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________________ १६ खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा की स्थापना की। इसी स्थान पर नरचन्द्र आदि तीन और विवेकश्री आदि चार को संयम ब्रत प्रधान किया और धर्मदेवी को प्रवर्तिनी पद से अलंकृत किया । संवत् १२६५ में लवणखेड़ा में ही मुनिचन्द्र, मानचन्द्र, सुन्दरमति और आशमति को मुनिव्रत में दीक्षित किया । संवत् १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव आदि तीन को संयमी बनाया, गुणशील को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा प्रदान की। संवत् १२६६ में जाबालीपुर (जालौर) में महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा को विधि-चैत्यालय में बड़े समारोह के साथ स्थापित किया । जिनपाल गणि को उपाध्याय पद और धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरा पद देकर प्रभावती नामकरण किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्र आदि तीन पुरुषों को व चन्द्रश्री आदि स्त्रियों को दीक्षा प्रदान की और वहाँ से विक्रमपुर की ओर विहार कर गए। संवत् १२७० में बागड़ श्रीसंघ के अत्याग्रह से बागड़ देश पधारे। संवत् १२७१ में वृहद्वार पधारे। वहाँ के श्री आशराज राणक और ठाकुर विजयसिंह आदि ने आचार्यश्री का स्वागत किया । वहाँ आपने अपने उपदेशों से मिथ्याक्रिया को बन्द करवाया। सं० १२७३ में वृहद्द्वार में ही लोक प्रसिद्ध गंगा दशहरा पर्व पर गंगा स्नान करने के लिए अनेक राणाओं के साथ नगरकोट के महाराजाधिराज पृथ्वीचन्द्र भी आए थे। उनके साथ काश्मीरी पंडित मनोदानन्द को अपने पांडित्व का अभिमान था और उसने शास्त्रार्थ के लिए जिनपतिसूरि को प्रेरित किया । जिनपतिसूरि स्वयं न जाकर उन्होंने अपने शिष्य जिनपालोपाध्याय को धमरुचि गणि, वीरभद्र गणि, सुमति गणि और ठाकुर विजयसिंह आदि के साथ शास्त्रार्थ हेतु भेजा। महाराजाधिराज पृथ्वीचन्द्र की सभा में पंडित मनोदानन्द के साथ जिनपालोपाध्याय का शास्त्रार्थ हुआ। 'जैन षड् दर्शनों से बहिभूत है' इस पर शास्त्रार्थ हुआ । उपाध्याय की तार्किकता के समक्ष पंडित मनोदानन्द निरुत्तर हो गया । अपने पंडित की पराजय को देखकर महाराजा पृथ्वीचन्द्र को अन्तर्दुःख तो अवश्य हुआ, किन्तु जयपत्र उपाध्यायजी को ही समर्पित करना पड़ा । इस उपलक्ष में संवत् १२७२ जेठ बदी तेरस के दिन श्रावक समाज द्वारा एक बहुत बड़ा जयोत्सव मनाया गया। संवत् १२७४ में भावदेवमुनि को दीक्षा दी और दारिद्ररक गाँव में चातुर्मास किया । संवत् १२७५ में जेठ सुदी बारस के दिन जालोर में भुवनश्री आदि तीन महिलाओं को और विमलचन्द्र आदि दो पुरुषों को साधुदीक्षा प्रदान की । संवत् १२७७ में आचार्यश्री पालणपुर पधारे । वहीं पर आचार्य महाराज के नाभि के नीचे स्थान पर एक गाँठ पैदा हुई और साथ ही संग्रहणी रोग भी पैदा हो गया। अपना अन्तिम समय निकट जानकर अपने पाट पर वीरप्रभ गणि को स्थापित करने का निर्देश भी किया। संघ के साथ क्षमायाचना करते हए समाधिपूर्वक आचार्यश्री का स्वर्गवास हआ। संवत् १२७७ आषाढ शुक्ला दसवीं के दिन पालणपुर में ही आचार्यश्री का दाहसंस्कार किया गया । इस अवसर पर जिनहितोपाध्याय भी जालौर से आ गए थे और उन्होंने शोक विह्वल होकर दिवंगत आचार्य के गुण-गरिमा की १६ श्लोकों में अपनी अन्तर्व्यथा को प्रकट किया। आचार्य जिनपतिसूरि शास्त्रचर्चा में वादीगज केशरी तो थे ही, साथ ही असाधारण प्रतिभा के धनी भी । इनके द्वारा निर्मित संघपट्टक वृहद्वृत्ति, प्रबोधोवादस्थल एवं १३-१४ स्तोत्र प्राप्त हैं। (६) जिनेश्वर सूरि (द्वितीय) जन्म-संवत् १२४५, दीक्षा-१२५८, आचार्य पद १२७८, स्वर्गवास १३३१ । आचार्य जिनपतिसूरि के पाट पर द्वितीय जिनेश्वरसूरि हुए। ये मरुकोट निवासी भण्डारी नेमिचन्द्र के पुत्र थे। इनकी माता का नाम लक्ष्मणी था। संवत् १२४५ मिगसर सुदी ग्यारस को इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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