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________________ जैन साधक के “षडावश्यक-कर्म" -महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सामायिक 0 सामायिक में चित्तवृत्ति की, समता हो, पापों से विरति । आत्म-रमण के सुन्दर पथ पर, यात्रा की है सहज स्वीकृति ॥ हम गृहस्थ चाहे साधक हैं, पर क्या सामायिक से युत हैं ? अगर नहीं इसकी धारा तो, कल्मष-सने, साधनाच्युत हैं । समता की पावनता से युत, अन्तर्-गंगा में अवगाहन । राग-द्वष का कलुष हटाकर, सामायिक यों करती पावन ।। स्तवन । तुम तो वीतराग हो भगवन् ! नहीं स्तवन से तुम्हें प्रयोजन । निन्दक हो चाहे तव पूजक, तेरा सब पर सदा एक मन । तेरा तदपि अनवरत सुमिरण, नर का पाप-कलंक हटाता। सुप्त चेतना जागृत होती, निज जिनत्व का बोध कराता ॥ अहंकार के हिममय टीले, तव स्तवन से ढह जाते हैं। वहाँ महल आदर्श गुणों के, अपना वैभव दिखलाते हैं। 0 वन्दन 0 संयम तथा गुणों से शोभित, उत्तम गुरुवर कहलाते हैं। उन सबको हो शत-शत वन्दन, मोक्ष-मार्ग जो दिखलाते हैं । गुरु-वन्दन से बढ़ते रहते, विद्या, ख्याति और अन्तर्बल, साधकजन गुरु पर आधृत, ज्यों भवनों को खम्बे का सम्बल । वन्दन-विनय धर्म की जड़ है, विनयवन्त की लघु अभिव्यक्ति । लघुता में बसती है प्रभुता, गुरु-अनुकम्पा से मिलती शक्ति ॥ प्रतिक्रमण पंख वासना के फैलाकर, पंछी उड़ता नील गगन में। सुख का सागर लहराता था, जब उसके ही अन्तर्मन में ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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