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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन विशेष रूप से (किसी वस्तु को) प्राप्त करना। विनय, साधनामार्ग में रुकावट बनकर खड़े अप्रशस्त कर्मों को दूर करती है, और जिन-वचन के ज्ञान को प्राप्त कराती है। जिसका फल मोक्ष है अर्थात्, "विनय' में वह सब सामर्थ्य छिपी हुई है, जिसकी कामना करते हुए एक वैदिक ऋषि कहता है
असतो मा सद्गमय ! तमसो मा ज्योतिर्गमय !!
मृत्योर्मा अमृतं गमय !!! भारतीय संस्कृति का हर शास्त्र इस बात से सहमत है कि विद्या (ज्ञान) विनय की दात्री है। विनय से व्यक्ति में वह पात्रता आती है, जिससे वह धर्म को धारण करने लायक बनता है । और, धर्म को धारण करने से सुख प्राप्त होता है ।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आचार्य जिनसेन ने 'दया' को, कुन्दकुन्द ने 'सम्यग्दर्शन' को, और दशवकालिक आदि आगमों में 'विनय' को धर्म का मूल कहने से जो विरोध या विसंगति देखी जा रही है, वह अतात्त्विक है । इन आचार्यों की यह दृष्टिभिन्नता, विवाद का विषय नहीं है। बल्कि, यह समझने के लिए है कि चाहे तो हम 'दया' को परिपूर्ण बनाकर अपना चरित्र उत्तम बनाएँ, चाहें तो 'सम्यग्दृष्टि' के माध्यम से स्वयं को उन्नत बनाएँ, अथवा, 'विनय' के माध्यम से हम अपने आचार-विचार को इतना विशुद्ध पवित्र बनाएँ, जिससे, हम उस 'धर्म' तत्त्व के मर्म को समझ सकें। अपने चरित्र में उसे उतार सके। यह दृष्टिभेद देखकर विवाद में उलझना, धर्म के मर्म को छेदने जैसा होगा। क्योंकि, दया, सम्यक्त्व और विनय, तीनों में ही समान रूप से वह सामर्थ्य समाया हुआ है, जो इनके आराधक को धर्म के दरवाजे तक सहज ही पहुँचा सकता है।
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जत्थ य विलय विराओ कसाय चाओ गुणेसु अणुराओ । किरिआसु अप्पमाओ, सो धम्मो सिवसुहो लोएवाओ ।
जिसमें विषय से विराग, कषायों का त्याग, गुणों में प्रीति और क्रियाओं में अप्रमादीपन है, वह धर्म ही जगत् में मोक्ष सुख देने वाला है।
-प्राकृत सूक्ति कोष १४३ (महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जी)
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