SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन ४५ सिन्दूर लगाने के लिए जाया करता था और बिना किसी आध्यात्मिक प्रभाव के मैं घर वापस आ जाया करता था । किन्तु जागरण के बाद मैं प्रायः प्रतिदिन सन्ध्या के समय वहाँ जाने लगा। मैं मन्दिर में अकेला जाता और शिव, मीनाक्षी या नटराज एवं तिरसठ सन्तों की मूर्तियों के समक्ष अविचल भाव से खड़ा हो जाता । मेरे हृदय - सागर में भावना की लहरें उठने लगतीं "" ---प्रायः मैं किसी भी प्रकार की प्रार्थना नहीं करता था, किन्तु निज की अतल गहराइयों में विद्यमान अमृतप्रवाह को अनन्त सत्ता की ओर प्रवाहित होने देता। मेरी आँखों में से आँसुओं की अजस्र धारा बहने लगती और आत्मा को उसमें सराबोर कर देती । ...... यह अनुभव मुझे प्राप्त हुआ, इसके पहले भव-भ्रमण से मुक्त होने की अथवा वासनाशून्य होने की कोई उत्कट इच्छा मुझमें नहीं उठी थी । मैंने ब्रह्म, संसार अथवा ऐसे किसी अन्य तत्त्व के विषय में कभी कुछ सुना नहीं था । बाद में तिरुवन्न- मलाई में जब मैंने विभु गीता और अन्य धार्मिक ग्रन्थ पढ़े, तब मुझे ज्ञात हुआ कि धार्मिक ग्रन्थों में उस अवस्था का विश्लेषण एवं नामोल्लेख है, जिसे मैं बिना किसी भी विशेषण या नाम के मुझ में स्फुरण रूप से अनुभव कर रहा था । " 1, 2 श्री रमण महर्षि के अनुभव की एक विलक्षणता यह थी कि उनका अनुभव क्षणिक नहीं था । सामान्य रूप से जब ऐसी अनुभूति मिलती है, तब साधक परमानन्द का अनुभव करता है, किन्तु यह आनन्द कुछ क्षण ही टिकता है। उन क्षणों के बाद वह पुनः सामान्य मनुष्य की भाँति संसार के द्वन्द्वों में उलझ जाता है, जबकि श्री रमण महर्षि ने बताया है कि इस अनुभव के बाद उन्हें आत्मा का अनुसन्धान निरन्तर रहने लगा था । ऐसा क्षणिक अनुभव मिलना भी कोई नगण्य प्राप्ति नहीं । इसका प्रभाव भी व्यक्ति के समग्र जीवन को छू जाता है । अनुभव प्राप्ति के समय की ध्येय साथ की तन्मयता, आनन्द, आश्चर्य, कृतकृत्यता तथा आत्मदर्शन द्वारा प्राप्त मोहविजय की खुमारी की कुछ झलक उपाध्याय श्री यशोविजय महाराज के निम्नलिखित उद्गारों में से पाठक प्राप्त कर पायेंगे हम मगन भये प्रभु ध्यान में, ध्यान में प्रभु ध्यान में । बिसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरासुत गुण-गान ॥१॥ हरिहर ब्रह्म पुरन्दर की रिद्धि, आवत नाहि कोई मान में । चिदानन्द की मौज मची है, समता - रस के पान में || २ || safer तू हि पिछाण्यो, मेरो जनम गयो सो अजान में । अब तो अधिकारी होई बैठे, प्रभुगुण अखय खजान में || ३ || . Arthur Osborne, 'Raman Maharshi And the Path of Self Knowledge., pp. 18-24 (Rider and Co. London and Jaico Publishing House, Mahatma Gandhiji Road, Bombay ). [हिन्दी अनुवाद : वेदराज वेदालंकार, 'रमण महर्षि एवं आत्मज्ञान का मार्ग', पृष्ठ ६-१२ (शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी अस्पताल रोड, आगरा ३ ) ] २. श्री रमण महर्षि ने 'अपने' के स्थान पर 'मेरे' शब्द का प्रयोग किया है। उन्हीं के शब्द यहाँ दिये हैं, इसलिए परिवर्तन नहीं किया, जैसे- 'मेरे अंगों को स्थिर रखकर लेट गया' के स्थान पर 'अपने अंगों को स्थिर करके लेट गया' होना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy