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________________ खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण १३० आपके सद् सहस्र-सहस्र, सद्गुण-पुष्पों को यदि धागे में गूथना प्रारम्भ करू तो एक विस्तृत हार का निर्माण हो जावे । इस पुष्पवाटिका में से मैं भी आत्महिताय दो चार पुष्प पा जाऊँ तो स्वयं के जीवन को धन्य मानूंगी। 0 श्रीसौम्यगुणाश्री म० (बालशिष्या पूज्याश्री सज्जनश्री म०) भ० महावीर ने “समयं गोयम मा पमायए" का उपदेश दिया, गौतम ने इसका पालन कर स्वकल्याण किया, गुण गरिमायुक्त इस सूत्र को भ. के शासन में जुड़ने वाली पूज्या प्रवर्तिनी महोदया ने धारण कर विश्व में आदर्श उपस्थित किया । क्या कभी इस उक्ति की ओर हमारी दृष्टि गई ? क्या हमने कभी नजर दौड़ाई ? यदि चिन्तन, मनन करते हुए हम अपना स्वयं निरीक्षण करें तो ज्ञात होता है कि भगवान् के शब्दों से सर्वथा प्रतिकूल है हमारा जीवन । भाव से प्रमादी तो अनन्तकाल से बने हुए हैं चू कि आज तक आत्मा की ओर तो हमारा कोई लक्ष्य ही नहीं रहा, और कभी लक्ष्य बना भी तो वह अत्यल्प समय के लिए । किन्तु आज मानव द्रव्य से भी प्रमादी बन गया । इस वैज्ञानिक, मशीनरी युग में प्रत्येक कार्य मशीनों, यन्त्रों एवं भृत्यों द्वारा होने लगा है । तथापि इस उक्ति को चरितार्थ करने वाली खरतरगच्छ की एक संयमधारिणी, शासन संघ की शोभावधिनी, जन-जन की कल्याणकारिणी; साध्वीवृन्द की प्रवर्तिनी हैं पू. गुरुवर्या श्रीसज्जनश्रीजी म. सा.। पू. गुरुवर्याश्री का जीवन प्रतिक्षण, प्रतिपल अप्रमत्तता में ही व्यतीत होता है। शरीर की आवश्यक क्रियाओं के अतिरिक्त शायद ही उनके जीवन में कभी ऐसा समय आया हो, जब प्रमाद में ही अधिक समय व्यतीत हुआ हो । सहिष्णुता, निर्मलता, सहजता, सहृदयता, भावुकता, नम्रता आदि गुण तो फिर भी यत्किचित् किसी में दृष्टिगोचर हो सकते हैं किन्तु अप्रमत्तता का गुण तो विरल व्यक्ति में ही अवलोकन करने को मिलता है। निम्नांकित कतिपय विन्दुओं द्वारा उनके अप्रमत्त जीवन की थोड़ी सी झलक अपनी लेखनी द्वारा ., आलेखित करती हूँ। १-"जिन क्षणों में गुरुवर्या श्री शास्त्रवाचन अथवा पुस्तक पढ़ने में दत्तचित्त होती है, उन क्षणों में समीपस्थ व्यक्ति क्या वार्तालाप कर रहे हैं ? उस ओर गुरुवर्याश्री का यत्किचित् भी ध्यान नहीं जाता।" २-"वे अपना कार्य कभी भी जहाँ तक है करवाना नहीं चाहती, स्वयं ही उस कार्य को करने के लिए अभ्युत्थित हो जाती हैं। इससे इनका स्वावलम्बी जीवन स्पष्ट परिलक्षित होता है।" । ३-"आप कभी भी गुरुवर्याश्री को देखिये, परखिये, जानिये, किसी न किसी कार्य में लीन ही मिलेंगी।" उपर्युक्त सभी कथ्य अनुभवसिद्ध हैं । ऐसी एक नहीं, अनेक विशेषताएँ पूज्याश्री में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं, जिन्हें मैंने न तो किसी अन्य में देखी हैं और न सुनी हैं। उनके अप्रमत्तजीवन का एक संस्मरण मेरे मानस में उभर कर आ रहा है, जिसे लेखनी लिखने के लिए आतुर हो रही है। ___ एक बार गुरुवर्याश्री सिवानाग्राम से विहार कर पिंक सिटी जयपुर की ओर पधार रही थीं। मैं भी साथ थी। विचरण करते-करते हम सब जोधपुर से पहले “कुन्डी" ग्राम में पहुंचे । उस दिन खण्ड १/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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