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खण्ड १ | जीवन ज्योति व्यक्तित्व प्रभाव का सही आकलन हो जाता है। गुरु जाना भी जाता है अपने शिष्यों के द्वारा ' इस 'अभिनन्दन ग्रन्थ' सम्पादन के कार्य हेतु मेरा इनसे कई बार मिलना हुआ। विचार-विमर्श हुआ, तर्कवितर्क हुआ तथा मैंने पाया कि गुरुवर्यानुरूप ही आप अपने कर्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहने वाली कर्मठ वैरागिनी हैं । शशिप्रभाजी एवं प्रवर्तिनीश्रीजी की स्नेह पोषिता अन्य शिष्यायें इस साधना उपवन का सुरभित सौरभ हैं । महिलाओं में जागृति एवं चेतना का यह पावन आश्रम है।।
___ जहाँ सज्जनश्रीजी अपने मृदुल स्नेह एवं कठोर अनुशासन का समन्वय कर स्वर्ण का कुन्दन बनाती हैं । इस पंचभूत शरीर में त्याग, तपस्या, करुणा का अमृत भरती हैं। धन्य हैं ऐसी गुरुवर्या एवं धन्य हैं उनकी साध्वीवृन्द जो इक्कसवीं सदी में प्रवेशातुर निपट भौतिक उपलब्धि में अनुरक्त संसार के समक्ष अपरिग्रह, इन्द्रियनिग्रह एवं अध्यात्म की पताका लिये चुनौती देता दृढ़ता से महावीर वाणी में आस्था लिये खड़ा है।
अनेक रोगों से जर्जरित, विषयाक्रांत समाज के समक्ष ८१ वर्षीया प्रवर्तिनी जी आत्म-साधना का प्रभाव लिये स्वस्थ, प्रसन्न, अप्रमत्त भाव से 'स्फूर्त्य चेतना सी' लगती है जिनका 'चेतन' जरा द्वारा, रोग द्वारा, एषणाओं द्वारा पराजित नहीं किया जा सका; प्रत्युत इन्होंने ही अपना दास बनाकर रख दिया। पूर्ण सम्पन्न परिवाज में जन्मी, सम्पन्न परिवार में ही विवाहित हुई किन्तु सम्पन्नता के व्यमोह को स्वीकार नहीं कर सकी। बाल्यकाल से ही पिताश्री सेठ गुलाबचन्द जी की धर्म निष्ठा एवं तत्व निष्ठा ने आपके मेधावी कुशाग्र मन मस्तिष्क को प्रभावित कर लिया था। वही प्रभाव निरन्तर मन को प्रेरित करता रहा और एक दिन गार्हस्थ्य और मोह बन्धनों को भटकर कर आप जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ में दीक्षित हो गईं। जैसे भगवान महावीर और भगवान बुद्ध बुद्धत्व को प्राप्त करने की दिशा में दृढ़चित्त हो अग्रसर हुए थे । मोह भंग होते ही मोहावृत संसार से परे हो गये थे। फिर मुड़कर पीछे नहीं देखा । संसार के प्रत्येक प्राणी में ऐसा वैराग्य भाव कई बार उत्पन्न होता है किन्तु इस भाव को प्राणी जकड़ कर पकड़ नहीं पाता जो पकड़ता है वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लेता है, वह बुद्ध हो जाता है। ऐसे ही पथ की अनुगामिनी है।
सैंतालीस वर्षों की अनवरत चली आ रही साधना यात्रा ने आपको पूर्णरूपेण आत्मकेन्द्रित बना दिया है। आपके सान्निध्य में जो भी आता है वह कुछ न कुछ अलौकिक भाव ही पाता है। जीवन के “वास्तविक उद्देश्य" का भाव । शरीर सुख से परे "आत्म-सुख" का भाव । अपरिग्रह, अस्तेय एवं अचौर्य का भाव । विश्व बन्धुत्व का भाव ?
सम्प्रदाय एवं धार्मिक संकुलता से दूर आप जैन एवं जैनेतर समाज की मार्गदर्शिका हैं।
ऐसी विदुषीवर्या प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी का "अभिनन्दन समारोह" हो रहा है तथा इस अवसर पर "अभिनन्दन ग्रंथ" का भी प्रकाशन हो रहा है । अतः ऐसे पावन कार्य संपादन करने वाले जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ तथा लूणिया परिवार के साधुवाद का भी मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जिन्होंने वन्दनीय का अभिनन्दन कर निस्संदेह प्रशसनीय एवं स्तुत्य कार्य किया है।
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