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________________ अनिवर्चनीय आनन्द का स्रोत : स्वानुभूति : मुनिश्री अमरेन्द्रविजय जी अब नहीं रहेगा' एवं मैंने एकाएक मृत्यु का अभिनय करना शुरू किया। मेरे अंगों को स्थिर रखकर मैं भूमि पर लेट गया । श्वास को मैंने रोक लिया और अपने ओंठ कसकर बन्द कर लिये, ताकि मैं कोई भी आवाज अपने मुख से न निकाल सकू । शव का मैंने हूबहू अनुकरण किया, जिससे इस खोज के अन्तस्तल तक मैं पहुँच सकू । इसके बाद मैं स्वयं विचारने लगा कि 'मेरा यह शरीर मृत है, लोग इसे उठाकर श्मशान-घाट ले जाएंगे और इसे जला देंगे, तब यह राख हो जाएगा। किन्तु क्या इस शरीर की मृत्यु से मेरी मृत्यु हो जाएगी ? क्या मैं शरीर हूँ ? मेरा शरीर मौन और जड़ पड़ा है, किन्तु मैं मेरे व्यक्तित्व को पूर्णरूप से अनुभव कर रहा हूँ और मेरे भीतर उठती 'मैं' की आवाज को भी मैं अनुभव कर रहा हूँ। अर्थात् मैं शरीर से परे आत्मा हूँ। शरीर की मृत्यु हो जाती है, किन्तु आत्मा को मृत्यु स्पर्श तक भी नहीं कर सकती, अर्थात् 'मैं' अमर आत्मा हूँ।' यह कोई शुष्क विचार-प्रक्रिया नहीं थी, जीवित सत्य की भाँति अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक ये विचार मेरे मन में बिजली की तरह कौंध गये । बिना किसी विचार के मुझे सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन हो गया। 'अहं' ही वास्तविक सत्ता थी, और शरीर से सम्बद्ध समस्त हलचल इस 'अहं' पर ही केन्द्रित थी। मृत्यु का भय सदा के लिए नष्ट हो चुका था। इसके आगे आत्मकेन्द्रित ध्यान अविच्छिन्न रूप से जारी रहा। ___ "इस नई चेतना के परिणाम मेरे जीवन में दृष्टिगोचर होने लगे। सर्वप्रथम मित्रों और सम्बन्धियों में रस लेना मैंने बन्द कर दिया । मैं मेरा अध्ययन यांत्रिक भाव से करने लगा। मेरे सम्बन्धियों को सन्तोष देने के लिए मैं पुस्तक खोलकर बैठ जाता, किन्तु वस्तुस्थिति यह थी कि मेरा मन पुस्तक में जरा भी नहीं लगता था । लोगों के साथ के व्यवहार में मैं अत्यन्त विनम्र एवं शान्त बन गया। पहले अगर मुझे दूसरे लड़कों के बनिस्बत अधिक काम दिया जाता था तो मैं इसकी शिकायत किया करता था और अगर कोई लड़का मुझे परेशान करता तो मैं उसका बदला लेता । कोई लड़का मेरे साथ उच्छृङ्खल बरताव करने का अथवा मेरी मजाक उड़ाने का साहस नहीं करता था। अब सब कुछ बदल चुका था । मझे जो भी काम सौंपा जाता, मैं उसे खुशी से करता। मुझे चाहे जितना परेशान किया जाता, मैं उसे शान्ति से सहन कर लेता। विक्षोभ एवं बदला लेने की वृत्ति वाले मेरे अहं का लोप हो चुका था । मित्रों के साथ बाहर खेलने जाना मैंने बन्द कर दिया और एकान्त पसन्द करने लगा। अधिकतर ध्यानावस्था में बैठ जाता और आत्मा में लीन हो जाता ।' मेरा बड़ा भाई मेरी मजाक उड़ाया करता था और व्यंग्य से 'साधु' अथवा 'योगी' कहकर मुझे बुलाता, एवं प्राचीन ऋषियों की तरह वन में चले जाने की सलाह दिया करता था। मुझमें दूसरा परिवर्तन यह हुआ कि भोजन के सम्बन्ध में मेरी कोई रुचिअरुचि नहीं रही। जो कुछ भी मेरे सम्मुख परोसा जाता-स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट, अच्छा या बुरामैं उसे उदासीन भाव से निगल जाता। "एक और परिवर्तन मुझमें यह हुआ कि मीनाक्षी के मन्दिर के प्रति मेरी धारणा बदल गई। पहले मैं मन्दिर में कभी-कभी मित्रों के साथ मूर्तियों के दर्शन करने तथा मस्तक पर पवित्र विभूति एवं १. इस घटना के करीब दो महीने बाद घर का त्याग करके वे अरुणाचल गये। वहां ध्यान में बाहर का कोई विक्षेप न रहे, इसलिए एकान्त स्थान ढूढ़ते हुए मन्दिर का एक तलघर उनकी नजरों में चढ़ा, उसमें घुसकर बैठ गये । इस वीरान तलघर में जीव-जन्तुओं ने उनकी जंघाओं को काट खाया । उनमें जख्म हो गये, तथा उन से रक्त एवं पीव बहने लगे। यह होते हुए भी उन्हें इसका जरा-सा भी भान न हुआ। इससे यह प्रतीत होगा कि उस समय वे देहभावना से परे होकर आत्मा में कितने लीन रहते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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