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________________ खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण ११३ जो व्यक्ति औरों को महत्व देता है उसे अपने आप महत्व मिल जाता है । जो व्यक्ति दूसरों का उचित मूल्यांकन करना जानता है वह दुनियाँ की नजरों में अपने आप बड़ा आँका जाता है । औरों को हीन, दीन और लघु समझने वाला खुद ही लघुत्व को प्राप्त होता है । आज के युग में साध्वीश्री का जीवन एक महान आदर्श है । अनेक विशेषताओं का संगम आपका जीवन है । फिर भी आपको अभिमान बढ़ नहीं पाया है । ऐसी सर्वगुणसम्पन्न प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्रीजी के दीर्घ साधना काल की कामना करते हुए मैं आपश्री के सर्वगुणसम्पन्न व्यक्तित्व की अभिवन्दना करती हूँ । [D] श्री हीराचन्दजी बैद, जयपुर आज हम संयममार्ग पर आरूढ़ एक महान् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में विचार करने को तत्पर हुए हैं। यह और भी विशेषता की बात है यह व्यक्तित्व नारी समुदाय से है । अब से ८० वर्ष पूर्व लूनिया परिवार में जन्म लेकर तथा सम्पन्न गोलेछा परिवार में परिणीत होकर ३४ वर्ष की अल्प आयु में संयम मार्ग पर आरूढ़ होने का साहस करने वाली इस नारी जाति के आदर्श ने जैन समाज के साथ ही जयपुर नगर को गौरवान्वित किया है । आपका जीवन : ज्ञान एवं भक्ति की ज्योति से ज्योतिर्मय आप आगम ग्रन्थों की महान जानकार हैं ही इसी से आपश्री ' आगम ज्योति' पद से विभूषित है | साथ ही आपने कई ग्रन्थों की रचना की है । महत्व की बात तो यह है कि ज्ञान की इस महान परापर पहुँचने पर भी सरलता - विनम्रता सौम्यता - मृदुता मानो एक साथ आपके जीवन में सन्निहित हो गई है । उदार भावना की तो जो झलक आपमें आई है वह अनुमोदनीय है । मेरे जीवन में कुछ प्रसंग आये हैं जब उनकी उदार भावना ने नतमस्तक कर दिया है और मैं समर्पित हो गया हूँ उनकी इस महानता के प्रति । एक वक्त जब मैं जयपुर तपागच्छ संघ का संघ मन्त्री था तब दो भाद्रपद के कारण दो पर्युषण हुए - इधर चातुर्मास का कोई योग नहीं था । पूज्य प्रवर्तिनी जी का चातुर्मास जयपुर में था । हमने बड़ी झिझक के साथ आत्मानन्द सभा भवन में पधार कर पर्युषण में व्याख्यान देने हेतु निवेदन किया । ऐसी परिस्थिति में विचार-विमर्श कर जबाव देने की प्रथा बनी हुई है । पर हमें बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ जब आपने फरमाया कि इसमें क्या पूछना सोचना है मेरा सद्भाग्य है जो मुझे भगवान महावीर की जीवन गाथा एक ही वर्ष में दो बार बाचने का अवसर मिला है। आपने तो मुझे आमन्त्रित कर मेरे पर उपकार किया है मुझे इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए आपको। कैसी सरलता, कैसी उदारता, ऐसा ही एक और प्रसंग मेरे संघ मन्त्रित्व काल में आया। जयपुर के बांठिया परिवार की एक बहिन आपश्री के पास संयम ग्रहण करने वाली थी । उस वक्त जयपुर में पूज्य मुनिराज श्री विशालविजय जी (अब जैनाचार्य विजय विशालसेन सूरि जी महाराज सा.) विराजते थे । आपने बड़ी उदारता और भावना से इस दीक्षा का विधि-विज्ञान कराने हेतु मुनि प्रवर से प्रार्थना की। मुनिप्रवर बहुत संकोच में थे एक तो समुदाय भेद, दूसरे इससे पूर्व कभी इस तरह की दीक्षा का प्रसंग व विधि विधान उनके हाथ से सम्पन्न नहीं हुआ था । पूज्य साध्वीजी म. सा. ने जिनकी मेरे पर बड़ी कृपा रही है मुझे कहा कि कैसे भी तुम्हें मुनिप्रवर को इस कार्य हेतु तैयार करना है । हम सब महावीर के सिपाही हैं । मुनिप्रवर की जयपुर में मौजूदगी हो और खण्ड १/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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