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________________ ३४ धर्म साधना के तीन आधार : श्री देवेन्द्र मुनि सामान्य रूप से तो पूज्य पुरुषों का आदर करना, 'विनय' है। मोक्ष के साधनभूत जो सम्यगज्ञानादि हैं, उनमें, तथा उनके साधकों-गुरु आदि के प्रति भी, योग्य रीति से सत्कार आदि देना, तथा कषायों की निवृत्ति आदि करना, 'विनयसम्पन्नता' माना गया है। रत्नत्रय को धारण करने वाले व्यक्तियों के प्रति नम्रता धारण करने को, अधिक या उत्कृष्ट गुण वाले व्यक्तियों के प्रति नम्र-वृत्ति धारण करने को और इंद्रियों को नम्र करने को भी 'विनय' माना गया है । यह लक्षण, विनय के नम्रता अर्थ को लेकर किये गये हैं। किन्तु, कुछ आचार्यों ने, इस अर्थ से भिन्न अर्थ करते हुए, विनय के कुछ और ही लक्षण माने हैं । जिनमें से यह लक्षण मुख्य हैं : दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा जो विशुद्ध परिणाम होता है, वहीं उनकी विनय है । कर्ममल को जो नाश करता है, वह विनय है । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के अतिचार रूप जो अशुभ क्रियायें हैं, उनको हटाना विनय है। अपने निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है। और उसके आधारभूत पुरुषों-आचार्य आदि की भक्ति से उत्पन्न होने वाले जो परिणाम हैं, वे व्यावहारिक विनय हैं। इस सबसे अधिक स्पष्ट और सरल भाषा में विनय का वह लक्षण है :-मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र, तथा सम्यक्तप के दोषों को दूर करने के लिए, जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहा गया है । और, इस प्रयत्न करने में, अपनी शक्ति को न छिपाकर, शक्ति अनुसार भक्ति करते रहना, 'विनयाचार' है । इस समस्त विवेचना का आशय यह है कि 'विनय' शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक नी-नयने धातु से बना है। विनयतीति विनयः । यहाँ पर, 'विनयति' इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-दूर करना और १. पूज्येष्वादरो विनयः । -सर्वार्थसिद्धि, ६/२० २, सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कारः आदरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता। -राजवार्तिक, ६/२४/२ ३. रत्नत्रयवत्सु नीचवृत्तिविनयः । -धवला, १३/५-४-२६ ४. गुणाधिकेषु नीचैवृत्तिविनयः । --कषायपाहुड, १/१-१/६० ५. चारित्रसार, १४७ ६. दसणणाणचरिते सुविसुद्धौ जो हवेइ परिणामो । वारस भेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसि ॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४७ ७. यद्विनश्यत्यपनयति च कसित्तं निराहुरिह विनयम् । शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्य यंकृत्यः ।। -अनगार धर्मामतम्, ७/६१ ८. ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचाराः अशुभ क्रियाः । तासामपोहनं विनयः ।। -भगवती आराधना विजयोदया, ६/३२ ६. स्वकीय निश्चयरत्नत्रयशुद्धिनिश्चयविनयः । तदाधारपुरुयेषु भक्ति परिणामो व्यवहारविनयः । ---प्रवचन० -तात्प० वृ-२२५ १०. सुदृग्धीवृत्त तपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्ध'षु तु ।। -सागार धर्मामृतम्, ७/३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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