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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
शैली के अनुकरणरूप एक आदर्श रचना है। आलंकारिक भाषा की शब्द छटा के साथ इसमें ऐतिहासिक घटना निदर्शक वर्णनों का भी सुन्दर पुट सम्मिश्रित है ।
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इस विज्ञप्ति महालेख से ज्ञात होता है कि श्रीजिनोदयसूरिजी ने नागौर में मालारोपण उत्सव कराये व तीन बार फलौदी तीर्थ की यात्रा की । कोसवाणा में श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के चरण स्तूप वन्दना कर सोजत, बाडोल होते हुए मेवाड़ पधारे । मेवाड़ से केलवाड़ा और करहेड़ा पार्श्वनाथ पधारे । सेठ रामदेव और दूसरे बहुत से श्रावकों के नामोल्लेख पूर्वक तत्र सम्पन्न धर्मकार्यों का विशद वर्णन विज्ञप्ति-महालेख में है । इस समय कल्याणविलास, कीर्तिविलास, कुशलविलास मुनि और मतिसुन्दरी, हर्षसुन्दरी साध्वियों का दीक्षा महोत्सव हुआ । सेठ रामदेव ने सात आठ दिन पर्यन्त स्वधर्मी वात्सल्य तथा विपन्न साधर्मियों की सहायता के साथ पाँच दिन तक अमारि उद्घोषणा करवायी थी । मिती फाल्गुन शुक्ला ८ सोमवार को अमृतसिद्धि योग में श्री सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु विहरमान तीर्थंकर तथा श्री जिनरत्नसूरि प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी । उस समय मेवाड़ में म्लेच्छोपद्रव और व्यन्तरोपद्रव होते हुए भी दीक्षा और प्रतिष्ठा के उत्सव निर्विघ्न तथा सम्पन्न हुए ।
श्री जिनोदयसूरिजी ने पाटण के मंत्री वीरा और मंत्री सारंग आदि की विनती से गुजरात की ओर विहार किया । वे नागह्रद, ईडर, बड़नगर, सिद्धपुर होकर पाटण पधारे । वहाँ से गुजरात, मेवाड़, मारवाड़, सिंध, कौशल आदि देश के संघ सहित शत्रुंजय, गिरनार की यात्रा की । शत्रुंजय के मानतुरंग खरतर विहार में ध्वजारोपणादि उत्सव हुए । मूल मन्दिर में ज्येष्ठ बदी के ३ दिन ६८ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की ।
विज्ञप्ति त्रिवेणी से विदित होता है कि सं० १४८३ का चातुर्मास मम्मणवाहणपुर में करके मरुकोट महातीर्थ का यात्री संघ निकला । उस समय सिंध के अनेक स्थान खरतरगच्छीय महापुरुषों के प्रतिष्ठित तीर्थरूप में प्रसिद्ध हो गये थे । उपाध्यायजी ने फरीदकोट आकर ब्रह्मक्षत्रिय और ब्राह्मणों आदि को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था । यहाँ एक यात्री से समाचार ज्ञात हुआ कि अनेक तीर्थं नष्ट हो जाने पर भी सुशर्मपुर नगरकोट का सप्रभाव तीर्थ आज भी अखण्ड है । उपाध्यायजी महाराज के उपदेश से वहाँ के लिए संघ निकालने की तैयारियाँ होने लगीं। इसी बीच उन्होंने माबारखपुर जाकर बड़े ठाठ के साथ श्री आदिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा की । वहाँ श्रावकों के सौ घर थे । फिर विशाल यात्री संघ निकला, जिसने ज्येष्ठ सुदी ५ को नगरकोट पहुँचकर साधु क्षेमसिंह के बनवाये हुए शान्तिनाथ जिनालय के दर्शन किये जो खरतरगच्छाचार्य श्री जिनेश्वरसूरि प्रतिष्ठित था । दूसरा मन्दिर राजा रूपचन्द का बनवाया हुआ था, जिसमें महावीरस्वामी की स्वर्णमय प्रतिमा थी। तीसरा मन्दिर युगादिदेव का था जिनका वन्दन कर दूसरे दिन पहाड़ी पर कांगडा किले के अनादियुगीन आदिनाथ भगवान् के सुन्दर तीर्थ के दर्शन किये। राजा नरेन्द्रचन्द्र ने संघ का स्वागत किया। लोगों ने बताया कि यह तीर्थ श्री नेमिनाथ स्वामी के समय में राजा सुशर्म ने स्थापित किया था। अम्बिका देवी के प्रक्षालन का जल और हजारों घड़े पानी से अभिषेक किया हुआ भगवान् का न्हवण जल परस्पर मिलता नहीं और दरवाजा बन्द कर देने पर भी क्षणमात्र में सूख जाता है । इस चमत्कारी तीर्थ की यात्रा कर उपाध्यायजी ने राजा नरेन्द्रचन्द्र के आमन्त्रण से राजसभा में उपदेश दिया। राजा जैन था, उसने अपने देवागार में रहे स्फटिक आदि विविध रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन कराये। वहाँ से गोपाचलपुर तीर्थ में सं० धिरिराज के बनवाये हुए शान्तिनाथ मन्दिर के दर्शन किये। नन्दवनपुर (नांदीन ) में महावीर स्वामी व कोटिल ग्राम में पार्श्वनाथ भगवान् की यात्रा की । देवपालपुर, कोठीपुर आदि में अपने शिष्यों को चातुर्मास के
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