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________________ अहं का विराट् स्वरूप : संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि वैयाकरणों की दृष्टि में हकार को महाप्राण के रूप में स्वीकार किया गया है । यह सभी भूतों के हृदय में स्थित है तथा सभी वर्गों में सकल होता हुआ निष्कल रूप में व्यवस्थित है। यदि कोई साधक इसका विधिपूर्वक ध्यान करता है तो यह सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला है। "अह" में वर्गों का अद्भुत संयोजन हुआ है। आदि में अकार और अन्त में हकार का समायोजन अपने आप में अनूठा है । आपने ध्यान दिया होगा, ट्रेन में सबसे आगे इंजन लगा होता है । चालक वहीं से सारी गति नियन्त्रित करता है। किन्तु अन्त में जो गार्ड का डिब्बा लगा होता है, उसका भी गतिनियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दोनों का दायित्व लगभग समान होता है । यहाँ अन्त में हकार की स्थिति गार्ड-परिरक्षक जैसी है । ह के ऊपर लगा चन्द्र बिन्दु ( ) भी अनुपम शक्तिस्रोत है । मन्त्राक्षरों में प्रायः चन्द्र-बिन्दु की योजना की जाती है, जो अलौकिक नाद उत्पन्न करता हुआ बीजाक्षरों को शक्ति प्रदान करता है । इसलिए कहा गया है त्रीण्यक्षराणि बिन्दुश्च, यस्य देवस्य नाम वै। स सर्वज्ञः समाख्यातः, अहं तदितिपंडितः॥ अहं की एक दूसरी व्याख्या और की गई है, जिसके अनुसार इसमें अकार से विष्णु, रकार से ब्रह्मा तथा हकार से हर का समावेश है। लिखा है अकारेणोच्यते विष्णुः, रेफे ब्रह्माव्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तः, तदन्ते परमं पदम् ।। यह अर्ह शब्द की नियुक्ति है । वास्तव में यह बहुत प्रभावशाली बीजाक्षर है । कालिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित “सिद्धहेम शब्दानुशासन" व्याकरण का तो पहला सूत्र ही अर्ह है। एक अन्य दृष्टिकोण ने भी अर्ह शब्द का संयोजन विशेष महत्वपूर्ण है। संस्कृत में अहं धातु पूजा के अर्थ में है । कहने का आशय ! है-पूजनीय-पूजायोग्य अहं का उपासक नरेन्द्रों, देवेन्द्रों द्वारा पूजनीय बन जाता है । एक दूसरा अर्थ है-अर्ह-योग्य होना-ज्ञान-दर्शन में योग्य बन जाना, सक्षम हो जाना । जैसे ज्ञानार्ह, दर्शनार्ह इत्यादि । अरिहन्त देव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र तथा अनन्तबल-इन चार अनन्तताओं के योग्य बन गये हैं। सारी सीमाएँ लाँघकर वे असीम/अपार बन गये हैं । साधक का ध्यान जब सर्वथा अन्तरमुखी बन जाता है तो वह सिद्धिगमन की अर्हता प्राप्त कर लेता है, तद्योग्य बन जाता है। ध्यान की गहराई में उतरे बिना विशिष्ट योग्यता प्राप्त नहीं हो सकती । अहं शब्द अपनी योग्यता उभारने का सूचक है। OC पीत्वाज्ञानामृतं भुक्त्वा क्रिया-सुरलता फलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य तृप्ति याति परां मुनिम् ॥ ज्ञानरूपी अमृत का पानकर और क्रियारूपी कल्पवृक्ष के फल खाकर समतारूपी ताम्बूल चखकर साधु परम तृप्ति का अनुभव करता है । -ज्ञानसार १/७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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