं । बिना रजोगुण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। इस रजोगुण का जब सत्व गुण के साथ मेल होता है, तब ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है। इस रजोगुण का जब तमोगुण से मेल होता है तब उसके उल्टे अज्ञान, अधर्म, अवैराग्य और अनैश्वर्य के कर्मों में प्रवृत्ति होती है । यही दोनों प्रकार के कर्म शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य या शुक्ल-कृष्ण कहलाते हैं ।
जैन दर्शन को आठ कर्म प्रकृतियाँ-जिस रूप में कर्म-परमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं. और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा जिन कर्मों से बद्ध जीव संसार भ्रमण करता है, वे आठ हैं .
१. ज्ञानावरणीय कर्म-यह कर्म जीव की अनन्त ज्ञान-शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। २. दर्शनावरणीय कर्म-यह कर्म जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति को प्रकट नहीं होने देता। ३. मोहनीय कर्म-यह कर्म आत्मा की वीतराग दशा/स्वरूपरमणता को रोकता है। ४. अन्तराय कर्म-यह कर्म अनन्तवीर्य को प्रकट नहीं होने देता। ५. वेदनीय कर्म-यह कर्म अव्याबाध सुख को रोकता है। ६. आयुष्य कर्म-यह कर्म शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता है। ७. नाम कर्म-यह कर्म अरूपी अवस्था नहीं होने देता।
८. गोत्र कर्म-यह कर्म अगुरु-लघुभाव को रोकता है। धाति और अधाति कर्म
घाति कर्म- जो कर्म आत्मा के साथ बँध कर उसके नैसर्गिक गुणों का घात करते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाति कर्म हैं।
___ अघाति कर्म-जो आत्मा के प्रधान गुणों को हानि नहीं पहुंचाते । वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र अघाति कर्म हैं। योग दर्शन के विपाक-जाति, आयु और भोग ।
जब तक क्लेश रूप जड़ विद्यमान रहती है, तब तक कर्माशय का विपाक अर्थात् फल जाति, आयु और भोग होता है।
क्लेश जड़ है। उन जड़ों से कर्माशय का वृक्ष बढ़ता है। उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग तीन प्रकार के फल लगते हैं । कर्माशय वृक्ष उसी समय तक फलता है, जब तक अविद्यादि क्लेशरूपी उसकी जड़ विद्यमान रहती है।
जैन दर्शन में अन्ध का स्वरूप-जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं । जीव अपनी वृत्तियों
खण्ड ४/७
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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन
से कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इन ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल और जीव-प्रदेशों का बन्धन -संयोग ही बन्ध है।
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं-जिन चैतन्य परिणाम से कर्म बँधता है, वह भावबन्ध है, तथा कर्म और आत्मा के प्रदेशों का प्रवेश, एक दूसरे में मिल जाना, एकक्षत्रावगाही हो जाना, द्रव्यबन्ध है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र सूरि लिखते हैं-"जीव कषाय के कारण कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यह बन्ध है । वह जीव को अस्वतन्त्रता का कारण है।" आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जीव और कर्म के इस संश्लेष को दूध और जल के उदाहरण से समझा जा सकता है। योग और कषाय-बन्ध के हेतु
दूसरे रूप में-“योग प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का हेतु है, और कषाय स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध का हेतु है।" इस प्रकार योग और कषाय-ये दो बन्ध के हेतु बनते हैं । तीसरी दृष्टि से"मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये बन्ध के हेतु हैं।" इन चार बन्धहेतुओं से सत्तावन भेद हो जाते हैं।
धर्मशास्त्र, आगम में प्रमाद को भी बन्ध हेतु कहा है । श्री उमास्वाति ने पाँच बन्ध हेतु माने हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
इस प्रकार जैनदर्शन में बन्ध-हेतुओं की संख्या पाँच आत्रवों के रूप में मान्य है।
समन्वय-कर्म-बन्ध के हेतुओं की दृष्टियों का समन्वय इस प्रकार किया गया है--"प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है। इसलिये वह अविरति या कषाय में आ जाता है । सूक्ष्मता से देखने से मिथ्यात्व और अविरति ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं इसलिए कषाय और योग-ये दो ही बन्ध के हेतु माने हैं।" कर्म-बन्ध के हेतु -पाँच आस्त्रव
पाँच आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्ध के हेतु हैं । जैन धर्म-शास्त्रोंआगमों में कर्म-बन्ध के दो हेतु कहे गये हैं.--१. राग और २. द्वष । राग और द्वष कर्म के बीज हैं। जो भी पाप कर्म हैं, वे राग और द्वष से अजित होते हैं । टीकाकार ने राग से माया और लोभ को ग्रहण किया है, और द्वेष से क्रोध और मान को ग्रहण किया है।
एक बार गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा “भगवन ! जीव कर्मप्रकृतियों का बन्ध कैसे करते हैं ?" भगवान् ने उत्तर दिया-“गौतम ! जीव दो स्थानों से कर्मों का बन्ध करते हैं-एक राग से और दूसरे द्वष से। राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है-क्रोध और मान ।”
क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों का संग्राहक शब्द कषाय है। इस प्रकार एक कषाय ही बन्ध का हेतु होता है।
योग दर्शन में बन्ध के मूल कारण–पाँच क्लेश-सब बन्धनों और दुःखों के मूल कारण पाँच क्लेश हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। ये पाँचों बाधनारूप पीड़ा को पैदा करते हैं। ये चित्त में विद्यमान रहते हुए संस्काररूप गुणों के परिणाम को दृढ़ करते हैं इसलिये इनको क्लेश के नाम से पुकारा जाता है।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
सांख्य दर्शन की भाषा में इन पाँचों-अविद्या को तमस, अस्मिता को मोह, राग को महामोह, द्वेष को तमिस्र और अभिनिवेश को अन्धतामिस्र के नामों में अभिहित किया गया है ।
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-"मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है, उससे अधिक कोई भयानक वस्तु नहीं। मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, उससे बढ़कर शरण देने वाली वस्तु इस संसार में नहीं है।"
भयंकर वस्तु में विश्वास करना और अभयदान करने वाली वस्तुओं से दूर भागना-यह उस समय होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, अविद्या और अज्ञान और मोह से व्यक्ति ग्रसित हो। मिथ्यात्व और अविद्या--
मिथ्यात्व-मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन; जो कि सम्यग्दर्शन से उलटा होता है। जो बात जैसी हो, उसे वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है।
मिथ्यात्व के दस रूप-मिथ्यात्व, विपरीत तत्व-श्रद्धा के दस रूप बनते हैं
१. अधर्म में धर्म संज्ञा। २. धर्म में अधर्म संज्ञा । ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा । ४. मार्ग में अमार्ग सज्ञा। ५. अजीव में जीव संज्ञा । ६. जीव में अजीव संज्ञा । ७. असाधु में साधु संज्ञा । ८. साधु में असाधु संज्ञा। ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा। १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा ।
अविद्या-जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उसका भान होना अविद्या का सामान्य लक्षण है। अविद्या के पाद-योग दर्शन के अनुसार पशु के तुल्य अविद्या के भी चार पाद हैं
१. अनित्य में नित्य का ज्ञान । २. अपवित्र में पवित्रता का ज्ञान । ३. दुःख में सुख का ज्ञान । ४ अनात्म (जड़) में आत्म का ज्ञान ।
अविरति-विरति का अभाव, व्रत या त्याग का अभाव, दोषों से विरति न होना । पौद्गलिक सुखों के लिये व्यक्त या अव्यक्त पिपासा ।
मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं१. अदस् मन (id), २. अहं मन (Ego), ३. अधिशास्ता मन (Super Ego)।
अदस् मन-इसमें आकांक्षाएँ पैदा होती हैं । जितनी प्रवृत्त्यात्मक आशा अकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं वे सभी इसी मन में पैदा होती हैं।
अहं मन-समाज व्यवस्था से जो नियन्त्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएँ यहाँ नियन्त्रित हो जाती हैं और वे कुछ परिमार्जित हो जाती हैं। उन पर अंकुश जैसा लग जाता है। अहं मन इच्छाओं को क्रियान्वित नहीं करता है।
अधिशास्ता मन-यह अहं पर भी अंकुश रखता है, और उसे नियन्त्रित करता है ।
अविरति अर्थात् छिपी हुई चाह, सुख-सुविधा को पाने की चाह और कष्ट को मिटाने की चाह । यह जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है-इसे कर्मशास्त्र की भाषा में अविरति आस्रव कहा है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में अदस् मन कहा गया है।
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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन
कषाय – राग और द्वेष
उमास्वाति कहते हैं-" कषाय भाव के कारण जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है ।"
आत्मा में राग या द्वेष भावों का उद्दीप्त होना ही कषाय है । राग और द्व ेष - दोनों कर्म के बीज हैं । जैसे दीपक अपनी ऊष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लो) के रूप में बदल लेता है, वैसे ही यह आत्मा रूपी दीपक अपने रागभावरूपी ऊष्मा के कारण क्रियाओं रूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणुओं रूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने कर्म शरीररूपी लौ में बदल देता है ।
राग-क्लेश - सुख भोगने की इच्छा राग है-जीव को जब कभी जिस-जिस किसी अनुकूल पदार्थ में सुख की प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तों में उसकी आसक्ति-प्रीति हो जाती है, उसी को राग कहते हैं । वाचकवर्य श्री उमास्वाति कहते हैं- इच्छा, मूर्च्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्द - प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग भाव के पर्यायवाची शब्द हैं ।
द्वेष-क्लेश - पातंजल योग-दर्शन में लिखा है कि दुःख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है, उसे द्वेष कहते हैं । जिन वस्तुओं अथवा साधनों से दुःख प्रतीत हो, उनसे जो घृणा या क्रोध हो, उनके जो संस्कार चित्त में पड़े हों उसे द्व ेष -- क्लेश कहते हैं ।
प्रशमरति में लिखा है- "ईर्ष्या, रोष, द्वेष, दोष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर, प्रचण्डन आदि शब्द द्वेषभाव के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रमाद, अस्मिता और अभिनिवेश का समावेश भी राग-द्वेष में हो जाता है।
चार कषाय के बावन नाम
कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । समवायांग - ५२ में चार कषाय रूप मोह के ५२ नाम कहे गए हैं - जिन में क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सत्रह, और लोभ के चौदह नाम बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं
क्रोध - १. क्रोध, २. कोप, ३. रोष, ४. दोष, ५. अक्षमा, ६. संज्वलन, ७. कलह, ८. चांडिक्य, ६. भंडण और १०. विवाद ।
मान - १. मान, २. मद, ३. दर्प, ४. स्तम्भ, ५. आत्मोत्कर्ष, ६. गर्व, ७. पर-परिवाद, ८. आक्रोश, C. अपकर्ष, १० उन्नत और ११. उन्नाम
माया - १. माया, २. उपाधि, ३. निकृति, ४. वलय, ५. ग्रहण, ६. न्यवम, ७. कल्क, ८. कुरूक, ६. दम्भ, १०. कूट, ११. वक्रता, १२. किल्विष, १३. अनादरता, १४. गूहनता, १५. वंचनता, १६. परिकुञ्चनता, १७. सातियोग |
लोभ - १. लोभ, २. इच्छा, ३. मूर्च्छा, ४. कांक्षा, ५. गृद्धि, ६. तृष्णा, ७. भिध्या, ८. अभिध्या, ६. कामाशा. १०. भोगाशा, ११. जीविताशा, १२. मरणाशा, १३. नन्दी और १४. राग ।
आस्रव और कर्माशय - आस्रव काय, वचन और मन की क्रिया योग है । वही कर्म का सम्बन्ध कराने वाला होने के कारण आस्रव कहलाता है ।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
कषाय सहित और रहित आत्मा का योग क्रमशः साम्परायिक और ईपिथ कर्म का बन्ध हेतु आस्रव होता है।
जिन जीवों में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों का उदय हो, वह कषाय सहित हैं ।
पहले से दसवें गुणस्थान तक के जीव न्यूनाधिक मात्रा में कषायसहित हैं और ग्यारहवें-आदि आगे के गुणस्थानों वाले जीव कषाय रहित हैं।
कर्माशय क्लेशमूल
पाँच क्लेश जिसकी जड़ है, ऐसी कर्म की वासना वर्तमान और भविष्य में होने वाले दोनों जन्मों में भोगा जाने के योग्य है। जिन महान योगियों ने क्लेशों को निर्बीज समाधि द्वारा उखाड़ दिया है, उनके कर्म निष्काम अर्थात् वासनारहित केवल कर्तव्य-मात्र रहते हैं, इसलिए उनको इसका फल भोग्य नहीं हैं । जब क्लेशों के संस्कार चित्त में जमे हों तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं।
शुभ-अशुभ आस्रव-पुण्य-पाप कर्म- शुभ योग पुण्य का बन्ध हेतु है और अशुभ योग पाप का बन्धहेत है। पूण्य का अर्थ है, जो आत्मा को पवित्र करे । अशुभ-पाप कर्मों से मलिन हुई आत्मा क्रमशः शुभ कर्मों का-पुण्य कर्मों का अर्जन करती हुई पवित्र होती है, स्वच्छ होती है ।
आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-"जिसके मोह-राग-द्व'ष होते हैं, उसके अशुभ परिणाम होते हैं। जिसके चित्त प्रसाद-निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होते हैं। जीव के शुभ परिणाम पण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप । शुभ-अशुभ परिणामों में से जीब के जो कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है, वह क्रमशः द्रव्य पुण्य-द्रव्य पाप है।
योग दर्शन के अनुसार "वे जन्म, आयु और भोग-सुख-दुःख फल के देने वाले होते हैं, क्योंकि उनके पुण्य कर्म और पापकर्म दोनों ही कारण हैं।"
आठ कर्मों में पुण्य-पाप-प्रकृतियाँ
प्रत्येक आत्मा में सत्तारूप से आठ गुण विद्यमान हैं१. अनन्त ज्ञान
५. आत्मिक सुख २. अनन्त दर्शन
६. अटल अवगाहन ३. क्षायिक सम्यक्त्व
७. अमूर्तिकत्व ४. अनन्तवीर्य
८. अगुरुलधुभाव कर्मावरण के कारण ये गुण प्रकट नहीं हो पाते । जीव द्वारा बाँधे जाने वाले आठ कर्म हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र-ये ही क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को प्रकट होने नहीं देते।
कर्मों की मूल प्रकृतियों, उत्तरप्रकृतियों में पुण्य पाप का विवेचन निम्न प्रकार मिलता
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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त : रत्नलाल जैन उत्तर प्रकृतियाँ
पाप प्रकृतियां पुण्य प्रकृतियाँ
عمر
मूल प्रकृतियाँ १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य
م له
१ (असाता)
१ (साता)
م ه
१ (नरक)
३ (देव, मनुष्य,
तिर्यन्च)
६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय
१ (नीच)
८ (उच्च) १ (उच्च)
ة م عر ا ه
९७
१५
पुण्य-शुभ कर्म है, किन्तु अकाम्य है, हेय है :--
योगीन्दु कहते हैं-- "पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पाप होता है, अतः हमें वह नहीं चाहिये ।" आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"अशुभ कर्म कुशील है-बुरा है और शुभ कर्म सुशील है - अच्छा है, ऐसा जगत् मानता है । परन्तु जो प्राणी को संसार में प्रवेश कराता है, वह शुभ कर्म सुशील, अच्छा कैसे हो सकता है ? जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है और सवर्ण की भी बाँधती है, उसी तरह शुभ और अशुभ कृत कर्म जीव को बाँधते हैं । अतः जीव ! तू दोनों कूशीलों से प्रीति अथवा संसर्ग मत कर । कुशील के साथ संसर्ग और राग से जीव की स्वाधीनता का विनाश होता है । जो जीव परमार्थ से दूर हैं, वे अज्ञान से पुण्य को अच्छा मानकर उसकी कामना करते हैं। पर पुण्य संसार गमन का हेतु है, अतः तू पुण्य कर्म में प्रीति मत कर।"
पुण्य काम्य नहीं है । पुण्य की कामना पर-समय है । योगीन्दु कहते हैं-"वे पुण्य किस काम के जो राज्य देकर जीव को दु.ख परम्परा की ओर धकेल दें। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाए-यह अच्छा है, किन्तु आत्मदर्शन की खोज से विमुख होकर पुण्य चाहे वह अच्छा नहीं है।"
____ सुखप्रद कर्माशय भी दुःख है-महर्षि पतंजलि लिखते हैं-"परिणाम-दुःख, पाप-दुःख और संस्कार-दुःख-ये तीन प्रकार के दुःख सब में विद्यमान रहने के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिये सब के सब कर्मफल दुःख रूप ही है ।" परिणामदुःख जो कर्म विपाक भोग काल में स्थूल दृष्टि से सुखद प्रतीत होता है, उसका परिणाम दुःख ही है। जैसे स्त्री प्रसंग के समय मनुष्य को सुख भासता है, परन्तु उसका परिणाम-बल, वीर्य, तेज, स्मृति आदि का ह्रास प्रत्यक्ष देखने में आता है । इसी प्रकार दूसरे भोगों में भी समझ लेना चाहिये ।
गीता में भी कहा है-"जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोग काल में अमृत के सदृश भासता है, परन्तु परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।" विवेकी पुरुष परिणाम-दुःख, ताप-दुःख, संस्कार-दुःख तथा गुणवृत्तियों के निरोध से होने वाले दुःख को विवेक के द्वारा समझता है । उसकी दृष्टि में सभी कर्म विपाक दुःख रूप है । साधारण जनसमुदाय जिन भोगों को सुखरूप समझता है विवेकी के लिये वे भी दुःख ही हैं। गीता में लिखा है-"इन्द्रियों
और विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले जितने भी भोग हैं, वे सब के सब दुःख के ही कारण हैं।" ज्ञानी कहते हैं--काम-भोग शल्यरूप हैं, विषरूप हैं, जहर के सदृश हैं।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
संवर--प्रास्त्रव का निरोध, योग-चित्त वृत्ति का निरोध
संवर-वाचक उमास्वाति लिखते हैं--"आस्रव-द्वार का निरोध करना संवर है।" आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- “जो शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन के लिये द्वार रूप है, वह आस्रव है, जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, वह संवर है।" ।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि का कथन है-“जो सर्व आस्रवों के निरोध का हेतु है, उसे संवर कहते हैं।"
"जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रूध देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्यों का प्रवेश नहीं होता।"
योग चित्तवृत्तियों का निरोध- महर्षि पतंजलि लिखते हैं---योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, “चित्त की वत्तियों का रोकना योग है ।" चित्त की वृत्तियाँ जो बाहर को जाती हैं, उन बहिर्मुख वृत्तियों को सांसारिक विषयों से हटाकर उससे उल्टा अर्थात् अन्तर्मुख करके अपने कारण चित्त में लीन कर देना योग है।
चित्त मानो अगाध परिपूर्ण सागर का जल है। जिस प्रकार वह पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील आदि के आन्तरिक तदाकार परिणाम को प्राप्त होता है, उसी प्रकार चित्त आन्तर-राग-द्वेष कामक्रोध, लोभ-मोह, भय आदि रूप आकार से परिणत होता रहता है तथा जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जलरूपी तरंग उठती हैं, इसी प्रकार चित्त इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उन जैसे आकारों में परिणत होता रहता है । ये सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं, जो अनन्त हैं और प्रतिक्षण उदय होती रहती हैं।
__ "वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं- क्लिष्ट अर्थात् राग-द्वषादि क्लेशों की हेतु और अक्लिष्ट अर्थात् राग-द्वषादि क्लेशों का नाश करने वाली ।" “पाँच प्रकार की वृत्तियाँ इस प्रकार हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ।" पाँच महाव्रत एवं पाँच सार्वभौम यम
जैनदर्शन में आत्मसाधना-आस्रवनिरोध के लिये पाँच महाव्रतों की पालना के लिये विधान है, इसी प्रकार योग-दर्शन में योग की साधना के लिये पाँच सार्वभौम यमों की प्रतिष्ठा की गई है। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से (मन, वचन और काय द्वारा) निवृत्त होना व्रत है। “अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं।"
मन से, वचन से और शरीर से (कर्म से) सभी प्राणियों की किसी प्रकार से (करना, कराना, अनुमोदन करना) हिंसा-कष्ट न पहुँचाना अहिंसा है । “भगवान महावीर ने कहा है-हे मानव ! तू दूसरे जीवों की आत्मा को भी अपनी ही आत्मा के समान समझकर हिंसा कार्य में प्रवृत्त न हो....."। हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार कर, वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है। जो हिंसा करता है उसका फल बाद में वैसा ही भोगना पड़ता है। अतः मनुष्य किसी भी प्रकार प्राणी की हिंसा करने की कामना न करे।"
इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महावतों, यमों की तीन करण व तीन योगमन, वचन और काय से पालना करनी चाहिए ।
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जैन दर्शन और योग दर्शन में कर्म-सिद्धान्त : रत्नलाल जैन
निर्जरा के बारह भेद, अष्टांग योग :
निर्जरा-तप-भगवान महावीर ने कहा है-जिस तरह जल आने के मार्ग को रोक देने पर बड़ा तालाब पानी के उलीचे जाने और सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रव-पाप कर्म . के प्रवेश मार्गों को रोक देने वाले संयमी पुरुष के करोड़ों जन्मों के संचित कर्म तप के द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं । निर्जरा तप के बारह (छह बहिरंग और छह आभ्यन्तर) अंग हैं१. अनशन
उपवास आदि तप २. ऊनोदरी
कम खाना, मिताहार ३. भिक्षाचरी
जीवन निर्वाह के साधनों का संयम ४. रस-परित्याग
सरस अहार का परित्याग ५. कायक्लेश
आसनादि क्रियाएँ ६. प्रतिसंलीनता
इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी करना ७. प्रायश्चित्त
पूर्वकृत दोष विशुद्ध करना ८. विनय--
नम्रता ६. वैयावृत्य
साधकों को सहयोग देना १०. स्वाध्याय
पठन-पाठन ११. ध्यान
चित्तवृत्तियों को स्थिर करना १२. व्युत्सर्ग
शरीर की प्रवृत्ति को रोकना। अष्टांग योग-महर्षि पतंजलि ने लिखा है- "योग के अंगों का अनुष्ठान करने से--आचरण करने से अशुद्धि का नाश होने पर ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक प्राप्त होता है।"
योग दर्शन में योग के आठ अंग माने गये हैं१. यम २. नियम ३. आसन ४. प्राणायाम ५. प्रत्याहार ६. धारणा ७. ध्यान ८. समाधि । यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पाँच यम हैं। नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान-ये पाँच नियम हैं। आसन-निश्चल-हलन-चलन से रहित सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है । प्राणायाम-श्वास और प्रश्वास की गति का नियमन प्राणायाम है।
प्रत्याहार-अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है।
धारणा-किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है। ध्यान-चित्त में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है।
समाधि-जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो जाता है, तब वही ध्यान समाधि हो जाता है। केवलज्ञान और विवेक जन्य ज्ञान और मोक्ष
केवलज्ञान-~-वाचक उमास्वाति लिखते हैं-"मोह कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
प्रतिबन्धक कर्म चार हैं, इन में से प्रथम मोहनीय कर्म क्षीण होता है, तदन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय-इन तीन कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त होने से पहले केवल उपयोग-सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का सम्पूर्ण बोध प्राप्त होता है । यही स्थिति सर्वज्ञत्व और सर्वदशित्व की है। विवेकजन्य तारक ज्ञान
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-"जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सब विषयों को, सब प्रकार से जानने वाला है, और बिना क्रम के जानने वाला है, वह विवेक जनित ज्ञान है।"
"बुद्धि और पुरुष-इन दोनों की जब समभाव से शुद्धि हो जाती है, तब कैवल्य होता है।"
इस प्रकार बन्धहेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना ही मोक्ष है।
पता-गली आर्य समाज
जैन धर्मशाला के पास हांसी (हिसार) १२५०३३
नाव रहेगी तो पानी में ही रहेगी । आप और हमको, जब तक मोक्ष नहीं होगा""मोक्ष की साधना संसार में रहकर ही करनी होगी । संसार इतना बुरा नहीं है। तीर्थंकर, सन्त, साधुपुरुष, सब इस संसार में ही तो जन्मे हैं । उन्होंने संसार में रहकर ही तो साधना की है। यहीं रहकर तीर्थंकर बने, सन्त बने, महापुरुष बने, ब्रह्मचारी बने, सदाचारी बने । सच तो यह है कि बाह्य संसार इतना बुरा नहीं है। अन्दर का संसार बुरा है । संसार बुरा नहीं है, संसार का भाव बुरा है । हम संसार में भले रहें, किन्तु संसार हमारे अन्दर नहीं रहना चाहिए । संसार का अन्दर रहना ही बुरा है। पाप का कारण है, कर्म-बन्धन का हेतु है। नाव पानी में रहती है, बैठने वाले को तिराती है, स्वयं भी तिरती है। जब तक नाव पानी के ऊपर बहती रहती है, तब तक बैठने वाले को कोई खतरा नहीं । नाव पानी में भले रहे, किन्तु पानी नाव में नहीं रहना चाहिए, नहीं भरना चाहिए। जब पानी नाव में भरना शुरू हो जाता है तब खतरा पैदा हो जाता है। नाव के डूबने का डर रहता है। मरने की स्थिति आ जाती है, क्योंकि नाव पानी से भारी हो गई है।
-आचार्य श्री जिनकान्तिसागर सूरि ('उठ जाग मुसाफिर भोर भई' पुस्तक से)
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खण्ड ४/८
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जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति
-- डॉ० नरेन्द्र भानावत
विद्वान लेखक, चिन्तक, कवि तथा शोध अधिकारी ( प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय )
शिक्षा का स्वरूप
जिसने राग-द्वेष आदि विकारों पर विजय प्राप्त कर, आत्म-शक्तियों का पूर्ण रूप से विकास कर, परमात्मस्वरूप प्राप्त कर लिया है, वह "जित" है । "जिन" के उपासक जैन हैं । इस दृष्टि से जैन शब्द जिसी कुल, वर्ण या जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति का परिचायक न होकर गुणवाचक शब्द है । आत्मविजय के पथ पर बढ़ने वाला साधक जैन कहाता है। इस परिप्रेक्ष्य में जैन शिक्षा वह शिक्षा है जो आत्म-विजय की ओर बढ़ने का मार्ग सिखाती है ।
शिक्षा का सामान्य अर्थ सीखना सिखाना है । मानव विकास का मूल साधन शिक्षा है। इसके द्वारा जन्म-जात शक्तियों का विकास कर, एक ओर लौकिक ज्ञान व कला-कौशल में वृद्धि कर आजीविका के साधन जुटाने में दक्षता प्राप्त की जाती है तो दूसरी ओर अपने व्यवहार में परिष्कार और परिवर्तन लाकर पाशविक वृत्तियों से ऊपर उठते हुए, सभ्य व सुसंस्कृत बन सच्ची मानवता की प्रतिष्ठा की जाती है । इस आधार पर शिक्षा के मुख्यतः दो रूप हमारे समक्ष उभरते हैं: :- १. जीवन निर्वाहकारी शिक्षा और २. जीवन-निर्माणकारी शिक्षा ।
जीवननिर्वाह के लिये आवश्यक साधन जुटाना और उनके प्रयोग में प्रावीण्य प्राप्त करना शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य होते हुए भी शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य सुषुप्त आत्म-शक्तियों को जागृत कर, आत्मा पर पड़े हुए समस्त विकारों को हटाकर, उसकी अनन्त शक्तियों का पूर्ण विकास करना है । सच्ची शिक्षा व्यक्ति को बन्धनों मुक्त कर उसमें ऐसी क्षमता और सामर्थ्य विकसित करती है कि वह दूसरों को बन्धन से मुक्त करने में सहायक बन सके । “सा विद्या या विमुक्तये" के मूल में यही उद्देश्य निहित है ।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने संन्यत्त होने से पूर्व असि, मसि, कृषि की शिक्षा देकर लोगों को आत्म-निर्भर और स्वावलम्बी बनाया। विविध प्रकार के कला-कौशल को जीवन में प्रतिष्ठापित किया पर उनका अन्तिम लक्ष्य आत्म-संयम के मार्ग पर बढ़कर सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होना ही रहा। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जीवन अधिक जटिल बनता गया और शिक्षा जीवन-निर्माण के मूल लक्ष्य से हटकर जीवन-निर्वाह के साधन जुटाने तक सीमित रह गई । आत्मानुशासन को सुदृढ़ बनाने की बजाय, बाहरी प्रशासन में सहयोग करने वाली मशीनरी तैयार करना मात्र उसका उद्देश्य रह गया। रचनात्मक शक्तियों के सिंचन एवं संवर्धन के बजाय, सूचनात्मक ज्ञान का संग्रह और संचयन उसका मुख्य लक्ष्य बन गया। वह जीवन जीने की कला से हटकर आजीविका के जंजाल में फंस गई। फलस्वरूप न तो वह बाह्य प्रकृति में सन्तुलन स्थापित करने में समर्थ हो पा रही है और न अन्तःप्रकृति के बिखरे सूत्रों को जोड़ सकी है।
शिक्षा के लिये अंग्रेजी में शब्द है- "Education" यह शब्द लेटिन भाषा के एज्यूकेटम (Educatum) से बना है। एज्यू केटम में दो शब्द हैं । ए (इ) तथा डूको (Duco) "ए" का अर्थ है अन्दर से और "डको" का अर्थ है आगे बढ़ना। इस प्रकार एज्यूकेशन का अर्थ हुआ-अन्दर से आगे बढ़ना । अन्दर से आगे बढ़ने की यह कला और शक्ति ही मनुष्य को पशु जगत् से ऊपर उठाती है। मनुष्य के बाहरी शरीर के बढ़ाव की एक सीमा है। उस सीमा के बाद मनुष्य का शारीरिक विकास रुक जाता है। पर मनुष्य के अन्दर से आगे बढ़ने की अनन्त सम्भावनाएँ हैं। इन सम्भावनाओं को पूर्ण करने का सामर्थ्य शिक्षा के द्वारा अजित किया जाता है। पर आज शिक्षा के बहिर्मुखी हो जाने से अन्तर्मखी विकास की प्रक्रिया रुक-सी गई है। जैन शिक्षा मनुष्य की अनन्त शान, दर्शन, चारित्र और बल के विकास की सम्भावनाओं को पूर्णता प्रदान करने पर जोर देती है।
ज्ञानसम्पन्न होना मानव जीवन की सार्थकता की पहली शर्त है । "उत्तराध्ययन सूत्र" के २६वें अध्ययन "सम्यक्त्व पराक्रम" में इन्द्रभूति गौतम स्वामी भगवान महावीर से पूछते हैं-भगवन् ! ज्ञान सम्पन्न होने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है ?
नाण सम्पन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयई ? उत्तर में भगवान महावीर फरमाते हैं-ज्ञान-सम्पन्न होने से जीवात्मा सब पदार्थों के यथार्थ भाव को जान सकती है और चतुर्गति रूप संसार-अटवी में भटकती नहीं :
नाणसम्पन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगम जणयइ ।
नाण संपन्ने ण जीवे चउरन्ते संसार कान्तारे न विणस्सइ ।। जैसे सूत्र (सूत-डोरा) सहित सूई गुम नहीं होती, उसी प्रकार सूत्र (आगम-ज्ञान-आत्म-ज्ञान) से युक्त ज्ञानी पुरुष संसार में भटकता नहीं।
जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सई ॥
--उत्तराध्ययन २६/५६ "स्थानांग" सूत्र के पांचवें स्थान में पाँच कारणों से श्रु त ज्ञान अर्थात् शास्त्र की शिक्षा आवश्यक बताई है-पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा तं जहा-नाणट्ठयाए, सणट्ठयाए, चारित्तट्ठयाए, पुग्गह विमोयणट्ठयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामी ति कट्टु । (४६८)
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जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति : डॉ० नरेन्द्र भानावत अर्थात् ज्ञान वृद्धि के लिये, दर्शन शुद्धि के लिये और पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिये संक्षेप में ज्ञान-दर्शन और चारित्र के मार्ग पर बढ़ते हुए एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करना शिक्षा का लक्ष्य है जो राग-द्वेष से मुक्त हो । “दशवैकालिक सूत्र" के वें अध्ययन में शास्त्रों के स्वाध्याय का लाभ बताते हुए कहा गया है कि शास्त्राध्ययन से सत्य का साक्षात्कार होता है, चंचल चित्त एकाग्र होता है, मन स्थिर होता है और स्वयं स्थिर होकर दूसरों के अस्थिर मन को स्थिर बनाने की योग्यता अजित होती है। शिक्षा की पद्धति
जैन शास्त्रों में शिक्षा के मुख्यतः दो प्रकार बताये गये हैं-१. ग्रहण शिक्षा २. आसेवना शिक्षा। ग्रहण शिक्षा में ज्ञान-संग्रह की प्रमुखता रहती है तो आसेवना शिक्षा में ग्रहण किये हुए ज्ञान को आचरण में लाने पर बल दिया जाता है। संक्षेप में सम्यक् शिक्षा विचार और आचार का समन्वय है। इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं की उपलब्धि के लिए "उत्तराध्ययन सूत्र" के ११वें अध्ययन में स्पष्ट कहा है
वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं ।
पियंकरे, पियंवाई से सिक्खं लद्ध मरिहई ।। १४ ।। अर्थात् जो सदा गुरुकुल में (गुरुजनों की सेवा में) रहता है, जो योग और उपधान (शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विशेष तप) में निरत है, जो प्रियकर है और प्रियभाषी है, वह शिक्षा प्राप्त करने के योग्य होता है।
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि शिक्षा के लिये गुरुसेवा में रहना आवश्यक माना गया है। गुरु ही शिष्य में उसकी सुषुप्त शक्तियों को विकसित करने की प्रेरणा फूंकता है। गुरु के चरित्र का शिक्षार्थी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। गुरु अध्ययन की कला सिखाकर उसे आत्मधर्म में स्थित करता है। ज्ञान निःशंक बनकर, चिन्तन-मनन की प्रक्रिया द्वारा अनुभवन में आए, इसके लिए स्वाध्याय पर बल दिया गया है। आज तो शिक्षा पद्धति में अध्ययन-कौशल का इतना विकास हो गया है कि उससे स्वाध्यायकला का निर्वासन सा हो गया है। बाह्य इन्द्रियों की क्षमता बढ़ने से रंग, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श आदि की पहचान और प्रतीति में विकास हुआ है, विश्व की घटनाओं में रुचि बढ़ी है और नित्य नवीन तथ्य जानने की जिज्ञासा जगी है पर इसके समानान्तर आत्म-चैतन्य को जानने की जिज्ञासा और उसकी शक्ति को प्रकट करने की क्षमता नहीं बढ़ी है। फलस्वरूप ज्ञान की आराधना आत्मा के लिये हितकारक, विश्व के लिये कल्याणकारी और वृत्ति-परिष्कारक नहीं बन पा रही है। ज्ञान के मंथन से अमृत के बजाय विष अधिक निकल रहा है। और उस विष को पचाने के लिये जिस शिव-शक्ति का उदय होना चाहिये, वह नहीं हो पा रही है।
इस अमृतमयी शिव-शक्ति का उदय स्वाध्याय के माध्यम से ही हो सकता है । स्वाध्याय के तीन अर्थ हैं-स्वस्य अध्ययनं-१. अपने आप का अध्ययन, २. स्वेन अध्ययनं-अपने द्वारा अपना अध्ययन, ३. सु+ आङ+अध्याय अर्थात् सद्ज्ञान का मर्यादापूर्वक अध्ययन ।
स्वाध्याय प्रक्रिया के पाँच स्तर-सोपान हैं । स्थानांग सूत्र के ५वें स्थान में कहा हैपंचविहे सज्झाए पण्णत्त तं जहा-वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा ।४६५। अर्थात् वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। सर्वप्रथम “वाचना" द्वारा अर्थात् पढ़कर सिद्धान्त के सत्य को जाना जाता है। फिर उसके
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
सम्बन्ध में रही हुई शंकाओं के लिए प्रश्न-प्रतिप्रश्न पूछकर ग्रहण किये हुए ज्ञान को शंकारहित बनाया जाता है । "वाचना" रीडिंग के समकक्ष है तो पृच्छना डिसकशन रूप है । 'परिवर्तना' में ग्रहण किये हुए ज्ञान को परिपुष्ट करने के लिये बार-बार उसकी आवृत्ति की जाती है, मनन किया जाता है, ज्ञान का परिग्रहण (रिकेपिच्यूलेशन) किया जाता है । 'अनुप्रेक्षा' में अनुभव के स्तर पर सिद्धान्त के सत्य को जाना जाता है । इसमें ग्रहण किए हुए ज्ञान का भावन अर्थात् पाचन होता है। यह रेट्रोस्पेक्शन के निकट है । 'धर्मकथा' में ज्ञान रस रूप में परिणत हो जाता है, विचार आचार में ढल जाता है। धर्म का अर्थ ही है-धारण करना (रिटेन्शन) इस प्रक्रिया में ज्ञान अलग से जानने की वस्तु नहीं रहता । वह धारणा का अंग बनकर चारित्र का रूप ले लेता है । इसी अर्थ में शिक्षा को चरित्र कहा है।
आज की शिक्षा पद्धति में स्वाध्याय का यह क्रम मात्र यांत्रिक बनकर रह गया है । वह भीतर की परतों को जोड़ नहीं पाता। अनुप्रेक्षा और धारणा का तत्व वर्तमान शिक्षा पद्धति से ओझल हो गया है। इसे प्रतिष्ठापित करने के लिये शिक्षा के साथ दीक्षा आवश्यक है । दीक्षान्त समारोह आयोजित करने के पीछे शायद यही लक्ष्य रहा है। पर अब तो दीक्षान्त समारोह भी समाप्तप्राय हैं। दीक्षान्त का अर्थ ही है--शिक्षा के अन्त में दीक्षा। दीक्षा का अर्थ है-दिशा का ज्ञान । और उस ज्ञान को प्राप्त कर उस दिशा में चलने की दक्षता का अर्जन । पर आज तो दिशा ही उलट गई है। यही कारण है कि ज्ञान के नाम पर साक्षरता प्रधान हो गई है । सरसता छूट गई है । केवल आँख से बाँचना, न मन की अनुप्रेक्षा है और न आत्मा की धर्मकथा है । इसीलिये सारी विद्या सरस्वती न बनकर राक्षसी बन गई है। कहा है
सरसो विपरीतश्चेत्, सरसत्वं न मुञ्चति ।
साक्षरा विपरीताश्चेत्, राक्षसा एव निश्चिताः ।। सरस्वती के “सरस' में व्यक्ति के मन को जोड़ने का अनूठा सामर्थ्य रहता है । उसमें कथनी और करनी की एकता रहती है। उसको उल्टा-सीधा कैसे ही पढ़ो, 'सरस' सरस ही बना रहता है। पर साक्षरा ज्ञान मानव मन को जोड़ता नहीं तोड़ता है, वह कथनी-करनी में भेद स्थापित करता है। इसीलिये “साक्षरा" उलटने पर 'राक्षसा' बन जाता है ।।
स्वाध्याय "स्व" में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया है । इसके लिये आवश्यक है कि स्वध्यायी पाँच अणुव्रतों-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करे । इन अणुव्रतों की पुष्टि के लिये ३ गुणवतों--दिशाव्रत, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत और अनर्थदण्ड विरमण व्रत (निष्प्रयोजन प्रवृत्ति का त्याग) की व्यवस्था की गई है और इन गुणवतों के पोषण के लिये चार शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है । ये शिक्षाव्रत हैं-सामायिक, देशावकासिक, पौषधोपवास एवं अतिथि संविभाग । चारों शिक्षाव्रत भोगवृत्ति पर नियन्त्रण स्थापित करते हुए आत्मविजय की प्रेरणा देते हैं। सामायिक व्रत अर्थात् पक्षपात रहित यथार्थ स्वरूप में रमण, सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश, जन्म-मरण में समताभाव, भोग के प्रति अनासक्ति । देशावकासिक व्रत अर्थात् व्यापक दिशाओं की भोगवृत्ति को सीमित कर उसे देश-काल की मर्यादा में बाँधने का नियम, कामनाओं पर नियन्त्रण । पौषधोपवास व्रत अर्थात् भोगवृत्ति से हटकर आत्मवृत्ति के निकट रहना, आत्म गुणों का पोषण करना। अतिथि संविभाग व्रत अर्थात् दूसरों के लिए अपने हिस्से की भोगसामग्री का त्याग करना, सेवा की ओर अग्रसर होना, सबको आत्मतुल्य समझना, उनके सुख-दुखों में भागीदार होना । इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहना इस बात का संकेत है कि शिक्षा का मूल लक्ष्य भोग से त्याग की ओर बढ़ते हुए अपने स्व को सर्व में विलीन कर देना है।
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जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति : डॉ० नरेन्द्र भानावत
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दैनिक कार्यक्रमों में छ: आवश्यक कार्य सम्पन्न करने पर बल दिया गया है। इन्हें आवश्यक कहा गया है। ये हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । सामायिक का मुख्य लक्ष्य आत्म-चिन्तन, आत्म-निरीक्षण है। बिना अहं का विसर्ज कए आत्म-चिन्तन की ओर प्रवृत्ति नहीं होती। अतः अहं को गालने के लिये, जो आत्मविजेता बन चके हैं ऐसे २४ तीर्थंकरों के गण-कीर्तन स्तवन और पंच परमेष्ठी अर्थात अरिहंत, सिद्ध, आचार्य. उपाध्याय और साधु की वन्दना करने का विधान किया गया है । "प्रतिक्रमण" में असावधानीवश हए दोषों का प्रायश्चित्त कर उनसे बचने का संकल्प किया जाता है । “कायोत्सर्ग" में देहातीत होने का अभ्यास किया जाता है । और “प्रत्याख्यान" में सम्पूर्ण दोषों के परित्याग का संकल्प लिया जाता है।
श्रमणों को “उत्तराध्ययन" सूत्र के २६वें अध्ययन की १८वीं गाथा में निर्देश दिया गया है कि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान अर्थात् अर्थ का चिन्तन, तीसरे में भिक्षाचरण और चौथे में पुनः स्वाध्याय किया जाय
पढम पोरिसि सज्झायं, वीयं झाणं झियायई ।
तइयाए भिक्खाचरियं पुणो, चउत्थी सज्झायं ।। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम पहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा और चौधे में पुनः स्वाध्याय करने का विधान है। इससे स्पष्ट है कि दिन-रात के आठ पहरों में चार पहर केवल स्वाध्याय के लिये नियत किये गये हैं ।
विधिपूर्वक श्रत की आराधना करने के लिये आठ आचार बताये गये हैं१. जिस शास्त्र का जो काल हो, उसको उसी समय पढ़ना कालाचार है । २. विनयपूर्वक गुरु की वन्दना कर पढ़ना विनयाचार है। ३. शास्त्र एवं ज्ञानदाता के प्रति बहुमान होना बहुमान आचार है । ४. तप, आयम्बिल आदि करके पढ़ना उपधान आचार है । ५. पढ़ाने वाले गुरु के नाम को नहीं छिपाना अनिवाचार है। ६. शब्दों ह्रस्व-दीर्ध का शुद्ध उच्चारण करना व्यंजनाचार है । ७. सम्यक् अर्थ की विचारणा अर्थाचार है ।
८. सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ना और समझना तदुभयाचार है । शिक्षक का स्वरूप
शिक्षक को गुरु कहा गया है । आचार्य और उपाध्याय प्रमुख गुरु हैं । आचार्य का मुख्य कार्य वाचना देना और आचार का पालन करना-करवाना है। उपाध्याय का मुख्य कार्य ज्ञानदान देना है। जो अध्ययन के स्व के निकट ले जाये, वह उपाध्याय है। सामान्य लौकिक शिक्षा पद्धति में भी आचार्य और उपाध्याय पद समादृत हैं। जैन शास्त्रकारों ने आचार्य और उपाध्याय को विशेष पूजनीय स्थान देकर उन्हें पंच परमेष्ठी महामन्त्र में प्रतिष्ठित किया है। आचार्य के लिये "आवश्यक सूत्र" में कहा गया है कि वे पाँच इन्द्रियों के विषय को रोकने वाले, नव वाड़ सहित ब्रह्मचर्य के धारक, क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायों के निवारक, पंच महाव्रतों से युक्त, पंचविध आचार-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारि
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
त्राचार, तपाचार, वीर्याचार का पालन करने में समर्थ, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने गुरु के लक्षण बताते हुए कहा है
महाव्रताधरा धीरा, भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था, धर्मोपदेशका गुरवो मताः ।
- योगशास्त्र २ / ८
अर्थात् महाव्रतधारी, धैर्यवान, शुद्ध भिक्षामात्र से जीवन-निर्वाह करने वाले, समताभाव में स्थिर रहने वाले, धर्मोपदेशक महात्मा गुरु माने गये हैं ।
जीवन-निर्माणकारी शिक्षा में आगे बढ़ने के लिये कौन योग्य-अयोग्य है, चर्चा की गई है । भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र के ११ वें अध्ययन में चर्चा करते हुए कहा है :
अह अट्ठहि ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ | अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे ॥४॥ णासीले ण विसीले णं सिया अइलोलुए ।
अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ||५||
शिक्षार्थी की पात्रता
इसकी शास्त्रों में बड़ी शिक्षार्थी की पात्रता की
अर्थात् इन आठ कारणों से व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करने के योग्य कहलाता है । १. जो अधिक हँसने वाला न हो, २. सदा इन्द्रिय दमन करता हो, ३. किसी का मर्म प्रकाशन न करता हो, ४. अखण्डित शील वाला हो, ५. अति लोलुप न हो, ६. श्रेष्ठ आचार वाला हो, ७. क्रोधी न हो और ८. सत्य में रत हो ।
उत्तराध्ययन सूत्र के ११वें अध्ययन की १२वीं गाथा में कहा गया है कि सुशिक्षित व्यक्ति स्खलना होने पर भी किसी पर दोषारोपण नहीं करता और न कभी मित्रों पर क्रोध करता है । यहाँ तक कि अप्रिय के लिए भी हितकारी बात करता है ।
शिक्षार्थी का विनीत और अनुशासनबद्ध होना आवश्यक माना गया है । " धम्मस्स विणओ मूलं" ( दशकालिक / २ / २) अर्थात् विनय को धर्म का मूल कहा गया है । 'दशवैकालिक सूत्र' के हवें अध्ययन में कहा है
विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अर्थात् अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को संपत्ति । जिसने ये दोनों बातें जान ली हैं, वहीं शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी अध्याय में कहा गया है कि जो आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है जैसेसे सींचा हुआ वृक्ष -
-जल
विणियस्स य । अभिगच्छइ ॥
जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा । सिसिक्खा पवंति, जलसित्ता इव पायवा ॥
- / १२
गुरु की आज्ञा न मानने वाला, गुरु के समीप रहकर भी उनकी शुश्रूषा नहीं करने वाला, उनके प्रतिकूल कार्य करने वाला तथा तत्त्वज्ञानरहित अविवेको अविनीत कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र १-३।।
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जैन शिक्षा : स्वरूप और पद्धति : डॉ० नरेन्द्र भानावत ___ जो विद्यावान होते भी अभिमानी है, अजितेन्द्रिय है, बार-बार असम्बद्ध भाषण करता है वह अबहुश्रु त है । उत्तराध्ययन ११/२।
ऐसे शिक्षार्थी को शिक्षणशाला से बहिर्गमित करने का विधान है। "उत्तराध्ययन सूत्र" में ऐसे शिक्षार्थी की भर्त्सना करते हुए उसे सड़े कानों वाली कुतिया से उपमित किया गया है । और कहा है कि -जैसे सड़े कानों वाली कुतिया सब जगह से निकाली जाती है, उसी तरह दुष्ट स्वभाव वाला, गुरुजनों के विरुद्ध आचरण करने वाला वाचाल व्यक्ति संघ अथवा समाज से निकाला जाता है । ऐसा समझ कर अपना हित चाहने वाला अपनी आत्मा को विनय में स्थापित करेविणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो।
-उत्तराध्ययन सूत्र १/६ शास्त्रों में विनय का अर्थ सामान्य शिष्टाचार या नम्रता तक ही सीमित नहीं है अपितु वह भीतरी अनुशासन, आत्मनिग्रह और संयम के रूप में प्रतिपादित है। जिसका मन अस्थिर और चंचल है वह विनयभाव को नहीं धारण कर सकता है । मन की अस्थिरता और चंचलता, भोगवृत्ति और आसक्ति का परिणाम है । ऐसा व्यक्ति न अपने शासन में रहता है और न किसी अन्य के । “आचारांग सूत्र" में ऐसे व्यक्ति को अनेक चित्त वाला बताया है और कहा है कि वह अपनी अपरिमित इच्छाओं की पूर्ति के लिये दूसरे प्राणियों का वध करता है । उनको शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुँचाता है । पदार्थों का संचय करता है और जनपद के वध के लिए सक्रिय बनता है । निश्चय ही ऐसी मानसिकता में जीने वाला सच्ची शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता । “स्थानांग सूत्र" के चौथे स्थान में कहा है--
चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता तं जहा
अविणीए, विगइपडिबद्ध अणुवसमिए णउडेमाइ ॥३२६॥ __ अर्थात् चार व्यक्ति शिक्षा ग्रहण के अयोग्य कहे गये हैं-अविनीत, स्वादेन्द्रिय में गृद्ध, अनुपशांत अर्थात् अति क्रोधी और कपटी । सच्ची शिक्षाप्राप्ति ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप में परस्पर जुड़ाव है। यह जुड़ाव मात्र अध्ययन से संभव नहीं पर इसके लिये स्वाध्याय की प्रक्रिया से गुजरना होगा । भगवान महावीर ने अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य को शिक्षा-प्राप्ति में बाधक माना है
अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं, सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा, पमाएण, रोगेणालस्सएण य ।।
--उत्तरा० ११/३ शिक्षार्थी के लिये अप्रमत्तता और जागरूकता अनिवार्य है। इसके अभाव में व्यक्ति आंतरिकता से जुड़ नहीं पाता और विवाद व मूर्छा में ग्रस्त बना रहता है । आत्म-जागरणा द्वारा ही इस मूर्छा को तोड़ा जा सकता है। भगवान महावीर ने जयणा अर्थात् विवेक को इसका साधन बताया है। संक्षेप में जैन शिक्षा का अर्थ है-अपने आंतरिक वीरत्व से जुड़ना, चेतना के स्तर को ऊर्ध्वमुखी बनाना
और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना । पता-सी-२३५ ए, तिलक नगर, जयपुर ४
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सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व :
आचारांग के परिप्रेक्ष्य में
-साध्वी सुरेखा श्री जी (प० पू० प्र० विचक्षण श्री जी म० सा० शिष्या–विदुषी लेखिका)
भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि के आस्तिक दर्शनों जैनदर्शन हर वस्तु की मीसांसा करता है। उपर्युक्त में जैनदर्शन जीवात्मा को ही परमात्म स्वरूप होना प्रथा व्यावहारिक हो सकती है, पर निश्चय में स्वीकार करता है। आत्मा का अभ्युदय आत्माभि- सम्यक्त्व का मूल्यांकन अनूठे ढंग से किया गया है। मुखता की ओर अग्रसर हुए बिना नहीं हो सकता।
___ "सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व" पराभिनिवेश से मुक्त है जिसकी आत्मा, वही पर
किस प्रकार हो सकता है ? उससे पूर्व यह जान लें मात्म-पद की ओर कदम बढ़ा सकता है। जब तक
कि सम्यक्त्व है क्या ? सम्यक्त्व का अर्थ हो गया निश्चित रूप से जीवात्मा स्व-पर भेदविज्ञानी नहीं
है, श्रद्धान ! पदार्थों पर श्रद्धान ! वस्तु तत्व पर बन जाता, तब तक मोक्षाभिमुख नहीं हो पाता।
श्रद्धान ! अन्य दर्शनों ने जिसे श्रद्धा कहा उसी को यह स्व-पर भेदविज्ञान अर्थात् जीव और जगत्,
' जैनों ने पारिभाषिक शब्द दिया है सम्यक्त्व अर्थात् जड़ और चेतन का पृथक-पृथक ज्ञान और तदनुसार
सम्यग्दर्शन । वाचकवर्य उमास्वाति ने इसे परिभाआचरण हो तब हो पाता है। यही बीजारोपण
षित किया तत्वार्थ सूत्र में “तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्"सम्यक्त्व" शब्द से अभिप्रेत है। संसार भ्रमण की
दर्शनम्"। यहाँ तत्वों पर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है, परिधि को सम्यक्त्व सीमित कर देता है।
यह निर्देश किया गया है। व्युत्पत्तिपरक अर्थ करें हालांकि लौकिक व्यवहार में सम्यक्त्व/समकित तो सम् पूर्वक अंच् धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर यह शब्द जैनधर्म के प्रायः सभी धर्म-स्थानों में श्रवण सम्यक् शब्द निष्पन्न होता है । “समंचित इति गोचर होता है। कभी-कभी तो यह भी सुनाई देता सम्यक्" इस प्रकार भी व्युत्पत्ति होती है। प्रकृत है कि मुझे अमुक गुरु की समकित है। मैंने उन गुरु में इसका अर्थ प्रशंसा है । उमास्वाति ने अपने भाष्य से समकित ली है । तो क्या सम्यक्त्व अथवा समकित में सम्यग शब्द का अर्थ करते हुए कहा--"सम्यलेने-देने की वस्तु है जो कि गुरु अपने अनुयायियों गिति प्रशंसाओं निपातः, समंचतेर्वा भावः' अर्थात् को प्रदान करते हैं। इस प्रथा के रूप में ही निपात से सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द है तथा सम्सम्यक्त्व है या अनेकान्तवादी जैनदर्शन व जैनागम पूर्वक अंच धातु यह भाव से है। राजवार्तिककार अन्य अर्थ को द्योतित करता है। व्यवहार और अकलंक देव के अनुसार प्रशंसार्थक (निपात) के निश्चय इन दो पहलुओं को दृष्टिकोण में रखकर साथ यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु,
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सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व : साध्वी सुरेखाश्री जी लाती है, शुद्धता लाती है । सम्यक्त्व नामक अध्ययन के अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी सम्यक्त्व का उल्लेख तो है पर वहाँ भी सम्यक्त्व को सयम के मुनित्व के समान माना है । संयमी चारित्रवान् मुनि के आचार को ही सम्यक्त्व से अभिप्रेत किया है । सम्यक्त्व और मुनित्व का एकीकरण करते हुए कहा है कि
--
"जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में देखो और जो मुनिधर्म है उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो ।”
हालाँकि चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार मौन अर्थात् मुनिधर्म-संयमानुष्ठान है । जहाँ मुनिधर्म है वहाँ सम्यग्ज्ञान है और सम्यग्ज्ञान जहाँ है वहाँ सम्यक्त्व है । ज्ञान का फल विरति होने से सम्यक्त्व की भी अभिव्यक्ति होती है । इस तरह सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र में एकता है ।
स्पष्ट है सम्यक्त्व को मुनित्व से अभिप्रेत किया गया है । मुनित्व अर्थात् आचरण की समीचीनता । सम्यक्त्व नामक अध्ययन में चार उद्देदेशक हैं । प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है । अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तुतत्व का प्रतिपादन हो, वह सम्यग्वाद है । इस उद्देशक में हिंसा का स्वरूप बताकर उसका निषेधात्मक रूप अहिंसा का विधान किया है कि जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, हुए थे तथा होंगे उन सभी का यह कहना है कि किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और जिन प्रवचन में प्ररूपित है । इस प्रकार अहिंसा तत्व का सम्यक् एवं सूक्ष्म निरूपण के साथ अहिंसा की कालिक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं सत्यतथ्यता का सम्यग्वाद के रूप में प्रतिपादन किया है । अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिंसा व्रत को स्वीकार करने का अहिंसा के आचरण के लिए पराक्रम करना चाहिए । इस प्रकार आचारांग के ४ - १ में सम्यग्वाद के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा धर्म की चर्चा की गई है । चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्द ेशक में धर्मप्रवादियों की धर्म परीक्षा का निरूपण आचरण में सम्यक्तता, समीचीनता लाती है, स्थिरता है । विभिन्न धर्मप्रवादियों के प्रवादों में युक्त
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विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है । अथवा सम्यक् का अर्थ तत्व भी किया जा सकता है, जिसका अर्थ होगा तत्व दर्शन, अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है, जिसका अर्थ है - जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानने वाला ।
सम्यक् शब्द की व्युत्पत्ति करने के पश्चात् अब 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति पूज्यपाद करते हैं'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या देखना मात्र !
