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________________ १३६ खण्ड १ / जीवन ज्योति वाले तत्वों का बाहुल्य है । आपकी रचनायें स्वान्तः सुखाय न होकर परोपकार के उदात अभिप्राय से अनुप्राणित हैं। मैं देव गुरु से मंगल कामना करती हूँ कि आपश्री शतायु बनें, चिरायु बनें तथा स्वस्थ रहकर जिनशासन गच्छ का अमृत पूर्ण गौरव बनाये रखें। अनन्त ज्ञान के ज्योति पुन्ज हो, तमसावृत जो दूर करें । ऐसी महान प्रवर्तिनी श्री को, वन्दन हम शत बार करें । - आर्या विद्य तप्रभाश्री, एम० ए० (सुशिष्या प्रवितनी श्रीविचक्षणजी म०) सत्य, संयम की साधना हेतु सुगन्धित सुमन के हार नहीं अपितु तलवार की धार को पारकर स्वयं के जीवन को सुयश की सुगन्ध से सुवासित करने वाली सरस्वतीतुल्या, सतत साहित्योपासना में संलग्न, सन्मति-सम्पन्ना, श्र तशील वारिधि तथा निष्ठा, निस्वार्थ, निर्दम्भ निर्मल भावों से गुरु चरणों में तन मन से समर्पित, यथा नाम तथा गुणधारी पूज्येश्वरी..... गुलाबी नगरी के उपाश्रय में गुलाब तुल्य स्व गुणों से जन-मन को सुगन्ध देने वाली, अखंड ज्ञान यज्ञ से जुड़ी, दुनियाँ की अटपटी-खटपटों से बहुत बहुत दूर . प्रशमरसनिमग्ना, जपरुचिसम्पन्ना पू० प्र० श्रीज्ञानश्रीजी म. सा० के चरणों में समर्पण भाव से विराजित नामानुसार सज्जनता जिनमें पायी गई है-ऐसे महान् व्यक्तित्व के दर्शनों का सौभाग्य मुझे मिला-(आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व) मुकुलित पुष्प के रूप में विद्यमान बाल साध्वी पू० श्रीशशिप्रभा श्रीजी म.सा. के माध्यम से। आपश्री आशु-कवयित्री, आगमज्ञा होने के साथ-साथ अहंकार, अभिमान से बहुत दूर....... अतः मात्र गुरुजनों की ही नहीं अपितु निकटवर्ती समस्त संयमी आत्माओं की सेवा हेतु सतत् सक्रिय रहती। वय-सम्पन्ना होने पर भी बालकों की सी सक्रियता, स्फूर्ति तथा युवा-सा उत्साह, उमंग, उल्लास आप में देखा गया। कवि ने सत्य कहा हैसम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दं".......... शक्तिसम्पन्न व्यक्ति यदि सुज्ञ है तो कभी अधिक ध्वनि नहीं करता । कुमारसंभवम् में कवि कालिदास ने कहा है "शक्तौ क्षमा"-महान् व्यक्ति का लक्षण है शक्ति के साथ क्षमा होना । आपके पास अनेकानेक शक्तियाँ हैं तथा उन्हें पचाने के साथ-साथ उनका सदुपयोग भी है। विद्या के साथ विनय, विनम्रता, स्वाध्याय के साथ सेवा, सरलता तथा विद्वत्ता के साथ लघुता आपके जीवन में स्वर्ण सुहागे का काम करती है। अध्ययन के साथ आपकी अध्यापन रुचि भी दर्शनीय है-आप जब भी पढ़ने जाइये-पढ़ाने को तैयार-कभी नहीं कहेंगे अभी क्यों आये—अभी नहीं बाद में आना, ये भी कोई समय है पढ़ने का, देखते नहीं मैं क्या कर रही हूँ । बस ली पुस्तक और उल्लसित रूप से अध्यापन प्रारम्भ । कितनी सरलता, सहजता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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