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________________ खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण १३५ भाव रहता है । आपश्री की निश्रा में १२ दीक्षाएँ हुई हैं । सभी शिष्याएँ परम विदुषी हैं। साथ ही अन्य वैराग्यवती बहिनें भी आपश्री की सान्निध्यता में हैं। पू. गुरुवर्याश्री की कृपादृष्टि मुझ पर सदा रही है। आपका वात्सल्य मझे अनन्त मिला है और मिल रहा है । मैं तो हर क्षण सोचती हूँ कि मेरे जीवन का हर पल, हर क्षण आपश्री की शुभ निश्रा में ही व्यतीत हो । आपश्री चिरायु होकर समाज सेवा व अपनी पार्श्ववर्तिनी शिष्याओं को प्रतिक्षण शुभाशीर्वाद प्रदान करती रहें। आर्या दिव्यदर्शनाश्री (सुशिष्या परम पूज्या श्रीसज्जनश्रीजी म० सा०) गुरुवर्याश्री हो तो ऐसी हो जिनके देखने मात्र से वैराग्य की भावना जागृत हो गयी। आप श्री की आकृति में हमेशा सरलता, सहजता, सौम्यता, सहिष्णुता टपकती रहती है। आप विनम्रता की साक्षात् मूर्ति हैं । अहंकार उनके आसपास नहीं रहता। वे ज्ञानी है पर ज्ञान का अहंकार नहीं । वे त्यागी हैं पर त्याग का घमंड नहीं। उनके कण-कण में वात्सल्य हैं। आपके प्रवचनों में सबसे बड़ी विशेषता है, कि वे आगम के गूढ़ गम्भीर रहस्यों को सरल और सुगम रीति से प्रस्तुत करती हैं जिससे श्रोतागण ऊबते नहीं हैं । आप हमेशा हम सभी को अध्ययन की प्रेरणा देती रहती हैं कि "कुछ आगम का ज्ञान सीखो, इसके बिना जीवन में शून्यता है ।" शून्य की कीमत संख्या के बिना कुछ नहीं है । जहाँ संख्या लगी शून्य की कीमत बढ़ी । जितनी गहराई में जाओगे उतने ही रत्न मिलेंगे। जितना चिन्तन के द्वारा मंथन करोगे उतना ही मक्खन मिलेगा। आप हमेशा त्याग-तप व संयम के ऊपर जोर देती हैं । आपकी बनाई हुई कविता की पंक्ति याद आ रहीं हैं। "तप संयम रमणता ये ही तो श्रमणता" आपका कहना है । संयम में निष्ठ बनो । आप हमेशा शिक्षा की पावन प्रेरणा देती रहती हैं। आपके पद चिन्हों पर हमेशा चलें । इसी आशीर्वाद की आकांक्षा के साथ पू० गुरुवर्या श्री के स्वास्थ्य की कामना करती हुई श्री चरणों में कोटि-कोटि अभिनन्दन । C साध्वीश्री सुलोचनाश्रीजी म. भयंकर भीष्म दारुण संसार में से भव्यात्माओं के जीवन पाषाण में कुशल कारीगरी कर संयम प्रतिमा का सर्जन करने वाले अजोड़ महापुरुषों एवं संतों की पंक्ति में महामनीषी वात्सल्य मूर्ति परम पूज्या प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज सा. भी सहज ही आते हैं। आपश्री विरल व्यक्तित्व के धनी और उदग्र चारित्रिक गुणों से विभूषित अपूर्व आध्यात्मिक मूर्ति हैं । आपश्री के व्यक्तित्व में जटिल संयोगों का चमत्कारिक सामंजस्य सही में विस्मयजनक है । वृद्धावस्था होने के बावजूद भी जरा प्रमाद नहीं । आपका हृदय बच्चों का सा सुकोमल, युवकों सा दृढ़-प्रतिज्ञ है। आपश्री विनय, नम्रता, शान्ति एवं वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति हैं। आपश्री के प्रथम दर्शन से ही व्यक्ति चुम्बक-आकर्षित होकर खिंचे चले आते हैं। आपश्री के सम्पर्क से मैंने यह अनुभव किया है कि आप अविच्छिन्न रूप दीपमालिका का एक प्रकाश पुञ्ज हैं। जंगम, दीप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की ज्योति में स्वयं को जगमगा रहे हैं । अतएव आपकी वाणी और लेखनी में धर्म नीति, तप, त्याग, उदारता तितिक्षा आदि सद्गुणों को प्रबुद्ध करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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