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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन ११. अन्तरिक्ष में भरी उड़ानें, पर तृण भर भी हर्ष न पाया । व्याकुल पंछी मोद खोजता, लौट नीड़ में सहसा आया । साधक प्रतिक्रमण से लौटो, अपनी आत्मा के स्वभाव में । हृदय सुधा से भर सकता है, मात्र वासना के अभाव में । कायोत्सर्ग 0 काया है माटी का पुतला, बनता और बिगड़ता रहता। पर मानव उस पर मोहित हो, आत्म-भाव आरोपित करता ।। देह रहे, पर देह भाव से, देहातीत-अवस्था पायें । जड़ को जड़; चेतन को चेतन, मन में भेद-ज्ञान यह लायें। कर अभ्यास कायोत्सर्ग का, आत्मध्यान के आलम्बन से । छूटे काया-भाव; मुक्ति का मार्ग प्रशस्त बनेगा जिससे ॥ 0 प्रत्याख्यान C कांक्षा की धारा में बहना, जीवन का है यह मुर्दापन । छोडो बहनाः सीखो तिरना. सागर-तट पाओगे जीवन ।। प्रत्याख्यान इसी को कहते, कांक्षाओं का निरोध होता। प्रवृत्तियाँ मर्यादित होतीं, कर्मास्रव का निरोध होता । प्रत्याख्यान कल्पतट बन्धन, पाप-बाढ़ से मुक्ति दिलाता। बाँध अधिक जितना दृढ़ होगा, उतना वह प्रवाह रुक जाता ॥ मूल में श्रद्धा हो तो विनय स्वतः ही प्रस्फुरित हो जाता है । आज अहं हमारे हृदय में इसलिए पुष्ट हो रहा है, क्योंकि हमारे हृदय में श्रद्धा के भाव नहीं हैं । आनन्दघन जी महाराज स्पष्ट कहते हैं शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व क्रिया करी । छार पर लिंपणो तेह जाणो । राख पर कितना ही हम गोबर से लेप करें, कहीं वह गोबर टिकाऊ हो सकता है। Do with faith, if you lack faith do nothing. श्रद्धा से कर्म करो, अगर श्रद्धा नहीं है तो वह कर्म निष्फल है । -आचार्य श्री जिनकान्तिसागर सूरि ('अमर भये ना मरेंगे' पुस्तक से) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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