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________________ ३ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन - अहं के आदि में अकार का प्रयोग हुआ है और अन्त में "ह" आया है । "र" इन दोनों के मध्य ऊर्ध्वगामी बना है। अकार अपने आप में बड़ा प्रभावापन्न अक्षर माना गया है । गीता में योगेश्वर कृष्ण ने तो यहाँ तक कह दिया है | ‘ স মকাৰীচলি’ -गीता १०/३३ हे अर्जुन ! अक्षरों में मैं अकार हूँ। अहं की व्याख्या करते हुए प्राचीन आचार्य कहते हैं अकारः प्रथमं तत्वं, सर्वभूताभयप्रदम् । कण्ठदेशं समाश्रित्य, वर्तते सर्वदेहिनाम् ॥ सर्वात्मकं सर्वगतं, सर्वव्यापि सनातनम् । सर्वसत्त्वाश्रितं दिव्यं, वितित-पापनाशनम् ।। सर्वेषामपि वर्णानां, स्वराणां च धुरिस्थितम् । ध्यंजनेषु च सर्वेषु, ककारादिषु संस्थितम् ॥ अकार प्रथम तत्त्व है । सब भूतों को अभय प्रदान करने वाला है । यह सभी देहधारियों के कण्ठदेश को आश्रित कर विद्यमान है। व्याकरणकार भी कहते हैं-"अकुहविसर्गा कण्ठयाः" अकार का उच्चारण स्थान कण्ठ है । यह सर्वात्म, सर्वगत, सर्वव्यापि सनातन तत्त्व माना गया है। यह समस्त सत्त्वों पर, सद्गुणों पर आश्रित, दिव्य, सुचिन्तित तथा पापनाशक है । सभी वर्गों में, स्वरों में यह अग्रसर हैप्रथम स्थान पर है । 'क्' आदि सभी व्यंजनों में सर्वप्रथम यही प्राण रूप में वर्तमान रहता है। तन्त्रमन्त्रादि प्रयोगों में, समग्र विद्याओं में इसका विशिष्ट स्थान है। ___ अर्ह का मध्याक्षर "र" अग्नि-बीज है। वैदिक वाङमय में उल्लेख है-"बीजं वन्हि ध्यायेत्” । “रकार" को अग्नि-तत्त्व का प्रतीक माना गया है । मन्त्र-वेत्ता आचार्य कहते हैं दीप्तपावकसंकाशं, सर्वेषां शिरसि स्थितम् । विधिना मंत्रिणा ध्यातं, त्रिवर्गफलदं स्मृतम् ॥ यस्य देवाभिधानस्य, मध्ये ह्येतद् व्यवस्थितम् । पुष्यं पवित्रं मांगल्यं, पूज्योऽसौ तत्वदशिभिः ।। "र" कार अग्नि के समान दीप्त तथा सब अक्षरों के सिर पर स्थित है। जो विधिवत् इसका ध्यान करता है, त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम रूप फल प्राप्त कर लेता है । जिस देवता के नाम में, यह मध्य में स्थित हो जाता है, तत्त्वशियों का कथन है, यह पूजनीय “रकार" तदनुरूप पुण्य, पवित्र, मांगलिक सिद्ध होता है । इसीलिए राम, हरि, हर, वीर, पार्श्व आदि शक्तिसम्पन्न नामों में "र" का अस्तित्व विद्यमान है। अन्त में प्रयुक्त "ह" वर्ण आकाश तत्त्व का सूचक है । आचार्य कहते हैं-- सर्वेषामपि भूतानां नित्यं यो हदि संस्थितः । पर्यन्ते सर्ववर्णानां. सकलो निष्कलस्तया ॥ . हकारो हि महाप्राणः, लोकशास्त्रेषु पूजितः । विधिना मंत्रिणा ध्यातः, सर्वकार्यप्रसाधकः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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