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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी इसी बात से यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सामान्य बालकों की शिशु-क्रीड़ाएँ सामान्य होती हैं और विशिष्टों की विशिष्ट । उस युग में सामान्य बालिकाओं की सामान्य-क्रीड़ा थीं-गुड़ियों से खेलना, उनका व्याह रचाना आदि । __ किन्तु हमारी चरित नायिका तो विशिष्ट थी, विशिष्ट संस्कार लेकर उन्होंने यह जन्म ग्रहण किया था । अतः उनकी शिशु-क्रीड़ाएँ भी विशिष्ट थीं। जिस आयु में लड़कियाँ गुड्डा-गड़ियों के ब्याह रचाया करती हैं, उस बचपन की आयु में आप कभी गणेशजी का चित्र लेकर उसकी पूजा करतीं तो कभी राम-लक्ष्मण-सीता का अभिनय करती। __आपकी सर्वाधिक प्रिय क्रीड़ाएँ थीं-मुख पर मुहपत्ति बाँधकर साध्वी का रूप रखना और छोटीछोटी कटोरियों के पात्रे बना रूमाल की झोली बनाकर बहरने जाना । कभी आप साधु के समान परदा लगाकर भोजन करने का अभिनय करतीं तो कभी ऊँचे आसन पर बैठकर अन्य बालिकाओं को धर्मोपदेश देती-वैसा ही जैसे तीर्थकर भगवान समवसरण में विराजमान होकर बारह प्रकार की धर्म-परिषदा को धर्म का उपदेश प्रदान करते हैं। इन क्रीड़ाओं में आपको बहुत रस आता। बाल-सुलभ क्रीड़ाओं के साथ ही सत्य को जानने की आपकी जिज्ञासा प्रबल थी । विनय-विवेक और तर्कबुद्धि का भी आप में निरन्तर विकास हो रहा था। माता अपनी पुत्री की इन क्रीड़ाओं को देखकर फूली न समाती, अपने मातृत्व को सफल-सार्थक हुआ समझती। ___ माता जैसे गौरवपूर्ण शब्द के लिए अंग्रेजी में 'मम्मी' शब्द है । अंग्रेजियत के रंग में रंगे बच्चे अपनी माता को मम्मी कहने लगे हैं, माताएँ भी इस सम्बोधन से बहुत खुश होती हैं और बच्चों को ऐसे बोलने के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं । लेकिन वे नहीं जानतीं कि 'मम्मी' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है। __'मम्मी' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'शव' (डैड बोडी) । मिस्र के पिरामिडों में हजारों साल पुराने जो मसाला लगे हुए शव रखे हैं, उन्हें मम्मी (mummy) कहते हैं । ऐसी ही एक मम्मी जयपुर के अजायबघर में भी रखी हुई है। साथ ही अब पिता को 'डैडी' कहने का भी फैशन चल पड़ा है। कुछ बच्चे तो डैडी को भी शोर्ट करके डैड कहते हैं । डैड का अर्थ होता है--मरा हुआ व्यक्ति । भारतीय जनजीवन में पश्चिम की संस्कृति की मूर्खतापूर्ण नकल की जाती है और ये नकलची अपने को 'मॉडर्न' या आधुनिक भाषा में 'सभ्य' सुसंस्कृत (कल्चर्ड) समझते हैं। वे नहीं जानते कि सभ्यता और संस्कृति अपने उच्च आदर्श और उदात्त विचार-संस्कारों की पोषक होनी चाहिए शोषक नहीं अस्तु धार्मिक संस्कार--यद्यपि आधुनिक माता-पिता इस प्रवाह में बहे जा रहे हैं। लेकिन हमारी चरितनायिका की माता मेहताबदेवी अलग ही प्रकार की थी। असली भारतीय नारी थीं, उनके संस्कारों में उच्च धार्मिकता थी, विचारशीलता भी महक थीं । वह बच्चे को-अपनी पुत्री को धार्मिक संस्कार देने में अपने मातृत्व का गौरव मानती थीं । वह पुत्री को अतिशय लाड-प्यार करती थीं, वात्सल्य लुटाती थीं किन्तु साथ ही अपने कर्तव्य का उन्हें भान भी था। जानती थीं-माता हजार शिक्षकों के बराबर होती है। और बच्चे की प्राथमिक शिक्षिका माँ ही होती है । जैसे संस्कार माता अपनी सन्तान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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