________________
८६
खरतरगच्छ के तीर्थं व जिनालय : श्री भंवरलाल नाहटा पन्द्रह साधु और आठ साध्वियों के साथ मारवाड़ और आमंत्रित संघों के साथ नागा, तीर्थवन्दन कर आबू, आरासण, चन्द्रावती, तारंगा - तृश्शृङ्गम आदि की यात्रा की ।
सुलतान मुहम्मद तुगलक श्रीजिनप्रभसूरि से बड़ा प्रभावित था । कन्यानयनीय महावीरस्वामी की प्रतिमा के चमत्कार स्वयं देख चुका था । सम्राट ने सूरिजी से पूछा- ऐसी ही प्रतिमा और कहीं चमत्कार पूर्ण है ? सूरिजी ने शत्रु जयतीर्थ का कहा तो सम्राट सूरिजी को संघ सहित लेकर शत्रुंजय गया। रायण वृक्ष से दुग्ध वृष्टि का चमत्कार देखकर शत्रुंजयतीर्थ को कोई नुकसान न पहुँचावेऐसा फरमान निकाला । फिर गिरनारजी पर जाकर प्रतिमा पर घन घाव किए। प्रतिमा से अग्नि स्फुलिंग निकलने पर क्षमायाचना कर स्वर्णमुद्राएँ भेंट कीं । शत्रुञ्जय से नीचे उतरने पर सम्राट ने सभी देवों से उत्कृष्ट अिनेश्वर देव को प्रमाणित किया । जिनप्रभसूरिजी के जीवन चरित्र और स्तवनों के अनुसार उन्होंने सभी तीर्थों की यात्रा की और स्तोत्र रचना तथा तीर्थों के ऐतिहासिक कल्प लिखे थे । जिनप्रभसूरिजी ने संघपति देवराज के संघ सहित सं० १३७६ जेठ बदी १३ को शत्रुंजय तथा ज्येष्ठ सुदी १५ को गिरनारजी की यात्रा की । सं० १३८२ में फलवद्वितीर्थ की यात्रा की थी ।
सं० १४१२ में बिहार निवासी महत्तियाण मण्डन के पुत्र ठक्कुर बच्छराज ने विपुलगिरि ( राजगृह) पर पार्श्वनाथ भगवान् का जिनालय निर्माण कराया और श्री भुवनहितोपाध्याय ने हरिप्रभ मोदमूर्ति, पुण्यप्रधानगण के साथ पूर्व देश में तीर्थयात्रा के हेतु विचर कर उक्त मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई जिसकी ३८ श्लोक की महत्वपूर्ण प्रशस्ति नाहरजी के लेखांक २३६ में प्रकाशित है ।
जैसलमेर के सर्वप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जिनालय के निर्माता रांका परिवार की एक प्रशस्ति जैसलमेर भंडार सूची क्रमांक ४२६ में प्रकाशित है जो संदेहविषौषधि शास्त्र की है । उसमें पारिवारिक स्त्री-पुरुषों के नामोल्लेख सह उनके विशिष्ट धर्मकार्यों का विवरण दिया है । जैसल के पुत्र आंबराज द्वारा जो संघ देरावर यात्रार्थ गया था वह श्रीजिनोदयसूरिजी के उपदेश से गया था । सं० १४२७ में जो प्रतिष्ठोत्सव हुआ वह उच्चानगर में हुआ था । सं० १४५४ में भावसुन्दर का दीक्षोत्सव किया । सं० १४४६ में शत्रुंजय-गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की। जिनराजसूरिजी द्वारा मालारोपण हुआ । धन्नाधामा ने ज्ञानपंचमी का उद्यापन किया और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पास बहिन सरस्वती ने दीक्षा ली जिसका नाम चारित्रसुन्दरी हुआ ।
सं० १४३० के पूर्व श्रीलोकहिताचार्यजी महाराज ने पूर्वं देश के तीर्थों की यात्रा करके अयोध्या में चातुर्मास किया । इस यात्रा में जो प्रतिष्ठा, व्रतग्रहणादि अनेक धर्मकृत्य हुए उनके विवरणात्मक एक महत्वपूर्ण पत्र उन्होंने श्रीजिनोदयसूरिजी महाराज के पास भेजा था, वह अभी तक कहीं से भी उपलब्ध नहीं हो सका है। सौभाग्य से उसके प्रत्युत्तर में श्रीजिनोदयसूरिजी द्वारा प्रेषित विज्ञप्ति - महालेख सम्प्राप्त हुआ है जिसमें उनके समाचारों का समर्थन और मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि स्थानों की तीर्थयात्रा व धर्मोन्नायक कार्यों का सविस्तार वर्णन है । इससे ज्ञात होता है कि श्री लोकहिताचार्यजी को मंत्रीदलीय ठ० चन्द्र के पुत्र ठ० राजदेव सुश्रावक ने मगधदेश के तीर्थों व ग्राम नगरों में विचरण कराया। उन्होंने विपुलाचल, वैभारगिरि आदि की यात्रा की और विचरण कर ब्राह्मणकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड भी पधारे। राजगृह के उपर्युक्त दोनों पहाड़ों पर उन्होंने बड़े विस्तार से निम्बादि की प्रतिष्ठा कराई थी । पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजयजी ने लिखा है कि यह पत्र बहुत ही सुन्दर और प्रौढ़ साहित्यिक भाषा में बाण, दण्डी और धनपाल जैसे महाकवियों द्वारा प्रयुक्त गद्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org