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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन धर्म, विश्वधर्म बनने की महत्त्वाकांक्षा धारण करके, श्रीलंका, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन, जापान आदि अनेक देशों में फैल गया।
हमारे देश में बौद्ध और जैन दोनों धर्म विश्वधर्म बनने की योग्यता रखते हैं। इनमें भी जैनधर्म की अपनी अहिंसा और समन्वयवृत्ति के कारण यह धर्म विश्वधर्म बनने की अधिक से अधिक योग्यता रखता है । लेकिन शायद भारत के वातावरण के कारण जैन समाज एक संकुचित जाति बन गया है । शायद रोटी-बेटी व्यवहार के बंधन के कारण यह संकुचितता आयी हो ।
मेरे इस निरीक्षण का और टीका का मुझे स्पष्टीकरण करना जरूरी है। दूसरों का हम पर बुरा असर होगा, इस डर को हृद से अधिक महत्त्व देकर, आपने अपने साधुओं के लिये भारत के बाहर न जाने का सख्त नियम बनाया था।
साधु लोगों का मुख्य कार्य धर्म का उत्तम पालन करना और उसका प्रचार करना, यही हो सकता है । तब वे भारत से बाहर जाकर प्रचार क्यों न करें ? वहीं तो प्रचार की अधिक जरूरत है।
_अपने बचपन में जब मैंने सुना कि जैन साधु भारत से बाहर जा नहीं सकते, आर गये तो वे भ्रष्ट माने जाते हैं तब मेरे जैसे लोग पूछने लगे---क्या जैनियों का अहिंसा धर्म केवल भारत के ही लिये है ? भारत के बाहर का मांसाहार और हिंसा जैनियों को मान्य है ? विश्वधर्म बनने के लिये बना हुआ धर्म, ऐसा लाचार कैसे बना ?
__भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ स्याद्वाद याने अनेकान्तवाद का जोरों से प्रचार किया। अहिंसा का वह अत्यन्त योग्य और सार्वभौम होने लायक रूप है। जैनधर्म : एक सार्वभौम जीवनदष्टि
अनेकान्तवाद पर आपके सामने व्याख्यान देने यहाँ नहीं आया हूँ। मुझे खास इतना ही कहना है कि सारी दुनिया में धर्म-धर्म के बीच जो ईर्ष्या, असूया और विरोध पाये जाते हैं उनकी जगह मानव- .. जाति के सब वंशों में, सब धर्मों में और संस्कृतियों में (ईर्ष्या, मत्सर और झगड़ा टालकर उनके बीच) समन्वय लाने का, आदान-प्रदान और निष्काम सेवा को स्थापन करने का, भारतमाता के मिशन का समर्थन महावीर स्वामी के अनेकान्तवाद में ही मैं देखता हूँ।
भारतमाता और समस्त मानव जाति भविष्य के लिए महावीर के उपदेशों द्वारा ही प्रतिस्पर्धा टालकर, कौटुम्बिक भाव और पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित कर सकेगी।
___ मैं यही कहने आया हूँ कि विश्व-समन्वय के द्वारा युद्धों को टालकर, धर्मों-धर्मों के बीच, गोरेकाले आदि वंशों के बीच जो प्रतिस्पर्धा अथवा होड़ चलती है, उसे टालकर विश्व-समन्वय याने कौटम्बिक भाव स्थापित करने के लिए ही विश्वव्यापी बनने के लायक जैनधर्म है।
ईसाई और इस्लामी धर्म-प्रचार से हम बोध लेंगे, लेकिन उनका पूरा अनुकरण नहीं करेंगे। उनके मिशन प्रतिस्पर्धा को मानते हैं और हम तो प्रतिस्पर्धा को हिसारूप पाप समझते हैं। हमें तो दुनिया के सब राष्ट्रों में, वंशों में, संस्कृतियों में और धर्मों में अनेकांतवादी विश्व समन्वय-मूलक कौटुम्बिक भाव को फैलाना है।
१. धर्म क्रांति परिषद् दिल्ली में १५ सितम्बर १६७४ को प्रदत्त भाषण से ।
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