सिद्धसेन के अनुसार 'दर्शनमिति शेख्यभिचारिणी सर्वेन्दियानिन्द्रियार्थं प्राप्तिः' अव्यभिचारी इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् मन के सन्निकर्ष से अर्थ प्राप्ति होना दर्शन है । दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति 'दृशि' धातु के ल्युट् प्रत्यय करके भाव में इक् प्रत्यय होने पर जिसके द्वारा देखा जाता है, जिससे देखा जाता है तथा जिसमें देखा जाता है वह दर्शन है । इस प्रकार जीवाद के विषय में अविपरीत अर्थात् अर्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त ऐसी दृष्टि सम्यग्दर्शन है । अथवा " प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनमिति" अर्थात् जिनेश्वर द्वारा अभिहित अविपरीत अर्थात् यथार्थ द्रव्यों और भावों में रुचि होना यह प्रशस्त दर्शन है । प्रशस्त इसलिए है कि मोक्ष का हेतु है । व्युत्पत्ति पक्ष के आश्रित अर्थ को लेकर कहते हैं—संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार संगत विचार करना वह सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार जिनोक्त तत्वों पर ज्ञानपरक होने वाली श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा ।
तत्त्वार्थ सूत्र में तथा टीकाकारों ने श्रद्धापरक अर्थ को लेकर ही सम्यक्त्व की व्युत्पत्ति की । किन्तु आगमों में इसका अर्थ भिन्न है । आगमों में सर्व प्राचीन व प्रथम अंग है आचारांग | आचारांग सूत्र आचारप्रधान है । आचारांग में सम्यक्त्व नामक अध्ययन होने पर भी सम्यक्त्व का अर्थ श्रद्धापरक नहीं वरन् सम्यक् आचारपरक है । सम्यक्त्व को स्पष्ट रूप से मुनि आचार कहा गया है । हाँ, सम्यक्आचार श्रद्धापूर्वक होता है। श्रद्धा
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
अयुक्त की विचारणा होने से धर्म की परीक्षा का निरूपण है । इस उद्देशक में हिंसा और अहिंसा में युक्त क्या है और अयुक्त क्या है ? इसकी परीक्षा की जाय । विभिन्न मतावलम्बियों में जो यह कहते
कि "यज्ञ-यागादि में होने वाली हिंसा दोषयुक्त नहीं” उनको बुलाकर पूछा जाय कि दुःख सुख रूप है या दुःख रूप है ? तो सत्य तथ्य यही वे कहेंगे कि दुःख तो 'दुःख रूप ही है । क्योंकि दुःखार्थी कोई प्राणी नहीं, सभी प्राणी सुखार्थी है । अतः हिंसा अनिष्ट एवं दुःख रूप होने से त्याज्य है और अहिंसा इष्ट एवं सुखरूप होने से ग्रहण करने योग्य - उपादेय है । इसी के साथ आस्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए आस्रव में पड़े हुए ज्ञानीजन कैसे परिस्रव (निर्जरा धर्म) में प्रवृत्त हो जाते हैं । तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर प्राप्त होने पर भी अज्ञानी जन कैसे आस्रव में फँसे रहते हैं ? इस प्रकार आस्रवमग्न जनों को विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है । फलस्वरूप प्रगाढ़ वेदना होती है । इसमें ज्ञानी और अज्ञानियों की गतिविधियों एवं अनुभव के आधार पर धर्मपरीक्षा की है ।
तीसरे उद्दे शक में निर्दोष अनवद्य तप से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है न कि बाल- अज्ञान तप से, विश्लेषण किया है । तपस्वी कौन है ? उनके गुण एवं प्रकृति तथा वे किस प्रकार तपश्चर्या कर कर्मक्षय करते हैं उसका विधान किया गया है । जो अहिंसक हैं, वे ज्ञानी हैं। उनकी वृत्तियों का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि वे धर्म के विशेषज्ञ होने के साथ सरल व अनासक्त हैं । वे कषायों को भस्मी - भूत कर कर्मों का क्षय करते हैं । ऐसा सम्यग्दृष्टि कहते हैं, क्योंकि “दुःख कर्मजनित हैं" वे इसे भलीभाँति जानते हैं । अतः कर्म-स्वरूप जानकर उसका त्याग करने का उपदेश देते हैं । जो अरिहन्त की आज्ञा के आकांक्षी, निस्पृही, बुद्धिमान पुरुष हैं, वे सर्वात्मदर्शन करके देहासक्ति छोड़ देते हैं । जिस प्रकार जीर्णकाष्ठ को अग्नि शीघ्र जला देती है, उसी प्रकार समाहित आत्म वाले वीर पुरुष कषाय रूपी कर्म शरीर को तपश्चर्या द्वारा शीघ्र जला देते हैं ।
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चतुर्थ उद्दे शक में संक्षेप में चारित्र का निरूपण किया है। संयत जीवन कैसा ? जो पूर्व सम्बन्धों का त्याग कर विषयासक्ति छोड़ देता है । इस प्रकार पुनर्जन्म को अवरुद्ध क दिया है जिन्होंने ऐसे वीर पुरुषों का यह संयम मार्ग दुरूह है । स्थिर मन वाला ब्रह्मचर्य से युक्त ऐसा वीर पुरुष संयम में रत, सावधान, अप्रमत्त तथा तप द्वारा शरीर को कृश करके कर्मक्षय करने में प्रयत्नशील होता है । जो विषयभोगों में लिप्त हैं, उन्हें जानना चाहिए कि मृत्यु अवश्यंभावी है । जो इच्छाओं के वशीभूत हैं, असंयमी हैं और परिग्रह में गृद्ध हैं, वे ही पुनः जन्म लेते हैं । जो पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे ही वस्तुतः वासनारहित हैं । भोगेषणारहित पुरुष की निन्द्य प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? जो समितियों से समित, ज्ञान सहित, संयत, शुभाशुभदर्शी हैं, ऐसे ज्ञानियों की क्या उपाधि हो सकती है ? सम्यद्रष्टा की कोई उपाधि नहीं होती, ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं ।
इन चारों उद्दे शकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र का क्रमशः उल्लेख किया है। श्रद्धा अर्थ का कहीं उल्लेख नहीं है । इन चारों ही उद्दे शकों पर दृष्टिपात करें तो सम्यक्त्व यहाँ सम्यक्आचरण से ही अभिप्रेत है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, काम-वासना रहित अनासक्ति आदि से युक्त है, तदनुसार ही उसका आचरण है, उसे सम्यक्त्व हो सकता है । ज्ञान मात्र अपेक्षित नहीं, वरन् यहाँ आचरण ही प्रधान बताया है। जो सम्यकत्वी / सम्यग्दृष्टि है उसके कार्य कैसे होते हैं, उसका उल्लेख करते हुए को जानकर पाप कर्म नहीं करता । कहा है कि तत्ववेत्ता मुनि कल्याणकारी मोक्षमार्ग
उक्त कथन से स्पष्ट है कि आचरण की विशुद्धता सम्यक्त्व पर आधारित है । सम्यक् आचरण से युक्त जीवन ही चरम लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा सकता है । क्योंकि कहा भी है कि जो वीर सम्यक्त्वदर्शी / सम्यग्दृष्टि मुनि है वही संसार को तिरता है ।
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सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व... : साध्वी सुरेखाश्री जी
इस प्रकार आचारांग में सम्यक्त्व का अर्थ है। त्रिपिटकों में सम्यग्दृष्टि को सम्माद्दिट्ठी कहा सम्यक्आचरण पर आधारित बताया है। किन्तु गया तथा सम्यग्दृष्टि श्रद्धायुक्त होता है। आर्य अन्य आगमों व आगमेतर साहित्य में सम्यक्त्व के अष्टांगिक मार्ग, शिक्षात्रय, आध्यात्मिक विकास की प्रचलित अर्थ व स्वरूप में भिन्नता है। अपेक्षाभेद पाँच शक्तियाँ और पाँच बल सभी में श्रद्धा का स्थान से, निश्चय-व्यवहारनय से उसमें समानता भी प्रथम माना है। इसी मोक्षमार्ग के साधन रूप श्रद्धा द्योतित होती है । आचारांग में आत्मोपम्य की को सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन ने विवेकख्याति कह भावना से ओतप्रोत, अहिंसा, विवेक, अनवद्य तप से कर सम्बोधित किया है । वेदान्तदर्शन में ज्ञान में ही युक्त चारित्र को सम्यक्त्व के अर्थ में व्यापक दृष्टि- श्रद्धा को अन्तनिहित किया गया है। कोण से अनुलक्षित किया है । क्योंकि उपरोक्त गुणों की सुरक्षा भी पूर्णतया मुनिजीवन में ही सम्भव महाभारत में श्रद्धा को सर्वोपरि माना है तथा है। जबकि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रु तस्कन्ध में श्रद्धा ही सब पापों से मुक्त कराने वाली है ऐसा संयती मुनि के साथ व्रतधारी श्रावकों का भी मान्य किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्यग्दृष्टि होना बताया गया है। संयती मुनि व श्रद्धा धारण करने का उपदेश दिया और कहा कि श्रावक श्रद्धापूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, यत्र-तत्र श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वही संयती उसका भी उल्लेख मिलता है। किन्तु सम्यक्त्व के होता है । तदनन्तर वह आत्मा परब्रह्म को प्राप्त हो स्वरूप ने श्रद्धा रूपी बाना यहाँ धारण नहीं किया। सकती है । ईसाई धर्म व इस्लाम धर्म में भी श्रद्धा उत्तराध्ययन सूत्र में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को तत्व को प्राथमिकता दी है। तात्पर्य यह है कि सर्व धर्म श्रद्धा स्वीकार किया व तत्वों का भी निर्देशन किया दर्शनों ने श्रद्धा/सम्यग्दर्शन को मोक्ष का हेत समवेत गया है। अन्य आगमों में इसके भेद, प्रकार, अति- स्वर से स्वीकार किया है। चार, अंग, लक्षण आदि का कथन किया गया।
आगमेतर साहित्य में तत्त्वार्थ सूत्र में वाचकवर्य आध्यात्मिक दृष्टि से तो सम्यग्दर्शन का उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्पष्ट रूप से स्थान महत्वपूर्ण है ही, किन्तु लौकिक जीवन निर्धारित किया। उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा में भी इसका महत्व कम नहीं । जैन मान्यतानुसार तत्त्वार्थ सूत्र अधिक प्रकाश में आया । उसका कारण इसका हम यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ करते हैं तो यह रहा कि यह सभी जैन सम्प्रदायों को ग्राह्य है। भी इसका महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकारों ने भी इसकी विशद चर्चा यह जीवन के प्रति ही एक दृष्टिकोण हो जाता है। की। सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द सम्यग्दर्शन, अहिंसा अनेकान्त और अनासक्त जीवन जीने की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, विश्वास भी व्यवहृत होते हैं। कला इससे प्राप्त होती है। चूंकि जीवनदृष्टि के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में किसी ने अनुसार ही व्यक्तित्व व चरित्र का निर्माण होता ज्ञान को पश्चात्वर्ती माना तो किसी ने सहभागी है, दृष्टि के अनुसार ही जीवन सृष्टि निर्मित होती माना। तत्त्वार्थ के पूर्व नंदीसूत्र में देववाचक गणि है। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा है। अतः यह ने कहा कि सम्यग्दृष्टि का श्र त ही सम्यक्च त है अपने आप पर निर्भर है कि हमको जैसा बनना है अन्यथा वह मिथ्याश्र त है। दिगम्बर साहित्य में उसी के अनुरूप हम अपनी जीवनदृष्टि बनाएँ । भी सम्यक्त्व का यही स्वरूप स्वीकृत किया है। क्योंकि जैसी दृष्टि होती है, वैसा ही उसके जीवन
जैनेतर दर्शनों में बौद्धदर्शन तो श्रमण भगवान जीने का ढंग होता है और जैसा उसके जीने का महावीर के समकालीन व सन्निकट रहा है। अतः ढंग होता है, उसी स्तर से उसके चरित्र का निर्माण इनमें एक दूसरे का प्रतिबिम्ब झलकना स्वाभाविक होता है और चरित्र के अनुसार ही उसके व्यक्तित्व
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
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में प्रतिभा आती है। इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण जीवन के आदर्शों के साथ परस्पर मैत्रीपूर्ण होना जीवन-निर्माण की दिशा में आवश्यकीय है। सम्बन्ध बनाए रखना, सम्यक् रीति से जीवन
सैद्धान्तिक अपेक्षा से आध्यात्मिक विकास में व्यतीत करना है। राजनैतिक व्यवस्था सम्यक् न सम्यक्त्व महत्वपूर्ण है ही किन्तु व्यावहारिक जीवन होगी तो राष्ट्र में भ्रष्टाचार बढ़ता ही जावेगा, में भी सम्यक्त्व अत्यन्त उपयोगी है। सामाजिक फलस्वरूप राष्ट्र का अनैतिकता के कारण पतन हो क्षेत्र हो या पारिवारिक क्षेत्र हो, राजनैतिक क्षेत्र जायेगा। धार्मिक व नैतिक क्षेत्र में तो स्पष्ट रूप हो या आर्थिक क्षेत्र हो, धार्मिक क्षेत्र हो या नैतिक से ही सम्यक्त्व की छाप दृष्टिगोचर होती है । क्षेत्र हो हर क्षेत्र में सम्यकत्व उपयोगी व महत्व- धार्मिक सिद्धान्तों का व्यावहारिक जीवन में पूर्ण है ; क्योंकि सही दृष्टि सही दिशा की ओर ले उपयोग होना ही सम्यक्त्व है। जीवन को सुव्यवजाती है । फलतः मंजिल तक पहुँचा देती है। स्थित रूप से, सुचारु रूप से प्रतिपादन करने में, गलत राह पर जाने वाला भटक जाता है, सही राह उत्तरोत्तर आत्मिक गुणों के विकास में सम्यक्त्व ही वाला नहीं।
सहायक है।
9 भाषा की मधुरता और शिष्टता में ही व्यक्ति की कुलीनता और सज्जनता छिपी हुई है। भाषा से ही व्यक्ति अपना परिचय दे देता है कि वह किस खानदान से ताल्लुक रखता है। भाषा की शालीनता जहाँ व्यक्ति को सम्मान दिलाती है वहीं व्यक्ति के प्रथम परिचय में ही अमिट छाप अंकित कर देती है। 卐 इसी जीभ में अमृत और जहर बसता है । मधुरता भाषा का अमृत है और कटुता जहर है । यह जहर व्यक्ति के स्वयं के जीवन में भी अशान्ति फैलाता है और अन्य को भी परेशान करता है। आपको अनुभव भी होगा। अगर किसी बात को स्नेह से कहते हैं तो आपका सारा तनाव काफूर हो जाता है । अगर गुस्से में कहते हैं-दो-चार गालियाँ सुनाकर कहते हैं तो तनाव से ग्रस्त रहते हैं ?
-आचार्य श्री जिनकान्ति सागरसूरि ( 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई' पुस्तक से)
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नमस्कार महामन्त्र : वैज्ञानिक दृष्टि
-साध्वी श्री राजीमती जी (योग, ध्यान अध्यात्म-विषयों की प्रख्यात विदुषी,
अनेक भाषाओं की ज्ञाता)
नमस्कार महामन्त्र आकार में बहुत छोटा है, परन्तु उपलब्धियों तथा संभावनाओं का खजाना है । मौलिकता यह है कि मन्त्र चाहे जो भी हो वह जीवन से जुड़ना चाहिये। जब तक मन्त्र जीवन से, जीवन की आस्थाओं से नहीं जुड़ता तब तक वह “जीवन्त मन्त्र" नहीं बनता। वह जीवन्त बनता है मनोयोगपूर्वक ध्यानासन में बैठकर निष्काम भाव से जपने से तथा विशाल आकाश में चमकते वर्गों में मन्त्र को लिखकर पढ़ने से । ध्यान और रंगों की भाषा शब्द शक्ति से बहुत आगे जाती है।
ध्वनि का भी स्वतन्त्र प्रभाव होता । है। मन्द, तेज, मृदु और कठोर सबका अपना हिसाब है। मन्त्र ध्वनि ही एक ऐसा साधन है जो जगत से बँधे मन को काटकर बन्धन मुक्त कर सकता है। वैज्ञानिक परीक्षणों के अनुसार सूक्ष्म ध्वनि तीव्र छेदक होती है।
यह जैनों का सार्वभौम मांगलिक मन्त्र, संप्रदायवाद की सभी कट्टरताओं से दूर, जैनएकता का प्रभावी सूत्र है । यह अलौकिकता की ओर ले जाने वाला मन्त्र है। अगर उससे कोई पुत्र माँगता है, संपत्ति मांगता है तो वह महान भूल करता है, मन्त्र की आशातना करता है । इससे करनी चाहिये केवल आत्मोन्नयन की मांग क्योंकि मन्त्र-जाप की प्रथम उपलब्धि है आत्मशक्ति का संचय जिससे प्राप्त होता है, बुद्धि बल विवेक, हिम्मत तथा व्यवहार का कौशल ।
एक दिन स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द से कहा-माँ से कुछ माँग क्यों नहीं लेते ? विवेकानन्द ने कहा-गुरुदेव ! मैं जाते समय कुछ जरूर सोचता हूँ, परन्तु प्रार्थना में बैठने के बाद मांगने की बात बिल्कुल भूल जाता हूँ। उस स्तर पर पहुँचने के बाद कोई कामना शेष नहीं रहती, मगन हो जाता हूँ। भीतर से भर जाता हूँ । रामकृष्ण बोले-वत्स, तेरी प्रार्थना सिद्ध हो गई।
मन्त्र का जाप व्यक्ति को संसार के प्रति, संसार के कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है। बिखरी चित्तशक्तियों को एकाग्र करता है । आवश्यक है, हम मन्त्र विज्ञान को समझें । मन्त्र की महिमा गाने से मन्त्र सिद्ध नहीं होता, मन्त्र सिद्धि के लिए चाहिये-मन्त्र-रचना का, मंत्र-शरीर का, मन्त्र की ध्वनि और स्वरों का पूरा ज्ञान ।।
णमो अरिहन्ताणं में हम वीतरागता की वन्दना करते हैं, फिर क्रमशः अनन्तता, समाधि सम्पन्नता, ज्ञान सम्पन्नता तथा साधुओं की वन्दना करते हैं । जैन दर्शन व्यक्ति-पूजा का दर्शन नहीं बल्कि गुण-पूजा का दर्शन है । वन्दना करते समय हमारा ध्यान किसी मूर्ति, अरिहन्त-देह तथा अरिहन्त-पद पर नहीं होकर "अरिहन्तत्व" पर होना चाहिये।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
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मन्त्र जप क्यों और कैसे ?
मन्त्र विविध शक्तियों का खजाना है। मनोयोगपूर्वक जाप करने से वे सारी शक्तियाँ जपकर्ता में धीरे-धीरे प्रकट होने लगती है । मन्त्र जप के मुख्य लाभ ये हैं
१-मन्त्र दुर्बल मन को सबल करता है। २-मन्त्र रोगी मन को स्वस्थ करता है । ३-मन्त्र तेजस् शरीर को सक्रिय एवं आभामण्डल का शोधन करता है । ४-मन्त्र चित्त की अन्तर्मुखता को बढ़ाता है। ५-विराट शक्तियों का नियोजन और दुष्ट शक्तियों का निग्रह करता है। ६--मन्त्र विचारों तथा भावनाओं का यथास्थान सम्प्रेषण करता है। ७-मन्त्र कर्म-संस्कारों, बन्धनों का विलय करता है।
यद्यपि समस्या एक है मन की चंचलता की किन्तु इसके समाधान अनेक हैं। आप अपने चरित्र में जिस गुण की कमी अनुभव कर रहे हैं उसे दूर करने के लिए नमस्कार महामन्त्र का जप निम्न स्थानों पद निम्नोक्त विधि से कीजिएचैतन्य केन्द्रों पर ध्यान से लाभ णमो अरिहन्ताणं-तैजस केन्द्र पर-क्रोध क्षय (नाभि)
-आनन्द केन्द्र पर-मान क्षय (हृदय) -विशुद्धि केन्द्र पर--माया क्षय (कण्ठ)
- शक्ति केन्द्र पर -- लोभ क्षय । (नाभि के नीचे) "नवपद ध्यान"
हृदय अथवा नाभि में आठ पंखुड़ियाँ वाले कमल दल की कल्पना करें । प्रथम पद कणिका में, शेष पंखुड़ियों पर आठ पदों का जाप करें। अपराजित मन्त्र ध्यान
कर्णिका में णमो अरिहन्ताणं तथा शेष चार दलों पर चार पदों की धारणा करें। इस मन्त्र का अभ्यास करने से विशेष स्थिरता बनती है। चैतन्य केन्द्र : महामन्त्र जाप णमो अरिहन्ताणं-मस्तक (तालु स्थान)-शान्ति केन्द्र
विशति यक णमो सिद्धाणं -भ्रकुटि
-दर्शन केन्द्र णमो आयरियाणं- हृदय -आनन्द केन्द्र
पणिपूर र णमो उवज्झायाणं-नाभि
-तैजस् केन्द्र णमो लोए सव्व साहूणं-पैरों के अंगृष्ठ-ऊर्जा स्थान
समसार चक्र
आशा पक्र
ग्वाधिटान
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ज्ञानेन्द्रियों पर महामन्त्र जाप:
श्वास-प्रश्वास : महामन्त्र जपः-
सावधानता
णमो अरिहन्ता णमो सिद्धाणं
णमो आयरियाण णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं
ग्रह-शांति : महामन्त्र जापः
णमो अरिहन्ताणं णमो सिद्धाणं
णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं
नमस्कार महामन्त्र : वैज्ञानिक दृष्टि : साध्वी श्री राजीमतीजी
सूर्य और मंगल
चन्द्र और शुक्र
बुध
गुरु
शनि, राहु और केतु
- बांये कान पर - बांये नेत्र पर
- दांये नेत्र पर
-दांये कान पर -दोनों होठों पर
- श्वास भरते समय
- श्वास छोड़ते समय
- भरते समय
- छोड़ते समय
- भरते समय, छोड़ते समय
- ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ।
- ॐ ह्रीं णमो अरिहन्ताणं । - ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं ।
- ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं । - ॐ ह्रीं णमो लोए सव्व साहूणं ।
१ - माला को दाहिने हाथ में हृदय के पास रखते हुए धीरे-धीरे जप क्रिया जपें ।
२– एकान्त स्थान का ख्याल रखा जाये । यदि कहीं पाँच-पच्चीस व्यक्ति एक साथ बैठकर एक ही मन्त्र को एक लयपूर्वक जपते हों तो उनके साथ बैठा जा सकता है ।
३ - मन्त्र को सामान्यतया बदलना नहीं चाहिये ।
४- मन्त्र जप में निरन्तरता होनी चाहिए, क्योंकि लम्बा जप ही शरीर और चेतना के बीच एक नई हलचल पैदा करता है ।
५- प्रारम्भिक अभ्यास के दिनों में माला अवश्य रखी जानी चाहिये । इससे मानसिक प्रतिबद्धता रहती है । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में यह उल्लेख मिलता है। माता को यत्र-तत्र नहीं रखना चाहिए। एक दूसरे के बीच माला का आदान-प्रदान भी न हो । जिस माला से जप करते हैं उसे गले में नहीं पहनें ।
६ - मन्त्र जप बिना किसी कामना के होना चाहिए ।
७ - माला फेरते समय सजग रहें, अन्यथा अन्तर्मुखता के बहाने आप शून्य होते चले जायेंगे । सम्भव है एक दिन निष्क्रिय अचेतन मनोभूमि पर ही खड़े रह जायें । इसलिए लम्बे जप अनुष्ठान के समय बीच-बीच में श्वास- दर्शन करते रहें ।
८ - जप नियमित व निर्धारित संख्या में होना चाहिये । बीच-बीच में टूटने वाला जप यह प्रमाणित करता है कि जपकर्ता को अपने मन पर कोई नियन्त्रण नहीं है ।
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स्वरूप- साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति
- आचार्य मुनिश्री सुशील कुमार जी
(प्रख्यात धर्म प्रवक्ता, विश्वधर्म सम्मेलन के संयोजक, विदेशों में अहिंसा एवं शाकाहार प्रचार में संलग्न )
जैन परम्परा आत्मा में अनन्त शक्ति मानती है । और उस शक्ति का पूर्ण विकास कर आत्मा से परमात्मा बनने की उसमें क्षमता है। श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस आत्मशक्ति के पूर्ण विकास का साधन योग बताया है।
जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने सभी दुःखों से मुक्त होने के साधन को योग कहा है । आत्मा की सभी दुःखों से मुक्ति होकर निज स्वभाव की प्राप्ति योग द्वारा होती है । सभी धर्म मनुष्य को दुःखों से मुक्त होने का उपाय बताते हैं, दुःख से मुक्त होकर सुख प्राप्ति की होती है । उसमें योग ऐसी प्रक्रिया है होता है।
वैसे मनुष्य सुख प्राप्ति के प्रयत्न करता है पर सुख प्राप्ति के प्रयत्नों के बावजूद अधिकांश लोग सुख प्राप्ति में सफल नहीं होते बल्कि दुःखी पाये जाते हैं। क्योंकि वे सुख प्राप्ति का जो मार्ग विविध धर्मो ने बताया है, तदनुसार आचरण न कर अपनी कल्पना सुख प्राप्ति के अन्य प्रयत्न में लगे हुए हैं । सुख प्राप्ति का मार्ग - जैनधर्म ने योग के रूप में बताया है । प्रायः सभी धर्म उसी मार्ग से मनुष्य को दुःख से मुक्त होने का उपदेश करते हैं ।
से
खण्ड ४/१०
क्योंकि मनुष्य की सहज प्रेरणा जिससे मनुष्य दुःख से मुक्त
मनुष्य के सुख प्राप्ति में बाधक कौनसी बातें हैं जो उसे दुःखी बनाती हैं ? यह विचार करने पर दिखाई देगा कि राग और द्व ेष यह दो उसके ऐसे महान शत्र ु हैं जो उसे सुख के मार्ग से भटकाकर दुःख में डालते हैं । समस्या का मूल राग-द्व ेष- कषाय है । कषाय से मन या चित्त रंगा जाता है । राग से रंगा हुआ मन प्रीति का अनुभव करता है और प्रीति से लोभ, माया, वासना, और परिग्रह के प्रति मोह जागता है । द्व ेष अहंकार को जन्म देता है । अहंकार से कोध, घृणा और तिरस्कार उत्पन्न होता है । जिससे दुःखों की परम्परा का निर्माण होकर अनन्त सुख जिसका सहज स्वभाव है, वह आत्मा दुःखी बनती है । उस पर कषायों के कारण विविध आवरण आकर दुःख का अनुभव करने लगती है ।
आत्मशक्ति को जाग्रत करने के लिये धर्म-विद्या, दार्शनिक चिन्तन और यौगिक अनुसन्धान आदि विधाएँ हैं । धर्म के अभ्यासियों ने, दर्शन के आचार्यों ने और योग के साधकों ने जीवन की अनुभूतियों और शक्तियों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि सारा विश्व उन उपलब्धियों से अभिभूत है ।
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स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य श्री मुनि सुशीलकुमार जी कषाय के कारण आत्मशक्ति पर आवरण आ गया है, अतः हम दुःखी बने बैठे हैं, उससे मुक्त होने का व्यवस्थित और मनोवैज्ञानिक मार्ग योग है ।
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वैदिक, जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों का यदि कहीं समन्वय होता है तो योग विद्या में होता है । आध्यात्मिक धरातल पर सभी को योग को अपनाना होता है । दुःख-मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन योग है ।
जैनधर्म ने सारे दुःखों का मूल हिंसा माना है और परम मांगल्य अहिंसा को । अहिंसा सभी सुखों की जननी है | अहिंसा की व्याख्या है - प्राणीमात्र के प्रति समता ।
बुद्ध ने भी शील, समाधि और प्रज्ञा द्वारा समता लाने को कहा है। और गीता का
समता है ।
योग इस समता को जीवन में उतारने का अभ्यास है जिसके फलस्वरूप जीवन में समता आकर मानव जीने की कला सीखता है । दुःखी जीवन को सुखी बनाने की कुञ्जी उसके हाथ लगती है । अन्य धर्मों ने भी वही बात दुहराई है । इसलिये योगमार्ग का प्रचार धर्म का प्रचार है और धर्म का प्रचार ही जैनत्व का प्रचार है ।
हार्द ही
जैनधर्म आचार में अहिंसा के द्वारा समता और विचार में अनेकान्त के द्वारा व्यापकता लाने को कहता है, समता को पुष्ट करता है और सबके प्रति आत्मवत् व्यवहार करने के लिये संयम अपनाने को कहता है । समता का प्रारम्भ अपने से करना होता है और उसके लिये योग सर्वोत्कृष्ट साधन है ।
जैन धर्म सबको आत्मवत् मानने वाला आत्मधर्म है । उसकी सारी क्रियाएँ - कर्मकांड इमी पर आधारित हैं । आत्माभिमुख - अन्तर्मुख बनने के लिये हैं । प्राधान्य अर्न्तमुखता है, कर्मकांड और क्रियाएँ गौण हैं। एक अनुभवी योगी ने बताया है कि सभी तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ-धर्मतीर्थ मन है - - आत्मा है । अज्ञानी ही बाहर ढूंढते हैं । मन का मैल धोना है तो उसे अन्तर्मुख बनाकर अभ्यास करना होगा ।
आभ्यन्तर विकास और प्रज्ञा के प्रकर्ष के लिये योग के सिवा कोई दूसरा प्रभावशाली मार्ग नहीं है। जैनधर्म में ऋषभदेव से लगाकर महावीर तक २४ तीर्थंकर परमयोगी थे । भगवान महावीर के साधनाकाल का जो वर्णन मिलता है उसमें ध्यान पर अधिक भार दिया गया है। उन्होंने समता की ऐसी साधना की कि साधनाकाल में जो भयानक उपसर्ग लोगों की ओर से दिये गये वे समतापूर्वक सहन किये । अपने आप की अनुभूति पाना हो तो चित्त को समता में लगाकर अपने आपको देखो । अपने आप की अनुभूति पाना ही सम्यक्दर्शन है । बिना सम्यक दर्शन के सम्यक्ज्ञान सम्भव नहीं और बिना सम्यक्ज्ञान के सम्यक्चारित्र आ नहीं सकता । और बिना सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के दुःख-विमुक्ति सम्भव नहीं ।
इसीलिये जैन-साधना में कायोत्सर्ग का अत्यन्त महत्व है । काया - शरीर जिसका क्षण-क्षण में परिवर्तन होता है । उत्पाद-व्यय का क्रम चल रहा है । उस काया में जो कुछ चल रहा है, उसे देखना । मन में चलने वाली प्रत्येक वृत्ति, तरंग या संवेदना को देखना, तटस्थतापूर्वक देखना । बाहर से चित्त को अन्तर्मुख करना सम्यक्दर्शन है । उस देखने में किसी प्रकार का राग-द्व ेष न हो, समतापूर्वक देखना यह योग की दूसरी क्रिया है ।
पहली कायोत्सर्ग की, जिसमें काया को भूलकर श्वास का ध्यान करना और दूसरी क्रिया में शरीर में चलने वाली क्रिया को सजग होकर देखना । जब मन को बाहरी दुनियाँ से अपने आप को देखने
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन में लगाते हैं तो सहज में वह अपने आप को देखने में केन्द्रित होता है । और चूकि वह राग-द्वष से रंगा नहीं होता है तो ग्रन्थि बंधन नहीं होता और नई ग्रन्थि न बँधने से मनुष्य निर्ग्रन्थ बनता है।
न मालूम हम इस राग-द्वेष के कारण कितनी ही ग्रन्थियाँ बाधते जाते है। तनाव से बेचैन होते हैं। यदि हम बैठकर या खड़े रहकर अथवा तो सोकर कायोत्सर्ग द्वारा शरीर का शिथिलीकरण करें और मन को आते और जाते श्वास पर केन्द्रित करें तो कितनी शान्ति और ताजगी पा सकते हैं !
हम शारीरिक क्रियाओं द्वार। शरीर का प्रकंपन करते रहते हैं, मन, विविध विषयों में घूमता है तो उसका प्रकंपन होता है और वाणी द्वारा भी प्रकंपन होता रहता है । इस शक्ति को यदि हम एक स्थान पर बैठकर, शारीरिक प्रकंपनों को, मौन द्वारा वाणी के कारण होने वाले प्रकंपनों और श्वास की एकाग्रता द्वारा मानसिक प्रकंपनों को रोक सकें तो स्वाभाविक ही हमारी उर्जा-शवित बचेगी और हम अपने आप की अनुभूति लेने को उसे लगायेंगे और स्व के दर्शन का जो ज्ञान होगा वह हमें सम्यक् आचार की ओर प्रेरित करेगा।
जैन साधना में योगदृष्टि के ८ प्रकार बताये गये हैं जिससे रागद्वेष घटकर परिणाम शुद्ध बनते जाते हैं। वे भेद इस प्रकार हैं
१. मित्रा २. तारा ३. बला ४. दीपा ५. स्थिरा ६. कान्ता ७. प्रभा ८. परा ।
मित्रा दृष्टि प्रथम दृष्टि मित्रा है, जिसमें राग-द्वष हल्के होते हैं, किन्तु होते हैं कुछ ही मात्रा में, इसमें जो बोध होता है वह चिनगारी की तरह क्षणिक और कम होता है। जिस वस्तु के प्रकाश में अनुभूति स्पष्ट नहीं होती । वह यह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या अनिष्ट है और क्या इष्ट है ? उसके मन में अच्छे विचार तो आते हैं पर वे स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकते। वह धार्मिक क्रियाएँ प्रथा के रूप में करता है पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन चित्त की मलिनता कम हो, इसलिये नहीं करता, पर शुभ कार्यों में स्वतः रुचि होने लगती है। प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव बढ़ने लगता है। रागद्वेष की ग्रन्थियां घटने लगती हैं, चित्त में निर्मलता आने लगती है। अभ्यास बढ़ाने से तारा दृष्टि तक पहुँचा जाता है।
तारा दृष्टि मित्रा दृष्टि से इसमें राग-द्वोष का प्रभाव कुछ अधिक हल्का होता है । ज्ञान, विचार शक्ति व बोध पहले से अधिक होता है पर स्थायित्व अब भी नहीं आता। आत्मविकास के लिये वह अधिक प्रयत्नशील रहता है । शौच, सन्तोष, आत्मानुशासन तथा स्वाध्याय करता है । तथा जिन्होंने उच्च स्थिति पाई उनका स्मरण कर उनके विकास पथ का अनुसरण करने लगता है। चित्त अधिक निर्मल होने से उद्वेग कम होता है । विवेक जगने लगता है । अपने दोष और कमियों के लिये खेद तथा आत्मा के उत्थान की जिज्ञासा जागृत होने लगती है।
बला दृष्टि साधक अभ्यास में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है त्यों-त्यों उसे आसन का अभ्यास बढ़ाना आवश्यक हो जाता है । शरीर की स्थिरता के बिना चित्त की स्थिरता नहीं होती इसलिये एक आसन पर अधिक
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स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य श्री मुनि सुशीलकुमार जी देर तक बैठने का अभ्यास बढ़ाना आवश्यक हो जाता है। ज्यों ज्यों अभ्यास बढ़ता है, श्रेय का बोध अधिक स्पष्ट होने लगता है । जो चित्त बाहर दौड़ता रहता था उसे स्वभाव में लाने की चेष्टा साधक करता है जिससे अज्ञान के संस्कार कम होकर ज्ञान के संस्कार बढ़ने लगते हैं। कषायों की तीव्रता कम होने लगती है। विषयों का आकर्षण कम होने लगता है। सुख-दुःख, हर्ष, शोक का मन पर प्रभाव कम होने लगता है । निरर्थक बातों में रस कम होने लगता है । दुःखमुक्ति का उपाय जानने की इच्छा तीव्र होती है । तृष्णा कम होने लगती है । प्राप्त परिस्थिति में सन्तोष मानने लगता है। प्रतिकूल परिस्थिति से घबराता नहीं । भागदौड़ अपने आप कम हो जाती है । कार्य सावधानी व सतर्कता से करने लगता है। नई ग्रन्थियों का बँधना कम हो जाता है इसलिये कर्मक्षय होकर आत्मा पवित्रता के पथ पर अग्रसर होने लगती है। दोप्रा दृष्टि
____ अभ्यास बढ़ने से रागद्वष कम होते जाते हैं, चित्त अधिक निर्मल होने लगता है। बोध स्पष्ट होने से आचरण भी शुद्ध और पवित्र बनता जाता है। इस भूमिका में साधक प्राणायाम का अभ्यास बढ़ाता है जिससे चित्त एकाग्र बनने में आसानी होती है। साधक की बाह्य दृष्टि कम होकर अन्दर की
ओर अधिक ध्यान देने लगता है । सदाचार के प्रति निष्ठा ही नहीं, पर वह आचरण में भी आता है। चित्त की शान्ति बढ़ने लगती है। स्थिरादृष्टि
___ साधक अभ्यास आगे बढ़ाता है तो राग-द्वोष की ग्रन्थी टूटने लगती है । साधक का मन यदि विषय-विकारों की तरफ जाता है तो उसे वापिस आत्मानुभूति में लगाता है । आत्मानुभूति से जो ज्ञान होता है, वह स्वयं का होता है जिससे वह सम्यक्ज्ञान होता है। साधक को शरीर की नश्वरता तथा आत्मा की अमरता का बोध होता है । पुद्गल परमाणुओं से बना शरीर नश्वर और क्षण-क्षण में बदलने वाला है । उसमें उत्पाद और व्यय अखण्ड चल रहा है। नश्वरता का ख्याल कर वह क्षमता को बढ़ाता है। कषायों का उपशमन होने से चित्त की निर्मलता बढ़ती है । चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है । दूसरों के साथ के व्यवहार में सौजन्य बढ़ने से साधक दूसरों की भी शान्ति का कारण बनता है। योग की भाषा में कहा जाय तो प्रत्याहार यानी विषय-विकारों की तरफ जाने वाले मन को स्वानुभव की ओर साधक आरोपित करता है । चित्त की भ्रान्ति दूर होकर निस्सन्देह मन से साधक के द्वारा सहजभाव से निष्ठा के साथ सत्कार्य होने लगते हैं । आत्मानुभव बढ़ता जाता है। कांता दृष्टि
ज्यों-ज्यों चित्त की एकाग्रता का अभ्यास बढ़ता है, साधक की दृष्टि अधिक प्रकाशवान गहरी और स्थिर होती जाती है । आत्मानुभूति सम्यकदृष्टि का रूप लेती है । अपने आपकी जानकारी वास्तविकता का रूप लेती है। साधक अधिक सजग होकर अपने में होने वाली संवेदनाओं को अधिक स्पष्टता से देखता है। अपने द्वारा होने वाली क्रिया को सावधानीपूर्वक देखता है । चित्त अधिक शुद्ध होकर उसके द्वारा सद्गुणों की रुचि बढ़कर उसके द्वारा सदाचार होने लगता है । साधक के द्वारा होने वाले सदाचार या सत्कर्म में सहजभाव में अनासक्ति बढ़ती जाती है । उसे जो बोध होता है वह अनुभव पर आधारित होने से सहजभाव से उसकी आसक्ति कम होने लगती है। स्व-भाव और पर-भाव को गहराई से देखने लगता है । आत्मा व पुद्गल के भेद को जानने से साधक के चित्त में शांति बढ़ती जाती है । आत्मा को मोह मूर्छा से अलग रखता है । कर्म-आश्रब छूटने लगते हैं, संवर दशा प्रकट होती है। अनासक्ति के कारण राग-द्वेष का उपशम होकर नई ग्रन्थियाँ बँधती नहीं।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
दूसरों के साथ व्यवहार में साधक उदारता का व्यवहार करने लगता है । दूसरों को कष्ट न हो इसलिये सहजभाव से उसमें संयम आता है । वाणी में मधुरता आती है। साधक जनप्रिय बनने लगता है। योग के 'धारण' नामक अंग की प्राप्ति होती है। चित्त को साधक मर्यादित क्षेत्र में सीमित रखता है। जिससे चित्त की चंचलता कम होने लगती है । अब उसे बाहरी भौतिक भोगों में अरुचि होकर चित्त को आत्मस्वरूप में लगाता है । अपने भीतर चलने वाली संवेदनाओं से उसके ज्ञान में वृद्धि होती है । आत्मविकास में वह अधिक सजग बनता है । अपने स्वरूप में लीन होता है। सजग होकर अपने भीतर चलने वाले व्यापारों को देखता है। उसमें सूक्ष्म बोध जगता है । मनोभावों की शुद्धि हो जाती है। उसका मन बाहरी जगत से अन्तर्जगत् की ओर रमण करने लगता है। जो राग-द्वेष अहता-ममता के कारण आत्मा के शुद्ध स्वभाव पर आवरण आता था, वह दूर होकर निर्मलता बढ़ती है । साधक में समता बढ़ती जाती है। संयम में वृद्धि होती है।
प्रभा दृष्टि साधक एक आसन पर स्थिर होकर नियमित रूप से सतत् ध्यान का अभ्यास बढ़ाता है तो उसमें सातवीं प्रभा दृष्टि प्रकट होती है । जिससे उसका बोध सूर्य की प्रभा की तरह प्रकाशमान होता है । मन विकल्परहित होकर ध्यान में अखण्डता आने लगती है। वह अधिक समय तक ध्यान में स्थिर रहने लगता है। जिससे उसे सहज शान्ति मिलने लगती है। प्राप्त परिस्थिति में समतापूर्वक रहने का अभ्यास इतना अधिक बढ़ जाता है कि बाहरी सुख की कामना ही लुप्त हो जाती है । जो मुख आत्मा पर आवरणों के कारण ढका हुआ था, वह आवरणों के दूर होते ही पूर्णरूप से प्रकट होता है जिससे दुःख का उस पर लेश मात्र भी प्रभाव नहीं रहता । यह स्थिति किसी शास्त्रज्ञान पर आधारित नहीं होती पर चित्त की निर्मलता के कारण आत्मज्ञान पर-स्वानुभव पर आधारित होती है। राग-द्वेष और कषायों का उपशमन हो जाने से नये कर्मों का बंध नहीं होता । पुराने बंधे कर्मों की समता के कारण निर्जरा होने लगती है। दूसरों के साथ समता रखते हुए भी यदि कोई दुर्व्यवहार करता है तो भी साधक उसके प्रति मैत्रीभाव ही रखता है । उस पर आ पड़े उन दुःखों से उद्विग्न नहीं होता। और न ही उसमें सुखों की स्पृहा या लालसा ही होती है। जिससे साधक पर सुख-दुःखों का प्रभाव नहीं होता । वह इन आने वाले सुख-दुःखों के खेल को देखता रहता है। उसकी प्रज्ञा स्थिर हो जाती है।
योग की भाषा में यह स्थिति ध्यान कही जा सकती है जिसमें ध्यान की साधना कर आत्मानुभव या स्वानुभव की स्थिति का समय अधिक बढ़ाने का प्रयास होता है जिससे कि परादृष्टि की प्राप्ति हो सके।
परादृष्टि इसे योग की भाषा में समाधि कहा जाता है, जिसमें आत्मा की शुद्ध स्थिति प्राप्त होकर संसार को निर्लेप भाव से साधक देखता है । ध्यान की वह अवस्था प्राप्त हो जाती है जिससे सहज भाव से साधक आत्म-समाधि में लीन हो जाता है। इसे जैन-साधना में शुक्लध्यान कहा जाता है । साधकजीवन-मुक्त हो जाता है, सभी प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहता है। उसमें केवल आत्मभावना रह जाती है । अपना-पराया का भेद मिटाकर प्राणी मात्र को आत्मवत् देखता है और उनके साथ पूर्ण संयम का आचरण करता है । मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से वीतराग बन जाता है जो अवस्था उसे निर्वाण दशा तक पहुँचा देती है । दुःखों से पूर्ण मुक्ति देकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्मध्यान और भक्ति
जैन-दर्शन में भक्ति का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भक्ति का रूप भिन्न है। इसमें वीतराग की
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स्वरूप-साधना का मार्ग : योग एवं भक्ति : आचार्य मुनि श्री सुशीलकुमार जी
भक्ति से साधक सामान्य साधना शुरू कर अन्त में निरालम्ब ध्यान की उच्च अवस्था में पहुँचता है। जो आलम्बन लिया जाता है वह वीतराग प्रभु का, जो अपने आप पर विजय पाकर पूर्णत्व को पहुँचे । उसी रास्ते से साधक को सिद्धि प्राप्त करनी होती है। भक्तियोग से ज्ञानयोग में प्रवेश करना होता है जिससे समता तक पहुँच सके और वह अवस्था आती है रूपातीत ध्यान से ।
सामान्य साधना भक्ति से ही प्रारम्भ होती है। भक्ति के भी अनेक प्रकार हैं, फिर भी मुख्यरूप से नवधा भक्ति का ही योगदीपिकाकार ने ५६ वें श्लोक में वर्णन किया है
श्रवण क्रिया भक्ति-श्र तश्रवण अन्तरंग वृत्ति कीर्तन क्रिया भक्ति-आत्मकीर्तन, आत्मघोप सेवन क्रिया भक्ति-भेदज्ञान से आत्मपरिणति वचन क्रिया भक्ति---शुद्ध चैतन्य भाव का बारम्बार वन्दन ध्यान क्रिया भक्ति-धर्मध्यान-शुक्ल ध्यान की परिणति लघुता क्रिया भक्ति-अहंतानाश-नम्रता की प्राप्ति एकता क्रिया भक्ति--समत्व भावना समता क्रिया भक्ति-सभी में समत्व दर्शन का अभ्यास ।
जब साधक भक्ति के द्वारा अन्तःकरण निर्मल कर लेता है तो क्रिया और ज्ञान द्वारा अष्टांग मार्ग पर चढ़ने योग्य हो जाता है । ज्ञान से भक्ति मार्ग का प्रतिपादन इसलिये करना पड़ा कि सर्वप्रथम स्वामी-सेवक भाव भक्ति में अवश्य रहता है ।
वह अपने स्वामी को परमाराध्य की तरह मानता है और अनेक प्रकार से आत्मज्ञान प्राप्ति के लिये स्वामी का अनुग्रह चाहता है। भक्तिमार्गी स्वामी-सेवक भाव में जब हिलोरें लेता है तो उस प्रेमअवस्था का भी योगदीपिकाकार ने अलौकिक रूप से वर्णन किया है और उसकी भी चिन्तन-भेद से ६४ अवस्थाएँ बताई हैं।
भक्त, प्रभु के अनन्तरूपों को स्मरण करता हुआ प्रेम-विह्वल होकर प्रार्थना स्वरूप प्रभु से किस-किस प्रकार उपलब्धि चाहता है ।
परम प्रभु परमात्मा के अलौकिक स्वरूपों को निहारता हुआ भक्त-साधक तद्गुणलब्धि के लिये प्रार्थना करता है।
परमात्मा के अलौकिक शान्त स्वरूप, अनन्त ज्ञान रूप, अनुपम क्षायिक आनन्द निमग्न, समरस एवं सहज-स्वरूप का दर्शन तथा अनुभूति कर साधक प्रभुमय होकर गुण चिन्तन करता हुआ अपनी सुधबुध भूल जाता है और परमात्मस्वरूप हो जाने के लिए विकल हो जाता है, आदि-आदि ।
वास्तव में यह गुण-चिन्तन की साधना ही माधक को प्रभु के साथ तदाकार बनाती है और आत्मा के निजगुणों को चरम उत्कृष्ट तथा प्रकट करने में सहायक होती है । योगमार्ग का प्रारम्भ ऐसे ही आत्मविश्वासी, प्रभुसमर्पित, वीतराग-उपासक तथा विषय-विरक्त आत्मजिज्ञासुओं के लिए हुआ है।
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आत्म-केन्द्रित एवं ईश्वर-केन्द्रित धर्म-दर्शन
-डा0 मांगीमल कोठारी (स्वतन्त्र चिन्तक, एसोसियेट प्रोफेसर दर्शन विभाग
जोधपुर विश्वविद्यालय)
धर्म और दर्शन के इतिहास में हमें प्राचीनकाल से ही दो भिन्न धाराएँ मिलती हैं जिन्हें मिलाने के कई प्रयास हुए हैं जो कई लोगों को शान्ति प्रदान अवश्य करते हैं परन्तु उससे जनित मौलिक कठिनाइयों को हल नहीं कर सकते । एक तो वे धर्म और दर्शन हैं जिनके केन्द्र में ईश्वर का प्रत्यय है और दूसरे वे जिनके केन्द्र में आत्मा का प्रत्यय है । ईश्वर-के िद्रत धर्म और दर्शन
___ पश्चिम एशिया के सभी धर्म-पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम ईश्वर-केन्द्रित हैं। उनके लिए ईश्वर और केवल ईश्वर ही अन्तिम प्रत्यय है । जगत की हर वस्तु उसके द्वारा रचित है । ईश्वर सर्वज्ञानी
और सर्वशक्तिमान है, अर्थात् उसके लिए असम्भव नाम की कोई चीज नहीं। वह जगत का कारण है, उसका कोई कारण नहीं है । जड़ और जीव उसी महान कारण के कार्य हैं। किस प्रकार ? यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है । यह सब केवल उसके संकल्प के फल हैं न कि किसी सनातन समानान्तर सत्ता की नई व्यवस्थाएँ । तर्कबुद्धिजनित सभी दार्शनिक कठिनाइयाँ यहाँ आकर मिट जाती हैं।
पश्चिम एशियाई धर्म अपनी धारणा में स्पष्ट है, एक मत है। चूंकि ईश्वर ने ही सभी जीवों की उत्पत्ति की इसलिए कोई भी जीव किसी भी प्रकार से ईश्वर के समकक्ष नहीं हो सकता । जीव चाहे कितना भी आत्म-विकास करले, ईश्वर तक भी पहुँच जाय, उसका ज्ञान ईश्वर से सर्वदा कम ही रहेगा।
' भारत में वैदिक युग में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा प्रचलित थी और बहुदेववाद से एकेश्वरवाद (monotheism) विकसित होने लगा था । परन्तु उपनिषदों में तत्वमीमांसिक चिन्तन बहत हुआ जिसके फलस्वरूप सेमेटिक धर्मों की तरह भक्तिमार्ग विकसित नहीं हो सका और ज्ञानमार्ग के द्वारा एकेश्वरवाद की परिणति एकतत्ववाद (monism) में होने लगी। हालाँकि कुछ उपनिषदों ने एकेश्वरवाद को प्रचलित करने की कोशिश की, परन्तु उपनिषदों की मुख्य तत्व मीमांसा एकतत्ववाद की रही, जिसे उन्होंने ब्रह्म या आत्मा शब्दों से निर्देशित किया। इस प्रकार ईश्वरकेन्द्रित दर्शन होने के बजाय उपनिषद आत्मकेन्द्रित दर्शन बन गये और जीव और आत्मा को ही ब्रह्म के अर्थ में लेने लगे।
( ७६ )
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आत्म- केन्द्रित एवं ईश्वर केन्द्रित धर्म दर्शन : डॉ० मांगीमल कोठारी
आत्म- केन्द्रित धर्म और दर्शन
भारत के प्राचीनतम धर्मों में जैन धर्म ने ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार किया और हर जीव को अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता होने के विचार को मान्यता दी । अपने पुरुषार्थ से कर्मों के क्षय द्वारा आत्म-विकास करके मोक्ष प्राप्त करने की क्षमता में पूर्ण विश्वास ने इसे ईश्वर केन्द्रित न होकर आत्म-केन्द्रित बनाया । कर्म का क्या स्वरूप है, और सभी कर्मों का क्षय किस प्रकार हो, यह जैन दर्शन का मुख्य विषय बन गया । आत्मज्ञान की प्राप्ति कर्मों के क्षय होने से ही हो सकती है। कर्म का क्षय कर्म से नहीं हो सकता । ह्र कर्म से नया कर्म ही बनता है, चाहे शुभ हो या अशुभ | जब निर्जरा के द्वारा बुरे कर्मों का क्षय होने लगा या लगता है तो बचे हुए शुभ कर्मों की शक्ति जीव को ज्ञान के विकास की ओर अग्रसर करती है । अन्त में ज्ञान द्वारा बचे हुए कर्मों का नाश उसी प्रकार हो जाता है जिस प्रकार घास के ढेर का एक चिनगारी द्वारा। इस प्रकार मोक्ष - पाप्ति के लिए निर्जरा का महत्व बतलाकर जैन दर्शन ने शुरू से ही एक ऐसी भावना को प्रेरणा दी जिसे लोगों ने कर्म-संन्यास नाम से प्रचलित किया ।
मोटे तौर पर इसी तरह का समाधान बुद्ध ने भी प्रस्तुत किया । महावीर और बुद्ध के समय में देश में एक ऐसा दार्शनिक वातावरण बन गया जब उपनिषद, जैन और बौद्ध दर्शनों ने पूर्णतः ज्ञानमार्ग को बढ़ावा दिया । परन्तु वेदों से प्रेरणा वाले कुछ उपनिषदों ने इस धारणा की ईश्वर केन्द्रित दर्शनों से समन्वय करने की चेष्टा की । पूर्वमीमांसा ने वैदिक धर्म को अपनाया, जबकि उत्तर-मीमांसा ने एकतत्ववादी उपनिषदों को आधार बनाया । वेदों की खुलकर निन्दा न करते हुए भी उपनिषदों में वैदिक मूल्यों का अवमूल्यन किया गया । शंकराचार्य मौटे तौर पर आत्म- केन्द्रित रहे । परन्तु वेदान्त की अन्य सभी शाखाओं के आचार्यों ने ईश्वर- केन्द्रित दर्शनों का प्रतिपादन किया जिसके फलस्वरूप दार्शनिक जगत में एक ऐसा अन्तर्विरोध बढ़ गया जिसका समाधान करने का हर प्रयास विफल रहा । यह विरोध केवल सिद्धान्त की दृष्टि तक ही सीमित नहीं रहा। इसके बहुत महत्वपूर्ण व्यावहारिक परिणाम निकले । वेदान्त के आचार्यों ने एकेश्वरवाद और एकतत्ववाद का मिश्रण कर दिया । इसने दर्शनशास्त्र को एक अमिट उलझन में डाल दिया । वेदान्त के आचार्य उस उलझन में खो गये । जबकि सेमेटिक धर्म पूर्णरूप से ईश्वर - केन्द्रित रहे । वेदान्त पर आधारित सभी धर्म और दर्शन न तो पूर्णरूप से ईश्वर - केन्द्रित रहे, न पूर्णरूप से आत्म- केन्द्रित रहे । उन्होंने कर्म के सिद्धान्त में कर्मफल की अनिवार्यता को मानते हुए भी ईश्वर को कर्मफल पर वीटो (Veto) की शक्ति प्रदान की । प्रारब्ध, विधि, कर्मगति में सब को बाँधकर भी पुरुषार्थ के लिए उचित स्थान बनाये रखा और ईश्वर की सर्वशक्तिमानता में कमी नहीं आने दी ।
वेदान्त के अनुयायी व्यावहारिक जीवन में वैदिक कर्मकाण्ड और उस पर आधारित स्मृतियों से प्रेरणा लेते रहे । इस प्रकार भारतीय जीवन में एक तरफ वैदिक कर्मकाण्ड और दूसरी तरफ जैन प्रेरित निर्जरा के प्रभाव से अधिक से अधिक बचने का विचार, जो जैन और वैदिक धर्म दर्शनों में निरन्तर विवाद का विषय बना हुआ था, वह अब वेद-वेदान्त के भीतर भी विवाद का विषय बन गया । गीता ने स्पष्ट रूप से उस समय के विचार-द्वन्द्व को "कर्मयोग बनाम कर्म संन्यास " के द्वन्द्व के रूप में प्रस्तुत किया । कर्म द्वारा मोक्ष की प्राप्ति या कर्मसंन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के विषय पर बहुत लम्बे समय तक विवाद चलता रहा । गीता ने अपने दर्शन को ईश्वर केन्द्रित बनाकर कर्म के साथ ज्ञान और भक्ति का इस तरह मिश्रण किया कि उससे उलझन बढ़ती ही गई । शंकराचार्य ने व्यवहार में सभी तरह के विरोधा
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन भासों को पलने दिया, परन्तु सिद्धान्त रूप से वेदान्त को पुनः आत्म-केन्द्रित बनाने की पूरी कोशिश की। लेकिन बाद के कई सन्तों ने गीता को केन्द्र बनाकर भक्ति मार्ग को इस प्रकार बल दिया कि कर्म और ज्ञान का महत्व गौण होने लगा। हमारा सामाजिक और राजनैतिक जीवन भी ईश्वर के भरोसे चलने लगा । हमारी भावनाएँ, शुभ और अशुभ भक्ति-केन्द्रित रहीं जिसके दुष्परिणाम साम्प्रदायिक तनाव के रूप में उभरने लगे । ईश्वर-केन्द्रित दर्शनों को अपनाने वाले सेमिटिक धर्मों ने ईश्वर के नाम पर खूब लड़ाईझगड़े किये । यहूदियों ने यह वा के नाम पर, ईसाइयों ने ईश्वर के नाम पर और मुसलमानों ने अल्लाह के नाम पर "धर्मयुद्ध" किये और खूब खून बहाया । इन सवका यही विश्वास रहा है कि ईश्वर केवल हमारे साथ है, अन्य धर्मों के लोगों के साथ नहीं है । वह उनको नरक में भेज देगा।
___ भारतीय धर्म और दर्शन जब तक आत्म-केन्द्रित रहे, यहाँ का सामाजिक और राजनैतिक जीवन मतान्धता से विषाक्त नहीं हुआ था। परन्तु इस्लाम के आने के बाद स्थिति बदलनी शुरू हुई। गुलामी के लम्बे युग में ईश्वर-भक्ति ने उन्हें एक अजीब तरह की मस्ती प्रदान की । शंकराचार्थ के बाद वेदान्त पूर्णरूप से ईश्वर-केन्द्रित बन गया। ईश्वर-केन्द्रित बनने पर आत्मज्ञान का अवमूल्यन शुरू हुआ । भक्ति के नाम पर अज्ञान और मतान्धता बढ़ते गये । रामानुज, मध्व और वेदान्त के अन्य आचार्यों ने शंकराचार्य के विरुद्ध ही नहीं बल्कि आपस में भी अशोभनीय भाषा में विवाद शुरू कर दिये । ईश्वर के नाम पर धार्मिक वैमनस्य बढ़ने लगा।
जब अंग्रेज भारत छोड़ने को थे, तब मुसलमानों ने पाकिस्तान के लिये जिहाद-सा छेड़ दिया। उनकी सफलता से इस धारणा को बल मिला कि बड़े पैमाने पर हिंसा के द्वारा राजनैतिक लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। इससे पंजाब के मतान्ध लोगों को प्रेरणा मिली । आज पंजाब में रोज निर्दोष लोगों की हत्याएँ हो रही हैं । वे सब ईश्वर के नाम पर ही हो रही हैं । हम यह नहीं कह सकते कि आतंकबादियों में भक्ति नहीं है । वह आवश्यकता से अधिक है। परन्तु आत्म-केन्द्रित दर्शन के अभाव में वह अज्ञान में लिप्त है।
आज धार्मिक क्षेत्र में जिस तरह का वातावरण बना हुआ है, वह भक्ति मार्ग के अनावश्यक महत्व के कारण हुआ है । भक्ति के साथ ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, वरना उसके परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं, व्यक्ति के लिये ही नहीं बल्कि समाज और देश के लिये भी । सिद्धान्त और व्यवहार में केवल जैन दर्शन ही आत्मकेन्द्रित रहा है । जैन समाज में जहाँ कहीं भी बुराई दिखाई दे रही है उसका कारण भक्ति की लहर का कुप्रभाव है । कई क्षेत्रों में जैन लोग [वैष्णवों की भक्ति की नकल करने में लगे हैं । परिणामतः जैन समाज में साम्प्रदायिकता की बीमारी कई वर्गों में फैल गई है। पुस्तक पूजा, मूर्ति पूजा, व्यक्ति पूजा केवल साधन हैं । वे अपने आप में साध्य नहीं हैं । वे यदि आत्म-ज्ञान जाग्रत नहीं कर सकते तो अज्ञान से दूषित भक्ति ही पनपायेंगे । जो लोग ज्ञानी हैं और मतों से परे हैं, वे ध्यान के महत्व पर अधिक बल देते हैं। ध्यान व्यक्ति को तुच्छ भावनाओं से परे ले जाता है। यह ध्यान मन्दिर में मूर्ति के सामने किया जा सकता है और स्थानक, आश्रम या गुफाओं के एकान्त में भी किया जा सकता है । इस विषय पर जो विवाद हुए हैं, वे आत्मज्ञान की कमी के सूचक हैं । यदि जैन दृष्टिकोण आत्मकेन्द्रित रहता है तो भक्ति के साथ जो अज्ञान घुस गया है, उससे वह मुक्त हो सकता है । जैन-जगत को नेतृत्व देने वालों के लिए यह अति आवश्यक है कि वे अपने आत्म-केन्द्रित दर्शन की शुद्धता को बनाये रखें। खण्ड ४/११
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जैन हिन्दी काव्य में 'सामायिक'
डा0 (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति' (एम. ए. (संस्कृत), एम. ए. (हिन्दी), पी. एच. डी.)
सुप्रसिद्ध विदुषी
मोक्षमार्ग के साधन-ज्ञान, दर्शन, चारित्र-सम कहलाते हैं उनमें अयन यानि प्रवृत्ति करना सामायिक है। 'सम' उपसर्गपूर्वक 'आय' धातु में इक प्रत्यय के योग से सामायिक शब्द निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है-आत्मस्वरूप में लीन होना । वस्तुतः समभाव ही सामायिक है । सब जीवों पर समता-समभाव रखना. पाँच इन्द्रियों का संयम-नियन्त्रण करना, अन्तर्हदय में शुभ भावना, शुभ संकल्प रखना, आर्तरौद्र दुानों का त्याग करके धर्मध्यान का चिन्तन करना 'सामायिक' है। 'योगसार' में आतध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके तथा पापमय कर्मों का त्याग करके मुहूर्त-पर्यन्त समभाव में रहना 'सामायिक व्रत' का उल्लेख द्रष्टव्य हैयथा
त्यक्तार्त-रौद्रध्यानस्य, त्यक्त सावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः सामायिकंव्रतम् ।।
-योगसार ३/७२ 'आवश्यक अवचूरि' में सामायिक को सावध अर्थात् पापजनक कर्मों का त्याग करना और निरवद्य अर्थात् पापरहित कार्यों को स्वीकारना माना है-यथा-'सामाइयं नाम सावज्ज जोग परिवज्जणं निरवज्ज जोग पडिसेवणं च ।' 'भगवती' के अनुसार आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थफल हैयथाआया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे ।
-भगवती १/४ सामायिक व्रत भलीभाँति ग्रहण कर लेने पर श्रावक भी साधु जैसा हो जाता है, आध्यात्मिक उच्चदशा को पहुँच जाता है । अतः श्रावक का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक सामायिक करेयथा
सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ।।।
-आवश्यक नियुक्ति ८००/१ चाहे कोई कितना तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि-वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड रूप चारित्र पाले, परन्तु समता भाव रूप सामायिक के बिना किसी को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। सब द्रव्यों में राग-द्वेष का अभाव तथा आत्मस्वरूप में लीनता ही सामायिक है
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
यत्सर्व द्रव्यसंदर्भ राग - द्वषत्यमोहनम् ।
आत्मतत्व विनिष्ठस्य तत्सामायिकमुच्यते ।। (योगसार ५/४७) संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश जैन वाङमय में व्यवहृत 'सामायिक' शब्द अपने इसी अर्थअभिप्राय में हिन्दी जैन काव्य में भी गृहीत है । सोलहवीं शती के आध्यात्मिक कवि ब्रह्मजिनदास द्वारा रचित 'आदिपुराणरास' रचना में सामायिक शब्द के अभिदर्शन होते हैं
तीनों प्रतिमा पाले नीम लेय
सामाइक तीनों काल रे। सत्रहवीं शती के कविश्री जिनहर्ष ने 'तेरह काठिया स्वाध्याय' रचना में इस शब्द का व्यवहार किया है
सामायिक प्रोषध नवकार,
जिनवंदन गुरु वन्दन वार। (जिनहर्ष ग्रन्थावली, पृष्ठ ४८०) पंडित बनारसीदास द्वाग विरचित 'नाटक समयसार' में सामायिक शब्द इसी अर्थ में दृष्टिगत है
‘दर्शन विशुद्धकारी बारह व्रतधारी,
सामाइक चारी पर्व प्रोषद विधि कहे। (नाटक समयसार, पृष्ट १३८) अठाहरवीं शती के कवि भैया भगवतीदास द्वारा रचित 'द्रव्यसंग्रह' रचना में यह शब्द अभिव्यञ्जित है
व्रत प्रतिज्ञा दूजौ भाव, तीजौ मिल्यौ सामायिक भाव ।
-ब्रह्मविलास कवि दौलतराम द्वारा प्रणीत 'क्रियाकोश' रचना में इस शब्द की अभिव्यक्ति हई है
तहाँ जहाँ सामायिक करे, अथवा श्री जिनपूजा धरे, इतने थानक चंदवा होय दीसै श्रावक को घर सोय ।
-छन्द १८० उन्नीसवीं शती के कवि वृन्दावनलाल द्वारा प्रणीत 'प्रवचनसार' रचना सामायिक शब्द के आधार पर ही रची गई है यथा
रागादिक बिनु आपको लखे, सिद्ध समतूल परम सामायिक दशा तब सो लहें अतूल ।
-पृष्ठ १७४ बीसवीं शती की कृतियों में भी सामायिक शब्द इसी अर्थ परम्परा को लेकर अवतरित हुआ है। कवि लक्ष्मीचन्द्र द्वारा रचित 'लक्ष्मी विलास' रचना में सामायिक शब्द दृष्टिगत है-यथा
सो छह विधि सामाइक वंदन, स्तवन, प्रतिक्रमण स्वाध्याय,
कायोत्सर्ग नाम षट् जानौ फिर इक इक् छह भेद बताय। (छन्द ५५) . इस प्रकार सामायिक से शुभोपयोग/शुद्धोपयोग होता है तथा यथातथ्य से साक्षात्कार होता है। सामायिक का अधिकारी वही साधक है जो त्रस-स्थावर रूप सभी जीवों पर समभाव रखता है। उसी का सामायिक शुद्ध होता है जिसकी आत्मा संयम, तप और नियम में संलग्न हो जाती है। शरीर से शुद्ध होकर वैत्यालय में अथवा अपने ही घर में प्रतिमा के सम्मुख अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंचपरमेष्ठी और कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों को नित्य त्रिकाल वंदना तथा अपने स्वरूप का अथवा जिनबिम्ब का अथवा पंचपरमेष्ठी के वाचक अक्षरों का अथवा कर्मविपाक का अथवा पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का, तीनों लोक का और अशरण आदि वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन करते हुए ध्यान करना सामायिक का योग्य ध्येय है।
पता-मंगलकलश, ३६४ सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़
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जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता
महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर [सुख्यात तत्त्वचिन्तक तथा यशस्वी कवि,
लेखक एवं प्रवचनकार
"जैन" शब्द की निष्पत्ति “जिन" से है। "जिन" का तात्पर्य उन महापुरुषों से है, जिन्होंने अपने असीम आत्मबल को उद्बुद्ध कर राग तथा द्वष आदि को जीता । उन जिनों द्वारा जो अनुभूत सत्य प्रकट हुआ, जो आचार-दर्शन प्रसृत हुआ, वही जिन-शासन है, जैनधर्म है । "जिनशासन" शब्द अपनेआप में बड़ी गुण-निष्पन्नता लिए हुए है । साम्प्रदायिक संकीर्णता के भाव से यह सर्वथा अतीत है। रागद्वेष आदि अनात्मभावों के विजय को केन्द्र में रखकर जैन चिन्तनधारा तथा आचार-परम्परा का विकास दया है। यह एक ऐसा राजमार्ग है, जो व्यक्ति-मुक्ति से लेकर समाज-मक्ति तक प्रशस्त रूप में जाता है। जैनत्व वास्तव में एक व्यसन-मुक्त, अहिंसक और स्वस्थ-समाज की रचना का जीवन्त तरीका है। यह परम श्रेय के प्रति समर्पित एक नैतिक अनुष्ठान है।
ऐतिहासिकता की दृष्टि से जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है । कुछ समय पूर्व आधुनिक इतिहासज्ञ भगवान महावीर को जैनधर्म का आविर्भावक मानते रहे थे, किन्तु अब ज्यों-ज्यों समीक्षात्मक, तुलनात्मक अध्ययन का विकास होता जा रहा है, विद्वानों की मान्यताएँ परिवर्तित होती जा रही हैं। भगवान पार्श्वनाथ जो जैन-परम्परा के तेईसवें तीर्थकर थे तथा बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि जो कर्मयोगी कृष्ण के चचेरे भाई थे, ऐतिहासिक पटल पर लगभग स्वीकृत हो चुके हैं। इतना ही नहीं ऋग्वेद, भागवत आदि में प्राप्त वर्तमान अवसर्पिणी कालखण्ड के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ की ऐतिहासिकता भी उजागर हो रही है। जैन वाङमय तथा वैदिक वाङमय में भगवान् ऋषभ के व्यक्तित्व का जैसा निरूपण हुआ है, वह बहलांशतया सादृश्य लिये हुए है । ऐतिहासिक खोज ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगी, अनेक अपरिज्ञात तथ्य और प्रकाश में आते जायेंगे, ऐसी आशा है।
जैन दर्शन व्यक्तित्व-निर्माण में जिन महत्वपूर्ण उपादानों को स्वीकार करता है, उनमें पूर्वाजित संस्कारों का अत्यन्त महत्व है । उच्च संस्कार प्राप्त व्यक्तियों की एक विशिष्ट परम्परा स्वीकृत रही है। वैसे पुरुष “शलाका-पुरुष" कहे जाते हैं । शलाका-पुरुष का आशय उन व्यक्तियों से है, जो अपने पराक्रम, ओज, तेज, वैभव तथा शक्तिमत्ता के कारण असाधारणता लिये होते हैं । वे त्रेसठ माने गये हैं-२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ह वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव तथा ६ बलदेव । इनमें चौबीस तीर्थंकर धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से चरम प्रकर्ष के प्रतीक हैं तथा उनके अतिरिक्त ३६ लौकिक वैभव, ऐश्वर्य, शक्ति
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
तथा भोग-प्राचुर्य के संवाहकत्व के नाते विशिष्ट हैं। उनमें वैभव आदि की, अपनी-अपनी पुण्य-संचय के अनुसार, न्यूनाधिकता है । वैभव, शक्ति आदि की दृष्टि से चक्रवर्ती सर्वोपरि है । आध्यात्मिक एवं लौकिक सामंजस्य का यह एक अद्भुत रूप है, जिसे जैन परम्परा ने बड़े समीचीन रूप में उपस्थित किया है। इन शलाका-पुरुषों/मानव-मनीषियों द्वारा ही मानवता के चिराग की धूमिल पड़ती ज्योति को नयी शक्ति दी जाती है।
जिस प्रकार जगत् अनादि अनन्त है, शलाका-पुरुषों की परम्परा भी अनादि अनन्त है। तीर्थंकर समय-समय पर धार्मिक प्रेरणा देते हैं, धर्म को सामूहिक या संगठनात्मक रूप प्रदान करते हैं । उसमें श्रमण, श्रमणी, श्रमणोपासक, श्रमणोपासिका के रूप में चतुर्विध वर्गों का समावेश होता है। जैन परिभाषा में इसे तीर्थ कहा गया है । यह तीर्थ शब्द संघ के अर्थ में प्रयुक्त है। इस तीर्थ के प्रवर्तक को ही तीर्थंकर कहते हैं । धर्म यद्यपि साधना की दृष्टि से वैयक्तिक है, किन्तु वह समूह के साथ, किन्हीं विशिष्ट आचार-संहिताओं के साथ जो उसके मूल दर्शन पर समाश्रित होती है, समुदाय से जुड़ता है, तब वह सामाजिक या संघीय बन जाता है । वैयक्तिक के साथ-साथ धर्म का संघीय रूप परमावश्यक है। यह धर्म की संस्कृति, दर्शन तथा लोकजनीनता को संबल प्रदान करता है। यही वह आधार है, जिस पर किसी भी धर्म की वैचारिक सम्पदा और साधना का अस्तित्व, विस्तार, विकास और संप्रसार टिका रहता है।
किसी भी धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और नैतिक सामाजिक विचार उसके पौष्टिक तत्व होते हैं। प्रायः विद्वान यह मानते हैं कि जैनधर्म के दार्शनिक और नैतिक विचार उत्कृष्टतम हैं। दुनिया में जैन उन कतिपय धाराओं में है जिनमें धर्म भी है और दर्शन भी । धर्म के दृष्टिकोण से वह सदाचार सिखाता कै. दर्शन के दृष्टिकोण से सदविचार का पाठ पढ़ाता है । जैन-दर्शन तो बड़ा अनूठा है । वह परम सांख्य और परम बौद्ध है । सम्पूर्ण सत्य और रहस्य को शब्दों और अंकों में बिठा देने की बौद्धिक स्पर्धा यदि किसी ने अथक प्रयास से की, तो वह जैन "दर्शन" ने । जैन-दर्शन गणित और विज्ञान की विजय का विस्मयकारी स्मारक है । गणनाबुद्धि की उसमें पराकाष्ठा है।
जैन-दर्शन का अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त पुरुषार्थवाद है। प्रत्येक आत्मा मूलतः परमात्मा है। राग-द्वेषजनित क्रोध, मान, माया, आदि कषायजनित कार्मिक आवरणों से इसकी शक्ति, इसका ओज, इसका ज्ञान विविध तरतम्यतापूर्वक आवृत रहता है। संवर और निर्जरामूलक साधना द्वारा इन कर्मावरणों के अपचय से आत्मा का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। कार्मिक आवरणों का जब सर्वथा सम्पर्णतः क्षय हो जाता है, तब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाती है। इसे परमात्मा, परमेश्वर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आदि नामों से अभिहित किया जाता है । जैन-दर्शन में यही ईश्वर का स्वरूप है। ईश्वर एक नहीं है, सभी मुक्त आत्माएँ परम ज्ञान, परम आनन्द के अधिपति होने के नाते ऐश्वर्य या ईश्वरतायुक्त हैं।
जैन दर्शन सष्टि को ईश्वरकृत नहीं मानता है। वह किसी ईश्वर को सृष्टि का सर्जक या उत्पादक नहीं मानता । आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध ही संसार है । जगत् की सारी गतिविधियाँ इसी पर आश्रित हैं । यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। इस सम्बन्ध को ध्वस्त एवं उन्मूलित करना प्रत्येक जीव का अन्तिम लक्ष्य है।
जैन दर्शन के अनुसार यह जगत् अनादि-अनन्त है । आंशिक विप्लब के रूप में जो ध्वंस होता है, वह सामयिक है । मूलतः जगत् का सम्पूर्ण रूप में विनाश नहीं होता । जगत् में जड़-चेतनात्मक पदार्थ समाविष्ट रहे हैं और रहेंगे । जो चेतन, पदार्थ या जीव जगत् में हैं, उन्हें संसारी जीव कहा जाता है। अपने-अपने आचीर्ण कर्मों के अनुसार वे गतिशील-क्रियाशील हैं। कर्मों का क्रम शृंखला रूप में उत्तरो
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जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर तर गतिमान रहता है । इनके अतिरिक्त दूसरे वे जीव हैं, जो मुक्त हैं, सम्पूर्ण रूप में कर्मों का क्षय कर अपनी परम शुद्धावस्था प्राप्त कर चुके हैं। वे लोक के अग्रभाग में, सर्वोच्च भाग में संस्थित हैं; जिसे सिद्ध-स्थान या सिद्धशिला कहा जाता है।
संसार-चक्र में भ्रमण करते रहने का मुख्य कारण सत् तत्व के प्रति अनास्था है, जिसे जैन परिभाषा में मिथ्यात्व कहा जाता है । मिथ्यात्व का मूल उत्स एक उलझी हुई गांठ की ज्यों है, जिसे सुलझा पाना, सही स्थिति में ला पाना बहुत कठिन है। इसे मिथ्यात्व-ग्रन्थि या मिथ्यात्व रूप कर्म-ग्रन्थि कहा जाता है। स्वयं तथा अन्तः स्फूर्तिजनित उद्यम के परिणाम स्वरूप जब मिथ्यात्व की ग्रन्थि खुल जाती है, तब जीव उस नये आलोक का अनुभव करता है, जिसे वह अब तक विस्मत किये था. दसरे शब्दों में जो अब तक आवृत था ।
___ यह स्थिति जैन दर्शन में सम्यक्त्व के नाम से अभिहित हुई है। सम्यक्त्व साधना का प्रथम सोपान है । यह उसका मूल है । इसे साधे बिना साधक शुद्ध साधना की दृष्टि से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता । इसके न होने से ज्ञान अज्ञान का रूप लिये रहता है, सदाचरण जीवन में यथावत् रूपेण समाहित हो नहीं पाता । अर्थात् ज्ञानाराधना और चारित्र-साधना दोनों असाधित रह जाती हैं।
जैनधर्म का मानना है कि सम्यवत्व से रिक्त व्यक्ति चलता-फिरता "शव" है। सत्य तो यह है कि सम्यक्त्व ही जैनत्व की पहचान है । यही तो वह पगंडडी है, जो कमल की पंखुड़ी की भाँति निलिप्त और आकाश की भाँति स्वाधीन जीवन जीने की एक स्वस्थ जीवन-शैली दर्शाती है।
सम्यक्त्व का दिव्य प्रकाश स्वायत्त हो जाने पर साधक सच्चा परीक्षक बन जाता है । वह देव, गुरु तथा धर्म को भली-भाँति पहचान लेता है कि सच्चे देव वे हैं, जिन्होंने राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, एवं लोभ आदि आत्म-विकारक अवगुणों का सर्वथा नाश कर दिया है, जो परम शुद्ध परमात्म-भाव में संस्थित हैं । गुरु वे हैं, जिनके जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का समग्र रूप में क्रियान्वयन है; जो आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण में भी अभिरुचिशील है। जो संयम, साधना
और तपश्चरण से जुड़ा है; जिसमें अहिंसा मौलिक पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकृत है। अहिंसा में सहजरूपेण सत्य आदि का समावेश हो जाता है ।
संस्कृति और नीति के क्षेत्र में भी जैनत्व विश्व चिन्तन का प्रतिनिधित्व करता है । जैन नीति सिखाती है कि औरों को मत सताओ, सच बोलो, चोरी मत करो, जरूरत से ज्यादा सामान मत रखो, दूसरों की स्त्रियों को या पुरुषों को बुरी नजर से मत देखो । ये वे मील के पत्थर हैं, जो नैतिकता के मार्ग पर चलने वाले को गुमराह नहीं होने देते । संसार का कोई भी चिन्तक या धर्म ऐसा नहीं है; जो जैननीति की इन बातों को गलत बता सके ।
वस्तुतः जैन धर्म के प्रवर्तकों का लक्ष्य मानवमात्र में आचार-शुद्धि, विचार-शुद्धि, जीवन-शुद्धि की मशाल जलाना रहा है। इसलिए जैनधर्म ने खान-पान में, भोगों में, वाणी में संयम रखने की प्रेरणा दी। साम्यवाद एवं समभाव की स्थापना के लिए ही अहिंसा पर जोर दिया गया। हिंसा और मांसाहार जैसी अशुद्ध परम्पराओं के प्रभाव से ही मनुष्य कूर, बेरहम, निर्दय और हृदय-हीन बनता है। जैनधर्म का मानना रहा है कि शाकाहार जीवन-शुद्धि का एक मानवीय गुण है, जो तामसी-वृत्तियों को जन्म लेने में अवरोध पैदा करता है।
जैनधर्म ने विश्व-कल्याण की उदात्त भावना के प्रसार के लिए ही अपरिग्रह को प्रत्येक जैन के
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
लिए अनिवार्य व्रत बनाया । सत्य और अचौर्य की ओर जन-चेतना को प्रेरित कर जैनधर्म ने न्याय की तुला का जीर्णोद्धार किया।
जैनधर्म के वर्तमानकालीन प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने राजतन्त्र, अर्थतन्त्र, प्रजातन्त्र और आत्मतन्त्र जैसे स्वच्छ शुद्ध तन्त्रों की स्थापना की। यद्यपि जैनधर्म में उक्त चारों तन्त्रों को अपेक्षित महत्व दिया गया, किन्तु आत्मतन्त्र सच्चिदानन्द स्वरूप में है, सत्य, शिव, सुन्दर रूप है।
सत् तत्व के स्वीकार और साधनगत तत्वों के अवबोध के साथ-साथ क्रियान्विति का प्रसंग आता है वहाँ आत्म-भाव में अवस्थिति तथा अनात्म-भाव या विभाव से पृथक्करण का प्रयत्न गतिशील होता है, जो जैनदर्शन की भाषा में विरति या व्रत कहा जाता है। जब सत् को स्वीकार करते हैं, सहज रूप में असत् छूटता है । असत् के साथ चिरन्तन लगाव होने के कारण उसे छोड़ पाना बहुत कठिन होता है । इसलिए उसके छोड़ने पर विशेष जोर देने हेतु निषेधमुखी या परित्याग-मुखी भाषा का प्रयोग होता है । जैसे अमुक-अमुक कार्यों का त्याग करता हूँ। अपने-आप में आने के अतिरिक्त त्याग और कुछ नहीं है । अहिंसा या सत्य जो आत्मा के अपने भाव हैं, संस्थित होते ही हिंसा या असत्य का परिहार स्वयं हो ही जाता है।
साधना के दो रूप हैं-समग्र तथा आंशिक । समग्र साधना सर्वथा आत्मोन्मुखी होती है। उसमें व्रत स्वीकार निरपवाद होता है। इन साधकों द्वारा स्वीकृत व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। वे महान् इसलिए हैं कि उनकी समग्रता विखंडित नहीं है । ऐसे साधक, श्रमण, मुनि, अनगार या भिक्ष कहे जाते हैं। सब में ऐसी आत्म-शक्ति नहीं होती, अतः जैनधर्म में आंशिक साधना का भी विधान है । वहाँ व्रतों की स्वीकृति स्वीकृर्ता की आत्म-शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार अंशतः होती है। अपवादपूर्वक या छूट के साथ वहाँ व्रतों का परिग्रहण होता है । यह साधना गृहस्थ-जीवन से सम्बद्ध है। गृहस्थ-साधक श्रमणोपासक या श्रावक कहा जाता है। इसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं, जिनका गुणवतों तथा शिक्षा-व्रतों के रूप में विस्तार है । अणुव्रतादि का पालन करने से व्यक्ति साधना-पथ पर तो बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त करता ही है, साथ ही साथ समाज में नैतिकता के प्रसार में अपनी भूमिका निभाता है।
यद्यपि जैनधर्म निवृत्तिप्रधान है, किन्तु वह प्रवृत्ति मार्ग का निषेध नहीं करता है। जैनधर्म मानता है कि निवृत्ति को लोक कल्याण की भावना से मुह नहीं मोड़ना चाहिए। निवृत्ति का उद्देश्य अशुभ से हटना होना चाहिए और प्रवृत्ति का उद्देश्य शुभ से जुड़ना। निवृत्ति को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए अपनानी चाहिए और प्रवृत्ति में क्रियाओं का सम्पादन विवेकपूर्वक करना चाहिए।
इस प्रकार निवृत्ति-साधना/मुनि-साधना और प्रवृत्ति-साधना/गृहस्थ-साधना के रूप में चारित्रिक आराधना के ये दो क्रम हैं । ये सम्यक रूप से उत्तरोत्तर प्रगति करते जायें, यह वांछनीय है। किन्तु कुछ ऐसी दुर्बलताएँ हैं, जिनके कारण कदम-कदम पर बाधाएँ आती रहती हैं । वे दुर्बलताएँ क्रोध, मान, माया तथा लोभ के रूप में विभाजित हैं, जिन्हें कषाय कहा जाता है। सम्यक्श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक चारित्र प्राप्त कर लेने पर भी ये भीतर ही भीतर उज्जीवित रहते हैं तथा साधक को विचलित करते हैं। अतः व्रत-पालन के साथ-साथ इनको क्षीण करने के लिए भी साधक को सतत् समुद्यत रहना आवश्यक है। नैतिक प्रगति के लिए कषाय-विजय अनिवार्य है । कषाय विजय का उपक्रम ही जैनदर्शन में गुणस्थानों के रूप में व्याख्यात हुआ है। गुणस्थान और कुछ नहीं, मात्र आत्म-विकास की उत्तरोत्तर विविध भूमिकाओं का परिचायक है।
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जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
साधना में सबसे बड़ा बाधक तत्त्व वासना या आसक्ति है । यह चिरकालीन संस्कारजनित है । इसे निर्मूल करने के लिए सबसे पहले मन को परिमार्जित करना अपेक्षित है । मानसिक संमार्जन हेतु जैन धर्म में द्वादश अनुप्रेक्षाओं / भावनाओं का अभ्यास अत्यन्त उपयोगी है । भावना तथा चिन्तना में एक अन्तर है । चिन्तना किसी विषय को सोचने तक सीमित है, जबकि भावना उसमें पुनः पुन: अवगाह्न, आवर्तन तथा तदनुरूप अनुभव से सम्पृक्त है । भावनाओं के विधिवत अभ्यास से चिरसंचित वासनाएँ ध्वस्त हो सकती हैं ।
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जैनधर्म ने मन की वासनादिपरक अशुभ वृत्तियों के परिमार्जन और शुभ वृत्तियों को आत्मस्वरूप की ओर दिशा प्रदान करने के लिए ही योग और ध्यान जैसे रास्ते बताये । मन, वचन, काया के योगों से उपरत होकर आत्मपथ पर योजित होना योग है । ध्यान इस यौगिक सफलता की कुञ्जी है । ध्यान वास्तव में अन्तर्यात्रा है । मन, वचन, काया के योगों का स्थिरीकरण ही ध्यान है । मानसिक वृत्तियों को बाहरी भटकाव से अन्तरात्मा की ओर मोड़ना ध्यान की सहज प्रक्रिया है। ध्यान अध्यात्म का प्रवेश द्वार है और अध्यात्म शुद्धात्मा में विशुद्धता का आधारभूत अनुष्ठान है ।
जैन धर्म नैतिक जीवन का साध्य मोक्ष मानता है । मोक्ष वास्तव में संघर्ष का निराकरण एवं समत्व का संस्थापन है । इस मंच पर पहुँचने के लिए जैनधर्म सोपान है । यह बन्धन से मुक्ति की ओर जाता है । मोक्ष व्यक्ति के व्यक्तित्व की पूर्णता का परिचायक है ।
आध्यात्मिक उपासना के लिए तत्वज्ञान तथा तत्वानुशीलन उपादेय है । तत्वानुशीलनपूर्वक आचीर्ण धर्म संचालित क्रिया-प्रक्रिया का अपना असाधारण महत्व और प्रभाव होता है । इससे अन्तर्मन विमल और निर्ग्रन्थ बनता है ।
यदि हम जिनशासन के तत्वदर्शन पर विचार करें, तो लगेगा कि वह काफी वैज्ञानिक है । जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत तत्व, पदार्थ भी अनेक दृष्टियों से विज्ञान सम्मत तत्त्वों एवं पदार्थों से मेल खाते हैं । विज्ञान का मूल आधार भौतिकवाद है। जैन दर्शन में भूत (मैटर) के लिए पुद्गल शब्द का व्यवहार हुआ है । इसके मूल में पूरण और गलन बढ़ना-घटना है, जिसका तात्पर्य उसकी अनेक रूपों में परिणति है । पुद्गल की सबसे छोटी इकाई परमाणु है । परमाणु अविभाज्य है । विज्ञान जिसे एटम कहता है, वह वास्तव में परमाणु नहीं है, वह स्कन्ध या वैज्ञानिक भाषा में मोलीक्यूल है । आज जो परमाणविक ऊर्जा उपलब्ध है, वैज्ञानिक उसे परमाणु विखण्डन से कहते रहे हैं, जो वास्तव में स्कन्ध के विखण्डन मे प्रगट हुई है । जैन दर्शन परमाणुवाद में जिस सूक्ष्मता में गया, विज्ञान उधर गतिशील है, ये दोनों के सुखद समन्वय की दिशा है ।
इसी प्रकार अनेकान्त तथा स्याद्वाद जैनधर्म की अनुपम देन है । पदार्थ का स्वरूप अपने में गुणों की अनेकता समेटे है, जिसे एक साथ प्रकट नहीं किया जा सकता। इसके आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को समझने और विवेचित करने में जिस पद्धति को स्वीकार किया गया है, वही अनेकान्त और वचन - प्रयोग की दृष्टि से स्याद्वाद का रूप लेती है । इसे सात प्रकार से कहा जाता है। जहाँ पदार्थ के अपने स्वरूप के सद्भाव, दूसरे के असद्भाव तथा दोनों एक साथ कहे जाने में अवक्तव्यता का आधार लिया गया है । यों भेद में अभेद सध जाता है । स्याद्वाद का बोध करने के लिए जैन दर्शन का प्रमाण-वाद व नयवाद सहायक है । इस सिद्धान्त की प्रामाणिकता व उपादेयता विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक अल्वर्ट
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
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आइन्सटीन की " थ्योरी ऑफ रिलेटीविटी" से सिद्ध होती है । विभिन्न वाद और वैचारिक वैषम्य के समाधान के लिए इस सिद्धान्त की उपादेयता असन्दिग्ध है ।
पदार्थ - विज्ञान को समझने के लिए जैन दर्शन का त्रिपदी - सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण है । वस्तुतः जैन दर्शन के विवेचन का मूल आधार ही त्रिपदी है । उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता - त्रिपदी के तीन आधार हैं । अपने मूल स्वरूप की दृष्टि से कोई भी पदार्थ कभी मिटता नहीं, केवल रूप बदलता है । रूप बदलने में पहला रूप मिट जाता है, नया रूप प्रकट होता है । प्रकट होते नये रूप को उत्पत्ति, मिटते हुए पुराने रूप को विनाश कहा जाता है । उत्पत्ति और विनाश दोनों को लिये हुए स्थिति ध्रुवता नित्य विद्यमान रहती है |
जिस वनस्पति जगत का हम उपयोग करते हैं, वह वास्तव में है क्या - इस पर जैन चिन्तकों की देन सर्वथा मौलिक है। जैन चिन्तकों के अनुसार वनस्पति जगत सप्राण, सजीव, अनुभूतिशील, स्पन्दनशील है । उसकी भी जीवन धारा अन्य प्राणियों की ज्यों विविध स्पन्दनों के रूप में विचित्रता
ये हुए है । वनस्पति पर बहुत सूक्ष्म विवेचन देने का जैन चिन्तकों का लक्ष्य यह रहा कि उसके उपयोग • मनुष्य जहाँ तक सध सके, हिंसा से अधिकाधिक दूर रहे। जैन दर्शन में इस सम्बन्ध में हुए ऊहापोह गहराई में न जाने वाले लोगों को कल्पित से लगाते थे, किन्तु उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के महान् वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने गहन गवेषणा के द्वारा वह सब सिद्ध कर दिया ।
जैन दर्शन ने जिन तत्वों की चर्चा की हैं, उनमें आत्म-तत्व मुख्य है । आत्मवाद की शाश्वतता ही जीवन का रहस्य है । संसारी आत्मा जन्म, सुख, दुःख, मरण आदि से जुड़ी हैं । जन्म और मरण आत्मा के कर्मजनित रूप - परिवर्तन के आयाम हैं ।
तात्विक स्वाधीनता जैनधर्म की अस्मिता है। इसके अनुसार स्वाधीनता स्वतन्त्रता लोक का और लोक की रचना करने वाले प्रत्येक तत्व का सहज गुण है। किसी भी द्रव्य ने ऐसा अस्तित्व नहीं पाया, जो किसी और के पराधीन हो, हो सकता हो, किसी और की स्वाधीनता छीन सकता हो । अपनी इस स्वाधीनता को खोजने और उसे एकाग्र अखण्ड रूप देने के लिए समर्पित होना ही साधना है, यही जैन धर्म की तात्विक मीमांसा की आधारशिला है ।
जैन धर्म ने जीवात्मा, पुद्गल - परमाणु आदि षट द्रव्यों का विवेचन करके उनके संयोग एवं विभाग द्वारा विश्व - सृष्टि की जो अवधारणा प्रस्तुत की, वह भी विज्ञान से तुलनीय है ।
अतः कहा जा सकता है, जैन संस्कृति, जैन दर्शन की धारा बड़ी समृद्ध परम्परा है । जैसे सूर्य सबके लिए प्रकाशक है, वैसे ही जिनशासन / जैन धर्म है, सबके लिए कल्याणकारी, अमृततुल्य । जिनशासन के धर्म-संघ / तीर्थ में आने से पूर्व चाहे कोई किसी भी जाति, वर्ण, वर्ग आदि के घेरे में रहा हो पर इसमें सम्मिलित होने के बाद कोई भेद-भाव नहीं रहता । सब एक हो जाते हैं, समान हो जाते हैं ।
संक्षेप में, जैनधर्म की मूलभूत सिखावन यही है कि व्यक्ति को "खाओ, पिओ और मौज उड़ाओ" की भौतिक भूमिका अथवा बाह्य जीवन से ऊपर उठकर आभ्यन्तर जीवन का दर्शन करना चाहिये और विवेकपूर्वक श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र रूप त्रिविध साधना मार्ग में विचरण करना चाहिये । इस पर विहार करके ही व्यक्ति वीगराग बन सकता है, 'अर्हत्' - अरिहन्त पद प्राप्त कर सकता है । अतः वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनाग्रह और वैयक्तिक जीवन में अहिंसा को ही महत्व देना चाहिये । संक्षेप में यही जिनशासन है, जैन धर्म है ।
खण्ड ४/१२
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जैन साधक के “षडावश्यक-कर्म"
-महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
सामायिक 0 सामायिक में चित्तवृत्ति की, समता हो, पापों से विरति । आत्म-रमण के सुन्दर पथ पर, यात्रा की है सहज स्वीकृति ॥ हम गृहस्थ चाहे साधक हैं, पर क्या सामायिक से युत हैं ? अगर नहीं इसकी धारा तो, कल्मष-सने, साधनाच्युत हैं । समता की पावनता से युत, अन्तर्-गंगा में अवगाहन । राग-द्वष का कलुष हटाकर, सामायिक यों करती पावन ।।
स्तवन । तुम तो वीतराग हो भगवन् ! नहीं स्तवन से तुम्हें प्रयोजन । निन्दक हो चाहे तव पूजक, तेरा सब पर सदा एक मन । तेरा तदपि अनवरत सुमिरण, नर का पाप-कलंक हटाता। सुप्त चेतना जागृत होती, निज जिनत्व का बोध कराता ॥
अहंकार के हिममय टीले, तव स्तवन से ढह जाते हैं। वहाँ महल आदर्श गुणों के, अपना वैभव दिखलाते हैं।
0 वन्दन 0 संयम तथा गुणों से शोभित, उत्तम गुरुवर कहलाते हैं। उन सबको हो शत-शत वन्दन, मोक्ष-मार्ग जो दिखलाते हैं । गुरु-वन्दन से बढ़ते रहते, विद्या, ख्याति और अन्तर्बल, साधकजन गुरु पर आधृत, ज्यों भवनों को खम्बे का सम्बल । वन्दन-विनय धर्म की जड़ है, विनयवन्त की लघु अभिव्यक्ति । लघुता में बसती है प्रभुता, गुरु-अनुकम्पा से मिलती शक्ति ॥
प्रतिक्रमण पंख वासना के फैलाकर, पंछी उड़ता नील गगन में। सुख का सागर लहराता था, जब उसके ही अन्तर्मन में ॥
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
११.
