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________________ ११२ खण्ड १ | ध्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण पर मन में विचारों का प्रवाह उमड़ रहा था-सोच रही थी-साधना का फल क्या है ? स्वाध्याय की परिणति क्या है ? सरलता, निरभिमानता । यद्यपि साधक को साधना का उद्देश्य कषायविमुक्ति होना है । कषायमुक्ति के लिए वह विषयत्याग, इंन्द्रियसंयम, कठोर ब्रह्मचर्य पालन करता है किन्तु फिर भी कई बार अहंकार से पराजित हो जाता है और अपनी साधना को ही अहंकार का कारण बना लेता है। स्वगुणों का भान ही कभी-कभी अभिमान उत्पन्न कर देता है । क्योंकि शक्ति प्राप्त होना बड़ी बात है। कहा गया है ज्ञान का अजीर्ण अहं, तप का अजीर्ण क्रोध, क्रिया का अजीर्ण दूसरों के प्रति तिरस्कार के रूप में प्रकट होता है । अतः साधना के साथ सरलता मणिकांचन संयोग है। प्रवर्तिनी श्रीजी का जीवन क्षमा, वात्सल्य, अप्रमत्तता आदि अनेक गुणों से परिपूर्ण है । साधक जीवन की साधना की गहराइयों को समझना सहज नहीं है। साधक का व्यक्तित्व सर्वाङ्ग रूप से लिपिबद्ध करना प्रायः असम्भव है । पुष्प ने कितनी वाधाएँ और काँटों की पीड़ा सहन की है यह तो वही जान सकता है किन्तु जगत तो उसके सुवासित सौन्दर्य को देखकर ही मुग्ध होता है। उसी प्रकार विशिष्ट गुणों से पूर्ण व्यक्तित्व कितनी साधना के पश्चात् प्रकट हुआ है --यह तो उसी का अनुभव है किन्तु हम उसके जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को गुणों से परिपूर्ण बना सकते हैं । प्रतिनीधी जी का विशिष्ट व्यक्तित्व हमारे लिए मार्गदर्शक है। सदा-सदा रहे-यही मंगलभावना है। D साध्वीश्री मंजुलाजी वयोवृद्धा पूज्या प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जन श्रीजी महाराज जैन समाज की प्रभावक साध्वियों में से एक हैं । आपके व्यक्तित्व निर्माण के घटकों में विनय ने अहं भूमिका निभाई है। विद्वत्ता का होना सहज है किंतु विद्वत्ता के साथ विनय और निरभिमानता का होना बहुत ही दुर्लभ है। चार साल पहले की बात है । संयोग से हमारा चातुर्मास भी जयपुर में था और साध्वीवर्या श्री सज्जन श्रीजी महाराज भी वहीं विराजमान थीं। साध्वीश्रीजी मेरे लिए हर दृष्टि से मातृ स्थानीय हैं । वयः-स्थविर, शास्त्र-स्थविर और प्रव्रज्या-स्थविर तीनों दृष्टियों से स्थविर होते हुए भी आपकी विनम्रता, शालीनता और सहृदयता देखकर हम गद्गद् थे। __ एक बार किसी समारोह में हम पास-पास बैठे थे। साध्वीश्री ने बड़े ही आत्मीयता भाव से हमारे नवोदित संघ की स्थिति के बारे में पूछा । मुझे बड़ा अच्छा लगा। माँ की ममता, पिता का प्यार और सम्बन्धियों का सा स्नेह सभी कुछ आप में नजर आया। कुछ दिन बाद हम कुछ साध्वियाँ उस आत्मीय भाव से प्रेरित होकर साध्वीश्रीजी के स्थान उपाश्रय में पहुंचीं। साध्वीश्रीजी ने हमें देखते ही पट्ट से उठकर आगवानी की और अस्वस्थता की हालत में भी पट्ट छोड़कर नीचे विराजमान हुईं। जबकि हम देखते हैं बड़े बड़े साधनारत आचार्य भी पट्ट का मोह नहीं छोड़ पाते। बहुत से समारोह इसीलिए गड़बड़ा जाते हैं कि कौन आचार्य ऊँचे पट्ट पर बैठे और कौन नीचे आसन पर । एक तरफ भगवान महावीर ने विनय को धर्म का मूल बताया है और दूसरी तरफ हमारे मनस्वी आचार्य व वर्चस्व शील मुनिवर आसन के अहंकार में बड़े से बड़े धर्मलाभ को ठुकरा देते हैं। कुछ आचार्य व संत तो राजनेताओं को अपने सामने जमीन पर बैठाकर गवित हो जाते हैं। जबकि मुनि की गरिमा विनम्रता में है, अकड़ाई में नहीं । वह विनयता साध्वी श्री सज्जन श्रीजी में देखने को मिलो । साध्यो यो को इसो विनय भावना ने उन्हें बहुत बड़ा बना दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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