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________________ अनिर्वचनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी गई दीनता अब सबही हमारी, प्रभू ! तुझ समकित दान में । प्रभु गुण अनुभवरस के आगे, आवत नाहि कोउ मान में || ४ || कोउ के कान में । कोई शान में || ५ || जिनही पाया तिनहि छिपाया न कहे ताली लागे जब अनुभव की, तब समझे प्रभुगुण अनुभव चन्द्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । वाचक 'जश' कहे मोह महाअरि, जीत लियो है मैदान में ॥६॥ अनुभूति से आता हुआ मूल्यपरिवर्तन बहुधा प्रारम्भिक अनुभव थोड़े ही पलों का होता है— मानों बिजली की कौंध की भाँति एक क्षण में परमात्मा के दर्शन होते हैं और उसी प्रकार वे अलोप हो जाते हैं । किन्तु ये थोड़े-से ही क्षण व्यक्ति की मानसिक वृत्ति में क्रांति ला देते है । 'अंशे होय इहां अविनाशी, पुद्गल जाल तमाशी' - इस उक्ति में उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज अनुभवयुक्त व्यक्ति का चित्र स्पष्ट रूप से उभारते हैं । किसी भयानक सपने में भयभीत बने सोये हुए व्यक्ति की मानसिक अवस्था एवं नींद खुल जाने पर भय रहित होकर स्वयं में हल्कापन अनुभव करते उस व्यक्ति की मानसिक अवस्था में जो अन्तर है, ठीक वही अन्तर अनुभव प्राप्त करने वाले व्यक्ति की, अनुभव के पूर्व की एवं अनुभव के बाद की मानसिक स्थिति में पड़ जाता है । नींद से जगे हुए व्यक्ति को यह ज्ञान हो जाता है कि स्वप्न की सृष्टि मात्र अपना मानसिक भ्रम था, यह होते ही उसके मन में स्वप्न की घटना का कोई महत्त्व नहीं रहता । इसी प्रकार आत्मा ज्ञान-आनन्दमय शाश्वत स्वरूप की स्वानुभवसिद्ध प्रतीति मिलते ही भव की भ्रांति मिट जाती है एवं बाह्य जगत स्वप्न के तमाशे जैसा ही निस्सार प्रतीत होता है । शक्ल अलग : 'बिर। दरी' एक Jain Education International अनुभव में गहराई एवं स्थायित्व का तारतम्य होता है । " किसी का अनुभव गहरा एवं स्थायी होता है, तो किसी का क्षणजीवी होता है । आत्मानुभव मिलने के बाद किसी के बाह्य जीवन में जबर्दस्त परिवर्तन आता है, तो किसी का बाह्य जीवन पहले की तरह ही व्यतीत होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । अनुभव के बाद व्यक्ति के बाह्य जीवन में कोई परिवर्तन आये या न आये, किन्तु उसका आन्तरकलेवर अवश्य बदल जाता है; जीवन एवं जगत विषयक उसकी दृष्टि में तो जड़मूल परिवर्तन होता ही है, क्षणिक अनुभव भी व्यक्ति के मानस पर अपना प्रभाव अचूक छोड़ जाता है । अनुभव प्राप्त व्यक्ति अनुभव 'पूर्व की और उसके बाद की अपनी दृष्टि में इतना भारी फर्क अनुभव करता है कि उसने मानो नया ही जन्म लिया हो, ऐसा अनुभव करता है । यह नहीं कि अनुभव ध्यान के समय ही प्राप्त हो; हो सकता है कि कोई भव्य हृदयस्पर्शी काव्य, उच्च संगीत या ज्ञानियों के किसी वचन का मनन करते हुए चित्त स्तब्ध हो जाए, देह का भान जाता रहे एवं आत्मज्योति झिलमिला उठे। ऐसा भी होता है कि मनुष्य किसी भयानक विपत्ति में फँसा हुआ हो १. योगशास्त्र, प्रकाश - १२, श्लोक १३ । इस प्रकार का एक प्रसिद्ध उदाहरण अरुणाचल, तिरुवन्नमलाई, तमिलनाडु (दक्षिण भारत ) के आत्मनिष्ठ संत श्री रमण महर्षि का है । यह असाधारण अनुभूति उन्हें अचानक ही कैसे मिली, यह वृत्तान्त आप पहले पढ चुके हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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