अन्तरिक्ष में भरी उड़ानें, पर तृण भर भी हर्ष न पाया । व्याकुल पंछी मोद खोजता, लौट नीड़ में सहसा आया । साधक प्रतिक्रमण से लौटो, अपनी आत्मा के स्वभाव में । हृदय सुधा से भर सकता है, मात्र वासना के अभाव में ।
कायोत्सर्ग 0 काया है माटी का पुतला, बनता और बिगड़ता रहता। पर मानव उस पर मोहित हो, आत्म-भाव आरोपित करता ।। देह रहे, पर देह भाव से, देहातीत-अवस्था पायें । जड़ को जड़; चेतन को चेतन, मन में भेद-ज्ञान यह लायें।
कर अभ्यास कायोत्सर्ग का, आत्मध्यान के आलम्बन से । छूटे काया-भाव; मुक्ति का मार्ग प्रशस्त बनेगा जिससे ॥
0 प्रत्याख्यान C कांक्षा की धारा में बहना, जीवन का है यह मुर्दापन । छोडो बहनाः सीखो तिरना. सागर-तट पाओगे जीवन ।। प्रत्याख्यान इसी को कहते, कांक्षाओं का निरोध होता। प्रवृत्तियाँ मर्यादित होतीं, कर्मास्रव का निरोध होता । प्रत्याख्यान कल्पतट बन्धन, पाप-बाढ़ से मुक्ति दिलाता। बाँध अधिक जितना दृढ़ होगा, उतना वह प्रवाह रुक जाता ॥
मूल में श्रद्धा हो तो विनय स्वतः ही प्रस्फुरित हो जाता है । आज अहं हमारे हृदय में इसलिए पुष्ट हो रहा है, क्योंकि हमारे हृदय में श्रद्धा के भाव नहीं हैं । आनन्दघन जी महाराज स्पष्ट कहते हैं
शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व क्रिया करी ।
छार पर लिंपणो तेह जाणो । राख पर कितना ही हम गोबर से लेप करें, कहीं वह गोबर टिकाऊ हो सकता है।
Do with faith, if you lack faith do nothing. श्रद्धा से कर्म करो, अगर श्रद्धा नहीं है तो वह कर्म निष्फल है ।
-आचार्य श्री जिनकान्तिसागर सूरि
('अमर भये ना मरेंगे' पुस्तक से)
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__ जर्मनी के जैन मनीषी : जैन दर्शन दिवाकर हेरमान याकोबी (जेकोबी)
-डॉ० पवन सुराणा
[यूरोपीय भाषाओं के अध्ययन-अनुसन्धान में निरत
विदुषी लेखिका तथा प्राध्यापिका अध्यक्षा-यूरोपीय भाषा-विभाग, राज. वि. वि. जयपुर
जैन दर्शन एवं साहित्य के गण्यमान जर्मन विद्वानों वेबर, शूब्रिग, ब्यूलर, ग्लासेनाप, आर्लसडोर्फ रोथ तथा ब्रन आदि के नामों के साथ प्रतिभा के धनी हेरमान जेकोबी का नाम प्रमुख रूप से आता है। भारतीय दर्शन एवं साहित्य के विविध पक्षों का अध्ययन करने वाले इस जर्मन विद्वान ने जैन दर्शन एवं साहित्य का गूढ़ अध्ययन कर अपनी कृतियों से इस क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
लोक-कथाओं एवं जर्मन परम्पराओं से जुड़ी प्रसिद्ध राईन नदी के दोनों किनारों पर बसे कलोन शहर में १ फरवरी १८५० में जेकोबी का जन्म हुआ। स्कूल की शिक्षा उन्होंने कलोन में प्राप्त की । बलिन में उन्होंने गणित का अध्ययन प्रारम्भ किया। परन्तु दर्शन, साहित्य एवं भाषा के प्रेमी जेकोबी को गणित का अध्ययन इतना रुचिकर न लगा । उन्होंने गणित को छोड़कर संस्कृत तथा तुलनात्मक भाषा-विज्ञान का अध्ययन प्रारम्भ किया । १८७२ में बोन विश्व-विद्यालय से उन्होंने डाक्टरेट को उपाधि प्राप्त की। बोन विश्वविद्यालय को १८१८ में ही भारतीय विद्या का केन्द्र होने का श्रेय प्राप्त था। अपने अध्ययन के बाद वे एक वर्ष तक इंगलैण्ड में रहे । १८७३-७४ में जेकोबी ने भारत की यात्रा की। अपने अध्ययन के लिए हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त करने के लिए राजस्थान, गुजरात आदि की यात्रा करने वाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान जार्ज ब्यूलर के साथ यात्रा करने का जेकोबी को सुअवसर मिला। इनको जैसलमेर की प्राचीन
भारतीय विद्या के जर्मन विद्वान जार्ज ब्युलर (१८३७-१८९८) ने अपने जीवन का आधे से अधिक काल भारत में ही व्यतीत किया । कई जैन मुनियों, संस्थानों तथा विद्वान श्रावकों के सम्पर्क में आये । बम्बई के एलफिन्स्टन कालेज में प्रोफेसर रहे । कई कट्टर भारतीय शास्त्री अपने हस्तलिखित पवित्र शास्त्रों को एक विदेशी को नहीं दिखाना चाहते थे । परन्तु ब्युलर के संस्कृत भाषा बोलने के अद्भुत सामर्थ्य ने कटटर भारतीय धर्म शास्त्रियों के हदय को द्रवित किया तथा उन्होंने अपने अमल्य शास्त्र बिना हिचक के जेकोबो को दिखाये।
( ६२ )
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन जैन हस्तलिपियों आदि को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह यात्रा नवयुवक जेकोबी की दिशा निर्धारक बनी । राजस्थान आदि के विभिन्न प्राचीन जैन संस्थानों, जैन साधु-सन्तों एवं विद्वानों से व्यक्तिगत परिचय एवं चर्चा ने जैन धर्म तथा दर्शन को विदेशी होते हुए भी समझने तथा अनुसन्धान करने के क्षेत्र में उनको एक नई दिशा दी।
भारत से लौटने के बाद १८७६ में वे म्यूनस्टर विश्व-विद्यालय में भारतीय साहित्य के प्राचार्य बने । १८८५ में समुद्री किनारे पर बसे उत्तरी जर्मनी के कील शहर में वे आचार्य (प्रोफेसर) बने । १८८६ में वे अपने जन्म स्थल कलोन वापिस लौट आये।
१९१३-१४ में जैकोबी पुनः भारत आये । कलकत्ता विश्व-विद्यालय ने उन्हें काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया एवं डाक्टरेट को मानद उपाधि प्रदान की । अपनी द्वितीय भारत यात्रा के दौरान जेकोबी ने अपभ्रश की दो कृतियों की महत्वपूर्ण खोज की । इससे पूर्व अपभ्रश का ज्ञान व्याकरणाचार्यों के उद्धरणों से ही होता था । “भविस्सदत्त कहा” तथा “सनतकुमारचरितम्" इन दोनों कृतियों का १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशन किया।
जैकोबी १६२२ में विश्वविद्यालय की सेवाओं से निवृत्त हुए परन्तु इसके बाद भी अपने जीवन के अन्तिम चरण १६३७ तक वे अपने अनुसन्धान में लगे रहे। जेकोबी ने कई जैन कृतियों का प्रकाशन तथा उनका अनुवाद जर्मन भाषा में किया ।
इनमें से उल्लेखनीय जैन कृतियाँ निम्न हैं :१-दो जैन स्तोत्र २-भद्रबाहु का कल्पसूत्र' भूमिका टिप्पणी तथा प्राकृत-संस्कृत शब्दावलि सहित प्रकाशित ३-कालकाचार्य कथानकम् ४-श्वेताम्बर जैनों का आर्य रंग सुत्त (आचारांग) ५-हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावली ६-कल्पसूत्र का अनुवाद' ७-उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र ८--उपमिति भवप्रपञ्च कथा ६-विमलसूरि का पउमचरिय'
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"Proceedings of the Bavarian Academy" में १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशित । १८७६ में "Indische Studien" में प्रकाशित ।
लाइपत्सिग में १८७६ में प्रकाशित । ४. Journal of the German Oriental Society (ZDMG) में १८८० में प्रकाशित ।
Pali Text Society द्वारा लन्दन से १८८२ में प्रकाशित । ६. Bibliotheka Indica में १८८३ में प्रथम प्रकाशित तथा १६३२ में पुनः प्रकाशित ।
"Sacred Books of the East" १८८४ में प्रकाशित । इसी में उतराध्ययन सूत्र तथा
सुत्रकतांग सूत्र भी १८६५ में प्रकाशित । ८. १९०१ से १४ तक Bibliotheka Indica में प्रकाशित । ६. १९१४ में प्रकाशित ।
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जर्मनी के जैन मनीषी : डॉ० पवन सुराणा
१०-भविस्सदत्त कहा
जैन कृतियों के सम्पादन एवं अनुवाद के अलावा जेकोबी ने कई अनुसन्धान पत्र जैन धर्म तथा दर्शन पर लिखे । अपने गुरु वेबर के साथ ही जेकोबी का नाम भी जैन साहित्य के अग्रणी विद्वानों में लिया जाता है । जेकोबी ने जैन साहित्य के अलावा गणित तथा विज्ञान आदि अन्य क्षेत्रों में भी अनुसंधान किया। प्राकृत ग्रन्थों के प्रकाशन ने उनको प्राकृत व्याकरण लिखने को भी प्रेरित किया। जेकोबी ने आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक का अनुवाद किया। अपने पेपर भारतीय तर्कशास्त्र में उन्होंने तार्किक ढंग से अनुमान के विचार को स्पष्ट किया । सामान्य पाठक के लिए उन्होंने “पूर्व का प्रकाश" (Light of Orient) नामक पुस्तक की रचना की।
__ जेकोबी के सम्मान में उनकी ७५वीं वर्षगांठ पर किरफेल द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में जेकोबी की सभी कृतियों तथा अनुसन्धान पत्रों का उल्लेख है।
जेकोबी विदेशी विद्वानों में प्रथम विद्वान थे जिन्होंने प्रमाणित किया कि न केवल महावीर बल्कि पार्श्वनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष थे तथा जैन धर्म, बौद्ध धर्म से विकसित धर्म न होकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है । जैन साहित्य पर किए अपने उल्लेखनीय अनुसन्धान के कारण जैन समाज ने उनको “जैन दर्शन दिवाकर" की उपाधि से विभूषित किया।
पैसा आवश्यक है आवश्यक कार्यों की पूर्ति के लिए, न कि अनावश्यक रूप से पेटियों में संग्रह के लिए। पेट भरने योग्य पैसा हम न्याय से अजित कर सकते हैं। पेटियों को भरने के लिए तो हमें अन्याय करना ही होगा । न मालूम उस संगृहीत धन में कितने गरीबों की आहे व हाय-हाय लगी हुई होंगी। वह तो एक प्रकार से खून से सना धन है । उस धन से क्या कभी कल्याण होने वाला है ? आज खूब शिकायतें आती हैं कि हमारा मत; मन्दिर में नहीं लगता । हमारा मन सामायिक में नहीं लगता । हमारा मन ध्यान में नहीं लगता लगता क्यों नहीं ? इसका कारण कभी जानना चाहते हैं ? अगर जाना है तो उन कारणों को दूर करने का प्रयत्न करो । ख्याल रहे, "जैसा अन्न, वैसा मन" अन्न शुद्ध नहीं होगा तब तक मन कैसे शुद्ध होगा? मन की शुद्धि के लिए शुद्ध अन्न की नितान्त आवश्यकता है। पेट में अनाज तो अशुद्ध पहुँचे और हम सामायिक करना चाहें, पूजा करना चाहें तो कभी नहीं होगा।
-आचार्य श्री जिनकान्तिसागर सूरि
('अमर भये, न मरेगे' पुस्तक से)
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सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना
-पं0 कन्हैयालाल दक (जैनधर्म दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, अध्यापक)
सामायिक शब्द जैन धर्म का एक विशेष प्रकार का पारिभाषिक शब्द है, जिसका सीधा व संक्षिप्त अर्थ है, समभाव की प्राप्ति होना । अथवा ऐसी एक विशेष प्रकार की आत्मिक साधना, जिससे साधक को समभाव की प्राप्ति हो । लेकिन इतना मात्र ही सामायिक का अर्थ नहीं है, बास्तव में सामायिक एक विशेष प्रकार की अध्यात्म-साधना है, जिससे मानव-जीवन के चरम लक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति भी सम्भव है। जैनधर्म ग्रन्थों में सामायिक को श्रावक तथा साधु की एक 'पडिमा' के रूप में स्वीकार किया गया है, और इसके स्वरूप तथा महत्व पर सविशेष प्रकाश डाला गया है, जिसका परिज्ञान होना प्रत्येक सामायिक प्रेमी के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
यह सर्वविदित है कि जैन धर्म एक आचार-प्रधान धर्म है। केवल सिद्धान्तों का ज्ञान हो जाना, दर्शन-शास्त्र का प्रकाण्ड पण्डित हो जाना और शास्त्रों का पारगामी विद्वान हो जाना ही जैन धर्म में पर्याप्त नहीं माना गया है, अपितु ज्ञानपक्ष के साथ में क्रिया-पक्ष को भी उतना ही प्रधान माना गया है, क्योंकि जहाँ क्रिया है, वहाँ श्रद्धा है और श्रद्धा के साथ में आचार व सम्यकदर्शन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। कहीं-कहीं तो 'ज्ञानं भारः क्रियां विना' कहकर क्रियाशून्य ज्ञान को भार तक कह दिया गया है । आचार या क्रिया की प्रधानता बतलाते हुए नीतिशास्त्र में भी विद्वान की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्' अर्थात् ज्ञान होने के साथ-साथ जो व्यक्ति तदनुकूल आचरण करता है वही विद्वान है । आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने प्रामाणिक ग्रन्थ 'विशेषावश्यक भाष्य' में कहा गया है कि "नाण किरियाहि मोक्खो' अर्थात् ज्ञान-सम्यग्ज्ञान और क्रिया अर्थात् सम्यक्चारित्र के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । यहाँ सम्यक्ज्ञान में सम्यक्दर्शन का भी समावेश हुआ समझ लेना चाहिए।
जैन धर्म के सिद्धान्तानुसार वास्तविक मोक्षमार्ग की भूमिका का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान (अविरत सम्यक् दृष्टि) से होता है । सत्य के प्रति दृढ़निष्ठा या लगन का होना सम्यग्दर्शन है। अनादि कालीन अज्ञान-अन्धकार में पड़ा हुआ मानव जब सत्य-सूर्य के दर्शन कर लेता है, तब वह अपने आपको कृतार्थ-सा अनुभव करता है । लेकिन मानव-जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सत्य ( ६५ )
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सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना : पं० कन्हैयालाल दक के प्रति अटल विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, अपने आपको साधनामार्ग में समर्पित कर देना और भौतिक साधनों पर से तथा देह सम्बन्धी ममता का सर्वथा त्यागकर पूर्ण समतामय हो जाना साधक के लिये परमावश्यक होता है और इस स्थिति को प्राप्त कराने में शुद्ध सामायिक का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।
जैन धर्म में आत्म-साधक को दो भागों में विभक्त किया गया है-अनगार तथा आगार । इन दोनों के द्वारा की जाने वाली साधना क्रमशः अनगारधर्म तथा आगारधर्म के नाम से प्रसिद्ध है । जो साधक अपने घर-बार, धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार तथा परिग्रह का सर्वथा त्याग करके, सांसारिक ममता व मोह का त्याग करके समभाव की प्राप्ति के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन का उत्सर्ग कर देता है और यावज्जीवन समता दर्शन के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है उसे 'अनगार' कहते हैं और उसकी साधना 'यावत्कथिक-सामायिक' कहलाती है। इसके विपरीत जो साधक घर-बार. धन-सम्पत्ति, कटम्ब-परिवार तथा परिग्रह का स्वामी होकर भी अपने गृहस्थी के व्यस्त समय में से समय निकालकर समभाव का निरन्तर अभ्यास करता है, अपनी शक्ति अनुसार एक, सामायिक करता है, वह आगार या श्रावक कहलाता है और उसकी समभाव की साधना 'इत्वरिक सामायिक' कहलाती है । इत्वरिक सामायिक (एक सामायिक का) काल २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट का होता है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल घर-गृहस्थी या परिवार का त्याग करके ही सामायिक नहीं की जा सकती है अपितु गृहस्थाश्रम में रहकर भी कोई भी साधक, अध्यात्म-साधना एवं समभाव का अभ्यास कर सकता है। फिर भी इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि 'यावत्कथिक सामायिक' का जीवन में बहुत बड़ा महत्व है और वह मानव-समाज के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है । उसका अपना 'त्रैकालिक' महत्व है।
हमारे भिन्न-भिन्न शास्त्रों में सामायिक का जो स्वरूप बतलाया गया है, उसका अवलोकन करने के पश्चात उसकी शुद्धि व सम्यक् परिपालना के सम्बन्ध में विचार करना समीचीन होगा, इस दृष्टि से सर्वप्रथम सामायिक के स्वरूप का विचार कर लें। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक का स्वरूप निम्न प्रकार से बतलाया गया है
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होई, इह केवलि भासियं ।। अर्थात् जो संसार के त्रस तथा स्थावर सब प्राणियों पर समभाव रखता है उसी की सामायिक सच्ची सामायिक है, ऐसा केवली भगवान का कथन है। इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक के साधक को राग, द्वेष, ममता, मोह आदि का शनैः शनैः परित्याग करके आत्मस्थ हो जाना पड़ता है । जिसकी आत्मा यम, नियम, संयम व तप में संलग्न हो जाती है, वही आत्मा शान्ति व एकाग्रचित्त से इस सामायिक व्रत की साधना कर सकता है। अनवस्थित व चंचल चित्त-वृत्ति वाला आत्मा सामायिक व्रत की साधना नहीं कर सकता है।
समस्त व्रतों में सामायिक व्रत ही सर्वश्रेष्ठ है, तथा मोक्ष का प्रधान अंग माना गया है। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाये तो पाँचवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक एक मात्र इस सामायिक व्रत की ही उत्तरोत्तर विकसित व उत्कृष्ट साधना की जाती है।
तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में आत्मा जब शुद्ध, बुद्ध, निरंजन निराकार व परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तब उसकी समभाव की साधना भी पूर्ण हो जाती है और वह जीव स्वयं
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
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सामायिकमय हो जाता है, इसीलिये आवश्यकनियुक्ति में एक स्थान पर कहा गया है कि-'सामाइय भाव परिणइ भावाओ, जीव एव सामाइयं' अर्थात् आत्मा की समभाव रूप परिणति हो जाने से जीव (आत्मा) ही सामायिक है । सामायिक को चौदह पूर्वो का तथा द्वादशांगी का सार भी कहा गया है। विशेषावश्यक भाष्य की गाथा संख्या २७६६ में कहा गया है कि-“सामाइय संखेवो चोद्दस्स पुव्वस्स पिंडोत्ति" अर्थात सामायिक नामक व्रत चौदह पूर्वो का सारभूत पिण्ड है। तत्वार्थाधिगमभाष्य के स्वोपज्ञ टीकाकार आचार्य उमास्वाति ने सामायिक व्रत की महिमा पर प्रकाश डालते हुए बतलाया है कि मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिये सामायिक एक सर्वोच्च साधना है, और द्वादशांगी का सार है।।
अन्तकृद्दशांग सूत्र में जहाँ मोक्षगामी आत्माओं के साधना से परिपूर्ण चरित्रों का उल्लेख आता है, वहाँ स्थान-स्थान पर यह उल्लेख पाया जाता है कि "सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ" अर्थात् प्रत्येक साधक अपने जीवन के साधनाकाल में तपस्या करने के साथ-साथ सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करते थे, तभी उनकी साधना पूर्णता को प्राप्त होती थी। यों देखा जाय तो बारह अंगों में सामायिक नाम का कोई अंग है ही नहीं, फिर भी सूत्र पाठ का आशय यह है कि अध्यात्मसाधना का साधक जितने भी अंग या उपांग ग्रन्थों का अध्ययन करता है, उस अध्ययन के अनुरूप ही अपने जीवन को वह समता का साकार स्वरूप प्रदान कर देता है। वह शास्त्रों के साथ समरस हो जाता है, शास्त्राकार हो जाता है। और इसलिये जीव और उसकी सामायिक एक है, अभिन्न है। यह तदाकारता ही यथार्थ सामायिक है।
ऊपर सामायिक की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए हमने बतलाया था कि समभाव की प्राप्ति करना ही सामायिक है । परन्तु समभाव की प्राप्ति होना आसान नहीं है। समभाव को प्राप्त करना एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है। उसके लिए वर्षों के सतत् अभ्यास की आवश्यकता होती है । रागद्वष से मुक्त होना, विषय-वासना का परित्याग करना, कर्मबन्ध के मूल कारण चारों कषायों से दूर रहना, ममता और परिग्रह भाव का वर्जन करना और एकान्त स्थान में ध्यानस्थ अवस्था में आत्म-स्वरूप का चिन्तन करना .. अर्थात् सभी सावध कार्यों से दूर रहते हुए निरन्तर आत्म-साधना में तल्लीन रहना ही सामायिक है। जैसा कि कहा गया है
सावध कर्म मुक्तस्य दुर्ध्यानरहितस्य च ।
समभावो मुहूर्तस्तत्, व्रत सामायिकमाहितम् ।। प्रारम्भ में अपनी चित्तवृत्तियों को अशुभ कार्यों की तरफ जाते हुए रोकना चाहिए, लेकिन मन बहुत चंचल है, इसे स्थिर करना अति दुष्कर है । यदि अल्प समय के लिए भी इसे आश्रव मार्ग में जाते हुए रोका जाय तो वह संवर कहलाता है । अभ्यास करते-करते इस 'मनःस्थिरीकरण' की संवर क्रिया को कम से कम ४८ मिनट या दो घड़ी तक बढ़ाते चले जाना चाहिए, तब एक इत्वरिक सामायिक का काल होता है।
यों देखा जाय तो काल एक अखण्ड द्रव्य है, उसे टुकड़ों में विभाजित कर के सामायिक के काल का निर्धारण नहीं किया जा सकता है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से चित्तवृत्ति की स्थिरता के लिए साधक के मनःसन्तोष के लिए पूर्वाचार्यों ने सामायिक का काल एक मुहूर्त का निश्चित किया है । इस एक मुहूर्त में भी चित्त की एकाग्रता या स्थिरता का होना अति दुष्कर है तो जीवन भर के लिए मन, वचन तथा काया की प्रवृत्तियों को शान्त, स्थिर व समभाव युक्त बना पाना तो वर्तमान युग में एक कल्पना मात्र है। खण्ड ४/१३
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सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना : पं० कन्हैयालाल 'दक'
इत्वरिक सामायिक करने वाला साधक (श्रावक) अन्तरात्मा की साक्षी से संकल्प करता है कि हे प्रभो ! मैं एक मुहूर्त भर के लिए दो करण व तीन योग से सावध कार्यों का त्याग करता हूँ और प्राणिमात्र के साथ समभाव रखते हुए आत्म-साधना के लिए प्रवृत्त होता हूँ। यदि मेरे संकल्प-पूर्ति में किसी प्रकार की त्रुटि हो तो मैं इस व्रत-भंग स्वरूप पाप की स्वयं निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ और पाप से निवृत्त होता हूँ । सामायिक के स्वरूप को समझे, समझाए बिना आज संख्या-पूर्ति की दृष्टि से सामायिकों की स्पर्धा हो रही है, वे केवल बाह्य वेष-भूषा मात्र है।
__ आचार्य अमितगति ने अपनी 'सामायिक द्वात्रिशिका' में सामायिक के साधक के लिए एक साधना-सूत्र की तरफ संकेत किया है । वह सूत्र (श्लोक) निम्न प्रकार है
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् ।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। अर्थात्-हे जिनेश्वर देव ! मैं जब तक सामायिक व्रत में रहूँ, प्राणी मात्र के साथ मेरा मैत्रीभाव बना रहे, गुणीजनों को देखकर आनन्द और उल्लास का भाव जागृत हो, दुःखी प्राणियों को देखते ही मेरे हृदय में कृपा या दया का भाव उत्पन्न हो जाय, मुझसे शत्रुता का भाव रखने वालों के साथ भी मेरा माध्यस्थ भाव बना रहे, कभी द्वष का भाव हृदय को स्पर्श कर आत्मा को मलीन न बना दे, ऐसी आत्मिक शक्ति मुझे प्रदान करो।
इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन तथा अभ्यास प्रत्येक साधक को करना चाहिए, चाहे वह श्रावक हो या साधु । आज स्थिति विपरीत है । सामायिक की गुणवत्ता की तरफ सबका उपेक्षा भाव है, केवल द्रव्य सामायिक को तरफ ही विशेष भार दिया जाता है, जिसमें आसन तथा मुंहपत्ति की प्रधानता है । आत्म-चिन्तन गौण है । सामायिक करने वाला सामायिक में बोले जाने वाले शब्दों या पाठों का न अर्थ जानता है और न अन्य किसी प्रकार का उसका गम्भीर चिन्तन ही है। सामायिक-काल में मौन स्वाध्याय का तो कहीं नामोनिशान भी नहीं है।
श्रावक के १२ व्रतों में सामायिक एक शिक्षावत के रूप में जाना जाता है। इसे शिक्षाव्रत इसलिए कहा गया है कि सामायिक द्वारा प्राप्त किया जाने वाला समभाव अभ्यास द्वारा ही प्राप्त किया जाता हैं । आचार्य माणिक्यशेखर सूरि ने आवश्यकनियुक्ति में 'शिक्षा' शब्द का अर्थ निम्न प्रकार से दिया है :
"शिक्षा नाम पुन: पुनरभ्यास:"- अर्थात् किसी वस्तु का पुनः-पुनः अभ्यास करना ही शिक्षा है । इस शिक्षा-व्रत में आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने का निरन्तर अभ्यास करना होता है । यह अभ्यास कुछ दिनों या महीनों की साधना से नहीं, बल्कि वर्षों की और इससे भी आगे कई जन्मों की सतत-साधना और संस्कारों से फलीभूत हो सकता है । कषायों का समूल उच्छेदन करना दुष्कर कार्य है । बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि तथा सन्त-मुनिराज भी राग-द्वष तथा कषायों से लिप्त हुए पाये जाते हैं । तेरा-मेरा की भावना वहाँ भी ज्यों की त्यों दिखाई देती है । ऐसी स्थिति में तीन करण व तीन योग से साध्वाचार का पालन कर पाना या यावज्जीवन शुद्ध सामयिक व्रत का पालन करना कैसे सम्भव है ? सामायिक के साधक को तो अहर्निश निम्न प्रकार से चिन्तन करना चाहिये
न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाऽहम् । इत्यं विनिश्चित्य विमुच्य ब्राह्म, स्वस्थः त्वं भव भव ! मुक्त्यै ।।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्र वृन्दैः, यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः।
यो गीयते वेद पुराण शास्त्रः, त देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। अर्थात्-हे आत्मा ! जब तूने सामायिक व्रत को ग्रहण कर लिया है, तब तू इस प्रकार का चिन्तन कर कि संसार के जितने भी पर-पदार्थ हैं, वे मेरे नहीं हैं और न मैं उनका हूँ । इस प्रकार के विचारों से बाह्य-परपदार्थों के साथ के सम्बन्धों का परित्याग करके तू मुक्ति के मार्ग के लिये तैयार हो जा, अर्थात् अपनी आत्मा में स्थिर हो जा। जो वीतराग देव मुनीन्द्र वृन्दों के द्वारा सदा स्मरण किये जाते हैं, मनुष्य तथा देवता भी जिनकी सदा स्तुति करते हैं, वेद, पुराण तथा आगम, शास्त्र जिनकी महिमा का सदा गान करते हैं ऐसे परम विशुद्ध देवाधिदेव मेरे आत्म-मन्दिर में सदा अधिष्ठित हों, जिससे मेरी आत्मा भी उन जैसी पवित्र बन जाय ।
___इस प्रकार से साधक की आत्मा में सतत भक्ति-पूर्ण निर्मल विचारों का झरना प्रवाहित होते रहने से सामायिक में स्वाभाविक रूप से लगने वाले मानसिक, वाचिक व कायिक दोषों से बचा जा सकता है और द्रव्य से तथा भाव से सामायिक शुद्ध और शुद्धतर बनती चली जाती है । इस प्रकार की निर्दोष सामायिक करने से जीवन में अद्भुत आनन्दानुभूति होती है। वह आनन्द अनिर्वचनीय है, केवल अनुभव-गम्य है।
किसी भी व्रत या नियम को स्वीकार करने के पश्चात् उसका भंग न हो या किसी प्रकार की स्खलना न हो, इस ओर व्रती को सदा सचेष्ट रहना चाहिए या यों कहें कि व्रत का पालन करते समय किसी प्रकार के प्रमाद का सेवन न हो, इस ओर व्रती का सदा लक्ष्य होना चाहिए । अन्यथा सामायिक व्रत की आशातना या अवहेलना होने के साथ-साथ आत्म-वंचना भी होगी। कोई भी व्रत या अध्यात्म साधना किसी को दिखाने, प्रसन्न करने, मान-सम्मान प्राप्त करने, यशः-कीर्ति प्राप्त करने या धन-सम्पत्ति प्राप्त करने की अभिलाषा से नहीं की जाती है, व्रत-पालन करने में व्रतस्थ आत्मा का आत्म-सन्तोष ही प्रधान है, क्योंकि उस व्रत का प्रभाव उस आत्मा को ही अनुभव होगा, अन्य को नहीं । सामायिक व्रत का पालन करते हुए भी मन, वचन तथा काया सम्बन्धी दोषों के लगने की सम्भावना बनी रहती है, अतः उनका सावधानीपूर्वक वर्जन हो, आत्मा के परिणाम शुद्ध व निर्मल बने रहें, इस ओर सदा सचेष्ट रहना चाहिए । 'मैं सामायिक व्रत में हूँ,' इस बात की स्मृति साधक को निरन्तर बनाये रखनी चाहिए जिससे दुर्विचार, दुर्ध्यान और मन की चंचलता अपने आप समाप्त हो जाय । सामायिक के निर्धारित काल का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए, जिससे व्रती अपने आप यह निश्चय कर सके कि मैंने अपने चंचल मन को किस सीमा तक वश में कर लिया है । इसी प्रकार से साधना के क्षेत्र में मैं कितना और बढ़ सकता है ?
सामायिक में करने लायक आवश्यक क्रियाओं को मैंने किया है या नहीं ? चविंशतिस्तव किया है या नहीं ? भगवदाज्ञा की सम्यक् प्रकार से आराधना की है या नहीं ? इन बातों का भी चिन्तन सामायिक में किया जाना चाहिए और भविष्य में ऐसा विशुद्ध चिन्तन करने के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। जैसा कि ऊपर कहा गया है, सामायिक के ३२ दोषों में से किसी का भी सेवन न हो, चार प्रकार की विकथाओं में से किसी का सेवन न किया जाय, चार प्रकार की संज्ञाओं (इच्छाओं) में से किसी संज्ञा का मानसिक स्पर्श न हो और व्रत-भंग करने के जो चार प्रकार हैं (अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार) उनमें से किसी का भी ज्ञात या अज्ञात अवस्था में सेवन न किया जाये तभी सामायिक की सम्यक् परिपालना हुई है, ऐसा कहा जा सकता है ।
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अनेकान्त और स्याद्वाद
डॉo चेतन प्रकाश पाटनी (जोधपुर)
( प्रबुद्ध लेखक : विश्वविद्यालय प्राध्यापक )
वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनेन्द्रदेव ने वस्तु-स्वरूप को जानने के लिए लोक को एक मौलिक दिव्य पद्धति प्रदान की है । वस्तु का सर्वांगीण स्वरूप इसी पद्धति से जाना जा सकता है । विचार अनेक हैं, वे बहुत बार परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं परन्तु जिनेन्द्र - निर्दिष्ट पद्धति से परस्पर का यह विरोध समाप्त हो जाता है । यह पद्धति है- विचारों में अनेकान्त और वाणी में स्याद्वाद का
अवलम्बन |
अनेकान्त - इस संधिपद में दो शब्द हैं- अनेक + अन्त । अन्त का अर्थ है- 'अन्तः स्वरूपे, निकटे, प्रान्ते, निश्चयनाशयोः अवयवेऽपि ' इति हैम । अन्त शब्द स्वरूप में, निकट में प्रान्त में निश्चय में, नाश में, मरण में, अवयव में नाना अर्थों में आता है । अनेकान्त में अन्त का अर्थ स्वरूप, स्वभाव अथवा धर्म है ।
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‘अनेके अन्ताः धर्माः सामान्यविशेषपर्यायगुणाः यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः ।' जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्मसामान्य विशेष गुण और पर्याय पाये जाते हैं, उसे अनेकान्त कहते हैं । यानी सामान्यादि अनेक धर्म वाले पदार्थ को अनेकान्त कहते हैं ।
परस्पर विरोधी विचारों में अवरोध का आधार, वस्तु का अनेक धर्मात्मक होना है । हम जिस स्वरूप में वस्तु को देख रहे हैं, वस्तु का स्वरूप उतना ही नहीं है । हमारी दृष्टि सीमित है । जबकि वस्तु का स्वरूप असीम । प्रत्येक वस्तु विराट् है और अनन्तानन्त अंशों, धर्मों, गुणों और शक्तियों का पिण्ड है । ये अनन्त अंश उसमें सत् रूप से विद्यमान हैं । ये वस्तु के सह-भावी धर्म कहलाते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु द्रव्यशक्ति से नित्य होने पर भी पर्यायशक्ति से क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है, यह परिवर्तन अर्थात् पर्याय एक दो नहीं, सहस्र और लक्ष भी नहीं, अनन्त हैं और वे भी वस्तु के ही अभिन्न अंश हैं । ये अंश क्रमभाविधर्म कहलाते हैं । इस प्रकार अनन्त सहभावी और अनन्त क्रमभाविपर्यायों का समूह ही एक वस्तु है ।
किन्तु वस्तु का स्वरूप इतने में ही परिपूर्ण नहीं होता क्योंकि विधेयात्मक पर्यायों की अपेक्षा भी अनन्तगुणा निषेधात्मक गुण और पर्याय का नास्तित्व भी उसी वस्तु में है । जैसे- - गाय । इस शब्द का
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन उच्चारण करने से गाय के अस्तित्व का तथा गाय से भिन्न समस्त पदार्थों के नास्तित्व का ज्ञान होता है अर्थात् गाय आने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा है और भैंस, हरिण आदि पर-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अस्ति-नास्ति दोनों रूप है।
___ 'गाय' का पूर्ण स्वरूप समझने हेतु उसके सद्भाव (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि स्थूल इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले गुण तथा इन्द्रियों से नहीं प्रतीत होने वाले सूक्ष्म अनन्त गुण) तथा असद्भाव रूप (भैंस आदि अभाव रूप गुण) अनन्त धर्मों को जानना परमावश्यक है क्योंकि अनन्त धर्मों के ज्ञान बिना वस्तु का स्वरूप पूर्ण रूप से जाना नहीं जा सकता । वस्तु के अस्ति-नास्ति आदि गुण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं परन्तु अनेकान्तवाद/दर्शन/सिद्धान्त उन सबके विरोध को दूर कर देता है । जैसे-एक मनुष्य किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, श्वसुर, देवर, जेठ, मामा, दादा, पोता आदि अनेक नामधारी है तथा ये सम्बन्ध परस्पर विरोधी भी प्रतीत होते हैं कि जो पिता है वह पुत्र/पौत्र कैसे हो सकता है परन्तु अपेक्षाभेद उस विरोध का शमन कर देता है। इसी प्रकार अनेकान्त नित्य, अनित्य, एकत्व, अनेकत्व आदि विरोधी धर्मों का परिहार करता है। जिस प्रकार एक पुरुष में परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होने वाले पितृत्व/पुत्रत्व और पौत्रत्व आदि धर्म विविध अपेक्षाओं से सुसंगत होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में सत्ता, असत्ता, नित्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता आदि धर्म भी विभिन्न नय-विवक्षा से सुसंगत हो जाते हैं । यथा--द्रव्याथिक नय की मुख्यता और पर्यायाथिक नय की गौणता से द्रव्य नित्य है तथा द्रव्याथिक नय की गौणता और पर्यायार्थिक नय की मुख्यता से समस्त पदार्थ अनित्य हैं तथा महासत्ता की अपेक्षा समस्त पदार्थ एक हैं।
'सद्रव्यलक्षणम्' द्रव्य का लक्षण सत् है, इसकी अपेक्षा जीवादि समस्त पदार्थ एक हैं तथा महासत्ता की अपेक्षा वर्णन किया जाये तो एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का सत्त्व न होने से असत् भी हैं। ऐसा कौन होगा जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थों के नानापने को स्वीकार नहीं करेगा।
आम का फल अपने जीवनकाल में अनेक रूप पलटता रहता है। कभी कच्चा, कभी पक्का, कभी हरा, कभी पीला, कभी खट्टा, कभी मीठा, कभी कठोर, कभी नरम आदि, ये सब आम की स्थूल अवस्थाएँ हैं । एक अवस्था नष्ट होकर दूसरी की उत्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा होती है परन्तु क्या वह आम उस दीर्घ अवधि में ज्यों का त्यों बना रहता है तथा अचानक किसो क्षण हरे से पीला, और खट्ट से मीठा बन जाता है । नहीं, आम प्रतिक्षण अपनी अवस्थाएँ परिवर्तित करता रहता है परन्तु वे क्षण-क्षण में होने वाली अवस्थाएँ इतने सूक्ष्म अन्तर को लिए हुए होती हैं कि हमारी बुद्धि में नहीं आती, जब यह अन्तर स्थूल हो जाता है तब ही वह बुद्धिग्राह्य बनता है। इस प्रकार असंख्य क्षणों में असंख्य अवस्थाओं को धारण करने वाला आम आखिर तक आम ही बना रहता है, उसी प्रकार पदार्थों की मूल सत्ता एक होने पर भी अनेक रूप धारण करती है। पदार्थ का मूल रूप द्रव्य है और प्रति समय पलटने वाली उसकी अवस्थाएँ पर्याय हैं इसलिए पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य ।
द्रव्य परस्पर विरुद्ध अनन्त धर्मों का समन्वित पिण्ड है, चाहे अचेतन द्रव्य हो, चाहे चेतन द्रव्य हो, सूक्ष्म हो या स्थूल हो, मूर्तिक हो या अमूर्तिक हो, उसमें विरोधी धर्मों का अद्भुत सामंजस्य है। इसी सामंजस्य पर पदार्थ का अस्तित्व स्थिर है अतः वस्तु के किसी एक धर्म को स्वीकार कर दूसरे धर्म का परित्याग करके उसके वास्तविक स्वरूप को आँकने का प्रयत्न करना हास्यापद है तथा अपूर्णता में पूर्णता मानकर सन्तोष कर लेना प्रवंचना मात्र है।
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अनेकान्त और स्याद्वाद : डॉ० चेतन प्रकाश पाटनी स्थाद्वाद-नयों के द्वारा अनेक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि करना ही स्याद्वाद है। नय वचनाधीन हैं और वचनों में वस्तु के स्वरूप का युगपत् वर्णन करने की क्षमता नहीं है । क्रम से वस्तु का वर्णन करना स्याद्वाद है।
'स्याद्वाद' शब्द स्यात् और वाद इन दो शब्दों के योग से बना है। 'स्यात्' शब्द अव्यय है। इसका अभिप्राय है कथञ्चित् अर्थात् किसी धर्म की अपेक्षा से, किसी दृष्टिकोण विशेष से । 'वाद' शब्द का अर्थ है-कथन करना । अर्थात् किसी धर्म की अपेक्षा से किसी वस्तु का वर्णन करना स्याद्वाद कहलाता है। कोई-कोई 'स्याद्' शब्द का अर्थ शायद अर्थात् भ्रम, अनिश्चय, सन्देह करते हैं अतः स्याद्वाद को संशयवाद कहते हैं परन्तु यह उनका भ्रम है । स्याद्वाद से वाच्य जो वस्तु है, वह निश्चित है, उसमें भ्रम या सन्देह की कोई सम्भावना नहीं ।
'अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः' (लघीयस्त्रय)। अनेक धर्मों वाली वस्तु में प्रयोजनादि गुणों का कथन करना स्याद्वाद है। विवक्षा, नय अथवा दृष्टिभेद से एक वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का कथन करना स्याद्वाद है।
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय पाँच सूत्र बत्तीस 'अपितानपितसिद्धः' से नित्य, अनित्य, एकत्व, अनेकत्व, सामान्य, विशेष, सत्, असत्, मूर्तत्व, अभूर्तत्व, हेयत्व, उपादेयत्व आदि अनेक धर्मों की सिद्धि होती है।
स्याद्वादः सर्वथैकान्त-त्यागात् किंवृत्तधिद्विधिः ।
सप्तभंगनयापेक्षो, हेयादेयविशेषकः ॥ सर्वथा एकान्तवाद का त्यागकर, कथंचित् विधि से अनेक धर्मात्मक वस्तु का कथन करना स्याद्वाद है । स्थाद्वाद के अभाव में वस्तु की सिद्धि नहीं हो पाती है। वस्तु के अनेक धर्मों का वर्णन सप्त भंगनय को अपेक्षा किया जाता है। स्थाद्वाद वस्तु के सर्वागीण स्वरूप को समझने की एक सापेक्ष भाषा पद्धति है।
जब प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म विद्यमान हैं और उन समस्त धर्मों का अभिन्न समुदाय ही वस्तु है तब उसे व्यक्त करने के लिए भाषा की भी आवश्यकता होती है । जब हम वस्तु को नित्य कहते हैं तो हमें किसी ऐसे शब्द का प्रयोग करना चाहिए जिससे उसमें रहने वाली अनित्यता का निषेध न हो जाये । इसी प्रकार जब वस्तु को अनित्य कहते हैं तब भी ऐसे शब्द का प्रयोग करना चाहिए जिससे नित्यता का विरोध न हो जाये । इसी प्रकार अन्य धर्मों - सत्ता, असत्ता, एकत्व-अनेकत्व आदि का कथन करते समय भी समझ लेना चाहिए । स्यात् शब्द का प्रयोग सब विरोधों को दूर करने वाला है।
___ 'कथञ्चित्' अर्थ में प्रयुक्त हुआ 'स्यात्' शब्द एक सुनिश्चित दृष्टिकोण का सूचक है, इसमें सन्देह, संशय, भ्रम या अनिश्चय की कोई सम्भावना नहीं। यह स्याद्वाद सभी संघर्षों को दूर करने का एक अमोघ शस्त्र है । विचारों की भिन्नता ही मतभेद या विद्वष की उद्भाविका है । इस पारस्परिक मतभेद में एक दूसरे के विचार और दृष्टि का समादर करते हुए एकरूपता लाना स्याद्वाद की मूल भूमिका है । मतभेद होना स्वाभाविक है परन्तु कदाग्रह छोड़कर सहृदयतापूर्वक समन्वय की आधारशिला पर विचार-विनिमय करना यही स्याद्वाद का मूल तत्व है।
जैनधर्म में अहिंसातत्व जितना रम्य है उतना ही रमणीक जैनदर्शन में स्याद्वाद सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त के बिना वस्तु का सही स्वरूप जानना अशक्य है। 'स्याद्वाद सिद्धान्त' एक अभेद्य किला है जिसके भीतर वादी-प्रतिवादियों के मायामयी गोले प्रवेश नहीं कर सकते। इसी सिद्धान्त के आधार पर सप्तभंगों की प्ररूपणा की जाती है
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन
१. स्यादस्ति -- प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा है ।
२. स्यानास्ति - प्रत्येक वस्तु पर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नहीं है । ३. स्याद् अवक्तव्य - प्रत्येक तस्तु अनन्तधर्मात्मक है, उसका सम्पूर्ण स्वरूप वचनातीत है । वस्तु का परिपूर्ण स्वरूप किसी भी शब्द के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता अतः वस्तु अवक्तव्य है ।
ये तीनों भंग ही शेष भंगों के आधार हैं ।
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४. स्यादस्ति नास्ति - यह भंग वस्तु का उभयमुखी कथन करता है कि वस्तु किस स्वरूप में है और किस रूप में नहीं है। प्रथम भंग वस्तु के केवल अस्तित्व का, द्वितीय भंग केवल नास्तित्व का कथन करता है और तीसरा भंग अवक्तव्य का कथन करता है परन्तु यह भंग अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों का विधान करता है ।
५. स्यादस्ति अवक्तव्य - - वस्तु अस्ति स्वरूप है तथापि समग्र रूप से अवक्तव्य है ।
६. स्याद् नास्ति अवक्तव्य - पर-द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा वस्तु असत् होते हुए भी सम्पूर्ण रूप से उसका स्वरूप वचनातीत है ।
७. स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य - अपने स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् होने पर भी वस्तु समग्र रूप से अवक्तव्य है ।
उपर्युक्त भंगों को व्यावहारिक पद्धति से समझने के लिए एक उदाहरण दिया है
हमने किसी व्यापारी से व्यापार सम्बन्धी वार्तालाप करते हुए पूछा कि आपके व्यापार का क्या हाल है ? इस प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त सात विकल्पों के माध्यम से इस प्रकार दिया जा सकता है१. व्यापार ठीक चल रहा है । (स्यादस्ति )
२. व्यापार ठीक नहीं चल रहा है । (स्याद्नास्ति )
३. इस समय कुछ नहीं कह सकते, ठीक चल रहा है या नहीं। (स्याद् अवक्तव्य )
नास्ति )
४. गत वर्ष से तो इस समय व्यापार अच्छा है, फिर भी हम भय से मुक्त नहीं हैं । (स्यादस्ति ५. यद्यपि व्यापार अभी ठीक-ठाक चल रहा है, परन्तु कह नहीं सकते आगे क्या होगा । ( स्यादस्ति अवक्तव्य )
६. इस समय तो व्यापार की दशा ठीक नहीं है, फिर भी कह नहीं सकते आगे क्या होगा । (स्याद्नास्ति अवक्तव्य )
७. गत वर्ष की अपेक्षा तो कुछ ठीक है, पूर्णरूप से ठीक नहीं है तथापि कह नहीं सकते, आगे क्या होगा । (स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य )
जिस प्रकार अस्ति नास्ति अवक्तव्य के सात भंग कहे हैं वैसे ही नित्य, आदि में भी घटित कर लेने चाहिए ।
अनित्य, एक,
अनेक
विश्व की विचारधाराएँ एकान्त के पंक में फँसी हैं । कोई वस्तु को एकान्तनित्य मानकर चलता है तो कोई एकान्तअनित्यता का समर्थन करता है । कोई इससे आगे बढ़कर वस्तु के नित्यानित्य स्वरूप को गड़बड़ समझकर अवक्तव्य कहता है, फिर भी ये सब अपने मन्तव्य की पूर्ण सत्यता पर बल देते हैं जिससे संघर्ष का जन्म होता है ।
जैनदर्शन स्याद्वाद के रूप में तत्त्वज्ञान की यथार्थ दृष्टि प्रदान करके सत्य का दिग्दर्शन कराता है तथा दार्शनिक जगत् में समन्वय के लिए सुन्दर आधार तैयार करता है । स्याद्वाद और अनेकान्त में परस्पर वाच्यवाचक सम्बन्ध है । स्याद्वाद अनेक धर्मात्मक वस्तु का वाचक है और अनेक धर्मात्मक वस्तु वाच्य है ।
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ललित लेख -
हिंसा घृणा का घर : अहिंसा अमृत का निर्भर
- डॉ० आदित्य प्रचण्डिया "दीति" साहित्यश्री, डी० लिट् ०
( कवि तथा लेखक, अपभ्रंश भाषा पर विशेष शोध तथा शब्द कोष का निर्माण )
मैं बस की यात्रा पर था । बस के चलने में देरी थी । अन्दर मुझे घुटन महसूस हो रही थी, सो मैं बस से उतर कर बाहर चहलकदमी करने लगा । शायद दिल को कुछ राहत महसूस होने लगी थी । तभी यकायक दृष्टि मेरी, बस के पृष्ठ भाग में अंकित पंक्ति पर जा पड़ी कि 'हिंसा घृणा का घर है ।''''' कन्डक्टर की विसिल बजते ही बस में अपनी सीट पर जा बैठा । बस चल दी अपनी गंतव्य दिशा को । मैं खिड़की के सहारे उन्मन सा बाहरी दृश्यों पर नजर फेंकने लगा और मेरा मन मस्तिष्क उस पंक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगा। होठों ने न जाने कितनी बार यह पंक्ति दुहरायी होगी और हर बार सोच की गहराई और गहरी होती चली गई । घर पर पहुँचा । स्टडीरूम की मेज पर झुकने से पहले मैं सोच के कई पड़ाव पार कर चुका था ? बस होना क्या था ? मेरे सोच ने शब्दों की अगवानी की और शब्दों का यह गुलदस्ता इस रूप में आपके सामने है । लीजिए न, आप भी इसकी खुशबू सुधिये ।
सुख-दुःख की अनुभूति व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी होती है । आत्मतुला की भावना का विकास हुए बिना व्यक्ति हिंसा से उपरत नहीं हो सकता । कहते हैं कि हिंसा में धर्म न तो कभी हुआ है और न कभी होगा । यदि पानी में पत्थर तैर जाय, सूर्य पश्चिम में उदय हो जाय, अग्नि ठंडी हो जाय और कदाचित् यह पृथ्वी जगत के ऊपर हो जाय तो भी हिंसा में कभी धर्म नहीं होगा । इस संसार में प्राणियों
'दुःख, शोक और भय के कारणभूत जो दौर्भाग्य आदि हैं, उन सबकी जनक हिंसा है। हिंसा ही दुर्ग का द्वार है । वह पाप का समुद्र है, घोर नरक है और है सघन अन्धकार । वह आठ कर्मों की गाँठ है, मोह है, मिथ्यात्व है । हिंसा चण्ड है, रुद्र भी, क्षुद्र भी, अनार्य भी, नृशंस भी, निर्ऋण भी और है महाभय भी । असत्प्रवृत्ति अर्थात् रागद्वेष एवं प्रमादमय चेष्टाओं द्वारा किये जाने वाले प्राणवध को हिंसा कहते हैं । वस्तुतः पाँच इन्द्रियाँ - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस, स्पर्श, तीन बल - मन, वचन, काय; उच्छ्वास - निश्वास तथा आयु - विभु ने दस प्राण कहे हैं, इनको नष्ट करना हिंसा है ।
हिंसा का त्याग क्यों ? आत्मा को अहिंसक रखने के लिए या किसी को न सताने के लिए । हमारे पैर के नीचे दबी हुई चींटी का हाल वही होगा जो हाथी के पैर तले दबने से हमारा । जहाँ तक हो
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
१०५ सके हमारे द्वारा किसी दिल को भी रंज न पहुँचे, क्योंकि एक आह् सारे संसार में खलबली मचा देती है। सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है अतः किसी को नहीं मारना चाहिए । उन पर हुकूमत भी नहीं करनी चाहिये । न उन्हें अधीन रखना चाहिए। न ही उनको परिताप देना चाहिए। उद्विग्न भी उन्हें कदापि नहीं करना चाहिए।
आत्मविमुखता हिंसा है। बाहरी स्थिति आत्मविमुखता की जननी है । सरलता आत्म-पवित्रता की सूचक है । बाह्य पर्यावरणों में जो चाकचिक्य है, बाह्य जगत के लुभावने और मोहक रंगों में जो आकर्षण है उससे आत्मा में वक्रता पैदा होती है । सरलता स्वभाव है, वक्रता विभाव है । हिंसा से उपरत वही व्यक्ति हो सकता है जो अंजुसरल है, आत्मस्थ है, धार्मिक है । जो सरल होता है, वह दूसरों के हनन में अपना हनन देखता है । दूसरों के परवश करने में अपनी परवशता देखता है, दूसरों के परिताप में अपना परिताप देखता है, दूसरों के निग्रह में अपना निग्रह देखता है और दूसरों की हिंसा में अपनी हिंसा देखता है। ये सब अहिंसा के ही तो परिणाम हैं । धार्मिक वही है जो क्रिया की प्रतिक्रिया का अनुसंवेदन करता है । जो जानता है कि जिसे मैं मारना चाहता हूँ, वह मैं ही हूँ, जिसे मैं ठगना चाहता हूँ वह मैं ही हूँ।
आज व्यक्ति दृश्यदर्शी हो गया है । दृश्य के द्रष्टा से तो वह बेखबर है । वर्तमान को प्रमाण मान अतीत और अनागत को पर्दा डाल रहा है, झुठला रहा है। वह पुण्य की क्यारी में विष का बीज वपन करने में संलग्न है। जिससे क्रूरता भी वद्धित हुई है। व्यक्ति के भीतर-बाहर वह मुसकाती है । समत्वबोध लुप्त हो गया है। सर्वत्र असमत्व भाव आज प्रसर्पित है । एषणाएं व्यक्ति में घर जो कर गई हैं। आकांक्षाओं ने उसको उन्मत्त बना दिया है । आज व्यक्ति कई मीलों को मिनटों में नाप सकता है, परिधि सिमट आई है लेकिन भीतर से वह कोसों दूर-सुदूर होता जा रहा है ।
दूसरों के गुणों को देखकर चिढ़ना या ईर्ष्या करना, मैं हिंसा मानता हूँ। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने गुण अच्छे लगते हैं उसी प्रकार दूसरों के गुणों की भी कद्र करनी चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण होते ही हैं, हमें उन्हें आगे रखकर चलना चाहिए । उनको कहने में ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। गुण चाहे अपने परिचित के हों या अन्य किसी के, उनको अपनाने में हिचकिचाहट क्यों ? केवल अपनी ही प्रशंसा करना क्या अभिमान का संकेतक नहीं ? दूसरों में आत्मीयता पैदा करने का, दूसरों के हृदय को जीतने का सरलतम उपाय है-दूसरों के गुणों को प्रकाशित करना। दूसरों की चापलूसी भले ही न करें किन्तु वास्तविक बात कहने में भी यदि डरें तो वह निर्भय कहाँ रहा ? अहिंसा तो निर्भयता का पाठ पढ़ाती है।
विनय आत्मा का स्वभाव है, गुण है । जो व्यक्ति इस गुण से मंडित है, ओतप्रोत है, वह हिंसक नहीं, अहिंसक होता है । उद्दण्डता या अविनय, घृणा या दोष को पैदा करती है । घृणा से दूरी बढ़ती है, एक दूसरे के बीच खाई खुद जाती है । द्वष से बैर भाव या निन्दा को प्रश्रय मिलता है। व्यक्ति में मृदुता का विकास होना चाहिए। मृदुता का अर्थ दीनता नहीं किन्तु उद्दण्डता का अभाव है। दीनता कमजोरी पैदा करती है और कमजोरी व्यक्ति को पथभ्रष्ट करती है। मदुता आत्मविश्वास बढ़ाती है और व्यक्ति को बलवान बनाती है । अतएव हिंसा, प्रतिहिंसा का मार्ग पशुता का मार्ग है। वह पशुबल है । प्रेम
और सद्व्यवहार का मार्ग मानवता का मार्ग है, वह मानवीय बल है। व्यक्ति का प्रत्येक वचन और क्रियाकलाप प्रामाणिक होने चाहिए। इसका निकष सहयोग में है, अकेलेपन में नहीं । सबके साथ खण्ड ४/१४
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हिंसा घृणा का घर : अहिंसा आत्मा का निर्झर : डा० आदित्य प्रचंडिया 'दीति' रहकर, सबके बीच रहकर जो प्रामाणिक रहता है वहाँ उसकी परख होती है । विरोधी हो या मित्र किसी के साथ अप्रामाणिक व्यवहार नहीं होना चाहिए। जहाँ कहनी और करनी में एकतानता न हो वहाँ हिंसा मुखर होती है । व्यक्ति जो सोचता है वही कहे, जो कहता है वही करे तो निश्चय ही वह अहिंसा के भव्य और दिव्य महल के प्रवेश-द्वार पर पहुँच जायेगा । कहनी और करनी में असमानता आत्मवंचना है । अहिंसक स्व-पर की भूमिका से ऊपर उठा हुआ होता है । वह अन्याय का पक्षधर नहीं होता । अनाचारों से समझौता नहीं करता, वह तो जीवन भर सत्य का उपासक बना रहता है।
हिंसा मारना सिखाती है और अहिंसा मरना । हिंसा बचना सिखाती है और अहिंसा बचाना। मारना क्रूरता है, मरना वीरता । बचना कायरता है, बचाना दयालुता है । अहिंसा हृदय की मुदुता है । मृदुता में दुर्बलता और विकार न आ जाय इसकी पहरेदारी सत्य को करनी होती है। हमारे मन में जब तक विचार और आचार के मध्य एक गहरे सामञ्जस्य की दीपशिखा न टिमटिमायेगी तब तक हमारी जीवन बगिया में स्नेह-सदभावना की हरियाली नहीं लहलहायेगी। अनुकम्पा के अंकुर नहीं फूटेंगे। दया के सुरभित सुमन नहीं खिलेंगे और विश्वमैत्री के मधुर फल जन-जन के मन को आकर्षित नहीं करेंगे । वस्तुतः संसार रूप मरुस्थल में अहिंसा ही एक अमृत का निर्झर है। उसमें जीवन का एक सरस संगीत है । अहिंसा मानवता के आगम का जगमगाता आलोक है । वह तो संस्कृति का प्राण है; धर्म और दर्शन का मूलाधार है। उसमें अनन्त प्रेम है और है कष्ट सहने की अनन्त शक्ति । आइए, इस आनन्द के रथ पर आरूढ़ होकर हम स्वयं महकें और सबको महकाएँ ।
___ मंगलकलश
३६४, सर्वोदयनगर आगरा रोड, अलीगढ (उ० प्र०)
0 अरे ! मनुष्य के फूल बड़े परिश्रम से खिलते हैं। गुलाब का फूल कितना संघर्ष करके; कितनी निश्चिन्तता से खिलता है और पता नहीं किस काल में वह मुरझा जायेगा ? फूल खिला है, तो मुरझायेगा जरूर, मगर मुरझाने से पहले हमें फूल की खुशबू ले लेनी है । फूल के मधु का पान कर लेना है । अपने मनुष्य-जन्म को, अपने मनुष्यत्व को, अपने संघर्ष को, अपनी ताकत को सदुपयुक्त कर लेना है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो सोये-सोये उस फूल को खो देते हैं । अरे ! भले मानुष ! कितना महिमावन्त है यह जीवन ! किसी भी अन्य जीवन में तुम मोक्ष की साधना नहीं कर सकते । पूर्णरूपेण यही एक जीवन ऐसा है, मनुष्यत्व ही एक ऐसा फूल है जो पूर्णतया खिल सकता है। पूर्णतया सुगन्ध फैला सकता है।
-महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
('महावीर के महासूत्र' से)
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क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय
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-साध्वी हेमप्रज्ञाश्री [स्व० प्रवतिनी विचक्षणश्री जी महाराज की शिष्या जैन आगमों की विशिष्ट अभ्यासी विदुषी श्रमणी]
क्रोध एक ऐसा मनोविकार है, जिसकी अभिव्यक्ति अनेक व्यक्तियों के द्वारा अनेक रूपों में होती है। किसी का क्रोध ज्वालामुखी के विस्फोट के समान होता है तो किसी का क्रोध उस बड़वाग्नि के समान-जो समुद्र के अन्दर ही अन्दर जलती रहती है। किसी का क्रोध दियासलाई की भभक के समान एक क्षण जलकर समाप्त हो जाता है तो किसी का क्रोध कण्डे की अग्नि के समान धीरे-धीरे बहुत देर तक सुलगता रहता है। किसी का क्रोध मशाल की उस आग के समान होता है जो जलकर भी राह दिखा देती है तो किसी का क्रोध उस दावाग्नि के समान होता है जो सब कुछ भस्म कर देती है। किसी का क्रोध उस जठराग्नि के समान होता है जो स्वयं के लिए हितकारी बन जाता है और किसी का क्रोध उस श्मशान की आग के समान होता है जो शरीर की एक-एक बोटी को जला डालती है।
क्रोध प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में होता है। क्रोध की मात्रा में अन्तर हो सकता है, क्रोध की अभिव्यक्ति में भिन्नता हो सकती है, क्रोध के काल का प्रमाण अलग हो सकता है किन्तु यदि कोई व्यक्ति क्रोधरहित है तो वह महान सन्त/साधक या वीतराग हो सकता है ।
क्रोधी मनुष्य को सर्प की उपमा देते हुए तथागत ने चार प्रकार के सर्प बताए हैं।...(१) विषैला किन्तु घोर विषैला नहीं। (२) घोर विषैला, मात्र विषैला नहीं। (३) विषेला, घोर विषैला। (४) न विषैला, न घोर विषैला।
१. अंगुत्तर निकाय, भाग-२ पृ० १०८-१०६ ।
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क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति भी चार प्रकार के होते हैं(१) शीघ्र क्रोधित, किन्तु अधिक देर नहीं। (२) शीघ्र क्रोधित नहीं किन्तु आने पर बहुत देर क्रोध । (३) शीघ्र क्रोधित एवं क्रोध का समय भी लम्बा । (४) न शीघ्र क्रोधित, न ही अधिक समय तक क्रोध । जैनागमों में क्रोध के काल की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेद बताए गए हैं।
(१) अनन्तानुबन्धी-पर्वत की उस दरार के समान-जो दीर्घकालपर्यन्त बनी रहती है। उसी प्रकार जो क्रोध जीवनपर्यन्त बना रहता है-वह अनन्तानुबन्धी क्रोध हैं। ऐसा क्रोधी कभी आराधक नहीं हो सकता। इसलिए सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिससे कम से कम एक वर्ष में तो हम क्रोध के प्रसंग की स्मृति को समाप्त कर दें।
(२) अप्रत्याख्यानी-पथ्वी पर बनी रेखा के समान जो काफी समय तक बनी रहती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी क्रोध अधिक से अधिक एक वर्ष तक रहता है-उसके पश्चात् तो वह निश्चित समाप्त हो जाता है।
(३) प्रत्याख्यानावरण-बालू की रेखा-जिस प्रकार बालू मिट्टी पर बनी रेखा (लकीर) कुछ समय बाद समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण क्रोध अधिक से अधिक चार माह तक रह सकता है। इसलिए चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है।
(४) संज्वलन-जल की रेखा-जिस प्रकार जल में खींची रेखा तुरन्त समाप्त हो जाती है उसी प्रकार जो क्रोध तुरन्त शान्त हो जाता है-अधिक से अधिक १५ दिन तक रहता है-वह संज्वलन क्रोध है । इस अपेक्षा से पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है।
प्रत्येक दिवस और रात्रि को होने वाली भूल के लिए देवसी-राई प्रतिक्रमण होता है।
ये चारों भेद क्रोध की अभिव्यक्ति की अपेक्षा से नहीं अपितु क्रोध का प्रसंग स्मृति में कितने काल तक रहता है-इस अपेक्षा से किये गये हैं।
स्थानांग सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र में क्रोध की चार अवस्थाएँ बताई गई हैं
(१) आभोग निर्वतित-बुद्धिपूर्वक किया जाने वालः क्रोध ।' वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने आभोग का अर्थ ज्ञान बताया है। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र की टीका में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है। जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के द्वारा किए गए अपराध को भली भाँति जान लेता है और विचार करता है कि यह अपराधी व्यक्ति नम्रतापूर्वक कहने से समझने वाला नहीं है । उसे क्रोधपूर्ण मुद्रा ही पाठ पढ़ा सकती है । इस विचार से वह जानबूझ कर क्रोध करता है।
१. ठाणं स्थान-४, उ०३, सू० ३५४ । ३. ठाणं स्थान ४, उ०३, सू० ३५४ । ५. ठाणं स्थान ४, उ० ३, सू० ३५४ । ६. (अ) ठाणं स्थान ४, उ०१, सू० ८८ । ७. ठाणं, स्थान ४, उ० १, सू० ८८। ६. प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६१ ।
२. ठाणं स्थान ४, उ० ३, सू० ३५४ । ४. ठाणं स्थान ४, उ० ३, सू० ३५४ ।
(ब) प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६१ । ८. स्थानांग वृत्ति, पत्र १८२।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
१०६ .. (२) अनाभोग निर्वतित-अबुद्धिपूर्वक होने वाला क्रोध । आचार्य मलयगिरि के अनुसार-जो मनुष्य किसी विशेष प्रयोजन के बिना, गुणदोष के विचार से शून्य होकर प्रकृति की परवशता से क्रोध करता है-वह अनाभोग निर्वतित है।
(३) उपशान्त--जिस क्रोध के संस्कार तो हैं किन्तु उदय में नहीं है। (४) अनुपशान्त --क्रोध की अभिव्यक्ति ।
क्रोध की अभिव्यक्ति, क्रोध की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। अपने प्रति अन्याय होने पर प्रतिरोध प्रकट करने के लिए, कार्यक्षमता के अभाव में कार्यसंलग्न होने पर, शारीरिक दुर्बलता, रोग आदि की अवस्था में, थकावट में कार्य करना पड़े, कार्य में कोई अनावश्यक बाधा डाले तो क्रोध आने लगता है । यह तो प्रकट कारण हैं । वस्तुतः जहाँ-जहाँ अपनी अनुकूलता, प्रियता में बाधा उपस्थित होती है, अपना मान खण्डित होने पर, माया प्रकट होने पर तथा लोभ सन्तुष्ट न होने पर क्रोधोत्पत्ति होती है । मान, माया, लोभ कषाय कारण हैं तथा क्रोध कार्य है। अपनी इच्छा का अनादर, अपेक्षा उपेक्षा में परिवर्तित होने पर, विचारों में संघर्ष होने पर क्रोध प्रकटीभूत होता है।
स्थानांग सूत्र में क्रोधोत्पत्ति के दस कारणों का कथन किया गया है----इष्ट पदार्थों, इष्ट विचारों, इष्ट व्यक्तियों के संयोग में बाधा उपस्थित करने वाले के प्रति क्रोध का उद्भव होता है एवं अनिष्ट पदार्थों, अनिष्ट विचारों, अनिष्ट व्यक्तियों के संयोग में कारणभूत बनने वाले के प्रति भी क्रोध उभरता है।
क्रोध की उत्पत्ति का कारण बताते हुए गीता में कहा है--विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की प्राप्ति की कामना उत्पन्न होती है, कामना से उनकी प्राप्ति में विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होता है । अतः क्रोध की उत्पत्ति का मूल कारण विषयों के प्रति आसक्ति है। प्राचीनतम आगम आचारांग सूत्र में तो विषयों को ही संसार कहा है।
क्रोध का प्रकाशन तीव्र रोष के रूप में भी हो सकता है और कभी सामान्य खीझ और चिढ़ के रूप में भी । यह कभी-कभी भय या दुःख की भावनाओं से मिश्रित ईर्ष्या में और कभी भय से मिश्रित धृणा की भावना में भी पाया जाता है ।
क्रोध की अभिव्यक्ति अनेक रूपों में होती है। सामान्यतया कभी-कभी मनुष्य अपने क्रोध को भी क्रोध नहीं समझ पाता है । मात्र तीव्र गुस्सा करना ही क्रोध नहीं है अपितु क्रोध की कई परिणतियाँ हैं जिसे भगवती सूत्र आदि में क्रोध का पर्यायवाची बताया है। क्रोध के पर्याय
समवायांग सूत्र' एवं भगवती सूत्र में क्रोध के दस पर्यायवाची नामों का कथन किया गया है। जो निम्नलिखित हैं
१. प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरि वृत्ति पत्र २६१ २. ठाणं, स्थान ४, उ० १, सू० ८८। ३. ठाणं, स्थान ४, उ० १, सू० ८८।
४. ठाणं, स्थान १०, सूत्र ७।। ५. गीता, अ० २, श्लोक ६२ ।
६. आयारो, अ० १, उं० ५, सू०६३ । ७. कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए""समवाओ, समवाय ५२, सूत्र १ । ८. भगवती सूत्र, श० १२, उ० ५, सूत्र २।
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क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री (१) क्रोध (२) कोप (३) रोष (४) दोष (५) अक्षमा (६) संज्वलन (७) कलह (८) चाण्डिक्य (8) भंडन (१०) विवाद।
भगवती सूत्र के वृत्तिकार ने इनका विवेचन इस प्रकार किया है
(१) क्रोध-'क्रोध परिणामजनकं कर्म तत्र क्रोधः क्रोध परिणामों को उत्पन्न करने वाले कर्म का सामान्य नाम क्रोध है । अन्तरंग में क्रोध के कर्मपरमाणुओं का उदय होने पर कभी-कभी व्यक्ति बाह्य निमित्त न होने पर भी अपने भावों में क्रोध का अनुभव करता है और निमित्त मिले तो उस क्रोध को अभिव्यक्त भी कर देता है।
(२) कोप-वृत्तिकार के अनुसार-"कोपादयस्तु तद्विशेषाः' विशेष क्रोध ही कोप है । वृत्ति अनुवादक ने कोप का अर्थ इस प्रकार किया है-क्रोध के उदय को अधिक अभिव्यक्त न करना कोप है। कई व्यक्तियों का क्रोध बडवाग्नि के समान होता है-बाह्य दृष्टि से सागरवत् गंभीर किन्तु अन्तरंग में ज्वाला।
अभिधान राजेन्द्र कोष में 'कोप' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है -कोप कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली एक चित्तवृत्ति है । वह प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। इसी प्रसंग में कोषकार ने साहित्यदर्पण की व्याख्या भी प्रस्तुत की है । साहित्यदर्पण के अनुसार प्रेम की कुटिल गति के कारण जो कारण बिना होता है वह कोप है।
(३) रोष-भगवती वृत्ति के अनुसार--'रोष क्रोधस्यैवानुबन्धो'-जो क्रोध सतत् चलता रहता है जिसमें क्रोध की परम्परा बनी रहती है वह रोष है। रोष में क्रोध का प्रसंग समाप्त होने पर भी हृदय में क्रोध की ज्वाला शान्त नहीं होती। अतः व्यक्ति कार्य करता है किन्तु उसका कार्य ही उसवे क्रोधाविष्ट होने का परिचय देता रहता है । कई व्यक्ति जोर-जोर से वस्तु फेंकना, उठाना, पाँव पटकपटक कर चलना, झनझनाहट आदि क्रियाओं से अपने क्रोध का परिचय देते रहते हैं।
(४) दोष-वृत्तिकार के अनुसार----'दोषः आत्मनः परस्य वा दूषणमेतच्च क्रोधकार्य द्वषो वा प्रीतिमात्रं ।' स्वयं को अथवा दूसरे को दूषण देना-क्रोध का कार्य है अतः दोष क्रोध का समानार्थक नाम है। दोष का अपर नाम द्वेष भी है । अप्रीति परिणाम द्वेष है। क्रोधावेश में व्यक्ति स्वयं पर या दूसरे पर भयंकर दूषण/लांछन लगा देता है-यह दोष है।
(५) अक्षमा-'अक्षमा परकृतापराधः'6-दूसरे के अपराध को सहन न करना-अक्षमा है । प्रायः व्यक्ति अपने से सत्ता, सम्पत्ति, पद में बड़े व्यक्ति के अपराध/क्रोध को चुपचाप सहन कर लेता है क्योंकि जानता है कि सहने में ही लाभ है । किन्तु अपने से निम्न वर्ग पर-वह परिवार ही अथवा भृत्यवर्गउनके अपराध को सहन न करके उनके अपराध से भी अधिक दण्ड देता है।
१. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श. १२, उ. ५, सू. २ २. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श० १२, उ० ५, सू० २ ३. अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग ७, पृ. १०६ ४. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श. १२, उ. ५, सू. २ ५. भगवती सूत्र, श. १२, उ. ५, सू. २ की वृत्ति ६. भगवती सूत्र-श० १२, उ० ५, सू० २ की वृत्ति ।
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
(६) संज्वलन - ' संज्वलनो मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं' - बार-बार क्रोध से प्रज्वलित होनासंज्वलन है । इस प्रसंग पर संज्वलन का अर्थ संज्वलन कषाय की अपेक्षा भिन्न है । अनन्तानुबंधी आदि भेदों में संज्वलन का अर्थ अल्प है । यहाँ संज्वलन का अर्थ क्रोधाग्नि का पुनः पुनः भड़कना है ।
(७) कलह - ' कलहो महता शब्देनान्योन्यमसमंजस भाषणमेतच्च क्रोधकार्य 12 - क्रोध में अत्यधिक एवं अनुचित शब्दावली प्रयोग करना । लोक-लाजभय का अभाव, शिष्टता का अभाव, गम्भीरता का अभाव हो तो व्यक्ति कलह करने में संकोच का अनुभव नहीं करता । इसे सामान्य रूप से वाक्युद्ध भी कहा जाता है अर्थात् शब्दों की बौछार से जो क्रोध प्रदर्शित किया जाय - वह कलह है ।
(८) चांडिक्य - - 'चाण्डिक्यं रौद्राकारकरणं एतदपि क्रोध - कार्यमेव । क्रोध में भयंकर रौद्ररूप धारण करना चाण्डिक्य है । भयंकर क्रोध में कई व्यक्ति इतने रौद्र, क्रूर, नृशंस हो जाते हैं कि किसी के प्राण हरण करने में भी नहीं हिचकिचाते । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती जिसने एक ब्राह्मण पर क्रोध आने पर समस्त ब्राह्मणों की आँखें निकालने का आदेश दिया था । परशुराम - जिसने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन बनाने के लिए भयंकर रक्तपात किया था। इस प्रकार के भयंकर क्रोध को चाण्डिवय कहा गया है ।
(E) भंडन - 'भण्डनं दण्डकादिभिर्युद्धमेतदपि क्रोधकार्यमेव । दण्ड, शस्त्र आदि से युद्ध करना – भंडन है ।
(१०) विवाद - विवादो विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि इदमपि तत्कार्यमेवेति । परस्पर विरुद्ध वचनों का प्रयोग करना विवाद है ।
१११
कषायपाहुड सूत्र में भी क्रोध के समानार्थक दस नाम दिए गए हैं किन्तु उसमें समवायांग सूत्र के दस पर्यायवाची नामों में से चाण्डिक्य एवं भंडन भेद प्राप्त नहीं होते अपितु वृद्धि एवं झंझा नाम मिलते हैं । कषायपाहुड में क्रोध के दस पर्यायवाची नाम इस प्रकार हैं
(१) क्रोध (२) कोप (३) शेष (४) अक्षमा ( ५ ) संज्वलन ( ६ ) कलह ( ७ ) वृद्धि (८) झंझा (६) द्व ेष और (१०) विवाद |
इनमें से वृद्धि और झंझा के विषय में कषायपाहुड के वृत्ति अनुवादक का कथन इस प्रकार है'वृद्धि - वृद्धि शब्द का प्रयोग बढ़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । जिससे पाप, अपयश, कलह और वैर आदि वृद्धि को प्राप्त हो वह क्रोधभाव ही वृद्धि है यहाँ क्रोध के अर्थ में वृद्धि शब्द इतना संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि वृद्धि शब्द का प्रयोग क्रोध के परिणाम के रूप में हुआ है, क्रोध रूप में नहीं ।
।
१. भगवती सूत्र, श. १२, उ. ५, सू. २ की वृत्ति ३. भगवती सूत्र, श० १२, उ०५, सू० २ की वृत्ति ५. भगवती सूत्र, श० १२, उ०५, सू० २ की वृत्ति
६. कोहो य कोव रोसो य अक्खम-संजलण- कलह - वड्ढी य ।
झंझा दोस विवादो दस
कोहेयट्ठिया होंति ।।
२.
भगवती सूत्र, श० १२, उ०५, सू० २ की वृत्ति ४. भगवती सूत्र, श० १२, उ० ५, सू० २ की वृत्ति
७. क० चू० अ० ६, गा० ८६ का अनुवाद
(क० चू० अ० ६, गा० ८६ )
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क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री
झंझा -- अत्यन्त तीव्र संक्लेश परिणाम को झंझा कहते हैं । आचारांग सूत्र में झंझा शब्द का प्रयोग व्याकुलता के अर्थ में किया है । 2
११२
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने क्रोध के कुछ अन्य रूपों की भी व्याख्या की है -
(१) चिड़चिड़ाहट - क्रोध का एक सामान्य रूप है --- चिड़चिड़ाहट । जिसकी व्यंजना प्रायः शब्दों तक ही रहती है । कभी-कभी चित्त व्यग्र रहने, किसी प्रवृत्ति में बाधा पड़ने पर या किसी बात की मनोनुकूल सुविधा न मिलने के कारण चिड़चिड़ाहट आ जाती है ।
स्वयं को बुद्धि, सत्ता, सम्पत्ति में अधिक मानने वाला, स्वयं को व्यस्त और दूसरे को व्यर्थ मानने वाला भी प्रायः चिड़चिड़ाहट से उत्तर देता है ।
(२) अमर्ष - किसी बात का बुरा लगना, उसकी असाध्यता का क्षोभयुक्त और आवेगपूर्ण अनुभव होना अमर्ष कहलाता है । क्रोध की अवस्था में मनुष्य दुःख पहुँचाने वाले पात्र की ओर ही उन्मुख रहता है । उसी को भयभीत या पीड़ित करने की चेष्टा में प्रवृत्त रहता है । क्रोध एवं भय में यह अन्तर है कि क्रोध दुःख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल रहता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए ।
अमर्ष में दुःख पहुँचाने वाली बात के पक्षों की ओर तथा उसकी असह्यता पर विशेष ध्यान रहता है । झल्लाहट, क्षोभ आदि भी क्रोध के ही रूप हैं । जब किसी की कोई बात या काम पसन्द नहीं आता है और वह बात बार-बार सामने आती है तो झल्लाहट उत्पन्न हो जाती है - जो क्रोध का ही एक रूप है । अपनी गलती पर मन का परेशान होना भी क्षोभ है ।
क्रोध के परिणाम - सर्वप्रथम तो क्रोधी व्यक्ति की आकृति ही भयंकर एवं वीभत्स हो जाती है । शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन अव्यवस्थित हो जाता है । आकृति पर अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं जैसे मुख तमतमाना, आंखें लाल होना, होंठ फड़फड़ाना, नथुने फूलना, जिह्वा लड़खड़ाना, वाक्य व्यवस्था अव्यवस्थित होना ।
क्रोध को अग्नि की उपमा देते हुए हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि क्रोध सर्वप्रथम अपने आश्रयस्थान को जलाता है - बाद में अग्नि की तरह दूसरे को जलाए या न जलाए । क्रोध के विषय में ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य ने भी इसी प्रकार विवेचन किया है ।" यह निश्चित है कि क्रोधी व्यक्ति दूसरे का अनिष्ट कर सके या नहीं पर स्वयं के लिए शत्रु सिद्ध होता है । शारीरिक दृष्टि से उसकी शक्ति क्षय होती है और अनेकानेक रोगों का जन्म होता है ।
आज मनोविज्ञान और औषधि विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि क्रोध की स्थिति में थाइराइड
१. क० च०, अ० है, गा० ८६ का अनुवाद
३. चिन्तामणि, भाग-२, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ० १३६
५. योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य प्रकाश ४, गा० १०
२. आयारो, अ० ३, उ० ३, सू० ६६
४. चिन्तामणि- भाग २, रामचन्द्र शुक्ल, पृ० १२५
६. ज्ञानार्णव, शुभचन्द्राचार्य, सर्ग १६, गा० ६
७. (अ) शारीरिक मनोविज्ञान, ओझा एवं भार्गव, पृ० २१६
(ब) सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा, डा० रामनाथ शर्मा, पृ० २४०-२४१
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
११३ ग्रन्थि ठीक से कार्य नहीं करती। एड्रीनल मैड्यूला ग्रन्थि ऐड्रीनेलिन हारमोन को रुधिर धारा में मिलाती है । स्वचालित तन्त्रिका तन्त्र हृदयगति, रक्तप्रवाह, रक्तचाप तथा नाड़ी की गति में वृद्धि कर देता है, पाचनक्रिया में विघटन डालता है, रुधिर के दबाव को बढ़ाता है। इस प्रकार क्रोध से पेप्टिक अल्सर, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप आदि अनेक रोग होते हैं ।
क्रोधी व्यक्ति का परिवार में आतंक बना रहता है, भयजनक वातावरण रहता है उसके प्रति स्नेह और प्रेम का ह्रास हो जाता है । परिवार में अनुशासन आवश्यक है-आतंक नहीं । समाज में क्रोधी व्यक्ति सम्मान का पात्र नहीं बन पाता । ऐसा व्यक्ति क्रोध करके अपने ही किए कार्यों पर पानी फेर देता है । अतः क्रोध शरीर, परिवार और समाज की दृष्टि से उचित नहीं--यह सत्य है किन्तु विशेष रूप से आत्मिक दृष्टि से वह अत्यन्त हानि को प्राप्त होता है।
हेमचन्द्राचार्य ने कहा है1-क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दर्गति की पगडण्डी है और क्रोध परम सुख को रोकने के लिए अर्गला समान है । क्रोध व्यक्ति की शान्ति को भंग कर देता है, हृदय व्याकुल कर देता है, मन क्षुब्ध बना देता है, और आत्मा में कर्म कालुष्य की वृद्धि कर जन्म-मरण का कारण बनता है ।
क्रोध के प्रसंग में क्रोध को न आने देने के लिए कुछ चिन्तन सूत्र उपयोगी हैं-- (१) क्रोध द्वारा होने वाली हानियों पर दृष्टि (२) स्वयं के दोष देखने का प्रयास (३) दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न (४) स्थान परिवर्तन (५) चिन्तन शैली में परिवर्तन (६) अल्प अपेक्षाएँ (७) अहंकार को प्रबल होने से रोकना यदि व्यक्ति प्रयास करे तो वह अपनी वृत्तियों पर नियन्त्रण कर सकता है । ध्यान रखें
क्रोध प्राणियों के अन्तरंग एवं बाह्य को अनेक प्रकार से जलाता है अतः वह एक अपूर्व अग्नि है। अग्नि मात्र बाह्य को जलाती है किन्तु यह अन्तरंग को भी जलाता है। बुद्धिमानों की भी चक्षु सम्बन्धी और मानसिक दोनों ही दृष्टियों का एक साथ उपघात करने से क्रोध कोई एक अपूर्व अन्धकार है, क्योंकि अन्धकार तो केवल बाह्य दृष्टि का ही उपघातक होता है। जन्म-जन्म में निर्लज्ज होकर अनिष्ट करने वाला होने से क्रोध कोई एक अपूर्व ग्रह या भूत है; क्योंकि भूत तो एक ही जन्म में अनिष्ट करता है । उस क्रोध का विनाश करने के लिए क्षमादेवी की आराधना करनी चाहिए।
卐म
१. योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य, प्रकाश ४, गा० ६ २. अनगार धर्मामृत, अ० ६, श्लोक ४ खण्ड ४/१५
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जैन कला में तीर्थङ्करों का वीतरागी स्वरूप
-डा. मारुतिनन्दन तिवारी,
-डा. चन्द्रदेव सिंह [कला इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-२२१००५ (उ० प्र०)]
जैन कला और स्थापत्य पर डा० यू० पी० शाह प्रभृति विद्वानों ने कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ एवं लेख प्रकाशित किये हैं, जिनमें जैन कला के विविध पक्षों को सुन्दर विवेचना और वर्णन मिलते हैं। किन्तु जैन कला में जैन तीर्थंकरों या जिनों के विषय में अध्ययन मुख्यतः लक्षणपरक रहे हैं। प्रस्तुत लेख में हम जैन तीर्थंकरों के वीतरागी स्वरूप तथा कला में उसकी अभिव्यक्ति की चर्चा करेंगे।
जैन देवकूल में वर्तमान अवसर्पिणी युग के २४ तीर्थंकरों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, जिन्हें हेमचन्द्र (१२वीं शती ई०) ने 'देवाधिदेव' भी कहा है। तीर्थंकरों के मुख्य आराध्य देव होने के कारण सर्वप्रथम कला में तीर्थंकरों की ही मूर्तियाँ बनीं। कुछ विद्वान हड़प्पा से प्राप्त नग्न कबन्ध (लगभग २५०० ई० पू०) को तीर्थक र मानते हैं, जिनमें टी० एन० रामचन्द्रन एवं रामप्रसाद चन्द्रा मुख्य हैं। सिन्धु सभ्यता की लिपि के अन्तिम रूप से अभी तक न पढ़े जा सकने की स्थिति में यद्यपि हड़प्पा की मूर्ति का तीर्थंकर मूर्ति होना संदेहास्पद हो सकता है किन्तु मूर्ति की नग्नता और उसके खड़े होने की कायोत्सर्गजैसी मुद्रा किसी न किसी रूप में ऐसे योगी मूर्तियों के निर्माण और पूजन की परम्परा को अवश्य प्रमाणित करती है जो कालान्तर में केवल तीर्थंकर मूर्तियों की ही अभिन्न विशेषताएँ रही हैं। पटना के समीप लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन चमकदार आलेप से युक्त मूर्ति निःसन्देह तीसरी शताब्दी ई० पू० में तीर्थंकर मूर्तियों के निर्माण और पूजन की स्पष्ट साक्षी हैं । शुंग काल में मथुरा और चौसा (भोजपुर, बिहार) जैसे स्थलों पर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनीं । बौद्ध परम्परा के समान जैनपरम्परा में महावीर या किसी पूर्ववर्ती तीर्थंकर ने अपनी मूर्ति निर्माण का निषेध नहीं किया था। इससे बुद्ध के पूर्व ही तीर्थंकर मूर्तियों के निर्माण का मार्ग जैन धर्मानुयायियों के लिए प्रशस्त था। वसुदेवहिण्डी (छठी शती ई०) तथा अन्य कई प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों सहित हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र (१२वीं शती ई०) में हमें महावीर के जीवन काल में हो जीवन्तस्वामी स्वरूप में उनकी प्रतिमा के निर्माण और पूजन के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं । जीवन्तस्वामी मूर्तियों के प्राचीनतम उदाहरण भी गुजरात में अकोटा से प्राप्त हए हैं । इन गुप्तकालीन मूर्तियों के पीठिका लेख में स्पष्टतः 'जीवितस्वामी' नाम मिलता है।
( ११४ )
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महावीर स्वामी की ध्यानस्थ मुद्रा लगभग छठी शती ई. । संप्रति भारत कला भवन वाराणसी, B. H. U. (क्रमांक १६१) चित्र भारत कला भवन के सौजन्य से प्राप्त
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ऋषभनाथ भगवान (ध्यानस्थ मुद्रा) पश्चिमी देवालय पार्श्वनाथ मन्दिर खजुराहो (म. प्र.) लगभग १०वीं ई. शती।
(चित्र-लेखक के संग्रह से)
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
कुषाण काल में मथुरा में भागवत सम्प्रदाय के भक्ति आन्दोलन के प्रभाव के कारण पहली बार प्रचुर संख्या में तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ और तीर्थंकर मूर्तियों के कई लक्षण भी सर्वप्रथम स्थिर हुए । कुषाण काल में ऋषभनाथ, सम्भवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर (वर्धमान) की कई मूर्तियाँ बनीं। इन मूर्तियों में सर्वप्रथम वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह के अंकन की परम्परा प्रारम्भ हुई जिनके आधार पर सरलता से तीर्थंकर और बुद्ध मूर्तियों के बीच अन्तर किया जा सकता है । तीर्थंकर मूर्तियाँ केवल दो ही मुद्राओं-ध्यानस्थ या पद्मासन में बैठी और कायोत्सर्ग या खड्गासन में खड़ी रूप में बनीं (चित्र २-३)। ये दोनों ही मुद्रायें योगी की चिन्तन-ध्यान की विशिष्ट मुद्रायें हैं । आगे की शताब्दियों में भी तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण इन्हीं दो मुद्राओं में हुआ।
कूषाण काल में तीर्थकर मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों में से लगभग सात प्रातिहार्यों (सिंहासन, चामरधारी सेवक, प्रभामण्डल, अशोक वृक्ष, मालाधारी गन्धर्व आदि) का अंकन हुआ। तीर्थंकर मूर्तियों में सभी अष्ट-प्रातिहार्यों का अंकन गुप्तकाल में प्रारम्भ हुआ । गुप्तकाल में ही तीर्थंकर मूर्तियों के साथ शासन देवता या उपासक देवों के रूप में यक्ष-यक्षी को संश्लिष्ट किया गया और तीर्थंकरों के स्वतन्त्र लांछन भी दिखाये गये। मथुरा, अकोटा (ऋषभनाथ को कुबेर यक्ष और अम्बिका यक्षी के साथ) राजगिर, वाराणसी (चित्र १) विदिशा (दुर्जनपुर, म० प्र०), बादामी एवं अयहोल (कर्नाटक)4 से छठी-सातवीं शती ई० की अनेक तीर्थकर मूर्तियाँ मिली हैं ।
___ आठवीं से तेरहवीं शती ई० के मध्य की अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्थलोंदेवगढ़, खुजराहो (चित्र २), शहडोल, मथुरा, राजगिर, खण्ड गिरि, कुंभारिया, ओसियां, आबू, तारंगा, घणेराव, जालोर, हुम्चा, असिकेरी, हलेविड, तिस्मत्तिकुणरम एवं एलोरा आदि से प्राप्त हुई हैं। जिनमें प्रतिमालक्षण की दृष्टि से तीर्थंकर मूर्तियों का पूर्ण विकसित स्वरूप मिलता है । यक्ष-यक्षी, अष्टप्रातिहार्यों एवं स्वतन्त्र लांछनों से युक्त मध्यकालीन तीर्थंकर मूर्तियों में नवग्रह, सरस्वती, लक्ष्मी तथा कुछ अन्य देवी-देवताओं का अंकन भी मिलता है।
__जैन धर्म प्रारम्भ से ही अत्यन्त उदार और समन्वयवादी रहा है जो न केवल राम और कृष्ण जैसे लोक चरित्रों के जैन देवकुल में समाविष्ट किये जाने से स्पष्ट है वरन् इससे सम्बन्धित स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना से भी स्पष्ट है जिनमें रामचरित्र से सम्बन्धित पउमचरिय (विमलसूरि कृत, ४७३ ई०) एवं कृष्ण चरित्र से सम्बन्धित हरिवंश पुराण (जिनसेनकृत-७८३ ई०) मुख्य हैं । समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण ही जैन धर्माचार्यों ने ६३ शलाका पुरुषों की सूची में २४ तीर्थंकरों के अतिरिक्त बलराम, कृष्ण, राम, भरत चक्रवर्ती, लक्ष्मण, बलि, निशम्भु, मधुकैटभ, प्रहलाद, रावण और जरासन्ध को भी चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव
और प्रतिवासुदेव के रूप में सम्मिलित किया । तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी अधिकांशतः ब्राह्मण देवी-देवताओं से सम्बन्धित हैं जिनके माध्यम से जैनों ने ब्राह्मण देवों पर तीर्थंकरों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। किन्तु यह श्रेष्ठता बौद्ध धर्म के ब्राह्मण देवों के प्रति अपमानजनक स्वरूप से सर्वथा भिन्न रही है । ज्ञातव्य है कि बौद्धों द्वारा ब्राह्मण देवी-देवताओं में से अनेकशः ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश और शक्ति को अपने पैरों के नीचे अपमानजनक स्थिति में दिखाया गया है। समय के साथ चलने और अपने धर्म को लोकप्रिय बनाये रखने की प्रवृत्ति के कारण समन्वयवादी धारणा की पराक.ष्ठा जिनसेन कृत हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पूरी तरह स्पष्ट है जिसमें जिनमन्दिर में कामदेव और रति की मूर्तियों के निर्माण की संस्तुति की गई है। हरिवंशपुराण में जिनमन्दिरों में सम्पूर्ण प्रजा के कौतुक के लिए कामदेव और रति की मूर्तियाँ बनबाने और मन्दिर कामदेव के नाम से प्रसिद्ध होने के उल्लेख हैं।
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११६ जैन कला में तीर्थंकरों का वीतरागी स्वरूप : डा० मारुति नन्दन तिवारी, डा० चन्द्रदेवसिंह
ऋषभनाथ के यक्ष-पक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी रपष्टतः शिव और विष्णु की शक्ति वैष्णवी के प्रभाव से युक्त हैं । श्रेयांसनाथ के यक्ष-यक्षी ईश्वर और गौरी हैं। इनके अतिरिक्त गरुड़, वरुण, कुमार, गौरी, काली, महाकाली, नामों वाले यक्ष-यक्षी के साथ ही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, कार्तिकेय जैसे ब्राह्मण देवों का भी स्पष्ट प्रभाव यक्ष-यक्षी के निरूपण में उनके नामों एवं लक्षणों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
समन्वयवादी और समय के अनुरूप परिवर्तन को स्वीकार करने की उपर्युक्त प्रवृत्ति के साथ ही जैनधर्म में कुछ निजी विशेषताएँ भी रही हैं । एक ओर जैनधर्म में सभी प्रकार के परिवर्तनों को स्वीकार किया गया, किन्तु दूसरी ओर मुख्य आराध्य देव तीर्थंकरों के मूल स्वरूप के साथ किसी भी प्रकार के शिथिलन को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। तीर्थकर वीतरागी होते हैं जिनकी उपासना से भौतिक समृद्धि की प्राप्ति सम्भव नहीं थी। सामान्य जनों को जैन धर्म में बनाये रखने के लिए तथा भौतिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिए तीर्थंकरों के साथ शासन देवी-देवताओं के रूप में यक्ष-यक्षी को संश्लिष्ट किया गया जिनसे सभी प्रकार की भौतिक जगत की इच्छित वस्तुएं प्राप्त की जा सकती थीं। किन्तु तीर्थंकरों के वीतरागी और सांसारिक कर्मों के मुक्तिदायी स्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया । दूसरी ओर जब हम बौद्ध धर्म की ओर दृष्टि डालते हैं तो बुद्ध का भी प्रारम्भ में मौलिक स्वरूप तीर्थंकरों के समान ही वीतरागी रहा है, जिन्हें कालान्तर में विभिन्न भौतिक उपलब्धियों को देने वाले देवता के रूप में परिवर्तित किया गया। यह बात अभय और वरद मुद्राओं में बुद्ध को दिखाये जाने से पूरी तरह स्पष्ट है, जिसका अभिप्रेत बुद्ध से अभयदान और वरदान प्राप्त करना था। यही नहीं, बुद्ध ने समय-समय पर अन्य आचार्यों एवं देवताओं की भाँति विभिन्न प्रकार के चमत्कारों द्वारा भी अपनी अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन किया था।
केवल जैन धर्म में ही सारे परिवर्तनों की स्वीकृति के बाद भी तीर्थंकरों के मूल वीतरागी स्वरूप को कभी भी नहीं छेड़ा गया । यही कारण है कि तीर्थंकरों को न तो कभी अभयदान और न ही वरदान की मुद्रा में दिखाया गया। साथ ही कमठ (शम्बर) द्वारा पार्श्वनाथ की तपस्या के समय उपस्थित किये गये विभिन्न उपसर्गों (विनों) और महावीर की तपस्या में शूलपाणि यक्ष और संगमदेव द्वारा उपस्थित उपसर्गों के समय भी इन तीर्थंकरों द्वारा किसी प्रकार का कोई चमत्कार नहीं किया गया। पार्श्वनाथ और महावीर दोनों ही शान्त भाव से यातनाओं को सहते हुये ध्यानरत रहे । पार्श्वनाथ के उपसर्गों के समय स्वयं नागराज धरणेन्द्र को उपस्थित होकर उनकी रक्षा करनी पड़ी थी। इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि ये तीर्थकर अलौकिक शक्तियों या चमत्कारों से रहित थे, बल्कि अपने वीतरागी स्वभाव के कारण ही ये उनसे विरत रहकर शान्त बने रहे । २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के संसार त्याग कर दीक्षा लेने का प्रसंग भी जैन धर्म की इसी मूलभूत प्रवृत्ति को उजागर करता है। अपने विवाह के अवसर पर दिये जाने वाले भोज के लिए रखे गये पशुओं को देखकर उनके मन में विरक्ति का भाव उत्पन्न हुआ और उन्होंने बिना विवाह किये ही वापस लौटकर दीक्षा ग्रहण की। यह बात अहिंसा के प्रति जैन धर्म की अटूट निष्ठा को व्यक्त करती है । ऋषभनाथ के पुत्रों-भरत चक्रवर्ती और बाहुबली के युद्ध के समय सैन्य युद्ध के स्थान पर अनावश्यक नरसंहार को रोकने के लिए उनके द्वन्द्व युद्ध का निर्णय भी अहिंसा की मानसिकता का चरम बिन्दु दरशाता है । बाहुबली तीर्थंकर न होते हुए भी विजय के क्षणों में संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण करते हैं, और अत्यधिक कठिन साधना और तपश्चर्या द्वारा कैवल्य प्राप्त करते हैं । तपस्या के समय उनके शरीर से लता-वल्लरि के लिपटने के साथ ही वृश्चिक एवं सर्प
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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन
जैसे जन्तु भी उनके शरीर पर निर्विघ्न बने रहे । इस कठिन साधना के कारण ही जैन धर्म में उन्हें आगे चलकर तीर्थंकर जैसा महत्व दिया गया जो देवगढ़ एवं खजुराहो की मूर्तियों से पूरी तरह स्पष्ट है। भारत की विशालतम धार्मिक प्रतिमा (१०वीं शती ई०) के रूप में श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) में गोम्मटेश्वर बाहबली की ५७ फुट ऊँची प्रतिमा का निर्माण हुआ जो बाहुबली के प्रबल वीतरागी स्वरूप का प्रतिफल था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन धर्म में सारे परिवर्तनों के बावजूद तीर्थंकरों के वीतरागी स्वरूप को पूरी तरह बरकरार रखा गया । यही कारण है कि तीर्थंकर मूर्तियाँ केवल योग और ध्यान की मुद्राओं -ध्यान एवं कायोत्सर्ग में ही बनीं । यह विशेषता जैन धर्म की मौलिक विशेषता रही है।
सन्दर्भ :
१.
जायसवाल के० पी० "जैन इमेज आफ मौर्य पीरियड" जर्नल आफ बिहार, उड़ीसा रिसर्चसोसायटी, खण्ड २३, भाग १, १६३७ पृ १३०-३२. शाह यू० पी०, अकोटा बोन्जेज बम्बई, १६५६, पृ० २८-२६. विदिशा से चौथी शती ई० की चन्द्रप्रभु और पुष्पदन्त के नामों वाली महाराजाधिराज रामगुप्त के काल की मूर्तियाँ मिली हैं। बदामी एवं अयहोल से पार्श्वनाथ, महावीर तथा बाहुबली गोम्मटेश्वर की छटीसातवीं शती ई० की मूर्तियां मिली हैं। हरिवंश पुराण-२६-१-५.
मोती पाने के लिए तो समुद्र की गहराई में उतरना ही पड़ता है। लहरों के साथ सतही तौर पर कलाबाजियाँ खाने या गोते लगाने से मोती नहीं मिल जाते । अन्दर डुबकी लगानी पड़ती है तब कहीं जाकर मोती हाथ लगते हैं । हमें आत्मा के अक्षय खजाने को, आत्मा की स्वच्छ छवि को पाने के लिए तो गहराई में उतरना होगा । जिस क्षण हम वासना और चाह से ऊपर उठ जायेंगे उसी दिन से सत्य का साक्षात्कार प्रारम्भ हो जायेगा।
- आचार्यश्री जिनकान्तिसागर जी
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सज्जन सौरभ :
स्वात्म-उद्बोधन
१. मैं सच्चिदानन्द स्वरूपी आत्मा हूँ। मैं जड़ अर्थात् पुद्गल रूप नहीं अपितु चैतन्यमय हूँ । मैं स्वयं कर्म करता हूँ और उसका फल भी स्वयं ही भोगता हूँ। आत्मा का स्वभाव जन्म-मरण करना नहीं, वह तो अजर, अमर, अखण्ड, अमल, अविचल, अविनाशी है । अपने इसी स्वरूप को प्राप्त करने हेतु मुझे प्रयत्न करना है, उसी की साधना करनी है । जागरण संकल्प :
२. मैं अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र रूप रत्नत्रय का स्वामी हूँ, जिसे काम-क्रोधादि लुटेरे लूट रहे हैं चूंकि आज तक मैं मोह की नींद में सो रहा था पर वीर-वाणी की उदात्त अमृतवर्षी, अलार्म सुनकर जागृत हो गया हूँ, अतः शम-क्षमादि खड्ग हाथ में ले पूर्ण रूप से इनका सामना करूंगा। जिन दर्शन महत्व :
३. देवाधिदेव जिनेश्वर प्रभु के दर्शन, वन्दन, पूजन एवं स्मरण जन्म-जन्मान्तरों के सम्पूर्ण पापों का नाश करता है। जिस प्रकार मानसरोवर की शीतल लहरों से ग्रीष्म का ताप शान्त होता है, बावना चन्दन के लेप से शरीर का दाह शमन होता है उसी प्रकार वीतराग देव के दर्शन-वन्दन-पूजन से आत्मा का भव-भव का ताप शान्त हो जाता है । दृढ़ संकल्प :
४. इस देव दुर्लभ अमूल्य मानव तन से, आत्मा को परमात्मा बनाने का जो अपूर्व अवसर मुझे सम्प्राप्त हुआ है, उसे कदापि न खोऊँगा और निरन्तर समभाव में विचरण करता हुआ, जप, तप, त्याग, संयम, प्रभु-भक्ति परोपकार आदि के द्वारा इसे पूर्णतः सफल बनाऊँगा । मेरा यही लक्ष्य है।
५. बहुत कठिनता से प्राप्त बहुमूल्य मानव-शरीर की सुरक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इस अमूल्य रत्न के द्वारा आत्मा जन्म-मरण से मुक्त हो परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है।
अतः अनैतिक आचरण द्वारा बहुमूल्य शरीर-रत्न को नष्ट करना भारी मूर्खता है।
६. जैन भागवती दीक्षा एक ऐसा आध्यात्मिक अनुष्ठान है जिसे स्वीकार कर आत्मा बन्धन से मुक्ति की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, राग से वीतरागता की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर गमन करता है और स्वयं परमात्मा बनने की साधना करता है।
(पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज के प्रवचनांशों से)
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Mimitrina ENJ
खण्ड ५
नारी
त्याग तपस्या एवं सेवा की सुरसरि
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५. नारी : त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि नारी-सृष्टि की आदि शक्ति है, सकल ऋद्धि-सिद्धि, विद्या की अधिष्ठात्री है । जननी के रूप में वह जीव मात्र के जीवन-धारण की वात्सल्यमयी आधार-शिला है । बहन के रूप में वह स्नेह-सौजन्य-प्रेरणा की प्रवाहिनी है, और पत्नी, भार्या, सहधर्मिणी के रूप में वह मानव के समग्र व्यक्तित्व-विकास की मुख्य धारिका है ।
नारी-वत्सलती, स्नेह, सेवा, प्रेरणा और बलिदान की मूर्ति है, तो तपस्या, त्याग, विद्या और साधना. से सिद्धि तक की सतत प्रवाहशील सुरसरि भी है । उसकी शुभ्र-शीतलता ने संपूर्ण मानवता को शान्ति और शक्ति दी है । नारी ने अपना विराट रूप देखा, पर अनदेखा कर दिया है, इसलिए लक्ष्मी आज दरिद्रा बन रही है, शक्ति आज दीना बन रही है, और प्रभुता स्वयं प्रताड़ित हो रही है । "श्रमणी" रूप में प्रस्तुत यह ग्रन्थ मूलत; त्याग-तपस्या-साधना और शुचिता की मूर्ति नारी-"श्रमणी' का गौरव-ग्रंथ है, अतः नारी के अस्मिता-बोध, गौरव तथा अभ्युत्थान की चर्चा इसमें आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । विचारशील प्रतिभाओं द्वारा नारी के उदात्त रूप को निखारने वाले विचार-मुक्ता यहां संकलित है, विशिष्ट विद्वानों की अनुसंधानपरक शैली में.........
'सरस'
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भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण परम्परा विवेकप्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और वर्गवादी
अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन मूल्यों को स्थापित जैन आगमिक व्याख्या
करने का प्रयास किया। जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का ही एक अंग है अतः उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया
और स्त्री के पुरुष की दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर नारी को साहित्य में नारी की पुरुष के समकक्ष ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म
और संस्कृति का विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुषप्रधान परि
वेश में ही हुआ है, फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहस्थिति का मूल्यांकन गामी ब्राह्मण परम्परा के व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह
सफी और उसमें भी विभिन्न कालों में नारी की स्थिति में परिवर्तन आये हैं।
प्रस्तुत निबन्ध का विषय आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी की स्थिति का मूल्यांकन करना है, किन्तु इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध संदर्भो की प्रकृति को समझ लेना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि आगमिक व्याख्या साहित्य मुख्यतः आगम ग्रन्थों पर प्राकृत एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाएँ हैं, अतः उनमें अपने युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी
मिल गये हैं । इसके अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे प्रो. सागरमल जैन
उल्लेख भी मिलते हैं, जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न [अनेक ग्रन्यों के लेखक प्रसिद्ध विद्वानी व्याख्याकारों के समकालीन समाज में, खोजा जा सकता है किन्त
वे आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा निदेशक:
सकते हैं। उदाहरण के रूप में मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी तथा पार्श्व
नाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण पार्श्वनाथ विद्याश्रम
जो आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध है, वे या तो आगमों में शोधसंस्थान, वाराणसी अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु हम यह मान
सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की मनःप्रसूत कल्पना है । वस्तुतः वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से या अनुश्र ति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमिक व्याख्याओं के आधार ' पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वे केवल
आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल खण्डों में विभाजित किया जा सकता है
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_Jain खण्ड/५/१
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१२० जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
१. पूर्व युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । २. आगम युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की तीसरी शताब्दी तक । ३. प्राकृत आगमिक ध्याख्या युग-ईसा की चौथी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक । ४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग-आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक ।
इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एव संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की तीसरी व चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुनः इस कालविशेष में भी सभी जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है । प्रथम तो उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वही दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है। इसके लिए अचेलता का आग्रह
और देशकाल-गत परिस्थितियाँ दोनों ही उत्तरदायी रही हैं, अतः आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपू क तथ्यों का विश्लेषण करना होगा। पुनः आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी के सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी एक भ्रान्त धारणा होगी। जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है, जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु जो जैन धर्म की धार्मिक मान्यताओं के विरोधी हैं। उदाहरण के रूप में बहु-विवाह प्रथा, वेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा गोमांस भक्षण एवं मद्यपान आदि के उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं; किन्तु वे जैन धर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः इस साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं, जिन्हें अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
अतः नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है । नारी लक्षण
नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और चूणि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्यस्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक चिन्ह) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी स्वभाव (वेद) से है। आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं। जैन परम्परा में स्त्री की शारीरिक संरचना को लिंग कहा गया है। रोमरहित मुख, स्तन, योनि,
१. दव्वाभिलावचिन्धे वेए भावे य इत्थिणिक्खेवो ।
अहिलावे जह सिद्धी भावे वेयम्मि उवउत्तो।।
--सूत्रकृतांग नियुक्ति ५४.
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१२१ गर्भाशय आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री है; जबकि पुरुष के साथ सहवासकी कामना को अर्थात् स्त्रियोचित काम-वासना को वेद कहा गया है। वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है।। जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की कामवासना के स्वरूप को चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत बताया गया है । जिस प्रकार उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती है उसी प्रकार स्त्री की कामवासना जागृत होने में समय लगता है, किन्तु जागृत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिये हुए है। यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी कामवासना सहगामी माने गये हैं ; फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक विशेप अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन कर्म सिद्धान्त में लिंग का कारण नाम कर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्व) और वेद का कारण मोहनीय कर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है । इस प्रकार लिंग, शारीरिक संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद में परिवर्तन सम्भव है। निशीथिचूणि के अनुसार लिंग परिवर्तन से चेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है (गाथा ३५६) । इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है। जिसमें शारीरिक संरचना
और स्वभाव की दृष्टि से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्त्रीत्व के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे जाने के लिए उसे निम्न एक या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आवश्यक है, यथा
(१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे-रमा, श्यामा आदि । (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे शीतला आदि की स्त्री-आकृति से युक्त या रहित प्रतिमा । (३) द्रव्य-अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना।
(४) क्षेत्र---देश-विशेष की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है।
(५) काल-जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे काल की अपेक्षा से स्त्री कहा जाता है ।
१. अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६२३ २. यद्वशात स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तव गान् मधुरद्र व्यं प्रति स फुफुमादाहसमः, यथा यथा चाते तथा तथा ज्वलति बृहति च । एवम् बलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषण तथा तथा अस्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषोः, मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः ।
-वही, भाग ६, पृष्ठ १४३० ३. संमत्त तिमसंधयण तियगच्छे भो बि सत्तरि अपुव्वे ।
हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टिवेयतिगं ।। ४ देखे--कर्मप्रकृतियों का विवरण ।
---कर्मग्रन्थ, भाग २, गाथा १८ खण्ड ५/१६
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन प्रो० सागरमल जैन
(६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना ।
(७) स्त्रियोचित्त कार्य करना ।
(८) स्त्री रूप में भोगी जाने में समर्थ होना । स्त्रियोचित्त गुण होना और
( 2 )
(१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना ।
जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी चरित्र का विकृत पक्ष
जैनाचार्यों ने नारी चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया । नारी स्वभाव का चित्रण करते हुए तन्दुल वैचारिक प्रकरण में नारी की स्वभावगत निम्न ६४ विशेषतायें वर्णित हैं-
घर,
नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट प्रेम रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का शोक की उद्गमस्थली, पुरुष के बल के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का कारण, लज्जा - नाशिका, अशिष्टता का पुन्ज, कपट का घर, शत्रुता की खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय स्थली, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों की शत्रु, ब्रह्मचर्यादि आचार मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए दूषण रूप, कामी की वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भांति कामविह्वला, व्याघ्री की भांति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश में आवद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा एक साथ ग्राह्य, शुष्ककण्डे की अग्नि की भांति पुरुषों के अन्तःकरण में ज्वाला प्रज्वलित करने वाली विषम पर्वत मार्ग की भांति असमतल अन्तःकरण वाली, अन्तर्दृषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संहार (भैरव) के समान मायावी, सन्ध्या की लालिमा की भांति क्षणिक प्र ेम वाली, समुद्र की लहरों की भांति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भांति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोष, काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशयुक्त अर्थात् पुरुषों को कामपाश में बांधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायका, गर्दभ के सदृश दुष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार वाली, बाल स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली. अन्धकारवत् दुष्प्रविश्य, विष बेल की भाँति संसर्ग वर्जित, भयंकर मकर आदि से युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश्य, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्त वाली, खाली मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस खण्ड ग्रहण करने पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार दारुण कष्ट स्त्री को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तणराशि की भाँति ज्वलन स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र
१. णामं ठवणादविए खेत्त े काले य पजणणकम्मे ।
भोगे गुणेय भावे दस ए ए इत्थीणिक्खेवो ॥
२० तदुल वैचारिक सावचूरि सूत्र १९. ( देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार, ग्रन्थमाला) |
- सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ५४
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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क्रोध की भांति दुर्रक्ष्य, दारुण दुख दायिका, घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बंधकर न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर क। कारण, रूप स्वभाव गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति बाली, दुष्ट घोड़े के पदचिह्न से युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह कराने वाली, परदोष प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त मे ले जाकर खाता है उसी प्रकार भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री-विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भांति पाप करके पश्चात्ताप में जलती नहीं है । कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही गई है । तन्दुल वैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध में एक-एक कथा भी दी गई।1
उत्तराध्ययनचूणि में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वालो कहा गया है। आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णी में भी नारी के चपल स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूणि में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं । आचारांगचूणि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल लगते हुए भी त्रासदायी होती है।
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं। इसकी टीका में टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर पड़ी हुई छाया दुर्ग्राह्य होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुग्राह्य होते हैं । पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान १. तन्दुल वैचारिक सावरि सूत्र १९, (देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला) २. समुद्रवीचीचपलस्वभावा: संध्याभ्रमरेखा व मुहूर्तरागाः । __ स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति ।
उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६५, ऋषभदेवजी, केशरीमल संस्था रत्नपुर (रतलाम) १६३३ ई० ३. पग इत्ति सभावो। स्वभावेन च इत्थी अल्पसत्वा भवति । -निशीथचूणि, भाग ३, पृ० ५८४, आगरा
.. १६५७-५८ । ४. सा य अप्पसत्तत्तणओ जेण वातेण वत्थमादिणा | अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकज्ज पि करोति ।।
-वही, भाग ३, पृ० ५८४ । ५. आचरांगचूणि पृ० ३१५ ६. एवं पि ता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ।
-सूत्रकृतांग, १/४/२३ ७. दुग्रहियं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतम्, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ।
-सूत्रकृतांग विवरण १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूथा बंगलौर १९३०
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
ही उनके हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं होता। सूत्रकृतांग वृत्ति में नारी चरित्र के विषय में कहा गया है अच्छी तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्त्री का विश्वास नहीं करना चाहिए । क्या इस समस्त जीवलोक में कोई अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया कि स्त्रियाँ मन से कुछ
और सोचती है, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ और करती हैं। स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार
स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फंसाकर फिर किस प्रकार उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संक्षिप्त रूप निम्न है
जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके साथ आदेश की भाषा में बात करती है । वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छे-अच्छे फल, छूरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल लाने को कहती है । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं। फिर आदेश देती है कि मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ, तथा भोजन-पेय पदार्थादि लाओ। वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक औषधि की गोली माँगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित द्रव्य, अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ट रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती है । वह अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश देती हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए कंघी, मुख शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती है । पुनः वह अपने प्रियतम से पान-सुपारी, सुई-धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, ऊखल आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती है । कभी वह अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, झुनझना, गेंद आदि मंगवाती है और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती है। कभी वह उसे वस्त्र धोने का आदेश देती है, कभी रोते हुए बालक को चुप करने के लिए कहती है।
इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी आज्ञा चलाती हैं। वह उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर उससे अपना काम निकालती हैं।
नारी-स्वभाव का यह चित्रण वस्तुतः उसके घृणित पक्ष का ही चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा । जैन धर्म मूलतः एक निवृत्तिपरक
१. सुट्ठवि जियासु सुट्ठवि पियासु सुठ्ठवि लद्धपरासु ।
अडईसु महिलियासु य वीसंभो नेव कायव्वो । उन्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि ।
कामं तएण नारी जेण न पत्ताइ दुक्खाई ॥ २. वही, १/४/२
-वही, विवरण १/४/२३
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । संन्यास
और वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की किन्तु इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों का बचने का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है-स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं
और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान रूप से होता है । अतः ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया है वह स्त्री सामान्य की दृष्टि से किया है । शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं ? जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष
स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है, जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देने वाली महिलायें श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय होती हैं । कितनी ही महिलाएँ एक-पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं, कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती हैं । ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके । कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं। अन्तकृत्दशा और उसकी वृत्ति में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का उल्लेख है। आवश्यकचूणि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते संसार त्याग नहीं करने का निर्णय
१. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि ।
-सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा ६१ २. भगवती आराधना गाथा ६८७-८८ व ९६५-६६ ३. वही गाथा, ६८६-६४ ४. तए णं से कण्हे दासुदेवे ण्हाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदाये हव्वमागच्छइ।
-~अन्तकृदशा सूत्र १८
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
अपने गर्भकाल में ले लिया था। इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है । महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, पुण्य है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो साक्षात्) श्रु त देवता है, सरस्वती है, अच्युता है परम पवित्र सिद्धि, मुक्ति, शाश्वत शिवगति है । (महानिशथि २/ सूत्र २३ पृ० ३६)
जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है और श्वेताम्बर परम्परा में मल्ली कुमारी को तीर्थकर माना गया है । इसिमण्डलत्थू (ऋषिमण्डल स्तवन) में बाह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना गया है। तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्र श्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं । यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में यह देवी-पूजा की पद्धति लगभग गुप्त काल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है । उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक की चूणि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को तथा आवश्यक चुणि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख हैं' न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं। उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाती है, इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्नोत्तर करती है तो कोशावेश्या अपने आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग
१. नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहि जीवंतेहि मुण्डे भवित्ता अगारवासाओ अणगारियं पव्वइए।
-कल्पसूत्र ६१ ( एवं ) गम्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे होक्खामि जाव एताणि एत्थ जीवं तित्ति ।
-आवश्यकचूणि प्रथम भाग, पृ० २४२, प्र० ऋषभदेव जी केशरीमल श्वेताम्बर सं० रतलाम १६२८ २. तए णं मल्ली अरहा"केवलनाणदंसणे समुप्पन्न ।
- ज्ञाताधर्मकथा ८/१८६ ३. अज्जा वि बंभि-सुन्दरि-राइमई चन्दणा पमुक्खाओ। कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ।।
-ऋषिमण्डलस्तव २०८ ४. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारि कालि महाकाली । अच्चय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा॥ पवर विजयं कुसा पणत्ती निव्वाणि अच्चुया धरणी । वइरोट्टऽच्छुत्त गधारि अंब पउमावई सिद्धा ॥
-प्रवचनसारोद्धार, भाग १, पृ० ३७५-७६, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सन १९२२ ५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । अंकूसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो ।
-उत्तराध्ययन सूत्र २२, ४८ (तथा) दशवकालिकचूणि, पृ० ८७-८८ मणिविजय सिरीज भावनगर । ६. भगवं बंभी-सुन्दरीओ पत्थ वेति"""इमं व भणितो । ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जइ ।
-आवश्यक चूर्णि भाग १, पृष्ठ २११ ७. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ । माहणेणं परिचत्त धणं आदाउमिच्छसि ॥
.-उत्तराध्ययन सूत्र १४, ३८ एवं उत्तराध्ययनचूणि, पृ० २३० (ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम,
सन् १९३३)
८. भगवती १२/२ ।
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खण्ड ५ : नारी त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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दिखाती है, ये तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया । पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा-यह भी इसी तथ्य का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार रहा है।
जैनसंघ में नारी का कितना महत्वपूर्ण स्थान था इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों को अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है । समवायांग, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनियुक्ति आदि में तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे इतना तो फलित होता ही है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्वपूर्ण घटक थी । भिक्ष णियों की संख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। आज भी जैनसंघ में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु-भिक्षुणियों में दो हजार तीन सौ भिक्ष और छह हजार नौ सौ भिक्ष - णियां हैं । भिक्ष णियों का यह अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में माना गया है।
धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की समकक्षता के प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्वपूर्ण तथ्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृत्दशा आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों की ही साधना के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है । उत्तराध्ययन में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख है। ज्ञाता, ' अन्त
१. जइ वि परिचित्तसंगो तहा वि परिवडइ। महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिय व्व रिसी ॥
-भक्तपरिज्ञा, गा० १२८ ( तथा ) तुम एतं सोयसि अप्पाणं णवि, तुम एरिसओ चेव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि वेदावच्चंति गतो, पुणोवि आलोवेत्ता विहरति ।।
__--आवश्यक चूणि २, पृ० १८७ ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करं णच्चितु सिक्खियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभाग, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो॥
-वही, १, पृ० ५५५ २. कल्पसूत्र, क्रमशः १९७, १६७, १५७ व १३४, प्राकृत भारती, जयपुर, १९७७ ई० ३. चातुर्मास सूची, पृ० ७७ प्र. अ. भा. समग्र जैन चातुर्मास सूची प्रकाशन परिषद बम्बई १९८७ । ४. इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुसगा । ___ सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेब य ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ३६, ५० ५. ज्ञाताधर्मकथा-मल्लि और द्रौपदी अध्ययन ।
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
कृतदशा एवं आवश्यक चूर्णि में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान देती है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम और मूलाचार में भी स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमशः आध्यात्मिक विकास की पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं यथा नियुक्ति, भाष्य और चूणि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री - मुक्ति का निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन सम्प्रदाय की सूचना दी गई हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं । कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती, और सचेल चाहे तीर्थंकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री-तीर्थंकर की यापनीय (उत्तर भारत के दिगम्बर संघों एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित) अवधारणा से परिचित थे। यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थकर की अवधारणा बनी, फिर उस विरोध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया । सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता और अचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था। इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख
१. (अ) तत्थेव हत्थिखंधवरगताए केवलनाणं, सिद्धाए इमाए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो मरुदेवा । एवं आराहणं प्रतियोगसंगहो कायब्वो ।
-आ० चूणि भाग २, पृ० २१२ द्रष्टव्य, वही भाग १, पृ० १८१ व ४८८ । (ब) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्ग ७ में १३, वर्ग ८ में १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों
का उल्लेख प्राप्त होता है। २. (अ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओसंजदासंजदसंजदलाणे णियमा पज्जत्तियाओ ।।
-षट्खण्डागम, १,१, ६२.६३ (ब) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो । ते जंगपुज्ज कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ।।
---मूलाचार ४/१६६ ३. लिंग इत्थीणं हवदि भुजइ पिडं सुएयकालम्मि ।
अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भुजेइ ॥ णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ।।
---सूत्रप्राभृत, २२, २३ ( तथा ) सुणहाण गदहाण य गोपसुमहिलाणं दीसदे मोक्खो। जे सोधति चउत्वं पिच्छिज्जंता जणेहि सम्वेहिं ।।
-शोलमाभूत २६
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि में की है। यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है, क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री समकक्षता किस प्रकार कम होती गयी । सर्वप्रथम सर्व स्त्री की मुक्ति की सम्भावना को अस्वीकार किया गया है फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पांच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यात चारित्र (सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को भी असम्भव बता दिया गया। सुत्त पाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया । दिगम्बर परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं
(१) स्त्री की शरीर-रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूँकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह का त्याग नहीं कर सकती और पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती।
(२) स्त्री करुणा प्रधान है उसमें तीव्र या क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवीं नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो निम्नतम गति में नहीं जा सकती वह उच्चतम गति में भी नहीं जा सकती। अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं।
(३) यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों में ध्यान की स्थिरता नहीं होती है अतः वे आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकती।
(४) एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वाद सामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती हैं अतः वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ने उन्हें बौद्धिक क्षमता के अभाव के कारण दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकार किया गया। चाहे शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं हैं, अतः इसमें प्रवजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है ।
१. Aspects of Jainclogy Vol. 2; Pt. Bechardas Doshi Commeinoration Vol. page 105
110. २. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए-अभिधान राजेन्द्र भाग २, पृ० ६१८-६२१ ( तथा ) इत्थीसु ण पावया भणिया ।
-सूत्र-प्राभूत, पृ० २४-२६
एवं णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो॥
-वही, २३ ३. इस सम्बन्ध में दिगम्बर पक्ष के विस्तृत विवेचन के लिए देखें---जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३, पृ० ५६६
५६८ एवं श्वेताम्बर पक्ष के लिए देखें-अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६१८-६२१ ।
खण्ड ५/१७
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
के
यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने मल्लि को स्त्री तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करके यह उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है । स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है, जो नारी की गरिमा को महिमामण्डित करती है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति के रूप में स्त्री को महत्व दिया गया है; किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसकी अपनी एक विशेषता है। वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया (स्थानांग १०/१६०) । यद्यपि आगमिक व्याख्याओं के काल में पुरुष की महत्ता बढ़ी और व्रत ज्येष्ठ कल्प को पुरुष ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया । अंग आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रतिनी, आचार्य या तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्ष को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सहाः दीक्षित मुनि वन्दनीय है (बृहत्कल्पभाष्य भाग ६ गाथा ६३९६ एवं कल्पसूत्र कल्पलता टीका)।
फिर भी जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है। मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों ने समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु वे स्वेच्छानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग आज भी यह मानते हैं कि स्त्री को जिन-प्रतिमा के पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है।
आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री आचार्य का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे। और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरुणी भिक्ष णियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्ष संघ को सौपा गया था किन्तु सामान्यतया भिक्ष णियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थीं, क्योंकि रात्रि में एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्ष णियों का एक ही स्थान पर रहना वजित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्ष णी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया-फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित है आगमिक व्याख्याओं के युग में स्त्री की अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी। नारी की स्वतन्त्रता
नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था । यौगलिक काल में
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ । २. (क) बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, २४११, २४०७; (ख) बृहत्कल्पभाष्य भाग ४, ४३३६ । (ग) व्यवहारसूत्र ५/१-१६ ।
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खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे । आगम ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा' में राजा द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता है अतः अच्छा हो अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन के लिये नारी स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं । इसी प्रकार हम देखते हैं कि उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ रेवती अपनी मायके से मँगाकर मद्य-मांस का सेवन करती है वहाँ महाशतक पूर्ण साधनात्मक जीवन व्यतीत करता है ।" इससे ऐसा लगता है कि आगम युग तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर लादने का प्रयास करते हैं । चूर्णि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता है ।
इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था किन्तु छेदसूत्र एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमशः बढ़ता जाता है । इन ग्रन्थों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्ष ेत्रों में आचार्य का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । फिर भी बौद्ध भिक्ष ुणी संघ की अपेक्षा जैन भिक्ष ुणी संघ में स्वायतत्ता अधिक थी । किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रायश्चित्त, शिक्षा और सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्षु संघ से स्वतन्त्र विचरण करते हुए धर्मोपदेश देती हैं। जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे ।
यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है
जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा । विहवा पुत्तवसा नारी नत्थि नारी सयंवसा ॥
३/२३३
अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अतः वह कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता सीमित की गयी है ।
पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न
चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक कर्मकाण्ड दोनों ही क्ष ेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप
१. जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि । ज्ञाताधर्मकथा १६ / ८५
२. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य ४ सुरं च आसाएमाणी ४ विहरइ ।
-उवासगदसाओ २४४ भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा
तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव वक्ता । एवं तहेव जेट्ठ पुत्त ठवेइ जाव पोसहसा लाए धम्मपणत्ति उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । - उवासगदसाओ, २४५
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१३२ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन पुत्र का स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।। फलतः आगे चलकर हिन्दू परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्र-पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं। चाहे अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैन धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था। जैन कर्म सिद्धान्त ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के द्वारा सम्पन्न किए गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं करते इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को अस्वीकार कर दिया । फलतः आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद माना जाने लगा । यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थिति सदैव ही समकक्षता की रही, उचित नहीं होगा। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के कारण पुत्री पिता को उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी जितनी उसे हिन्दू परम्परा में माना गया था।
इस प्रकार जैन आगमिक व्याख्या साहित्य से जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिक काल अर्थात् पूर्व युग में और आगम युग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्व दिया जाने लगा। विवाह संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न
विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह व्यवस्था प्रचलित रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । धार्मिक दृष्टि से वे स्वपत्नी सा स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था करते हैं जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना
१. अपुत्रस्य गतिनास्ति । २. जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवुड ढेमित्ति ।
ज्ञाताधर्मकथा, १, २, १६ ३. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । ___ एक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ -उत्तराध्ययन १३, २३ ४. ज्ञाताधर्मकथा अध्ययन ८, सूत्र ३०, ३१ ।
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चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाहविधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन-विवाह-विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह विधि को हिन्दू धर्म के अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी कोई विवाह पद्धति नहीं है। जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप में उत्पन्न होने वाले भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते थे। जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच होने वाली विवाह-प्रणाली को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । फलतः भरत और बहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थीं और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसाकि ज्ञाता में मल्लि और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है।
आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम युग में सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी। यह भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे। पूर्वयूग में ब्राह्मी, सन्दरी, मल्लि, अ मिक यग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ० जगदीशचन्द जैन ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा-स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह । किन्तु हमें आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल सका जहाँ जैनाचार्यों ने गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित है या अनुचित है। यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से यह विधि महत्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतन्त्रता खण्डित होती थी। जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतन्त्रता पूर्णतया खण्डित हो जाती थी;
१. आवश्यकचूणि, भाग १, पृष्ठ १५२ । २. आवश्यकचूणि भाग १, पृ० १४२-४३ ।
३. जैनागम में भारतीय समाज, -डा. जगदीशचन्द्र जैन, पृ० २५३-२६६ ।
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का अर्थ मात्र स्त्री को चयन की स्वतन्त्रता का अभाव ही नहीं है। यह तो लूट की सम्पत्ति है ।
जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं केवल कुछ प्रसंगों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग एवं पूर्व काल के हैं । माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह विधि में स्त्री-पुरुषों की समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यद्यपि जैनाचार्यों ने विवाह विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दूपरम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता थी । वहीं जैन परम्परा में ऐसा नहीं माना गया । प्राचीनकाल से लेकर अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री - विवेक पर छोड़ दिया गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने IT अधिकार था । विवाह संस्था जैनों के लिये ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह संस्था में प्रवेश आवश्यक माना गया था जो पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ पाते हों, अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं ले चुके हैं । अतः हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक साधना के अंग के रूप में विवाह संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं होने दिया ।
बहुपति और बहुपत्नी प्रथा
विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक पति प्रथा की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान ( निश्चय कर लिया था । अतः इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया । किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है । इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को 'बहुविवाह करते दिखाया गया है । दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है । अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है ।
Nagat प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी । आवश्यकचूणि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे । उनके लिये दूसरा विवाह इसलिये आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था । किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह की भावना के
१. ज्ञाताधर्मकथा अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ ।
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आधार पर नहीं अपितु अपनी कामवासना और प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्मसम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा। क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् बहुविवाह करता है । यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकव्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों की एक से अधिक पत्नियाँ थीं । किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एक पत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही अधिक पत्नियाँ थीं । साथ ही उस में श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नी सन्तोष व्रत का एक अतिचार पर विवाहकरण है ।1 यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने पर विवाहकरण का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है। किन्तु उपासकदशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है । बहुपत्नी प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है और निवृत्तिप्रधान जैनधर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है । जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं | आगम साहित्य में पार्श्व, महावीर, एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक पत्नी मानी गई है ।
विधवा विवाह एवं नियोग
यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवा-विवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ये भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है । निशीथचूर्णि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भूस्वामी ही होता है । उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है । यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया न ही विधवा विवाह का । क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा यही रही कि जब भी किसी स्त्री या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो । जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संघ की शरण में चली जाती थीं । जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणी संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जीवन जीने का आश्रयस्थल था । यद्यपि कुछ लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल की पत्नी से विवाह करके विधवा-विवाह की परम्परा को स्थापित
२. उवासकदसा, अभयदेवकृतवृत्ति पृ० ४३
१. उवासकदसा १, ४८ । ३. निशीथचू णि, भाग २, ३८१
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किया था । किन्तु आवश्यक चूर्णि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्री मृत युगल की बहन थी, पत्नी नहीं। क्योंकि उस युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी। अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है । जैनधर्म जैसे निवृत्तिप्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी। विधुर-विवाह
जब समाज में बहु-विवाह को समर्थन हो तो विधुर-विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी । किन्तु इसे भी जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता । पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले । मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति, पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भी भिक्ष बन जाता है । यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर-विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं । विवाहेतर यौन सम्बन्ध
जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करना धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया । वेश्यागमन और परस्त्रीगमन दोनों को ही अनैतिक कर्म माना गया। फिर भी न केवल गृहस्थ स्त्री-पुरुष अपितु भिक्ष -भिक्ष णियाँ भी अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे। आगमिक व्याख्या साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उल्लिखित हैं जिनमें ऐसे सम्बन्ध हो जाते थे । जैन आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं। ज्ञाताधर्मकथा उसकी टीका, आवश्यक चूणि आदि में पार्श्वपत्थ परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख मिलते हैं । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पांच पुरुषों से सेवित देखकर स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है। निशीथचूणि में पुत्रियों और पुत्रवधू के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्याओं में मुख्यतः निशीथचूणि, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध सन्तानों को भिक्ष ओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं। आगम और आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए भिक्ष ओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में इन उपरिस्थितियों में भिक्ष को क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा है। यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ इनका अभाव हो ।
१. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्रु त स्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २-५ ___ द्वितीय वर्ग, अध्याय, ५ तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ २. ज्ञाताधर्म कथा, प्रथमश्र तस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । ३. निशीथचूणि, भाग ३ पृ० २६७ ।
४. निशीथचूणि भाग २, पृ० १७३ ।
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१३७ आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख निशीथ और बहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है । रूपवती भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरूप प्रतीत हों। भिक्षणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है। भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर दण्ड लेकर बैठती थी। शील सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी नहीं रखता था । पुरुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे। प्रसूत बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु संघ को सौंपकर ऐसी भिक्षणी पूनः भिक्ष णी संघ में प्रवेश पा लेती थी।। ये तथ्य इस बात के सुचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जनसंघ सदेव सजग था। नारी-रक्षा
बलात्कार किये जाने पर किसी भिक्षणी की आलोचना का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षणी की आलोचना करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था। नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था। निशीथचूणि में उल्लेखित कालकाचार्य की कथा इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण से पालन करने वाला भिक्षु संघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ जाता था। निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी' एवं बहन सरस्वती की शील-सुरक्षा के लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था । निशीथ, बृहत्कल्प, भाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लंख हैं कि यदि संघस्थ भिक्षणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न है और उसके लिए दुराचारी की हत्या करने का भी प्रश्न उपस्थित हो जाये तो ऐसी हत्या का भी समर्थन किया गया था और ऐसे भिक्ष को संघ में सम्मानित ही किया जाता था। बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है कि जल, अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए । इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए। सती प्रथा और जैनधर्म
उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला दी गयी हो। यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा ने जला देने का आदेश दे दिया था, और उक्त उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी
१. निशीथचूणि, भाग १, पृ० १२६ । २. निशीथचूणि, भाग ३, पृ० २३४ । खण्ड ५/१८
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
उनकी चिताओं में जल गयी थीं ।1 लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। पुनः इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्तु उसके पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अतः उसने अपना विचार त्याग दिया। इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्यूपरान्त स्वेच्छा से भी अपने देह-त्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को बाल-मरण या मूर्खता ही कहा है। सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता।
यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है । जैन धर्म और दर्शन यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल मरने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत जैनधर्म अपनी कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपनेअपने कर्मों और मनोभावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। यद्यपि परवर्ती जैन कथा साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी आगामी अनेक भवों में जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी उदाहरणों की जैन कथा साहित्य में कमी नहीं है।
___ अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैन धर्म सतीप्रथा का समर्थन नहीं करता। यद्यपि जैन धर्म के सती प्रथा के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी हैं। व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी अपितु पति के व्यवसाय का संचालन करती थीं। शालिभद्र की माता भद्रा को राजगृह की एक महत्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया गया है जिसके वैभव को देखने के लिये श्रेणिक भी उसके घर आया था। आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। यह सत्य है कि जैन भिक्षुणी संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं का आश्रय-स्थल था। यद्यपि जैन आगम साहित्य एवं व्याख्या साहित्य दोनों में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी। ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी पति और पुत्रों की सम्मति से दीक्षित हई थी किन्तु इनके अलावा ऐसे उदाहरणों की भी विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नियाँ पति के साथ अथवा पति एवं पुत्रों की मृत्यु के उपरान्त विरक्त होकर संन्यास ग्रहण कर लेती थीं। कुछ ऐसे उल्लेख भी निले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य को धारण करके या तो पितृगृह में ही रह जाती थी अथवा दीक्षित हो जाती थी। जैन परम्परा में भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने हमेशा नारी को संकट से उबारकर आश्रय दिया है।
जैन भिक्षुणी संघ, उन सभी स्त्रियों के लिये जो विधवा, परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन होती थीं, शरणदाता होता था । अतः जैन धर्म में सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला । जब-जब भी नारी पर
१. (अ) निशीथचूर्णि, भाग २, पृ० ५६-६० ।
(ब) तेसिं पंच महिलसताई, गणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । -निशीथ चूणि, भाग ४, पृ० १४ । २. महानिशीथ पृ० २६ । देखें, जैनागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २७१ । ३. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३१८ ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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कोई अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी संघ उसके लिए रक्षाकवच बना क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती थी। आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव के कारण अथवा कुरूपता आदि किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश कुमारियों के लिये जैन भिक्षुणी संघ आश्रयस्थल है। जैन भिक्षणी संघ ने नारी की गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की। यही कारण था कि सती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन धर्म में कभी भी नहीं रही।
महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी अपनी कल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी। जैन परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा। आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका आधार शील का पालन ही है। जैन परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध साहित्य लिखा गया, उसमें सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने को मिलता है। तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल और वस्तूपाल की मृत्य के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने प्राण त्याग दिये । यहाँ पति की मृत्य के पश्चात् शरीर त्यागने का उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है । वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है। गणिकाओं की स्थिति
गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक रही हैं। उन्हें अपरिगृहीता माना जाये या परिगृहीता, इसे लेकर जैन आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल से उपासक के लिये हम अपरिगृहीता गमन का निषेध देखते हैं । भ० महावीर के पूर्व पापित्य परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये यदि कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने में कोई पाप नहीं है । ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति माना जाता था, चूंकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था कि भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोडा था।
चूँ कि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अतः परस्त्री निषेध के साथ स्वपत्नी सन्तोषव्रत को जोड़ा गया और उसके अतिचारों में अपरिगृहीतगमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि गृहस्थ उपासक को अपरिगृहीत (अपने से अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना चाहिये । पुनः जब १. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनशनेन मम्रतुः ।
-प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२६ २. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया ।
इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा॥ जहा गंड पिलागं वा, परिपीलेज्ज मुहत्तंग। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ॥
--सूत्रकृतांग, १/३/४/8-१०
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन यह माना गया कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये ग्रहीत अतः वेश्या भी परिग्रहीत की कोटि में आ जाती है, परिणामस्वरूप धनादि देकर अल्पकाल के लिए ग्रहीत स्त्री (इत्वरिका)1 के साथ भी सम्भोग का निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीत अर्थात् विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध माने गये।
यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म के प्रति श्रद्धावान सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से सम्बद्ध रहा । कृष्ण वासुदेव की द्वारिका नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थी। स्वयं ऋषभदेव के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की कथा दिगम्बर परम्परा में सुविथ त है । कुछ विद्वान् मथुरा में इसके अंकन को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञाता आदि में देवदत्ता आदि गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है। समाज के सम्पन्न परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य में विपुल मात्रा में उपलब्ध है । कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के आख्यान सूविध त हैं, किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते थे, सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। हम पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं कि जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग और किसी भी स्थिति में इसे औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे। सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुर्व्यसन का त्याग करे। इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे। उपासकदशा में "असतीजन पोषण" श्रावक के लिये निषिद्ध था ।
___ आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएँ थीं, वे उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं। कान्हडकठिआर और स्थूलिभद्र के आख्यान इसके प्रमाण हैं। ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिये धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, वे श्राविकाएँ बन जाती थीं । कोशा ऐसी वेश्या थी, जिसकी शाला में जैन मुनियों को निःसंकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा आचार्य दे देते थे। मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं। यह जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था, जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करता था। नारी-शिक्षा
नारी-शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से हमें जो सूचना मिलती है,
१. उपासकदशा १, ४८ । २. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं""""।
-आवश्यकचूणि भाग १, पृ० ३५६ ३. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१६ । ४. अड्ढा जाव"..."सामित्त भट्टित्त महत्तरगतं आणा ईसर सेणावच्चं कारेमाणी....." । ५. देखें, जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भाग २, डा० सागरमल जैन, पृ० २६८ । ६. ......"असईजणपोसणया ।
-उपासकदशा १/५१ ७. साविका जाया अबंभस्स पच्चक्खाइ णण्णत्थ रायाभियोगेणं। -आवश्यकचूणि, भाग १, पृ० ५५४-५५ ८. जैनशिलालेख संग्रह।
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खन्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि उसके आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि व आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। मात्र यही नहीं ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में स्त्री की चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं। सर्वप्रथम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता है। आश्चर्यजनक यह है कि जहाँ ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२ कलाओं का वर्णन है वहाँ नारी की चौंसठ कला होने का निर्देशमात्र है। फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी थी । ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण (कामकला) से उपपेत, उनतीस प्रकार से रमण करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था।
यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थीं । स्त्री-गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती थी। सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएँ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थीं किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी, जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत बनाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो। नारी की गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा। यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष की प्रकृति एवं कार्य • . आधार पर अन्तर किया गया था किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था।
जहाँ तक धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भिक्ष णियों के द्वारा प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि जैन-परम्परा में भिक्ष को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था। वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। सामान्यतया भिक्षणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। व्यवहारसूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष का पर्याय वाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता था । जहाँ १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शान्तिसूरीय वृत्ति अधिकार २, ३०। २. ज्ञाताधर्मकथा ४/६ । तम्हा उ वज्जए इत्थी ......"आघाते ण सेवि णिग्गंथे ।
-सूत्रकृतांग १, ४, १, ११ ४. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ निस्साए।
(तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए ।
-व्यवहारसूत्र ७, १५ व २०
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जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का प्रश्न है प्रागैतिहासिककाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो हमें ज्ञात नहीं होता । अन्तकृद्दशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी । किन्तु आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता, बुद्धि प्रकर्ष में कमी के कारण उसके लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया । जब एक ओर यह मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि प्रकर्ष की कमी है । मुझे ऐसा लगता है जब हिन्दू परम्परा में उस नारी को, जो वैदिक ऋचाओं की निर्मात्री श्री वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के प्रभाव में आकर नारी को जो तीर्थंकर के रूप में अंग और मूल साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य विषय मूलतः दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषेध कर दिया गया हो । बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में उनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया गया है । किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया । यद्यपि निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती थी या तो दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता था । किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं तेरहवीं शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उससे आगमों के अध्ययन का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया अपितु उपदेश देने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया । आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा तपागच्छ में भिक्ष णियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है । यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन सम्प्रदायों में साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं ।
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल और आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में किसी सीमा तक नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था । तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि नारी शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया । आगमिक व्याख्या साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्ष ेत्र में अपितु धर्मसंघ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते गये । इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार रही, किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम युग की अपेक्षा व्याख्या युग में नारी के अधिकार सीमित किये गये ।
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उपेक्षा के चक्रव्यूह में __ महर्षि मनु ने कहा-“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" जहाँ स्त्रियों की प्रतिष्ठा है, वहाँ देवों का निवास है। स्त्रियों के विषय में
यह सर्वोत्तम उक्ति है। इसी उक्ति के आधार पर बताया जाता है, भारतीय नारी भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान बहुत ऊँचा है। किसी अपेक्षा
विशेष से यह सत्य भी होगा, पर कुल मिलाकर देखें, तो क्या भारत
में, विश्व में नारी पुरुष की अपेक्षा बहुत ही पिछड़ी दशा में रही है। युग-युग में और आज समाज का नियन्ता पुरुष रहा है और उसने नारी को सदैव संकीर्ण
सीमाओं में बांधा है। इसमें पुरुष का नारी के प्रति दौर्मनस्य था, ऐसा नहीं पर, स्वयं का व समाज का हित उसको इसी में लगा । यह एक प्रकार का दृष्टि-दोष था। नारी के व्यक्तिगत हितों को इसमें सर्वथा गौण कर दिया गया था। समाज-हित जो उसमें समझा गया था, वह भी उसका व्यक्तिगत स्वार्थ ही था। उसने सारे सामाजिक नियमन स्त्री पर डाले और स्वयं उनसे मुक्त रहा। इसके उदाहरण हैंस्त्री एक ही पति करे; पुरुष चाहे तो सहस्रों पत्नियाँ भी कर सकता है-पति की चिता पर स्त्री आत्मदाह करे, सती हो जाये, पुरुष स्त्री के पीछे ऐसा तो करेगा ही नहीं, पर, उसके पीछे विधुर भी नहीं रहेगा । उसके घर को फिर से कोई नवोढ़ा सुशोभित करेगी । सदाचार समाज में आवश्यक है, पर घूघट इसके लिए स्त्री लगायेगी पुरुष नहीं । ये नियमन ही पुरुष ने स्वयं पर किये होते, तो उसे अनुभव होता, ये कितने कठोर और कितने अव्यवहार्य हैं। उसने नारी की
सीमाओं को इस प्रकार से सोचा ही नहीं कि ये ही सीमाएँ यदि मेरे राष्ट्रसन्त मुनिश्री लिए हों तो?
___ नारी इनको व इस प्रकार के अन्य नियमों को शताब्दियों तक नगराज जी (डा० लिट्०) निभाती रही । आज भी वैसी ही अनेक रूढ़ियों से वह चिपटी बैठी
- है। वह स्वयं भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहती । इसका कारण है, उसका [प्रसिद्ध विद्वान्, विचारक, अन्तर्राष्ट्रीय
चैतन्य मूच्छित हो चला है । उसे स्वत्व का भान भी नहीं हो पा रहा स्तर के जैन मनीषी]
है। जिन शृंखलाओं से वह बांधी गई है और उनकी उपयोगिता जैसे उसे समझाई गई है, वह उसके अणु-अणु में रम गई है । उसने उसे ही अपना अजर-अमर स्वरूप मान लिया है। ___ शिक्षा के क्षेत्र में भी पुरुष ने स्त्री को अपने साथ नहीं रखा। पुरुष में विद्या का, बुद्धि का विकास होता चला । नारी जहाँ की तहाँ रही । योग्यता के अभाव में वह और उपेक्षित होती गई । वाणिज्य
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भारतीय नारी : युग-युग में और आज : राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी
तो स्त्री क्या समझे, राजनीति को स्त्री क्या समझे, यह कहकर पुरुष ने उसको घर की चहार-दीवारी तक सीमित कर दिया। पति अपनी आय व सम्पत्ति भी पत्नी को नहीं बताता, यह कहकर कि उसके पेट में बात पचेगी नहीं । गृह, समाज, व्यापार आदि में स्त्रियों का परामर्श हास्यास्पद बना दिया गया। यह मान्यता बन गई, स्त्रियों के परामर्श पर चलने वाला परिवार, समाज या राज्य नष्ट ही हो जायेगा। पुरुष ने नहीं सोचा, नारी इतनी अयोग्य या अक्षम क्यों है तथा वह योग्य सक्षम कैसे बन सकती है ? ऐसा होना प्रकृतिगत मानकर वह उससे वैसे ही बर्तता रहा। परिणाम हुआ, नारी अक्षम बनती गई और उसी आधार पर पुरुष उसकी अधिकाधिक उपेक्षा करता गया। उपेक्षा से अक्षमता की एक शृंखला बन गई। उपेक्षा से अक्षमता और अक्षमता से उपेक्षा इस चक्र-व्यूह में नारी शताब्दियों और सहस्राब्दियों तक फंसी रही। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी हेयता
इस प्रकार नारी सामाजिक जीवन में तो उपेक्षित थी ही, आध्यात्मिक जगत् में भी वह हेय बताई जाती रही । ऋषियों ने, महर्षियों ने, सन्तों ने, साधकों ने पुरुष के पतन का हेतु स्त्रियों को ही बताया। उसे कूट-कपट की खान कहा, पुरुष को नरक-कुण्ड में डाल देने वाली कहा। और न जाने क्या-क्या कहा ? वस्तुस्थिति यह थी कि विकार हेतु पुरुष के लिए स्त्री थी और स्त्री के लिए पुरुष था। पता नहीं, स्त्री ने ही पुरुष को कैसे डुबोया ? अधिक यथार्थ तो यह रहा कि पुरुष ही नारी को पथ-भ्रष्ट करने में अगुआ रहे हैं। पुरुष स्त्रियों को बलात् उठाकर ले भागे, ये उदाहरण तो इतिहास के पृष्ठों पर व धर्म-ग्रन्थों में अनगिनत मिलेंगे, पर स्त्री पुरुषों पर बलात्कार करती प्रायः न देखी गई है, न सुनी गई है।
ऋषि-महर्षि और साधु-मुनि विरक्त वृति में थे। अन्य पुरुषों को भी वे विरक्त देखना चाहते थे। उनकी निरंकुश काम-वृत्ति को सीमित करने के लिये उन्होंने स्त्री की गर्हा की, पर, समाज ने यही समझा, ज्ञानी पुरुषों ने कहा है अतः स्त्री ही ऐसी है, पुरुष ऐसा नहीं।
अध्यात्म की अन्य अनेक दिशाओं में भी नारी तजित ही रही। नारी होना भी पाप माना गया। किसी ने कहा - यह मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है। किसी ने कहा-यह संन्यास और दीक्षा की अधिकारिणी नहीं है। अध्यात्म में और शिक्षा में स्त्री के पिछड़ेपन का कितना सबल उदाहरण है कि वैदिक, बौद्ध, जैन परम्परा के असीम वाङमय में एक भी ऐसा आधारभूत ग्रन्थ नहीं है, जो किसी विदुषी साधिका के द्वारा लिखा गया हो।
भारती का, या ऐसे कुछ एक अन्य नाम लेकर समस्त नारी समाज को शिक्षा के क्षेत्र में समुन्नत बताया जाता है । शताब्दियों और सहस्राब्दियों के इतिहास में दो-चार नामों का मिल जाना नारी समाज की शिक्षित दशा का मान-दण्ड नहीं बन जाता। उन नामों का उपयोग तो केवल इसी सन्दर्भ में संगत हो सकता है कि अविद्या के उस युग में भी नारी ऐसी हो सकती है, तो आज के विद्या-बहुल-युग में वह अशिक्षित व अपढ़ रहे, यह लज्जा की बात है। बुद्ध व महावीर के युग में
नारी युग-युग के अंकन में इतनी पिछड़ती गई कि उसे पर्याप्त रूप से उठा लेना किसी एक ही यग-परूष के वश की बात नहीं रही । नारी के प्रति अनेक कुण्ठित लोक-धारणाएँ प्रचलित हो गई थीं। किसी भी क्षेत्र में उसे आगे लाने में सामाजिक विरोध से लोहा लेना पड़ता था। बुद्ध के सामने प्रश्न
आया, संघ में परुषों की तरह स्त्रियों को भी दीक्षित किया जाये। बुद्ध इस पक्ष में नहीं थे। स्त्रियों को
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१४५ भिक्ष -संघ में लेना उन्हें सामाजिक दृष्टि से व संघीय दृष्टि से उचित नहीं लगता था। बुद्ध की मौसी माँ प्रजापति गौतमी ने आग्रह किया । वह अनेक शाक्य स्त्रियों के साथ भिक्ष णी का वेश धारण कर बुद्ध के सम्मुख आ गई । निडरतापूर्वक उसने बुद्ध से कहा-"यह आपका कैसा धर्म-संघ है, जिसमें स्त्रियों को आत्म-साधना का अधिकार नहीं है ।" बुद्ध के अग्रणी शिष्य आनन्द ने भी गौतमी की दीक्षा का आग्रह किया। बुद्ध ने कहा- "यह कैसा लगेगा की शाक्य कुल की स्त्रियाँ विभिन्न कुलों में भिक्षार्थ भ्रमण करेंगी ?"
___ आनन्द- 'भन्ते ! जिस गौतमी ने मातृ-अभाव में आपका लालन-पालन किया, उसे आप संघ में प्रविष्ट होने की अनुज्ञा न दें, यह भी तो कैसा लगेगा ?"
बुद्ध- "आवृष आनन्द ! मैं तुम्हारे आग्रह पर गौमती को उपसम्पदा (दीक्षा) की अनुज्ञा देता हूँ, पर साथ-साथ यह भी घोषणा करता हूँ कि मेरा धर्म-संघ मेरे पश्चात् जितने समय तक चलता, अब उससे आधे समय तक चलेगा । क्योंकि संघ में स्त्रियों का प्रवेश हो गया है।"
इस घटना-प्रसंग से पता चलता है, नारी विषयक हीन भावनाएँ पुरुष के मस्तिष्क में कहाँ तक घर किये हुए थीं ? युगपुरुष भी उसके अपवाद नहीं थे। बुद्ध ने इसी प्रसंग में इतना और जोड़ा, नवदीक्षित भिक्ष चिरदीक्षित भिक्ष को नमस्कार करता है, पर, जो भिक्ष णी चिरदीक्षिता होगी, वह भी नवदीक्षित भिक्ष को ही नमस्कार करेगी । गौतमी ने दीक्षा-प्रसंग पर तो मूक भाव से बुद्ध की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया, पर कुछ ही दिनों पश्चात् प्रश्न उठाया-"भन्ते ! ऐसा क्यों, कि चिरदीक्षिता भिक्ष णी नवदीक्षित भिक्ष को नमस्कार करे ? नवदीक्षित भिक्षु यदि चिरदीक्षिता भिक्षुणी को नमस्कार करे तो क्या हानि है ?"
"गौतमी ! इतर धर्म-संघों में भी ऐसा नहीं होता कि पुरुष स्त्री को अर्थात् भिक्ष -भिक्षणी को नमस्कार करें। अपना धर्म-संघ तो उन सबसे श्रेष्ठ है, इसमें तो ऐसा हो ही कैसे सकता है ?"
गौतमी का यह प्रश्न अब तक ढाई हजार वर्षों के बाद भी निरुत्तर खड़ा है । स्त्री पुरुष की श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दे सकी, न पुरुष ने ही इस विषय में अपना औचित्य बदला । बौद्ध और जैन दोनों धर्म-संघों में अब तक यही परम्परा चल रही है।
जैन परम्परा में सदा से ही स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से दीक्षित होते रहे हैं। महावीर के सामने प्रश्न आया-क्या भिक्ष की तरह भिक्ष णी भी आचार्य के गुरुतर पद पर आरूढ़ हो सकती है ? समाधान रहा, संघ में एक भी भिक्ष इस योग्य हो, तब तक भिक्ष ही आचार्य बनेगा, भिक्षु णी नहीं। योग्य भिक्ष के अभाव में भी वही भिक्ष णी आचार्य पद पर आरूढ़ हो सकती है, जिसकी दीक्षा-पर्याय कम से कम साठ वर्ष की हो चली हो, जबकि भिक्ष तरुण भी आचार्य पद पर आसीन हो सकता है । प्रस्तुत विधान भी यही बात व्यक्त करता है-श्रोष्ठता से, योग्यता से, क्षमता से नारी को बहुत न्यून समझा जाता रहा है । पर, कहा जा सकता है, महावीर और बुद्ध के युग में नारी जहाँ थी वहाँ से बहुत कुछ आगे बढ़ी है।
बुद्ध की पत्नी यशोदा अवगुंठन नहीं रखती थी। राजकुल की वृद्ध महिलाएँ उसे ऐसा करने के लिये विवश करतीं, तो वह कहती-ऐसा क्यों आवश्यक है, मेरी समझ में नहीं आता; अतः अवगुंठन नहीं रखूगी । गौतमी और यशोदा सम्भवतः इतिहास की प्रथम महिलाएं होंगी, जिन्होंने नारी जाति के पक्ष में प्रश्न खड़े किये। खण्ड ५/१६
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भारतीय नारी : युग-युग में और आज : राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी
लगता है, नारी के प्रति रहा हीनता और उपेक्षा का भाव गोस्वामी तुलसीदासजी के समय तक तो बना ही रहा । उन्होंने स्वयं जो नारी को तर्जना के योग्य कहा, इससे उस युग तक की सामाजिक धारणाएँ ही प्रतिबिम्बित होती हैं। तुलसीदासजी के पश्चात् भी बहत समय तक भारतीय संस्कारों में वही धारणाएँ पनपती रहीं । लोक-धारणाएँ थीं--एक घर में दो कलमें नहीं चलती अर्थात पत्नी का पढना पति के लिये शुभ नहीं है। स्त्री के मानस में इतना भय भर दिया जाये, तो उसके पढ़ने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । बिना शिक्षा के अन्य विकास स्वयं कुण्ठित रह ही जाते हैं। नये युग में काराएँ कटी
नया युग आया । विज्ञान ने उक्त प्रकार के अन्धविश्वासों को कोसों दूर ढकेल दिया। सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में ज्यों ही समानता और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के विचार उभरे, नारी की बहुत सारी काराएँ एक साथ कटीं। शिक्षा, साहित्य, राजनीति और सार्वजनिक क्षत्रों के द्वार प्रथम बार नारी के लिये खुले । युग-युग से सामाषिक घुटन में रही नारी मुक्त श्वास का वातावरण मिलते ही अप्रत्याशित रूप से आगे बढ़ गई। अव वह प्रधानमन्त्री के पद पर भी देखी जाती है और अन्य शीर्षस्थ पदों पर भी । सार्वजनिक क्षेत्र में भी वह पुरुष से पीछे नहीं है, उसने चन्द दिनों में यह प्रमाणित कर दिया कि अक्षमता और अयोग्यता परिस्थितिजन्य थीं, न कि नैगिक ।
स्वाधीनता के लिये नारी ने कोई विप्लव नहीं किया था। युग की करवट के साथ पुरुष का चिन्तन ही उदार और विकसित हुआ। उसने ही सोचा, समाज का एक अंग इस प्रकार प्रक्षाघात से पीड़ित रहे, यह किसी भी स्थिति में थेयस्कर नहीं है । वह नारी के साथ न्याय भी नहीं है । पुरुष की युगीन चेतना ने श्रमिकों को अवसर दिया, किसान को अवसर दिया, अछूत को अवसर दिया, इसी प्रकार नारी को भी अपने पैरों पर खड़ा होने का एवं अपनी सुषुप्त शक्तियों को विकसित करने का भी अवसर दिया है। हेय और उपादेय का मापदण्ड
वर्तमान युग ने भारतीय नारी को संक्रान्ति रेखा पर खड़ा कर दिया है, एक ओर उसके सामने सीता, सावित्री, आदि के शील व सेवा के आदर्श हैं, एक ओर उसके सामने अपने समानाधिकार के उपयोग का प्रश्न है । दूसरे शब्दों में एक ओर संस्कृति का प्रश्न है तथा एक ओर आधुनिक प्रगति का प्रश्न है । वर्तमान में संस्कृति विकृति मिश्रित हो रही है । उसके नाम पर नाना अन्धविश्वास, नाना रूढ़ियाँ चल रही हैं । नारी को अपनी हंस मनीषा से संस्कृति और विकृति का पृथक्करण करना होगा। प्रगति भी आज अन्धानुकरण से पीड़ित है । उसे भी अपनी स्वस्थ दशा में लाना होगा। इस प्रकार प्राचीन व अर्वाचीन की समन्वित रूप-रेखा पर भारतीय नारी का नया दर्शन खड़ा होगा।
__ भारतीय नारी को अपनी बद्धमूल धारणा का विसर्जन कर देना होगा कि प्राचीन है, वही श्रेष्ठ है । जो पूर्वपुरुषों ने कहा है, वही श्रेष्ठ है । प्राचीन में भी श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ दोनों रहे हैं। राम था, उसी युग में रावण था। सीता थी, उसी युग में शूर्पणखा थी । कृष्ण था, उसी यग में कंस और युधिष्ठिर था, उसी यग में दुर्योधन था। पूर्वपुरुषों ने जो कहा, अपनी समझ से अपने देश काल में कहा । आज नारी को अपनी समझ से अपने देश-काल में सोचना है । बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा-"भिक्ष ओ ! तुम इसलिए किसी बात को स्वीकार न करो, कि वह तथागत (बुद्ध) की कही हुई है। तुम वही बात स्वीकार करो, जिसके लिए तुम्हारा विवेक तुम्हें प्रेरित करता है।” अस्तु, हेय या उपादेय का मानदण्ड
नवीनता या प्राचीनता नहीं, मनुष्य का प्रबुद्ध विवेक ही उसका अन्तिम मानदण्ड है। भारतीय नारी
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१४७ पूर्व पुरुषों की बात को विवेकपूर्वक स्वीकार करे, तो वह नवीन युग के स्रष्टाओं का भी आँख मूंदकर अनुसरण न करे, भले ही वे डार्विन, मार्क्स या फ्रायड हों। विभिन्न कार्य-क्षेत्र
क्रमागत भारतीय समाज-व्यवस्था का स्वरूप रहा है-नारी घर को सम्भाले, भोजनपानी की व्यवस्था करे, बच्चों की सार-सम्भाल करे । शेष सब पुरुष करें। इस व्यवस्था में स्त्री के पल्ले बहुत ही सीमित दायित्व रहता है । सीमित दायित्व में नारी का विकास भी सीमित ही रह जाता है। वर्तमान युग का मानदण्ड बन गया है, स्त्री पुरुष के सभी प्रकार के दायित्व में हाथ बटाएँ और उसे बल दे। शिक्षा, साहित्य, राजनीति, वाणिज्य और सार्वजनिक क्षेत्र में पुरुष जितना ही दायित्व वह अपना समझे। प्रश्न आता है इससे गृह-व्यवस्था भंग हो जायेगी । पारिवारिक जीवन अस्तव्यस्त हो जायेगा । यह प्रश्न यथार्थ नहीं है। गृहकार्य का सामंजस्य बिठाकर भी महिला अन्य किसी भी क्षेत्र में सुगमता से कार्य कर सकती है । एक वकील अपनी वकालत भी चलाता है, सार्वजनिक क्षेत्र व राजनीति में भी सुगमता से कार्य करता है । देखा जाता है, वह अपने दोनों क्षेत्रों में शीर्षस्थ स्थिति तक पहुँचता है । अन्य अनेक लोग बड़े-बड़े विभिन्न दायित्व एक साथ संभालते हैं । नारी के लिये ही ऐसा क्यों सोचा जाये कि वह अन्य क्षेत्रों में आई, तो घर चौपट हो जायेगा। आथिक दायित्व
भारत में ऐसी परम्परा भी व्यापक रूप से रही है कि परिवार में एक कमाये और दस व्यक्ति बैठे-बैठे खायें । धनिकों, उद्योगपतियों एवं बड़ी नौकरीवालों के ऐसा निभता भी रहा है । युग समाजीकरण की ओर बढ़ रहा है । कानून और व्यवस्थाएँ निम्न वर्ग के पक्ष में जा रही हैं । अधिक संग्रह विभिन्न प्रकार से रोके जा रहे हैं । इस स्थिति में चन्द उद्योगपतियों को छोड़कर कोटि-कोटि मध्यम वर्गीय लोगों के लिये तो यह असम्भव ही होता जा रहा है कि एक कमाये और परिवार के अन्य दस बैठे-बैठे खायें । अस्तु, नारी के लिये चिन्तनीय विषय इतना ही है कि किस प्रकार की आजीविका या व्यवसाय को अपनाये, जिससे उसके गृह-दायित्व एवं आचरण पर कोई आँच न आये। कला और सामाजिक श्लाध्यता
अभिनेता और अभिनेत्री, ये दो शब्द समाज में बहुचर्चित हो चले हैं। युवक और युवतियाँ इस ओर कटिबद्ध हो रहे हैं। माता-पिता के चाहे-अनचाहे वे इस ओर बढ़े ही जा रहे हैं। भारत में जब चलचित्रों का निर्माण शुरू हुआ तब निर्माताओं को अभिनय के लिये युवतियाँ सुगमता से मिलती ही नहीं थीं। समाज में इस कार्य को अश्रेष्ठ माना जाता था, अतः लड़कियाँ इस ओर आने का साहस ही नहीं करतीं। अब अभिनेत्रियों की बाढ़-सी आ गई है। इस प्रकार के व्यवसाय देश में पहले भी किसी रूप में चलते थे। पर समाज में वे उच्चता की भावना से नहीं देखे जाते थे। अब इस पहलू को चारों ओर से उभार मिल रहा है। प्रशासन उन्हें सम्मानित करता है। समाज कुछ-कछ ऊँची निगाहों से देखने लगा है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने भी उनके लिये स्वतन्त्र पृष्ठ खोल दिये हैं। व्यावसायिक लोगों के विज्ञापन का निरुपम प्रतीक अभिनेत्री ही बन गई है। अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात् मात्र के लिये लाखों लोग एकत्रित हो जाते हैं। समाज में सभी प्रकार के व्यवसाय चलते हैं। श्रेष्ठता की छाप उस पर जब लगाई जाये, तब यह अवश्य सोचना चाहिये, यह हमारी संस्कृति के अनुरूप है या नहीं। किसी युवती का किसी पुरुष के साथ सार्वजनिक रूप से अभिनय करना श्लाघ्य नहीं है। समाज में उसे प्रतिष्ठित करने का तात्पर्य है, समाज की युवतियाँ सामूहिक रूप से इस ओर प्रवृत्त हों। यह
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संस्कृति के लिये एक बड़ा धक्का होता है। ऐसे व्यवसायों में कला का सम्बन्ध अवश्य है, पर उन कलाओं का समाज में सीमित महत्व ही रहना चाहिए, जो जीवन को श्रेय की ओर प्रेरित करने वाली न हों । कलाकारों के लिये भी यह चिन्तन का विषय है, उनकी कला का समाज के लिये रचनात्मक उपयोग क्या हो ? मनोविनोद तक ही सीमित रहने वाली कलाएँ असामान्य नहीं होतीं ।
सौन्दर्य प्रतियोगिता
सौन्दर्य प्रतियोगिता का ढर्रा भी देश में बल पकड़ रहा है । प्रतिवर्ष एक भारतसुन्दरी व एक विश्वसुन्दरी सामने आती है । सौन्दर्य प्रतियोगिता एक पश्चिमी प्रवाह है । उसका सृजनात्मक पक्ष कोई है ही नहीं । फिर भी युवतियों के लिये यह एक गड्डरी प्रवाह बन रहा है । उसका कारण है, पत्रपत्रिकाओं के द्वारा इसको महत्व दिया जाना । भारतसुन्दरी या विश्वसुन्दरी चुने जाते ही एक अनजाना व्यक्तित्व पत्र-पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर आ जाता है । एक " नोबल प्राइज " पाने वाले को जितनी ख्याति नहीं मिलती उतनी एक विश्वसुन्दरी को मिल जाती है। कार्य उपयोगिता और निरुपयोगिता के अंकन में कोई अन्तर न हो, तो समझना चाहिये, समाज का बौद्धिक स्तर बहुत न्यून है । यही स्थिति सौन्दर्य प्रतियोगिता के सम्बन्ध में समाज में बन रही है ।
सौन्दर्य प्रतियोगिता के निर्णायक पुरुष होते हैं, उनके निर्णय का प्रकार भारतीय सभ्यता से बहुत ही परे का होता है । 'भारतसुन्दरी' और 'विश्वसुन्दरी' ये नाम भी यथार्थ नहीं हैं । प्रतियोगिता में भाग लेने वाली कुछ एक महिलाओं में जो सर्वाधिक सुन्दर है, उसे भारत में या विश्व में सबसे सुन्दर ख्यात कर देना कैसे यथार्थ हो सकता है ? अस्तु, सौन्दर्य प्रतियोगिता का बढ़ता हुआ प्रवाह पश्चिम के अन्धानुकरण का एक ज्वलन्त उदाहरण माना जा सकता है ।
पर्दा प्रथा
इसी प्रकार भारत में प्रचलित पर्दा प्रथा संस्कृति के नाम पर होने वाली विकृति की उपासना का ज्वलन्त उदाहरण है । युग के पैने प्रहारों ने पर्दा प्रथा की जड़ें खोखली कर दी हैं, फिर भी अन्धविश्वासों का यह जर्जर वृक्ष धड़ाम से गिर नहीं गया है। कहा जाता है, यह प्रथा यवन-युग की देन है । हो सकता है, यवन-युग में इसने विशेष बल पकड़ा हो, पर इसके विरल पद- चिह्न तो बहुत प्राचीनकाल में भी देखे जाते हैं । महाकवि कालिदास ने अपने विख्यात नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में अयोध्यानरेश दुष्यन्त की पत्नी व भरत की माता शकुन्तला के अवगुंठित होने का वर्णन किया है | महाकवि माघ ने अपने 'शिशुपाल वध' काव्य में श्रीकृष्ण की रानियों के अवगुंठन बताया है । बुद्ध की पत्नी यशोदा ने जो घूंघट न रखने का आग्रह लिया, उससे घूंघट प्रथा की प्राचीनता ही सिद्ध होती है । प्रश्न प्राचीनता का नहीं, उपयोगिता का है। प्राचीनकाल में वह चाहे सदा से ही क्यों न रही हो, आज हमें उसकी कोई उपयोगिता नहीं लग रही है, तो वह त्याज्य ही है । उसे भारतीय संस्कृति या भारतीय सभ्यता का अंग मानकर पुष्ट करते रहना नितान्त हास्यास्पद ही है ।
आकर्षक वेशभूषा
नारी समाज में सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग पहले भी था, प्रकारान्तर से आज भी है । बहुमूल्य और जगमगाते आभूषणों से, रंग-रंगीली साड़ियों से उसकी मंजूषाएँ पहले भी भरी मिलती थीं, आज भी भरी मिलती हैं । पहले स्त्रियों की तरह पुरुष भी चाकचिक्य के समीप था। वह भी रंग-रंगीले वस्त्रों व बहुमूल्य और विविध आभूषणों में सजा रहता था । आधुनिक सभ्यता ने उसको बदल दिया ।
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१४६ आभूषण तो उसके शरीर से हट ही गये, वेशभूषा भी एक मान्य स्तर पर आने लगी है। आज बाजार जितना साड़ियों पर चलता है, उतना धोती और पैंटों पर नहीं चलता। घर में भी देखें, तो पुरुष और स्त्री के व्यक्तिगत व्यय और संग्रह में बहुत अन्तर मिलेगा। नारी को इस दिशा में पुरुष की तरह ही सुधार लाने की अपेक्षा है। भारतीय संस्कृति के अनुसार नारी के लिये शील ही शृंगार है, इस आदर्श को वह जीवन में चरितार्थ क्यों नहीं करती ? स्त्री और पुरुष के बीच एक-दूसरे का आकर्षण समान है, तो साज-सज्जा का अनहोना भार केवल नारी ही अपने सिर क्यों ले लेती है ? उसे भी अपनी वेष-भूषा के स्तर को पुरुष की तरह संयत और सादा बनाना चाहिये ।
आधुनिक वातावरण में नारी पहले से भी अधिक कृत्रिम होती जा रही है । लिपिस्टिक, पाउडर, विचित्र केशविन्यास कृत्रिमता के सजीव उदाहरण हैं। अनावरण की मानों प्रतियोगिता चल पड़ी है । अभयता के नाम पर नग्नता बढ़ रही है। आवरण और अनावरण की जैसे कोई रेखा ही नहीं रही है। एक सभ्य पुरुष धोती में या कुर्ते में, कोट, बुशशर्ट और पैंट में आवृत रहता है। सिर पर भी कुछ लोग टोपी या पगड़ी रख लेते हैं। स्त्रियों का आवरण मुख से गया, सिर से गया और अब पेट व पीठ से भी जा रहा है।
यह निम्नता की प्रगति अश्लाघ्य है। नारी को स्वयं प्रबुद्ध होकर अपनी वेश-भूषा की संयत रेखाएँ स्थिर करनी चाहिये । उसके पक्ष में जनमत जागृत करना चाहिये ताकि सीमातीत अनावरण सामाजिक मान्यता न पा सके । अस्तु, कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है, नारी प्रगति पाये, परसत्य, संयम और सदाचार की पृष्ठभूमि पर।
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नारी का मोह पाश पासेण पंजरेण य बज्झति चउपयाय पक्खीइ । इय जुवइ पंजरेण य बद्धा पुरिसा किलिस्संति ।।
-इन्द्रिय पराजयशतक ५२ जैसे रस्सी से बँधे हुए चतुष्पाद-गाय, भैंस आदि एवं पिंजरे में बन्द पक्षी क्लेश को पाते है उसी प्रकार स्त्री रूपी पिंजरे में फंसा हुआ व्यक्ति भी क्लेश को पाता है।
सज्जन-वाणी :१. धर्म हमें सदाचरण सिखाता है और दुराचरण पर अंकुश लगाता है ? २. धर्म का चिन्तन चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता और नैतिकता लाता है । ३. शालीनता, कारुण्य भावना, साम्य भावना और आदर्शवादिता धार्मिक शिक्षा की ही देन हैं। ४. धर्म नीति की निष्ठा और मर्यादाओं में रहना सिखाता है जिससे मानव जीवन सुखी बनता है ।
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जैन आगमों में भगवान महावीर का तत्त्व-चिन्तन एवं उसे आत्मसात कर साधना पथ पर बढ़ने वाले श्रमण-श्रमणियों और श्रावक-श्राविकाओं का वर्णन है। ध्यान, मन को इन्द्रिय-विषयों से
हटाकर आत्म-स्वरूप की और अभिमुख करता है । इससे बाहरी जैन आगमों में वर्णित वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बनती हैं। ध्यान आन्तरिक ऊर्जा का स्रोत है।
इससे आत्मा निर्मल, शक्तिसम्पन्न और शुद्ध बनती है । जीवन में
पवित्रता, विचारों में विशुद्धि और व्यवहार में प्रेम, करुणा, मैत्री व ध्यान-साधिकाएँ विश्व-वत्सलता का भाव जागृत होता है । कर्म-निर्जरा में ध्यान सहा
यक होता है । यह आभ्यन्तर तप है। इससे कर्म अर्थात् पाप दग्ध होकर नष्ट हो जाते हैं। कर्मों के नष्ट होने से आत्मा की सुषुप्त शक्तियां जाग उठती हैं। आत्मा परमात्मा बन जाती है । आत्मा के इस चरम आध्यात्मिक विकास में जैन दर्शन में स्त्री और पुरुष में किसी प्रकार का भेद नहीं किया गया है।
मानव स ष्टि के मंगल रथ के दो चक्र हैं--पुरुष और नारी । रथ का एक चक्र दुर्बल अथवा क्षत-विक्षत रहने से जिस प्रकार रथ की गति में अवरोध पैदा हो जाता है, उसी प्रकार मानव सृष्टि का कोई एक चक्र उपेक्षित, दुर्बल व अशक्त रहने से उसकी गति भी लड़खड़ा जाती है। इसलिये भारतीय मनीषियों ने मानव सृष्टि के इन दोनों अंगों को समान महत्व दिया । उपादेयता एवं उपकारिता में कोई भी अंग किसी से कम नहीं है ।
वेद, उपनिषद् एवं आगम ग्रन्थों के अनुशीलन से यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि नारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की आदि
शक्ति रही है। मानव सभ्यता के विकास में ही नहीं किन्तु उसके -डॉ० शान्ता भानावत निर्माण में भी नारी का योगदान पुरुष से कई गुना अधिक है। भारतीय
नारी का समूचा इतिहास नारी के ज्वलन्त त्याग-प्रेम-निष्ठा-सेवाप्रिन्सीपल, श्री वीर बालिका महा
तप और आत्मविश्वास के दिव्य आलोक से जगमगा रहा है। विद्यालय, जयपुर ।
आत्मा की दृष्टि से श्रमण संस्कृति ने नारी और पुरुष में कोई
तात्त्विक भेद नहीं माना। उसने पुरुपों की भाँति स्त्रियों को भी जैन धर्म एवं दर्शन की विदुषी लेखिका
तमाम अधिकार दिये । आत्म-विकास की श्रेष्ठतम स्थिति मोक्ष है । मोक्ष के द्वार तक पुरुष भी पहुँचा है और नारी भी पहुँची है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली (वर्तमान कालचक्र की अपेक्षा) स्त्री ही थी। वह थी भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी । जिन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही निर्मोह दशा में कैवल्य प्राप्त कर लिया।
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खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
जैन श्रुतियां इसका साक्ष्य हैं कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के शासन तक में साधुओं की अपेक्षा साध्वियों तथा श्रावकों की अपेक्षा श्राविकाओं की संख्या अधिक रही है । स्त्री स्वभावतः ही धर्मप्रिय, करुणाशील एवं कष्टसहिष्णु होती है । धार्मिक साधना में उसकी रुचि तीव्र होती है । तपस्या एवं कष्टसहिष्णुता में भी वह पुरुष से आगे रहती है । जैन शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें किसी तीर्थंकर या आचार्य आदि की एक ही देशना से हजारों स्त्रियाँ एक साथ प्रबुद्ध हो उठतीं और वे एक साथ ही अपने समस्त भोग, ऐश्वर्य एवं सुखों का परित्याग कर रमणी से श्रमणी बन जातीं ।
अन्तकृत् दशांग सूत्र में वासुदेव श्रीकृष्ण की रानियों की चर्चा आती है, जिन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन कर धर्मदेशना सुनी और एक प्रवचन से प्रबुद्ध होकर पद्मावती आदि रानियों ने संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा ग्रहण कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत से उपवास, बेले, तेले, चोले, पचोले, मासखमण आदि विविध तपस्याओं से आत्मा को भावित करते हुए जीवन पर्यन्त चारित्रधर्म का पालन करते हुए संलेखनापूर्वक उपसर्ग सहन करते हुए अन्तिम श्वास से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुईं। इन रानियों में मुख्य हैं- पद्मावती, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवती, सत्य - भामा, रुक्मिणी आदि ।
जैनधर्म-दर्शन में नारी के भोग्या स्वरूप की सर्वत्र भर्त्सना की गई है और साधिका स्वरूप की सर्वत्र वन्दना, स्तवना । " अन्तकृत् शांग" सूत्र में मगध के सम्राट श्रेणिक की काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, पितृसेनकृष्णा, और महासेनकृष्णा आदि दस रानियों का वर्णन है । जिन्होंने श्रमण भगवान महावीर के उपदेश से प्रतिबोध पाकर संयम पथ स्वीकार किया। जो महारानियाँ राजप्रासादों में रहकर विभिन्न प्रकार के रत्नों के हार एवं आभूषणों से अपने शरीर को विभूषित करती थीं. वे जब साधनापथ पर बढ़ीं तो कनकावली, रत्नावली आदि विविध प्रकार की तपश्चर्या के हारों को धारण कर अपनी आत्म-ज्योति को चमकाया ।
उन्नीसवें तीर्थंकर भगवती मल्लीनाथ का नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं । नारी भी आध्यात्मिक विभूतियों एवं ऋद्धि-सिद्धियों की स्वामिनी होकर उसी प्रकार तीर्थंकर पद को प्राप्त कर सकती है जिस प्रकार पुरुष । भगवती मल्ली का जन्म मिथिला के राजा इक्ष्वाकुवंशीय महाराज कुम्भ की महारानी प्रभावती की कुक्षि से हुआ । जन्म से ही विशिष्ट ज्ञान की धारिका होने के कारण इनके पिता ने इनका नाम मल्ली भगवती रखा।
मल्लीकुमारी रूप, गुण, लावण्य में अत्यन्त उत्कृष्ट थीं । इनकी उत्कृष्टता की चर्चा देशदेशान्तरों में फैल चुकी थी । अनेक देशों के बड़े-बड़े महिपाल मल्ली पर मुग्ध हो रहे थे । मल्लीकुमारी की याचना के लिए विभिन्न देशों के राजा-महाराजा कुम्भ के पास अपने-अपने दूत भेज रहे थे । इस घटना
राजा चिन्तित हो रहे थे । मल्लीकुमारी ने अपने पिता की चिन्ता दूर करते हुए विभिन्न देशों के भूपतियों को सम्बोधित करते हुए शरीर की क्षणभंगुरता और निस्सारता का बोध कराया । मल्ली भगवती का उद्बोधन सुन सभी को उनके वचनों पर श्रद्धा हो गई और सभी अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होने के भाव व्यक्त करने लगे । मल्ली भगवती ने तपपूर्वक सावद्य कर्मों की निर्जरा कर दीक्षा ग्रहण की । आपके साथ तीन सौ स्त्रियाँ और तीन सौ राजकुमार दीक्षित हुए । मल्ली भगवती जिस दिन दीक्षित हुई उसी दिन अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिला पट्ट पर सुखासन से ध्यान स्थित हो गईं। अपने शुद्ध भावों में रमण करते हुए उसी दिन केवलज्ञान की उपलब्धि कर ली ।
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जैन आगमों में वर्णित ध्यान-साधिकाएँ : डॉ० शान्ता भानावत
नारी उच्चकोटि की शिक्षिका और उपदेशिका रही है । उसके उपदेशों में हृदय की मधुरिमा के साथ मार्मिकता भी छिपी रहती है । तपस्या में लीन बाहुबली के अभिमान को चूर करने वाली उनकी बहनें भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियाँ - ब्राह्मी और सुन्दरी ही थीं। उनकी देशना में अहंकार एवं अभिमान में मदोन्मत्त बने मानव को निरहंकारी बनने की प्रेरणा थी । उनका स्वर था—
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वीरा म्हारा ! गज थकी नीचे उतरो, गज चढ्या केवली न होसी रे ।
बहनों के वचन सुन बाहुबली बाहर से भीतर की ओर मुड़े । घोर तपस्वी बाहुबली की अन्तश्चेतना स्फुटित हुई, अहंकार चूर-चूर हो गया । लघु बन्धुओं को वन्दना के लिए उनके चरण भूमि से उठे । बस तभी केवली बाहुबली की जय से दिग- दिगन्त गूँज उठा ।
शिक्षा जगत् में ब्राह्मी और सुन्दरी का नाम स्वर्ण - कलश की भाँति जाज्वल्यमान है । 'ब्राह्मी लिपि' ब्राह्मी की अलौकिक प्रतिभा का परिचायक है तो अंकविद्या का आदिस्रोत सुन्दरी द्वारा प्रवाहित किया गया ।
श्रमण संस्कृति ने नारी जाति के आध्यात्मिक उत्कर्ष को ही महत्व दिया हो ऐसी बात नहीं है । किन्तु उसके साहस, उदारता एवं बलिदान को भी महत्व दिया है । राजीमती, मृगावती, धारिणी, चेलणा आदि नारियों की ऐसी परम्परा मिलती है जो अपने आदर्शों की रक्षा के लिए नारीसुलभ सुकुमारता को छोड़कर कठोर साहस, बौद्धिक कौशल एवं आत्मउत्सर्ग के मार्ग पर चल पड़ीं। राजीमती से विवाह करने के लिए बरात सजाकर आने वाले नेमिनाथ जब बाड़े में बंधे पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर मुंह मोड़ लेते हैं, दूल्हे का वेश त्यागकर साधु वेश पहनकर गिरनार की ओर चल पड़ते हैं, तब परिणयोत्सुक राजुल विरह-विदग्ध होकर विभ्रान्त नहीं बनती, प्रत्युत विवेकपूर्वक अपना गन्तव्य निश्चित कर संयममार्ग पर अग्रसर हो जाती है । जब नेमिनाथ के छोटे भाई मुनि रथनेमि उस पर आसक्त होकर संयमपथ से विचलित होते हैं तो वह सती साध्वी राजीमती उन्हें उद्बोधन देकर पुनः चारित्रधर्म में स्थिर करती हैं । महासती धारिणी आर्या चन्दनबाला की माता थीं । जिन्होंने अपने शील धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया । धन्य है वह माँ ! सचमुच नारी अबला नहीं, सबला है । मृगी-सी भोली नहीं, सिह्नी-सी प्रचंड भी है ।
आर्या चन्दनबाला की कहानी भारतीय नारी की कष्टसहिष्णुता, परदुःखकातरता, समभाव, शासन कौशल की कहानी है। राजसी वैभव में जन्मी, पली- पुसी राजकुमारी एक दिन रथी द्वारा गुलामों बाजार में वेश्या के हाथों बेची गई। माँ की तरह ही 'प्राण जाय पर शील न जाप' की दृढ़प्रतिश चन्दना जब वेश्या के इरादे को पूरा न कर सकी तो एक सदाचारी सेठ को बेची गई । पितृछाया में भी दासी की तरह यंत्रणा । ईर्ष्यालु सेठानी ने उसके लम्बे-लम्बे बाल कैंची से काट दिये। हाथों में हथकड़ियाँ, पैरों में बेडियाँ पहनाकर भूमिगृह में डाल दिया घोर अपराधी की तरह। तीन दिन की भूखी-प्यासी बाला को खाने के लिए दिये गये उड़द के बाकले ।
संकटों और यंत्रणाओं की इस घड़ी में चन्दना के धैर्य एवं साहस का प्रकाश क्षीण नहीं हुआ । उसकी शान्ति एवं समता का सरोवर नहीं सूखा । वह अपने हृदय में निरन्तर एक दिव्य - भावना संजोए अज्ञानग्रस्त आत्माओं के मंगल कल्याण की कामना करती रही ।
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खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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प्रभु महावीर ने चन्दना के अन्तस् को पहचाना । आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने वाली नारी का उन्मुक्त हृदय से स्वागत किया। उन्होंने चन्दना को उसका खोया हुआ सम्मान दिया । चन्दना प्रभु के चरणों । युगों की जड़ मान्यताओं को चुनौती देकर उसे श्रमणी रूप में दीक्षित किया। उसे अपनी प्रथम शिष्या बनाया और श्रमणी संघ के नेतृत्व की बागडोर सौंपी । चन्दनबाला ने ३६ हजार श्रमणियों एवं ३ लाख से अधिक श्राविकाओं का नेतृत्व कर इस बात को प्रमाणित किया कि नारी में नेतृत्व क्षमता पुरुष से किसी प्रकार कम नहीं है । चन्दनबाला के साध्वीसंघ में पुष्पचला, सुनन्दा, रेवती, सुलसा, मृगावती आदि प्रमुख अनेक साध्वियाँ थीं ।
तत्त्वज्ञ श्राविका के रूप में जयन्ती का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है । उसकी तर्क शैली बड़ी सूक्ष्म और संतुलित थी। वह अनेक बार भगवान महावीर की धर्मसभाओं में प्रश्नोत्तर किया करती थी । ज्ञान के साथ विनय उसका आदर्श था। प्रभु की वाणी पर उसे अपार श्रद्धा थी । उसका मन विरक्त था । उसने भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया और आर्या चन्दनबाला के पास प्रव्रजित हुई ।
कुछ लोगों ने नारी को विष बेलड़ी, कलह की जड़ कहकर उसकी उपेक्षा की है। उन्होंने नारी के उज्ज्वल रूप को नहीं देखा । वह युद्ध की ज्वाला नहीं, शान्ति की अमृत वर्षा है | वह अन्धकार में प्रकाश किरण है। उसने अपने बुद्धि चातुर्य और आत्मविश्वास से मानव जाति को शान्ति से जीने की कला सिखाई ।
वैशाली गणराज्य चेटक की पुत्री एवं वत्सराज शतानीक की पट्टमहिषी मृगावती भी अपने रूप लावण्य में अद्वितीय थी । उसके रूप पर उज्जयिनीपति चंडप्रद्योत मुग्ध था । मृगावती ने अपनी आध्यात्मिक प्रेरणा से चण्डप्रद्योत को चारित्रधर्म में स्थिर किया । तथा प्रभु महावीर की देशना सुनकर उन्हें वन्दन नमस्कार कर आर्या चन्दनबाला के पास दीक्षा अंगीकार की । एक दिन भगवान की सेवा में साध्वी मृगावती कुछ सतियों के साथ गई हुई थीं । वहाँ से लौटकर पौषधशाला में चन्दनबाला के पास आने में उन्हें सूर्यादि देवों के प्रकाश के भ्रम के कारण विलम्ब हो गया। रात्रि का अन्धकार बढ़ गया था । इस प्रकार विलम्ब से मृगावती को आते देख चन्दनबाला ने मृगावती से कहा - महाभागे ! तुम कुलीन, विनयशील और आज्ञाकारिणी होते हुए भी इतनी देर तक कहाँ रहीं ?
