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________________ खरतरगच्छ के तीर्थ व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा लिए छोड़ा और स्वयं सं० १४८४ का चातुर्मास मलिकवाहण में किया। सिन्ध व पंजाब प्रान्त में उस समय खरतरगच्छ का बड़ा प्रभाव था, गाँव-गाँव में मन्दिर व श्रावकों के घर थे। खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के मुनिगणों का भी वहाँ चातुर्मास होता था। सीमा प्रान्त में देरा गाजीखान, देरा इसमाइल खान, हाजीखान देरा, बन्नू आदि सर्वत्र जैनों की बस्ती थी। सिन्ध के मुलतान नगर में तथा अन्य अनेक नगरों में जैनों की भरपूर बस्ती थी। खरतरगच्छ के यति-मुनियों का विचरण होता था। मरोट तथा देरावर में सर्वत्र जिनालय और दादावाड़ियाँ थीं। लाहौर पंजाब के गुरुमुकुट स्थान में मन्त्रीश्वर कर्मचन्द वच्छावत निर्मित दादावाड़ी थी। पाकिस्तान हो जाने पर सीमा प्रान्त के मन्दिरों से प्रतिमाएँ जैन श्रावक ले आये । करांची, हालां आदि सर्वत्र जिनालय थे। हालां वाले तो अपने मन्दिर को मूर्तियाँ और ज्ञानभंडार आदि ले आये। बाकी बहुत से मन्दिर आदि पाकिस्तान हो जाने पर वहीं रह गये। गुजरांवाला में भी बड़ी बस्ती जिनालय व दादा साहब के चरणों के मैंने स्वयं दर्शन किये हैं । श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज वहाँ के जैनों को सुरक्षित भारत में ले आये । पंजाब के भारतीय नगरों में सर्वत्र जिनालय, उपाधय आदि हैं । समाणा में दादावाड़ी प्रसिद्ध है। हरियाणा के सिरसा, हिसार आदि नगरों में जैनों की पर्याप्त बस्ती है। सिरसा में दो जिनालय एवं दादावाड़ी भी हैं जिसके पीछे नहर किनारे लाखों की जमीन है जिस पर अन्यगच्छीय यति का जैनेतर कुटुम्बी कब्जा किये बैठा है। सं० १५५०-६० के बीच बीकानेर के मन्त्रीश्वर बच्छराज के संघ सहित यात्रा का वर्णन साधुचन्द्रकृत चैत्य परिपाटी में है । मन्त्री वरसिंह ने मुजफ्फरशाह से छः मास का फरमान प्राप्त कर शत्रञ्जय, आबू, गिरनार का संघ निकाला। इसी प्रकार संग्रामसिंह आदि का भी संघ निकला था। सं० १६४४ में युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के तत्त्वावधान में संघपति सोमजी ने शत्रुजय का संघ निकाला था । इतः पूर्व सं० १६१६ में भी बीकानेर से शत्रुञ्जय का संघ निकला जिसका विस्तृत वर्णन गुणरंगकृत चैत्य परिपाटी में है। सं० १६५७ में लिंगागोत्रीय संघपति सतीदास ने संघ निकालकर मूलमन्दिर की द्वितीय प्रदक्षिणा में जिनालय निर्माण कराया था। श्रीमद्देवचन्द्रजी ने वहां ३६ प्रतिमाएँ होने का उल्लेख किया है। इसी वर्ष तलहटी में वर्तमान माताघर के सामने 'सतीवाव" नामक सुन्दर वापी बनवाई जिसे इतिहासकारों ने शिलालेख लगा होने पर भी अहमदाबाद के सेठ शांतिदास कारित लिखने की गम्भीर भूल की है। सं० १६७१ में बीकानेर से शत्रुञ्जय का संघ निकला जो संघपति आसकरण चोपड़ा के संघ से जा मिला । विशेष जानने के लिए बीकानेर जैन लेख संग्रह देखना चाहिए। श्रीजिनरत्नसरिजी के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय जोधपुर के साह मनोहरदास के संघ में सूरिजी ने यात्रा कर उनके बनाये हुए चैत्य शृंगार में २४ तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा की। __ श्रीक्षमाकल्याण जी महाराज के समय में सं० १८६६ में श्रीतिलोकचन्द लूणिया एवं राजाराम गिडीया ने शत्रजय का संघ निकाला था। उसी समय पालीताने का सुप्रसिद्ध वंडा-जहाँ वर्षी तप के पारणे होते हैं, निर्माण कराया गया था। जैसलमेर के सुप्रसिद्ध पटवों का संघ बहुत ही शानदार ढंग से निकला जिसमें कई राज्यों की सेनाएँ तथा विशाल यात्री संघ था। इस संघ में ८० लाख रुपये व्यय हुए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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