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________________ जैनधर्म विश्वधर्म बन सकता है -(स्व0) काका कालेलकर (मूर्धन्य गांधीवादी विचारक, चिन्तक तथा प्रसिद्ध लेखक) जैनधर्म का, और भगवान महावीर का, मैं भक्त हूँ (विद्वान नहीं)। जैन-समाज का प्रेमी हैं। जैनसमाज के पुरुषार्थ के प्रति मेरे मन में आदर है किन्तु एक सनातनी ब्राह्मण अपने को जैनी कैसे कहला सकता है ? तो भी, जैन समाज के कई अच्छे-अच्छे सेवक मेरे प्रति प्रेम और आत्मीयता रखते हैं और मेरे विचार सुनने के लिए उत्सुकता बताते हैं। इसीलिये मैंने चार शब्द बोलने का स्वीकार किया है। जो बातें आपको अच्छी लगे अपनाइये। आप लोगों में क्षमावृत्ति है। मतभेद सहन करने की आपको आदत है, इसलिये, चार शब्द बोलने की हिम्मत करूंगा। इस अपने बहभाषी, बहवंशी और बहुधर्मी देश में जैनियों के अनेकान्तवाद का स्वीकार और आचार सबको करना ही पड़ता है । इस देश में धर्म-समाजों के झगड़े कभी नहीं हुए सो नहीं, लेकिन कूल मिलाकर हमारा राष्ट्र सहजीवन जीने को और मतभेद सहन करने को काफी सीखा है। आज मुझे यही बात आपके सामने और आपके द्वारा भारत के सामने रखनी है कि; स्याद्वाद की दार्शनिक दृष्टि मान्य करके, अनेकान्तवाद के उदार हृदय की प्रेरणा से प्रेरित होकर ही, भारत के सामने अब अपने को और सारे विश्व को सर्व-समन्वय-वृत्ति सिखाने के दिन आ गये हैं। इस देश में अधिकांश लोकसंख्या सनातनी वृत्ति वाले हिन्दुओं की है। उन्हीं का प्रतिनिधि होने से, मैं अपने समाज की गलतियों को अच्छी तरह से समझ सका हैं, और उन गलतियों का स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा। मुझे डर है कि हमारी चन्द गलतियाँ जैन समाज में भी पायी जा सकती हैं। उन्हें पहचान कर उनसे मुक्त होने के लिये आपको भी अन्तर्मुख बनना पड़ेगा और सबके साथ युगानुकूल सुधार करने के लिये तैयार रहना पड़ेगा। हमारा समाज, हजारों बरसों से छोटी-छोटी जातियों में बँटा हुआ है और जातियों का मुख्य लक्षण है रोटी-बेटी व्यवहार की संकुचितता। इस प्रधान दोष के कारण इतना बड़ा समाज हजारों वर्ष गुलाम रहा, और महा मुश्किल से स्वतन्त्र होने के बाद भी यह संकुचितता हम छोड़ नहीं सके हैं। ऐसी संकुचितता न होने के कारण ही इस्लाम और ईसाई धर्म हमारे देश में फैल गये। हमारे यहाँ का वौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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