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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ १५ परम्परागत मार्ग छोड़कर खरतरगच्छ स्वीकार करने के विषय में प्रद्म ुम्नाचार्य ने सेठ को उपालम्भ देते हुए खरतरगच्छ की मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ अपशब्द कहे और खरतराचार्य जिनपतिसूरि के साथ आयतन - अनायतन सम्बन्धी विषय को लेकर शास्त्रार्थ के लिए तैयारी भी दिखाई । आचार्य जिनपति ने तीर्थ यात्रार्थं संघ की त्वरा देखकर वापसी में शास्त्रार्थ का आह्वान स्वीकार किया। वहाँ से संघ के साथ प्रस्थान कर आचार्यश्री ने खम्भात गिरनार आदि तीर्थों की यात्राएँ कीं। आगे मार्ग की गड़बड़ी के कारण संघ शत्रुंजय तीर्थ न जा सका । जब संघ वापस लौटकर आशापल्ली पहुँचा और वहाँ पूर्व निर्णयानुसार आचार्य जिनपति का प्रद्म ुम्नाचार्य के साथ आयतन - अनायतन विषयक शास्त्रार्थ बड़ी गम्भीरता के साथ हुआ । शास्त्र प्रमाणों के सामने प्रद्म नाचार्य टिक न सके और आचार्य जिनपति ने विजय प्राप्त की । इस सम्बन्ध में प्रद्म ुम चार्य रचित 'वादस्थल' ग्रन्थ और उसके उत्तर के रूप में जिनपतिसूरि द्वारा रचित 'प्रबोधोदय वादस्थल' ग्रन्थ देखना चाहिए । म्ना इस विजय से आचार्य जिनपति की गुजरात में कीर्ति पताका फहराने लगी । दण्डनायक अभय का षड्यन्त्र भी विफल हुआ । वहाँ से संघ के साथ आचार्य श्री अनहिलपुर पाटण पहुँचे, वहाँ पर जिनपतिसूरि ने अपने गच्छ के ४० आचार्यों को एकत्रित कर उनको सम्मानित किया । इसके बाद आचार्य श्री संघ के साथ लवणखेटक ( वर्तमान में बालोतरा के पास खेड़) गए । वहाँ पर पूर्णदेवगण आदि तीन को वाचनाचार्य पदवी प्रदान की। इसके बाद पुष्करणी नगरी में जाकर संवत् १२४५ फाल्गुन माह में सूर प्रभ आदि 2 साधुओं और संयमश्री आदि तीनों को दीक्षित किया। संवत् १२४६ में श्रीपत्तन में महावीर प्रतिमा की स्थापना की । संवत् १२४७ और १२४८ में लवणखेड़ा में रहकर मुनि जिनहित को उपाध्याय पद दिया । संवत् १२४६ में पुनः पुष्करिणी आकर मलयचन्द्र को दीक्षा दी । संवत् १२५० में विक्रमपुर पधारकर पदमप्रभ को आचार्य पद दिया और नाम परिवर्तित कर सर्वदेवसूरि नाम रखा । सम्वत् १२५१ में माण्डव्य पुर पधारे। वहाँ से अजमेर पाटण होकर भीमपल्ली ( भीलड़ी ) आए । कुहियप ग्राम में जिऩपालगणि को वाचनाचार्य पद दिया । लवण खेड़ा के राणा श्री केल्हण का विशेष आग्रह होने पर पुनः लवणखेड़ा जाकर "दक्षिणावर्त आरात्रिकावतारणत्व" बड़ी धूमधाम से बनाया । संवत् १२५२ में पाटण आकर विनयानन्द को दीक्षित किया । संवत् १२५३ में नेमिचन्द्र भण्डारी को प्रतिबोध दिया। मुसलमानों द्वारा पाटण नगर का विध्वंस होने पर ढाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया । १२५४ में धारानगरी में जाकर शान्तिनाथ देव के मन्दिर में विधिमार्ग को प्रचलित किया । और वहीं महावीर नाम के दिगम्बर को तर्क सम्बन्धी परिष्कारों से अतिरंजित किया। वहीं पर रत्नश्री को दीक्षित किया, जो भविष्य में प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ हुई । नागद्रह में चातुर्मास किया । संवत् १२५६ चैत्र वदी पंचमी के दिन लवणखेट में नेमिचन्द्र आदि चार को संयमी बनाया । संवत् १२५८ चैत्रवदी पांचम को लवणखेड़ा के शान्तिनाथ मन्दिर में विधि पूर्वक मूर्ति स्थापना तथा शिखर प्रतिष्ठा भी करवाई । वहीं पर चैत्रवदी दूज के दिन वीरप्रभ तथा देवकीर्ति को भागवती दीक्षा दी । १२६० आषाढ़ वदी छठ के दिन इन दोनों को बड़ी दीक्षा प्रदान की । यही वीरप्रभ भविष्य में आचार्य के पट्टधर जिनेश्वरसूरि बने। इसी दिन सुमति गणि और पूर्णभद्र गणि को संयमी बनाया और आनन्दश्री नाम की साध्वी को महत्तरा पद दिया । तदनन्तर जैसलमेर के देवमन्दिर में फाल्गुन सुदी दूज को पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना की । संवत् १२६३ में फाल्गुन बदी चौथ को लवणखेड़ा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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