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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन निराशा, विषाद एवं उदासीनता से वह बेतरह घिर गया हो-उस दरम्यान यह अनुभव अकस्मात् आये, एकाएक निराशा, विषाद, उदासीनता इत्यादि सभी हट जाएँ एवं वह अपनी परिस्थिति का निर्लेप साक्षी रह जाए। जन्मान्तर की साधनाओं के संस्कार जाग जाने पर, किसी को इस जीवन के कुछ भी प्रयत्न, बिना किसी पूर्व तैयारी अथवा बिना किसी बाह्य निमित्त के ही तत्त्वदर्शन की प्राप्ति हो जाती है । कई बार तो जिसका बाह्य जीवन पाप एवं अनाचार के पंकिल मार्ग में अग्रसर रहा हो, ऐसे व्यक्ति को भी, इस तरह एकाएक ही आत्मानुभव मिलता है एवं उसके जीवन की दिशा बदल जाती है, और भयंकर गुनहगार महान सन्त बन जाता है। चाहे जिस प्रकार से अनुभव मिला हो, किन्तु सभी अनुभवियों की बिरादरी एक ही है। देश, काल एवं मानव द्वारा रचित जाति, रंग या मत-पंथों के बाह्य भेदों को बींध कर वे एक दूसरे की अनुभव को भाषा को पहचान लेते हैं । किसी उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए, तलहटियों से भिन्न-भिन्न मार्गों से जाने वाले यात्री; उदाहरणार्थ कदम्बगिरि की ओर से, घेटी की तलहटी की ओर से अथवा पालीताणा के पास की तलहटी से सिद्धगिरि पर चलने वाले-ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों वे एक दूसरे के करीब आते-जाते हैं, एवं शिखर पर पहुँचने पर तो सभी एक ही स्थल पर आकर मिल जाते हैं, ठीक वैसा ही आध्यात्मिक पथ पर भी होता है । जिन-जिन को आत्मतत्त्व का अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होता है, उनउन में एक मूलभूत साधर्म्य आ जाता है । अपनी तात्त्विक सत्ता देह एवं जगत से परे है और इस सत्ता में अवस्थित होना यही मुक्ति है-यह बात प्रत्येक 'अनुभवी' के अन्तर् मे बस जाती है । अतः परिभाषा के भेद को छोड़कर, वे एक-दूसरे के मन्तव्यों में रहा हुआ साम्य परख सकते हैं। इससे कोई अदृश्य तन्तु इनके बीच बन्धुभावना की गाँठ बाँध देता है । अपनी स्वायत्तसत्ता के अनुभव के परिणामस्वरूप जीवनदृष्टि का प्रभाव प्रायः उनके समग्र जीवन-व्यवहार पर पड़ता है। नये उन्नत आदर्शों के क्षितिज उनके समक्ष खुलते हैं । दृष्टि की विशालता एवं आशावादी जीवनदृष्टि अनुभवशील व्यक्ति का प्रमुख लक्षण बन जाता है। उनकी दृष्टि छिछली न रहकर तत्त्वग्राही बन जाती है, बाह्य प्रदर्शनों से भरमाती नहीं, और न वह अंधानुकरण करती है । वह धर्म, नीति, देश-प्रेम, जीवन-पद्धति आदि किसी भी बात-विषयक प्रचलित मान्यताओं और व्यवहारों को अपनी विवेक-बुद्धि से कसकर देखती है। शास्त्रवचनों के रहस्य को भी वह शीघ्र ग्रहण कर पाती है । निरर्थक वाद-विवादों में उसे रस नहीं रहता । अतः अन्य लोग जहाँ उग्र चर्चाओं में उलझ जाते हैं, वहाँ वह शान्त रहता है। आत्मज्ञान की उषा जैसे सूर्योदय से पहले रात्रि के अन्धकार की गहनता को चीरती हुई उषा आती है, वैसे ही आध्यात्मिक साधकों के जीवन में, अनुभव के आगमन से पहले बहिरात्म-भाव को मन्द करती हुई, आत्म ज्ञान की प्रभा फैलती है । इस झलमल प्रकाश में भी मुमुक्ष को स्वरूप का कुछ भान जरूर होता है, परन्तु जब अनुभव के द्वारा उसे स्वरूप की पक्की प्रतीति मिलती है, तभी उसकी बहिरात्मदृष्टि पूर्ण रूप से निराधार बनकर हटती है एवं अन्तर्दृष्टि खिल उठती है । कहा गया है ज्ञानतणी चांदरणी प्रगटी तब गई कुमति रयणी रे । अकल अनुभव उद्योत हुओ जब सकल कला पिछाणी रे ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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