गुरुवर्या के उपालंभपूर्ण वचन सुन मृगावती का हृदय पश्चात्ताप की ज्वाला से तिलमिला उठा । वे चन्दनबाला के चरणों में गिर पड़ीं और अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए आत्माभिमुख हो गई । आत्मचिन्तन करते-करते सती जी को कुछ ही क्षणों में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। आर्या चन्दनबाला को जब वास्तविक स्थिति का पता चला तो उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे सोचने लगीं कि मैंने आज उपालम्भ देकर केवलज्ञानी मृगावती की आशातना की है । वे उनसे खमाने लगीं और आत्मालोचन करते-करते स्वयं केवलज्ञान को प्राप्त हो गईं। इस प्रकार क्षमा लेने वाली और क्षमा देने वाली दोनों ही आत्म-निरीक्षण करते-करते अपनी कर्म निर्जरा कर केवली बन गईं ।
सीता, द्रौपदी, दमयन्ती, अंजना आदि सतियों का जीवन चरित्र आर्य संस्कृति की एक महान थाती है । इन नारियों ने सद्गुणों के ऊर्ध्वमुखी विकास में, चारित्रिक श्र ेष्ठता में, सेवा, साधना, संयम एवं सहिष्णुता में जो आदर्श उपस्थित किया है, वह संसार में देव - दुर्लभ सिद्धि है ।
खण्ड ५/२०
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जैन आगमों में वर्णित ध्यान-साधिकाएँ : डा० श्रीमती शान्ता भानावत
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अबला कही जाने वाली नारी में जो शील, संयम और शक्ति का विकास हुआ है, उसके मूल में ध्यान साधना से फलित एकाग्रता, जागरूकता और मानसिक पवित्रता का विशेष योगदान रहा है।
उपर्युक्त ध्यान साधिकाओं का जीवन हमारे वर्तमान जीवन के लिये विशेष प्रेरणादायक है। आज स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पहले की अपेक्षा काफी प्रगति हुई है। पर इस बहिर्मुखी ज्ञान से जीवन में इन्द्रिय भोगों के प्रति विशेष आकर्षण और पारिवारिक जीवन में इर्ष्या-द्वेष-कलह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि काषायिक वृतियों से उत्पन्न तनाव अधिक बढ़ा है। मन अधिक चंचल और अशांत बना है। फैशन-परस्ती, दिखावा और धार्मिक आडम्बरों में भी विशेष वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण ध्यानसाधना की कमी है।
तप के नाम पर भी लम्बे समय तक भूखे रहने पर अधिक बल दिया जाता है। भूखे रहने से इन्द्रियों की उत्तेजना कम होती है, शरीर के प्रति ममत्व भाव में कमी आती है पर इस लाभ का उपयोग अन्तर्मुखी बनकर कषायों को उपशांत करने, किये हुए पापों का सच्चे हृदय से प्रायश्चित्त कर उन्हें पुनः न करने, दीन-दुःखियों की सेवा करने तथा सत्-साहित्य के अध्ययन-मनन और चिन्तन में नहीं किया जाता। इसका परिणाम यह होता है कि तप ताप बनकर रह जाता है । उससे आत्मा को विशेष शक्ति और प्रकाश नहीं मिल पाता । आवश्यकता इस बात की है कि तप के साथ ध्यान साधना को विशेष रूप से जोड़ा जाय तभी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय तनावों से मुक्त हुआ जा सकता है और सच्चे अर्थों में वास्तविक शांति का अनुभव किया जा सकता है।
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नारी रूप नदी सिंगार तरंगाए, विलासवेलाइ जुव्वणजलाए। के के जयम्मि पुरिसा, नारी नइए न बुड्डन्ति ।।
__-इन्द्रिय पराजयशतक ३६ __ शृंगार रूप तरंगों वाली, विलासरूप प्रवाह वाली और यौवन रूप जल वाली नारी रूपी नदी में इस संसार में कौन पुरुष नहीं डूबता ?
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भारतीय संस्कृति में नारी परम लावण्य एवं सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति रही है । परिणामतः वह पुरुषों का आकर्षण केन्द्र बनी रही । प्राकृत साहित्य में वर्णित नारियाँ भी परमलावण्य एवं सौन्दर्य की खान रही
हैं । यौवन अवस्था की देहली पर आरूढ़ होकर तरुणियाँ रति की प्राकृत साहित्य में तरह रूपवती दिखाई देने लगती हैं। ऐसी अनिन्द्य सुन्दरियों पर पुरुषों
का आकर्षित होना स्वाभाविक है। किन्तु भारतीय नारियाँ ऐसे
कामुक पुरुषों से संघर्ष करती हुई अपने शील को बचाने का प्रयत्न वर्णित शील-सुरक्षा करती रही हैं । ऐसे उल्लेख आगमसाहित्य मे लगाकर प्राकृत के
स्वतन्त्र कथा ग्रन्थों तक में प्राप्त हैं। उनमें से शील-रक्षा के कतिपय
प्रमुख उपाय इस प्रकार हैंके उपाय
१. दृष्टान्त-उद्बोधन द्वारा। २. रौद्र रूप प्रदर्शन द्वारा। ३. रूप परिवर्तन द्वारा। ४. पागलपन के अभिनय द्वारा। ५. किसी विशेष युक्ति द्वारा। ६. समय-अन्तराल द्वारा। ७. आत्म-घात द्वारा। ८. लोक-निन्दा का भय दिखाकर ।
६. पुरुषों द्वारा शील-रक्षा के उपाय । डॉ. हुकमचन्द जैम
(१) दृष्टान्त-उद्बोधन द्वारा-ज्ञाताधर्म कथा के मल्ली अध्ययन क आचार्य, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग,
में विवाह के लिए आये हुए सातों राजकुमारों को एक साथ एकत्रित सुखाड़िया विश्वविद्य लय, उदयपुर,
कर मल्ली स्वर्णमय प्रतिमा के दृष्टान्त द्वारा उद्बोधन करती है। र जस्थान ।)
उसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है
(क) विदेह राजकुमार मल्ली के रूप यौवन पर मुग्ध होकर अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से उसे देखने लगे । वे सब उससे विवाह करना चाहते थे । इसके लिये वे युद्ध करने के लिए तैयार थे । तब मल्ली अपने को असहाय एवं विकट परिस्थितियों में पा स्वर्णप्रतिमा में एकत्रित सड़े हुए भोजन की दुर्गन्ध का उदाहरण प्रस्तुत कर उन्हें सम्बोधित करती हुई कहती है कि-हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी प्रतिमा में प्रतिदिन अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते ऐसे अशुभ पुद्गलों का परिणमन हुआ।
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प्राकृत साहित्य में वर्णित शील-सुरक्षा के उपाय : डॉ० हुकमचन्द जैन इमस्स पुण ओरालिय सरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तपूतियपुरिस्सपुण्णस्स सडण जाव धम्मस्स ।।
___ अर्थात् यह एक औदारिक शरीर है, कफ को फराने वाला है, खराब उच्छ्वास एवं निश्वास को निकालने वाला है, मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना उसका स्वभाव है । अतः हे देवानुप्रियो ! आप ऐसे काम-भोगों से राग मत करो। इस उद्बोधन से राजकुमारों को वैराग्य हो गया । अशुचि पदार्थों के दृष्टान्त उद्बोधन देकर शीलरक्षा की कथा प्राकृत के स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थों में भी मिलती है।
(ख) आचार्य नेमिचन्द्र सूरि कृत रयणचूडरायचरियं में कुलवर्द्धन सेठ की पत्नी अपने शील रक्षा का कोई उपाय नहीं देखकर दृष्टान्त उद्बोधन के लिए राजा कामपाल एवं मदनधी की कथा सुनाती है । मदनश्री पर राजा विक्रमसेन आसक्त हो गया। उसने अपना प्रणय प्रस्ताव मदनश्री के पास भेजा। मदनश्री ने बड़ी कुशलता से काम लिया और राजा को अपने भवन में बुलवा लिया ।
जब राजा भोजन करने के लिए बैठा और मनोहर वस्त्रों से ढकी हुई बहुत-सी थालियों को उसने देखा तो उसने सोचा-अहो ! मुझे प्रसन्न करने के लिए मदनश्री ने अनेक प्रकार की रसोई तैयार की है। इससे राजा खुश हो गया । मदनश्री ने सभी थालियों से थोड़ा-थोड़ा भोजन राजा को दिया। तब कौतुहल से राजा ने पूछा-अनेक थालियों में से एक ही प्रकार का भोजन रखने का क्या प्रयोजन ? तब मदनश्री ने कहा-'पर से ढके हुए रेशमी वस्त्रों को दिखाने का प्रयोजन था।' तो राजा ने कहा कि इस प्रकार की व्यर्थ मेहनत करने से क्या लाभ ? जबकि भोजन एक ही था । तब मदनश्री ने कहा--जिस प्रकार से एक ही भोजन अलग-अलग थालियों में विचित्र दिखाई देता है उसी प्रकार बाहर के वेश से युवतियों का शरीर अलग-अलग दिखाई देता है किन्तु भीतर चर्बी, माँस, मज्जा, शुक्र, फिप्पिस, रुधिर, हड्डी आदि से युक्त अपवित्र वस्तुआ का भण्डार रूप सभी स्त्रियों का शरीर एक जसा है। फिर भी पुरुष बाहरी रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता है । जैसे सभी भोजन का स्वाद एक जैसा है वैसे ही सभी स्त्रियों में एक जैसा ही आनन्द है । अतः अपनी पत्नी में ही सन्तोष कर लेना चाहिए। इस दृष्टान्त से राजा प्रतिबोधित हो जाता है ।
(ग) आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने अपने प्रसिद्ध कथाग्रन्थ आख्यानकमणिकोश में रोहिणी कथा में भी इसी तरह की कथा दी है। इसमें रोहिणी का पति धनावह सेठ धनार्जन के लिए विदेश चला जाता है । वहाँ का राजा रोहिणी पर मुग्ध हो उससे काम-याचना करता है। रोहिणी अपने शील रक्षा का अन्य उपाय न देखकर राजा को स्वयं अपने यहाँ बुलवा लेती है तथा राजा को मर्मस्पर्शी शब्दों में उपदेश देती है
हे राजन ! अनीति में लगे हुए दूसरों को आप शिक्षा देते हैं किन्तु अनीति में लगे हुए आपको कौन शिक्षा देगा? हे राजन् ! अनुराग के वश से थोड़े से किये गये अनुचित कार्य का भारी परिणाम जीवों को भोगना पड़ता है । यौवन की मदहोशी से बिना विचारे जो कार्य किये जाते हैं उन कार्यों के परिणाम हृदय को पीड़ा पहुंचाने वाले होते हैं । आपकी पीव, वसा, माँस, रुधिर, हड्डी (अशुचि पदार्थों) से भरी हुई इन महिलाओं के प्रति इतनी आसक्ति क्यों है और आप अपने कुल को कलंकित क्यों कर रहे हैं ? आप प्रजा के लिए पिता के समान हो । आपको ऐसा अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए।
१. नायाधम्मकहा (मल्ली अध्ययन) पाथर्डी, १९६४
२, जैन, हुकमचंद, रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन-थीसिस १६८३ पृ० ५०६
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
बहु-पूय-असुइ-वस-मंस रुहिर-परिपुरियाण महिलाण ।
कज्जे किं कुणसि नरिंदं असरिस निय-कुल-कलंक ॥ तब वह राजा इस उपदेश से प्रतिबोधित हो जाता।।
(घ) दृष्टान्त उद्बोधन से प्रतिबोधित नहीं होने की स्थिति में नारी एक कदम और आगे बढ़कर अर्थात् अशुचि पदार्थों को दिखाकर शील रक्षा करती हुई दिखाई देती है । उत्तराध्ययनसूत्र में राजीमती एवं रथनेमि की कथा वर्णित है। इस कथा में राजीमती पानी से भीगी हुई गुफा में प्रवेश करती है। उसके पूर्व ही रथनेमि वहाँ साधना कर रहे होते हैं । ऐसी अवस्था में राजीमती को देखकर उनकी आसक्ति तीव्र हो उठती है । तब वे राजीमती को कहते हैं :
हे भद्रे ! हे कल्याणकारिणी ! हे सुन्दर रूप वाली ! हे मनोहर बोलने वालो ! हे सुन्दर शरीर वाली ! मैं रथनेमि हूँ। तू मुझे सेवन कर । तुझे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होगी । निश्चय ही मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए हे भद्र ! इधर आओ। हम दोनों भोगों का उपभोग करें । फिर मुक्तभोगी होकर बाद में जिनेन्द्र के मार्ग का अनुसरण करेंगे।
यह सुनकर राजमती हतप्रभ रह जाती है । वह रथनेमि को फटकारती हुई कहती है कि
यदि तू रूप में वैश्रमण देव के समान और लीला-विलास में नलकूबर देव के समान हो। अधिक तो क्या यदि साक्षात् इन्द्र भी हो तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती। अन्त में राजीमती रथनेमि को अपना वमन पात्र बताती हुई कहती है कि तुम इसे पी लो। तब रथनेमि कहता है कि यह अशुचि पदार्थ है।
इस पर राजीमती कहती है कि तब मुनि-दशा को छोड़कर काम-वासना रूपी संसार में घृणित पदार्थ रूपी वमन को तुम क्यों पीना चाहते हो ? संयम से विचलित मनुष्य का जीवन उस हरड़ वृक्ष के समान है जो हवा के एक छोटे से झोंके से उखड़ कर नदी में बह जाता है। वैसे ही संयम से शिथिल .. होकर तुम्हारी आत्मा भी उच्च पद से नीचे गिर जायेगी और संसार ससुद्र में परिभ्रमण करती रहेगी।
जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारीओ। वाया-इद्धो व हडो, अट्ठिअप्पाभविस्ससि ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २२, सैलाना, १९७४ यह कथा अन्य प्राकृत ग्रन्थों में भी कुछ हेर-फेर के साथ मिलती है।
(२) रौद्ररू। प्रदर्शन द्वारा --उपदेश एवं दृष्टान्त उद्बोधन द्वारा भी यदि कामी पुरुष नहीं मानता है और बलात् शील खण्डन करना चाहता है । उस समय नारी अपना विकट रूप धारणकर गर्जना करती है और तब कामी पुरुष डरकर हट जाता है। ऐसी एक कथा आवश्यक नियुक्ति में मिलती है।
चण्डप्रद्योत राजा की शिवा रानी पर उसका मन्त्री भूतदेव मोहित हो जाता है। एक बार
१. जैन, प्रेम सुमन, "रोहिणी कथानक" साहित्य संस्थान, उदयपुर १९८६, पृ० २४ से २७ २. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २२, सैलाना, १६७४
(ख) जैन, जगदीश चन्द्र, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, चौखम्बा, वाराणसी, १९६५, पृ० २५१ ३. (क) दशवैकालिक सूत्र-२, ७-११
(ख) दशवकालिकचूर्णौ २ पृ०८७
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प्राकृत साहित्य में वर्णित शील-सुरक्षा के उपाय : डॉ० हुकमचन्द जैन
एकान्त अवसर एवं राजा की अनुपस्थिति देखकर, रनिवास में प्रवेश कर वह रानी से काम-याचना करता है । रानी पहले उसे उद्बोधन देती है । तब भी वह काम के लिए लपकता है । तब शिवा रानी में अद्भुत शक्ति एवं साहस का संचार हो जाता है। वह बिजली की तरह त्वरितगति से कुछ चरण पीछे हटी एवं प्रलयंकर मेघों के समान गर्जना करती हुई उस मन्त्री पर बरस पड़ी। वह बोली-कामी-कुत्ते ! वहीं ठहर जा । खबरदार जो एक चरण भी आगे बढ़ा । तू तो है ही क्या ? इन्द्र स्वयं भी प्रयत्न करे तो भी मुझे शील से खण्डित नहीं कर सकता । अवन्ती नरेश का मित्र होने का तू दावा करता है और उन्हीं से यह भयंकर छल करते हुए तुझे लज्जा नहीं आती। ऐसे चण्डी रूप को देखकर वह मन्त्री डरकर भाग खड़ा होता है और शिवारानी अपने शील की रक्षा कर लेती है ।।
(३) रूप परिवर्तन द्वारा-नारी विचित्र औषधि प्रयोग एवं रूप परिवर्तन से भी अपने शील की सुरक्षा कर लेती है। ऐसी ही एक कथा रूपवती तारा की है । चन्द्र एवं उसकी पत्नी तारा को घर छोड़ने के लिए कहा गया। वे ताम्रलिप्ती नगर में एक माली के घर रहने लगे । तारा को एक दिन परिव्राजिका के दर्शन हुए। परिवाजिका ने उसे एक गोली दी जिसके प्रभाव से स्त्री पुरुष और पुरुष स्त्री बन जाय । एक बार वहाँ का राजा तारा पर मोहित हो गया और कहने लगा-प्रिये ! तेरे विरह की अग्नि से मेरा अंग-अंग झुलस रहा है, अपने संगम-सुख से उसे शान्त कर । ऐसा कहकर राजा ने ज्योंही उसे आलिंगनपाश में बाँधना चाहा, उसने तुरन्त दूर होकर कहा-महाराज ! यह क्या ? राजा अपने सामने एक पुरुष को खड़ा देखकर लज्जित हो जाता है और वह रूप-परिवर्तन द्वारा अपने शील की रक्षा करती है। नारियाँ अपने को असहाय अनाथ समझकर, कोई बहाना बनाकर, नाटकीय ढंग से अपनी शील रक्षा करती हुई देखी गयी हैं ।
(४) पागलपन के अभिनय द्वारा-नर्मदासुन्दरी उसके चाचा वीरदास की अंगूठी के बहाने बुलाकर कैद कर ली जाती है और वेश्या बनाने के लिए उसे कितनी ही पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं किन्तु वह वेश्या नहीं बनती। तब उसे रसोईघर में काम मिल जाता है। लेकिन शील खण्डन का संकट पुनः खड़ा हो जाता है। अत्यन्त रूपवती होने के कारण राजा उसे बहुत चाहने लगता है। राजा दण्डरक्षक को भेजकर नर्मदासुन्दरी को बुलाता है। तब रास्ते में ही पानी की एक बावड़ी देखकर नर्मदा को पालकी से उतार दिया। लेकिन बावड़ी के पास पहुँचते ही वह फिसल कर गिर पड़ती है । उसके बाद वह अट्टहासपूर्वक चिल्लाकर कहने लगी-क्या राजा ने मेरे लिए यही आभूषण भेजा है ? उसने अपने शरीर पर कीचड़ लपेट लिया । दण्डरक्षक ने कहा-अरी स्वामिनी ! यह क्या ? वह उसकी ओर बढ़ा । नर्मदा ने उत्तर दिया-अरे तू राजा की रानी को अपनी रानी बनाना चाहता है ? यह कहकर दण्ड रक्षक के मुंह पर कीचड़ फेंकने लगी । भूतनी-भूतनी का शोर मच गया। नर्मदा नेत्रों को फाड़, जीभ निकाल, गीदड़ की
१. (क) शास्त्री, राजेन्द्र मुनि "सत्य-शील की अमर साधिकाएँ", उदयपुर १६७७, पृ० १३०
(ख) आवश्यक नियुक्ति, गा० १२८४ पृ० १३० २. (अ) जैन जगदीश चन्द्र, रमणी के रूप, वाराणसी, पृ० २१-२५
(ब) जैन, जगदीशचन्द्र, "नारी के विविध रूप" वाराणसी, १६७८, पृ० ६० (स) वसुदेव हिण्डी, (संघदासगणि), भावनगर, २३३ (द) जैन, जगदीश चन्द्र, प्राकृत जैन कथा साहित्य, अहमदाबाद, १६७१, पृ० ४८
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१५६ . बोली बोलती हुई भीड़ की ओर दौड़ी। दण्डरक्षक ने राजा के पास पहुंचकर सब हाल सुनाया। राजा उसे पागल मानकर छोड़ देता है । और इस प्रकार नर्मदा अपने शील को बचा लेती है ।
(५) किसी विशेष युक्ति द्वारा - किसी विचित्र युक्ति द्वारा भी प्राकृत साहित्य में शील रक्षा के उपाय वाले दृष्टान्त मिलते हैं । युक्तिपूर्ण तरीके से शील सुरक्षा करने की कथा कुमारपाल प्रतिबोध नामक ग्रन्थ में मिलती है । कथा इस प्रकार है
एक बार अजितसेन की पत्नी शीलवती की राजा ने परीक्षा लेनी चाही । उसने एक-एक करके चार युवकों को उसके पास भेजा । उन चारों युवकों ने शीलवती से काम-भोग की प्रार्थना की। नहीं मानने पर उन चारों ने शीलवती को धमकाया। जब उसे यह अनुमान हुआ कि यह पूर्वनियोजित योजना है । इससे कभी भी शील भंग हो सकता है। तब उसने एक युक्ति का सहारा लिया। वह सहसा अपने व्यवहार में कोमल हो गयी । उसके वार्तालाप में सहज अनुराग का स्वर आ गया। उसने उन चारों युवकों को पृथक-पृथक रूप से अपनी स्वीकृति दे दी। उसने सन्ध्या के समय एक उद्यान में चारों को बुलाया गया । पूर्ण नियोजित ढंग से उसने उन चारों को एक कुए में धकेल कर बन्दी बना लिया। इस प्रकार विशेष युक्ति द्वारा उसने अपने शील की रक्षा कर ली।
(६) समय-अन्तराल द्वारा–युक्ति, अभिनय, रूप परिवर्तन एवं अन्य उपायों द्वारा शील-रक्षा का कोई उपाय नहीं दिखाई देने पर नारियों द्वारा कामुक व्यक्तियों की प्रणय-याचना को स्वीकार कर उनसे कुछ समय का अवकाश माँगकर अपनी शील रक्षा की जाती थी। इस प्रकार की कथा इस प्रकार है । ज्ञाताधर्म कथा में, द्रौपदी की कथा वर्णित है जिसमें द्रौपदी राजा पद्मनाभ द्वारा अपहरण कर ली जाती है । राजा उसे अन्तःपुर में लाकर उससे कामना-प्रार्थना करता है। तब द्रौपदी पद्मनाभ से इस प्रकार कहती है
हे देवानुप्रिय ! द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं । यदि वे छः महीने तक लेने के लिए यहाँ नहीं आयेंगे तो हे देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे वहो मैं करूंगी।
इस प्रकार समय मांगने को कथाएँ परवर्ती प्राकृत साहित्य में भी मिलती है यथा(१) सती मृगावती एवं चण्डप्रद्योत की कथा । (२) तिलकसुन्दरी एवं मदनकेशरी की कथा । (३) जयलक्ष्मी एवं विजयसेन की कथा ।
(४) रत्नवती एवं रुद्रमंत्री की कथा ।” १. (अ) जैन जगदीश चन्द्र, नारी के विविध रूप, पृ० २६-२७
(ब) शास्त्री, नेमिचन्द्र, वाराणसी, १९६६, पृ० ४६४ २. शास्त्री राजेन्द्र मुनि, सत्यशील की अमर साधिकाए', पृष्ठ २२६ । ३. (अ) णायाधम्मकहा (१६ वाँ अध्ययन) पाथर्डी, पृ० ४६६-५००
(ब) शास्त्री, राजेन्द्र मुनि, सत्यशील की अमर साधिकाएँ, पृ० ७७.७६ । ४. वही, पृ० ११०, पर उद्धृत, आवश्यक नियुक्ति, गा०, १०४८ एवं दशव कालिक नियुक्ति-अ० १ गा० ७ ५. जैन, हुकुमचन्द, "रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन" थीसिस १९८३, अनु० ६६
पै० २-३। ६. प्राकृत कथा संग्रह, सूरत, १६५२, पृ० १७, गा० ६०-६५
७. वही पृ०२ गा० ५०-६०
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प्राकृत साहित्य में वर्णित शील-सुरक्षा के उपाय : डॉ० हुकमचन्द जैन
(७) आत्मघात द्वारा - शील रक्षा का कोई उपाय नहीं दिखाई देने पर शीलवती नारियाँ आत्मघात करने के लिए प्रवृत्त हो जाती हैं किन्तु शील खण्डित नहीं होने देतीं । ऐसी कथाओं में सती चन्दना की कथा प्रसिद्ध है | 1
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कभी-कभी कोई कामी व्यक्ति अपने घर में ही अपने छोटे भाई की पत्नी के साथ उदाहरणार्थराजा मणिरथ अपने छोटे भाई की पत्नी; तो कभी पुत्रवधु तो कभी निकटतम सम्बन्धियों की स्त्रियों के साथ अपनी काम भावना व्यक्त करने लगते हैं । ऐसी विकट परिस्थितियों में भी नारी ने अपने शील की रक्षा की है। ऐसी ही एक कथा सत्य शील की अमर साधिकाएँ नामक पुस्तक में वर्णित है ।
(८) लोक - निन्दा का भय दिखाकर - राजा मणिरथ अपने छोटे युगबाहु की पत्नी मदन रेखा पर आसक्त था किन्तु मदनरेखा इस बात से अनभिज्ञ थी । वह बड़े भाई (राजा) को पिता की तरह मानती किन्तु कामाभिभूत राजा कई प्रकार के उपहार उसे भेजता रहता था । उसे राजा के प्रति किंचित मात्र शंका नहीं थी । एक दिन राजा उसे अकेली समझकर उसके भवन में चला गया और और कामभावना दर्शाने लगा । तव मदनरेखा उस बात को भाँप गयी। उसने राजा को ललकार कर भगा दिया । राजा उसे कई बार प्राप्त करने का प्रयत्न करता है किन्तु लोक- निन्दा का भय दिखाने पर वह विफल हो जाता है । "
(E) पुरुषों द्वारा शील-सुरक्षा - प्राकृत साहित्य में ऐसी कथाएँ भी मिलती हैं जिसमें स्त्री पुरुषों से काग-याचना करती है । पुरुष उपदेश द्वारा या अन्य उपायों द्वारा अपनी शील वृत्ति का पालन करते हैं। यथा
(क) 'समराइच्चकहा' के पंचम भव में ऐसी ही एक कथा वर्णित है जिसमें सनत्कुमार अपने पिता से रुष्ट होकर घर से चला गया। एक बार ताम्रलिप्ति में विलासवती के भवन के समीप से निकला दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गये। ये प्रेम-प्रसंग चल ही रहा था कि एक दिन प्रेमिका की सौतेली माता रानी अनंगवती ने सनत्कुमार को अपने पास बुलाया और स्वयं उससे प्रेम याचना को किन्तु सनत्कुमार ने उसकी बात को अस्वीकार करके अपने शीलव्रत का पालन किया । "
(ख) ऐसी ही एक कथा समराइच्च कहा के अष्टम भव में भी आयी है जिसमें रत्नवती की को अज्ञान 'वेष्टा के फल के उदाहरण में गजिनी रत्नावती के पूर्व भव की कथा कही गयी है । 2
( ग ) ऐसी ही एक कथा आख्यानक मणिकोश में भी मिलती है जिसमें सुदर्शन अपने को नपुसंक बताकर अपने शील की सुरक्षा कर लेता है ।
एक बार कपिल घर पर नहीं थे तब उसकी पत्नी कपिला ने अवसर देखकर सुदर्शन सेठ से काम भोग की प्रार्थना की । तब सुदर्शन सेठ अपने शील की सुरक्षा करता हुआ कहता है - मैं तुम्हें चाहता हुआ भी नपुंसक हूँ। ऐसा कहता हुआ वह वहाँ से भाग निकला । यथाः
१. आख्यानकमणिकोश ( नेमिचन्द्र ) पृ० ३६, गा० ६-७
२. शास्त्री, राजेन्द्र मुनि, “सत्य - शील की अमर साधिकाएँ, पृ० १५६ - १५७
३. वही पृ० १८४ १६१
४. जैन रमेश चन्द्र, समराइच्चकहा ( अष्टम भाव ), मेरठ १६८०, पृ० ६०
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
भणियं सविसाएणं सुयणु समीहेमि संगयं तुज्झ । किंतु नियदुकियकम्मेण निमिओ पंडओ अहयं ॥
-आ. म. को. पृ. १४२ डा० हीरालाल जैन ने “सुदंसणचरिउ" की भूमिका में पुरुष द्वारा शील-रक्षा के उपायों के कई सन्दर्भ भारतीय साहित्य से खोज कर प्रस्तुत किये हैं।1
प्राकृत साहित्य में उपलब्ध शील-रक्षा के उपर्युक्त उपायों के प्रसंगों से स्पष्ट है कि भारतीय समाज में शील का पालन करना एक महत्वपूर्ण जीवन मूल्य रहा है। भारतीय नारी का शील एक ऐसा आभूषण माना गया है, जो उसे भौतिक आभूषणों से अधिक सुशोभित करता है। इसीलिए शील की महिमा सर्वत्र गायी गयी है। इस विवरण से यह भी प्रकट होता है कि भारतीय नारी संघर्षशीला रही है। वह संकटों से घबड़ाती नहीं है । ये प्रसंग इस बात की शिक्षा देते हैं कि नारी केवल भोग्या नहीं है। उसका भी अपना सम्मान एवं स्वतन्त्र व्यक्तित्व है । पुरुषों को उसकी रक्षा करनी चाहिए । यही बात नारी को भी सोचनी चाहिए कि वह भौतिक सुख से ऊपर उठे । प्राकृत साहित्य का शील, सदाचार, पुरुषार्थ, आत्मनिर्भरता आदि जीवनमूल्यों की दृष्टि से अध्ययन किया जाना चाहिए । १. जैन हीरालाल, सुदंसणचरिउ, वैशाली-१६७० भूमिका पृ० १८-२३
नारी के विविध रूप गाहा कुला सुदिव्वा व भावका मधुरोदका। ___ फुल्ला व पउमिणि रम्मा बालक्कंता व मालवी ॥ हेमा गुहा ससीहा वा, माला वा वज्झकप्पिता।
सविसा गंधजुत्ती वा अन्तो दुट्ठा व वाहिणी ॥ गरंता मदिरा वा वि जोगकण्णा व सालिणी। नारी लोगम्मि विण्णेया जा होज्जा सगुणोदया ।
-इसिभासियाइं २२, २, ३, ४ नारी सुदिव्य कुल की गाथा के सदृश है, वह सुवासित मधुर जल के समान है, विकसित रम्य पद्मिनी (कमलिनी) के समान है और व्याल से लिपटी मालती के समान है।
वह स्वर्ण की गुफा है, पर उसमें सिंह बैठा हुआ है। वह फूलों की माला है, पर विष पुष्प की बनी हुई है। दूसरों के संहार के लिए वह विष मिश्रित गंध-पुटिका है। वह नदी की निर्मल जल-धारा है, किन्तु उसके बीच में भयंकर भँवर है जो प्राणापहारक है।
वह मत्त बना देने वाली मदिरा है। सुन्दर योग-कन्या के सदृश है। यह नारी है, स्वगुण के प्रकाश में यथार्थ नारी है।
खण्ड ५/२१
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भगवान् महावीर की
दृष्टि में - नारी
विमला मेहता ( चिन्तनशील लेखिका, सामाजिक कार्यकर्त्री)
ईसा के लगभग पाँच सदी पूर्व समाज की प्रचलित सभी दूषित मान्यताओं को अहिंसा के माध्यम से बदल देने वाले महावीर वर्द्ध मान थे। उनके संघ में एक ओर हरिकेशी और मैतार्य जैसे शुद्र थे तो दूसरी ओर महाराजा अजातशत्रु व वैशालीप्रति राजा चेटक जैसे सम्राट् भी | विनम्र परन्तु सशक्त शब्दों में महावीर ने घोषणा की कि समस्त विराट् विश्व में सचराचर समस्त प्राणी वर्ग में एक शाश्वत स्वभाव है- जीवन की आकांक्षा । इसलिये " मा हणो" । न कष्ट ही पहुंचाओ, न किसी अत्याचारी को प्रोत्साहन ही दो । अहिंसा के इस विराट स्वरूप का प्रतिपादन करने का ही यह परिणाम है कि आज भ० महावीर, अहिंसा, जैन धर्म, तीनों शब्द एक दूसरे के पर्याय चुके हैं। क्रान्तिकारी कदम
युग पुरुष भ० महावीर जिन्होंने मनुष्य का भाग्य ईश्वर के हाथों में न देकर मनुष्य मात्र को भाग्य निर्माता बनने का स्वप्न दिया, जिन्होंने शास्त्रों, कर्मकाण्डों और जन समुदाय की मान्यताएँ ही बदल दीं, उन महावीर की दृष्टि में मानव जगत् के अर्धभाग नारी का क्या स्थान है ?
यदि उस समय के सामाजिक परिवेश में देखा जाये तो यह दृष्टिगोचर होता है कि जिन परिस्थितियों में महावीर का आविर्भाव हुआ, वह समय नारी के महापतन का समय था । ' अस्वतन्त्रता स्त्री पुरुष - प्रधाना" तथा "स्त्रियां वेश्यास्तथा शूद्राः येपि स्युः पापयोनयः" जैसे वचनों की समाज में मान्यता थी । ऐसे समय महावीर द्वारा नारी का खोया सम्मान दिलाना एक क्रांतिकारी कदम था । जहाँ स्त्री वर्ग में इस परिवर्तन का स्वागत हुआ होगा, वहाँ सम्भवतः पुरुष वर्ग विशेषकर तथाकथित उच्च वर्ग को ये परिवर्तन सहन न हुए होंगे।
नारी को खोया सम्मान मिला
बचपन से निर्वाण प्राप्ति तक का भ० महावीर का जीवन चरित्र एक खुली पुस्तक के समान है । उनके जीवन की घटनाओं और विचारोतेजक वचनों का अध्ययन किया जाय तो उसके पीछे छिपी एकमात्र भावना, नारी को उसका खोया सम्मान दिलाने का सतत् प्रयत्न, का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है ।
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
जैनों की दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे ब्रह्मचारी व अविवाहित रहे। श्वेताम्बर परम्परा की शाखा के अनुसार वे भोगों के प्रति आसक्त नहीं हुए। ऐतिहासिक तथ्यों व जैन आगमों के अनुसार समरवीर नामक महासामन्त की सुपुत्री व तत्कालीन समय की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी यशोदा के साथ उनका विवाह हुआ और प्रियदर्शना नामक एक कन्या उत्पन्न हुई।
तो भ० महावीर ने नारी को पत्नी के रूप में जाना। बहन सुदर्शना के रूप में बहन का स्नेह पाया और माता त्रिशला का अपार वात्सल्य का सुख देखा। अट्ठाइस वर्ष की उम्र में भ्राता से दीक्षा की अनुमति माँगी, अनुमति न मिलने पर वहन, पत्नी व अबोध पुत्री की मूक भावनाओं का आदर कर वे गृहस्थी में ही रहे। दो वर्ष तक यों योगी की भाँति निर्लिप्त जीवन जीते देख पत्नी को अनुमति देनी पड़ी। महावीर व बुद्ध
महावीर व बुद्ध में यहाँ असमानता है। महावीर अपने वैराग्य को पत्नी, माँ, बहन व पुत्री पर थोप कर चुपचाप गृह-त्याग नहीं कर गये । गौतम बुद्ध तो अपनी पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल को आधी रात के समय सोया हुआ छोड़कर चले गये थे। सम्भवतः वे पत्नी व पुत्र के आँसुओं का सामना करने में असमर्थ रहे हों। पर बुद्ध ने मन में यह नहीं विचार किया कि प्रातः नींद खुलते ही पत्नी व पुत्र की क्या दशा होगी? इसके विपरीत महावीर दो वर्ष तक सबके बीच रहे। परिवार की अनुमति से मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को वे दीक्षित हो गये। दीक्षा लेने के उपरान्त महावीर ने नारी जाति को मात जाति के नाम से सम्बोधित किया। उस समय की प्रचलित लोकभाषा अर्धमागधी प्राकृत में उन्होंने कहा कि पुरुष के समान नारी को धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त होने चाहिये। उन्होंने बताया कि नारी अपने असीम मातृ-प्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन कर सकती है। विकास की पूर्ण स्वरन्त्रता
उन्होंने समझाया कि पुरुष व नारी की आत्मा एक है। अतः पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी विकास के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिये । पुरुष व नारी की आत्मा में भिन्नता का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः नारी को पुरुष से हेय समझना अज्ञान, अधर्म व अतार्किक है।
गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य पालन करने वाले पति-पत्नी के लिए महावीर ने उत्कृष्ट विधान रखा। महावीर ने कहा कि ऐसे दम्पत्ति को पृथक् शैय्या पर ही नहीं अपितु पृथक शयन-कक्ष में शयन करना चाहिये। किन्तु जब पत्नो पति के सन्मुख जावे तब पति को मधुर एवं आदरपूर्ण शब्दों में स्वागत करते हुए उसे बैठने को भद्रासन प्रदान करना चाहिये । क्योंकि जैनागमों में पत्नी को "धम्मसहाया" अर्थात् धर्म की सहायिका माना गया है।
__वासना, विकार और कर्मजाल को काट कर मोक्ष-प्राप्ति के दोनों ही समान भाव से अधिकारी हैं। इसी प्रकार समवसरण, उपदेश, सभा, धार्मिक पर्यों में नारियाँ निस्संकोच भाग लेंगी। मध्य सभा के खुले रूप में प्रश्न पूछकर अपने संशयों का समाधान कर सकती हैं। ऐसे अवसरों पर उन्हें अपमानित ८ तिरस्कृत नहीं किया जायेगा। दासी प्रथा का विरोध उन्होंने दासी-प्रथा, स्त्रियों का व्यापार और क्रय-विक्रय रोका। महावीर ने अपने बाल्यकाल
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भगवान महावीर की दृष्टि में नारी : विमला मेहता
में कई प्रकार की दासियों जैसे धाय, क्रीतदासी, कुलदासी, ज्ञातिदासी आदि की सेवा प्राप्त की थी व उनके जीवन से भी परिचित थे। इस प्रथा का प्रचलन न केवल सुविधा की खातिर था, बल्कि दासियाँ रखना वैभव व प्रतिष्ठा की निशानी समझा जाता था। जब मेघकुमार की सेवा-सुश्रूषा के लिए नाना देशों से दासियों का क्रय-विक्रय हुआ तो महावीर ने खुलकर विरोध किया और धर्म-सभाओं में इसके विरुद्ध आवाज बुलन्द की।
बौद्ध आगमों के अनुसार आम्रपाली वैशाली गणराज्य की प्रधान नगरवधू थी। राजगृह के नैगम नरेश ने भी सालवती नाम की सुन्दरी कन्या को गणिका रखा। इसका जनता पर कुप्रभाव पड़ा और सामान्य जनता की प्रवृत्ति इसी ओर झुक गई। फलस्वरूप गणिकाएँ एक ओर तो पनपने लगीं, दूसरी ओर नारी वर्ग निन्दनीय होता गया। भिक्षुणी का आदर
जब महावीर ने भिक्षुणी संघ की स्थापना की तो उसमें राजघराने की महिलाओं के साथ दासियों व गणिकाओं-वेश्याओं को भी पूरे सम्मान के साथ दीक्षा देने का विधान रखा। दूसरे शब्दों में महातीर के जीवन-काल में जो स्त्री गणिका, वेश्या, दासी के रूप में पुरुष वर्ग द्वारा हेय दृष्टि से देखी जाती थी, भिक्षणी संघ में दीक्षित हो जाने के पश्चात् वह स्त्री समाज की दृष्टि में वन्दनीय हो जाती थी..." । नारी के प्रति पुरुष का यह विचार परिवर्तन युग-पुरुष महावीर की देन है।
भगवान बुद्ध ने भी भिक्षुणी संघ की स्थापना की थी, परन्तु स्वयमेय नहीं आनन्द के आग्रह से और गौतमी पर अनुग्रह करके । पर भगवान महावीर ने समय की माँग समझ कर परम्परागत मान्यताओं को बदलने के ठोस उद्देश्य से संघ की स्थापना की। जैन शासन-सत्ता की बागडोर भिक्ष-भिक्ष णी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध रूप में विकेन्द्रित कर तथा पूर्ववर्ती परम्परा को व्यवस्थित कर महावीर ने दुहरा कार्य किया।
___ इस संघ में कुल चौदह हजार भिक्षु, तथा छत्तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं। एक लाख उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ थीं । भिक्षु संघ का नेतृत्व इन्द्रभूति के हाथों में था तो भिक्ष णी संघ का नेतृत्व राजकुमारी चन्दनबाला के हाथ में था।
पुरुष की अपेक्षा नारी सदस्यों की संख्या अधिक होना इस बात का सूचक है कि महावीर ने नारी जागृति की दिशा में सतत् प्रयास ही नहीं किया, उसमें उन्हें सफलता भी मिली थी। चन्दनबाला, काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा आदि क्षत्राणियाँ थीं तो देवानन्दा आदि ब्राह्मण कन्याएँ भी संघ में प्रविष्ट हुईं।
"भगवती-सूत्र" के अनुसार जयन्ती नामक राजकुमारी ने महावीर के पास जाकर गम्भीर तात्त्विक एवं धार्मिक चर्चा की थी। स्त्री जाति के लिए भगवान् महावीर के प्रवचनों में कितना महान् आकर्षण था, यह निर्णय भिक्षुणी व श्राविकाओं की संख्या से किया जा सकता है । नारी जामरण : विविध आयाम
गृहस्थाश्रम में भी पत्नी का सम्मान होने लगा तथा शीलवती पत्नी के हित का ध्यान रखकर कार्य करने वाले पुरुष को महावीर ने सत्पुरुष बताया। सप्पुरिसो...""पुत्तदारस्स अत्थाए हिताय सुखाय होति......."विधवाओं की स्थिति में सुधार हुआ । फलस्वरूप विधवा होने पर बालों का काटना आवश्यक
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खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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नहीं रहा । विधवाएँ रंगीन वस्त्र भी पहनने लगीं जो पहले वर्जित थे । महावीर की समकालीन थावच्चा सार्थवाही नामक स्त्री ने मृत पति का सारा धन ले लिया था जो उस समय प्रचलित नियमों के विरुद्ध था । "तत्थणं बारवईए थावच्चा नामं गाहावइणी परिवसई अड्ढा जाव।
महावीर के समय में सती प्रथा बहुत कम हो गई थी । जो छुटपुट घटनाएँ होती थीं वे जीव हिंसा के विरोधी महावीर के प्रयत्नों से समाप्त हो गईं। यह सत्य है कि सदियों पश्चात् वे फिर आरम्भ हो गयीं ।
बुद्ध के अनुसार स्त्री सम्यक् सम्बुद्ध नहीं हो सकती थी, किन्तु महावीर के अनुसार मातृजाति तीर्थंकर भी बन सकती थी । मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर की पदवी प्राप्त की 1
महावीर की नारी के प्रति उदार दृष्टि के कारण परिव्राजिका को पूर्ण सम्मान मिलने लगा । राज्य एवं समाज का सबसे पूज्य व्यक्ति भी अपना काम छोड़कर उन्हें नमन करता व सम्मान प्रदर्शित करता था । " नायधम्मकहा" आगम में कहा है :
तए णं से जियसत्तु चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ सीहासणाओ अब्भुट्ठेई सक्कारेई आसणेणं उवनिमन्तेई ।
इसी प्रकार बौद्ध - युग की अपेक्षा महावीर युग में भिक्ष ुणी संघ अधिक सुरक्षित था । महावीर भिक्षुणी संघ की रक्षा की ओर समाज की ध्यान आकर्षित किया ।
यह सामयिक व अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा महावीर स्वामी के उन प्रवचनों का विशेष रूप से स्मरण किया जाये जो पच्चीस सदी पहले नारी को पुरुष के समकक्ष खड़ा करने के प्रयास में उनके मुख से उच्चरित हुए थे I
सज्जन वाणी :
00
१. जो व्यक्ति धार्मिकता, और नैतिकता तथा मर्यादाओं का परित्याग कर देता है, वह मनुष्य कहलाने का अधिकार खो देता है ।
२. धर्म से ही व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन, सामाजिक जीवन में समानता, सेवा और श्रद्धा का सुयोग मिलता है जिससे व्यावहारिक जीवन भी सुखमय बनता है ।
३. स्वभाव की नम्रता से जो प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, वह सत्ता और धन से नहीं मिल सकती न कोरी विद्वा से मिलती है ।
४. जिन्होंने मन, वचन काया से अहिंसा व्रत का आचरण किया है उनके आस-पास का वातावरण अत्यन्त पवित्र बन जाता है । और पशु भी अपना वैर भाव भूल जाते हैं ।
- पू० प्र० सज्जन श्री जी म०
成卐
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सती होने का अर्थ है विधवा स्त्री का अपने पति की चिता में जीवित जल जाना। इसे सहमरण, सहगमन, अनुमरण या अन्वारोहन आदि नामों से भी जाना जाता है। इस प्रक्रिया में दो स्थितियाँ
उत्पन्न हो सकती हैं—पहली स्थिति में विधवा को उसकी इच्छा सती प्रथा और जैनधर्म के विरुद्ध चिता में प्रवेश करने के लिए विवश किया जाता हो और
दूसरी स्थिति में विधवा स्वेच्छापूर्वक सती होती हो । प्राचीनकाल में सती प्रथा को साधारण सी घटना माना गया था। जहाँ हिन्दू-धर्म में सती प्रथा से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख बहुतायत से है, वहीं जैन धर्म में यह आपवादिक घटनाओं के रूप में उल्लिखित हुआ है। __ अगर हम हिन्दू धर्म-ग्रंथों पर दृष्टिपात करें तो हमारे समक्ष सती प्रथा का वर्णन करने वाले तीन तरह के ग्रन्थ प्रस्तुत होते हैं ।
(क) प्रथम कोटि में वे हिन्दू-धर्मग्रन्थ आते हैं जो सती प्रथा का समर्थन नहीं करते हैं। ___ (ख) दूसरी कोटि में सती प्रथा का अस्पष्ट ढंग से समर्थन करने
वाले हिन्दू-धर्म-ग्रन्थ आते हैं।' रज्जन कुमार
(ग) तीसरी कोटि में सती-प्रथा का स्पष्ट रूप से समर्थन करने (शोधछात्र पार्श्वनाथ : विद्याश्रम शोध- वाले ग्रन्थ आते हैं । संस्थान, वाराणसी)
लेकिन सती-प्रथा के सम्बन्ध में जैनधर्म से सम्बन्धित ग्रन्थों में इस तरह का विभेद नहीं मिलता है । पहली बात तो यह कि जैनागमों में इस प्रथा का अभाव ही है, लेकिन अगर कुछ है भी तो उसे अपवाद के तौर पर ही लिया जा सकता है।। ___ 'निशीथचूणि' में लिखा गया है कि सोपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर नहीं देने के कारण राजा ने उन्हें जीवित जला देने का आदेश दिया। उक्त आदेशानुसार उन पांच-सौ व्यापारियों को जिन्दा जला दिया गया था और उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गई थी। इसी प्रकार का एक विवरण 'प्रश्नव्याकरण' में भी मिलता है । इस ग्रन्थ के अनुसार “चालुक्य देश की नारियां पति की मृत्यु के बाद आत्मदाह करती थी। परन्तु जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं।
१. भारद्वाज गृह्यसूत्र १, २ । २. अथर्ववेद १८, ३, १, २ कौशिक गृह्यसूत्र ५, ३, ६ विष्णु धर्मसुत्र, २५/१४, ___बृहस्पति स्मृति, २५/११, व्यास स्मृति ३. मिताक्षरा, ८६, बृहत्पाराशर स्मृति, दक्षस्मृति, पाराशर स्मृति, ३२, ३३ जीवानन्द, १, पृ० ३६५ ४. निशीथचूणि, भाग २ पृ० ५६-६०, निशीथचूणि, भाग ४ पृ० १४, ५. प्रश्नव्याकरण २/४/७
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१६७ पुनः इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख नहीं मिलते हैं । “महानिशीथ" में एक विवरण मिलता है जिसके अनुसार किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रथा का प्रचलन नहीं था । अतः अंत में उसने अपना यह विचार त्याग दिया। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्यु के बाद स्वेच्छापूर्वक देहत्याग को अनुचित माना है और इस प्रकार के मरण को 'बाल-मरण' या 'लोकमूढ़ता' कहा है । सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में कहीं नहीं मिलता है।
___'आवश्यक चूणि' में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता आदि के कुछ ऐसे उदाहरण अवश्य मिलते हैं जिनमें बह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है। परन्तु यह देह-त्याग सती-प्रथा की अवधारणा से अलग है । जैनधर्म यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल जाने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। लेकिन हिन्दू धर्म में ऐसा विश्वास किया जाता है । जैन धर्म अपने कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था रखता है
और यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और मनोभावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । यद्यपि परवर्ती जैन-कथा-साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी आगामी भवों में जीवन-साथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी उदाहरणों की जैन-कथासाहित्य में कमी नहीं है।
अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैन-धर्म सती-प्रथा का समर्थन नहीं करता । जैन-धर्म के सती-प्रथा के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी हैं । व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। अनुत्तरोपपातिक में एक उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार एक सार्थवाह की पत्नी विधवा होने पर स्वयं व्यापार का संचालन करती थी। उत्तराध्ययन में लिखा हुआ है कि पुत्रहीना अयश पुत्र के वयस्क न होने की स्थिति में विधवा रानी मंत्री के माध्यम से राज्य कार्य का संचालन करती थी।
इसके अतिरिक्त जैनागमों और उसकी व्याख्याओं में ऐसे अनेक सन्दर्भ मिलते हैं जहां कि विधवा भिक्षणी बन जाती थी। उदाहरणस्वरूप मदनरेखा के पति की हत्या उसके भाई ने कर दी। इस घटना से दुःखी होकर वह भिक्षुणी बन गई । इसी तरह दुःखी या किसी तरह की विरक्ति के कारण विधवाएँ सती न होकर भिक्ष णी बन जाती थीं । मदनरेखा की ही तरह यशभद्रा,' पद्मावती आदि स्त्रियों का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत होता है । 'ज्ञाताधर्म कथा' में पोटिला तथा सुकुमालिका10 के भिक्ष णी बनने के प्रसंग का वर्णन मिलता है।
यद्यपि जैन परम्परा में ब्राह्मी,11 सुन्दरी12 वसुमती13 राजमती14 द्रौपदी पद्मावती18 आदि १. महानिशीथ, पृ० २६, वि० द्र० जैनागम साहित्य में भारतीय समाज पृ० २६९ २. आवश्यकचूणि, भाग १, पृ० ३१८
३. पाराशरस्मृति, ३२, ३३ ४. अनुत्तरोपपातिक, ३१६
५. उत्तराध्ययनसूत्र, १३ ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ० १३६-१४० ७. आवश्यक नियुक्ति, १२८३ ८. आवश्यक चूणि भाग २, पृ० १८३
६. ज्ञाता धर्मकथा, १/१४ १०. ज्ञाताधर्मकथा, १/१६
११. श्री सोलह सती, पृ० १-५ १२. श्री सोलह सती पृ० ६.१२
१३. श्री सोलह सती पृ० १३-६४ १४. श्री सोलह सती पृ० ६५-६१
१५. श्री सोलह सती पृ० १८२ १६. श्री सोलह सती
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सती प्रथा और जैनधर्म : रज्जन कुमार सोलह स्त्रियों को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम स्मरण के साथ-साथ इन सोलह सतियों का स्मरण किया जाता है । अब यहाँ प्रश्न यह है कि जब जैनधर्म में सती प्रथा को प्रश्रय नहीं दिया गया, तो इन सतियों को इतना आदरणीय स्थान क्यों प्रदान किया जाता है ? प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि उनका आचरण एवं शीलरक्षण के जिन उपायों का इन्होंने आलम्बन लिया, उसी के कारण इन्हें इतना आदरणीय स्थान प्रदान किया जाता है। इन्हें सती इसीलिए भी कहा जाता है क्योंकि इन स्त्रियों ने अपने शील की रक्षा हेतु आजीवन अविवाहित जीवन बिताया था, पति की मृत्यु के पश्चात् भी अपने शील को सुरक्षित रख सकीं। वर्तमान में जैन साध्वियों के लिए 'महासती' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसका मुख्य आधार शील का पालन है।
जैन आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध-साहित्य लिखा गया उसमें सर्वप्रथम सतो-प्रथा का जैनीकरण रूप हमें देखने को मिलता है। 'तेजपाल-वस्तुपाल-प्रबन्धकोश' में उल्लिखित है कि तेजपाल और वस्तूपाल की मृत्यु के उपरान्त उनकी पत्नियों ने अनशनपूर्वक अपने प्राण का त्याग किया था । यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर-त्यागने का उपक्रम तो है, किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है । वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती-प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है।
अब यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि सती जैसी प्रथा का इतना कम प्रचलन जैनधर्म में क्यों रहा ? इस बारे में तो यही कहा जा सकता है कि जैन भिक्षुणी संघ इसके लिए उत्तरदायी रहा । क्योंकि भिक्षणी बनी स्त्रियाँ भिक्ष णी संघ को अपना आश्रयस्थल समझती थीं। जैन भिक्षुणी संघ उन सभी स्त्रियों के लिए शरणस्थल होता था जो विधवा, परित्यक्ता अथवा आशयहीना होती थी। जब कभी भी ऐसी नारी पर किसी तरह का अत्याचार किया जाता था जैन भिक्ष णी संघ उनके लिए कवच बन जाता था। क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद स्त्रियाँ पारिवारिक उत्पीड़न से बचने के साथ ही साथ एक सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करती थीं। आज भी ऐसी बहुत सी अबलाएँ हैं जो कुरूपता, धनाभाव तथा इसी तरह की अन्य समस्याओं के कारण अविवाहित रहने पर विवश हैं ऐसी कुमारी, अबलाओं के लिए जैन भिक्ष णी संघ आश्रय स्थल है । जैन भिक्षणी संघ ने नारी गरिमा और उसके सतीत्व की रक्षा की जिसके कारण सती-प्रथा जैसी एक कुत्सित परम्परा का जैनधर्म में अभाव रहा ।
- इसी सन्दर्भ में यह विचार कर लेना भी उपयुक्त जान पड़ता है कि सती जैसी प्रथा का प्रचलन हिन्दू धर्म में क्यों इतने व्यापक पैमाने पर चलता रहा। यहाँ यही कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म में जैनधर्म की तरह कोई भिक्ष णी संघ नहीं रहा होगा ? क्योंकि अगर इस तरह की संस्था हिन्दू धर्म में भी कायम रहती तो निस्संदेह इतने अधिक सती के उदाहरण हिन्दू परम्परा में नहीं मिलते ।
००
१. प्रबन्धकोश, पृ० १२६
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अहिंसा-अपरिग्रह के
विश्व में शान्ति और सद्भाव तभी स्थापित हो सकता है जब मानव का विकास सही ढंग से हो । मानव-जीवन के विकास में नारी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । मानव का विकास उन चारित्रिक गुणों से होता है जिनकी शिक्षा व्यक्ति को माता के रूप में सर्वप्रथम नारी से ही मिलती है। इसी तरह गृहस्थ-जीवन को संयमित बनाने में भी नारी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इतिहास साक्षी है कि नारी ने
घर, परिवार, समाज और देश के उत्थान में हमेशा पुरुष को सहयोग सन्दर्भ में;
प्रदान किया है । महासती चन्दना, चेलना, राजीमती, मल्लीकुमारी, अंजना, सीता आदि कितनी ही नारियों के आदर्श हमारे सामने हैं, जिन्होंने पुरुष को चरित्र के पथ से विचलित नहीं होने दिया । चरित्र
की सुरक्षा के लिये व्यक्ति का अपरिग्रही और अहिंसक होना अनिवार्य नारी की भूमिका
है। सन्तोष और करुणा के सरोवर में ही सुख के कमल खिलते हैं। अतः नारी पुरुष को परिग्रही और क्रूर बनने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
जैन शास्त्रों में पाँच व्रतों के अन्तर्गत पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह व्रत बतलाया गया है । जैन गृहस्थ जव अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य व ब्रह्मचर्य का मर्यादा-पूर्वक पालन करता है तब उसके मन में जीवन के प्रति सन्तोष जागृत होता है । तब वह अपरिग्रही बनता है। अतः व्यक्ति को अपरिग्रही बनाने के लिये आवश्यक है कि परिवार की महिलाएं पुरुषों को पहले इन चार व्रतों को पालन करने की प्रेरणा दें और उसमें सहयोग करें।
व्यक्ति को परिग्रही बनाने में अति और अनुचित इच्छाओं का प्रमुख हाथ होता है। संसार की वस्तुओं का आकर्षण हमारे मन में तरह-तरह की इच्छाएँ पैदा कर देता है । इन इच्छाओं की पूर्ति करने
के लिये व्यक्ति अच्छे-बुरे साधनों का ध्यान नहीं रखता। वह अनुचित श्रीमती सरोज जैन, साधनों से वस्तुओं का संग्रह करने में जुट जाता है। व्यक्ति को इस
एम० ए० कार्य में लगाने में महिलाओं का विशेष हाथ होता है। वे एक दूसरे श्री जवाहर जैन शिक्षण संस्था, की देखा-देखी गहनों, फर्नीचर, प्रसाधन सामग्री, कीमती कपड़ों आदि उदयपुर।
के लिये पुरुषों पर अनुचित दबाव डालती रहती हैं। अपनी आर्थिक स्थिति का ध्यान नहीं रखती। इससे पुरुष मजबूरन गलत साधनों के द्वारा महिलाओं की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इससे पूरा परिवार संकट में पड़ जाता है। अतः महिलाओं की यह भूमिका
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अहिंसा-अपरिग्रह के सन्दर्भ में नारी की भूमिका : श्रीमती सरोज जैन होनी चाहिये कि वे अनुचित और असीम इच्छाओं पर स्वयं संयम रखें और घर के पुरुषों पर भी अनुचित प्रभाव न डालें।
उत्तराध्ययन सूत्र की कपिल ब्राह्मण की कथा से हम सब परिचित हैं कि वह अपनी प्रेमिका की प्रेरणा से दो मासे सोने की प्राप्ति के फेर में करोड़ों स्वर्ण - मुद्राओं का लालची बन बैठा था। अतः महिलाओं को इच्छा और आवश्यकता इन दोनों के अन्तर को समझकर ही किसी वस्तु के प्रति आग्रह करना चाहिये । इसीलिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह को इच्छा-परिमाण व्रत भी कहा है ।
जैनशास्त्रों में परिग्रह को पाप बंध का मूल कारण कहा है । भगवती सूत्र में कहा गया है कि परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ इन सब पापों का केन्द्र है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी स्पष्ट किया गया है कि परिग्रह के लिये ही लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं और विषयों का सेवन करते हैं । वर्तमान में भी हम परिग्रह के कारण इन घटनाओं को देखते रहते हैं। परिग्रह के मूल में वस्तुओं का प्रदर्शन आज सबसे बड़ा कारण है। आज हम अपने बैठक कक्ष में इतनी कीमती वस्तुएँ सजाने की होड़ में लगे हैं कि हमारा रसोईशृह खाली रहने लगा है। हम पहनने-ओढ़ने में इतना खर्च करने लगे हैं कि हमारे भीतरी गुण रिक्त हो गये हैं । इसी बाहरी प्रदर्शन के कारण ही हमारी समाज में दहेज प्रथा का कोढ़ व्याप्त हो गया है । प्रदर्शन के लिये ही हम अपनी बहुओं के प्राण लेने में भी नहीं हिचकते । इस सबको बन्द करने में महिलाओं को आगे आना होगा । यदि वे प्रदर्शन और सजावट की फिजूलखर्ची कम करदें तो समाज में परिग्रह का रोग नहीं फैल सकता। परिग्रह मिटेगा तो उससे होने वाले अन्य पाप अपने आप कम होने लगेंगे ।
अपरिग्रह के वातावरण को विकसित करने के लिये यह आवश्यक है कि महिलायें अधिक से अधिक जैनदर्शन की मूलभूत बातों से स्वयं परिचित हों और अपने सम्पर्क में आने वाली अन्य बहिनों को भी उनसे परिचित करायें । जैनधर्म अपरिग्रही होने के लिये कहता है, निर्धन होने के लिये नहीं । अतः गृहस्थ जीवन में रहते हुए हर व्यक्ति उचित साधनों द्वारा इतना धनार्जन कर सकता है कि जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके । तथा अपनी जाति, धर्म और देश की उन्नति में सहयोग प्रदान कर सके । अतः महिलाओं का यह कर्तव्य है कि वे बचपन से ही अपने बच्चों को स्वावलम्बी बनायें। इससे यह परिणाम निकलेगा कि परिवार का हर सदस्य अपनी जीविका के लिये उचित साधन जुटा सकेगा। ऐसा होने पर परिवार के अकेले मुखिया को ही बेईमानी और अनुचित साधनों के सारे कुटम्ब के लिये धन नहीं जोड़ना पड़ेगा । जब हम अपने परिवार की पीढ़ियों की सुख-सुविधा को ध्यान में रखते हैं तब हमें जिस किसी प्रकार से धन जोड़ने और वस्तुओं के संग्रह करने के लिये विवश होना पड़ता है। यदि परिवार का हर सदस्य स्वावलम्बी हो, पुरुषार्थी हो, शिक्षित हो, तो अपने आप उनके लिए परिग्रह जोड़ने की जरूरत नहीं रहेगी।
परिग्रह के दुष्परिणाम से भी महिलाओं को अच्छी तरह परिचित होना चाहिये। आज जो समाज में अनाप-सनाप परिग्रह एकत्र हुआ है उससे मुख्य रूप से तीन बुराइयों ने जन्म लिया है१-विषमता, २-विलासिता और ३-- क्रूरता । जब वस्तुओं का संग्रह एक स्थान पर हो जाता है तब दूसरे लोग उन वस्तुओं के अभाव में दुःखी हो जाते हैं । गरीबी-अमीरी, ऊँच-नीच आदि समस्याएँ इसी के परिणाम हैं। इस विषमता को रोकने के लिये जैनदर्शन में त्याग और दान के उपदेश दिये गये हैं। महिलाओं को चाहिये कि वे बिना किसी दिखावे के और घमन्ड के जरूरतमन्द व्यक्तियों की मदद के लिये दान और सेवा के कार्य में आगे आयें।
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खण्ड ५ : नारी – त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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परिग्रह की दूसरी बुराई विलासिता है । धन जिन गलत रास्तों से एकत्र हुआ है उसका खर्च भी उसी तरह के व्यसनों की पूर्ति में होता है। परिवार के सदस्य यदि इस परिग्रह के कारण व्यसनों के आदी हो गये तो एक दिन महिलाओं को इज्जत से जीना भी मुश्किल हो जायेगा । अतः यदि परिवार और समाज को परिग्रह के दुष्परिणामों से बचाना है तो महिलाओं का यह प्रथम कर्तव्य है कि वे परिवार के सदस्यों को व्यसनों से मुक्त रहने की प्रेरणा दें। माँ बच्चे की पहली पाठशाला होती है | यदि वह स्वयं सादगीपूर्ण जीवन जियेगी तो वह अपनी संतान को व्यसनों में फँसने से रोक सकती है । पहले जैन समाज व्यसनों से सर्वथा मुक्त था इसीलिये वह आज समर्थ और धनी समाज बन सका है । किन्तु यदि जैन समाज भी खर्चीले व्यसनों में लिप्त हो गया तो उसे दरिद्र बनने में समय नहीं लगेगा ।
परिग्रह का तीसरा परिणाम है-क्रूरता । असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिये व्यक्ति अपने धर्म व कर्तव्य से अन्धा होकर धन कमाता है । इसमें वह इतना क्रूर हो जाता है कि छोटे-बड़े प्राणियों की हिंसा और मनुष्य का शोषण करने में भी वह नहीं हिचकता । विषैली गैस, दवाओं आदि के बड़े-बड़े कारखानों का जमाव इसके उदाहरण हैं । सौन्दर्य-प्रसाधनों के निर्माण में कितनी हिंसा होती है यह किसी से छिपा नहीं है । धन कमाने में जितनी क्रूरता व्याप्त है उतनी ही क्रूरता धन को खर्च करने में की जाती है। सौन्दर्य प्रसाधनों का सबसे अधिक उपयोग महिला समाज में होता है । यदि महिलाओं में जागरूकता हो जाये तो वे इस क्रूरता को रोक सकती हैं। इसके लिये महिलाओं को चाहिये कि वे हिंसक सौन्दर्य-प्रसाधनों के विरोध में एक जागृति पैदा करें। वे चाहें तो अपने परिवार के पुरुषों को भी ऐसे धन्धों में फँसने से रोक सकती हैं जो हिंसा व क्रूरता से भरे हुए हैं। जैन समाज को उन्हीं व्यवसायों के द्वारा धन कमाना चाहिये जो उनके धर्म और मान्यताओं का हनन करने वाला न हो । व्यवसाय क्रूरता को बचाने से जीवन में अहिंसा को उतारा जा सकता है ।
अहिंसा की प्रतिष्ठा से ही विश्वशान्ति सम्भव है । अतः अहिंसा का सम्बन्ध व्यवसाय एवं घरेलू जीवन से जोड़ना होगा । घरेलू जीवन में महिलाओं का साम्राज्य होता है । अतः नारियों को स्वयं अपने जीवन में अहिंसक होना होगा । इसके लिये आवश्यक है कि वे सर्वप्रथम घर-बाहर के प्रदर्शन में क्रूर साधनों का उपयोग न करें, न दूसरों को करने दें ।
हम सब परिचित हैं कि आज की प्रमुख समस्या दिखावटी प्रदर्शन है। चाहे वह सौन्दर्य का प्रदर्शन हो, चाहे शादी व्याह के अवसरों पर फालतू सजावट का प्रदर्शन हो अथवा हिंसक दवाइयों को खाकर अपनी बनावटी जवानी का प्रदर्शन हो। इस प्रदर्शन की आसक्ति ने ही मनुष्य को क्रूर बना दिया है । महिला समाज में प्रदर्शन के इस कैंसर ने पूरी मानव जाति को खोखला कर दिया है । सौन्दर्य प्रसाधनों में तो केवल प्राणियों की हिंसा ही की जाती है, किन्तु इस प्रदर्शन और सजावट की बीमारी ने तो कई नई नवेली दुल्हनों के प्राण ले लिये हैं । हिंसा की क्रूरता तो सामने दिखती है, किन्तु प्रदर्शन की क्रूरता हम महिलाओं के भीतर छिपी रहती है । एक तरफ हम छोटे से छोटे जीवों की हिंसा से बचने का दिखावा करती हैं और दूसरी ओर जब हमारी बहू सगाई अथवा शादी के दहेज में सौन्दर्य प्रसाधन से सजा हुआ थाल नहीं लाती तब ताने दे-देकर हम उसके मन की हत्या कर देती हैं। इसी तरह कपड़ों, गहनों और फर्नीचर आदि के प्रदर्शन में भी हम क्रूर से क्रूर व्यवहार करती हैं । अतः हमें एक ओर सौन्दर्य प्रसाधनों की द्रव्यहिंसा से बचना है तो दूसरी ओर प्रदर्शन की भाव- हिंसा से भी बचना होगा । तभी हम संसार में फैली क्रूरता को कम कर सकेंगे ।
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अहिंसा अपरिग्रह के सन्दर्भ में नारी की भूमिका : श्रीमती सरोज जैन
हमारी बहिनों के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि मेरे अकेले द्वारा सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग न करने से जीवों की हिंसा कैसे रुक जायेगी ? अथवा मुझ अकेले द्वारा दहेज न लेने अथवा उसका प्रदर्शन न करने से मन की क्रूरता कैसे कम होगी, कैसे रुक जायेगी ? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं । किन्तु किसी अच्छे कार्य का प्रारम्भ थोड़े ही लोगों द्वारा होता है । जब धीरे-धीरे सौन्दर्य प्रसाधनों की माँग और उपयोग कम हो जायेगा तो उनका निर्माण भी कम होने लगेगा । जब हम दहेज के प्रदर्शन के स्थान पर बहू के
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और उसके कुल के संस्कारों को प्रदर्शित करने लगेंगे तो अपने आप दहेज के प्रदर्शन का मूल्य कम हो जायेगा । किन्तु इस सबके लिये साहित्य प्रचार द्वारा, चर्चाओं के द्वारा, फिल्म प्रदर्शन के द्वारा महिलाओं के भीतर सौन्दर्य प्रसाधन के प्रति घृणा पैदा करनी होगी। विदेशों में यह कार्य प्रारम्भ हो गया है । वहाँ सौन्दर्य प्रसाधन बनते हुए दिखलाये जाते हैं । उनमें पशुओं की क्रूर हत्या के दृश्य देखकर महिलाएँ अपने प्रसाधन कूड़े में फेंकने लगी हैं। मांसाहार की क्रूरता देखकर हजारों लोग शाकाहारी बनने लगे हैं । अमेरिका में अब हर प्रकार की क्रूरता को रोकने के लिये अहिंसक संस्थाएँ कार्यरत हैं । अभी हाल में वहाँ " साइलैण्ट स्क्रीन" नामक ३८ मिनट की फिल्म दिखाकर महिलाओं को भ्रूण हत्या ( गर्भपात) की क्रूरता से रोका जा रहा है। जब इतनी बड़ी-बड़ी हिंसाएँ रोकी जा रही हैं तो प्रसाधन हिंसा और क्रूरता को क्यों स्थान दिया जाय ? विदेशी महिलाएँ जब अहिंसा का अनुकरण कर रही हैं तब भारत की नारियाँ इसमें पीछे क्यों रहें ? आइये आज हम अपने धार्मिक जीवन को सार्थक करने के लिये और विश्व में सभी प्राणियों को जीने का अधिकार देने के लिये यह प्रण करें कि हम किसी भी प्रकार की क्रूरता में सम्मिलित नहीं होगीं ।
हम सब पषण में सुगन्ध दशमी का व्रत करती हैं। उसके भीतर जो मूल भावना छिपी है कि हम ऐसी बनावटी और हिंसक सुगन्धी का त्याग करें जो हमारे अहिंसा धर्म की विरोधी हों | तभी हम " जिओ और जीने दो' के सिद्धान्त को अमल में ला सकेंगे। सभी "परस्परोपग्रहो जीवानम्" के सूत्र को जीवन में उतार सकेंगे । मैं आपको यही कहना चाहूँगी कि हम दिखावटी सुखों को छोड़कर सच्ची मानवता की सेवा करें। महाकवि दिनकर ने ठीक ही कहा है
जब तक नित्य नवीन सुखों की प्यासी बनी रहेगी । मानवता तब तक मशीन की दासी बनी रहेगी ॥
अतः मशीनों द्वारा हिंसक पदार्थों से बने हुए सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग अहिंसा में विश्वास रखने वाली जैन महिलाओं को नहीं करना चाहिये । यदि उन्हें अपना शृंगार करना ही है तो ऐसी वस्तुओं का वे प्रयोग करें जो प्राकृतिक साधनों से बनी हों। भारत जड़ी-बूटियों का देश है | अतः यहाँ पर देशी वस्तुओं से भी ऐसे प्रसाधन बनते हैं, जो कि न हिंसक है और न नुकसानदायक । उनका प्रयोग करके महिलाएँ अनावश्यक क्रूरता से बच सकती हैं। फैशनपरस्त महिलाओं के अन्धानुकरण से सदाचारी महिलाओं को बचना चाहिये । सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने से महिलाओं के व्यक्तित्व की स्थायी छाप लोगों में पड़ती है । इससे भारतीय संस्कृति का नाम उजागर होता है । अतः प्रदर्शन की क्रूरता को रोकने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यदि घरेलू जीवन में क्रूरता न हो और परिग्रह के परिणामों की सही जानकारी हो तो विश्व शान्ति की स्थापना में मदद मिल सकती है ।
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नारी:
मानवता का भविष्य
जैन धर्म मूलतः आत्मिक विकास का धर्म है । वहाँ आत्मशुद्धि गन्तव्य है, ज्ञान उसका प्रशस्त पथ है और अहिंसा का अनुशासन है पाथेय । जैनदर्शन में कर्ता व भोक्ता आत्मा है । जीव शब्द भी अधिकांशतः आत्मा वे पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है ।
महावीर ने ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँच कर पाया कि आत्मा एक ऐसा तत्व है जो शक्ति की अनन्त संभावनाओं से युक्त है। साथ ही उन्होंने यह भी अनुभूत किया कि परिणति में अनन्तरूपी होने पर भी संभावनाओं में समस्त ब्रह्माण्ड की प्रत्येक आत्मा समान है। कर्म के फलस्वरूप ज्ञान के विकास और ह्रास के अनुरूप आत्मा का उत्थान और पतन अवश्यम्भावी है। कोई भी आत्मा, सम्पूर्ण आत्मशुद्धि से पूर्व, इस नियम से परे नहीं हैं । समानता के इसी मूलभूत सिद्धान्त की नींव पर ही निर्माण हुआ उस चतुर्विध सामाजिक परम्परा का जिसके नियम इसी सिद्धान्त भूमि से समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप प्रस्फुटित होते रहे।
इस एक उद्घोष के पश्चात क्या इस प्रश्न का कोई स्थान रह जाता है कि “नारी का जैन धर्म में क्या स्थान है ?' फिर भी यदि यह प्रश्न उठा है तो महत्व इस प्रश्न का नहीं है । महत्व है उसके उठने के कारणों का, चाहे वह आज की बात हो अथवा सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व की, चाहे वह सामान्य नागरिक की बात हो अथवा सामर्थ्यवान या चिन्तक की।
जैन आगमों में आत्मिक विकास के मार्ग पर स्त्री और पुरुष में भेद होने के संकेत नहीं मिलते। यह तथ्य जैन समुदाय की तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं को भी परिलक्षित करता है। जैन परम्परा में नारी को अपने स्थान से च्युत करने की प्रक्रिया सर्वप्रथम आत्मिक विकास को अचेलत्व (नग्नतत्व) के साथ आवश्यक रूप से जोड़ने के आग्रह से आरम्भ हुई। यह था पाँचवीं शताब्दि के पश्चात का युग अथवा आगमिक। __ "सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी के लिये भी सद्यः दीक्षित साधु वन्दनीय है ।" आगमिक व्याख्याओं के युग में जैन समानता पर लगा यह धब्बा आज भी विद्यमान है । पुरुष वर्ग का यह आग्रह अति साधारण व आधारहीन तर्कों पर टिका था और इसे कभी का समाप्त हो जाना
सुरेन्द्र बोथरा [हिन्दी-अंग्रेजी आदि भाषाओं के । विशेषज्ञ-प्रस्तुत ग्रन्थ के सहसम्पादक
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नारी : मानवता का भविष्य : सुरेन्द्र बोथरा चाहिये था । आगमिक प्रतिपादनों से विपरीत होने पर भी इतनी लम्बी अवधि तक टिक रह जाना पुरुष वर्ग की दुरभिसन्धि का द्योतक है ।
स्त्री के आत्मिक विकास की सम्भावना के विरुद्ध प्रथम तर्क है कि स्त्रीशरीर की संरचना ऐसी है कि उसमें रक्तस्राव एक नियमित प्राकृतिक प्रक्रिया है । रक्तस्राव का आत्मिक विकास से क्या सम्बन्ध है, यह समझना कठिन है। और फिर रक्तस्राव तो एक आयु विशेष तक ही होता है, उसके बाद ? ऐसा ही दूसरा तर्क है कि स्त्री पर बलात्कार हो सकता है इसलिये वह अचेल नहीं रह सकती । क्या सचेल रहने पर बलात्कार नहीं हो सकता ? क्या पुरुष पर बलात्कार नहीं हो सकता ? क्या उस पर होने वाले बलात्कार को परीषह कहकर गौरवान्वित कर देने से वह मोक्ष का अधिकारी हो गया ?
अन्य तर्क बताया गया है कि स्त्री करुणा प्रधान है - - तीव्र पुरुषार्थ नहीं कर सकती । यह तर्क अपने आप में ही आधारहीन है क्योंकि यथार्थ सत्य के विपरीत है । जहाँ तक तीव्र पुरुषार्थ का प्रश्न है स्त्री पुरुष से कहीं अधिक तीव्र पुरुषार्थ की संभावना रखती है और पुरुष से कहीं अधिक निर्दय हो सकती है । इतिहास को देखें तो अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ स्त्री ने इन दोनों में पुरुष को बहुत पीछे छोड़ दिया है । आगे कहा है कि चंचल स्वभावी होने के कारण स्त्री ध्यान व स्थिरता का अभाव होता है। तथ्य यह है कि स्त्री की तुलना में पुरुष अधिक क्षेत्रों में चंचल स्वभावी है । ठीक वैसे ही यथार्थ से परे है यह तर्क कि स्त्री में वाद सामर्थ्य और तीव्र बुद्धि का अभाव होता है ।
आत्मिक विकास के क्ष ेत्र की ये आधारहीन धारणाएँ पुरुष ने ही बनाई । वहाँ से यही धारणाएँ नियम बनकर धर्म के क्षेत्र से होती हुई समाज के क्षेत्र में आ गईं। पुरुष को नारी - दासता के लिये बड़ी सशक्त बेड़ियाँ मिल गईं और आरम्भ हो गया उस दमन चक्र का जिसमें भिन्न परम्पराओं के भेद भूल समस्त पुरुष वर्ग एक हो गया, चाहे वह वैदिक परम्परा का हो, बौद्ध परम्परा का, जैन परम्परा का या अन्य किसी परम्परा का ।
दायित्वों का सन्तुलन स्वस्थ परिवार व समाज के लिये अत्यन्त आवश्यक है । परिवार व समाज के बिखराव का कारण इस सन्तुलन का बिगड़ना ही है। पुरुष वर्ग ने जब अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिये नारी - दमन का चक्र आरम्भ किया तभी से यह सन्तुलन बिगड़ता चला गया । आधारहीन तर्क और भी विकसित होकर कुतर्कों में ढल गये । कुछ उदाहरण हैं वे तर्क जो स्त्री के लिये उपयोग में लाये गये हैं पर उपयुक्त हैं पुरुष के लिये । "स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित होने में सशक्त होती हैं ।" "सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग करने वाली ।" "पाप कर्म नहीं करने का वचन देकर भी पुनः अपकार्य में लग जाती हैं ।"
स्त्री की दासता की यह परम्परा जो मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्तों के विपरीत थी, निर्बाध चलती गई । विदेशी आक्रमणों की श्रृंखला ने भी उसके अधिक पुष्ट होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । मानव समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग सामाजिक अनुशासन के नाम पर दासता के दलदल में धँसता चला गया । उसकी चरम परिणति हुई स्त्री को अवला, ताड़ना के योग्य, नरक का द्वार आदि गर्हित नामों से सम्बोधित करने में ।
स्थिति की दयनीयता यह है कि स्वयं नारी का सोचने का तरीका वैसा ही हो गया है जैसा पुरुषप्रधान समाज चाहता है । युगों के दबाव ने उसे अपने आपको पुरुष का सहभोगी मात्र समझने का आदी बना दिया है । वह भूल- सी गई है कि नैसर्गिक यथार्थ यह है कि पुरुष और नारी परस्पर एक
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१७५ दूसरे के सहयोगी हैं । ऐसा नहीं है कि मात्र स्त्री ही पुरुष की सहभोगी है और पुरुष ऐसे किसी भी दायित्व से मुक्त है।
. पुरुष ने साम, दाम, दण्ड, भेद सभी प्रकार के उपायों से स्त्री को दासता की ओर धकेला है। आवश्यकता पड़ने पर उसे पूजा भी, सोने से लादा भी, सहलाया भी। अन्ततः नारी अपनी पहचान ही भूल गई । पुरुष ने कहा नारी बुद्धिहीन है और वह मान गई । पुरुष ने कहा कि वह आत्मिक विकास के पथ पर चलने की योग्य नहीं है और वह मान गई । पुरुष ने कहा कि वह जन्म-जन्मान्तर से पुरुष की दासी है और वह मान गई । पुरुष ने कहा कि उसके विकास की चरम परिणति पुरुष के नाम पर बलि दी जाने में है और वह मान कर सहर्ष चिता पर चढ़ गई । पुरुष ने कहा कि वह अबला है और वह मानकर समर्पित होने में ही अपने को धन्य समझने लगी।
नारी जब-जब भी उस निरन्तर जकड़ते धर्म, राज्य तथा समाज के शासन के विरोध में आवाज उठाती है, एक अजीब-सी प्रतिक्रिया सामने आती है-"नारी स्वतन्त्र होने के नाम पर स्वच्छन्द होने की चेष्टा करती है।" स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता के बीच की सीमा-रेखा क्षेत्र तय होगा। स्वच्छन्द न होने के नियम क्या केवल नारी के लिये ही हैं ? सामाजिक तथा नैतिक विधानों का पुरुष के द्वारा उल्लंघन क्या स्वच्छन्दता नहीं है ? काल के परिप्रेक्ष्य में देखें तो क्या पिछले पचास वर्षों में पुरुष समुदाय ने सभी सीमा रेखाएँ पार नहीं कर दी हैं ? फिर स्त्री पर ही स्वच्छन्दता की ओर बढ़ने का आरोप क्यों?
संत्रस्त नारी के भीतर का ज्वालामुखी यदि फूट पड़ता है तब उसके भटक जाने का दोष नारी पर नहीं उसी वर्ग पर है जिसके त्रास ने उसे ज्वालामुखी बना दिया । और यह त्रास मात्र भौतिक या शारीरिक नहीं है । कोई क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा गया जहाँ नारी को पीड़ित न किया गया हो।
तब उसने समय रहते प्रतिकार क्यों नहीं किया ? क्या स्त्री सत्रमुच अबला है ? क्या वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से वास्तव में पुरुष की तुलना में हेय है ? नहीं ? यथार्थ तो पारम्परिक मान्यताओं से सर्वथा विपरीत है। पिछले दशक के खेल रिकार्डों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री ने पुरुष को अनेक क्षेत्रों में पीछे छोड़ दिया है। शरीर के वजन के अनुपात से पता चलता है, वह शरीर सौष्ठव (बाड़ी बिल्डिंग) के हर अंग में पुरुष से स्पर्धा जीत सकती है । दौड़, तैराकी तथा अन्य व्यायामों में उसकी स्पर्धा की क्षमता पुरुष के समान पाई गई है।
बीस वर्ष पूर्व स्त्रियों को डेढ़ मील से अधिक दूरी की दौड़ में भाग नहीं लेने दिया जाता था, यह सोचकर कि इससे उसके शरीर को हानि पहुँचेगी। पाँच वर्ष पूर्व महिलाओं की मेराथन दौड ओलम्पिक खेलों में प्रथम बार शामिल हुई । दौड़ने की गति में विकास को देखें तो पाते हैं कि पिछले पन्द्रह वर्षों में महिलाओं ने अपने मेराथन दौड़ के समय में ४० मिनिट की कमी की है जबकि उसी दौरान पुरुष धावक केवल २ मिनिट ही कम कर पाये।
पिछले वर्ष ही बर्फीली हवाओं में हिमांक से ५० डिग्री नीचे के तापमान में ३३ वर्षीय महिला सूसर नबुकर ने १०४६ मील कुत्तागाड़ी दौड़ लगातार तीसरी वार जीती थी। इस दौड़ में विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुरुष प्रतियोगी भी शामिल होते हैं । खेल चिकित्सकों तथा मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री में लम्बी अवधि तथा दूरी के खेलों के लिए स्वाभाविक शारीरिक व मानसिक अभिरुचि तथा क्षमता होती है।
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नारी : मानवता का भविष्य : सुरेन्द्र बोथरा स्त्री शरीर की संरचना में चर्बी की मात्रा अधिक होती है । इस चर्बी का सर्वाधिक अंश उसके नितम्बों में केन्द्रित होता है । इससे उसका शारीरिक सन्तुलन पुरुष की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है । स्त्री की मांसपेशियाँ दीर्घ सहनशक्ति की क्षमता लिये होती है तथा शक्ति के लिए वात-कायाग्नि पर निर्भर करती है । उसकी मांसपेशियों के तंतु पतले होते हैं जिससे पोषक तत्त्वों तथा ऑक्सीजन की रक्त तथा कोशिकाओं के बीच रचनान्तर की गति तीव्र होती है । अपेक्षाकृत कम शारीरिक वजन तथा कम ऑक्सीजन को आवश्यकता के कारण उसमें दीर्घकालीन क्रियाशीलता की क्षमता होती है । मांसपेशियों के जोड़ वाले तंतुओं में अधिक लचीलापन होने के कारण उसको चोटग्रस्त होने के प्रति अधिक प्रतिरोधकता होती है। पुरुष की तुलना में स्त्री अभ्यास के दौरान कम थकती है तथा अधिक एकाग्रता बनाये रखती है।
ये सब गुण उसे शारीरिक खेलों के क्षेत्र में अधिक संतुलित प्रगति की ओर ले जा रहे हैं। हाँ पुरुष के मुकाबले उनमें विस्फोटक शक्ति की कमी अवश्य होती है । जिससे कम समय व दूरी तथा विशुद्ध शारीरिक शक्ति वाले खेलों में वह पुरुष से पीछे रह सकती है।
मानसिक व बौद्धिक क्षेत्रों में भी अनेक स्थानों पर स्त्री पुरुष से अधिक सक्षम पाई गई है। विपरीत परिस्थितियों में संतुलन बनाये रखने की क्षमता स्त्री में पुरुष से अधिक होती है। मानसिक तनाव के जिस बिन्दु पर पुरुष टूट जाता है, स्त्री सहजता से पार कर लेती है। तकनीकी कार्यों में भी वे सभी क्षेत्र जिनमें सूक्ष्म, कलात्मक तथा संवेदनशील कार्य प्रणालियाँ होती हैं, स्त्री पुरुष से अधिक कुशलता प्राप्त कर लेती है ।
किसी भी क्षेत्र का अध्ययन करें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रकृति ने स्त्री को क्षमता में पुरुष से किसी भी भाँति निर्बल या हेय नहीं बनाया है। सामाजिक विकृतियों तथा पुरुष की दुरभिसंधियों ने उसे निर्बल बना दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले पचास वर्षों से नारी की स्थिति में निरन्तर सुधार हुआ है। किन्तु यह सुधार अपेक्षानुसार व्यापक और स्वस्थ है या नहीं इसमें सन्देह है । आज भी स्त्री पर पुरुष की अपेक्षा अत्यधिक अत्याचार होते हैं । आज भी वह अपने आपको असुरक्षित पाती है। आज भी उसे हर कदम पर अपने आपको तैयार करना पड़ता है पुरुष द्वारा नियन्त्रित समाज के विरोध का सामना करने को । आज भी दहेज का दाह और वैधव्य की विडम्बना उसका पीछा नहीं छोड़ते । और ऐसे ही अनेकों कारणों से आज भी उसके जन्म को कोसा जाता है । इतनी भी प्रगति हो गई है कि यह सब खुलेआम कम होता है चुपके-चुपके अधिक । और वह भी इसलिए नहीं कि नारी का वर्चस्व किसी मात्रा में स्थापित हो गया है अपितु इसलिए कि पुरुष की संभ्रान्तता की परिभाषा कुछ बदल गई है ।।
नारी विकास की इस मंथरगति के पीछे है हमारी सामूहिक कुण्ठित मानसिकता । पराधीनता के सैकड़ों वर्षों ने हमारी संस्कृति के अनेक स्वस्थ अंशों को नष्टप्राय कर दिया था। स्वाधीनता के बाद हम उन्हें पुनः जीवन्त कर पाने की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ पाये । कारण है कि आज भी शासन, समाज, शिक्षा आदि सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर नियन्त्रण उसी समुदाय या उसके उत्तराधिकारियों का है जिसकी रचना विदेशी शासन ने शासित समुदाय के शोषण के लिये की थी। इस समुदाय में स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल हैं।
तनिक गहराई में उतरें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हमारे सर्वांगीण विकास में बाधारूपी यह समर्थ समुदाय अन्य सभी क्षेत्रों के समान नारी वर्ग को भी पूर्णतया अपने नियन्त्रण से रखने की चेष्टा में निरन्तर जुटा रहता है । यह चतुर सनुदाय भलीभाँति समझता है कि स्वस्थ समाज की रचना स्त्री
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खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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जाति को उसका उचित स्थान देने पर ही हो सकती है । स्वस्थ समाज की रचना से सर्वाधिक हानि निहित स्वार्थी वाले नियन्त्रक समुदाय की ही होगी । अपने ही स्वार्थों के विरोध में स्वयं ही कौन कदम उठायेगा । और यों ये गुत्थी सुलझने की जगह उलझती चली जाती है। इसका सारा उत्तरदायित्व है उस वर्ग का जो कहीं शासन की बागडोर थामे है तो कहीं धर्म की, कहीं शिक्षा की नीति निर्धारक बना बैठा है तो कहीं सामाजिक रीति-रिवाजों का ।
सचमुच यदि नारी की स्थिति सुधारनी है तो समर्थ तत्वों को स्वार्थ त्याग करना होगा और सामान्य तत्वों को अपनी कुंठित मानसिकता को दूर करना होगा । इस कुंठा से पुरुष और स्त्री दोनों ही पीड़ित हैं । कोई भी एकांगी उपाय समस्या को जटिल ही करेगा । नारी मुक्ति का अर्थ यदि उसे मानवीय समाज में उसके अपने स्वाभाविक स्थान पर पुइर्स्थापित करना है तब तो उसकी दिशा स्वस्थ है । किन्तु यदि उसका अर्थ मात्र घर से निकलकर सड़क पर आ जाना है तो वह एक कुंठा से निकल कर दूसरी कुंठा में फंस जाने से अधिक कुछ नहीं है ।
मातृत्व स्त्री की प्राकृतिक क्रिया है । पुरुष ने उसके इस प्राकृतिक गुण को उसकी निर्बलता के रूप में स्थापित कर दिया और वह आज भी उस मानसिकता से उबर नहीं पा रही है । इसका समाधान खोजने के लिये यदि वह मातृत्व से घृणा कर उससे परे हटेगी अथवा उसे गौण करेगी तो मात्र उसकी ही नहीं समस्त मानवता की हानि होगी । उसे यह समझना होगा कि जिसे वह अपनी सबसे बड़ी निर्बलता का स्रोत समझ बैठी है वह है उसकी सबसे बड़ी शक्ति जो प्रकृति ने उसे दी है ।
प्रजनन की प्रक्रिया में नारी का अंश अत्यधिक महत्वपूर्ण है । सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो भविष्य के समाज का भार अधिकांशतः नारी पर है । सर्जनात्मक प्रक्रियाओं के अन्त के साथ समाज के भविष्य का अन्त होना निश्चित है । माँ के बिना संतान नहीं, संतान के बिना वंश नहीं और वंश के बिना भविष्य का समाज नहीं । इस सर्जन का उत्तरदायित्व मात्र भौतिक क्रिया-कलाप तक ही सीमित नहीं है । माँ सन्तान को जन्म ही नहीं देती, उसकी सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षिका भी होती है । इतिहास उठाकर देखें और निराग्रह विश्लेषण करें तो प्रतीत होगा कि नारी के अपने नैसर्गिक स्थान से धकेल दिये जाने के साथ-साथ आरम्भ हुआ है, मानव जाति में मानवीयता के ह्रास का इतिवृत्त । मानवता को निरन्तर जटिल होती आतंकवाद, नशीली दवाओं के सेवन, पर्यावरण आदि की समस्याओं से यदि कोई उबार सकता है तो वह है नारी । आज का समाज तो अपने विकृत आग्रहों से मुक्त हो सकेगा यह कठिन लगता है । कल के नागरिकों से ही आशा की जा सकती है कि वे विश्व को विकास की सम्यक दिशा दें । और कल के नागरिक का निर्माण करने वाली है केवल स्वस्थ मानसिकता व आत्म-विश्वास लिये सुशिक्षित, सुसंस्कारी व साहसिक नारी ।
वह नारी जो न तो अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का बलिदान व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए करती है और न परिवार के लिये अपनी महत्वाकांक्षाओं का गला घोंटती है । वह नारी जिसके नारीत्व में तो कोई कमी नहीं है किन्तु जो निर्बल नहीं है । बह नारी जो स्वाभिमानिनी है किन्तु हीन भावना से प्रेरित मिथ्याभिमान के आग्रह से ग्रसित नहीं हैं । वह नारी जो न तो पुरुष की दासी है न उसे अंगुलियों पर नचाने वाली नायिका अपितु है कंधे ने कंधा मिला मानवीय विकास के पथ पर बराबर के कदम उठा चलने वाली सहधर्मा ।
जैनागमों के मूल प्रतिपादन इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि वे उन कतिपय विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने नारी को सहज समानता की दृष्टि से देखा है ।
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जैनधर्म को जनधर्म
बनाने में महिलाओं
का योगदान
वात्सल्यमूर्ति तुम रणचण्डी, तुम कोमल परम कठोर अति । तुम शान्तिमन्त्र तुम युद्धतन्त्र, तुम मानव की शिरमौर मति ।।
जैनधर्म में महिलाओं को भी वही स्थान प्राप्त है जो पुरुषों को है। आद्यतीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महाप्रभु भगवान् महावीर वर्द्धमान ने दोनों को ही साधना के समान अधिकार व अवसर प्रदान किये थे। जब हम इतिहास का अनुशीलन करते हैं, तो ज्ञात होता है कि महिलाएँ कई गुणों में पुरुषों से भी अग्रगामिनी रही हैं । उनका महत्व कई स्थानों पर पुरुषों से विशेष विवद्ध हो गया है। शिक्षा में, संयम में, व्रतपालन में, सतीत्वरक्षा में, सेवा में, सहनशीलता और स्वार्थ त्याग में से सदा ही आगे रही और रहती है। सहनशीलता, लज्जा और सेवा तो उनके जन्मजात गुण हैं जो किसी में कम और किसी में अधिक प्रमाण में रहते ही हैं। दूसरे विशिष्ट गुण संस्कार व परिस्थिति पर अवलम्बित हैं। सतीत्वरक्षा के लिए भारत की नारियों का “जौहरतो संसार को आज भी चकित कर रहा है ।।
अत्यन्त प्राचीन समय की ओर दृष्टिपात करें तो भगवान युगादिदेव ऋषभ महाप्रभु की दोनों पुत्रियों-ब्राह्मी व सुन्दरी के दर्शन होते हैं । जो विद्या, शील और त्याग की जीती-जागती प्रतिमाएँ थीं, ब्राह्मी ने तो ऋषभदेव भगवान को केवलज्ञान होने पर ही दीक्षा धारण कर ली थी। किन्तु चक्रवर्ती भरत ने तत्कालीन प्रथानुसार सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने की अभिलाषा से त्यागमार्ग के अनुसरण से रोक लिया था। पर वे तो अपने पूज्य पिता के पद-चिह्नों पर चलने का दृढ़ संकल्प कर चुकी थीं। चक्रवर्ती उन्हें राज्य सम्पत्ति और संसार के भोगविलासों की ओर आकृष्ट करने में असफल रहे । सुन्दरी ने साठ हजार वर्ष तक आयंबिल तप करके अपने शरीर को सुखा डाला। चक्रवर्ती भरत को इस तप व त्याग की साक्षात् ज्वलन्त मूर्ति के आगे नतमस्तक होना ही पड़ा। भरत ने उसे सहर्ष साध्वी जीवन स्वीकार कर लेने की अनुमति दे दी । कुमारी “मल्लि" तो तीर्थंकर के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हुई थीं। ___जब हम प्रातः स्मरणीया, अदभुत प्रेमिका, सती शिरोमणी राजीमती का जीवन, जो शास्त्रों के स्वर्ण पृष्ठों पर अंकित है, अवलोकन करते हैं तो मस्तक श्रद्धा से अपने आप झक जाता है । उन्होंने पुनीत संयम के पथ पर चलते हुए रथनेमि को अस्थिर-विचलित होते हुए, उसकी वासना की दबी हुई चिनगारियों को उभरते हुए
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आर्या प्रियदर्शनाश्री (पूज्य प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी म० की विदुषी सुशिष्या)
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१७९ अवलोकन किया तो तत्काल ही अपने पवित्र उपदेशामत की वर्षा से ऐसा शान्त किया कि फिर वे कभी न उभरी न चमकीं। यही तो उस महासती की विशिष्टता वह महत्ता थी, जो आज भी प्रत्येक स्त्री के लिए अनुकरणीय व आदरणीय है। उनमें संयम का वह तीव्र तेज था, जो रथनेमि को पुनः संयम के पवित्र पथ पर दृढ़ता से आरूढ़ कर सका । पतिदेव के मार्ग का अनुसरण करने वाली सतियों में वे अग्रगण्या थीं, अद्भुत पातिव्रत्य था उनका, उपदेश शक्ति भी अलौकिक थी। इसी प्रकार आबाल ब्रह्मचारिणी राजकुमारी चन्दनबाला के जीवनवृत्त पर दृष्टिपात करते हैं तो विस्मय और करुणा से अभिभूत हो जाना पड़ता है। सचमुच ही वह महाशक्तिस्वरूपा थी। राजकुल में जन्म लेकर भी बाल्यावस्था में ही वे मातृ-पितृ विहीना हो गई, मात-भूमि से तथा माता से बलात् पृथक कर दी गई। उसने अपनी जननी को सतीत्व रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करते देखा था, आततायी के पंजे में आकर वे सरे बाजार बेची गईं, उन पर कष्टों, उपसर्गों के पर्वत टूट पड़े फिर भी उस वीर बालिका ने अद्भुत सहनशीलता का परिचय देकर सबको अवाक् कर दिया।
उस जमाने में स्त्रियों का चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिये क्रय-विक्रय होता था। पुरुष अपने सर्वाधिकार सुरक्षित रखकर महिलाओं को पाँव की जूती से अधिक महत्व नहीं देता था। धर्मानुष्ठानों में भी उनका कोई अधिकार स्वीकृत न था । वे केवल पुरुषों की विलास सामग्री समझी जाती थीं। उनका अपना कोई स्वत्व या सत्ता नहीं थी। कुमारी चन्दना को भी इस दशा का भोग्य बनना पड़ा था। उन्होंने स्वयं इस दयनीय अवस्था का अनुभव किया था। अतः उन्होंने इसे सुधारने की प्राणपण से चेष्टा की। संसार के भौतिक सुखों को लात मारकर वे नारी जाति का उद्धार करने के लिए भगवान महावीर के संघ में सम्मिलित हो गईं। चतुर्विध संघ में समस्त आर्याओं की आप नेत्री बनीं।
हम शास्त्रों में लोगों के चरित्रों को पढ़ते हैं तो पता लगता है कि कमल कोमला असूर्यपश्या वे राजरानियाँ भी कि जिनके एक संकेत मात्र पर सहस्रों सेवक-सेविकाएँ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते थे । भगवान् महावीर प्रभु के धर्म की शरण में आकर चन्दनबाला की अनुगामिनी बन आत्मकल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण करती हुई राजवैभव में पले हुए कोमल शरीर के सुख-दुःख की परवाह न करके तीव्र तप द्वारा कर्ममल को नष्ट करती थीं। भगवान् का पवित्र सन्देश देने गाँवगाँव नगर-नगर पादविहार करतीं। भयंकर अटवियों, विषम पर्वतों घाटियों को पार करती मात्र भिक्षावृत्ति से संयम के साधन रूप शरीर का निर्वाह करती थीं। वे श्रेष्ठी-पत्नियाँ, महाराज-कन्याएँ भी जिनके ऐश्वर्य को देखकर बड़े-बड़े सम्राट चकित हो जाते थे, तप-त्याग-संयम के पुनीत पथ की पथिकाएँ बन शीत, ताप, क्षुधा, पिपासा, अपमान, अनादर से निरपेक्ष, आत्मस्वरूप में तन्मय हो, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र की आराधना करती हुई अपने अमूल्य दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करती थीं।
भगवान् वर्द्धमान महाप्रभु के श्राविका संघ की मुख्याएँ, महाश्रद्धावती, उदात्त विचारों के गगनांगण में विचरण करने वाली गृहस्थरमणियाँ-जयन्ती, रेवती, सुलसा आदि श्राविकायें क्या कम विदुषियाँ थीं ? "भगवती सूत्र' में इनकी विद्वत्ता, श्रद्धा व भक्ति का अच्छा वर्णन मिलता है । श्राविका शिरोमणी जयन्ती ने भगवान् से कैसे गम्भीर प्रश्न किये थे। रेवती की भक्ति देवों की भक्ति का भी अतिक्रमण करने वाली थी। मुलसा की अडिग श्रद्धा देखकर मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है।
श्रमणोपासिका सुलसा की सतर्कता एवं अडिग श्रद्धा के विषय में भी हमें विस्मित रह जाना पड़ता है । अम्बड़ ने उसकी कई प्रकार से परीक्षा की। ब्रह्मा, विष्ण, महेश बना तीर्थकर का रूप धारण कर संमबसरण को लोला रच डाली, किन्तु सुलसा को आकृष्ट न कर सका।
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जैन धर्म को जनधर्म बनाने में महिलाओं का योगदान आर्या प्रियदर्शनाश्री
उस युग में महिलायें कितनी शिक्षित थीं, उनकी विचार शक्ति कितनी प्रबल थी, इसका अनुमान हम ऊपर लिखे उदाहरणों से भलीभाँति लगा सकते हैं । स्त्रियों की जागृति का प्रधान कारण भगवान् महावीर का वैदिक धर्म (जातिवाद वा यज्ञाश्रयाहिंसा, स्त्री-शूद्र का धर्म में, वेद में अनधिकार, एक पतिव्रत धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्माचरण का निषेध) के विरुद्ध वह आन्दोलन था, जो उन्होंने अपनी कैवल्यप्राप्ति के बाद आरम्भ किया था । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि सब जीव समान हैं, जाति कर्मानुसार होती है, यज्ञ की हिंसा नरक में जाने से नहीं बचा सकती, धर्म करने का अधिकार, शास्त्र पढ़ने का अधिकार, स्त्री हो चाहे पुरुष, ब्राह्मण हो या शूद्र सभी को है । मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक प्राणी को है, स्त्रीत्व या नपुंसकत्व अथवा पुस्त्व इसमें वाधक नहीं । आत्मा को मुक्त करने की साधना सभी करते हैं । उन्होंने अपने चतुविध संघ में जातिवाद को स्थान नहीं दिया । स्त्रियों का उन्होंने साध्वी संघ और श्राविका संघ बनाया । स्त्रियों की संख्या पुरुषों से बहुत अधिक थी । उनके संघ में साधु तो १४००० ही थे, साध्वियाँ ३६,००० हजार थीं । इस तरह श्रावकों की संख्या १,५६,००० तो श्राविकाओं की ३,१८,००० तक पहुँच गई थी ।
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यों हम देखते हैं कि अबला कहलाने वाली वे नारियाँ मानवीरूप में साक्षात् भवानी थीं, देवियाँ थीं । उनकी पुण्य गाथाओं से भारतीय शोभा में चार चाँद लग हुए हैं। ऐसे ही संयमी जीवन को अपने ज्ञानालोक से आलोकित करने वाली महान प्रभावशाली खरतरगच्छीय साध्वी शिरोमणि पुण्यश्लोकश्री पुण्यश्री जी म. सा., आध्यात्म ज्ञान निमग्ना पूज्या प्र. श्री स्वर्ण श्री जी म. सा., जापपरायण स्वनामधन्या पू. प्र. श्री ज्ञानश्री जी म. सा. एवं समन्वय साधिका जैनकोकिला पू. प्र. श्री विचक्षणश्री जी म. सा. थीं । जो त्याग तप संयम की अनुपम आराधिका व शासन की प्रबल शक्तियाँ थीं । जिनशासन की जाहो जलाली के लिए व उसकी सतत् अभिवृद्धि के लिए उन्होंने ऐसे - ऐसे अद्भुत कार्य कर दिखाये जिन्हें सुनपढ़ व देखकर न केवल जैन समाज अपितु सर्व मानव समाज दंग रह जाता है । उनके उदात्त तेजस्वी व यशस्वी जीवन से जिनशासन का अणु-अशु आलोकित है ।
ऐसी ही वर्तमान में अनुपम गुणों से युक्त जैनशासन की जगमगाती ज्योतिर्मय दिव्य तारिका के रूप में हैं हमारी परमाराध्या प्रतिपल स्मरणीया, वन्दनीया, पूजनीया खरतरगच्छ पुण्य श्रमणी वृन्द की प्रभावशाली प्रवर्तिका परम श्रद्धया गुरुवर्या श्री सज्जन श्री जी म. सा. । जिनकी सरलता, सहजता, उदारकार्यक्षमता, निर्मल समता, निश्छलता, निस्पृहता, विशालहृदयता, अद्भुत प्रतिभा मानव मात्र को सहज ही आकर्षित करती है । जिन्होंने कई प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट कृतियों का परिष्कृत, परमार्जित व प्रांजल हिन्दी भाषा में अनुवाद कर जैन साहित्य शोभा की अभिवृद्धि में चार चाँद लगाये हैं । वे जिनशासन के साध्वी वृन्द की मुकुटमणि हैं तथा त्याग, तप, वैदुष्य व वाग्मिता की जीवंत प्रतिमा हैं | आपश्री के अनुपम गुणयुक्त जीवन से तथा अद्भुत कार्यकलापों से न केवल गच्छ व समाज अपितु सम्पूर्ण जैन शासन गौरवान्वित है ।
जैन जगत की अनुपम थाती, आगमज्ञान की ज्योति हैं । मृदु मधुर अमृतवाणी से, जनमन पावन करती हैं त्याग तप-संयम की त्रिवेणी, तव अन्तर् में बहती है । उसी सरित की अजस्रधार में, हम भी पावन होती हैं ॥
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